भगवान सूर्य किस देवता का ध्यान एवं पूजन करते हैं?
ब्रह्माजी बोले - याज्ञवल्क्य! एक बार मैंने भगवान सूर्यनारायण की स्तुति की । उस स्तुति से प्रसन्न होकर वे प्रत्यक्ष प्रकट हुए, तब मैंने उनसे पूछा कि महाराज ! वेद-वेदांगों में और पुराणों में आपका ही प्रतिपादन हुआ है। आप शाश्वत अज, तथा परब्रह्म स्वरूप है । यह जगत आप में ही स्थित है। गृहस्थाश्रम जिनका मूल है, ऐसे वे चारों आश्रमों वाले रात-दिन आपकी अनेक मूर्तियों का पूजन करते है। आप ही सबके माता-पिता और पूज्य है। आप किस देवता का ध्यान एवं पूजन करते है? मैं इसे समझ नहीं पा रहा हूँ, इसे मैं सुनना चाहता हूँ,मेरे मन में बड़ा कौतूहल है ।
भगवान सूर्य ने कहा - ब्राह्मन ! यह अत्यंत गुप्त बात है, किन्तु आप मेरे परम भक्त है, इसलिए मैं इसका यथावत वर्णन कर रहा हूँ- वे परमात्मा सभी प्राणियों में व्याप्त, अचल,नित्य, सूक्ष्म तथा इंद्रियातीत है, उन्हे क्षेत्रज्ञ, पुरुष, हिरण्यगर्भ,महान, प्रधान तथा बुद्धि आदि अनेक नामों से अभिहित किया जाता है। जो तीनों लोकों के एकमात्र आधार है, वे निर्गुण होकर भी अपनी इच्छा से सगुण हो जाते है, सबके साक्षी है,स्वत: कोई कर्म नहीं करते और न तो कर्मफल की प्राप्ति से संलिप्त रहते है। वे परमात्मा सब ओर सिर, नेत्र, हाथ, पैर,नासिका, कान तथा मुख वाले है, वे समस्त जगत को आच्छादित करके अवस्थित है तथा सभी प्राणियों में स्वच्छंद होकर आनंदपूर्वक विचरण करते है।
शुभाशुभ कर्म रूप बीजवाला शरीर क्षेत्र कहलाता है। इसे जानने के कारण परमात्मा क्षेत्रज्ञ कहलाते है। वे अव्यक्तपुर में शयन करने से पुरुष, बहुत रूप धारण करने से विश्वरूप और धारण-पोषण करने के कारण महापुरुष कहे जाते है। ये ही अनेक रूप धारण करते है। जिस प्रकार एक ही वायु शरीर में प्राण-अपान आदि अनेक रूप धारण किए हुए है और जैसे एक ही अग्नि अनेक स्थान-भेदों के कारण अनेक नामों से अभिहित की जाती है, उसी प्रकार परमात्मा भी अनेक भेदों के कारण बहुत रूप धारण करते है। जिस प्रकार एक दीप से हजारों दीप प्रज्वलित हो जाते है, उसी प्रकार एक परमात्मा से संपूर्ण जगत उत्पन्न होता है। जब वह अपनी इच्छा से संसार का संहार करता है, तब फिर एकाकी ही रह जाता है। परमात्मा को छोडकर जगत में कोई स्थावर या जंगम पदार्थ नित्या नहीं है,क्योंकि वे अक्षय, अप्रमेय और सर्वज्ञ कहे जाते है। उनसे बढ़कर कोई अन्य नहीं है, वे ही पिता है, वे ही प्रजापति है,सभी देवता और असुर आदि उन परमात्मा भास्करदेव की आराधना करते है और वे उन्हे सद्गति प्रदान करते है। ये सर्वगत होते हुए भी निर्गुण है। उसी आत्मस्वरूप परमेश्वर का मैं ध्यान करता हूँ तथा सूर्यरूप अपने आत्मा का ही पूजन करता हूँ। हे याज्ञवल्क्य मुने ! भगवान सूर्य ने स्वयं ही ये बातें मुझसे कही थी ।
Lord Sun said - Brahman! It is a very secret thing, but you are my ultimate devotee, therefore I am describing it as equally - that God is pervading, immovable, constant, subtle, and inexplicable in all the beings, he is a devotee, man, heroine, great, chief and intellect. Etc. are called by many names. Those three people have the only basis, they become niggardly by their desire, they are witness to everyone, they do not do any karma, neither do they engage with the achievement of karmaf. They are all surrounded by the head, the eye, the hands, the feet, the nostrils, the ears and the face, they are covered by the overlapping of the entire universe, and are freely in all the living beings and go on happily.
Shubhashubha Karma form is called the body area of seed. Due to this knowing, it is called the divine zodiac. They are called Maha Purush because of having a bed in the Avyakhtpur, because of being very influential and holding up to take a lot of form. These only take many forms. Just as in the same air body there are various forms like prana-apan, and like the same fire is counted by many names because of many places and distinctions, so in the same way, the divine too takes many forms because of many differences. Just as thousands of lamp lights are lit from a lamp, so in the same way, a whole universe is produced from a divine. When he destroys the world with his will, then he remains alone. There is no real or movable substance in the world, except God, because it is called Akshay, Aprmay and omniscient. There is no other than them, they are the fathers, they are the prajapati, all deities and Asura etc. worship those divine bhaskar devas and they provide them with goodness. This is nirguna even when it is universal. I meditate on God in the same spirit and worship my soul in the sun. O Yagnavalkya mune! Lord Sun has told me these things on my own.
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