दोहा--
दानशक्ति प्रिय बोलिबो,
धीरज उचित विचार ।
ये
गुण सीखे ना मिलैं,
स्वाभाविक हैं चार ॥१॥
दानशक्ति, मीठी
बात करना, धैर्य धारण करना, समय पर
उचित अनुचित का निर्णय करना, ये चार गुण स्वाभाविक सिध्द हैं
। सीखने से नहीं आते ॥१॥
दोहा--
वर्ग आपनो छोडि के,
गहे वर्ग जो आन ।
सो
आपुई नशि जात है,
राज अधर्म समान ॥२॥
जो
मनुष्य अपना वर्ग छोडकर पराये वर्ग में जाकर मिल जाता है तो वह अपने आप नष्ट हो
जाता है । जैसे अधर्म से राजा लोग चौपट हो जाते हैं ॥२॥
सवैया-
भारिकरी रह अंकुश के वश का वह अंकुश भारी करीसों ।
त्यों
तम पुंजहि नाशत दीपसो दीपकहू अँधियार सरीसों ॥
वज्र
के मारे गिरे गिरिहूँ कहूँ होय भला वह वज्र गिरोसों ।
तेज
है जासु सोई बलवान कहा विसवास शरीर लडीसों ॥३॥
हाथी
मोटा-ताजा होता है,
किन्तु अंकुश के वश में रहता है तो क्या अंकुश हाथी के बराबर है ?
दीपक के जल जाने पर अन्धकार दूर हो जाता है तो क्या अन्धकार के
बराबर दीपक है ? इन्द्र के वज्रप्रहार से पहाड गिर जाते हैं
तो क्या वज्र उन पर्वतों के बराबर है ? इसका मतलब यह निकला
कि जिसमें तेज है, वही बलवान् है यों मोटा-ताजा होने से कुछ
नहीं होता ॥३॥
दोहा--
दस हजार बीते बरस,
कलि में तजि हरि देहि ।
तासु
अर्ध्द सुर नदी जल,
ग्रामदेव अधि तेहि ॥४॥
कलि
के दस हजार वर्ष बीतने पर विष्णु भगवान् पृथ्वी छोड देते हैं । पांच हजार वर्ष बाद
गंगा का जल पृथ्वी को छोड देता है और उसके आधे यानी ढाई हजार वर्ष में ग्रामदेवता
ग्राम छोडकर चलते बनते हैं ॥४॥
दोहा--
विद्या गृह आसक्त को,
दया मांस जे खाहिं ।
लोभहिं
होत न सत्यता,
जारहिं शुचिता नाहिं ॥५॥
गृहस्थी
के जंजाल में फँसे व्यक्ति को विद्या नहीं आती मांसभोजी के हृदय में दया नहीं आती
लोभी के पास सचाई नहीं आती और कामी पुरुष के पास पवित्रता नहीं आती ॥५॥
दोहा--
साधु दशा को नहिं गहै,
दुर्जन बहु सिंखलाय ।
दूध
घीव से सींचिये,
नीम न तदपि मिठाय ॥६॥
दुर्जन
व्यक्ति को चाहे कितना भी उपदेश क्यों न दिया जाय वह अच्छी दशा को नहीं पहूँच सकता
। नीम के वृक्ष को,
चाहे जड से लेकर सिर तक घी और दुध से ही क्यों न सींचा जाय फिर भी
उसमें मीठापन नहीं आ सकता ॥६॥
दोहा--
मन मलीन खल तीर्थ ये,
यदि सौ बार नहाहिं ।
होयँ
शुध्द नहिं जिमि सुरा,
बासन दीनेहु दाहिं ॥७॥
जिसके
हृदय में पाप घर कर चुका है, वह सैकडों बार तीर्थस्नान करके भी शुध्द
नहीं हो सकता । जैसे कि मदिरा का पात्र अग्नि में झुलसने पर भी पवित्र नहीं होता
॥७॥
चा०
छ०-- जो न जानु उत्तमत्व जाहिके गुण गान की ।
निन्दतो
सो ताहि तो अचर्ज कौन खान की ॥
ज्यों
किरति हाथि माथ मोतियाँ विहाय कै ।
घूं
घची पहीनती विभूषणै बनाय कै ॥६॥
जो
जिसके गुणों को नहीं जानता,
वह उसकी निन्दा करता रहता है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है ।
देखो न, जंगल की रहनेवाली भिलनी हाथी के मस्तक की मुक्ता को
छोडकर घुँ घची ही पहनती है ॥८॥
दोहा--
जो पूरे इक बरस भर,
मौन धरे नित खात ।
युग
कोटिन कै सहस तक,
स्वर्ग मांहि पूजि जात ॥९॥
जो
लोग केवल एक वर्ष तक,
मौन रहकर भोजन करते हैं वे दश हजार बर्ष तक स्वर्गवासियों से
सम्मानित होकर स्वर्ग में निवास करते हैं ॥९॥
सोरठा--
काम क्रोध अरु स्वाद,
लोभ श्रृड्गरहिं कौतुकहि ।
अति
सेवन निद्राहि,
विद्यार्थी आठौतजे ॥१०॥
काम, क्रोध,
लोभ, स्वाद, श्रृड्गर,
खेल-तमाशे, अधिक नींद और किसी की अधिक सेवा,
विद्यार्थी इन आठ कामों को त्याग दे । क्योंकी ये आठ विद्याध्ययन
में बाधक हैं ॥१०॥
दोहा--
बिनु जोते महि मूल फल,
खाय रहे बन माहि ।
श्राध्द
करै जो प्रति दिवस,
कहिय विप्र ऋषि ताहि ॥११॥
जो
ब्राह्मण बिना जोते बोये फल पर जीवन बिताता, हमेशा बन में रहना पसन्द करता
और प्रति दिन श्राध्द करता है, उस विप्र को ऋषि कहना चाहिए
॥११॥
सोरठा--
एकै बार अहार,
तुष्ट सदा षटकर्मरत ।
ऋतु
में प्रिया विहार,
करै वनै सो द्विज कहै ॥१२॥
जो
ब्राह्मण केवल एक बार के भोजन से सन्तुष्ट रहता और यज्ञ, अध्ययन
दानादि षट्कर्मों में सदा लीन रहता और केवल ऋतुकाल में स्त्रीगमन करता है, उसे द्विज कहना चाहिए ॥१२॥
सोरठा--
निरत लोक के कर्म,
पशु पालै बानिज करै ।
खेती
में मन कर्म करै,
विप्र सो वैश्य है ॥१३॥
जो
ब्राह्मण सांसारिक धन्धों में लगा रहता और पशु पालन करता, वाणिज्य
व्यवसाय करता या खेती ही करता है, वह विप्र वैश्य कहलाता है
॥१३॥
सोरठा--
लाख आदि मदमांसु,
घीव कुसुम अरु नील मधु ।
तेल
बेचियत तासु शुद्र,
जानिये विप्र यदि ॥१४॥
जो
लाख, तेल, नील कुसुम, शहद, घी, मदिरा और मांस बेचता है, उस
ब्राह्मण को शुद्र-ब्राह्मण कहते हैं ॥१४॥
सोरठा--
दंभी स्वारथ सूर,
पर कारज घालै छली ।
द्वेषी
कोमल क्रूर,
विप्र बिलार कहावते ॥१५॥
जो
औरों का काम बिगाडता,
पाखण्डपरायण रहता, अपना मतलब साधने में तत्पर
रहकर छल, आदि कर्म करता ऊपर से मीठा, किन्तु
हृदय से क्रूर रहता ऎसे ब्राह्मण को मार्जार विप्र कहा जाता है ॥१५॥
सोरठा--
कूप बावली बाग औ तडाग सुरमन्दिरहिं ।
नाशै
जो भय त्यागि,
म्लेच्छ विप्र कहाव सो ॥१६॥
जो
बावली, कुआँ, तालाब, बगीचा और
देवमन्दिरों के नष्ट करने में नहीं हिचकता, ऎसे ब्राह्मण को
ब्राह्मण न कहकर म्लेच्छ कहा जाता है ॥१६॥
सोरठा--
परनारी रत जोय,
जो गुरु सुर धन को हरै ।
द्विज
चाण्डालहोय,
विप्रश्चाण्डाल उच्यते ॥१७॥
जो
देवद्रव्य और गुरुद्रव्य अपहरण करता, परायी स्त्री के साथ दुराचार
करता और लोगों की वृत्ति पर ही जो अपना निर्वाह करता है, ऎसे
ब्राह्मण को चाण्डाल कहा जाता है ॥१७॥
सवैया--
मतिमानको चाहिये वे धन भोज्य सुसंचहिं नाहिं दियोई करैं
ते
बलि विक्रम कर्णहु कीरति,
आजुलों लोग कह्योई करैं ॥
चिरसंचि
मधु हम लोगन को बिनु भोग दिये नसिबोई करैं ।
यह
जानि गये मधुनास दोऊ मधुमखियाँ पाँव घिसोई करैं ॥१८॥
आत्म-कल्याण
की भावनावालों को चाहिये कि अपनी साधारण आवश्यकता से अधिक बचा हुआ अन्न वस्त्र या
धन दान कर दिया करें,
जोडे नहीं । दान ही की बदौलत कर्ण बलि और महाराज विक्रमादित्य की
कीर्ति आज भी विद्यमान है । मधुमक्खियों को देखिये वे यही सोचती हुई अपने पैर
रगडती हैं कि "हाय ! मैंने दान और भोग से रहित मधु को बहुत दिनों में इकट्ठा
किया और वह क्षण में दुसरा ले गया " ॥१८॥
इति
चाणक्ये एकदशोऽध्यायः ॥११॥
स०
सानन्दमंदिरपण्डित पुत्र सुबोल रहै तिरिया पुनि प्राणपियारी
इच्छित
सतति और स्वतीय रती रहै सेवक भौंह निहारी ॥
आतिथ
औ शिवपूजन रोज रहे घर संच सुअन्न औ वारी ।
साधुनसंग
उपासात है नित धन्य अहै गृह आश्रम धारी ॥१॥
आनन्द
से रहने लायक घर हो,
पुत्र बुध्दिमान हो, स्त्री मधुरभाषिणी हो,
घर आये हुए अतिथियों का सत्कार हो, सेवक
आज्ञाकारी हो, घर आये हुए अतिथियों का सत्कार हो, प्रति दिन शिवजी का पूजन होता रहे और सज्जनों का साथ हो तो फिर वह
गृहस्थाश्रम धन्य है ॥१॥
दोहा--
दिया दयायुत साधुसो,
आरत विप्रहिं जौन ।
थोरी
मिलै अनन्त ह्वै,
द्विज से मिलै न तौन ॥२॥
जो
मनुष्य श्रध्दापूर्वक और दयाभाव से दीन-दुखियों तथा ब्राह्मणों को थोडा भी दान दे
देता है तो वह उसे अनन्तगुणा होकर उन दीन ब्राह्मणों से नहीं बल्कि ईश्वर के दरबार
से मिलता है ॥२॥
कविता-
दक्षता स्वजनबीच दया परजन बीच शठता सदा ही रहे बीच दुरजन के । प्रीति साधुजन में
शूरता सयानन में क्षमा पूर धुरताई राखे फेरि बीच नारिजन के । ऎसे सब काल में कुशल
रहैं जेते लोग लोक थिति रहि रहे बीच तिनहिन के ॥३॥
जो
मनुष्य अपने परिवार में उदारता, दुर्जनों के साथ शठता, सज्जनों से प्रेम, दुष्टों में अभिमान, विद्वानों में कोमलता, शत्रुओं में वीरता, गुरुजनों में क्षमा और स्त्रियों में धूर्तता का व्यवहार करते हैं । ऎसे
ही कलाकुशल मनुष्य संसार में आनंद के साथ रह सकते हैं ॥३॥
छ०--
यह पाणि दान विहीन कान पुराण वेद सुने नहीं ।
अरु
आँखि साधुन दर्शहीन न पाँव तीरथ में कहीं ॥
अन्याय
वित्त भरो सुपेट उय्यो सिरो अभिमानही ।
वपु
नीच निंदित छोड अरे सियार सो बेगहीं ॥४॥
जिसके
दोनों हाथ दानविहीन हैं,
दोनों कान विद्याश्रवण से परांगमुख हैं, नेत्रसज्जनों
का दर्शन नहीं करते और पैर तिर्थों का पर्यटन नहीं करते । जो अन्याय से अर्जित धन
से पेट पालते हैं और गर्व से सिर ऊँचा करके चलते हैं, ऎसे मनुष्यों
का रूप धारण किये हुए ऎ सियार ! तू झटपट अपने इस नीच और निन्दनीय शरीर को छोड दे
॥४॥
छं०--
जो नर यसुमतिसुत चरणन में भक्ति हृदय से कीन नहीं ।
जो
राधाप्रिय कृष्ण चन्द्र के गुण जिह्वा नाहिं कहीं ॥
जिनके
दोउ कानन माहिं कथारस कृष्ण को पीय नहीं ।
कीर्तन
माहिं मृदंग इन्हे धिक्२एहि भाँति कहेहि कहीं ॥५॥
कीर्तन
के समय बजता हुआ मृदंग कहता है कि जिन मनुष्यों को श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरण कमलों
में भक्ति नहीं है श्रीराधारानी के प्रिय गुणों के कहने में जिसकी रसना अनुरक्त
नहीं और श्रीकृष्ण भगवान् की लीलाओं को सुनने के लिए जिसके कान उत्सुक नहीं हैं ।
ऎसे लोगों को धिक्कार है,
धिक्कार है ॥५॥
छं०--
पात न होय करीरन में यदि दोष बसन्तहि कान तहाँ है ।
त्यों
जब देखि सकै न उलूकदिये तहँ सूरज दोष कहाँ है ।
चातक
आनन बूँदपरै नहिं मेघन दूषन कौन यहाँ है ॥
जो
कछु पूरब माथ लिखाविधि मेटनको समरत्थ कहाँ है ॥६॥
यदि
करीर पेड में पत्ते नहीं लगते तो बसन्त ऋतु का क्या दोष ? उल्लू
दिन को नहीं देखता तो इसमें सूर्य का क्या दोष ? बरसात की
बूँदे चातक के मुख में नही गिरती तो इसमें मेघ का क्या दोष ? विधाता ने पहले ही ललाट में जो लिख दिया है, उसे कौन
मिटा सकता है ॥६॥
च०
ति०- सत्संगसों खलन साधु स्वभाव सेवै ।
साधू
न दुष्टपन संग परेहु लेवै ॥
माटीहि
बास कछु फूल न धार पावै ।
माटी
सुवास कहुँ फूल नहिं बसावै ॥७॥
सत्संग
से दुष्ट सज्जन हो जाते हैं । पर सज्जन उनके संग से दुष्ट नहीं होते । जैसे फूल की
सुगंधि को मिट्टी अपनाती है, पर फूल मिट्टी की सुगंधि को नहीं अपनाते ॥७॥
दोहा--
साधू दर्शन पुण्य है,
साधु तीर्थ के रूप ।
काल
पाय तीरथ फलै,
तुरतहि साधु अनूप ॥८॥
सज्जनों
का दर्शन बडा पुनीत होता है । क्योंकि साधुजन तीर्थ के समान रहते हैं । बल्कि
तीर्थ तो कुछ समय बाद फल देते हैं पर सज्जनों का सत्संग तत्काल फलदायक है ॥८॥
कवित्त--
कह्यो या नगर में महान है कौन ? विप्र ! तारन के वृक्षन के कतार हैं । दाता
कहो कौन हैं ? रजक देत साँझ आनि धोय शुभ वस्त्र को जो देत
सकार है । दक्ष कहौ कौन है ? प्रत्यक्ष सबहीं हैं दक्ष रहने
को कुशल परायो धनदार कौन है ? कैसे तुम जीवत कहो मोसों मीत
विष कृमिन्याय हैं । कैसे तुम जीवत बताय कहो मोसों मीत विष कृमिन्याय कर लीजै
निराधार है ॥९॥
कोई
पथिक किसी नगर में जाकर किसी सज्जन से पुछता है हे भाई ! इस नगर में कौन बडा है ? उसने
उत्तर दिया- बडे तो ताड के पेड हैं । (प्रश्न) दता कौन है ? (उत्तर) धोबी, जो सबेरे कपडे ले जाता और शाम को वापस
दे जाता है । (प्रश्न) यहाँ चतुर कौन है ? (उत्तर) पराई दौलत
ऎंठने में यहाँ सभी चतुर हैं । (प्रश्न) तो फिर हे सखे ! तुम यहाँ जीते कैसे हो ?
(उत्तर) उसी तरह जीता हूँ जैसे कि विष का कीडा विष में रहता हुआ भी
जिन्दा रहता है ॥९॥
दोहा--
विप्रचरण के उद्क से,
होत जहाँ नहिं कीच ।
वेदध्वनि
स्वाहा नहीं,
वे गृह मर्घट नीच ॥१०॥
जिस
घर में ब्राम्हण के पैर धुलने से कीचड नहीं होता, जिसके यहाँ वेद और
शास्त्रों की ध्वनि का गर्जन नहीं और जिस घर में स्वाहा स्वधा का कभी उच्चारण नहीं
होता, ऐसे घरों को श्मशान के तुल्य समझना चाहिए ॥१०॥
सोरठा--
सत्य मातु पितु ज्ञान,
सखा दया भ्राता धरम ।
तिया
शांति सुत जान छमा यही षट् बन्धु मम ॥११॥
कोई
ज्ञानी किसी के प्रश्न का उत्तर देता हुआ कहता है कि सत्य मेरी माता है, ज्ञान
पिता है धर्म भाई है, दया मित्र है, शांति
स्त्री है और क्षमा पुत्र है, ये ही मेरे छः बान्धव हैं ॥११॥
सोरठा--
है अनित्य यह देह,
विभव सदा नाहिं नर है ।
निकट
मृत्यु नित हेय,
चाहिय कीन संग्रह धरम ॥१२॥
शरीर
क्षणभंगोर है,
धन भी सदा रहनेवाला नही है । मृत्यु बिलकुल समीप वेद्यमान है। इसलिए
धर्म का संग्रह करो ॥१२॥
दोहा--
पति उत्सव युवतीन को,
गौवन को नवघास ।
नेवत
द्विजन को हे हरि,
मोहिं उत्सव रणवास ॥१३॥
ब्राह्मण
का उत्सव है निमन्त्रण,
गौओं का उत्सव है नई घास । स्त्री का उत्सव है पति का आगमन, किन्तु हे कृष्ण ! मेरा उत्सव है युध्द ॥१३॥
दोहा--
पर धन माटी के सरिस,
परतिय माता भेष ।
आपु
सरीखे जगत सब,
जो देखे सो देख ॥१४॥
जो
मनुष्य परायी स्त्री को माता के समान समझता, पराया धन मिट्टी के ढेले के
समान मानता और अपने ही तरह सब प्राणियों के सुख-दुःख समझता है, वही पण्डित है ॥१४॥
कविता-
धर्म माहिं रुचि मुख मीठी बानी दाह वचन शक्तिमित्र संग नहिं ठगने बान है ।
वृध्दमाहिं नम्रता अरु मन म्रं गन्भीरता शुध्द है आचरण गुण विचार विमल हैं ।
शास्त्र का विशैष ज्ञान रूप भी सुहावन है शिवजी के भजन का सब काल ध्यान है । कहे
पुष्पवन्त ज्ञानी राघव बीच मानों सब ओर इक ठौर कहिन को न मान है ॥१५॥
वशिष्ठजी
श्रीरामचन्द्रजी से कहते हैं- हे राघव ! धर्म में तत्परता, मुख
में मधुरता, दान में उत्साह, मित्रों
में निश्छल व्यवहार, गुरुजनों के समझ नम्रता, चित्त में गम्भीरता, आचार में पवित्रता, शास्त्रों में विज्ञता, रूप में सुन्दरता और शिवजी
में भक्ति, ये गुण केवल आप ही में हैं ॥१५॥
कवित्त-कल्पवृक्ष
काठ अचल सुमेरु चिन्तामणिन भीर जाती जाजि जानिये । सूरज में उष्णाता अरु कलाहीन
चन्द्रमा है सागरहू का जल खारो यह जानिये । कामदेव नष्टतनु अरु राजा बली दैत्यदेव
कामधेनु गौ को भी पशु मानिये । उपमा श्रीराम की इन से कुछ तुलै ना और वस्तु जिसे
उपमा बखानिये ॥१६॥
कल्पवृक्ष
काष्ठ है,
सुमेरु अचल है, चिन्तामणि पत्थर है, सूर्य की किरणें तीखी हैं, चन्द्रमा घटता-बढता है,
समुद्र खारा है, कामदेव शरीर रहित है, बलि दैत्य है और कामधेनु पशु है । इसलिए इनके साथ तो मैं आपकी तुलना नहीं
कर सकता । तब हे रघुपते ? किसके साथ आपकी उपमा दी जाय ॥१६॥
दोहा--
विद्या मित्र विदेश में,
घरमें नारी मित्र ।
रोगिहिं
औषधि मित्र हैं,
मरे धर्म ही मेत्र ॥१७॥
प्रवास
में विद्या हित करती है,
घर में स्त्री मित्र है, रोगग्रस्त पुरुष का
हित औषधि से होता है और धर्म मरे का उपकार करता है ॥१७॥
दोहा--
राजसुत से विनय अरु,
बुध से सुन्दर बात ।
झुठ
जुआरिन कपट,
स्त्री से सीखी जात ॥१८॥
मनुष्य
को चाहिए कि विनय (तहजीब) राजकुमारों से, अच्छी अच्छी बातें पण्डितों से
झुठाई जुआरियॊं से और छलकपट स्त्रियों से सीखे ॥१८॥
दोहा--
बिन विचार खर्चा करें,
झगरे बिनहिं सहाय ।
आतुर
सब तिय में रहै,
सोइ न बेगि नसाय ॥१९॥
बिना
समझे-बूझे खर्च करनेवाला अनाथ, झगडालू, और सब तरह की
स्त्रियों के लिए बेचैन रहनेवाला मनुष्य देखते-देखते चौपट हो जाता है ॥१९॥
दोहा--
नहिं आहार चिन्तहिं सुमति,
चिन्तहि धर्महि एक ।
होहिं
साथ ही जनम के,
नरहिं अहार अनेक ॥२०॥
विद्वान्
को चाहिए कि वह भोजनकी चिन्ता न किया करे । चिन्ता करे केवल धर्म की क्योंकि आहार
तो मनुष्य के पैदा होने के साथ ही नियत हो जाया करता है ॥२०॥
दोहा--
लेन देन धन अन्न के,
विद्या पढने माहिं ।
भोजन
सखा विवाह में,
तजै लाज सुख ताहिं ॥२१॥
जो
मनुष्य धन तथा धान्य के व्यवहार में, पढने-लिखते में, भोजन में और लेन-देन में निर्लज्ज होता है, वही सुखी
रहता है ॥२१॥
दोहा--
एक एक जल बुन्द के परत घटहु भरि जाय ।
सब
विद्या धन धर्म को,
कारण यही कहाय ॥२२॥
धीरे-धीरे
एक एक बूँद पानी से घडा भर जाता है । यही बात विद्या, धर्म
और धन के लिए लागू होती है । तात्पर्य यह कि उपयुक्त वस्तुओं के संग्रह में जल्दी
न करे । करता चले धीरे-धीरे कभी पुरा हो ही जायेगा ॥२२॥
दोहा--
बीत गयेहु उमिर के,
खल खलहीं राह जाय ।
पकेहु
मिठाई गुण कहूँ,
नाहिं हुनारू पाय ॥२३॥
अवस्था
के ढल जाने पर भी जो खल बना रहता है वस्तुताः वही खल है । क्योंकि अच्छी तरह पका
हुआ इन्द्रापन मीठापन को नहीं प्राप्त होता ॥२३॥
इति
चाणक्ये द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥
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