ग्रन्थका
उपोद्घात
श्रीसूतजी
बोले-
मैत्रेयजीने
नित्यकर्मोंसे निवृत्त हुए मुनिवर पराशरजीको प्रणाम कर एवं उनके चरण छूकर पूछा ॥१॥
"हे
गुरुदेव ! मैंने आपहीसे सम्पूर्ण वेद, वेदांग और सकल धर्मशास्त्रोंका क्रमशः अध्ययन किया है ॥२॥
हे
मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपासे मेरे विपक्षी भी मेरे लिये यह नहीं कह सकेंगे कि 'मैंने सम्पूर्ण शास्त्रोंकें अभ्यासकें
परिश्रम नहीं किया' ॥३॥
हे
धर्मज्ञ ! हे महाभाग ! अब मैं आपके मुखारविन्दसे यह सुनना चाहता हूँ कि यह जगत्
किस प्रकार उप्तन्न हुआ और आगे भी ॥ (दुसरे कल्पके आरम्भमें ) कैसे होगा ? ॥४॥
तथा
हे ब्रह्मन् ! इस संसारका उपादान- कारण क्या है ? यह सम्पूर्ण चराचर किससे उप्तन्न हुआ है
? यह पहले किसमें लीन
था और आगे किसमें लीन हो जायगा ? ॥५॥
इसके
अतिरिक्त ( आकाश आदि ) भूतोंका परिमाण, समुद्र, पर्वत
तथा देवता आदिकी उप्तत्ति, पृथिवीका
अधिष्ठान और सूर्य आदिका परिमाण तथा उनका आधार, देवता आदिके वंश, मनु, मन्वन्तर, ( बार-बार आनेवाले ) चारों युगोंमें
विभक्त कल्प और कल्पोंकें विभाग, प्रलयका
स्वरूप, युगोंकें पृथक् -
पृथक् सम्पूर्ण धर्म, देवार्षि
और राजर्षियोंके चरित्र, श्रीव्यासजीकृत
वैदिक शाखाओंकी यथावत् रचना तथा ब्रह्माणादि वर्ण और ब्रह्माचर्यादि आश्रमोंके
धर्म - ये सब, हे
महामुनि शक्तिनन्दन ! मैं आपसे सुनना चाहता हूँ ॥६-१०॥
हे
ब्रह्मण ! आप मेरे प्रति अपना चित्त प्रसादोन्मुख कीजिये जिससे हे महामुने ! मैं
आपकी कृपासे यह सब जान सकूँ" ॥११॥
श्रीपराशरजी
बोले -
"हे
धर्मज्ञ मैत्रेय ! मेरे पिताजीके पिता श्रीवसिष्ठजीने जिसका वर्णन किया था,
उस पूर्व प्रसंगका तुमने मुझे अच्छा
स्मरण कराया- ( इसके लिये तुम धन्यवादके पात्र हो ) ॥१२॥
हे
मैत्रेय ! जब मैनें सुना कि पिताजीको विश्वामित्रकी प्रेरणासे राक्षसने खा लिया है,
तो मुझको बडा़ भारी क्रोध हुआ ॥१३॥
तब
राक्षसोंका ध्वंस करनेके लिये मैंने यज्ञ करना आरम्भ किया ॥ उस यज्ञमें सैकडों
राक्षस जलकर भस्म हो गये ॥१४॥
इस
प्रकार उन राक्षसोंको सर्वथा नष्ट होते देख मेरे महाभाग पितामय वसिष्ठजी मुझसे
बोले ॥१५॥
"
हे वत्स ! अत्यन्त क्रोध कर्ना ठीक नहीं, अब इसे शान्त करो । राक्षसोंका कुछ भी अपराध नहीं है, तुम्हारे पिताके लिये तो ऐसा ही होना था
॥१६॥
क्रोध
तो मूर्खोंका ही हुआ करता है, विचारवानोंको
भला कैसे हो सकता है ? भैया
! भला कौन किसीको मारता है ? पुरुष
स्वयं ही अपने कियेका फल भोगता है ॥१७॥
हे
प्रियवर ! यह क्रोध तो मनुष्यके अत्यन्त कष्टसे सत्र्चित यश और तपका भी प्रबल नाशक
है ॥१८॥
हे
तात ! इस लोग और परलोक दोनोंको बिगाड़नेवाले इस क्रोधका महार्षिगण सर्वदा त्याग
करतें हैं, इसालिये तू इसके
वशीभूत मत हो ॥१९॥
अब
इन बेचारे निरपराध राक्षसोंको दग्ध करनेसे कोई लाभ नहीं; अपने इस यज्ञको समाप्त करो । साधुओंका
धन तो सदा क्षमा ही है" ॥२०॥
महात्मा
दादाजीके इस प्रकार समझानेपर उनकी बातोंके गौरवका विचार करके मैंने वह यज्ञ समाप्त
कर दिया ॥२१॥
इससे
मुनिश्रेष्ठ भगवान् वसिष्ठजी बहुत प्रसन्न हुए । उसी समय ब्रह्माजीके पुत्र
पुलस्त्यजी वहाँ आये ॥२२॥
हे
मैत्रेय ! पितामह ( वसिष्ठजी ) ने उन्हें अर्घ्य दिया, तब वे महर्षि पुलहके ज्येष्ठ भ्राता
महाभाग पुलस्त्यजी आसन ग्रहण करके मुझसे बोले ॥२३॥
पुलस्त्यजी
बोले - तुमने, चित्तमें
बडा़ वैरभाव रहनेपर भी अपने बडे़ - बूढे़ वसिष्ठजीके कहनेसे क्षमा स्वीकार की है,
इसलिये तुम सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता
होगे ॥२४॥
हे
महाभाग ! अत्यन्त क्रोधित होनेपर भी तुमने मेरी सन्तानका सर्वथा मूलोच्छेद नहीं
किया; अतः मैं तुम्हें एक
और उत्तम वर देता हूँ ॥२५॥
हे
वत्स ! तुम पुराणसंहिताके वक्ता होगे और देवताओंके यथार्थ स्वरूपको जानोगे ॥२६॥
तथा
मेरे प्रसादसे तुम्हारी निर्मल बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति ( भोग और मोक्ष ) के
उप्तन्न करनेवाले कर्मोंमें निःसन्देह हो जायगी ॥२७॥
(
पुलस्त्यजीके इस तरह कहनेके अनन्तर ) फिर मेरे पितामह भगवान वसिष्ठजी बोले
"पुलस्त्यजीने जो कुछ कहा है, वह
सभी सत्य होगा " ॥२८॥
हे
मैत्रेय ! इस प्रकार पूर्वकालमें बुद्धिमान वसिष्ठजी और पुलस्त्यजीनें जो कुछ कहा
था, वह सब तुम्हारे
प्रश्नसे मुझे स्मरण हो आया है ॥२९॥
अतः
हे मैत्रेय ! तुम्हारे पूछनेसे मैं उस सम्पूर्ण पुराणसंहिताको तुम्हें सुनाता हूँ;
तुम उसे भली प्रकार ध्यान देकर सुनो
॥३०॥
यह
जगत विष्णुसे उप्तन्न हुआ है, उन्हींमें
स्थित है, वे ही इसकी स्थिति और
लयके कर्ता हैं तथा यह जगत् भी वे ही हैं ॥३१॥
इति
श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
श्रीपराशरजी
बोले-
जो
ब्रह्म, विष्णु और शंकररूपसे
जगत्की उप्तत्ति, स्थिति
और संहारके कारण हैं तथा अपने भक्तोंको संसार-सागरसे तारनेवाले हैं, उन विकाररहित, शुद्ध, अविनाशी, परमात्मा, सर्वदा एकरस, सर्वविजयी भगवान् वासुदेव विष्णुको
नमस्कार है ॥१-२॥
जो
एक होकर भी नाना रूपवाले हैं, स्थूलसूक्ष्ममय
हैं, अव्यक्त ( कारण ) एवं
व्यक्त ( कार्य ) रूप हैं तथा ( अपने अनन्य भक्तोंकी ) मुक्तिके कारण हैं,
( उन श्रीविष्णुभगवान्को नमस्कार है )
॥३॥
जो
विश्वरूप प्रभु विश्वकी उप्तत्ति, स्थिति
और संहारके मूल-कारण हैं, उन
परमात्मा विष्णुभगवान्को नमस्कार है ॥४॥
जो
विश्वके अधिष्ठान है, अतिसूक्ष्मसे
भी सूक्ष्म हैं, सर्व
प्राणियोंमें स्थित पुरुशोत्तम और अविनाशी हैं, जो परमार्थतः ( वास्तवमें ) अति निर्मल
ज्ञानस्वरूप हैं, किन्तु
अज्ञानवश नाना पदार्थरूपसे प्रतीत होते हैं, तथा जो ( कालस्वरूपसे ) जगत्की
उप्तत्ति और स्थितिमें समर्थं एवं उसका संहार करनेवाले हैं, उन जगदीश्वर, अजन्मा, अक्षय और अव्यय भगवान् विष्णूको प्रणाम
करके तुम्हें वह सारा प्रसंग क्रमशः सुनाता हूँ जो दक्ष आदि मुनिश्रेष्ठोंके
पूछनेपर पितामह भगवान ब्रह्मजीने उनसे कहा था ॥५-८॥
वह
प्रसंग दक्ष आदि मुनियोंने नर्मदा-तटपर राजा पुरुकुत्सको सुनाया था तथा
पुरुकुत्सने सारस्वतसे और सारस्वतने मुझसे कहा था ॥९॥
'जो
पर ( प्रकृति ) से भी पर, परमश्रेष्ठ,
अन्तरात्मामें स्थित परमात्मा, रूप, वर्ण, नाम और विशेषण आदिसे रहित हैः जिसमें
जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश- इन छः विकारोंका सर्वथा
अभाव हैं; जिसको सर्वदा केवल 'हे' जिसको सर्वदा केवल 'हे' इतना ही कह सकते हैं, तथा जिनके लिये यह प्रसिद्ध है कि 'वे सर्वत्र हैं और उनमें समस्त विश्व
बसा हुआ है- इसलिये ही विद्वान् जिसको वासुदेव कहते हैं' वही नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस और हेय गुणोंके अभावके कारण निर्मल
परब्रह्म है ॥१०-१३॥
वही
इन सब व्यक्त ( कार्य ) और अव्यक्त ( कारण ) जगत्के रूपसे, तथा इसके साक्षी पुरुष और महाकरण कलके
रूपसे स्थित है ॥१४॥
हे
द्विज ! परब्रह्मका प्रथम रूप पुरुष है, अव्यक्त ( प्रकृति ) और व्यक्त ( महदादि ) उसके अन्य रूप हैं
तथा ( सबको क्षोभित करनेवाले होनेसे ) काल उसका परमरूप है ॥१५॥
इस
प्रकार जो प्रधान, व्यक्त
और कालइन चारोंसे परे है तथा जिसे पण्डितजन ही देख पाते हैं देख पाते हैं वही
भगवान विष्णुका परमपद है ॥१६॥
प्रधान,
पुरूष, व्यक्त और काल - ये ( भगवान् विष्णुके )
रूप पृथक् पृथक् संसारकी उप्तत्ति, पालन
और संहारके प्रकाश तथा उप्तादनमें कारण हैं ॥१७॥
भगवान्
विष्णु जो व्यक्त, अव्यक्त,
पुरुष और कालरूपसे स्थित होते हैं,
इसे उनकी बालवत् क्रीडा ही समझो ॥१८॥
उनमेंसे
अव्यक्त कारणको, जो
सदसद्रूप ( कारणशक्तिविशिष्ट ) और नित्य ( सदा एकरस ) है, श्रेष्ठ मुनिजन प्रधान तथा सूक्ष्म
प्रकृति कहते है ॥१९॥
वह
क्षयरहित है, उनका
कोई अन्य आधार भी नहीं है तथा अप्रमेय, अजर, निश्चल
शब्द - स्पर्शादिशून्य और रूपादिरहित है ॥२०॥
वह
त्रिगुणमय और जगत्का कारण है तथा स्वयं अनादि एवं उप्तत्ति और लयसे रहित है । यह
सम्पूर्ण प्रपत्र्च प्रलयकालसे लेकर सृष्टिके आदितक उसीसे व्याप्त था ॥२१॥
हे
विद्ववान ! श्रुतिके मर्मको जाननेवाले, श्रुतिपरायण ब्रह्मवेत्ता महात्मागण इसी अर्थको लक्ष्य करके
प्रधानके प्रतिपादक इस ( निम्रलिखित ) श्लोकको कहा करते हैं - ॥२२॥
'उस
समय ( प्रलयकालमें ) न दिन था, न
रात्रि थी, न आकाश था, न पृथिवी थी, न अन्धकार था, न प्रकाश था और न इनके अतिरिक्त कुछ और
ही था । बस, श्रोत्रादि
इन्द्रियों और बुद्धि आदिका अविषय एक प्रधान ब्रह्म और पुरुष ही था ' ॥२३॥
हे
विप्र ! विष्णुके परम ( उपाधिरहित ) स्वरूपसे प्रधान और पुरुष - ये दो रूप हुए;
उसी ( विष्णु ) के जिस अन्य रूपके
द्वारा वे दोनों ( सृष्टि और प्रलयकालमें ) संयुक्त और वियुक्त होते हैं, उस रूपान्तरका ही नाम 'काल' है ॥२४॥
बीते
हुए प्रलयकालमें यह व्यक्त प्रपत्र्च प्रकृतिमें लीन था, इसलिये प्रपत्र्चके इस प्रलयको प्राकृत
प्रलय कहते हैं ॥२५॥
हे
द्विज ! कालरूप भगवान् अनादि हैं, इनका
अन्त नहीं है इसलिये संसारकी उप्तत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते ( वे प्रवाहरूपसे निरन्तर
होते रहते हैं ) ॥२६॥
हे
मैत्रेय ! प्रलयकालमें प्रधान ( प्रकृति ) के साम्यावस्थामें स्थित हो जानेपर और
पुरुषके प्रकृतिसे पृथक् स्थित हो जानेपर विष्णुभगवानका कालरूप ( इन दोनोंको धारण
करनेके लिये ) प्रवृत्त होता है ॥२७॥
तदनन्तर
( सर्गकाल उपस्थित होनेपर ) उन परब्रह्म परमात्मा विश्वरूप सर्वव्यापी
सर्वभूतेश्वर सर्वात्मा परमेश्वरने अपनी इच्छासे विकारी प्रधान और अविकारी
पुरुषमें प्रविष्ट होकर उनको क्षोभित किया ॥२८-२९॥
जिस
प्रकार क्रियाशील न होनेपर भी गन्ध अपनी सन्निधिमात्रसे ही मनको क्षुभित कर देता
है, उसी प्रकार परमेश्वर
अपनी सन्निधिमात्रसे ही प्रधान और पुरुषको प्रेरित करते हैं ॥३०॥
हे
ब्रह्मन ! वह पुरुषोत्तम ही इनको क्षोभित करनेवाले हैं और वे ही क्षुब्ध होते हैं
तथा संकोच ( साम्य ) और विकास ( क्षोभ ) युक्त प्रधानरूपसे भी वे ही स्थित हैं
॥३१॥
ब्रह्मादि
समस्त ईश्वरोंके ईश्वर वे विष्णु ही समष्टि-व्यष्टिरूप, ब्रह्मादि जीवरूप तथा महत्तत्वरूपसे
स्थित हैं ॥३२॥
हे
द्विजश्रेष्ठ ! सर्गकालके प्राप्त होनेपर गुणोंकी साम्यावस्थारूप प्रधान जब
विष्णुके क्षेत्रज्ञरूपसे अधिष्ठित हुआ तो उससे महत्तत्वकी उप्तत्ति हुई ॥३३॥
उप्तन्न
हुए महान्को प्रधानतत्तवने आवृत किया; महत्तत्त्व सात्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारका है । किन्तु जिस प्रकार बीज
छिलकेसे समभावसे ढँका रहता है वैसे ही यह त्रिविध महत्तत्त्व प्रधान - तत्त्वसे सब
ओर व्याप्त है । फिर त्रिविध महत्तत्त्वसे ही वैकारिक ( सात्विक ) तैजस ( राजस )
और तामस भुतादि तीन प्रकारका अहंकार उप्तन्न हुआ । हे महामुने ! वह त्रिगुणात्मक
होनेसे भूत और इन्द्रिय आदिका कारण है और प्रधानसे जैसे महत्तत्त्व व्याप्त है,
वैसे ही महत्त्वत्त्वसे वह ( अहंकार )
व्याप्त है ॥३४-३६॥
भूतादि
नामक तामस अहंकारने विकृत होकर शब्द तन्मात्रा और उससे शब्द गुणवाले आकाशकी रचना
की ॥३७॥
उस
भूतादि तामस अहंकारने शब्द तन्मात्रारूप आकाशको व्याप्त किया । फिर ( शब्द
तन्मात्रारूप ) आकाशने विकृत होकर स्पर्श तन्मात्राको रचा ॥३८॥
उस
( स्पर्श तन्मात्रा ) से बलवान् वायु हुआ, उसका गुण स्पर्श माना गया है । शब्दतन्मात्रारूप आकाशने स्पर्श
तन्मात्रावाले वायुको आवृत किया है ॥३९॥
फिर
( स्पर्श - तन्मात्रारूप ) वायुने विकृत होकर रूप - तन्मात्राकी सृष्टि की । ( रूप
- तन्मात्रायुक्त ) वायुसे तेज उप्तन्न हुआ है, उसका गुण रूप कहा जाता है ॥४०॥
स्पर्श
तन्मात्रारुप वायुने रूप - तन्मात्रावाले तेजको आवृत किया । फिर ( रूप -
तन्मात्रावाले तेजको आवृती किया । फिर ( रूप - तन्मात्रामय ) तेजने भी विकृत होकर
रस - तन्मात्राकी रचना की ॥४१॥
उस
( रस- तन्मात्रारूप ) से रस-गुणवाला जल हुआ । रस तन्मात्रावाले जलको
रूप-तन्मात्रामय तेजने आवृत किया ॥४२॥
(
रस-तन्मात्रारूप ) जलने विकारको प्राप्त होकर गन्ध-तन्मात्राकी सृष्टी की, उससे पृथीवी उप्तन्न हुई है जिसका गुण
गन्ध माना जाता है ॥४३॥
उन-
उन आकाशादि भूतोंमें तन्मात्रा है ( अर्थात् केवल उनके गुण शब्दादि ही हैं )
इसलिये वे तन्मात्रा ( गुणरूप ) ही कहे गये हैं ॥४४॥
तन्मात्राओंमें
विशेष भाव नहीं है इसलिये उनकी अविशेष संज्ञा है ॥४५॥
वे
अविशेष तन्मात्राएँ शान्त, घोर
अथवा मूढ़ नहीं हैं ( अर्थात् उनका सुख दुःख या मोहरूपसे अनुभव नहीं हो सकता ) इस
प्रकार तामस अहंकारसे यह भूततन्मात्रारूप सर्ग हुआ है ॥४६॥
दस
इन्द्रियाँ तैजस अर्थांत राजस अहंकारसे और उनके अधिष्ठाता देवता वैकारिक अर्थात्
सात्त्विक अहंकारसे उप्तन्न हुए कहे जाते हैं । इस प्रकार इंद्रायोंके अधिष्ठाता
दस देवता और ग्यारहवाँ मन वैकरिक ( सात्त्विक ) हैं ॥४७॥
हे
द्विज ! त्वक् चक्षु, नासिका,
जिह्ला और श्रोत्र ये पाँचों बुद्धीकी
सहायतासे शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं ॥४८॥
हे
मैत्रेय ! पायु ( गुदा), उपस्थ
( लिड्ग ) हस्त, पाद,
और वाक् ये पाँच कर्मेंन्द्रियाँ है ।
इनके कर्म ( मल मुत्रका ) त्याग शिल्प, गति और वचन बतलाये जाते है ॥४९॥
आकाश
वायु, तेज जल और पृथिवी ये
पाँचों भुत उत्तरोत्तर ( क्रमशः ) शब्द स्पर्श आदि पाँच गुणोंसे युक्त हैं ॥५०॥
ये
पाँचो भूत शान्त घोर और मूढ हैं ( अर्थात सुख दूःख औरज मोहयुक्त हैं ) अतः ये
विशेष कहलाते हैं *॥५१॥
इन
भूतोंमें पृथक पृथक नान शक्तियाँ हैं । अतः वे परस्पर पूर्णयता मिले बिना संसारकी
रचना नहीं कर सके ॥५२॥
इसलिये
एक दुसरेके आश्रय रहनेवाले और एक ही संघातकी उप्तत्तिके लक्ष्यवाले महत्तत्वसे
लेकर विशेषपर्यंन्त प्रकृतिके इन सभी विकारोंने पुरुषसे अधिष्ठित होनेके कारण
परस्पर मिलकर सर्वथा एक होकर प्रधानतत्त्वके अनुग्रहसे अण्डकी उप्तत्ति की ॥५३-५४॥
हे
महाबुद्धे ! जलके बुलबुलेके समान क्रमशः भूतोंसे बढा़ हुआ वह गोलाकार और जलपर
स्थित महान् अण्ड ब्रह्म ( हिरण्यगर्भ ) रूप विष्णुका अति उत्तम प्राकृत आधार हुआ
॥५५॥
उसमें
वे अव्यक्त स्वरूप जगत्पत्ति विष्णु व्यक्त हिरण्यगर्भरूपसे स्वयं ही विराजमान हुए
॥५६॥
उन
महात्मा हिरण्यगर्भका सुमेरु उल्ब ( गर्भको ढँकनेवाली झिल्ली ), अन्य पर्वत, जरायु ( गर्भाशय ) तथा समुद्र
गर्भाशयस्थ रस था ॥५७॥
हे
विप्र ! उस अण्डमें ही पर्वत और द्वीपादिके सहित समुद्र, ग्रह गणके सहित सम्पूर्ण लोक तथा देव,
असुर और मनुष्य आदि विविध प्राणिवर्ग
प्रकट हुए ॥५८॥
वह
अण्ड पूर्व पूर्वकी अपेक्षा दस-दस-गुण अधिक जल, अग्नि, वायु आकाश और भूतादि अर्थात
तामस-अहंकारसे आवृत है तथा भूतादि महत्तत्त्वसे घिरा हुआ है ॥५९॥
और
इन सबके सहित वह महत्तत्व भी अव्यक्त प्रधानसे आवृत है । इस प्रकार जैसे नारियलके
फलका भीतरी बीज बाहरसे कितने ही छिलकोंसे ढँका रहता है वैसे ही यह अण्ड इन सात
प्राकृत आवरणोंसे घिरा हुआ है ॥६०॥
उसमें
स्थित हुए स्वयं विश्वेश्वर भगवान् विष्णु ब्रह्मा होकर रजोगुणका आश्रय लेकर इस
संसारकी रचनामें प्रवृत्त होते हैं ॥६१॥
तथा
रचना हो जानेपर सत्त्वगुण विशिष्ट अतुल पराक्रमी भगवान् विष्णु उसका
कल्पान्तपर्यंन्त युग-युगमें पालन करते हैं ॥६२॥
है
मैत्रेय ! फिर कल्पका अन्त होनेपर अति दारून तमः-प्रधान रुद्ररूप धारण कर वे जनार्दन
विष्णु ही समस्त भूतोंका भक्षण कर लेते हैं ॥६३॥
इस
प्रकार समस्त भूतोंका भक्षण कर संसारको जलमय करके वे परमेश्वर शेष-शय्यापर शयन
करते हैं ॥६४॥
जगनेपर
ब्रह्मारूप होकर वे फिर जगत्की रचना करते हैं ॥६५॥
वह
एक ही भगवान जनार्दन जगत्की सृष्टी, स्थिति और संहारके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव - इन तीन संज्ञाओंको धारण
करते हैं ॥६६॥
वे
प्रभु विष्णु स्नष्टा ( ब्रह्म ) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक विष्णु होकर पाल्यरूप अपना ही पालन
करते हैं और अन्तमें स्वयं ही संहारक (शिव ) तथा स्वयं ही उपसंहृत ( लीन ) होते
हैं ॥६७॥
पृथिवी,
जल, तेज, वायु, और आकाश तथा समस्त इन्द्रियाँ और
अन्तःकरण आदि जितना जगत् है सब पुरुषरूप है और क्योंकी वह अव्यय विष्णु ही
विश्वरूप और सब भूतोंके अन्तरात्मा हैं, इसलिये ब्रह्मादि प्राणियोंमे स्थित सर्गादिक भी उन्हींके
उपकारक हैं । ( अर्थात् जिस प्रकार ऋत्विजोंद्वारा किया हुआ हवन यजमानका उपकाराक
होता है, उसी तरह परमात्माके
रचे हुए समस्त प्राणियोंद्वारा होनेवाली सृष्टी भी उन्हींकी उपकारक है ) ॥६८-६९॥
वे
सर्वस्वरूप, श्रेष्ठ,
वरदायक और वरेण्य ( प्रार्थनाके योग्य )
भगवान् विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओंद्वारा रचनेवाले हैं, वे ही रचे जाते हैं, वे ही पालते है, वे ही पालित होते हैं तथा वे ही संहार
करते हैं ( और स्वयं ही संहृत होते हैं ) ॥७०॥
इति
श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
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