दोहा-
वरु नर जीवै मुहूर्त भर,
करिके शुचि सत्कर्म ।
नहिं
भरि कल्पहु लोक दुहुँ,
करत विरोध अधर्म ॥१॥
मनुष्य
यदि उज्वल कर्म करके एक दिन भी जिन्दा रहे तो उसका जीवन सुफल है । इसके बदले इहलोक
और परलोक इन दोनों के विरुध्द कार्य करके कल्प भर जिवे तो वह जीना अच्छा नहीं है
॥१॥
दोहा--
गत वस्तुहि सोचै नहीं,
गुनै न होनी हार ।
कार्य
करहिं परवीन जन आय परे अनुसार ॥२॥
जो
बात बीत गयी उसके लिए सोच न करो और न आगे होनेवाली के ही लिए चिन्ता करो । समझदार
लोग सामने की बात को ही हल करने की चिन्ता करते हैं ॥२॥
दोहा--
देव सत्पुरुष औ पिता,
करहिं सुभाव प्रसाद ।
स्नानपान
लहि बन्धु सब,
पंडित पाय सुवाद ॥३॥
देवता, भलेमानुष
और बाप ये तीन स्वभाव देखकर प्रसन्न होते हैं । भाई वृन्द स्नान और पान से साथ
वाक्य पालन से पण्डित लोग खुश होते है ॥३॥
दोहा--
आयुर्दल धन कर्म औ,
विद्या मरण गनाय ।
पाँचो
रहते गर्भ में जीवन के रचि जाय ॥४॥
आयु, कर्म,
सम्पत्ति, विद्या और मरण ये पाँच बातें तभी तै
हो जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है ॥४॥
दोहा--
अचरज चरित विचित्र अति,
बडे जनन के आहि ।
जो
तृण सम सम्पति मिले,
तासु भार नै जाहिं ॥५॥
ओह
! महात्माओं के चरित्र भी विचित्र होते हैं । वैसे तो ये लक्ष्मी को तिनके की तरह
समझते हैं और जब वह आ ही जाती है तो इनके भार से दबकर नम्र हो जाते हैं ॥५॥
दोहा--
जाहि प्रीति भय ताहिंको,
प्रीति दुःख को पात्र ।
प्रीति
मूल दुख त्यागि के,
बसै तबै सुख मात्र ॥६॥
जिसके
हृदय में स्नेह (प्रीति) है, उसीको भय है । जिसके पास स्नेह है, उसको दुःख है । जिसके हृदय में स्नेह है, उसी के पास
तरह-तरह के दुःख रहते हैं, जो इसे त्याग देता है वह सुख से
रहता है ॥६॥
दोहा--
पहिलिहिं करत उपाय जो,
परेहु तुरत जेहि सुप्त ।
दुहुन
बढत सुख मरत जो,
होनी गुणत अगुप्त ॥७॥
जो
मनुष्य भविष्य में आनेवाली विपत्तिसे होशियार है और जिसकी बुध्दि समय पर काम कर
जाती है ये दो मनुष्य आनंद से आगे बढते जाते हैं । इनके विपरीत जो भाग्य में लिखा
होगा वह होगा,
जो यह सोचकर बैठनेवाले हैं, इनका नाश निश्चित
है ।
दोहा--
नृप धरमी धरमी प्रजा,
पाप पाप मति जान ।
सम्मत
सम भूपति तथा,
परगट प्रजा पिछान ॥८॥
राजा
यदि धर्मात्मा होता तो उसकी प्रजा भी धर्मात्मा होती है, राजा
पापी होता है तो उसकी प्रजा भी पापी होती है, सम राजा होता
है तो प्रजा भी सम होती है । कहने का भाव यह कि सब राजा का ही अनुसरण करते है ।
जैसा राजा होगा, उसकी प्रजा भी वैसी होगी ॥८॥
दोहा--
जीवन ही समुझै मरेउ,
मनुजहि धर्म विहीन ।
नहिं
संशय निरजीव सो,
मरेउ धर्म जेहि कीन ॥९॥
धर्मविहीन
मनुष्य को मैं जीते मुर्दे की तरह मानता हुँ । जो धर्मात्मा था, पर मर
गया तो वह वास्तव में दीर्घजीवी था ॥९॥
दोहा--
धर्म, अर्थ, अरु, मोक्ष, न एको है जासु ।
अजाकंठ
कुचके सरिस,
व्यर्थ जन्म है तासु ॥१०॥
धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष इन चार पदार्थों में से एक पदार्थ भी जिसके पास नहीं
है, तो बकरी के गले में लटकनेवाले स्तनों के समान जन्म ही
निरर्थक है ॥१०॥
दोहा--
और अगिन यश दुसह सो,
जरि जरि दुर्जन नीच ।
आप
न तैसी करि सकै,
तब तिहिं निन्दहिं बीच ॥११॥
नीच
प्रकृति के लोग औरों के यशरूपी अग्नि से जलते रहते हैं उस पद तक तो पहुँचने की
सामर्थ्य उनमें रहती नहीं । इसलिए वे उसकी निन्दा करने लग जाते हैं ॥११॥
दोहा--
विषय संग परिबन्ध है,
विषय हीन निर्वाह ।
बंध
मोक्ष इन दुहुन को कारण मनै न आन ॥१२॥
विषयों
में मन को,
लगाना ही बन्धन है और विषयों से मन को हटाना मुक्ति है । भाव यह कि
मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का हेतु है ॥१२॥
दोहा--
ब्रह्मज्ञान सो देह को,
विगत भये अभिमान ।
जहाँ
जहाँ मन जाता है,
तहाँ समाधिहिं जान ॥१३॥
परमात्माज्ञान
से मनुष्य का जब देहाभिमान गल जाता है तो फिर जहाँ कहीं भी उसका मन जाता है तो
उसके लिए सर्वत्र समाधि ही है ॥१३॥
दोहा--
इच्छित सब सुख केहि मिलत,
जब सब दैवाधीन ।
यहि
ते संतोषहिं शरण,
चहै चतुर कहँ कीन ॥१४॥
अपने
मन के अनुसार सुख किसे मिलता है । क्योंकि संसार का सब काम दैव के अधीन है ।
इसीलिए जितना सुख प्राप्त हो जाय, उतने में ही सन्तुष्ट रहो ॥१४॥
दोहा--
जैसे धेनु हजार में,
वत्स जाय लखि मात ।
तैसे
ही कीन्हो करम,
करतहि के ढिग जात ॥१५॥
जैसे
हजारों गौओं में बछडा अपनी ही माँ के पास जाता है । उसा तरह प्रत्येक मनुष्य का
कर्म (भाग्य) अपने स्वामी के ही पास जा पहुँचता है ॥१५॥
दोहा--
अनथिर कारज ते न सुख,
जन औ वन दुहुँ माहिं ।
जन
तेहि दाहै सङ्ग ते,
वन असंग ते दाहि ॥१६॥
जिसका
कार्य अव्यवस्थित रहता है,
उसे न समाज में सुख है, न वन में । समाज में
वह संसर्ग से दुःखी रहता है तो वन में संसर्ग त्याग से दुखी रहेगा ॥१६॥
दोहा--
जिमि खोदत ही ते मिले,
भूतल के मधि वारि ।
तैसेहि
सेवा के किये,
गुरु विद्या मिलि धारि ॥१७॥
जैसे
फावडे से खोदने पर पृथ्वी से जल निकल आता है । उसी तरह किसी गुरु के पास विद्यमान
विद्या उसकी सेवा करने से प्राप्त हो जाती है ॥१७॥
दोहा--
फलासिधि कर्म अधीन है,
बुध्दि कर्म अनुसार ।
तौहू
सुमति महान जन,
करम करहिं सुविचार ॥१८॥
यद्यपि
प्रत्येक मनुष्य को कर्मानुसार फल प्राप्त होता है और बुध्दि भी कर्मानुसार ही
बनती है । फिर भी बुध्दिमान् लोग अच्छी तरह समझ-बूझ कर ही कोई काम करते हैं ॥१८॥
दोहा--
एक अक्षरदातुहु गुरुहि,
जो नर बन्दे नाहिं ।
जन्म
सैकडों श्वान ह्वै,
जनै चण्डालन माहिं ॥१९॥
एक
अक्षर देनेवाले को भी जो मनुष्य अपना गुरु नहीं मानता तो वह सैकडों बार कुत्ते की
योनि में रह-रह कर अन्त में चाण्डाल होता है ॥१९॥
दोहा--
सात सिन्धु कल्पान्त चलु,
मेरु चलै युग अन्त ।
परे
प्रयोजन ते कबहुँ,
नहिं चलते हैं सन्त ॥२०॥
युग
का अन्त हो जाने पर सुमेरु पर्वत डिग जाता है । कल्प का अन्त होने पर सातो सागर भी
चंचल हो उठते हैं,
पर सज्जन लोग स्वीकार किये हुए मार्ग से विचलित नहीं होते ॥२०॥
म०
छ० - अन्न बारि चारु बोल तीनि रत्न भू अमोल ।
मूढ
लोग के पषान टूक रत्न के पषान ॥२१॥
सच
पूछो तो पृथ्वी भर में तीन ही रत्न हैं--अन्न, जल और मीठ-मीठी बातें । लेकिन
बेवकूफ लोग पत्थर के टुकडों को ही रत्न मानते हैं ॥२१॥
इति
चाणक्ये त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥
म०छ०-
निर्धनत्व
दुःख बन्ध और विपत्ति सात ।
है
स्वकर्म वृक्ष जात ये फलै धरेक गात ॥१॥
मनुष्य
अपने द्वारा पल्लवित अपराध रूपी वृक्ष के ये ही फल फलते हैं--दरिद्रता, रोग,
दुःख, बन्धन (कैद) और व्यसन ॥१॥
म०छ०-
फेरि
वित्त फेरि मित्त,
फेरि तो धराहु नित्त ।
फेरि
फेरि सर्व एह,
ये मानुषी मिलै न देह ॥२॥
गया
हुआ धन वापस मिल सकता है,
रूठा हुआ मित्र भी राजी किया जा सकता है, हाथ
से निकली हुई स्त्री भी फिर वापस आ सकती है, और छीनी हुई
जमीन भी फिर मिल सकती है, पर गया हुआ यह शरीर वापस नहीं मिल
सकता ॥२॥
म०छ०-
एक
ह्वै अनेक लोग वीर्य शत्रु जीत योग ।
मेघ
धारि बारि जेत घास ढेर बारि देत ॥३॥
बहुत
प्राणियोंका सङ्गठित बल शत्रु को परास्त कर देता है, प्रचण्ड वेग के साथ बरसते
हुए मेघ को सङ्गठन के बल से क्षुद्र तिनके हरा देते हैं ॥३॥
म०छ०-
थोर
तेल बारि माहिं । गुप्तहू खलानि माहिं ।
दान
शास्त्र पात्रज्ञानि । ये बडे स्वभाव आहि ॥४॥
जल
में तेल, दुष्ट मनुष्य में कोई गुप्त बात, सुपात्र में थोडा
भी दान और समझदार मनुष्य के पास शास्त्र, ये थोडे होते हुए
भी पात्र के प्रभाव से तुरन्त फैल जाते हैं ॥४॥
म०छ०-
धर्म
वीरता मशान । रोग माहिं जौन ज्ञान ।
जो
रहे वही सदाइ । बन्ध को न मुक्त होइ ॥५॥
कोई
धार्मिक आख्यान सुनने पर,
श्मशान में और रुग्णावस्था में मनुष्य की जैसी बुध्दि रहती है,
वैसी यदि हमेशा रहे तो कौन मोक्षपद न प्राप्त कर ले ? ॥५॥
म०छ०-
आदि
चूकि अन्त शोच । जो रहै विचारि दोष ।
पूर्वही
बनै जो वैस । कौन को मिले न ऎश ॥६॥
कोई
बुरा काम करने पर पछतावे के समय मनुष्य की जैसी बुध्दि रहती है, वैसी
यदि पहले ही से रहे तो कौन मनुष्य उन्नत न हो जाय ॥६॥
म०छ०-
दान
नय विनय नगीच शूरता विज्ञान बीच ।
कीजिये
अचर्ज नाहिं,
रत्न ढेर भूमि माहिं ॥७॥
दान, ताप,
वीरता, विज्ञान और नीति, इनके विषय में कभी किसी को विस्मित होना ही नहीं चाहिये । क्योंकि पृथ्वी
में बहुत से रत्न भरे पडे हैं ॥७॥
म०छ०-
दूरहू
बसै नगीच,
जासु जौन चित्त बीच ।
जो
न जासु चित्त पूर । है समीपहूँ सो दूर ॥८॥
जो
(मनुष्य) जिसके हृदय में स्थान किये है, वह दुर रहकर भी दूर नहीं है ।
जो जिसके हृदय में नहीं रहता, वह समीप रहने पर भी दूर है ॥८॥
म०छ०-
जाहिते
चहे सुपास,
मीठी बोली तासु पास ।
व्याध
मारिबे मृगान,
मंत्र गावतो सुगान ॥९॥
मनुष्य
को चाहिए कि जिस किसी से अपना भला चाहता हो उससे हमेशा मीठी बातें करे । क्योंकि
बहेलिया जब हिरन का शिकार करने जाता है तो बडे मीठे स्वर से गाता है ॥९॥
म०छ०-
अति
पास नाश हेत,
दूरहू ते फलन देत ।
सेवनीय
मध्य भाग,
गुरु, भूप नारि आग ॥१०॥
राजा, अग्नि,
गुरु, और स्त्रियाँ-इनके पास अधिक रहने पर
विनाश निश्चित है और दूर रहा जाय तो कुछ मतलब नहीं निकलता । इसलिए इन चारों की
आराधना ऎसे करे कि न ज्यादा पास रहे न ज्यादा दूर ॥१०॥
म०छ०-
अग्नि
सर्प मूर्ख नारि,
राजवंश और वारि ।
यत्न
साथ सेवनीय,
सद्य ये हरै छ जीय ॥११॥
आग, पानी,
मूर्ख, नारी और राज-परिवार इनकी यत्नके साथ
आराधना करै । क्योंकि ये सब तुरन्त प्राण लेने वाले जीव हैं ॥११॥
म०छ०-
जीवतो
गुणी जो होय,
या सुधर्म युक्त जीव ।
धर्म
और गुणी न जासु,
जीवनो सुव्यर्थ तासु ॥१२॥
जो
गुणी है, उसका जीवन सफल है या जो धर्मात्मा है, उसका जन्म
सार्थक है । इसके विपरीत गुण और धर्म से विहीन जीवन निष्प्रयोजन है ॥१२॥
म०छ०-
चाहते
वशै जो कीन,
एक कर्म लोक तीन ।
पन्द्रहों
के तो सुखान,
जान तो बहार आन ॥१३॥
यदि
तुम केवल एक काम से सारे संसार को अपने वश में करना चाहते हो तो पन्द्रह मुखवाले
राक्षस के सामने चरती हुई इन्द्रयरूपी गैयों को उधरसे हटा लो । ये पन्द्रह मुख कौन
हैं - आँख,
नाक, कान, जीभ और त्वचा
ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मुख, हाँथ, पाँव,
लिंग और गुदा, ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ रूप,
रस, गन्ध, शब्द और
स्पर्श, ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं ॥१३॥
सो०--
प्रिय
स्वभाव अनुकूल,
योग प्रसंगे वचन पुनि ।
निजबल
के समतूल,
कोप जान पण्डित सोई ॥१४॥
जो
मनुष्य प्रसंगानुसार बात,
प्रकृति के अनुकूल प्रेम और अपनी शक्तिके अनुसार क्रोध करना जानता
है, वही पंडित है ॥१४॥
सो०--
वस्तु
एक ही होय,
तीनि तरह देखी गई ।
रति
मृत माँसू सोय,
कामी योगी कुकुर सो ॥१५॥
एक
स्त्री के शरीर को तीन जीव तीन दृष्टि से देखते हैं-योगी उसे बदबूदार मुर्दे के
रूप में देखते हैं कामी उसे कामिनी समझता है और कुत्ता उसे मांसपिण्ड जानता है
॥१५॥
सो०--
सिध्दौषध
औ धर्म, मैथुन कुवचन भोजनो ।
अपने
घरको मर्म,
चतुर नहीं प्रगटित करै ॥१६॥
बुध्दिमान्
को चाहिए कि इन बातों को किसी से न जाहिर करे-अच्छी तरह तैयार की हुई औषधि, धर्म
अपने घर का दोष, दूषित भोजन और निंद्यं किं वदन्ती बचन ॥१६॥
सो०--
तौलौं
मौने ठानि,
कोकिलहू दिन काटते ।
जौलौं
आनन्द खानि,
सब को वाणी होत है ॥१७॥
कोयमें
तब तक चुपचाप दिन बिता देती हैं जबतक कि वे सब लोगों के मन को आनन्दित करनेवाली
वाणी नहीं बोलतीं ॥१७॥
सो०--
धर्म
धान्य धनवानि,
गुरु वच औषध पाँच यह ।
धर्म, धन,
धान्य, गुरु का वचन और औषधि इन वस्तुओं को
सावधानी के साथ अपनावे और उनके अनुसार चले । जो ऎसा नहीं करता, वह नहीं जीता ॥१८॥
सो०--
तजौ
दुष्ट सहवास,
भजो साधु सङ्गम रुचिर ।
करौ
पुण्य परकास,
हरि सुमिरो जग नित्यहिं ॥१९॥
दुष्टों
का साथ छोड दो,
भले लोगों के समागम में रहो, अपने दिन और रात
को पवित्र करके बिताओ और इस अनित्य संसार में नित्य ईश्वर का स्मरण करते रहो ॥१९॥
इति
चाणक्ये चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥
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