पंचमतंत्र
अपरिक्षितकारकम
दक्षिण प्रदेश के एक
प्रसिद्ध नगर पाटलीपुत्र में मणिभद्र नाम का एक धनिक महाजन रहता था । लोक-सेवा और
धर्मकार्यों में रत रहने से उसके धन-संचय में कुछ़ कमी आ गई, समाज
में मान घट गया । इससे मणिभद्र को बहुत दुःख हुआ । दिन-रात चिन्तातुर रहने लगा ।
यह चिन्ता निष्कारण नहीं थी । धनहीन मनुष्य के गुणों का भी समाज में आदर नहीं होता
। उसके शील-कुल-स्वभाव की श्रेष्ठता भी दरिद्रता में दब जाती है । बुद्धि, ज्ञान और प्रतिभा के सब गुण निर्धनता के तुषार में कुम्हला जाते हैं ।
जैसे पतझड़ के झंझावात में मौलसरी के फूल झड़ जाते हैं, उसी
तरह घर-परिवार के पोषण की चिन्ता में उसकी बुद्धि कुन्द हो जाती है । घर की
घी-तेल-नकक-चावल की निरन्तर चिन्ता प्रखर प्रतिभा-संपन्न व्यक्ति की प्रतिभा को भी
खा जाती है । धनहीन घर श्मसान का रुप धारण कर लेता है । प्रियदर्शना पत्नी का
सौन्दर्य भी रुखा और निर्जीव प्रतीत होने लगता है । जलाशय में उठते बुलबुलों की
तरह उनकी मानमर्यादा समाज में नष्ट हो जाती है । निर्धनता की इन भयानक कल्पनाओं से
मणिभद्र का दिल कांप उठा । उसने सोचा, इस अपमानपूर्ण जीवन से
मृत्यु अच्छी़ है । इन्हीं विचारों में डूबा हुआ था कि उसे नींद आ गई । नींद में
उसने एक स्वप्न देखा । स्वप्न में पद्मनिधि ने एक भिक्षु की वेषभूषा में उसे दर्शन
दिये, और कहा "कि वैराग्य छो़ड़ दे । तेरे पूर्वजों ने
मेरा भरपूर आदर किया था । इसीलिये तेरे घर आया हूँ । कल सुबह फिर इसी वेष में तेरे
पास आऊँगा । उस समय तू मुझे लाठी की चोट से मार डालना । तब मैं मरकर स्वर्णमय हो
जाउँगा । वह स्वर्ण तेरी ग़रीबी को हमेशा के लिए मिटा देगा ।"
सुबह उठने पर मणिभद्र
इस स्वप्न की सार्थकता के संबन्ध में ही सोचता रहा । उसके मन में विचित्र शंकायें
उठने लगीं । न जाने यह स्वप्न सत्य था या असत्य, यह
संभव है या असंभव, इन्हीं विचारों में उसका मन डांवाडोल हो
रहा था । हर समय धन की चिन्ता के कारण ही शायद उसे धनसंचय का स्वप्न आया था । उसे
किसी के मुख से सुनी हुई यह बात याद आ गई कि रोगग्रस्त, शोकातुर,
चिन्ताशील और कामार्त्त मनुष्य के स्वप्न निरथक होते हैं । उनकी
सार्थकता के लिए आशावादी होना अपने को धोखा देना है ।
मणिभद्र यह सोच ही
रहा था कि स्वप्न में देखे हुए भिक्षु के समान ही एक भिक्षु अचानक वहां आ गया ।
उसे देखकर मणिभद्र का चेहरा खिल गया, सपने की बात याद आ गई । उसने
पास में पड़ी लाठी उठाई और भिक्षु के सिर पर मार दी । भिक्षु उसी क्षण मर गया ।
भूमि पर गिरने के साथ ही उसका सारा शरीर स्वर्णमय हो गया । मणिभद्र ने उसका
स्वर्णमय मृतदेह छिपा लिया ।
किन्तु, उसी
समय एक नाई वहां आ गया था । उसने यह सब देख लिया था । मणिभद्र ने उसे पर्याप्त
धन-वस्त्र आदि का लोभ देकर इस घटना को गुप्त रखने का आग्रह किया । नाई ने वह बात
किसी और से तो नहीं कही, किन्तु धन कमाने की इस सरल रीति का
स्वयं प्रयोग करने का निश्चय कर लिया । उसने सोचा यदि एक भिक्षु लाठी से चोट खाकर
स्वर्णमय हो सकता है तो दूसरा क्यों नहीं हो सकता । मन ही मन ठान ली कि वह भी कल
सुबह कई भिक्षुओं को स्वर्णमय बनाकर एक ही दिन में मणिभद्र की तरह श्रीसंपन्न हो
जाएगा । इसी आशा से वह रात भर सुबह होने की प्रतीक्षा करता रहा, एक पल भी नींद नहीं ली ।
सुबह उठकर वह
भिक्षुओं की खोज में निकला । पास ही एक भिक्षुओं का मन्दिर था । मन्दिर की तीन
परिक्रमायें करने और अपनी मनोरथसिद्धि के लिये भगवान बुद्ध से वरदान मांगने के बाद
वह मन्दिर के प्रधान भिक्षु के पास गया, उसके चरणों का स्पर्श किया और
उचित वन्दना के बाद यह विनम्र निवेदन किया कि----"आज की भिक्षा के लिये आप
समस्त भिक्षुओं समेत मेरे द्वार पर पधारें ।"
प्रधान भिक्षु ने नाई
से कहा----"तुम शायद हमारी भिक्षा के नियमों से परिचित नहीं हो । हम उन
ब्राह्मणों के समान नहीं हैं जो भोजन का निमन्त्रण पाकर गृहस्थों के घर जाते हैं ।
हम भिक्षु हैं,
जो यथेच्छा़ से घूमते-घूमते किसी भी भक्तश्रावक के घर चले जाते हैं
और वहां उतना ही भोजन करते हैं जितना प्राण धारण करने मात्र के लिये पर्याप्त
हो । अतः, हमें
निमन्त्रण न दो । अपने घर जाओ, हम किसी भी दिन तुम्हारे
द्वार पर अचानक आ जायेंगे ।"
नाई को प्रधान भिक्षु
की बात से कुछ़ निराशा हुई, किन्तु उसने नई युक्ति से काम
लिया । वह बोला----"मैं आपके नियमों से परिचित हूं, किन्तु
मैं आपको भिक्षा के लिये नहीं बुला रहा । मेरा उद्देश्य तो आपको पुस्तक-लेखन की
सामग्री देना है । इस महान् कार्य की सिद्धि आपके आये बिना नहीं होगी ।"
प्रधान भिक्षु नाई की बात मान गया । नाई ने जल्दी से घर की राह ली । वहां जाकर
उसने लाठियां तैयार कर लीं, और उन्हें दरवाजे के पास रख दिया
। तैयारी पूरी हो जाने पर वह फिर भिक्षुओं के पास गया और उन्हें अपने घर की ओर ले
चला । भिक्षु-वर्ग भी धन-वस्त्र के लालच से उसके पीछे-पीछे चलने लगा । भिक्षुओं के
मन में भी तृष्णा का निवास रहता ही है । जगत् के सब प्रलोभन छोड़ने के बाद भी
तृष्णा संपूर्ण रुप से नष्ट नहीं होती । उनके देह के अंगों में जीर्णता आ जाती है,
बाल रुखे हो जाते हैं, दांत टूट कर गिर जाते
हैं, आंख-कान बूढे़ हो जाते हैं, केवल
मन की तृष्णा ही है जो अन्तिम श्वास तक जवान रहती है ।
उनकी तृष्णा ने ही
उन्हें ठग लिया । नाई ने उन्हें घर के अन्दर लेजाकर लाठियों से मारना शुरु कर दिया
। उनमें से कुछ तो वहीं धराशायी हो गये, और कुछ़ का सिर फूट गया ।
उनका कोलाहल सुनकर लोग एकत्र हो गये । नगर के द्वारपाल भी वहाँ आ पहुँचे । वहाँ
आकर उन्होंने देखा कि अनेक भिक्षुओं का मृतदेह पड़ा है, और
अनेक भिक्षु आहत होकर प्राण-रक्षा के लिये इधर-उधर दौड़ रहे हैं
नाई से जब इस रक्तपात
का कारण पूछा़ गया तो उसने मणिभद्र के घर में आहत भिक्षु के स्वर्णमय हो जाने की
बात बतलाते हुए कहा कि वह भी शीघ्र स्वर्ण संचय करना चाहता था । नाई के मुख से यह
बात सुनने के बाद राज्य के अधिकारियों ने मणिभद्र को बुलाया और पूछा
कि----"क्या तुमने किसी भिक्षु की हत्या की है ?"
मणिभद्र ने अपने
स्वप्न की कहानी आरंभ से लेकर अन्त तक सुना दी । राज्य के धर्माधिकारियों ने उस
नाई को मृत्युदण्ड की आज्ञा दी । और कहा---ऐसे ’कुपरीक्षितकारी’----बिना सोचे काम करने वाले के लिये यही दण्ड उचित था । मनुष्य को उचित है कि
वह अच्छी़ तरह देखे, जाने, सुने और
उचित परीक्षा किये बिना कोई भी कार्य न करे । अन्यथा उसका वही परिणाम होता है जो
इस कहानी के नाई का हुआ । और उसे बाद में वैसा ही सन्ताप होता है जैसा नेवले को
मारने वाली ब्राह्मणी को हुआ था ।"
मणिभद्र ने
पूछा़---"किस ब्राह्मणी को ?"
धर्माधिकारियों ने
इसके उत्तर में निम्न कथा सुनाई----
एक बार देवशर्मा नाम
के ब्राह्मण के घर जिस दिन पुत्र का जन्म हुआ उसी दिन उसके घर में रहने वाली नकुली
ने भी एक नेवले को जन्म दिया । देवशर्मा की पत्नी बहुत दयालु स्वभाव की स्त्री थी
। उसने उस छो़टे नेवले को भी अपने पुत्र के समान ही पाल-पोसा और बड़ा किया । वह
नेवला सदा उसके पुत्र के साथ खेलता था । दोनों में बड़ा प्रेम था । देवशर्मा की पत्नी
भी दोनों के प्रेम को देखकर प्रसन्न थी । किन्तु, उसके
मन में यह शंका हमेशा रहती थी कि कभी यह नेवला उसके पुत्र को न काट खाये । पशु के
बुद्धि नहीं होती, मूर्खतावश वह कोई भी अनिष्ट कर सकता है ।
एक दिन उसकी इस आशंका
का बुरा परिणाम निकल आया । उस दिन देवशर्मा की पत्नी अपने पुत्र को एक वृक्ष की
छा़या में सुलाकर स्वयं पास के जलाशय से पानी भरने गई थी । जाते हुए वह अपने पति
देवशर्मा से कह गई थी कि वहीं ठहर कर वह पुत्र की देख-रेख करे, कहीं
ऐसा न हो कि नेवला उसे काट खाये । पत्नी के जाने के बाद देवशर्मा ने सोचा,
’कि नेवले और बच्चे में गहरी मैत्री है, नेवला
बच्चे को हानि नहीं पहुँचायेगा ।’ यह सोचकर वह अपने सोये हुए
बच्चे और नेवले को वृक्ष की छा़या में छो़ड़कर स्वयं भिक्षा के लोभ से कहीं चल पड़ा
।
दैववश उसी समय एक
काला नाग पास के बिल से बाहिर निकला । नेवले ने उसे देख लिया । उसे डर हुआ कि कहीं
यह उसके मित्र को न डस ले, इसलिये वह काले नाग पर टूट पड़ा, और स्वयं बहुत क्षत-विक्षत होते हुए भी उसने नाग के खंड-खंड कर दिये ।
सांप को मारने के बाद वह उसी दिशा में चल पड़ा, जिधर देवशर्मा
की पत्नी पानी भरने गई थी । उसने सोचा कि वह उसकी वीरता की प्रशंसा करेगी,
किन्तु हुआ इसके विपरीत । उसकी खून से सनी देह को देखकर ब्राह्मण
पत्नी का मन उन्हीं पुरानी आशङकाओं से भर गया कि कहीं इसने उसके पुत्र की हत्या न
कर दी
हो । यह विचार आते ही
उसने क्रोध से सिर पर उठाये घड़े को नेवले पर फैंक दिया । छो़टा सा नेवला जल से
भारी घड़े की चोट खाकर वहीं मर गया । ब्राह्मण-पत्नी वहाँ से भागती हुई वृक्ष के
नीचे पहुँची । वहाँ पहुँचकर उसने देखा कि उसका पुत्र बड़ी शान्ति से सो रहा है, और
उससे कुछ दूरी पर एक काले साँप का शरीर खँड-खँड हुआ पड़ा है । तब उसे नेवले की
वीरता का ज्ञान हुआ । पश्चात्ताप से उसकी छा़ती फटने लगी ।
इसी बीच ब्राह्मण
देवशर्मा भी वहाँ आ गया । वहाँ आकर उसने अपनी पत्नी को विलाप करते देखा तो उसका
मन भी सशंकित हो गया । किन्तु पुत्र को कुशलपूर्वक सोते देख उसका मन शान्त हुआ ।
पत्नी ने अपने पति देवशर्मा को रोते-रोते नेवले की मृत्यु का समाचार सुनाया और
कहा----"मैं तुम्हें यहीं ठहर कर बच्चे की देख-भाल के लिये कह गई थी । तुमने
भिक्षा के लोभ से मेरा कहना नहीं माना । इसी से यह परिणाम हुआ । मनुष्य को अतिलोभ
नहीं करना चाहिये । अतिलोभ से कई बार मनुष्य के मस्तक पर चक्र लग जाता है ।"
ब्राह्मण ने
पूछा़---"यह कैसे ?"
ब्राह्मणी ने तब
निम्न कथा सुनाई----
एक नगर में चार
ब्राह्मण पुत्र रहते थे । चारों में गहरी मैत्री थी । चारों ही निर्धन थे ।
निर्धनता को दूर करने के लिए चारों चिन्तित थे । उन्होंने अनुभव कर लिया था कि
अपने बन्धु-बान्धवों में धनहीन जीवन व्यतीत करने की अपेक्षा शेर-हाथियों से भरे
कंटीले जङगल में रहना अच्छा़ है । निर्धन व्यक्ति को सब अनादर की दृष्टि से देखते
हैं,
बन्धु-बान्धव भी उस से किनारा कर लेते हैं, अपने
ही पुत्र-पौत्र भी उस से मुख मोड़ लेते हैं, पत्नी भी उससे
विरक्त हो जाती है । मनुष्यलोक में धन्के बिना न यश संभव है, न सुख । धन हो तो कायर भी वीर हो जाता है, कुरुप भी
सुरुप कहलाता है, और मूर्ख भी पंडित बन जाता है ।
यह सोचकर उन्होंने धन
कमाने के लिये किसी दूसरे देश को जाने का निश्चय किया । अपने बन्धु-बान्धवों को
छो़ड़ा,
अपनी जन्म-भूमि से विदा ली और विदेश-यात्रा के लिये चल पड़े ।
चलते-चलते क्षिप्रा
नदी के तट पर पहुँचे । वहाँ नदी के शीतल जल में स्नान करने के बाद महाकाल को
प्रणाम किया । थोड़ी दूर आगे जाने पर उन्हें एक जटाजूटधारी योगी दिखाई दिये । इन
योगिराज का नाम भैरवानन्द था । योगिराज इन चारों नौजवान ब्राह्मणपुत्रों को अपने
आश्रम में ले गए और उनसे प्रवास का प्रयोजन पूछा़ । चारों ने कहा---"हम
अर्थ-सिद्धि के लिये यात्री बने हैं । धनोपार्जन ही हमारा लक्ष्य है । अब या तो धन
कमा कर ही लौटेंगे या मृत्यु का स्वागत करेंगे । इस धनहीन जीवन से मृत्यु अच्छी है
।"
योगिराज ने उनके
निश्चय की परीक्षा के लिये जब यह कहा कि धनवान बनना तो दैव के अधीन है, तब
उन्होंने उत्तर दिया---- "यह सच है कि भाग्य ही पुरुष को धनी बनाता है,
किन्तु साहसिक पुरुष भी अवसर का लाभ उठा कर अपने भाग्य को बदल लेते
हैं । पुरुष का पौरुष कभी-कभी दैव से भी अधिक बलवान हो जाता है । इसलिए आप हमें
भाग्य का नाम लेकर निरुत्साहित न करें । हमने अब धनोपार्जन का प्रण पूरा करके ही
लौटने का निश्चय किया है । आप अनेक सिद्धियों को जानते हैं । आप चाहें तो हमें
सहायता दे सकते हैं, हमारा पथ-प्रदर्शन कर सकते हैं । योगी
होने के कारण आपके पास महती शक्तियाँ हैं । हमारा निश्चय भी महान् है। महान् ही
महान् की सहायता कर सकता है ।"
भैरवानन्द को उनकी
दृढ़ता देखकर प्रसन्नता हुई । प्रसन्न होकर धन कमाने का एक रास्ता बतलाते हुए
उन्होंने
कहा ---"तुम
हाथों में दीपक लेकर हिमालय पर्वत की ओर जाओ । वहाँ जाते-जाते जब तुम्हारे हाथ का
दीपक नीचे गिर पड़े तो ठहर जाओ । जिस स्थान पर दीपक गिरे उसे खोदो । वहीं तुम्हें
धन मिलेगा । धन लेकर वापिस चले आओ ।"
चारों युवक हाथों में
दीपक लेकर चल पड़े । कुछ दूर जाने के बाद उन में से एक के हाथ का दीपक भूमि पर गिर
पड़ा । उस भूमि को खोदने पर उन्हें ताम्रमयी भूमि मिली । वह तांबे की खान थी । उसने
कहा----"यहाँ जितना चाहो, ताँबा ले लो ।" अन्य
युवक बोले ---"मूर्ख ! ताँबे से दरिद्रता दूर नहीं होगी । हम आगे बढ़ेंगे ।
आगे इस से अधिक मूल्य की वस्तु मिलेगी ।"
उसने कहा---"तुम
आगे जाओ,
मैं तो यहीं रहूँगा ।" यह कहकर उसने यथेष्ट ताँबा लिया और घर
लौट आया ।
शेष तीनों मित्र आगे
बढ़े । कुछ़ दूर आगे जाने के बाद उन में से एक के हाथ का दीपक जमीन पर गिर पड़ा ।
उसने जमीन खोदी तो चाँदी की खान पाई । प्रसन्न होकर वह बोला---"यहाँ जितनी
चाहो चाँदी ले लो,
आगे मत
जाओ ।" शेष दो
मित्र बोले---"पीछे़ ताँबे की खान मिली थी, यहाँ
चाँदी की खान मिली है; निश्चय ही आगे सोने की खान मिलेगी ।
इसलिये हम तो आगे ही बढ़ेंगे ।" यह कहकर दोनों मित्र आगे बढ़ गये ।
उन दो में से एक के
हाथ से फिर दीपक गिर गया । खोदने पर उसे सोने की खान मिल गई । उसने
कहा---"यहाँ जितना चाहो सोना ले लो । हमारी दरिद्रता का अन्त हो जायगा । सोने
से उत्तम कौन-सी चीज है । आओ, सोने की खान से यथेष्ट सोना
खोद लें और घर ले चलें ।" उसके मित्र ने उत्तर दिया---"मूर्ख ! पहिले
ताँबा मिला था, फिर चाँदी मिली, अब
सोना मिला है; निश्चय ही आगे रत्नों की खान होगी । सोने की
खान छो़ड़ दे और आगे चल ।" किन्तु, वह न माना । उसने
कहा---"मैं तो सोना लेकर ही घर चला जाऊँगा, तूने आगे
जाना है तो जा ।"
अब वह चौथा युवक
एकाकी आगे बढ़ा । रास्ता बड़ा विकट था । काँटों से उसका पैर छ़लनी हो गया । बर्फी़ले
रास्तों पर चलते-चलते शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया, किन्तु
वह आगे ही आगे बढ़ता गया ।
बहुत दूर जाने के बाद
उसे एक मनुष्य मिला,
जिसका सारा शरीर खून से लथपथ था , और जिसके
मस्तक पर चक्र घूम रहा था । उसके पास जाकर चौथा युवक बोला---"तुम कौन हो ?
तुम्हारे मस्तक पर चक्र क्यों घूम रहा है ? यहाँ
कहीं जलाशय है तो बतलाओ, मुझे प्यास लगी है ।"
यह कहते ही उसके
मस्तक का चक्र उतर कर ब्राह्मणयुवक के मस्तक पर लग गया । युवक के आश्चर्य की सीमा
न रही । उसने कष्ट से कराहते हुए पूछा---"यह क्या हुआ ? यह
चक्र तुम्हारे मस्तक से छूटकर मेरे मस्तक पर क्यों लग गया ?"
अजनबी मनुष्य ने
उत्तर दिया---"मेरे मस्तक पर भी यह इसी तरह अचानक लग गया था । अब यह तुम्हारे
मस्तक से तभी उतरेगा जब कोई व्यक्ति धन के लोभ में घूमता हुआ यहाँ तक पहुँचेगा और
तुम से बात करेगा ।"
युवक ने
पूछा---"यह कब होगा ?"
अजनबी----"अब
कौन राजा राज्य कर रहा है ?"
युवक---"वीणा
वत्सराज ।"
अजनबी---"मुझे
काल का ज्ञान नहीं । मैं राजा राम के राज्य में दरिद्र हुआ था, और
सिद्धि का दीपक लेकर यहाँ तक पहुँचा था । मैंने भी एक और मनुष्य से यही प्रश्न
किये थे, जो तुम ने मुझ से किये हैं ।"
युवक ---"किन्तु, इतने
समय में तुम्हें भोजन व जल कैसे मिलता रहा ?"
अजनबी ---"यह
चक्र धन के अति लोभी पुरुषों के लिये बना है । इस चक्र के मस्तक पर लगने के बाद मनुष्य
को भूख,
प्यास, नींद, जरा,
मरण आदि नहीं सताते । केवल चक्र घूमने का कष्ट ही सताता रहता है ।
वह व्यक्ति अनन्त काल तक कष्ट भोगता है ।"
यह कहकर वह चला गया ।
और वह अति लोभी ब्राह्मण युवक कष्ट भोगने के लिए वहीं रह गया । थोड़ी देर बाद खून
से लथपथ हुआ वह इधर-उधर घूमते-घूमते उस मित्र के पास पहुँचा जिसे स्वर्ण की सिद्धि
हुई थी,
और जो अब स्वर्ण-कण बटोर रहा था । उससे चक्रधर ब्राह्मण युवक ने सब
वृत्तान्त कह सुनाया । स्वर्ण-सिद्धि युवक ने चक्रधर युवक को कहा कि---"मैंने
तुझे आगे जाने से रोका था । तू ने तब मेरा कहना नहीं माना । बात यह है कि तुझे
ब्राह्मण होने के कारण विद्या तो मिल गई, कुलीनता भी मिली;
किन्तु भले बुरे को परखने वाली बुद्धि नहीं मिली । विद्या की
अपेक्षा बुद्धि का स्थान ऊँचा है । विद्या होते हुए जिनके पास बुद्धि नहीं होती,
वे सिंहकारकों की तरह नष्ट हो जाते हैं ।"
चक्रधर ने
पूछा़---"किन सिंहकारकों की तरह ?"
स्वर्णसिद्धि ने तब
अगली कथा सुनाई---
एक नगर में चार मित्र
रहते थे । उनमें से तीन बड़े वैज्ञानिक थे, किन्तु बुद्धिरहित थे;
चौथा वैज्ञानिक नहीं था, किन्तु बुद्धिमान् था
। चारों ने सोचा कि विद्या का लाभ तभी हो सकता है, यदि वे
विदेशों में जाकर धन संग्रह करें । इसी विचार से वे विदेशयात्रा को चल पड़े ।
कुछ़ दूर जाकर उनमें
से सब से बड़े ने कहा---
"हम चारों
विद्वानों में एक विद्या-शून्य है, वह केवल बुद्धिमान् है ।
धनोपार्जन के लिये और धनिकों की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिये विद्या आवश्यक है
। विद्या के चमत्कार से ही हम उन्हें प्रभावित कर सकते हैं । अतः हम अपने धन का
कोई भी भाग इस विद्याहीन को नहीं देंगे । वह चाहे तो घर वापिस चला जाये ।"
दूसरे ने इस बात का
समर्थन किया । किन्तु, तीसरे ने कहा----"यह बात उचित नहीं
है । बचपन से ही हम एक दूसरे के सुख-दुःख के सहभागी रहे हैं । हम जो भी धन
कमायेंगे, उसमें इसका हिस्सा रहेगा । अपने-पराये की गणना
छो़टे दिल वालों का काम है । उदार-चरित व्यक्तियों के लिये सारा संसार ही अपना
कुटुम्ब होता है । हमें उदारता दिखलानी चाहिये ।"
उसकी बात मानकर चारों
आगे चल पडे़ । थोड़ी दूर जाकर उन्हें जंगल में एक शेर का मृत-शरीर मिला । उसके
अंग-प्रत्यंग बिखरे हुए थे । तीनों विद्याभिमानी युवकों ने कहा, "आओ, हम अपनी विज्ञान की शिक्षा की परीक्षा करें ।
विज्ञान के प्रभाव से हम इस मृत-शरीर में नया जीवन डाल सकते हैं ।" यह कह कर
तीनों उसकी हड्डियां बटोरने और बिखरे हुए अंगों को मिलाने में लग गये । एक ने
अस्थिसंचय किया, दूसरे ने चर्म, मांस,
रुधिर संयुक्त किया, तीसरे ने प्राणों के
संचार की प्रक्रिया शुरु की । इतने में विज्ञान-शिक्षा से रहित, किन्तु बुद्धिमान् मित्र ने उन्हें सावधान करते हुए कहा ---"जरा ठहरो
। तुम लोग अपनी विद्या के प्रभाव से शेर को जीवित कर रहे हो । वह जीवित होते ही
तुम्हें मारकर खाजायेगा ।"
वैज्ञानिक मित्रों ने
उसकी बात को अनसुना कर दिया । तब वह बुद्धिमान् बोला ---"यदि तुम्हें अपनी
विद्या का चमत्कार दिखलाना ही है तो दिखलाओ । लेकिन एक क्षण ठहर जाओ, मैं
वृक्ष पर चढ़ जाऊँ ।" यह कहकर वह वृक्ष पर चढ़ गया ।
इतने में तीनों
वैज्ञानिकों ने शेर को जीवित कर दिया । जीवित होते ही शेर ने तीनों पर हमला कर
दिया । तीनों मारे गये ।
x x x
अतः शास्त्रों में
कुशल होना ही पर्याप्त नहीं है । लोक-व्यवहार को समझने और लोकाचार के अनुकूल काम
करने की बुद्धि भी होनी चाहिये । अन्यथा लोकाचार-हीन विद्वान् भी मूर्ख-पंडितों की
तरह उपहास के पात्र बनते हैं ।"
चक्रधर ने
पूछा---"कौन से मूर्ख पंडितों की तरह ?"
स्वर्णसिद्धि युवक ने
तब यह अगली कथा सुनाई ---
एक स्थान पर चार
ब्राह्मण रहते थे । चारों विद्याभ्यास के लिये कान्यकुब्ज गये । निरन्तर १२ वर्ष
तक विद्या पढ़ने के बाद वे सम्पूर्ण शास्त्रों के पारंगत विद्वान् हो गये, किन्तु
व्यवहार-बुद्धि से चारों खाली थे । विद्याभ्यास के बाद चारों स्वदेश के लिये लौट
पड़े । कुछ़ देर चलने के बाद रास्ता दो ओर फटता था । ’किस
मार्ग से जाना चाहिये,’ इसका कोई भी निश्चय न करने पर वे
वहीं बैठ गये । इसी समय वहां से एक मृत वैश्य बालक की अर्थी निकली । अर्थी के साथ
बहुत से महाजन भी थे । ’महाजन’ नाम से
उनमें से एक को कुछ़ याद आ गया । उसने पुस्तक के पन्ने पलटकर देखा तो लिखा था
---"महाजनो येन गतः स पन्थाः"---
अर्थात् जिस मार्ग से
महाजन जाये,
वही मार्ग है । पुस्तक में लिखे को ब्रह्म-वाक्य मानने वाले चारों
पंडित महाजनों के पीछे़-पीछे़ श्मशान की ओर चल पड़े ।
थोड़ी दूर पर श्मशान
में उन्होंने एक गधे को खड़ा हुआ देखा । गधे को देखते ही उन्हें शास्त्र की यह बात
याद आ गई "राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठ्ति स बान्धवः"----अर्थात्
राजद्वार और श्मशान में जो खड़ा हो, वह भाई होता है । फिर क्या था,
चारों ने उस श्मशान में खड़े गधे को भाई बना लिया । कोई उसके गले से
लिपट गया, तो कोई उसके पैर धोने लगा ।
इतने में एक ऊँट उधर
से गुज़रा । उसे देखकर सब विचार में पड़ गये कि यह कौन है । १२ वर्ष तक विद्यालय की
चारदीवारी में रहते हुएअ उन्हें पुस्तकों के अतिरिक्त संसार की किसी वस्तु का
ज्ञान नहीं था । ऊँट को वेग से भागते हुए देखकर उनमें से एक को पुस्तक में लिखा यह
वाक्य याद आ गया---"धर्मस्य त्वरिता गतिः"---अर्थात् धर्म की गति में
बड़ा वेग होता है । उन्हें निश्चय हो गया कि वेग से जाने वाली यह वस्तु अवश्य धर्म
है । उसी समय उनमें से एक को याद आया---"इष्टं धर्मेण योजयेत् "
--अर्थात् धर्म का संयोग इष्ट से करादे । उनकी समझ में इष्ट बान्धव था गधा और ऊँट
या धर्म;
दोनों का संयोग कराना उन्होंने शास्त्रोक्त मान लिया । बस, खींचखांच कर उन्होंने ऊँट के गले में गधा बाँध दिया । वह गधा एक धोबी का
था । उसे पता लगा तो वह भागा हुआ आया । उसे अपनी ओर आता देखकर चारों
शास्त्र-पारंगत पंडित वहाँ से भाग खडे़ हुए ।
थोड़ी दूर पर एक नदी
थी । नदी में पलाश का एक पत्ता तैरता हुआ आ रहा था । इसे देखते ही उनमें से एक को
याद आ गया---
"आगमिष्यति
यत्पत्रं तदस्मांस्तारयिष्यति" अर्थात् जो पत्ता तैरता हुआ आयगा, वही
हमारा उद्धार करेगा । उद्धार की इच्छा से वह मूर्ख पंडित पत्ते पर लेट गया । पत्ता
पानी में डूब गया तो वह भी डूबने लगा । केवल उसकी शिक्षा पानी से बाहिर रह गई ।
इसी तरह बहते-बहते जब वह दूसरे मूर्ख पंडित के पास पहुँचा तो उसे एक और शास्त्रोक्त
वाक्य याद आ गया---"सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति
पंडितः"----अर्थात् सम्पूर्ण का नाश होते देखकर आधे को बचाले और आधे का त्याग
कर दे । यह याद आते ही उसने बहते हुए पूरे आदमी का आधा भाग बचाने के लिये उसकी
शिखा पकड़कर गरदन काट दी । उसके हाथ में केवल सिर का हिस्सा आ गया । देह पानी में
बह गई ।
उन चार के अब तीन रह
गये । गाँव पहुँचने पर तीनों को अलग-अलग घरों में ठहराया गया । वहां उन्हें जब
भोजन दिया गया तो एक ने सेमियों को यह कहकर छो़ड़ दिया ----"दीर्घसूत्री
विनश्यति"----अर्थात् दीर्घ तन्तु वाली वस्तु नष्ट हो जाती है । दूसरे को
रोटियां दी गईं तो उसे याद आ गया----"अतिविस्तारविस्तीर्णं तद्भवेन्न
चिरायुषम् " अर्थात् बहुत फैली हुई वस्तु आयु को घटाती है । तीसरे को छिद्र
वाली वटिका दी गयी तो उसे याद आ गया---’छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति’----अर्थात् छिद्र वाली वस्तु में बहुत अनर्थ होते हैं । परिणाम यह हुआ कि
तीनों की जगहँसाई हुई और तीनों भूखे भी रहे ।
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व्यवहार-बुद्धि के
बिना पंडित भी मूर्ख ही रहते हैं । व्यवहारबुद्धि भी एक ही होती है । सैंकड़ों
बुद्धियाँ रखने वाला सदा डांवाडोल रहता है । उसकी वही दशा होती है जो शतबुद्धि और
सहस्त्रबुद्धि मछ़ली की हुई थी । मंडूक के पास एक ही बुद्धि थी ---- इसलिये वह बच
गया ।
चक्रधर ने
पूछा़----"यह कैसे हुआ ?"
स्वर्णसिद्धि ने तब
यह कथा सुनाई----
एक तालाब में दो
मछ़लियाँ रहती थीं । एक थी शतबुद्धि (सौ बुद्धियों वाली), दूसरी
थी सहस्त्रबुद्धि (हजार बुद्धियों वाली) । उसी तालाब में एक मेंढक भी रहता था ।
उसका नाम था एकबुद्धि । उसके पास एक ही बुद्धि थी । इसलिये उसे बुद्धि पर अभिमान
नहीं था । शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि को अपनी चतुराई पर बड़ा अभिमान था ।
एक दिन सन्ध्या समय
तीनों तालाब के किनारे बात-चीत कर रहे थे । उसी समय उन्होंने देखा कि कुछ़
मछि़यारे हाथों में जाल लेकर वहाँ आये । उनके जाल में बहुत सी मछ़लियाँ फँस कर तड़प
रही थीं । तालाब के किनारे आकर मछि़यारे आपस में बात करने लगे । एक ने कहा ---
"इस तालाब में
खूब मछ़लियाँ हैं,
पानी भी कम है । कल हम यहाँ आकर मछ़लियां पकड़ेंगे ।"
सबने उसकी बात का
समर्थन किया । कल सुबह वहाँ आने का निश्चय करके मछि़यारे चले गये । उनके जाने के
बाद सब मछ़लियों ने सभा की । सभी चिन्तित थे कि क्या किया जाय । सब की चिन्ता का
उपहास करते हुये सहस्त्रबुद्धि ने कहा---"डरो मत, दुनियां
में सभी दुर्जनों के मन की बात पूरी होने लगे तो संसार में किसी का रहना कठिन हो
जाय । सांपों और दुष्टों के अभिप्राय कभी पूरे नहीं होते; इसीलिये
संसार बना हुआ है । किसी के कथनमात्र से डरना कापुरुषों का काम है । प्रथम तो वह
यहाँ आयेंगे ही नहीं, यदि आ भी गये तो मैं अपनी बुद्धि के
प्रभाव से सब की रक्षा करलूँगी ।" शतबुद्धि ने भी उसका समर्थन करते हुए
कहा----"बुद्धिमान के लिए संसार में सब कुछ़ संभव है । जहां वायु और प्रकाश
की भी गति नहीं होती, वहां बुद्धिमानों की बुद्धि पहुँच जाती
है । किसी के कथनमात्र से हम अपने पूर्वजों की भूमि को नहीं छो़ड़ सकते । अपनी
जन्मभूमि में जो सुख होता है वह स्वर्ग में भी नहीं होता । भगवान ने हमें बुद्धि
दी है, भय से भागने के लिए नहीं, बल्कि
भय का युक्तिपूर्वक सामना करने के लिए ।"
तालाब की मछ़लियों को
तो शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि के आश्वासन पर भरोसा हो गया, लेकिन
एकबुद्धि मेंढक ने कहा---"मित्रो ! मेरे पास तो एक ही बुद्धि है; वह मुझे यहां से भाग जाने की सलाह देती है । इसलिए मैं तो सुबह होने से
पहले ही इस जलाशय को छो़ड़कर अपनी पत्नी के साथ दूसरे जलाशय में चला जाऊँगा ।"
यह कहकर वह मेंढक मेंढकी को लेकर तालाब से चला गया ।
दूसरे दिन अपने
वचनानुसार वही मछि़यारे वहाँ आये । उन्होंने तालाब में जाल बिछा़ दिया । तालाब की
सभी मछ़लियां जाल में फँस गईं । शतबुद्धि और सहस्त्रबुद्धि ने बचाव के लिए बहुत से
पैंतरे बदले,
किन्तु मछि़यारे भी अनाड़ी न थे । उन्होंने चुन-चुन कर सब मछ़लियों
को जाल में बांध लिया । सबने तड़प-तड़प कर प्राण दिये ।
सन्ध्या समय
मछि़यारों ने मछ़लियों से भरे जाल को कन्धे पर उठा लिया । शतबुद्धि और
सहस्त्रबुद्धि बहुत भारी मछ़लियां थीं, इसीलिए इन दोनों को उन्होंने
कन्धे पर और हाथों पर लटका लिया था । उनकी दुरवस्था देखकर मेंढक ने मेंढकी से
कहा---
"देख प्रिये !
मैं कितना दूरदर्शी हूं । जिस समय शतबुद्धि कन्धों पर और सहस्त्रबुद्धि हाथों में
लटकी जा रही है,
उस समय मैं एकबुद्धि इस छो़टे से जलाशय के निर्मल जल में सानन्द
विहार कर रहा हूँ । इसलिए मैं कहता हूँ कि विद्या से बुद्धि का स्थान ऊँचा है,
और बुद्धि में भी सहस्त्रबुद्धि की अपेक्षा एकबुद्धि होना अधिक
व्यावहारिक है ।"
यह कहानी पूरी होने
के बाद चक्रधर ने पूछा---
"तो क्या मित्र
को सलाह सदा माननी चाहिए ?"
स्वर्णसिद्धि ने
उत्तर दिया ----
"मित्र के वचन
का उल्लंघन ठीक नहीं है । जो विद्या-बुद्धि के अहंकार या लोभवश मित्र की बात को
अनसुनी कर देते हैं वे अपने मित्र गीदड़ की बात न मानने वाले गधे की तरह कष्ट उठाते
हैं ।
चक्रधर ने
पूछा़----"वह कैसे ?"
स्वर्णसिद्धि ने तब
यह कथा सुनाई ----
एक गांव में उद्धत
नाम का गधा रहता था । दिन में धोबी का भार ढोने के बाद रात को वह स्वेच्छा़ से
खेतों में घूमा करता था । सुबह होने पर वह स्वयं धोबी के पास आ जाता था ।
रात को खेतों में
घूमते-घूमते उसकी जान-पहचान एक गीदड़ से हो गई । गीदड़ मैत्री करने में बड़े चतुर
होते हैं । गधे के साथ गीदड़ भी खेतों में जाने लगा । खेत की बाड़ को तोड़ कर गधा
अन्दर चला जाता था और वहां गीदड़ के साथ मिलकर कोमल-कोमल ककड़ियां खाकर सुबह अपने घर
आ जाता था ।
एक दिन गधा उमंग में
आ गया । चांदनी रात थी । दूर तक खेत लहलहा रहे थे । गधे ने कहा---"मित्र ! आज
कितनी निर्मल चांदनी खिली है । जी चाहता है, आज खूब गीत गाउँ ।
मुझे सब राग-रागनियां आती हैं । तुझे जो गीत पसन्द हो, वही
गाऊँगा । भला, कौनसा गाऊँ, तू ही बता
।"
गीदड़ ने कहा---’मामा
! इन बातों को रहने दो । क्यों अनर्थ बखेरते हो ? अपनी
मुसीबत आप बुलाने से क्या लाभ ? शायद, तुम
भूल गये कि हम चोरी से खेत में आये हैं । चोर को तो खांसना भी मना है, और तुम ऊँचे स्वर से राग-रागनी गाने की सोच रहे हो । और शायद तुम यह भी
भूल गए कि तुम्हारा स्वर मधुर नहीं है । तुम्हारी शंखध्वनि दूर-दूर तक जायेगी । इन
खेतों के बाहर रखवाले सो रहे हैं । वे जाग गये तो तुम्हारी हड्डियां तोड़ देंगे ।
कल्याण चाहते हो तो इन उमंगों को भूल जाओ; आनन्द पूर्वक अमृत
जैसी मीठी ककड़ियों से पेट भरो । संगीत का व्यसन तुम्हारे लिए अच्छा़ नहीं है
।"
गीदड़ की बात सुनकर
गधे ने उत्तर दिया । "मित्र ! तुम अनचर हो, जंगलों
में रहते हो, इसीलिये संगीत सुधा का रसास्वाद तुमने नहीं
किया है । तभी तुम ऐसी बातें कह रहे हो ।"
गीदड़ ने कहा
---"मामा ! तुम्हारी बात ही ठीक सही, लेकिन तुम भी संगीत तो
नहीं जानते, केवल गले से ढीचू-ढीचू करना ही जानते हो ।"
गधे को गीदड़ की बात
पर क्रोध तो बहुत आया, किन्तु क्रोध को पीते हुए गधा
बोला---"गीदड़ ! यदि मुझे संगीत विद्या का ज्ञान नहीं तो किस को होगा ?
मैं तीनों ग्रामों, सातों स्वरों, २१ मूर्छनाओं, ४६ तालों, तीनों
लयोम, और तीस मात्राओं के भेदों को जानता हूँ । राग में तीन
यति विराम होते हैं, नौ रस होते हैं । ३६ राग-रागिनियों का
मैं पंडित हूँ । ४० तरह के संचारी-व्यभिचारी भावों को भी मैं जानता हूँ । तब भी तू
मुझे रागी नहीं मानता । कारण, कि तू स्वयं राग-विद्या से
अनभिज्ञ है ।"
गीदड़ ने कहा---’मामा
! यदि यही बात है तो मैं तुझे नहीं रोकूंगा । मैं खेत के दरवाजे पर खड़ा चौकीदारी
करता हूँ, तू जैसा जी चाहे गाना गा ।"
गीदड़ के जाने के बाद
गधे ने अपना आलाप शुरु कर दिया । उसे सुनकर खेत के रखवाले दांत पीसते हुए भागे आये
। वहाँ आकर उन्होंने गधे को लाठियों से मार-मार कर जमीन पर गिरा दिया । उन्होंने उसके
गले में सांकली भी बांध दी । गधा भी थोड़ी देर कष्ट से तड़पने के बाद उठ बैठा । गधे
का स्वभाव है कि वह बहुत जल्दी कष्ट की बात भूल जाता है । लाठियों की मार की याद
मूहूर्त भर ही उसे सताती है ।
गधे ने थोड़ी देर में
सांकली तुड़ाली और भागना शुरु कर दिया । गीदड़ भी उस समय दूर खड़ा सब तमाशा देख रहा
था । मुस्कराते हुए वह गधे से बोला---"क्यों मामा ! मेरे मना करते-करते भी
तुमने आलापना शुरु कर दिया । इसीलिये तुम्हें यह दंड मिला । मित्रों की सलाह का
ऐसा तिरस्कार करना उचित नहीं है ।"
x x x
चक्रधर ने इस कहानी
को सुनने के बाद स्वर्णसिद्धि से कहा---"मित्र ! बात तो सच है । जिसके पास न
तो स्वयं बुद्धि है और न जो मित्र की सलाह मानता है, वह
मन्थरक नाम के जुलाहे की तरह तबाह हो जाता है ।"
स्वर्णसिद्धि ने
पूछा़----"वह कैसे ?"
चक्रधर ने तब यह
कहानी सुनाई----
एक बार मन्थरक नाम के
जुलाहे के सब उपकरण,
जो कपड़ा बुनने के काम आते थे, टूट गये ।
उपकरणों को फिर बनाने के लिये लकड़ी की जरुरत थी । लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी लेकर वह
समुद्रतट पर स्थित वन की ओर चल दिया । समुद्र के किनारे पहुँचकर उसने एक वृक्ष
देखा और सोचा कि इसकी लकड़ी से उसके सब उपकरण बन जायेंगे । यह सोच कर वृक्ष के तने
में वह कुल्हाडी़ मारने को ही था कि वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए एक देव ने उसे
कहा----"मैं इस वृक्ष पर आनन्द से रहता हूँ, और समुद्र
की शीतल हवा का आनन्द लेता हूँ । तुम्हें इस वृक्ष को काटना उचित नहीं । दूसरे के
सुख को छी़नने वाला कभी सुखी नहीं होता ।"
जुलाहे ने कहा
----"मैं भी लाचार हूँ । लकड़ी के बिना मेरे उपकरन नहीं बनेंगे, कपड़ा
नही बुना जायगा, जिससे मेरे कुटुम्बी भूखे मर जायेंगे ।
इसलिये अच्छा़ यही है कि तुम किसी और वृक्ष का आश्रय लो, मैं
इस वृक्ष की शाखायें काटने को विवश हूँ ।"
देव ने
कहा----"मन्थरक ! मैं तुम्हारे उत्तर से प्रसन्न हूँ । तुम कोई भी एक वर माँग
लो,
मैं उसे पूरा करुँगा, केवल इस वृक्ष को मत
काटो ।"
मन्थरक
बोला----"यदि यही बात है तो मुझे कुछ देर का अवकाश दो । मैं अभी घर जाकर अपनी
पत्नी से और मित्र से सलाह करके तुम से वर मांगूंगा ।"
देव ने
कहा---"मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करुँगा ।"
गाँव में पहुँचने के
बाद मन्थरक की भेंट अपने एक मित्र नाई से हो गई । उसने उससे पूछा़----"मित्र
! एक देव मुझे वरदान दे रहा है, मैं तुझ से पूछ़ने आया हूँ कि
कौन सा वरदान माँगा जाए ।"
नाई ने
कहा----"यदि ऐसा ही है तो राज्य मांग ले । मैं तेरा मन्त्री बन जाऊंगा, हम
सुख से रहेंगे ।"
तब, मन्थरक
ने अपनी पत्नी से सलाह लेने के बाद वरदान का निश्चय करने की बात नाई से कही । नाई
ने स्त्रियों के साथ ऐसी मन्त्रणा करना नीति-विरुद्ध बतलाया । उसने सम्मति दी कि
"स्त्रियां प्रायः स्वार्थपरायणा होती हैं । अपने सुख-साधन के अतिरिक्त
उन्हें कुछ़ भी सूझ नहीं सकता । अपने पुत्र को भी जब वह प्यार करती है, तो भविष्य में उसके द्वारा सुख की कामनाओं से ही करती है ।"
मन्थरक ने फिर भी पत्नी
से सलाह किये बिना कुछ़ भी न करने का विचार प्रकट किया । घर पहुँचकर वह पत्नी से
बोला--- "आज मुझे एक देव मिला है । वह एक वरदान देने को उद्यत है । नाई की
सलाह है कि राज्य मांग लिया जाय । तू बता कि कौन सी चीज़ मांगी जाये ।"
पत्नी ने उत्तर
दिया---"राज्य-शासन का काम बहुत कष्ट-प्रद है । सन्धि-विग्रह आदि से ही राजा
को अवकाश नहीं मिलता । राजमुकुट प्रायः कांटों का ताज होता है । ऐसे राज्य से क्या
अभिप्राय जो सुख न दे ।"
मन्थरक ने कहा
---"प्रिय ! तुम्हारी बात सच है, राजा राम को और राजा नल को भी
राज्य-प्राप्ति के बाद कोई सुख नहीं मिला था । हमें भी कैसे मिल सकता है ? किन्तु प्रश्न यह है कि राज्य न मांग जाय तो क्या मांगा जाये ।"
मन्थरक-पत्नी ने
उत्तर दिया---"तुम अकेले दो हाथों से जितना कपड़ा बुनते हो, उससे
भी हमारा व्यय पूरा हो जाता है । यदि तुम्हारे हाथ दो की जगह चार हों और सिर भी एक
की जगह दो हों तो कितना अच्छा़ हो । तब हमारे पास आज की अपेक्षा दुगना कपड़ा हो
जायगा । इससे समाज में हमारा मान बढे़गा ।"
मन्थरक को पत्नी की
बात जच गई । समुद्रतट पर जाकर वह देव से बोला---"यदि आप वर देना ही चाहते हैं
तो यह वर दो कि मैं चार हाथ और दो सिर वाला हो जाऊँ ।"
मन्थरक के कहने के
साथ ही उसका मनोरथ पूरा हो गया । उसके दो सिर और चार हाथ हो गये । किन्तु इस बदली
हालत में जब वह गाँव में आया तो लोगों ने उसे राक्षस समझ लिया, और
राक्षस-राक्षस कहकर सब उसपर टूट पड़े ।
x x x
चक्रधर ने कहा
---"बात तो सच है । पत्नी की सलाह न मानता, और
मित्र की ही मानता तो उसकी जान बच जाती । सभी लोग आशारुपी पिशाचिनी से दबे हुए ऐसे
काम कर जाते है, जो जगत में हास्यास्पद होते हैं, जैसे सोमशर्मा के पिता ने किया था ।"
स्वर्णसिद्धि ने
पूछा़---"किस तरह ?"
तब, चक्रधर
ने यह कथा सुनाई----
एक नगर में कोई कंजूस
ब्राह्मण रहता था । उसने भिक्षा से प्राप्त सत्तुओं में से थोडे़ से खाकर शेष से
एक घड़ा भर लिया था । उस घड़े को उसने रस्सी से बांधकर खूंटी पर लटका दिया और उसके
नीचे पास ही खटिया डालकर उसपर लेटे-लेटे विचित्र सपने लेने लगा, और
कल्पना के हवाई घोड़े दौड़ाने लगा ।
उसने सोचा कि जब देश
में अकाल पड़ेगा तो इन सत्तुओं का मूल्य १०० रुपये हो जायगा । उन सौ रुपयों से मैं
दो बकरियां लूँगा । छः महीने में उन दो बकरियों से कई बकरियें बन जायंगी । उन्हें
बेचकर एक गाय लूंगा । गौओं के बाद भैंसे लूंगा और फिर घोड़े ले लूंगा । घोड़ों को
महंगे दामों में बेचकर मेरे पास बहुत सा सोना हो जायगा । सोना बेचकर मैं बहुत बडा़
घर बनाऊँगा । मेरी सम्पत्ति को देखकर कोई भी ब्राह्मण अपनी सुरुपवती कन्या का
विवाह मुझसे कर देगा । वह मेरी पत्नी बनेगी । उससे जो पुत्र होगा उसका नाम मैं
सोमशर्मा रखूंगा । जब वह घुटनों के बल चलना सीख जायेगा तो मैं पुस्तक लेकर घुड़शाला
के पीछे़ की दीवार पर बैठा हुआ उसकी बाल-लीलायें देखूंगा । उसके बाद सोमशर्मा मुझे
देखकर मां की गोद से उतरेगा और मेरी ओर आयेगा तो मैं उसकी मां को क्रोध से
कहूँगा---"अपने बच्चे को संभाल ।" वह गृह-कार्य में व्यग्र होगी, इसलिये
मेरा वचन न सुन सकेगी । तब मैं उठकर उसे पैर की ठोकर से मारुंगा । यह सोचते ही
उसका पैर ठोकर मारने के लिये ऊपर उठा । वह ठोकर सत्तु-भरे घड़े को लगी । घड़ा
चकनाचूर हो गया । कंजूस ब्राह्मण के स्वप्न भी साथ ही चकनाचूर हो गये ।
x x x
स्वर्णसिद्धि ने
कहा---"यह बात तो सच है, किन्तु उसका भी क्या दोष;
लोभवश सभी अपने कर्मों का फल नहीं देख पाते; और
उनको वही फल मिलता है जो चन्द्र भूपति को मिला था ।"
चक्रधर ने पूछा
----"यह कैसे हुआ ?"
स्वर्णसिद्धि ने तब
यह कथा सुनाई ----
एक नगर के राजा
चन्द्र के पुत्रों को बन्दरों से खेलने का व्यसन था । बन्दरों का सरदार भी बड़ा
चतुर था । वह सब बन्दरों को नीतिशास्त्र पढ़ाया करता था । सब बन्दर उसकी आज्ञा का
पालन करते थे । राजपुत्र भी उन बन्दरों के सरदार वानरराज को बहुत मानते थे ।
उसी नगर के राजगृह
में छो़टे राजपुत्र के वाहन के लिये कई मेढे भी थे । उन में से एक मेढा बहुत लोभी
था । वह जब जी चाहे तब रसोई में घुस कर सब कुछ खा लेता था । रसोइये उसे लकड़ी से
मार कर बाहिर निकाल देते थे ।
वानरराज ने जब यह कलह
देखा तो वह चिन्तित हो गया । उसने सोचा ’यह कलह किसी दिन सारे
बन्दरसमाज के नाश का कारण हो जायगा कारण यह कि जिस दिन कोई नौकर इस मेढ़े को जलती
लकड़ी से मारेगा, उसी दिन यह मेढा घुड़साल में घुस कर आग लगा
देगा । इससे कई घोड़े जल जायंगे । जलन के घावों को भरने के लिये बन्दरों की चर्बी
की मांग पैदा होगी । तब, हम सब मारे जायंगे ।’
इतनी दूर की बात
सोचने के बाद उसने बन्दरों को सलाह दी कि वे अभी से राजगृह का त्याग कर दें ।
किन्तु उस समय बन्दरों ने उसकी बात को नहीं सुना । राजगृह में उन्हें मीठे-मीठे फल
मिलते थे । उन्हें छोड़ कर वे कैसे जाते ! उन्होंने वानरराज से कहा कि "बुढ़ापे
के कारण तुम्हारी बुद्धि मन्द पड़ गई है । हम राजपुत्र के प्रेम-व्यवहार और
अमृतसमान मीठे फलों को छोड़कर जंगल में नहीं जायंगे ।"
वानरराज ने आंखों में
आंसू भर कर कहा ---"मूर्खो ! तुम इस लोभ का परिणाम नहीं जानते । यह सुख
तुम्हें बहुत महंगा पड़ेगा ।" यह कहकर वानरराज स्वयं राजगृह छो़ड़्कर वन में
चला गया ।
उसके जाने के बाद एक
दिन वही बात हो गई जिस से वानरराज ने वानरों को सावधान किया था । एक लोभी मेढा जब
रसोई में गया तो नौकर ने जलती लकड़ी उस पर फैंकी । मेढे के बाल जलने लगे । वहाँ से
भाग कर वह अश्वशाला में घुस गया । उसकी चिनगारियों से अश्वशाला भी जल गई । कुछ़
घोड़े आग से जल कर वहीं मर गये । कुछ़ रस्सी तुड़ा कर शाला से भाग गये ।
तब, राजा
ने पशुचिकित्सा में कुशल वैद्यों को बुलाया और उन्हें आग से जले घोड़ों की चिकित्सा
करने के लिये
कहा । वैद्यों ने
आयुर्वेदशास्त्र देख कर सलाह दी कि जले घावों पर बन्दरों की चर्बी की मरहम बना कर
लगाई जाये । राजा ने मरहम बनाने के लिये सब बन्दरों को मारने की आज्ञा दी ।
सिपाहियों ने सब बन्दरों को पकड़ कर लाठियों और पत्थरों से मार दिया ।
वानरराज को जब अपने
वंश-क्षय का समाचार मिला तो वह बहुत दुःखी हुआ । उसके मन में राजा से बदला लेने की
आग भड़क उठी । दिन-रात वह इसी चिन्ता में घुलने लगा । आखिर उसे एक वन मेम ऐसा तालाब
मिला जिसके किनारे मनुष्यों के पदचिन्ह थे । उन चिन्हों से मालूम होता था कि इस
तालाब में जितने मनुष्य गये, सब मर गये; कोई वापिस नहीं आया । वह समझ गया कि यहाँ अवश्य कोई नरभक्षी मगरमच्छ है ।
उसका पता लगाने के लिये उसने एक उपाय किया । कमल नाल लेकर उसका एक सिरा उसने तालाब
में डाला और दूसरे सिरे को मुख में लगा कर पानी पीना शुरु कर दिया ।
थोड़ी देर में उसके
सामने ही तालाब में से एक कंठहार धारण किये हुए मगरमच्छ निकला । उसने
कहा---"इस तालाब में पानी पीने के लिये आ कर कोई वापिस नहीं गया, तूने
कमल नाल द्वारा पानी पीने का उपाय करके विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया है । मैं
तेरी प्रतिभा पर प्रसन्न हूँ । तू जो वर मांगेगा, मैं दूंगा
। कोई सा एक वर मांग ले ।"
वानरराज ने पूछा
----"मगरराज ! तुम्हारी भक्षण-शक्ति कितनी है ?"
मगरराज----"जल
में मैं सैंकड़ों,
सहस्त्रों पशु या मनुष्यों को खा सकता हूँ; भूमि
पर एक गीडड़ भी नहीं ।"
वानरराज----"एक
राजा से मेरा वैर है । यदि तुम यह कंठहार मुझे दे दो तो मैं उसके सारे परिवार को
तालाब में लाकर तुम्हारा भोजन बना सकता हूँ ।"
मगरराज ने कंठहार दे
दिया । वानरराज कंठहार पहिनकर राजा के महल में चला गया । उस कंठहार की चमक-दमक से
सारा राजमहल जगमगा उठा । राजा ने जब वह कंठहार देखा तो पूछा---"वानरराज ! यह
कंठहार तुम्हें कहाँ मिला ?"
वानरराज----"राजन्
! यहाँ से दूर वन में एक तालाब है । वहाँ रविवार के दिन सुबह के समय जो गोता
लगायगा उसे वह कंठहार मिल जायगा ।"
राजा ने इच्छा प्रगट
की कि वह भी समस्त परिवार तथा दरबारियों समेत उस तालाब में जाकर स्नान करेगा, जिस
से सब को एक-एक कंठहार की प्राप्ति हो जायगी ।"
निश्चित दिन राजा
समेत सभी लोग वानरराज के साथ तालाब पर पहुँच गये । किसी को यह न सूझा कि ऐसा कभी
संभव नहीं हो सकता । तृष्णा सबको अन्धा बना देती है । सैंकड़ों वाला हजा़रों चाहता
है;
हजा़रों वाला लाखों की तृष्णा रखता है; लक्षपति
करोड़पति बनने की धुन में लगा रहता है । मनुष्य का शरीर जराजीर्ण हो जाता है,
लेकिन तृष्णा सदा जवान रहती है । राजा की तृष्णा भी उसे उसके काल के
मुख तक ले आई ।
सुबह होने पर सब लोग
जलाशय में प्रवेश करने को तैयार हुए । वानरराज ने राजा से कहा---"आप थोड़ा ठहर
जायं,
पहले और लोगों को कंठहार लेने दीजिये । आप मेरे साथ जलाशय में
प्रवेश कीजियेगा । हम ऐसे स्थान पर प्रवेश करेंगे जहां सबसे अधिक कंठहार मिलेंगे
।"
जितने लोग जलाशय में
गये,
सब डूब गये; कोई ऊपर न आया । उन्हें देरी होती
देख राजा ने चिन्तित होकर वानरराज की ओर देखा । वानरराज तुरन्त वृक्ष की ऊँची शाखा
पर चढ़कर बोला----"महाराज ! तुम्हारे सब बन्धु-बान्धवों को जलाशय में बैठे
राक्षस ने खा लिया है । तुम ने मेरे कुल का नाश किया था; मैंने
तुम्हारा कुल नष्ट कर दिया । मुझे बदला लेना था , ले लिया ।
जाओ, राजमहल को वापिस चले जाओ ।"
राजा क्रोध से पागल
हो रहा था,
किन्तु अब कोई उपाय नहीं था । वानरराज ने सामान्य नीति का पालन किया
था । हिंसा का उत्तर प्रतिहिंसा से और दुष्टता का उत्तर दुष्टता से देना ही
व्यावहारिक नीति है ।
राजा के वापिस जाने
के बाद मगरराज तालाब से निकला । उसने वानरराज की बुद्धिमत्ता की बहुत प्रशंसा की ।
कहानी कहने के बाद
स्वर्णसिद्धि ने चक्रधर से घर वापिस जाने की आज्ञा माँगी । चक्रधर ने
कहा---"मुझे विपत्ति में छोड़ कर तुम कैसे जा सकते हो ? मित्रों
का क्या यही कर्त्तव्य है ? इतने निष्ठुर बनोगे तो नरक में
जाओगे ।"
स्वर्णसिद्धि ने
उत्तर दिया---"तुम्हें कष्ट से छुड़ाना मेरी शक्ति से बाहिर है । बल्कि मुझे
भय है कि कहीं तुम्हारे संसर्ग से मैं भी इसी कष्ट से पीड़ित न हो जाऊँ । अब मेरा
यहाँ से दूर भाग जाना ही ठीक है । नहीं तो मेरी अवस्था भी विकाल राक्षस के पँजे
में फँसे वानर की सी हो जायगी ।"
चक्रधर ने
पूछा---"किस राक्षस के, कैसे ?"
स्वर्णसिद्धि ने तब
राक्षस और वानर की यह कथा सुनाई----
एक नगर में भद्रसेन
नाम का राजा रहता था । उसकी कन्या रत्नवती बहुत रुपवती थी । उसे हर समय यही डर
रहता था कि कोई
राक्षस उसका अपहरण न करले । उसके महल के चारों ओर पहरा रहता था, फिर
भी वह सदा डर से कांपती रहती थी । रात के समय उसका डर और भी बढ़ जाता था ।
एक रात एक राक्षस
पहरेदारों की नज़र बचाकर रत्नवती के घर में घुस गया । घर के एक अंधेरे कोने में जब
वह छि़पा हुआ था तो उसने सुना कि रत्नवती अपनी एक सहेली से कह रही है "यह
दुष्ट विकाल मुझे हर समय परेशान करता है, इसका कोई उपाय कर
।"
राजकुमारी के मुख से
यह सुनकर राक्षस ने सोचा कि अवश्य ही विकाल नाम का कोई दूसरा राक्षस होगा, जिससे
राजकुमारी इतनी डरती है । किसी तरह यह जानना चाहिये कि वह कैसा है ? कितना बलशाली है ?
यह सोचकर वह घोड़े का
रुप धारण करके अश्वशाला में जा छिपा ।
उसी रात कुछ देर बाद
एक चोर उस राज-महल में आया । वह वहाँ घोड़ों की चोरी के लिए ही आया था । अश्वशाला
में जा कर उसने घोड़ों की देखभाल की और अश्वरुपी राक्षस को ही सबसे सुन्दर घोड़ा
देखकर वह उसकी पिठ पर चढ़ गया । अश्वरुपी राक्षस ने सम्झा कि अवश्यमेव यह व्यक्ति
ही विकाल राक्षस है और मुझे पहचान कर मेरी हत्या के लिए ही यह मेरी पीठ पर चढ़ा है
। किन्तु अब कोई चारा नहीं था । उसके मुख में लगाम पड़ चुकी थी । चोर के हाथ में
चाबुक थी । चाबुक लगते ही वह भाग खड़ा हुआ ।
कुछ दूर जाकर चोर ने
उसे ठहरने के लिए लगाम खींची, लेकिन घोड़ा भागता ही गया ।
उसका वेग कम होने के स्थान पर बढ़ता ही गया । तब, चोर के मन
में शंका हुई, यह घोड़ा नहीं बल्कि घोड़े की सूरत में कोई
राक्षस है, जो मुझे मारना चाहता है । किसी ऊबड़-खाबड़ जगह पर
ले जाकर यह मुझे पटक देगा । मेरी हड्डी-पसली टूट जायेगी ।
यह सोच ही रहा था कि
सामने वटवृक्ष की एक शाखा आई । घोड़ा उसके नीचे से गुजरा । चोर ने घोडे़ से बचने का
उपाय देखकर शाखा को दोनों हाथों से पकड़ लिया । घोड़ा नीचे से गुज़र गया, चोर
वृक्ष की शाखा से लटक कर बच गया ।
उसी वृक्ष पर अश्वरुपी
राक्षस का एक मित्र बन्दर रहता था । उसने डर से भागते हुये अश्वरुपी राक्षस को
बुलाकर कहा---
"मित्र ! डरते
क्यों हो ?
यह कोई राक्षस नहीं, बल्कि मामूली मनुष्य है ।
तुम चाहो तो इसे एक क्षण में खाकर हज़म कर लो ।"
चोर ओ बन्दर पर बड़ा
क्रोध आ रहा था । बन्दर उससे दूर ऊँची शाखा पर बैठा हुआ था । किन्तु उसकी लम्बी
पूंछ चोर के मुख के सामने ही लटक रही थी । चोर ने क्रोधवश उसकी पूंछ को अपने
दांतों में भींच कर चबाना शुरु कर दिया । बन्दर को पीड़ा तो बहुत हुई लेकिन मित्र
राक्षस के सामने चोर की शक्ति को कम बताने के लिये वह वहाँ बैठा ही रहा । फिर भी, उसके
चेहरे पर पीड़ा की छाया साफ नजर आ रही थी । उसे देखकर राक्षस ने कहा---
"मित्र ! चाहे
तुम कुछ ही कहो,
किन्तु तुम्हारा चेहरा कह रहा है कि तुम विकाल राक्षस के पंजे में आ
गये हो ।"
यह कह कर वह भाग गया
।
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यह कहानी सुनाकर
स्वर्णसिद्धि ने चक्रधर से फिर घर वापिस जाने की आज्ञा मांगी और उसे लोभ-वृक्ष का
फल खाने के लिए वहीं ठहरने का उलाहना दिया ।
चक्रधर ने
कहा---"मित्र ! उपालंभ देने से क्या लाभ ? यह
तो दैव का संयोग है । अन्ध, कुबडे़ और विकृत शरीर व्यक्ति भी
संयोग से जन्म लेते हैं, उनके साथ भी न्याय होता है । उनके
उद्धार का भी समय आता है ।"
एक राजा के घर विकृत
कन्या हुई थी । दरबारियों ने राजा से निवेदन किया कि ----"महाराज !
ब्राह्मणों को बुलाकर इसके उद्धार का प्रश्न कीजिये ।" मनुष्य को सदा
जिज्ञासु रहना चाहिये; और प्रश्न पूछ़ते रहना चाहिये । एक बार
राक्षसेन्द्र के पंजे में पड़ा हुआ ब्राह्मण केवल प्रश्न केबल पर छूट गया था ।
प्रश्न की बड़ी महिमा है ।
राजा ने
पूछा़---"यह कैसे ?"
तब दरबारियों ने
निम्न कथा सुनाई----
एक जङगल में चंडकर्मा
नाम का राक्षस रहता था । जङगल में घूमते-घूमते उसके हाथ एक दिन एक ब्राह्मण आ
गया ।
वह राक्षस ब्राह्मण
के कन्धे पर बैठ गया । ब्राह्मण के प्रश्न करने पर वह बोला----"ब्राह्मण !
मैंने व्रत लिया हुआ है । गीले पैरों से मैं ज़मीन को नहीं छू सकता । इसीलिए तेरे
कन्धों पर बैठा हूँ ।"
थोड़ी दूर पर जलाशय था
। जलाशय में स्नान के लिये जाते हुए राक्षस ने ब्राह्मण को सावधान कर दिया
कि---"जब तक मैं स्नान करता हूँ, तू यहीं बैठकर मेरी प्रतीक्षा
कर ।" राक्षस की इच्छा़ थी कि वह स्नान के बाद ब्राह्मण का वध करके उसे खा
जायगा । ब्राह्मण को भी इसका सन्देह हो गया था । अतः ब्राह्मण अवसर पाकर वहाँ से
भाग निकला । उसे मालूम हो चुका था कि राक्षस गीले पैरों से ज़मीन नहीं छू सकता,
इसलिये वह उसका पीछा़ नहीं कर सकेगा ।
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ब्राह्मण यदि राक्षस
से प्रश्न न करता तो उसे यह भेद कभी मालूम न होता । अतः मनुष्य को प्रश्न करने से
कभी चूकना नहीं चाहिये । प्रश्न करने की आदत अनेक बार उसकी जीवन-रक्षा कर देती है
।
स्वर्णसिद्धि ने
कहानी सुनकर कहा----"यह तो ठीक ही है । दैव अनुकूल हो तो सब काम स्वयं सिद्ध
हो जाते हैं । फिर भी पुरुष को श्रेष्ठ मित्रों के वचनों का पालन करना ही चाहिये ।
स्वेच्छाचार बुरा है । मित्रों की सलाह से मिल-जुलकर और एक दूसरे का भला चाहते हुए
ही सब काम करने चाहियें । जो लोग एक दूसरे का भला नहीं चाहते और स्वेच्छया सब काम
करते हैं,
उनकी दुर्गति वैसी ही होती है जैसी स्वेच्छाचारी भारण्ड पक्षी की
हुई थी ।
चक्रधर ने
पूछा़---"वह कैसे ?"
स्वर्णसिद्धि ने तब यह
कथा सुनाई----
एक तालाब में भारण्ड
नाम का एक विचित्र पक्षी रहता था । इसके मुख दो थे, किन्तु
पेट एक ही था । एक दिन समुद्र के किनारे घूमते हुए उसे एक अमृतसमान मधुर फल मिला ।
यह फल समुद्र की लहरों ने किनारे पर फैंक दिया था । उसे खाते हुए एक मुख
बोला---"ओः, कितना मीठा है यह फल ! आज तक मैंने अनेक फल
खाये, लेकिन इतना स्वादु कोई नहीं था । न जाने किस अमृत बेल
का यह फल है ।"
दूसरा मुख उससे वंचित
रह गया था । उसने भी जब उसकी महिमा सुनी तो पहले मुख से कहा----"मुझे भी थोड़ा
सा चखने को देदे ।"
पहला मुख हँसकर
बोला----"तुझे क्या करना है ? हमारा पेट तो एक ही है,
उसमें वह चला ही गया है । तृप्ति तो हो ही गई है ।"
यह कहने के बाद उसने
शेष फल अपनी प्रिया को दे दिया । उसे खाकर उसकी प्रेयसी बहुत प्रसन्न हुई ।
दूसरा मुख उसी दिन से
विरक्त हो गया और इस तिरस्कार का बदला लेने के उपाय सोचने लगा ।
अन्त में, एक
दिन उसे एक उपाय सूझ गया । वह कहीं से एक विषफल ले आया । प्रथम मुख को दिखाते हुए
उसने कहा----"देख ! यह विषफल मुझे मिला है । मैं इसे खाने लगा हूँ ।"
प्रथम मुख ने रोकते
हुए आग्रह किया ----"मूर्ख ! ऐसा मत कर, इसके खाने से हम दोनों
मर जायंगे ।"
द्वितीय मुख ने प्रथम
मुख के निषेध करते-करते, अपने अपमान का बदला लेने के लिये विषफल खा
लिया । परिणाम यह हुआ कि दोनों मुखों वाला पक्षी मर गया ।
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चक्रधर इस कहानी का
अभिप्राय समझ कर स्वर्णसिद्धि से बोला----"अच्छी बात है । मेरे पापों का फल
तुझे नहीं भोगना चाहिये, तू अपने घर लौट जा । किन्तु, अकेले मत जाना । संसार में कुछ काम ऐसे हैं, जो
एकाकी नहीं करने चाहियें । अकेले स्वादु भोजन नहीं खाना चाहिये, सोने वालों के बीच अकेले जागना ठीक नहीं, मार्ग पर
अकेले चलना संकटापन्न है; जटिल विषयों पर अकेले सोचना नहीं
चाहिये । मार्ग में कोई भी सहायक हो तो वह जीवन-रक्षा कर सकता है; जैसे कर्कट ने सांप को मार कर प्राण-रक्षा की थी ।"
स्वर्णसिद्धि ने
कहा----"कैसे ?"
चक्रधर ने यह कहानी
कही ----
एक दिन ब्रह्मदत्त
नाम का एक ब्राह्मन अपने गांव से प्रस्थान करने लगा । उसकी माता ने कहा
----"पुत्र ! कोई न कोई साथी रास्ते के लिये खोज लो । अकेले यात्रा नहीं करनी
चाहिये ।"
ब्रह्मदत्त ने उत्तर
दिया ----"डरो मत मां ! इस मार्ग में कोई उपद्रव नहीं है । मुझे जल्दी जाना
है,
इतने में साथी नहीं मिलेगा । मेरे पास साथी खोजने का समय नहीं है
।" मां ने कुछ और उपाय न देख पड़ोस से एक ’कर्कट’
ले लिया और अपने पुत्र ब्रह्मदत्त को कहा कि "यदि तुझे जाना ही
है तो इस कर्कट को भी साथ लेता जा । यह तुझे बहुत सहायता देगा ।"
ब्रह्मदत्त ने माता
का कहना मान कर्कट को ही साथी बना लिया; उसे कपूर की डिबिया में रखकर
यात्रा के लिये चल दिया ।
थोड़ी दूर जाकर जब वह
थक गया और गर्मी बहुत सताने लगी तो उसने मार्ग के एक वृक्ष की छाया में विश्राम
लिया । थका हुआ तो था ही, नींद आगई । उसी वृक्ष के बिल में एक सांप
रहता था । वह जब ब्रह्मदत्त के पास आया तो उसे कपूर की गन्ध आगई । कपूर की गन्ध
सांप को प्रिय होती है । सांप ने ब्रह्मदत्त के कपड़ों में से कपूर की डिबिया खोज
ली, लेकिन जब उसे खाने लगा, कर्कट ने
सांप को मार दिया ।
ब्रह्मदत्त जब जागा
तो देखा कि पास ही काला सांप मरा पड़ा है । उसेक पास कपूर की डिबिया भी पड़ी थी । वह
सम्झ गया कि यह काम कर्कट का ही है । प्रसन्न होकर वह सोचने लगा---"मां सच
कहती थी कि पुरुष को यात्रा में कभी एकाकी नहीं जाना चाहिये । मैंने
श्रद्धा-पूर्वक मां का वचन पूरा किया, इसीलिये काला सांप मुझे काट
नहीं सका; अन्यथा मैं मर जाता ।"
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इस कहानी के बाद
स्वर्णसिद्धि अपने मित्र चक्रधर को वहीं छोड़कर अपने घर वापिस आ गया ।
पंचमतन्त्र समाप्त
॥इति॥
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