भगवान कपिल -देवहुति संवाद : भक्ति का स्वरूप क्या है ?
देवहुति बोली : भूमन् ! प्रभो ! इन दुष्ट इन्द्रियों की विषय लालसा से मैं बहुत ऊब गयी हूँ और इनकी इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई हूँ । अब आपकी कृपा से मेरी जन्म परंपरा समाप्त हो चुकी है, इसी से इस दुस्तर अज्ञानान्धकार से पार लगाने के लिए सुंदर नेत्ररूप आप प्राप्त हुए हैं । आप संपूर्ण जीवों के स्वामी भगवान आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकार से अंधे पुरुषों के लिए नेत्रस्वरूप सूर्य की भाँति उदित हुए हैं । देव ! इन देह-गेह आदि में जो मैं-मेरेपन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है, अतः अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये । आप अपने भक्तों के संसाररूप वृक्ष के लिए कुठार के समान है, मैं प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की शरण में आई हूँ । आप भागवतधर्म जाननेवालों में सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ ।
भगवान कपिल ने कहा - माता ! यह मेरा निश्चय है की अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यंतिक कल्याण का मुख्य साधन है, जहाँ दुःख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है । साध्वि ! सब अंगों से सम्पन्न उस योग का मैंने पहले नारदादि ऋषियों के सामने, उनकी सुनने की इच्छा होने पर, वर्णन किया था । वही अब मैं आपको सुनाता हूँ ।
इस जीव के बंधन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है । विषयों में आसक्त होने पर वह बंधन का हेतु होता है और परमात्मा मे अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है । जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होने वाले काम-लोभ आदि विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दुःख से छूटकर सम अवस्था में आ जाता है । तब जीव अपने ज्ञान-वैराग्य और भक्ति से युक्त हृदय से आत्मा को प्रकृति से परे, एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित,स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखंड और उदासीन (सुख-दुःखशून्य) देखता है तथा प्रकृति को शक्तिहीन अनुभव करता है । योगियों के लिए भगवतप्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मंगलमय मार्ग नहीं है । विवेकीजन संग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बंधन मानते है,किन्तु वही संग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों के प्रति हो जाती है, तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है
जो लोग सहनशील, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितू, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्त, सरलस्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करनेवाले होते हैं, जो मुझमें अनन्यभाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिए सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-संबंधियों को भी त्याग देते हैं और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाए रहते है- उन भक्तों को संसार के तरह-तरह के ताप कोई कष्ट नहीं पहुंचाते हैं । साध्वि !ऐसे-ऐसे सर्वसंगपरित्यागी महापुरुष ही साधू होते हैं,तुम्हें उन्ही के संग की इच्छा करनी चाहिए, क्योंकि वे आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को हर लेनेवाले हैं । सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रमों का यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा हृदय और कानों को प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं । उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्षमार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होगा । फिर मेरी सृष्टि आदि लीलाओं का चिंतन करने से प्राप्त हुई भक्ति के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक सुखों में वैराग्य हो जाने पर मनुष्य सावधानतापूर्वक योग के भक्तिप्रधान सरल उपायों से समाहित होकर मनोनिग्रह के लिए यत्न करेगा । इस प्रकार प्रकृति के गुणों से उत्पन्न हुए शब्दादि विषयों का त्याग करने से, वैराग्ययुक्त ज्ञान से,योगसे और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्ति से मनुष्य मुझ अपने अंतरात्मा को इस देह में ही प्राप्त कर लेता है ।
देवहुति ने कहा - भगवन ! आपकी समुचित भक्ति का स्वरूप क्या है? और मेरी-जैसी अबलाओं के लिए कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहज में ही आपके निर्वाण पद को प्राप्त कर सकूँ ? निर्वाणस्वरूप प्रभो ! जिसके द्वारा तत्वज्ञान होता है और जो लक्ष्य को बेधनेवाले बाण के समान भगवान की प्राप्ति करानेवाला है, वह आपका कहा हुआ योग कैसा है और उसके कितने अंग हैं ? हरे ! यह सब आप मुझे इस प्रकार समझाइए जिससे कि आपकी कृपा से मैं मंदमति स्त्रीजाति भी इस दुर्बोध विषय को सुगमता से समझ सकूँ ।
श्रीभगवान ने कहा - माता ! जिसका चित्त एकमात्र भगवान में ही लग गया है, ऐसे मनुष्य की वेदविहित कर्मों मे लगी हुई तथा विषयों का ज्ञान करानेवाली (कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय-दोनों प्रकार की) इन्द्रियों की जो सत्वमूर्ति श्रीहरि के प्रति स्वाभाविकी प्रवृत्ति है, वही भगवान की अहैतुकी भक्ति है । यह मुक्ति से भी बढ़कर है, क्योंकि जठरानल जिस प्रकार खाये हुए अन्न को पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंस्कारों के भंडाररूप लिंगशरीर को तत्काल भस्म कर देती है । मेरी चरणसेवा में प्रीति रखनेवाले और मेरी ही प्रसन्नता के लिए समस्त कार्य करनेवाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक दूसरे से मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमों की चर्चा किया करते है, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते । माँ ! वे साधुजन अरुण-नयन एवं मनोहर मुखारविंद से युक्त मेरे परम सुंदर और वरदायक दिव्य रूपों की झांकी करते है और उनके साथ सप्रेम संभाषण भी करते है, जिसके लिए बड़े-बड़ेतपस्वी भी लालायित रहते है । दर्शनीय अंग-प्रत्यंग, उदार हर-विलास, मनोहर चितवन और सुमधुर वाणी से युक्त मेरे उन रूपों की माधुरी में उनका मन और इंद्रियाँ फँस जाती है । ऐसी मेरी भक्ति न चाहने पर भी उन्हे परमपद की प्राप्ति करा देती है । अविद्या की निवृत्ति हो जाने पर यद्यपि वे मुझ मायापति के सत्यादि लोकों की भोगसंपत्ति, भक्ति की प्रवृत्ति के पश्चात स्वयं प्राप्त होने वाली अष्टसिद्धि अथवा बैकुंठलोक के भगवदीय ऐश्वर्य की भी इच्छा नहीं करते,तथापि मेरे धाम में पहुँचने पर उन्हे ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती है । जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय,आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, सुहृद और इष्टदेव हूँ - वे मेरे ही आश्रय में रहने वाले भक्तजन शांतिमय बैकुंठधाम में पहुँचकर किसी प्रकार भी इन दिव्य भोगों से रहित नहीं होते और न उन्हे मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है ।
माताजी ! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जानेवाले वासनामय लिंगदेह को तथा शरीर से संबंध रखनेवाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ है, उन सबको और अनयनी संग्रहों को भी छोडकर अनन्य भक्ति से सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं - उन्हे मैं मृत्युरूप संसारसागर से पार कर देता हूँ । मैं साक्षात भगवान हूँ, प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियों का आत्मा हूँ, मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मृत्युरूप महाभय से छुटकारा नहीं मिल सकता । मेरे भय से यह वायु चलती है, मेर भय से सूर्य तपता है, मेरे भय से इंद्र वर्षा करता और अग्नि जलाती है तथा मेरे ही भय से मृत्यु अपने कार्य में प्रवृत्त होता हिय । योगीजन ज्ञान वैराग्य युक्त भक्तियोग के द्वारा शांति प्राप्त करने के लिए मेरे निर्भय चरणकमलों का आश्रय लेते है । संसार में मनुष्य के लिए सबसे बड़ी कल्याणप्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोग के द्वारा मुझमे लगकर स्थिर हो जाय ।
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