गोरा
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रवीन्दनाथ टैगोर
गुलाब के फूलों का यहाँ थोड़ा-सा इतिहास बता दें।
गोरा तो रात को परेशबाबू के घर चला आया, पर मजिस्ट्रेट के घर अभिनय में भाग लेने की बात के लिए विनय को कष्ट भोगना पड़ा।
ललिता के मन में उस अभिनय के लिए कोई उत्साह रहा हो, ऐसा नहीं था, बल्कि ऐसी बातें उसे बिल्कुल नापंसद थीं। लेकिन विनय को किसी तरह इस अभिनय के लिए पकड़वा पाने की मानो जैसे ज़िद ठान ली थी। जो भी काम गोरा की राय के विरुध्द हो, वही विनय से करवाना वह चाह रही थी। विनय गोरा का अंधभक्त है, यह बात ललिता को क्यों इतनी खल रही थी, यह वह स्वयं भी नहीं समझ पा रही थी, किंतु उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे भी हो, सब बंधन काटकर विनय को मुक्त कर लेने से ही वह चैन की साँस ले सकेगी।
ललिता ने चोटी झुलाते हुए सिर हिलाकर कहा, ''क्यों महाशय, अभिनय में बुराई क्या है?''
विनय ने कहा, ''अभिनय अवगुण चाहे न भी हो किंतु, मजिस्ट्रेट के घर अभिनय करने जाना मेरे मन को ठीक नहीं लगता।''
ललिता, ''आप अपने मन की बात कह रहे हैं या और किसी के?''
विनय, '' और किसी के मन की बात कहने का दायित्व मुझ पर नहीं है, और यह काम है भी मुश्किल। आप चाहे मत मानिए, मैं हमेशा अपने मन की बात ही कहता हूँ- कभी अपने शब्दों में, कभी शायद और किसी के।''
इस बात का ललिता ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल तनिक-सी मुस्करा दी। लेकिन थोड़ी देर बाद बोली, ''जान पड़ता है, आपके दोस्त गोरा बाबू समझते हैं कि मजिस्ट्रेट का निमंत्रण न मानना ही बहुत बड़ी बहादुरी का काम है और इसी प्रकार अंग्रेज़ों से लड़ाई लड़ी जाएगी।''
उत्तेजित होकर विनय ने कहा, ''मेरे दोस्त ऐसा शायद न भी समझते हों, लेकिन मैं समझता हूँ। लड़ाई नहीं तो और क्या है? जो आदमी हमें तुच्छ समझता है- समझता है कि कनिष्ठि के इशारे से बुलाए जाने से ही हम कृतार्थ हो जाएँगे, उसकी इस उपेक्षा भावना के साथ उपेक्षा से ही लड़ाई न करें तो आत्म-सम्मान कैसे बचेगा?''
अंत में विनय ने कहा, ''देखिए, आप बहस क्यों करती हैं- आप यह क्यों नहीं कहतीं कि 'मेरी इच्छा है कि आप अभिनय में भाग लें' उससे मुझे आपकी बात रखने के लिए अपनी राय का बलिदान करने का सुख तो मिलेगा।''
ललिता ने कहा, ''वाह, मैं ऐसा क्यों कहने लगी! सचमुच ही आपकी यदि कोई राय हो तो उसे आप मरे अनुरोध पर क्यों छोड़ देंगे? लेकिन पहले वह सचमुच आपकी राय तो हो।''
विनय ने कहा, ''अच्छा, यही सही। मेरी सचमुच कोई राय न सही। आपका अनुरोध भी न सही, आपकी दलील से हारकर ही मैं अभिनय में भाग लेने को राज़ी हो गया- यह ही सही।''
तभी वरदासुंदरी के कमरे में आने पर विनय ने उठकर उनसे कहा, ''अभिनय की तैयारी के लिए मुझे क्या करना होगा, बता दीजिएगा।''
गर्व से वरदासुंदरी ने कहा, ''उसकी आपको फिक्र नहीं करनी होगी, हम आप को अच्छी तरह तैयार कर देंगी। सिर्फ अभ्यास के लिए आपको रोज़ नियम से आना होगा।''
विनय ने कहा, ''अच्छी बात है। तो अब आज चलूँ।''
वरदासुंदरी बोलीं, ''अभी कैसे, खाना खाकर जाना।''
विनय ने कहा, ''आज रहने दीजिए।''
वरदासुंदरी ने कहा, ''नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।''
खाना विनय ने वहीं खाया, लेकिन और दिनों की-सी स्वाभाविक प्रफुल्लता उसमें न थी। सुचरिता भी न जाने कैसी अनमनी होकर चुप थी। जब ललिता से विनय का झगड़ा हो रहा था तब वह बरामदे में टहलती रही थी। रात को बातचीत कुछ जमीं नहीं।
चलते समय ललिता का चेहरा देखकर विनय ने कहा ''मैंने हार भी मान ली, तब भी आपको प्रसन्न न कर सका।''
आसानी से ललिता रोती नहीं, किंतु आज न जाने क्या हुआ कि उसकी ऑंखों से ऑंसू फूट पड़ना चाह रहे हैं। न जाने क्यों आज वह विनय बाबू को बार-बार ऐसे कोंच रही है और स्वयं भी कष्ट पा रही है।
विनय जब तक अभिनय में भाग लेने को राज़ी नहीं हो रहा था, तब तक ललिता को उसे मानने की ज़िद चढ़ती जा रही थी। लेकिन विनय के राज़ी होते ही उसका सारा उत्साह मर गया। भाग न लेने के पक्ष में जितने तर्क थे उसके मन में प्रबल हो उठे। तब उसका मन दग्ध होकर कहने लगा- केवल मेरा अनुरोध रखने के लिए विनय बाबू का यूँ राज़ी होना ठीक नहीं हुआ। अनुरोध-क्यों रखेंगे अनुरोध वह समझते हैं, मेरा अनुरोध रखकर उन्होंने मुझ पर एहसान किया है- उनके इतने-से एहसान के लिए ही जैसे मैं मरी जा रही हूँ।
लेकिन अब ऐसे कुढ़ने से क्या फायदा! सचमुच ही उसने विनय को अभिनय में शामिल करने के लिए इतना ज़ोर लगाया था। शिष्टाचार वश विनय ने उसकी यह ज़िद मान ली। इस पर गुस्सा करके भी क्या फायदा? इस बात से ललिता को अपने ऊपर इतनी घृणा और लज्जा होने लगी जो स्वभावतया तो इतनी बात के लिए नहीं होनी चाहिए थी। और दिन मन चंचल होने पर वह सुचरिता के पास जाती थी, आज नहीं गई; क्योंकि वह स्वयं नहीं समझ सकी कि उसका हृदय भेदकर क्यों उसकी ऑंखों से ऑंसू फूटे पड़ रहे थे।
अगले दिन सुबह ही सुधीर ने गुलदस्ता लाकर लावण्य को दिया था। उस गुलदस्ते में एक टहनी पर दो अधाखिले गुलाब थे। उन्हें ललिता ने गुलदस्ते से निकाल लिया। लावण्य ने पूछा ''यह क्या कर रही है?''
ललिता ने कहा, ''गुलदस्ते के इतने सब घटिया फूल-पत्तों के बीच अच्छे फूल बँधे देखकर मुझे तकलीफ होती है। ऐसे सब चीज़ों को रस्सी से ज़बरदस्ती एक साथ बाँध देना जंगलीपन है।''
ललिता ने यह कहकर सब फूल खोल दिए और उन्हें अलग-अलग करके कमरे में जहाँ-तहाँ सजा दिया! केवल दोनो अधखिले गुलाब उठा ले गई। सतीश ने दौड़ते हुए आकार पूछा, ''दीदी, फूल कहाँ से मिले?''
उसकी बात का ललिता ने कोई उत्तर न देकर कहा, ''आज अपने दोस्त के घर नहीं जाएगा?''
सतीश तब तक विनय की बात नहीं सोच रहा था, लेकिन अब उसका जिक्र होते ही उछलकर बोला, ''जाऊँगा।'' कहते-कहते वह फौरन जाने के लिए उतावला हो उठा।
उसे पकड़कर ललिता ने पूछा, ''वहाँ जाकर तू क्या करता है?''
सतीश ने संक्षेप में कहा, ''बातें करता हूँ।''
ललिता ने पूछा, ''वह तुझे इतनी तस्वीरें देते हैं, तू भी उन्हें कुछ क्यों नहीं देता?''
सतीश के लिए विनय अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं से तरह-तरह की तस्वीरें काटकर रखता था। एक कापी बनाकर सतीश ने उसमें यह तस्वीरें चिपकाकर रखना शुरू कर दिया था। इस तरह कापी भर देने का उसे ऐसा नशा-सा चढ़ गया था कि कोई अच्छी पुस्तक देखने पर उसमें से तस्वीरें काट लेने को उसका मन छटपटा उठता था। इसी लालच के कारण कई बार उसे अपनी दीदी से फटकार खानी पड़ गई है।
प्रतिदान का भी समाज में एक उत्तरदायित्व होता है, यह बात आज सहसा सामने आने पर सतीश बहुत चिंतित हो उठा। अपने टूटे टीन के डिब्बे में उसने जो कुछ अपनी निजी संपत्ति सहेज रखी है उनमें से किसी पर से भी वह अपनी आसक्ति के लगाव को आसानी से न हटा सकेगा। सतीश का उद्विग्न चेहरा देखकर हँसकर ललिता ने उसके गाल में चुटकी काटते हुए कहा, ''बस, रहने दे, इतना गंभीर होने की ज़रूरत नहीं है। चल, ये दो गुलाब के फूल ही उन्हें दे आना।''
इतनी जल्दी समस्या का निदान होता देखकर वह खिल उठा और फूल लेकर तत्काल अपने दोस्त का ऋण-मोचन करने चल पड़ा।
रास्ते में ही विनय से उसकी भेंट हो गई। दूर से ही, ''विनय बाबू, विनय बाबू'' पुकारता हुआ वह विनय के पास पहुँचा और कुर्ते की ओट में फूल छिपाए हुए बोला, ''बताइए, मैं आपके लिए क्या लाया हूँ?''
विनय से हार मनवाकर उसने गुलाब निकाले। विनय ने कहा, ''वाह, कितने सुंदर! लेकिन सतीश बाबू, यह आपकी अपनी वस्तु तो नहीं है। चोरी का माल लेकर अंत में कहीं पुलिस के चक्कर में तो पड़ना होगा?''
इन दो गुलाबों को ठीक अपनी वस्तु कहा जा सकता है या नहीं, इस बारे में सतीश थोड़ी देर असमंजस में रहा। फिर कुछ सोचकर बोला, ''नहीं, वाह! ललिता ददी ने स्वयं मुझे दिए हैं आपको देने के लिए!''
यह बात यहीं समाप्त हो गई और तीसरे पहर उनके घर जाने का आश्वासन देकर विनय ने सतीश को विदा कर दिया।
ललिता की कल रात की बातों से चोट खाकर विनय उसकी पीड़ा भूल नहीं सका था। विनय के साथ किसी का कभी झगड़ा नहीं होता, इसीलिए ऐसी तीखी चोट की अपेक्षा वह किसी से नहीं करता। अब तक ललिता को वह सुचरिता की अनुवर्त्तिनी के रूप में ही देखता आया था। लेकिन कुछ दिन से ललिता को लेकर उसकी अवस्था वैसी ही हो रही थी जैसी उस हाथी की जो बराबर अंकुश का आघात खाते रहने में महावत को भूलने का मौका ही नहीं पाता। ललिता को कैसे थोड़ा-सा प्रसन्न करके शांति पाई जा सकती है, यही जैसे विनय की मुख्य चिंता बन गई थी। संध्या को घर लौटकर ललिता की तीखी व्यंग्य-भरी बातें एक-एक करके उसके मन में गूँज उठती थीं और उसकी नींद को भगा देती थी। मैं गोरा की छाया मात्र हूँ मेरा अपना कुछ नहीं है। ललिता यह कहकर मेरी अवज्ञा करती है, लेकिन यह बात बिल्कुल झूठ है। मन-ही-मन इसके विरुध्द वह अनेक युक्तियाँ जुटा लेता; लेकिन फिर भी वे सब उसके किसी काम न आतीं, क्योंकि ललिता ने ऐसा स्पष्ट आक्षेप तो कभी उस पर लगाया नहीं- इस बारे में बहस करने का तो मौका ही उसे कभी नहीं मिला। उसके पास जवाब में कहने के लिए इतनी बातें थीं कि उनका प्रयोग न कर सकने से उसका क्षोभ और बढ़ता जाता था। अंत में कल रात को जब हार मानकर भी उसने ललिता का चेहरा प्रसन्न न देखा तब घर आकर वह बहुत बेचैन हो गया। मन-ही-मन वह पूछने लगा- सचमुच क्या मैं इतनी अवज्ञा का पात्र हूँ?
इसलिए सतीश से जब उसने सुना कि ललिता ने सतीश के हाथ उसके लिए दो गुलाब के फूल भेजे हैं तब उसे गहरा उल्लास हुआ। उसने सोचा, अभिनय में भाग लेने के लिए राज़ी हो जाने पर ललिता ने संधि के प्रतीक के रूप में ही उसे ये दो गुलाब भेजे हैं। पहले उसने सोचा, फूल घर रख आऊँ। फिर उसका मन हुआ, नहीं, शांति के इन फूलों को माँ के पैरों पर चढ़ाकर पवित्र कर लाऊँ।
उस दिन जब तीसरे पहर विनय परेशबाबू के घर पहुँचा तब सतीश ललिता के पास बैठा अपनी स्कूल की पढ़ाई दोहरा रहा था। विनय ने ललिता से कहा, ''लाल रंग तो लड़ाई का प्रतीक होता है, इसलिए संधि के फूल सफेद होने चाहए थे।''
ललिता ने बात न समझकर विनय के चेहरे की ओर देखा। तब विनय ने चादर की ओट से निकालकर सफेद कनेर का एक गुच्छा ललिता के सामने रखते हुए कहा, ''आपके दोनों फूल कितने भी सुंदर रहे हों उनमें क्रोध के रंग की झलक थी ही, मेरे ये फूल सुंदरता में उनके पास नहीं फटकते, किंतु शांति के शुभ्र रंग में नम्रतापूर्वक आपके सामने प्रस्तुत है।''
कानों तक लाल होते हुए ललिता कहा, ''मेरे फूल इन्हें आप कैसे कहते हैं?''
कुछ अप्रतिभ हाते हुए विनय ने हा, ''तब तो मैं ग़लत समझा। सतीश बाबू, किसके फूल आपने किसको दे दिए?'
सतीश ने ज़ोर से कहा, ''वाह, ललिता दीदी ने तो देने को कहा था।''
विनय, ''किसे देने को कहा था?''
सतीश, ''आपको।''
और भी लाल होकर उठते हुए ललिता ने सतीश की पीठ पर थप्पड़ मारते हुए कहा, ''तेरे-जैसा बुध्दू भी और नहीं देखा, विनय बाबू की तस्वीरों के बदले उन्हें फूल देना तू नहीं चाहता था?''
हतबुध्दि होकर सतीश ने कहा, ''हाँ, तो! लेकिन तुम्हीं ने मुझे देने को नहीं कहा क्या?''
सतीश के साथ झगड़ा करने जाकर ललिता और भी उलझन में पड़ गई थी। विनय ने समझ लिया कि फूल ललिता ने भी भेजे थे, लेकिन वह अप्रकट ही रहना चाहती थी। उसने कहा, ''खैर, आपके फूलों का दावा तो मैं छोड़ ही देता हूँ। फिर भी मेरे इन फूलों के बारे में तो कोई भूल नहीं है। हमारे विवाद के निबटारे के शुभ उपलक्ष्य में ये कुछ फूल.... ''
सिर हिलाकर ललिता ने कहा, ''हमारा विवाद ही कौन-सा है, और उसका निबटारा भी कैसा?''
विनय ने कहा, ''तो शुरू से अंत तक सब माया है? विवाद भी झूठ, फूल भी झूठ, निबटारा भी झूठ! सीप देखकर चाँदी का भ्रम हुआ हो, यह नहीं; सीप ही भ्रम था! तब वह जो मजिस्ट्रेट साहब के यहाँ अभिनय करने की एक बात सुनी थी, वह भी क्या.... ?''
शीघ्रता से ललिता ने कहा, ''जी नहीं, वह झूठ नहीं है। लेकिन उसे लेकर झगड़ा कैसा? आप यह क्यों सोचते हैं कि उसके लिए आपको राज़ी करने के लिए मैं कोई लड़ाई छेड़ रही थी, या कि आपके राज़ी होने से मैं कृतार्थ हुई? अभिनय करना अगर आपको ठीक मालूम नहीं होता है, तो किसी की भी बात मानकर आप क्यों राज़ी हों?''
ललिता यह कहती हुई मेरे कमरे से चली गई। सभी कुछ उल्टा ही घटित हुआ। आज ललिता ने तय कर रखा था कि वह विनय के आगे अपनी भूल स्वीकार करेगी, और उससे यही अनुरोध करेगी कि वह अभिनय में भाग न ले, लेकिन बात जिस ढंग से चली और जिधर वह मुड़ गई, उसका नतीजा ठीक उल्टा हुआ। विनय ने समझा था कि उसने जो इतने दिन तक अभिनय के बारे में विरोध जाहिर किया था उसी का गुस्सा अब तक ललिता के मन में रह गया है। उसने सिर्फ ऊपर से हार मान ली है, किंतु मन में उसका विरोध बना हुआ है, इसी बात को लेकर ललिता का क्षोभ दूर नहीं हो रहा है। इस सारे प्रकरण से ललिता को इतनी पीड़ा पहुँची है, यह सोचकर विनय दु:खी हो उठा। उसने मन-ही-मन निश्चय किया कि इस बात को लेकर वह हँसी में भी कोई जिक्र नहीं करेगा और ऐसी निष्ठा और कुशलता से यह काम संपन्न करेगा कि कोई उस पर काम के प्रति उदासीनता का आरोप न लगा सके।
सबरे से ही सुचरिता अपने सोने के कमरे में अकेली बैठकर 'ख्रीस्ट का अनुकरण' नामक अंग्रेज़ी धर्म-ग्रंथ पढ़ने का प्रयत्न कर रही थी। आज उसने अपने दूसरे नियमित कामों में भी योग नहीं दिया। बीचबीच में किताब से मन उचट जाने से उसके अक्षर उसके सामने धुँधले पड़ जाते थे। अगले ही क्षण अपने ऊपर वह क्रोधित होकर और भी वेग से अपने चित्त को पुस्तक में लगाने लगती थी, हार मानना किसी तरह नहीं चाहती थी।
अचानक दूर स्वर से उसे लगा, विनय बाबू आए हैं। चौंककर उसने पुस्तक रख दी, क्षुब्ध उसका मन बाहर के कमरे में जाने के लिए छटपटा उठा। फिर अपनी इस आकुलता पर भी होकर कुर्सी पर बैठकर उसने किताब उठा ली। कहीं फिर कोई आवाज़ न सुनाई दे, इसलिए अपने दोनों कान बंद करके वह पढ़ने का प्रयत्न करने लगी।
इसी समय कमरे में ललिता आई। उसके चेहरे की ओर देखकर सुचरिता बोली, 'अरी तुझे क्या हुआ है?''
बड़े ज़ोर से सिर हिलाकर ललिता ने कहा, ''कुछ नहीं।''
सुचरिता ने कहा, ''विनय बाबू आए हैं। वह शायद तुमसे बात करना चाहते हैं।''
और भी कोई विनय बाबू के साथ आया है या नहीं, सुचरिता यह प्रश्न आज किसी तरह नहीं पूछ सकी। और कोई आया है या नहीं, सुचरिता यह प्रश्न आज किसी तरह नहीं पूछ सकी। और कोई आया होता तो निश्चय ही ललिता उसका भी उल्लेख करती, किंतु फिर भी मन संशय रहित न हो सका। और अधिक अपने को बेचैन करने की कोशिश न करके घर आए अतिथि के प्रति कर्तव्य का ध्यान करके वह बाहर के कमरे की तरफ चल दी। ललिता से उसने पूछा, ''तू नहीं जाएगी?''
कुछ अधीर होकर ललिता ने कहा, ''तुम जाओ न, मैं पीछे आऊँगी।''
सुचरिता ने बाहर वाले कमरे में जाकर देखा, विनय सतीश से बात कर रहा था।
सुचरिता ने कहा, ''बाबा बाहर गए हैं, अभी आ जाएँगे। माँ उस अभिनय की कविता कंठस्थ कराने के लिए लावण्य और लीला को लेकर मास्टर साहब के घर गई हुई है- ललिता किसी तरह नहीं गई। माँ कह गई है, आप आएँ तो आपको बिठाए रखा जाय- आज आपकी परीक्षा होगी।''
सुचरिता ने कहा, ''सभी यदि अभिनेता हो जाएँ तो दुनिया में दर्शक कौन होगा?''
सुचरिता को इन सब मामलों से वरदासुंदरी यथासंभव अलग ही रखती थी। इसीलिए अपने गुण दिखाने के लिए उसे इस बार भी नहीं बुलाया गया था।
और दिनों इन व्यक्तियों के इकट्ठे होने पर बातों का अभाव नहीं होता था। आज दोनों ओर ही ऐसा कुछ हुआ था कि बातचीत किसी तरह जमी ही नहीं। सुचरिता गोरा की चर्चा न करने का प्रण करके आई थी। और विनय भी सहज भाव से पहले की भाँति गोरा की बात नहीं कर सका। उसे ललिता और शायद घर के सभी लोग गोरा का एक क्षुद्र अनुगामी-भर समझते हैं, यह सोचकर गोरा की चर्चा करने में उसे झिझक हो रही थी।
ऐसा कई बार हुआ कि पहले विनय आया है और उसके बाद ही गोरा भी आ गया है; आज भी ऐसा हो सकता है, यह सोचकर सुचरिता जैसे कुछ परेशान-सी थी। कहीं गोरा आ न जाय, इसे लेकर उसे एक भय था, और वह कहीं न आए, इस आशंका से उसे कष्ट भी हो रहा था।
विनय के साथ दो-चार उखड़ी-उखड़ी बातें करे सुचरिता और उपाय न देखकर सतीश की तस्वीरों वाली कापी लेकर उसके साथ तस्वीरों के बारे में बातचीत करने लगी। बीच-बीच में तस्वीरें सजाने के ढंग की बुराई करके उसने सतीश को चिढ़ा दिया। बहुत बिगड़कर सतीश ऊँचे स्वर से बहस करने लगा और विनय मेज़ पर पड़े हुए अपने प्रति उपहार कनेर के गुच्छे की ओर देखता हुआ लज्जा और क्षोभ से भरा मन-ही-मन सोचने लगा कि और नहीं तो केवल शिष्टाचार के लिए ही ललिता को उसके फूल स्वीकार कर लेने चाहिए थे।
सहसा पैरों की आवाज़ से चौंककर सुचरिता ने देखा हरानबाबू कमरे में प्रवेश कर रहे थे। उसका चौंकना काफी स्पष्ट दीख गया था, इससे सुचरिता का चेहरा रक्ताभ हो उठा था। कुर्सी पर बैठते हुए हरानबाबू बोले, ''कहिए, आपके गौर बाबू नहीं आए?''
हरानबाबू के इस गैर-ज़रूरी प्रश्न से विरक्त होकर विनय ने कहा, ''क्यों, आपको उनसे कुछ काम है क्या?''
हरानबाबू ने कहा, ''आप हों और वह न हों, ऐसा तो कम ही देखा जाता है, इसीलिए पूछा।''
मन-ही-मन विनय को बड़ा गुस्सा आया। कहीं वह प्रकट न हो जाए, इसलिए उसने संक्षेप में कहा, ''वह कलकत्ता में नहीं हैं।''
हरान, ''प्रचार करने गए हैं शायद?''
विनय का गुस्सा और बढ़ गया। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। सुचरिता भी बिना कुछ कहे उठकर चली गई। तेज़ी से उठकर हरानबाबू सुचरिता के पीछे चले, लेकिन उस तक पहुँच नहीं सके। उन्होंने दूर से ही पुकारा, ''सुचरिता, एक बात कहनी है।''
सुचरिता ने कहा, ''मेरी तबीयत ठीक नहीं है।'' कहने के साथ-साथ उसके कमरे का किवाड़ बंद हो गया।
इसी समय वरदासुंदरी आकर अभिनय में विनय का रोल उसे समझाने के लिए उसे दूसरे कमरे में लिवा ले गई। थोड़ी देर बाद ही लौटकर उसने देखा कि अकस्मात मेज़ पर से फूल गायब हो गए हैं। उस रात ललिता वरदासुंदरी के अभिनय के मैदान में नहीं आई और सुचरिता भी अपनी पुस्तक, 'ख्रीस्ट का अनुकरण' गोद में रखे-रखे, रोशनी की एक कोने में ओट देखकर बहुत रात बीते तक द्वार के बाहर अंधकार की ओर देखती बैठी रही। उसने जैसे मरीचिका-सा अपरिचित एक अपूर्व देश देखा था, अब तक के जीवन के सारे अनुभव से वह देश बिल्कुल भिन्न था और इसीलिए उसके झरोखों में जो दिए जलते थे, वे अंधेरी रात में चमकते नक्षत्रों की तरह एक रहस्यपूर्ण दूरी से मन को भीत कर रहे थे। उसका मन कह रहा था- मेरा जीवन कितना तुच्छ है- अब तक जिसे अटल समझती रही वह सब सन्दिग्ध हो गया है और जो प्रतिदिन करती रही वह अर्थहीन- वहीं शायद सब ज्ञान संपूर्ण होगा, कर्म महान हो उठेगा और जीवन सार्थकता पा सकेगा-उस अपूर्व, अपरिचित, भयंकर देश के अज्ञात सिंह द्वार के सामने कौन मुझे ले आया मेरा हृदय क्यों ऐसे काँप रहा है, क्यों आगे बढ़ना चाहने पर मेरे पैर ऐसे डगमगा जाते हैं?
अभिनय के पूर्वाभ्यास के लिए विनय रोज़ाना आने लगा। एक बार सुचरिता उसकी ओर देख भर लेती, फिर अपने हाथ की पुस्तक की ओर मन लगा देती या अपने कमरे की ओर चली जाती। विनय के अकेले आने का अधूरापन प्रतिदिन उसके मन को पीड़ा पहुँचाता, किंतु वह कभी कोई प्रश्न पूछती। किंतु ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते, गोरा के विरुध्द सुचरिता के मन में एक शिकायत का-सा भाव बढ़ता जाता। मानो उनकी उस दिन जो बात हुई थी, उसमें कुछ ऐसा निहित रहा था कि गोरा फिर आने के लिए वचनबध्द है।
अंत में सुचरिता ने जब सुना कि गोरा अचानक बिना कारण ही कुछ दिन के लिए कहीं घूमने निकल गया है और उसका कुछ पता-ठिकाना नहीं है, तब उसने बात को एक मामूली खबर की तरह उड़ा देना चाहा, किंतु तब भी उसके मन में कसक बनी ही रही। काम करते-करते सहसा यह बात उसे याद आ जाती-कभी अनमनी बैठी-बैठी वह चौंककर यह पाती कि वह मन-ही-मन ठीक यही बात सोच रही थी।
उस दिन गोरा के साथ उसकी बातचीत के बाद अचानक वह ऐसे लापता हो जाएगा, सुचरिता ने ऐसी कल्पना भी नहीं की थी। गोरा के मत से अपने संस्कारों के कारण इतना अधिक भिन्न होने पर भी उस दिन उसके भीतर विद्रोह की प्रवृत्ति ज़रा भी नहीं रही थी। गोरा के मत-मान्यताओं को उसने ठीक-ठीक भले ही न समझा हो, किंतु व्यक्ति गोरा को वह जैसे कुछ-कुछ समझ सकी थी। गोरा के मत चाहे जो रहे हों, उनसे वह व्यक्ति तुच्छ नहीं हो गया है, अवज्ञा के योग्य नहीं हो गया है बल्कि उनसे उसके आत्म की शक्ति प्रत्यक्ष हुई है- यह उसने प्रबलता से अनुभव किया था। और किसी के मुँह से वे सब बातें वह न सह सकती, बल्कि क्रुध्द होती, उस व्यक्ति को मूर्ख समझती, उसे डाँट-डपटकर सुधारने के लिए उत्तेजित हो उठती, लेकिन गोरा के संबंध में उस दिन ऐसा कुछ नहीं लगा। गोरा की बातों ने उसके दृढ़ चरित्र के, उसकी बुध्दि-गंभीर मर्मभेदी स्वर की प्रबलता के साथ मिलकर एक जीवंत और सत्य आकार धारण कर लिया था। ये सब मत और विश्वास चाहे सुचरिता स्वयं न भी अपना सके, किंतु और कोई उन्हें इस प्रकार पूरी बुध्दि से, पूरी श्रध्दा से, और संपूर्ण जीवन अर्पित करके ग्रहण करे तो उसे धिक्कारने जैसी कोई बात नहीं है, बल्कि विरोध संस्कारों का अतिक्रमण करके उस पर श्रध्दा भी की जा सकती है, उस दिन सुचरिता के मन पर यह भाव पूरी तरह छा गया था। मन की ऐसी अवस्था सुचरिता के लिए बिल्कुल नहीं थी। मतभेद होने पर वह अत्यंत असहिष्णु थी। परेशबाबू के एक तरह निर्लिप्त, समाहित, शांत जीवन का उदाहरण सामने रहने पर भी, सुचरिता क्योंकि बचपन से ही सांप्रदायिकता से घिरी रही थी, इसलिए मत-सिध्दांतों को वह अत्यंत एकांत रूप से ग्रहण करती थी। पहले-पहल उसी दिन व्यक्त मत को मिला हुआ देखकर उसने जैसे एक सजीव संपूर्ण पदार्थ की रहस्यमय सत्ता का अनुभव किया। मानव-समाज को केवल मेरा पक्ष और तुम्हारा पक्ष नामक दो सफेद और काले भागों में बिल्कुल अलग-अलग बाँटकर देखने की भेद-दृष्टि पहले-पहल वह उसी दिन भूल सकी थी और भिन्न मत के मनुष्य को भी प्रथमत: मनुष्य मानकर ऐसे भाव से देख सकी थी कि मत की भिन्नता गौण हो गई थी।
सुचरिता ने उस दिन अनुभव किया कि उसके साथ बातचीत करने में गोरा को एक आंनद की अनुभूति होती है। यह क्या सिर्फ अपनी राय जाहिर करने का ही आनंद था? उस आनंद देने में क्या सुचरिता का कोई योगदान नहीं था? शायद नहीं था। शायद गोरा के निकट किसी व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं है, वह अपने मत और उद्देश्य लेकर ही सभी से दूर हो गया है- मनुष्य उसके लिए केवल मत का प्रयोग करने के साधन हैं।
कुछ दिनों से सुचरिता उपासना में विशेष रूप से मन लगाने लगी थी। मानो वह पहले से भी अधिक परेशबाबू का संवत चाहने लगी थी। एक दिन परेशबाबू अकेले अपने कमरे में बैठे पढ़ रहे थे कि सुचरिता भी चुपचाप जाकर उनके पास बैठ गई।
किताब मेज़ पर रखते हुए परेशबाबू ने पूछा, ''क्यों राधो?''
सुचरिता ने कहा, ''कुछ नहीं।''
उत्तर देकर मेज़ पर रखे हुए कागज़ और किताबें, जो कि पहले से ही व्यवस्थिति और सजाकर रखे हुए थे, इधर-उधर करके फिर से सँवारकर रखने लगी। थोड़ी देर बाद बोली, ''बाबा, जैसे पहले तुम मुझे पढ़ाते थे, अब क्यों नहीं पढ़ाते?''
परेशबाबू ने स्नेहभाव से तनिक मुस्कराकर कहा, ''मेरी छात्र तो मेरे स्कूल से उर्त्तीण होकर चली गई। अब तो तुम खुद पढ़कर समझ सकती हो।''
सुचरिता ने कहा, ''नहीं, मैं कुछ नहीं समझ सकती, मैं पहले की तरह तुमसे पढ़ूँगी।''
परेशबाबू ने कहा, ''अच्छा ठीक है, कल से पढ़ाऊँगा।''
फिर थोड़ी देर चुप रहकर सुचरिता सहसा बोल उठी, ''उस दिन विनय बाबू से जाति भेद की बहुत-सी बातें सुनीं- तुमने मुझे उसके बारे में कभी कुछ क्यों नहीं समझाया?''
परेशबाबू ने कहा, ''बेटी, तुम तो जानती हो तुम्हारे साथ मैंने बराबर ऐसा व्यवहार रखा है कि तुम सब कुछ अपने आप सोचने-समझने की कोशिश करो मेरी या किसी और की भी बात केवल अभ्यस्त होने के कारण नहीं मानो। कोई सवाल ठीक से मन में उठने से पहले ही कोई उपदेश देना और भूख लगने से पहले ही खाना परोस देना एक ही बात है, उससे केवल अरुचि और अपच होती है। तुम जब भी मुझसे प्रश्न पूछोगी, अपनी समझ से मैं उसका उत्तर दूँगा।''
सुचरिता ने कहा, ''मैं प्रश्न ही पूछ रही हूँ, जाति-भेद को हम लोग बुरा क्यों कहते हैं?''
परेशबाबू ने कहा, ''एक बिल्ली को थाली के पास बिठाकर खाने से तो दोष नहीं होता, लेकिन एक मनुष्य के उस कमरे में आने भर से भी खाना फेंक देना होता है, जिस जाति-भेद के कारण एक मनुष्य के प्रति दूसरे मनुष्य में ऐसा अपमान और घृणा का भाव पैदा हो उसे अधर्म न कहा जाय तो क्या कहा जाय? जो लोग मनुष्य की ऐसी भयानक उपेक्षा कर सकते हैं वे कभी दुनिया में बड़े नहीं हो सकते, दूसरों की उपेक्षा उन्हें भी सहनी होगी।''
गोरा के मँह से सुनी हुई बात का अनुसरण करते हुए सुचरिता ने कहा, ''आज-कल के समाज में जो विकृतियाँ आ गई हैं उनमें अनेक दोष हो सकते हैं, वे दोष तो समाज की सभी चीज़ों में आ गए हैं- इसी कारण क्या असल चीज़ को भी दोषी ठहराया जा सकता है?''
अपने स्वाभाविक शांत स्वर में परेशबाबू ने कहा, ''असल चीज़ कहाँ है, यदि यह जानता तो बता सकता। मैं तो ऑंखों से देखता हूँ कि हमारे देश में मनुष्य मनुष्य से असहनीय घृणा करता है और उससे हम सब अलग-अलग हुए जा रहे हैं, ऐसी स्थिति में एक काल्पनिक असल चीज़ की बात सोचकर मन को दिलासा देने का क्या अर्थ होता है?''
सुचरिता ने फिर गोरा की बात को ही दोहराते हुए कहा, ''लेकिन सभी को समान दृष्टि से देखना तो हमारे देश का चरम तत्व रहा है?''
परेशबाबू बोले, ''समान दृष्टि से देखना तो बुध्दि की बात है, हृदय की बात नहीं। समान दृष्टि में प्रेम भी भी नहीं है, घृणा भी नहीं है- समान दृष्टि तो राग-द्वेष से परे है। मनुष्य का हृदय ऐसी राग-द्वेषविहीन जगह बराबर नहीं टिक सकता। इसीलिए हमारे देश में ऐसे साम्य-तत्व के रहते भी नीच जाति को देवालय तक में घुसने नहीं दिया जाता। जब देवता के घर में भी हमारे देश में समता नहीं है, तब दर्शन-शास्त्र में उस तत्व के रहने, न रहने से क्या होगा!''
बहुत देर तक सुचरिता चुप बैठी मन-ही-मन परेशबाबू की बात समझने का प्रयत्न करती रही। अंत में बोली, ''अच्छा बाबा, तुम विनय बाबू वगैरह को ये सब बातें समझाने का उपाय क्यों नहीं करते?''
परेशबाबू थोड़ा हँसकर बोले, ''बुध्दि कम होने के कारण विनय बाबू वगैरह ये सब बातें न समझते हों ऐसा नहीं है, बल्कि उनकी बुध्दि अधिक है इसीलिए वे समझना नहीं चाहते केवल समझाना ही चाहते हैं। जब वे लोग धर्म की राह से अर्थात् सबसे बड़े सत्य की राह से ये बातें सच्चे दिल से समझना चाहेंगे अभी वे एक दूसरी राह से देख रहे हैं, मेरी बात अभी उनके किसी काम न आएगी।''
यद्यपि गोरा की बात सुचरिता ने लगन के साथ ही सुनी थी, फिर भी वह उसके संस्कारों के विपरीत जाती थी, इसीलिए उसे कष्ट होता था और अशांति से घिरी रहती थी। परेशबाबू से बात करके आज उसे उस विरोध से थोड़ी देर के लिए मुक्ति मिली। गोरा, विनय या और कोई भी किसी विषय को परेशबाबू से अधिक अच्छे ढंग से समझा सकता है, यह बात सुचरिता किसी तरह मन में नहीं आने देना चाहती। जिनका परेशबाबू से मतभेद हुआ है, सुचरिता उन पर क्रुध्द हुए बिना नहीं रह सकी है। इधर गोरा से परिचय होने के बाद वह गोरा की बात को क्रोध अथवा अवज्ञा करके उड़ा नहीं पा रही थी, इसीलिए सुचरिता को क्लेश हो रहा था। इसी कारण शिशुकाल की तरह फिर परेशबाबू की ज्ञान-छाया के नीचे निर्भय आश्रय पाने के लिए उसका मन व्याकुल हो उठा था। कुर्सी से उठकर दरवाजे तक जाकर सुचरिता ने फिर लौटकर परेशबाबू के पीछे खे हो उनकी कुर्सी की पीठ पर हाथ टिकाकर कहा, ''बाबा, आज शाम को आपकी उपासना के समय मैं भी साथ बैठूँगी।''
परेशबाबू ने कहा, ''अच्छा।''
तदुपरांत अपने कमरे में जाकर सुचरिता किवाड़ बंद करे एकाग्र हो गोरा की बात को एकदम व्यर्थ करने का प्रयत्न करने लगी। लेकिन गोरा का विवेक और विश्वास से प्रदीप्त चेहरा ही उसकी ऑंखों के सामने घूमता रहा। उसे लगता रहा कि गोरा की बात केवल बात भर नहीं है, वह मानो गोरा स्वयं है, उस बात की एक आकृति है, उसमें गति है, प्राण हैं- वह विश्वास की दृढ़ता और स्वदेश-प्रेम के दर्द से भरा हुआ है वह केलव मत नहीं है कि उसका प्रतिवाद करके उसे ख़त्म किया जा सके- वह एक संपूर्ण व्यक्ति है और वह व्यक्ति भी साधारण व्यक्ति नहीं है। उसे हटा देने के लिए हाथ कार्यरत ही नहीं होता। इस गहरे द्वंद्व में पड़कर सुचरिता को जैसे रोना आ गया। कोई उसे इतनी बड़ी दुविधा में डालकर पूर्णत: उदासीन भाव से अचानक दूर चला जा सकता है! यह बात सोचकर उसका हृदय फटने लगा, पर साथ ही अपने कष्ट पाने पर सुचरिता का अपने प्रति धिक्कार भी सीमाहीन था।
अभिनय के मामले में तय हुआ कि अंग्रेज़ कवि ड्राइडन की एक संगीत कविता विनय नाटकीय भावाभिव्यक्ति के साथ पढ़ता जाएगा और रंगमंच पर लड़कियाँ उपयुक्त साज-सज्जा के साथ कविता में वर्णित दृश्य का मूक अभिनय करती रहेंगी। इसके अलावा लड़कियाँ अंग्रेज़ी कविता की पुनरावृत्ति और गान आदि भी करेंगी।
विनय को वरदासुंदरी ने भरोसा दिलाया था कि वे सब मिलकर उसकी तैयारी करा देंगी। वह स्वयं तो बहुत साधारण अंग्रेज़ी ही जानती थीं, किंतु अपने समाज के दो-एक पंडितों पर भरोसा कर रही थीं। लेकिन जब अभ्यास के लिए सब जमा हुए तो अपनी आवृत्ति के द्वारा विनय ने वरदासुंदरी के पंडित समाज को विस्मित कर दिया। अपनी मंडली से बाहर के इस आदमी को सिखा-पढ़ाकर तैयार करने के श्रेय से वरदासुंदरी वंचित रह गईं। इससे पहले जिन लोगों ने विनय को आम आदमी समझकर उसकी परवाह नहीं की थी, अब उसका अंग्रेज़ी का ज्ञान देखकर उसका सम्मान करने को विवश हो गए। यहाँ तक कि हरानबाबू ने भी विनय से कभी-कभार अपने पत्र में लिखने का अनुरोध किया, और सुधीर भी उनकी छात्र-सभा में विनय से कभी-कभी अंग्रेज़ी में वक्तव्य देने का आग्रह करने लगा।
ललिता की हालत अजब थी। विनय को किसी से कोई सहायता नहीं लेनी पड़ी इससे वह बहुत प्रसन्न थी, लेकिन इसी से मन-ही-मन उसे एक असंतोष भी था। विनय उन सबमें किसी से कम नहीं है, बल्कि उन सबसे पारंगत ही है, इससे मन-ही-मन वह स्वयं को श्रेष्ठ समझेगा और उनसे कुछ भी सीखने की उसे आवश्यकता न होगी, यह बात उसे कचोट रही थी। विनय के संबंध में वह ठीक क्या चाहती है, उसका मन क्या होने से अपनी सहज अवस्था में आ सकेगा, यह वह स्वयं भी नहीं समझ पाती थी। इससे उसकी अप्रसन्नता छोटी-छोटी बातों में भी रूखे ढंग से प्रकट होकर घूम-फिरकर विनय को ही निशाना बनाने लगी। विनय के प्रति यह न्याय नहीं है और शिष्टाचार भी नहीं है। यह वह खूब समझ रही थी। समझकर उसे दु:ख होता था और वह अपने को संयत करने की काफी कोशिश भी करती थी लेकिन अचानक किसी बहुत ही साधारण बात पर उसके अंतस् की एक अंतर्ज्वाला संयम का शासन तोड़कर फूट पड़ती थी। वह स्वयं नहीं जान पाती थी कि ऐसा क्यों होता है। अब तक जिस चीज़ में भाग लेने के लिए वह लगातार विनय पर दबाव डालती रही थी, अब उसी से हटाने के लिए उसने विनय की नाक में दम कर दिया। लेकिन विनय अकारण ही अब सारे आयोजन को बिगाड़कर कैसे अलग हो जाय? समय भी अधिक नहीं था और अपने में एक नई निपुणता पहचानकर विनय को कुछ उत्सह भी हो आया था। अंत में ललिता ने वरदासुंदरी से कहा, ''मैं इसमें नहीं रहूँगी।''
अपनी मँझली लड़की को वरदासुंदरी अच्छी तरह जानती थीं, इसीलिए अत्यंत शंकित होकर उन्होंने पूछा, ''क्यों?''
ललिता ने कहा, ''मुझसे नहीं होता।''
असल में बात यह बात थी कि जब से विनय को अनाड़ी संभव न रहा, तभी से किसी तरह भी ललिता विनय के सामने कविता की आवृत्ति या अभिनय का अभ्यास करने को राज़ी नहीं होती थी। वह कहती- मैं अपने-आप अलग अभ्यास करूँगी। इससे हालाँकि सभी के अभ्यास में बाधा पड़ी थी, लेकिन ललिता को किसी तरह मनाया नहीं जा सका। अंत में हार मानकर अभ्यास से ललिता को अलग करके ही काम चलाना पड़ा।
किंतु जब ललिता ने अंतिम समय पर बिल्कुल ही अलग हो जाना चाहा तब वरदासुंदरी के सिर पर जैसे बिजली गिरी। वह जानती थीं कि इस समस्या को सुलझाना उनके वश की बात नहीं है, इसलिए उन्होंने परेशबाबू की शरण ली। असाधारण बातों में परेशबाबू कभी उन लड़कियों की इच्छा-अनिच्छा में हस्तक्षेप नहीं करते थे। लेकिन चूँकि उन्होंने मजिस्ट्रेट को वचन दिया है और उसी के अनुसार उस तरफ से सारा प्रबंध भी किया गया है, समय भी बहुत कम है, ये सब बातें सोचकर परेशबाबू ने ललिता को बुलाकर उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा, ''ललिता, अब तुम्हारा अलग हो जाना तो ठीक नहीं होगा।''
रूँधे हुए गले से ललिता ने कहा, ''बाबा, मुझसे नहीं होता। मुझे आता ही नहीं।''
परेशबाबू बोले, ''अच्छा नहीं कर पाओगी, उसमें तुम्हारा अपराध नहीं होगा, पर करोगी ही नहीं तो अन्याय होगा।''
सिर झुकाए ललिता खड़ी रही। परेशबाबू कहते गए, ''बेटी जब तुमने जिम्मा लिया है तब निबाहना तो तुम्हें होगा ही। कहीं अहंकार को ठेस न लगे, यह सोचकर भागने का समय तो अब नहीं है। लगने दो ठेस, उसकी उपेक्षा करके भी तुम्हें कर्तव्य करना ही होगा। क्या इतना भी नहीं कर सकोगी?''
मुँह उठाकर ललिता ने पिता की ओर देखकर कहा, ''कर सकूँगी।''
उस दिन शाम को विशेष रूप से विनय के सामने ही अपना सब संकोच त्यागकर एक अतिरिक्त जोश के साथ, स्पर्धा लगाकर, ललिता अपने कर्तव्य की ओर अग्रसर हुई। विनय ने अब तक उसकी आवृत्ति नहीं सुनी थी, आज सुनकर चकित रह गया। इतना स्पष्ट, अत्रुटि उच्चारण-कहीं कोई अटक नहीं, और भाव-प्रकटन में एक ऐसा नि:संशय उत्साह कि उसे सुनकर विनय को आशातीत आनंद हुआ। ललिता का मृदु कंठ-स्वर बहुत देर तक उसके कानों में गूँजता रहा।
कविता की भावपूर्ण अच्छी आवृत्ति करने वाला श्रोता के मन में एक विशेष मोह उत्पन्न करता है। कविता का भाव उसके पढ़ने वाले को महिमा मंडित करता है, वह उसके कंठ-स्वर, उसकी मुख-राशि और उसके चरित्र में हैं, वैसे ही कविता की आवृत्ति करने वाले को काव्यपाठ।
विनय के लिए ललिता भी कविता द्वारा मंडित होने लगी। इतने दिन तक अपनी तीखी बातों से वह अनवरत विनय को उत्तेजित करती रही थी। जैसे जहाँ चोट लगी हो बार-बार हाथ वहीं पहुँचता है, वैसे ही विनय भी कई दिन से ललिता की तीखी बातों और दंशक हास्य के सिवा कुछ सोच ही नहीं पाता था। ऐसा ललिता ने क्यों किया, वैसा क्यों कहा, बार-बार उसे इसी बात के बारे में सोचना पड़ता रहा है। ललिता के क्षोभ का रहस्य जितना ही वह नहीं समझ सका उसी अनुपात में ललिता की चिंता उसके मन पर और अधिकार जमाती रही हैं। सबेरे नींद से जागकर सहसा यही बात उसे याद हो आई है परेशबाबू के घर जाते समय प्रतिदिन उसके मन में यह संदेह उठा है कि आज ललिता न जाने कैसे पेश आएगी। जिस दिन ललिता ज़रा-सी प्रसन्न दिखी है, उस दिन विनय ने राहत की लंबी साँस ली है और इस बात को लेकर विचार किया है कि कैसे उसके इस भाव को स्थाई बनाया जा सकता है, यद्यपि ऐसा कोई उपाय कभी नहीं सोच पाया जो उसके वश का हो।
पिछले कई दिन के इस मानसिक द्वंद्व के बाद ललिता की काव्य आवृत्ति के माधुर्य की विशेषता ने विनय को प्रबल रूप से प्रभावित किया। उसे इतना अच्छा लगा कि वह यह सोच ही नहीं पाया कि किन शब्दों में उसकी प्रशंसा करे। अच्छा-बुरा कुछ भी ललिता के मुँह पर कहने का उसे साहस नहीं होता क्योंकि मानव-चरित्र का यह साधारण नियम कि अच्छा कहने से अच्छा लगे, ललिता पर लागू नहीं भी हो सकता है- बल्कि शायद साधारण नियम होने के कारण ही लागू न हो सके। इसीलिए विनय ने उत्फुल्ल हृदय से वरदासुंदरी के सामने ललिता की योग्यता की अधिक ही प्रशंसा की। इससे विनय की विद्या और बुध्दि के बारे में वरदासुंदरी की श्रध्दा और भी बढ़ गई है।
अचरज की एक और भी बात देखने में आई। ललिता ने ज्यों ही स्वयं यह अनुभव किया कि उसकी आवृत्ति और अभिनय निर्दोष हुए हैं, वह अपने कर्तव्य की दुरूहता के पार वैसे ही निरास भाव से चल निकली, जैसे कोई सुगठित नौका लहरों को काटती हुई बढ़ती चली जाती है। विनय के प्रति उसकी कटुता भी जाती रही और उसको विमुख करने की चेष्टा भी उसने छोड़ दी। बल्कि अभिनय के बारे में उसका उत्साह बहुत बढ़ गया और अभिनय के मामले में वह विनय को पूरा सहयोग देने लगी, यहाँ तक कि आवृत्ति के या और किसी भी विषय के संबंध में विनय से उपदेश लेने में भी उसे आपत्ति न रही।
ललिता में इस बदलाव से विनय की छाती पर से जैसे एक भारी बोझ-सा उतर गया। वह इतना आनंद मग्न हुआ कि वह जब-तब आनंदमई के पास जाकर छोटे बालकों की भाँति ऊधम करने लगा। सुचरिता के पास बैठकर बहुत सारी बातें करने की सूझ भी उसे थी, लेकिन सुचरिता से आज-कल उसकी भेंट ही न होती। अवसर मिलते ही वह ललिता के साथ बातचीत करने बैठ जाता, हालाँकि ललिता से बातें करने में उसे विशेष सतर्क रहना पड़ता, ललिता मन-ही-मन उस पर और उसकी सभी बातों पर बड़ी कड़ाई के साथ मनन करती है, यह जानकर ललिता के सामने उसकी बातों की धारा सहज वेग से नहीं बहती थी। ललिता बीच-बीच में कह उठती थी, ''आप ऐसे क्यों बातें करते हैं मानो किताबों में से पढ़कर आए हों और उसे ही दुहरा रहे हों?''
विनय जवाब देता, ''मैं इतने वर्षों से केवल किताबें ही पढ़ता रहा हूँ, इसीलिए मन भी छपी हुई किताब-जैसा हो गया है।''
ललिता कहती, ''आप ज्यादा अच्छी तरह बात कहने की चेष्ट न किया करें- अपनी बात अपने सीधे-सरल ढंग से कह दिया करें। आप ऐसे सँवारकर करें-अपनी बात अपने सीधे-सरल ढंग से कह दिया करें। आप ऐसे सँवारकर बात कहते हैं तो मुझे भ्रम होता है कि और किसी की बात को आप सजा-सँवारकर कह रहे हैं।
इसलिए कभी कोई बात अपनी स्वाभाविक क्षमता के कारण साफ-सुथरे ढंग से विनय के मन में आती भी थी तो ललिता से कहते समय वह यत्नपूर्वक उसे सरल बनाकर और छोटी करके कहता था। कोई अलंकृत वाक्य सहसा उसके मुँह से निकल जाने पर वह झेंप जाता था।
ललिता के मन के भीतर अकारण घिरी हुई घटा छट जाने से उसका हृदयाकाश उज्ज्वल हो उठा। उसमें यह परिवर्तन देखकर वरदासुंदरी को भी आश्चर्य हुआ। अब पहले की भाँति ललिता बात-बात में आपत्ति करके विमुख होकर नहीं बैठ जाती, बल्कि सब कामों में उत्साह के साथ सहयोग देती है। आगामी अभिनय की साज-सज्जा आदि सभी विषयों में उसे रोज़ाना तरह-तरह की नई बातें सूझती रहतीं और उन्हीं को लकर वह सभी को परेशान कर देती। इस मामले में वरदासुंदरी का कितना ही अधिक उत्साह रहा हो खर्च की बात भी वह सोचती थीं, इसीलिए जब ललिता अभिनय के मामले में उदासीन थी, तब उनके चिंतित होने का जितना कारण था, अब उसकी उत्साहित अवस्था से भी उतना ही संकट पैदा हो गया। लेकिन ललिता की उत्तेजित कल्पना-वृत्ति पर चोट करने का भी साहस नहीं होता था, क्योंकि ललिता को जिस काम में उत्साह होता उसमें थोड़ी भी कमी रह जाने से वह इतनी उदासीन हो जाती थी कि फिर उस काम में सहयोग देना ही उसके लिए संभव नहीं रह जाता था।
अनेक बार अपने उत्साह में ललिता के पास भी जाती। सुचरिता हँसती, बात करती; ललिता को उसकी बातों में बार-बार एक रुकावट का अनुभव होता, जिसके कारण नाराज़ होकर वह लौट आती।
उसेन एक दिन परेशबाबू से जाकर कहा, ''बाबा, सुचि दीदी कोने में बैठी-बैठी किताब पढ़ेंगी और हम नाटक करने जाएँगी, यह नहीं होगा। उन्हें भी हमारे साथ शामिल होना होगा।''
कुछ दिनों से परेशबाबू भी सोच रहे थे कि न जाने क्यों सुचरिता अपनी बहनों से दूर हटती जा रही है। उन्हें शंका हो रही थी कि ऐसी हालत उसके चरित्र के लिए स्वास्थ्यकर न होगी। ललिता की बात सुनकर आज उन्हें लगा कि आमोद-प्रमोद में सब साथ शामिल न होने से सुचरिता का यह दुराव बढ़ता ही जाएगा। उन्होंने ललिता से कहा, ''अपनी माँ से कहो न!''
ललिता ने कहा, ''माँ से तो कहूँगी, किंतु सुचि दीदी को राज़ी करने का ज़िम्मा आपको लेना होगा।''
जब परेशबाबू ने सुचरिता से कह दिया तब वह और आपत्ति न कर सकी तथा अपने कर्तव्य-पालन में लग गई।
सुचरिता के अपने एकांत कोने से निकलकर बाहर आते ही विनय ने फिर उसके साथ पहले की भाँति बातचीत का सिलसिला जमाने की चेष्टा की। पर इधर कई दिनों से न जाने क्या हो गया था कि वह सुचरिता के पास पहुँच ही नहीं पाता। उसके चेहरे पर, उसकी दृष्टि में एक ऐसी दूरी रहती कि उसकी ओर बढ़ने में झिझक होती। पहले भी काम-काज और मिलने-जुलने में सुचरिता में एक शिथिलता रहती थी, पर अब तो वह जैसे बिल्कुल अलग हो गई थी। अभिनय और अभ्यास में वह जो योग देने लगी थी, उससे भी उसका अलगाव कम नहीं हुआ। काम के समय उसका जितना भाग होता, पूरा होते ही वह अलग हो जाती। सुचरिता की इस दूरी से विनय को पहले तो बड़ी ठेस पहुँची। विनय मिलनसार आदमी था, जिनसे उसका अपनत्व होता उनकी ओर से किसी प्रकार की अड़चन होने पर विनय को बड़ी पीड़ा होती। इस परिवार में इतने दिनों से विशोष रूप से वह सुचरिता से ही सम्मान पाता रहा है, अब बिना कारण सहसा उपेक्षित होने से उसे बड़ा कष्ट हुआ। लेकिन जब उसने देखा कि ऐसे ही कारण से ललिता भी सुचरिता पर नाराज़ हो रही है, तब उसे सांत्वना मिली और उसकी घनिष्ठता ललिता से और भी बढ़ गई। सुचरिता को उसे और दूर हटाने का मौका न देकर उसने स्वयं ही सुचरिता का निकट-संपर्क छोड़ दिया और देखते-देखते इस प्रकार सुचरिता विनय से बहुत बहुत दूर चली गई।
इस बार इतने दिन गोरा के अनुपस्थिति रहने से विनय परेशबाबू के परिवारजनों से बिना किसी बाधा के अच्छ तरह घुल-मिल गया था। विनय के स्वभाव का इस प्रकार निर्बाध परिचय पाकर परेशबाबू के घर के सभी लोग पूर्णरूप से संतुष्ट थे। उधर विनय को भी इस तरह अपनी सहज-स्वाभाविक अवस्था प्राप्त करके जो आनंद मिला, वह पहले कभी नहीं मिला था। वह इन सबका अच्छा लगता है, इस बात का अनुभव करके उसकी अच्छा लगने की शक्ति जैसे और बढ़ गई।
अपनी प्रकृति के इस विकास के समय, अपने को एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में अनुभव करने के समय सुचरिता विनय से दूर हो गई, और कसी दूसरे समय यह क्षति, इसका आघात विनय के लए असह्य होता, पर इस समय वह उसे सहज ही अप्रभावी कर गया। यह भी आश्चर्य की बात थी कि ललिता ने भी सुचरिता का भाव-परिवर्तन जानकार भी पहले की तरह उसके प्रति नाराज़गी नहीं दिखाई। क्या काव्य-आवृत्ति और अभिनय के उत्साह ने ही उस पर पूरा अधिकार कर लिया था?
इधर हरानबाबू भी अभिनय में सुचरिता को योग देते देखकर सहसा उत्साहित हो उठे। उन्होंने स्वयं प्रस्ताव किया कि वह भी 'पेराडाइज़ लास्ट' के एक अंश का पाठ करेंगे और ड्राइडन के काव्य की आवृत्ति की भूमिका के रूप में संगीत की मोहिनी शक्ति के बारे में एक छोटा-सा भाषण भी देंगे। वरदासुंदरी को मन-ही-मन यह बहुत बुरा लगा, और ललिता भी इससे प्रसन्न नहीं हुई। हरानबाबू मजिस्ट्रेट से स्वयं मिलकर पहले ही यह मामला पक्का कर आए थे। जब ललिता ने कहा कि कार्यक्रम को इतना लंबा कर देने पर मजिस्ट्रेट शायद एतराज़ करें तब हरानबाबू ने जेब से मजिस्ट्रेट का कृतज्ञता प्रकट करता हुआ पत्र निकालकर ललिता को दिखाकर उसे निरुत्तर कर दिया।
बिना कारण गोरा यात्रा पर चला गया, कब लौटकर आयेगा यह कोई नहीं जानता। सुचरिता ने यद्यपि सोच रखा था कि इस बारे में किसी बात को मन में स्थान न देगी, फिर भी रोज ही उसके मन में यह आशा उठती कि शायद आज गोरा आ जाए। वह इस आशा को किसी तरह मन से न निकाल पाती। जिस समय गोरा की उदासीनता और अपने मन की विवशता के कारण सुचरिता को बहुत अधिक पीड़ा हो रही थी, जब किसी तरह इस जाल को काटकर भाग जाने के लिए उसका मन व्याकुल हो रहा था, तब एक दिन हरानबाबू ने परेशबाबू से फिर अनुरोध किया कि विशेष रूप से ईश्वर का नाम लेकर सुचरिता के साथ उनका संबंध पक्का कर दिया जाय।
परेशबाबू ने कहा, ''अभी तो विवाह में बहुत देर है, इतनी जल्दी बँध जाना क्या सही रहेगा?''
हरानबाबू बोले, ''विवाह से कुछ समय पहले ऐसी बध्द अवस्था में रहना दोनों के मन की एकलयता के लिए मेरी समझ में विशेष आवश्यक है। पहले परिचय और विवाह के बीच एक ऐसा आध्यात्मिक संबंध, जिसमें सामाजिक दायित्व नहीं है फिर भी बंधन है-बहुत हितकारी होगा।''
परेशबाबू ने कहा, ''अच्छा, सुचरिता से पूछ देखूँ।''
हरानबाबू ने कहा, ''उन्होंने तो पहले ही सम्मति दे दी है।''
हरानबाबू के प्रति सुचरिता के मनोभाव के संबंध में परेशबाबू को अब भी संदेह था। उन्होंने इसीलिए स्वयं सुचरिता को बुलाकर हरानबाबू का प्रस्ताव उसके सम्मुख रखा। सुचरिता अपने दुविधा में पड़े हुए जीवन को कहीं भी अंतिम रूप से समर्पित कर सके तो उसे शांति मिले, इसलिए उसने अविलंब ऐसे निश्चित ढंग से हामी भर दी कि परेशबाबू का सब संदेह मिट गया। विवाह से इतना पहले बँध जाना ठीक है या नहीं, इस बात को अच्छी तरह सोच लेने के लिए सुचरिता से उन्होंने अनुरोध किया, फिर भी सुचरिता ने प्रस्ताव के बारे में कोई आपत्ति नहीं की।
ब्राउनलो साहब के निमंत्रण से निपटकर एक विशेष दिन निश्चित करके सभी को बुलाकर भावी दंपति का संबंध पक्का कर दिया जाय, यह तय हो गया।
सुचरिता को थोड़ी देर के लिए लगा जैसे उसका मन राह के ग्रास से मुक्त हो गया। उसने मन-ही-मन निश्चय किया कि हरानबाबू से विवाह हो जाने पर ब्रह्म-समाज के काम में जुट जाने के लिए वह दृढ़ होकर अपने मन को तैयार करेगी। उसने प्रण किया कि प्रतिदिन वह थोड़ा-थोड़ा करके हरानबाबू से ही धर्म-तत्व संबंधी अंग्रेज़ी पुस्तकें पढ़ेगी और उनके निर्देश के अनुसार चलेगी। जो कठिन होगा, बल्कि जो अप्रिय होगा, उसी को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा मन-ही-मन करके उसे एक संतोष का अनुभव हुआ।
हरानबाबू द्वारा सम्पादित अंग्रेज़ी पत्र कुछ दिनों से उसने नहीं पढ़ा था, आज प्रकाशित होते ही वह उसके पास पहुँच गया। शायद हरानबाबू ने विशेष रूप से उसके लिए भिजवा दिया था।
पत्र लिए कमरे में जाकर सुचरिता स्थिर चित्त होकर बैठ गई और परम कर्तव्य की तरह उसे पहली पंक्ति से पढ़ने लगी। मन में श्रध्दा लेकर, स्वयं को छात्र मानकर वह पत्रिका से आदेश ग्रहण करने लगी।
किंतु पाल के सहारे बहती हुई नाव हठात् पहाड़ से टकराकर टेढ़ी हो गई। पत्र के इस अंक में 'पुरानी पीढ़ी' नामका एक प्रबंध था, जिसमें ऐसे लोगों पर कटाक्ष किया गया था जो वर्तमान काल में रहते हुए भी प्राचीन काल की ओर मुँह किए रहते हैं। उनकी युक्तियाँ असंगत नहीं थीं बल्कि सुचरिता स्वयं ऐसी ही युक्तियाँ खोजती रही थी, किंतु प्रबंध पढ़ते ही वह जान गई कि वह गोरा को लक्ष्य करके लिखा गया है। हालाँकि उसमें गोरा का नाम या उसके लिखे हुए किसी प्रबंध का कोई ज़िक्र न था। सैनिक जैसे बंदूक की प्रत्येक गोली से एक-एक आदमी को मार गिरकार प्रसन्न होता है, इस प्रबंध के प्रत्येक वाक्य से वैसे ही किसी सजीव पदार्थ को बिध्द कर सकने का एक हिंसामय आनंद प्रकट हो रहा था।
वह प्रबंध सुचरिता से सहन नहीं हुआ। उसकी प्रत्येक युक्ति को काट फेंकने को वह छटपटा उठी। उसने मन-ही-मन सोचा- गौरमोहन बाबू चाहें तो इस प्रबंध को धूल धूसरित कर सकते हैं। गोरा का उज्ज्वल चेहरा उसकी ऑंखो के आगे सजीव हो उठा और उसका प्रबल कंठ-स्वर सुचरिता के हृदय प्रदेश के भीतर तक गूँज गया। चेहरे और उस कंठ-स्वर की असाधारणता के आगे इस प्रबंध और इसके लेखक की क्षुद्रता उसे इतनी ओछी जान पड़ी कि पत्र को उसने फर्श पर फेंक दिया।
उस दिन बहुत दिनों के बाद अपने-आप सुचरिता विनय के पास आकर बैठी और बातों-बातों में बोली, ''अच्छा, आपसे तो कहा था कि जिन पत्रों में आप लोगों के लेख छपे हैं, आप पढ़ने के लिए देंगे-अभी तक तो दिए नहीं?''
यह नहीं कह सका विनय कि इस बीच सुचरिता का बदला हुआ रुख देखकर उसे अपना वायदा पूरा करने का हौसला नहीं हुआ। उसने कहा, ''मैंने वे सब इकट्ठे कर रखे हैं, कल ले आऊँगा।''
अगले दिन पुस्तिकाओं और पत्रों की पोटली लाकर विनय सुचरिता को दे गया। उन्हें पाकर सुचरिता ने फिर उन्हें पढ़ा नहीं, बक्स में बंद करके रख दिया-पढ़ने की बहुत अधिक इच्छा हुई थी इसीलिए नहीं पढ़ा। वह मन को किसी तरह भी भटकने नहीं देगी। उसने प्रतिज्ञापूर्वक विद्रोही चित्त को एक बार फिर हरानबाबू के शासन को सौंपकर राहत पाई।
रविवार की सुबह आनंदमई पान लगा रही थीं और शशिमुखी उनके पास बैठी सुपारी काटकर ढेर लगा रही थी। इसी समय कमरे में विनय के आते ही अपनी गोद की सुपारियाँ फेंककर हड़बड़ाती हुई शशिमुखी उठकर भाग गई। आनंदमई थोड़ा-सा मुस्करा दी।
बड़ी जल्दी विनय सबसे घुल-मिल जाता था। अब तक शशिमुखी से भी उसका काफी मेल-जोल था। दोनों ही एक-दूसरे को काफी छकाते भी रहते थे। विनय के जूते छिपाकर शशिमुखी विनय से कहानी सुनने की युक्ति किया करती थी। विनय ने शशिमुखी के ही जीवन की दो-एक साधारण घटनाएँ लेकर उन्हीं में खूब नमक-मिर्च लकाकर कुछ कहानियाँ गढ़ रखी थीं। इनके सुनाए जाने पर शशिमुखी बहुत चिढ़ती थी। पहले तो वह सुनाने वाले पर झूठ बोलने का आरोप लगाकर ज़ोर-शोर से प्रतिवाद करती, फिर हारकर भाग जाती थी। उसने भी बदले में विनय के जीवन-चरित्र को तोड़-मरोड़कर कहानी गढ़ने की कोशिश की थी, किंतु रचना-शक्ति विनय के बराबर न होने के कारण इसमें विशेष सफलता न पा सकी थी।
जो हो, विनय के पहुँचते ही शशिमुखी सब काम छोड़कर उसके साथ छेड़-छाड़ करने दौड़ी आती थी। इतना उत्पात करने पर कभी-कभी आनंदमई उसे डाँट देती थीं, किंतु कुसूर अकेली शशिमुखी का नहीं था, क्योंकि पहले विनय ही उसे इतना चिढ़ा देता था कि वह अपने को रोक न सकती थी। वही आज जब विनय को देखते ही हड़बड़ाकर कमरे से भाग गई तो आनंदमई को हँसी आ गई, किंतु यह हँसी सुख की नहीं थी।
इस छोटी-सी घटना से विनय को भी ऐसा धक्का पहुँचा कि वह कुछ देर तक गुमसुम बैठा रहा। उसके लिए शिशमुखी से विवाह करना कितना असंगत होगा, यह ऐसी छोटी-छोटी बातों से ही प्रत्यक्ष हो जाता था। विनय ने इसके लिए जब हामी भरी थी, तब केवल वह गोरा के साथ अपनी मित्रता की बात ही सोचता रहा था, स्वयं विवाह को उसने कल्पना के द्वारा मूर्त करके नहीं देखा था। इसके अलावा विनय ने इस बात पर गौरव करते हुए पत्रों में अनेक लेख भी लिखे थे कि हमारे देश में विवाह संस्कार मुख्यतया व्यक्तिगत संबंध नहीं बल्कि पारिवारिक संबंध है, उसने विवाह के संबंध में अपनी स्वयं की निजी इच्छा या अनिच्छा को कोई महत्व नहीं दिया था। आज जब शशिमुखी विनय को देखकर उसे अपना वर जान दाँतों से जीभ काटकर भाग गई, तब जैसे शशिमुखी के साथ अपने भावी संबंध का उसे एक साकार रूप दीख पड़ा। उसका समूचा अंत:करण पल-भर में ही विद्रोही हो उठा। गोरा उसे उसकी प्रकृति के विरुध्द कितनी दूर तक लिए जा रहा था, यह समझकर गोरा के ऊपर गुस्सा हो आया और अपने प्रति धिक्कार का भाव पैदा हुआ। यह याद करके कि शुरू से ही आनंदमई ने इस विवाह का निषेध किया था, विनय का मन उनकी दूरदर्शिता के प्रति एक विस्मय-मिश्रित श्रध्दा से भर आया।
विनय के मन का भाव आनंदमई ने समझ लिया। उसे दूसरी ओर प्रवृत्ति करने के लिए उन्होंने कहा, ''विनय, कल गोरा की चिट्ठी आई थी।''
विनय ने कुछ अनमने भाव से ही कहा, ''क्या-क्या लिखा है?''
आनंदमई बोलीं, ''अपनी तो कुछ ख़ास ख़बर नहीं दी। देश के छोटे लोगों की दुर्दशा देखकर दु:खी होकर लिखा है। घोषपाड़ा नाम के किसी गाँव में मजिस्ट्रेट ने क्या-क्या अन्याय किए हैं, उसी का वर्णन है।''
विनय ने गोरा के विरुध्द उत्तेजना के कारण ही अधीर होकर कहा, 'गोरा की नज़र बस उस दूसरी तरफ ही है। और हम लोग जो समाज की छती पर सवार होकर रोज़ न जाने कितने अन्याय करते हैं, उन सबकी लीपा-पोती करते हुए क्या यह कहते रहना होगा कि ऐसा सत्कर्म दूसरा कुछ हो ही नहीं सकता!''
सहसा गोरा पर ऐसे आरोप लगाकर विनय अपने को जैसे दूसरे पक्ष में खड़ा कर रहा हो, यह देखकर आनंदमई हँस दीं।
विनय ने कहा, ''माँ, तुम हँस रही हो, सोच रही हो कि एकाएक विनय को इतना गुस्सा क्यों आ रहा है। क्यों गुस्सा आ रहा है, तुम्हें बताता हूँ। उस दिन सुधीर ने हाटी स्टेशन पर मुझे अपने एक मित्र के बागान में ले गया था। हम लोगों के सियालदह से चलते ही बारिश शुरू हो गई। सोदपुर स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो देखा कि साहबी कपड़े पहने हुए एक बंगाली ने ठाठ से सिर पर छाता लगाए हुए अपनी बहू को गाड़ी से उतारा। बहू की गोद में छोटा बच्चा भी था, बदन की मोटी चादर से किसी प्रकार बच्चे को ढककर वह बेचारी खुले प्लेटफार्म पर एक ओर खड़ी ठंड और लज्जा से सिकुड़ती हुई भीगती रही, और पति महोदय सामान के पास छाता लगाए खड़े चिल्लाते रहे। मैंने पल-भर में ही समझ लिया कि सारे बंगाल में, चाहे धूप हो चाहे बारिश, चाहे भद्र घर की हो चाहे मामूली, किसी स्त्री के सिर पर छाता नहीं होता। जब देखा कि स्वामी तो निर्लज्ज भाव से सिर पर छाता ताने खड़े हैं और उनकी स्त्री अपने को चादर से ढकती हुई चुपचाप भीग रही है और मन-ही-मन भी इस दुर्व्यवहार से दु:खी नहीं है, और स्टेशन पर मौजूद लोगों में से किसी को भी इसमें कोई अनौचित्य नहीं दीखता तभी से मैंने निश्चय कर लिया है कि अब कभी मुँह से कविताई की वे सब झूठी बातें नहीं निकालूँगा कि हम लोग स्त्रियों को बहुत अधिक सम्मान करते हैं, उन्हें लक्ष्मी और देवी मानते हैं।
देश को हम लोग मातृभूमि कहते हैं, लेकिन देश की इस मातृ-मूर्ति की महिमा यदि हम देश की स्त्रियों में ही प्रत्यक्ष न करें- अगर बुध्दि से, शक्ति से, उदार कर्तव्य-बोध से स्त्रियों को उनके सतेज, सरल, संपूर्ण रूप में न देखें, अपने घरों में केवल दुर्बलता, संकीर्णता और अधूरापन ही देखते रहें तो देश का रूप हमारे सम्मुख कभी उज्ज्वल नहीं हो सकता।''
सहसा अपने उत्साह पर झेंपकर विनय ने अपने सहज-स्वाभाविक स्वर में कहा, ''माँ, तुम सोच रही हो, बीच-बीच में विनय ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करता हुआ अक्सर लेक्चर झाड़ा करता है और आज भी उसको बुलास लगी है। मेरी बातें लेक्चर-जैसी आदत के कारण हो जाती हैं, लेकिन आज यह लेक्चर नहीं दे रहा हूँ। देश की लड़कियों का देश के लिए कितना महत्व है, पहले यह मैं अच्छी तरह नहीं समझता था, कभी सोचता भी नहीं था। माँ, और ज्यादा बकबक नहीं करूँगा, मैं ज्यादा बोलता हूँ इसीलिए मेरी बात को कोई मेरे मन की बात नहीं समझता। अब से थोड़ा बोला करूँगा।''
और अधिक देर विनय नहीं ठहरा, वैसा ही उत्साह-भरा मन लिए चला गया।
आनंदमई ने महिम को बुलाकर कहा, ''बेटा, अपनी शशिमुखी का विवाह विनय के साथ नहीं होगा।'' महिम, ''क्यों, तुम्हारी राय नहीं है?''
आनंदमई, ''यह संबंध अंत तक टिकेगा नहीं, इसलिए मेरी राय नहीं है, नहीं तो मेरी राय भला क्यों न होती।''
महिम, ''गोरा राज़ी हो गया है, विनय भी राज़ी है, तब टिकेगा क्यों नहीं? यह ज़रूर है कि तुम्हारी राय न होगी तो विनय हरगिज शादी नहीं करेगा, यह मैं जानता हूँ।''
आनंदमई, ''विनय को मैं तुमसे अधिक जानती हूँ।''
महिम, ''गोरा से भी अधिक?''
आनंदमई, ''हाँ, गोरा से भी अधिक जानती हूँ, इसलिए हर तरफ से सोचकर ही मेरी राय नहीं है।''
महिम, ''अच्छा, गोरा वापस आ जाय.... ।''
आनंदमई, ''महिम, मेरी बात सुनो। इसे लेकर यदि अधिक दबाव डालोगे तो आगे चलकर मुसीबत होगी। मैं नहीं चाहती कि इस मामले में गोरा विनय से कुछ कहे।''
''अच्छा देखा जाएगा'', कहते हुए महिम ने एक और पान मुँह में दबाया और गुस्से से भरे हुए कमरे से चले गए।
गोरा
9
रवीन्दनाथ टैगोर
गोरा जिस समय यात्रा पर निकला उसके साथ अविनाश, मोतीलाल, वसंत और रमापति, ये चार साथी थे। लेकिन गोरा के निर्दय उत्साह के साथ ये लोग लयबध्दता नहीं रख सके। बीमार हो जाने का बहाना करके अविनाश और वसंत तो चार-पाँच दिन में ही कलकत्ता लौट आए। केवल गोरा के प्रति श्रध्दा के कारण ही मोतीलाल और रमापति उसे अकेला छोड़कर वापिस नहीं आ सके, अन्यथा उनके कष्टों की सीमा नहीं थी। गोरा न तो पैदल चलकर थकता था, न कहीं रुके रह जाने से ऊबता था। गाँव का जो कोई गृहस्थ ब्राह्मण जानकर गोरा को श्रध्दापूर्वक घर में ठहराता, उसके यहाँ भोजन इत्यादि की चाहे जितनी असुविधा हो, तब भी गोरा वहीं टिका रहता था। गाँव-भर के लोग उसकी बात सुनने के लिए उसके चारों ओर इकट्ठे हो जाते और उसे छोड़ना ही न चाहते।
पढ़े-लिखे भद्र समाज और कलकत्ता के समाज के बाहर हमारा देश कैसा है, गोरा ने यह अभी पहले-पहल देखा। यह विशाल अकेला भारतवर्ष ग्राम कितना तितर-बितर, कितना संकीर्ण और दुर्बल है, अपनी शक्ति के संबंध में कैसा अत्यंत भ्रमित और अपने शुभ के संबंध में यज्ञ और उदासीन। हर पाँच-सात कोस की दूरी पर उसका समाज इतना बदल जाता है, संसार के बृहत् कर्म-क्षेत्र में चलने के उसके मार्ग में कितनी अपनी गढ़ी हुई या काल्पनिक अड़चनें हैं, छोटी-छोटी बातों को वह कितना बढ़ा-चढ़ाकर देखता है और उस पर किसी भी रूढ़ि का बंधन कितना कसा हुआ और अटूट है, उसका मन कैसा सोया हुआ, उसके प्राण कितने दुर्बल और उसका उद्यम कितना क्षीण है- यह गोरा ग्रामवासियों के बीच ऐसे रहे बिना किसी तरह कल्पना भी न कर सकता थ। उसके गाँव में रहते-रहते वहाँ के एक हिस्से में आग लग गई थी। इतने बड़े संकट में भी एक होकर प्राणपण से कोशिश करके विपत्ति का सामना करने की शक्ति उनमें कितनी कम है, गोरा यह देखकर विस्मय में पड़ गया। हक्के-बक्के से सभी इधर-उधर दौड़ रहे थे और रो-चीख रहे थे, पर व्यवस्थिति ढंग से कोई कुछ नहीं कर पा रहा था। गाँव के पास कोई जलाशय भी नहीं था। स्त्रियाँ रोज़ाना दूर से पानी लाकर घर का काम चलाती हैं, फिर भी रोज़-रोज़ की इस मुसीबत से बचने के लिए घर ही में एक मामूली कुऑं खोद लेने की बात उन तक को न सूझी थी जो कि काफी संपन्न थे। पहले भी इस गाँव में कई बार आग लगी है, उसे केवल भाग्य का प्रकोप मानकर सभी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे हैं, पास कहीं पानी की कोई व्यवस्था कर रखने की कोई कोशिश किसी ने नहीं की। गाँव की ऐसी ज़रूरत के बारे में भी जिनका बोध नहीं चेता, उनके सामने सारे देश की बात करना गोरा को बेवकूफी ही लगी। गोरा को सबसे अधिक विस्मय इसी बात पर होता कि इन सब दृश्यों और घटनाओं से मोतीलाल और रमापति ज़रा भी विचलित न होते थे, बल्कि गोरा के क्षोभ को भी असंगत समझते थे। छोटे लोग तो ऐसा करते ही हैं, ऐसे सोचते ही हैं, वे इन सब कष्टों को कष्ट नहीं समझते। छोटे आदमियों के लिए ऐसा छोड़कर और कुछ कभी हो भी सकता है ऐसा सोचने को ही वे अपनी औकात से बड़ी बात करना समझते हैं। इस अज्ञता, जड़ता और दु:ख का बोझ कितना भारी और भयंकर है और यह बोझ हमारे पढ़े-लिखे और अनपढ़, धनी और निर्धन, सभी के कंधों पर एक-सा है और किसी को भी आगे नहीं बढ़ने देता, आज यह बात अच्छी तरह समझकर गोरा का चित्त हर पल व्याकुल रहने लगा।
घर से कोई शोक-संदेश मिलने की बात कहकर मोतीलाल भी चल दिया। केवल रमापति गोरा के साथ रह गया।
घूमते-फिरते दोनों एक नदी के किनारे बसे एक मुसलमान गाँव में पहुँचे। आतिथ्य पाने की उम्मीद में सारे गाँव में घूमते-घूमते केवल एक घर हिंदू नाई का मिला। उसी के घर दोनों ब्राह्मणों ने आश्रय लेने जाकर देखा, बूढ़ा नापित और उसकी पत्नी एक मुसलमान लड़के को पाल-पोस रहे हैं। रमापति बड़ा धर्मभीरु ब्राह्मण था, वह तो बहुत बेचैन हो उठा। नापित को गोरा ने उसके अनाचार के लिए फटकारा तो उसने कहा, ''ठाकुर, हम लोग कहते है। हरि, वे लोग कहते हैं अल्लाह, दोनों में कोई भेद नहीं है।''
धूप तेज़ हो चली थी, फैली हुई रेतों के पार बहुत दूर नदी थी। रमपाति ने प्यास से व्याकुल होकर पूछा, ''हिंदू का पीने का पानी कहाँ मिलेगा?''
एक कच्चा कुऑं नापित के घर में था, लेकिन उस भ्रष्ट कुए का पानी रमापति कैसे पी सकता था? वह मुँह लटकाकर बैठा रहा।
गोरा ने पूछा, ''इस लड़के के माँ-बाप नहीं है?''
नापित ने कहा, ''दोनों हैं, लेकिन उनका होना-न होना बराबर है।''
गोरा ने पूछा, ''वह कैसे?''
जो इतिहास नापित ने सुनाया संक्षेप में वह यों है-
''जिस ज़मींदारी में वे लोग रहते थे निलहे साहबों का उस पर इजारा था। नदी-किनारे की खादर ज़मीन को लेकर वहाँ की प्रजा का नील-कोठी के साहबों के साथ बराबर झगड़ा चल रहा था। और प्रजा तो हार मान चुकी थी, लेकिन खादर के इस घोषपुर गाँव की प्रजा को साहब लोग किसी प्रकार नहीं दबा सके हैं। गाँव के सभी लोग मुसलमान हैं और उनका प्रधान फर्रू सरदार किसी से नहीं डरता। नील-कोठी वालों से झगड़े के चलते पुलिस से मार-पीठ करके दो बार जेल भी हो आया है। घर की आर्थिक हालत ऐसी हो गई कि खाने को दो कौर भात नहीं जुटता, फिर भी वह किसी का रौब नहीं मानता। इस बार खादर में खेती करके गाँव के लोगों ने कुछ बोरे धान पा लिया था- लेकिन कोई एक महीना पहले नील-कोठी के मैनेजर साहब लठैत लेकर स्वयं आए और प्रजा का धान लूटकर ले चले। फर्रू सरदार ने इसी झगड़े के समय साहब की दाहिनी बाँह पर ऐसी लाठी जमाई की अस्पताल ले जाकर उसकी बाँह कटवानी पड़ गई। सारे इलाके में इतना बड़ा हौसला कभी किसी ने नहीं किया था। तब से पुलिस का आतंक आग की तरह गाँव-गाँव में फैल गया है। प्रजा के घरों में कहीं कुछ नहीं रहा, घरों की औरतों की इज्ज़त-आबरू भी सुरक्षित नहीं, फर्रू सरदार के साथ और बहुत-से दूसरे लोग हवालात में बंद कर दिए गए हैं और अनेकों गाँव छोड़कर भाग गए हैं। फर्रू के परिवार के पास खाने को अन्न का दाना नहीं है, उसकी बहू की एकमात्र धोती का यह हाल है कि लज्जावश घर से बाहर नहीं निकल सकती। उनका इकलौता लड़का तमीज़ नापित की स्त्री को गाँव के नाते से मौसी पुकारता था, उसकी मोहताज हालत देखकर नाइन उसे अपने घर ले आई और उसका पालन कर रही है। नील-कोठी वालों की एक कचहरी वहाँ से लगभग डेढ़ कोस पर लगी है, दल-बल के साथ दरोगा अब भी वहीं मौजूद है। वहाँ से कब किस बहाने वह गाँव पर धावा कर दे या क्या कर बैठे इसका कोई ठिकाना नहीं है। अभी कल ही नाई के पड़ोसी बूढ़े नाज़िम के घर पर पुलिस ने छापा मारा था- नाज़िम का जवान साला दूसरे इलाके से अपनी बहन से मिलने आया हुआ था- बिल्कुल बिना वजह दारोगा ने यह कहकर कि 'यह पट्ठा अच्छा जवान दीखता है- छाती तो देखो पट्ठे की!' अपने हाथ की लाठी से उसे ऐसा धक्का दिया कि उसके दाँत टूट गए और खून बह निकला। यह अत्याचार देखकर बहन दौड़ी हुई आई तो उस बेचारी बुढ़िया को भी धक्का देकर गिरा दिया गया। पहले इस इलाके में पुलिस इतना जुल्म करने का साहस नहीं करती थी पर अब गाँव के सब तगड़े जवान या तो हवालात में हैं या गाँव छोड़कर भाग गए हैं। उन भागे हुए लोगों की तलाश का बहाना करके ही पुलिस गाँव पर ऐसा कहकर ढा रही है, इससे कब छुटकारा होगा कुछ कहा नहीं जा सकता।''
इधर गोरा उठने का नाम ही नहीं ले रहा था। उधर रमापति की प्यास के मारे जान जान निकल रही थी। नाई की कहानी समाप्त होने से पहले ही उसने फिर पूछा, ''कोई हिंदू घर यहाँ से कितनी दूर होगा?''
नाई ने कहा, ''वही डेढ़ कोस पर जो नील-कोठी की कचहरी है, उसका तहसीलदार ब्राह्मण है- नाम है माधव चटर्जी।''
गोरा ने पूछा, ''स्वभाव कैसा है?''
नाई ने कहा, ''ठीक यमदूत जैसा। ऐसा निर्दई और दुष्ट ढूँढे से भी नहीं मिलेगा। दारोगा को जितने दिन खिलाए-पिलाएगा उसका सब खर्चा हमीं लोगों से वसूल करेगा- बल्कि कुछ मुनाफा भी कमाएगा।''
रमापति ने कहा, ''गोरा बाबू, अब चलिए- और नहीं सहा जाता।''
उस मुसलमान लड़के को नाइन अपने ऑंगन के कुएँ के पास खड़ा करके घड़े भर पानी खींचकर नहलाने लगी थी, इस बात से रमापति को और भी गुस्सा आ रहा था और उससे वहाँ बैठा नहीं जा रहा था। चलते समय गोरा ने नाई से पूछा, ''तुम तो इस दंगे-फसाद के बीच भी इसी गाँव में टिके हुए हो- तुम्हारे घर के और लोग कहीं नहीं हैं?''
नाई ने कहा, ''काफी दिनों से यहीं रहता हूँ, इन सबसे मोह हो गया है। मैं हिंदू नाई हूँ, खेती-वेती से मुझे कोई मतलब नहीं है। इसीलिए नील-कोठी वाले मुझे कुछ नहीं कहते। और फिर गाँव-भर में कोई बड़ा तो और रहा नहीं, मैं भी अगर चल दूँ तो औरतें डर से मर जाएँगी।''
गोरा ने कहा, ''अच्छा खा-पीकर मैं फिर आऊँगा।''
भूखा-प्यासा रमापति नील-कोठी वालों के अत्याचार की इस लंबी कहानी से उल्टे गाँवा वालों पर ही और बिगड़ उठा। ये मूर्ख बलवान के विरुध्द सिर उठाना चाहते हैं, इसे उसने इन गँवार मुसलमानो की स्पर्धा और बेवकूफी की चरम सीमा ही समझा। इसमें उसे संदेह नहीं था कि सख्त सज़ा देकर इनकी अकड़ ढीली करना ही इनके लिए उचित होगा। ऐसे अभागों पर पुलिस अत्याचार करती ही है, करने को बाध्य होती है और उसकी ज़िम्मेदारी मुख्यतया इन्हीं लोगों पर होती है, यही उसकी धारणा थी। कर्मचारियों से समझौता ही कर लें, दंगा-फसाद क्यों करते हैं? इनमें उतनी ताकत भी कहाँ हैं?
वस्तुत: नील-कोठी के साहबों की ओर ही रमापति की भीतरी सहानुभूति थी।
दोपहर की तेज़ धूप में तपी हुई बालू पर चलते हुए गोरा ने सारे रास्ते-भर कोई बात नहीं की। अंत में जब पेड़ों की ओट से कुछ दूर पर कचहरी की छत दिखाई देने लगी तब सहसा गोरा ने रुककर कहा, ''रमापति, तुम जाकर कुछ खा-पी लो, मैं उसी नाई के घर जा रहा हूँ।''
रमापति बोला, ''यह कैसी बात है- आप नहीं खाएँगे? चटर्जी के यहाँ खा-पीकर फिर जाइएगा।''
गोरा ने कहा, ''मैं अपना कर्तव्य करूँगा, तुम खा-पीकर कलकत्ता लौट जाना- मुझे यहीं घोषपुर गाँव में शायद कुछ दिन रहना होगा- तुमसे वह नहीं निभ सकेगा।''
सुनकर रमापति के तो रोंगटे खड़े हो गए। गोरा-जैसा धर्मशील हिंदू किस मुँह से उन म्लेच्छों के घर रहने की बात कह सकता है, वह सोच ही नहीं सका। खाना-पीना छोड़कर गोरा ने क्या भूख हड़ताल करने की ठानी है? लेकिन तब ज्यादा सोचने का भी समय कहाँ था, उसे एक-एक पल एक-एक युग जान पड़ रहा था। गोरा का साथ छोड़कर कलकत्ता भाग जाने के लिए उससे अधिक अनुरोध नहीं करना पड़ा। कुछ दूर से उसने घूमकर देखा, गोरा की लंबी देह अपनी छोटी-सी छाया को फलाँगती हुई दोपहर की तेज धूप में सुनसान गर्म रेती के पार अकेली बढ़ती चली जा रही है।
हालाँकि गोरा भी भूख-प्यास से बेचैन हो रहा था पर उस दुष्ट अत्याचारी माधव चटर्जी का अन्न खाकर ही उसकी जाति बचेगी, इस बात को जितना ही वह सोचता उतना ही वह और असह्य होती जाती। उसका चेहरा और ऑंखें लाल हो गई थीं, सिर तप रहा था, उसके मन में एक तीव्र विद्रोह उठ रहा था। वह सोच रहा था पवित्रता को बाहर की चीज़ बनकार भारतवर्ष में हम यह कितना भयंकर अधर्म कर रहे हैं- जान-बूझकर जो आदमी फसाद खड़ा करके इन मुसलमानो पर जुल्म ढा रहा है उसके घर में मेरी जाति बनी रहेगी, और जो उस जुल्म को सहकर भी मुसलमान के बच्चे की रक्षा कर रहा है और समाज की निंदा सहने को तैयार है उसके घर में मेरी जाति नष्ट हो जाएगी? जो हो, आचार-विचार के भले-बुरे की बात फिर सोचूँगा- अभी तो नहीं सोच सकता।
गोरा को अकेले लौटते देखकर नाई को आश्चर्य हुआ। गोरा ने पहले तो आकर नाई का लोटा अच्छी तरह अपने हाथ में माँजकर कुएँ से पानी खींचकर पिया, फिर बोला, ''घर में कुछ दाल-चावल हो तो दो, मैं बनाकर खाऊँगा।'' हड़बड़ाकर नाई ने सब सामान जुटा दिया। खाने से निटकर गोरा ने कहा, ''मैं दो-चार दिन तुम्हारे पास ही ठहरूँगा॥''
डरकर हाथ जोड़ते हुए नाई ने कहा, ''इस अधम के घर आप ठहरेंगे इससे बड़ा सौभाग्य मेरे लिए और क्या होगा- पर देखिए, हम लोगों पर पुलिस की नज़र आपके रहने से न जाने क्या उपद्रव उठ खड़ा हो।''
गोरा ने कहा, ''मेरे यहाँ रहते पुलिस को कोई उत्पात करने का साहस नहीं होगा। यदि कुछ करेगी तो मैं रक्षा करूँगा।''
नाई ने कहा, ''मेरे यहाँ रहते पुलिस को कोई उत्पात करने का साहस नहीं होगा। यदि कुछ करेगी तो मैं रक्षा करूँगा।''
नाई ने कहा, ''दुहाई है आपकी, आप यदि रक्षा करने की कोशिश करेंगे तब तो और भी कोई उपाय न रहेगा। वे लोग सोचेंगे कि मैंने ही साठ-गाँठ करके आपको बुलाया है और उनके खिलाफ गवाह जुटा रहा हूँ। अब तक तो किसी तरह टिका हुआ था, फिर नहीं टिक सकूँगा। अगर मुझे भी यहाँ से उठ जाना पड़ा तब तो गाँव अनाथ ही हो जाएगा।''
हमेशा से गोरा शहर में रहता आया है, नाई क्यों इतना भयभीत था यह समझना भी उसके लिए कठिन था। वह यही जानता था कि इंसाफ के लिए डटकर खड़े हो जाने से ही अन्याय का प्रतिकार होता है। उसकी कर्तव्य-बुध्दि किसी तरह उस विपन्न गाँव को असहाय छोड़कर जाने की आज्ञा नहीं दे रही थी। तब नाई ने उसके पैर पकड़कर कहा, ''देखिए, आप ब्राह्मण हैं, मेरे पुण्य-फल से मेरे घर अतिथि हुए हैं, आपको चले जाने को कहता हूँ, तो इससे मुझे पाप लगता है लेकिन आपके मन में हम लोगों के प्रति दया है, यह जानकर ही कहता हूँ कि मरे घर रहकर आप पुलिस के अत्याचार में कोई बाधा देंगे तो मुझे ही और बड़ी मुसीबत में डाल देंगे।''
गोरा नाई के इस डर को व्यर्थ की कापुरुषता मानकर कुछ विरक्त होकर ही तीसरे पहर उसके घर से चल पड़ा। इस म्लेच्छाचारी के घर उसने भोजन किया है, यह सोचकर मन-ही-मन उसे ग्लानि भी होने लगी। शरीर से थका हुआ और चित्त से विरक्त वह साँझ को नील-कोठी की कचहरी पर जा पहुँचा। रमापति ने खा-पीकर कलकत्ता रवनाना हो जाने में जरा भी देर नहीं की थी, इसलिए वह वहाँ नहीं मिला। माधव चटर्जी ने बड़ी आव-भगत के साथ गोरा को भोजन के लिए निमंत्रित किया। गोरा ने आग-बबूला होकर कहा ''मैं आपके यहाँ का पानी भी नहीं पी सकता।''
विस्तिम होकर माधव ने कारण पूछा, तो गोरा ने उसे अत्याचारी और अन्यायी कहकर फटकार दिया और बैठने से भी इंकार किया। दारोगा तख्तपोश पर तकिए के सहारे बैठा हुआ हुक्का गुड़गुड़ा रहा था, तब उठकर बैठते हुए उसने रुखाई से पूछा, ''कौन हो जी तुम? घर कहाँ है?''
गोरा ने उसके पश्न का उत्तर न देकर कहा, ''तो तुम्हीं दारोगा हो? घोषपुर गाँव में जो जुल्म तुमने किया है मैंने सब सुना है। अब भी अगर न सँभले तो.... ''
''तो क्या फाँसी दोगे? ज़रा इसका हौसला तो देखो। मैं तो समझा था भीख माँगने आया है, यह तो लाल-पीला होने लगा। अरे, तवारी!''
घबराकर माधव ने दारोगा का हाथ दबाते हुए कहा, ''अरे क्या करते हो, अच्छे घर का है बेइज्ज़ती नहीं है?''
माधव बोला, ''वह जो कहते हैं बहुत झूठ तो नहीं कहते-गुस्सा करने से क्या होगा? नील-कोठी के साहबों की गुमाश्तागिरी करके खाता हूँ, इससे आगे तो और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है, और दादा, तुम गुस्सा मत करो- तुम पुलिस के दारोगा हो, तुम्हें यम का दूत कहना कुछ गाली थोड़े ही है? बाघ तो आदमी मार खाएगा ही- कोई वैष्णव तो है नहीं- मानी हुई बात है। उसे खाना तो होगा ही, वह और क्या करेगा?''
बिना प्रयोजन माधव को क्रोध करते कभी किसी ने नहीं देखा, किससे कब कौन-सा काम निकाला जा सकता है, या टेढ़े होने पर कौन क्या हानि पहुँचा सकता है, यह पहले से कौन ठीक जानता है? किसी का भी बुरा या अपमान वह अच्छी तरह हिसाब जाँचने के बाद ही करता था- गुस्से में किसी पर हमला करके अपनी क्षमता को फिजूल में खर्च नहीं करता था।
तब दारोगा ने गोरा से कहा, ''देखो जी, यहाँ हम लोग सरकारी काम करने आए हैं- इसमें टाँग अड़ाने या गोलमाल करने से मुसीबत में पड़ जाओगे।''
बिना कुछ कहे मुड़कर गोरा बाहर चला गया। माधव जल्दी से उठकर उसके पीछे-पीछे जाकर बोला, ''महाशय, आप जो कहते हैं सही है- हमारा काम ही कसाई का है- और यह जो साला दारोगा है इसके तो साथ बैठने में भी पाप लगता है- लेकिन जो-जो जुल्म उसके द्वारा करवाने पड़ते हैं मैं ज़बान पर भी नहीं ला सकता। और अधिक दिन नहीं है, दो-तीन बरस और नौकरी करके लड़कियों को ब्याहने का साधन जुटाकर फिर हम स्त्री-पुरुष दोनों काशीवास को चल देंगे। मुझे खुद यह सब अच्छा नहीं लगता- कभी-कभी तो मन होता है, गले में फाँसी डालकर लटक जाऊँ। खैर, अब आज रात आप कहाँ जाएँगे- यहीं भोजन करके विश्राम कर लें। उस दारोगा साले की सूरत भी आपको नहीं दिखेगी- आपके लिए सब बंदोबस्त अलग कर दूँगा।''
गोरा को साधारण लोगों से कुछ अधिक भूख लगती थी, और आज दिन-भर उसे ठीक से खाने को नहीं मिला था। लेकिन अभी उसका सारा शरीर गुस्से से जल रहा था। किसी तरह वह वहाँ न रुक सका। बोला, ''मुझे ज़रूर काम है।''
माधव ने कहा, ''तो रुकिए, एक लालटेन साथ कर दूँ।''
गोरा ने कोई जवाब नहीं दिया, तेज़ी से चला गया। लौटकर माधव ने दारोगा से कहा, ''दादा, यह आदमी ज़रूर सदर गया है। तुम अभी मजिस्ट्रेट के पास किसी को भेजो।''
दारोगा ने कहा, ''क्यों, किसलिए?''
माधव बोला, ''और तो कुछ नहीं, बस उन्हें एक बार कह आए कि एक भद्र जन न जाने कहाँ से आकर गवाहों को तोड़ने की कोशिश करता हुआ घूम रहा है।''
27
शाम को मजिस्ट्रेट ब्राउनलो साहब नदी-किनारे की सड़क पर टहल रहे थे, हरानबाबू उनके साथ थे। थोड़ी दूर पर गाड़ी में उनकी मेम परेशबाबू की लड़कियों के साथ हवाख़ोरी कर रही थी।
बीच-बीच में ब्राउनलो साहब बंगाली भद्र-समाज के लोगों को अपने घर गार्डन-पार्टियों में आमंत्रित करते रहते थे। ज़िले के एंट्रेस स्कूल के पुरस्कार-वितरण समारोह के समय सभापतित्व भी वही करते थे। संपन्न घरों में विवाह आदि शुभ संस्कारों के समय आमंत्रित किए जाने पर अनुग्रहपूर्वक वह उसे स्वीकार कर लेते थे। यहाँ तक कि यात्रा-अभिनय की मजलिस में निमंत्रित होने पर एक बड़ी आराम-कुर्सी पर बैठे-बैठे कुछ देर तक धैर्यपूर्वक गान सुनने का प्रयत्न भी करते थे। उनकी अदालत के सरकारी वकील के यहाँ पिछले दशहरे की झाँकियों में जो लड़के भिश्ती और महतरानी बने थे, मजिस्ट्रेट साहब ने उनका अभिनय विशेष रूप से पसंद किया था और उनकी फर्माइश पर झाँकियों के इस अंश का कई बार प्रदर्शन किया गया था।
इनकी पत्नी मिशनरी की लड़की थीं। इसलिए जब-तब उनके घर मिशनरी औरतों की चाय-पान की महफिल जुटती रहती थी। ज़िले में उन्होंने एक लड़कियों का स्कूल स्थापित किया था और बराबर इसके लिए प्रयास करती थीं कि उस स्कूल में छात्राओं की कमी न हो। परेशबाबू के घर की लड़कियों में पढ़ाई की विशेष चर्चा होती देखकर बराबर वह उनका हौसला बढ़ाती रहती थीं, दूर रहने पर भी बीच-बीच में चिट्ठी-पत्री देती रहती थीं। क्रिसमस के समय उन्हें धर्म-ग्रंथ उपहार स्वरूप भेजती थीं।
पंडाल लग गया था। हरानबाबू, सुधीर और विनय को साथ लेकर वरदासुंदरी और उनकी लड़कियाँ सभी आई थीं- उन सबको सरकारी डाक-बँगले में ठहराया गया था। परेशबाबू को यह सब पसंद नहीं था इसलिए वह अकेले कलकत्ता में ही रह गए थे। उनका साथ देने के लिए सुचरिता ने वहीं रह जाने की बहुत कोशिश की थी, परंतु परेशबाबू ने मजिस्ट्रेट के निमंत्रण के संबंध में कर्तव्य का विशेष उपदेश देकर सुचरिता को भेज दिया था। तय यह हुआ था कि दो दिन बाद मजिस्ट्रेट के घर डिनर के बाद ईवनिंग पार्टी में कमिश्नर साहब और पत्नी सहित छोटे लाट साहब के सम्मुख परेशबाबू की लड़कियों का अभिनय और काव्य-आवृत्ति आदि होगा। उसके लिए मजिस्ट्रेट ने अनेक अंग्रेज़-बंधुओं को ज़िले और कलकत्ता तक से बुलाया था। गिने-चुने कुछ बंगाली भद्र जनों का भी प्रबंध किया गया था, उनके लिए बगीचे में एक अलग तंबू में ब्राह्मण रसोइए द्वारा जल-पान तैयार कराने की व्यवस्था की जाएगी, ऐसा सुना गया था।
थोड़े समय में ही हरानबाबू ने अपनी उच्च कोटि की बातचीत से मजिस्ट्रेट साहब को काफी संतुष्ट कर लिया था। ख्रिस्तान धर्मशास्त्र के विषय में हरानबाबू का असाधारण ज्ञान देखकर साहब आश्चर्यचकित हो गए थे। उन्होंने हरानबाबू से यहाँ तक पूछ लिया था कि ख्रिस्तान धर्म स्वीकार करने में ही वह क्यों पीछे रह गए?
आज शाम को नदी-किनारे की सैर के समय वह हरानबाबू के साथ ब्राह्मण-समाज की कार्य-प्रणाली और हिंदू-समाज के सुधार के बारे में गंभीर चर्चा कर रहे थे। इसी समय 'गुड ईवनिंग, सर' कहता हुआ गोरा उनके सम्मुख आ खड़ा हुआ।
उससे पहले दिन भी मजिस्ट्रेट साहब से मुलाकात की कोशिश करने पर यह उसकी समझ में आ गया था कि साहब के पास आने से पहले उनके प्यादे को नज़राना देना पड़ता है। यह दंड और अपमान स्वीकार न करने का निश्चय करके आज वह साहब के हवाख़ोरी करने के समय उनके सामने उपस्थिति हुआ है। इस साक्षात् के समय हरानबाबू अथवा गोरा की ओर से परिचय का कोई उत्साह नहीं देखा गया।
साहब आगंतुक को देखकर कुछ विस्मित हो गए। ऐसा छ: फुट से अधिक ऊँचा, लंबा-तगड़ा जवान उन्होंने बंगाल में अब से पहले कभी देखा हो, यह उन्हें याद नहीं पड़ा। उसका रंग भी साधारण बंगालियों-जैसा नहीं था। शरीर पर खाकी रंग का कुर्ता, मोटी मैली धोती, हाथ में बांस की लाठी, चादर सिर पर पगड़ी की तरह बँधी हुई थी।
मजिस्ट्रेट से गोरा ने कहा, ''मैं घोषपुर गाँव से आया हूँ।''
मजिस्ट्रेट साहब ने विस्मय सूचक हल्की-सी सीटी बजाई। घोषपुर के मामले में कोई गैर आदमी टाँग अड़ा रहा है, इसकी सूचना उन्हें एक दिन पहले ही मिल चुकी थी। शायद यही वह आदमी है। सिर से पैर तक गोरा को एक तीखी नज़र से देखकर उन्होंने पूछा, ''तुम कौन जात हो?''
गोरा बोला, ''बंगाली ब्राह्मण हू।''
साहब बोले, ''ओह! किसी अख़बार से संबंध है शायद?''
गोरा ने कहा, ''नहीं।''
मजिस्ट्रेट बोले, ''घोषपुर में तुम क्या करने आए?''
गोरा ने कहा, ''घूमता हुआ वहाँ जा ठहरा था। पुलिस की ज्यादती से गाँव की दुर्गति होती हुई देखकर तथा नए उपद्रव की आशंका जानकर उसे रोकने के लिए आपके पास आया हूँ।''
मजिस्ट्रेट ने कहा, ''घोसपुर गाँव के लोग बड़े बदमाश हैं, यह तुम्हें मालूम है?''
''वे बदमाश नहीं हैं,'' गोरा बोला, ''निर्भीक और आज़ाद-दिमाग हैं। अत्याचार चुपचाप नहीं सह सकते।''
मजिस्ट्रेट बिगड़ उठे। उन्होंने मन-ही-मन सोचा-नए बंगाली इतिहास की पुस्तकें पढ़कर बहुत बातें सीख गए हैं- इनसे फरेब.... प्रकट में गोरा को डपटकर बोले, ''यहाँ के हालात का तुम्हें कुछ पता नहीं है।''
मेघ गंभीर स्वर में गोरा ने जवाब दिया, ''यहाँ के हालात का आपको और भी कम पता है।''
मजिस्ट्रेट ने कहा ''मैं तुम्हें ख़बरदार किए देता हूँ, घोसपुर के मामले में यदि कोई दख़ल दोगे तो सस्ते में नहीं छूटोगे।''
गोरा ने कहा, ''जब आपने तय ही कर लिया है कि अत्याचार को रोकने की कार्यवाही नहीं करेंगे, और गाँव के लोगों के बारे में भी पहले से मिथ्या धारणा बना ली है तब मेरे पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं है कि गाँव के लोगों को पुलिस के मुकाबले में खड़े होने के लिए बढ़ावा दूँ।''
चलते-चलते मजिस्ट्रेट रुक गए और बिजली की तेज़ी से-गोरा की ओर पलटकर गरज उठे, ''क्या तुम्हारी इतनी मजाल!''
और कुछ कहे बिना गोरा धीरे-गति से चला चला गया। मजिस्ट्रेट, ''हरानबाबू, आपके देश के लोग ''क्या-तुम्हारी इतनी मजाल!''
हरानबाबू ने कहा, ''पढ़ाई-लिखाई व्यवस्थिति ढंग से नहीं होती, विशेषकर आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा देश में होती ही नहीं; इसीलिए ये सब बातें होती हैं। अंग्रेज़ी शिक्षा का जो उत्तम अंश है वह ग्रहण करने का अधिकार इन लोगों को नहीं है। भारतवर्ष में अंग्रेज़ों का राज्य नियति का ही विधान है, ये अकृतज्ञ लोग अब भी इस बात को स्वीकार करना नहीं चाहते। एक मात्र कारण इसका यही है कि इन लोगों ने केवल किताबें रट ली हैं, इनका धर्म-बोध बिल्कुल अधूरा है।
मजिस्ट्रेट बोले, ''क्राइस्ट को स्वीकार किए बिना भारतवर्ष का धर्म-बोध कभी नहीं हो सकता।''
हरानबाबू ने कहा, ''एक तरह से यह सच ही है।''
यों कहते हुए हरानबाबू ने ईसा को स्वीकार करने के बारे में एक ईसाई में और हरानबाबू में कहाँ तक सहमति है और कहाँ मतभेद, इसके सूक्ष्म विवेचन में मजिस्ट्रेट को इतना उलझा लिया कि मेम साहब जब परेशबाबू की लड़कियों को डाक-बँगले पहुँचाकर लौट आईं और पति से बोलीं, ''हैरी, अब वापस चलना चाहिए'' तब चौंककर उन्होंने घड़ी निकालकर देखते हुए कहा, ''माई गॉड! यह तो आठ बजकर बीस मिनट हो गए।''
उन्होंने गाड़ी पर सवार होते समय हरानबाबू से हाथ मिलाकर विदा लते हुए कहा, ''आपके साथ बातचीत में साँझ बहुत अच्छी कट गई।''
हरानबाबू ने डाक-बँगले पर लौटकर मजिस्ट्रेट के साथ अपनी बातचीत विस्तारपूर्वक सुनाई। लेकिन गोरा के आने का उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया।
28
किसी अपराध के लिए बिना किसी सुनवाई के सिर्फ गाँव को सबक सिखाने के लिए सैंतालीस आदमियों को हावालात में बंद कर दिया गया था।
मजिस्ट्रेट से भेंट होने के बाद गोरा किसी वकील की खोज में निकला। किसी से उसने सुना कि सातकौड़ी हालदार यहाँ के नामी वकील हैं। सातकौड़ी के घर पहुँचते ही वकील साहब कह उठे, ''अरे यह तो गोरा है! तुम यहाँ कहाँ?''
गोरा का अनुमान ठीक ही था- सातकौड़ी उसका सहपाठी था। गोरा ने कहा, ''घोषपुर के असामियों को ज़मानत पर छुड़कार उनकी पैरवी करनी होगी।''
सातकौड़ी ने कहा, ''ज़मानत कौन देगा?''
गोरा बोला, ''मैं दूँगा।''
सातकौड़ी ने कहा, ''सैंतालीस आदमियों की ज़मानत देना तुम्हारे बूते का है?''
गोरा ने कहा, ''अगर मुख्त्यार लोग मिलकर ज़मानत दें तो उनकी फीस मैं दे दूँगा।''
सातकौड़ी ने कहा, ''उसमें कुछ कम खर्च नहीं होगा।''
दूसरे दिन मजिस्ट्रेट के इजलास में ज़मानत की दरख़ास्त पेश की गई। मजिस्ट्रेट ने कल मिले मैले कपड़े और पगड़ी वाले दबंग आदमी की ओर एक नज़र डाली और दरख़ास्त नामंजूर कर दी। चौदह वर्ष के लड़के से लेकर अस्सी वर्ष के बूढ़े तक हवालात में सड़ने के लिए छोड़ दिए गए।
सातकौड़ी से गोरा ने उसकी ओर से केस लड़ने का अनुरोध किया।
सातकौड़ी ने कहा, ''गवाह कहाँ मिलेंगे? जो गवाह हो सकते थे वही सब तो आसामी हैं। इनके अलावा साहब को मारने के इस कांड की जाँच के मारे सारे इलाके के लोगों की नाक में दम है मजिस्ट्रेट समझता है कि भीतर-ही-भीतर इसमें भद्र लोगों का भी हाथ है, शायद मुझ पर भी करता हो, कौन जाने। अंग्रेज़ी अख़बार बराबर लिख रहे हैं कि देशी लोगों के हौसले इतने बढ़ जाएँगे तो अरक्षित, असहाय अंग्रेज़ों का निश्चिंत रहना मुश्किल हो जाएगा। इधर तो ऐसी हालत हो गई है कि देशी लोग देश में टिक ही नहीं पाते हैं। मैं जानता हूँ कि अन्याय हो रहा है, लेकिन कोई उपाय नहीं है।'
गरजकर गोरा ने कहा, 'उपाय क्यों नहीं है?''
हँसकर सातकौड़ी ने कहा, ''जैसे तुम स्कूल में थे अब तक ठीक वैस-के-वैसे ही हो। उपाय इसलिए नहीं है कि हम लोगों के घर में बीवी-बच्चे हैं- रोज़ कमाकर न लाएँ तो कई लोगों का फाका करना पड़ जाय। दूसरे का बोझ अपने ऊपर औट लेने को तैयार होने वाले व्यक्ति दुनिया में कम ही होते हैं- और उस देश में तो और भी कम जिसमें कुनबा भी कुछ छोटा नहीं होता। जिसके घर दस खाने वाले हैं वह उन दस को छोड़कर दूसरे दस आदमियों की ओर देखने का समय कहाँ से पाएगा?''
गोरा ने कहा, ''तो इन लोगों के लिए तुम कुछ नहीं करोगे? हाईकोर्ट के सामने यदि.... ''
अधीर होकर सातकौड़ी ने कहा, ''अरे, तुम यह क्यों नहीं देखते कि एक अंग्रेज़ ज़ख्मी हुआ है। हर अंग्रेज़ राजा है- छोटे अंग्रेज़ को मारना भी छोटे किस्म का राज-विद्रोह ही है। जिसका कोई सुफल नहीं निकलने वाला उसके लिए बेकार में दौड़-धूप करके ख़ामख़ाह मजिस्ट्रेट से भी बिगाड़ूँ, यह मुझसे नहीं होगा।''
गोरा ने निश्चित किया कि अगले दिन साढ़े दस बजे की गाड़ी से कलकत्ता जाकर देखेगा कि वहाँ के किसी वकील की मदद से कुछ हो सकता है या नहीं। इसी समय लेकिन एक और बाधा आ खड़ी हुई।
यहाँ के कार्यक्रम के सिलसिले में कलकत्ता के विद्यार्थियों की एक टीम के साथ स्थानीय विद्यार्थियों का क्रिकेट-मैच निश्चित हुआ था। अभ्यास के लिए कलकत्ता के लड़के आपस में खेल रहे थे कि एक लड़के के पैर में गेंद से गहरी चोट लग गई। मैदान से लगा हुआ एक बड़ा पोखर था। जख्मी लड़के को किनारे पर लिटाकर उसके दो साथी कपड़ा पानी में भिगोकर उसके पैर में पट्टी बाँध रहे थे कि अचानक कहीं से एक पहरेदार ने आकर एक छात्र को ज़ोर से धक्का देकर भद्दी गालियाँ देना शुरू कर दिया। पोखर पीने के पानी के लिए ही था, उसमें उतरना मना था, यह बात कलकत्ता के विद्यार्थी नहीं जानते थे; जानते भी होते तो अकस्मात् ऐसा अपमान सहने का उन्हें अभ्यास नहीं था। उनके बदन भी गठे हुए थे। उन्होंने अपमान का यथोचित प्रतिकार शुरू कर दिया। यह दृश्य देखकर चार-पाँच सिपाही और दौड़े हुए आ गए। ठीक इसी समय गोरा भी वहाँ से गुज़रा। छात्र गोरा को पहचानते थे- उनके साथ गोरा कई बार क्रिकेट खेल चुका था। गोरा ने जब देखा कि विद्यार्थियों को पकड़कर मारते-मारते ले जाया जा रहा है, तब वह सह नहीं सका। बोला, ''ख़बरदार जो मारा तो।''
पहरेदार और उसके साथियों ने उसे भी भद्दी गाली दी, इस पर गोरा ने घूँसे और लातें जमाकर ऐसा बखेड़ा कर दिया कि भीड़ लग गई। इधर देखते-देखते विद्यार्थियों का झुंड भी इकट्ठा हो गया और गोरा के उत्साह से शह पाकर वे भी पुलिस पर टुट पड़े। पहरेदार और उसके साथी मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। सारी घटना में राह चलते लोगों को बड़ा मज़ा आया। लेकिन कहने की ज़रूरत नहीं कि यह तमाशा गोरा के लिए तमाशा न रहा।
लगभग तीन-चार बजे, डाक-बँगले में जब विनय, हरानबाबू और लड़कियाँ अभ्यास कर रही थीं, विनय के पिरिचित छात्रों ने आकर खबर दी कि गोरा ओर कुछ-एक विद्यार्थियों को गिरफ्तार करके पुलिस ने हवालात में बंद कर दिया है, अगले दिन पहले इजलास में ही मजिस्ट्रेट साहब के सामने उनकी पेशी होगी।
गोरा हवालात में! खबर सुनकर हरानबाबू को छोड़ सब लोग चौंक उठे। दौड़ा हुआ विनय पहले अपने सहपाठी सातकौड़ी हालदार के पास गया, उसे सारी बात बताकर उसके साथ हवालात पहुँचा।
सातकौड़ी ने गोरा की ओर पैरवी करने और उसे ज़मानत पर छुड़ाने की कोशिश का प्रस्ताव किया तो गोरा ने कहा, ''नहीं, मैं वकील भी नहीं करूँगा और मुझे ज़मानत पर छुड़ाने की चेष्टा भी नहीं करनी होगी।''
''यह भी कोई बात हुई?'' विनय की ओर मुड़कर सातकौड़ी ने कहा, ''देखा इसको? कौन कहेगा कि गोरा स्कूल से निकल आया है! इसकी अक्ल अभी भी ठीक वैसी ही है!''
गोरा ने कहा ''संयोग से मेरे पास साधन हैं, दोस्त हैं, इसीलिए मैं हवालात से बच जाऊँ, यह मैं नहीं चाहता। हमारे देश की जो धर्मनीति है उसके अनुसार न्याय करने की ज़िम्मेदारी राजा की है, प्रजा के साथ अन्याय हो यह राजा का ही अधर्म है। लेकिन इस राज में यदि वकील की फीस न जुटा सकने पर प्रजा को हवालात में सड़ने या जेल में मरना पड़े, सिर पर राजा के रहते भी पैसा देकर इन्साफ खरीदने की कोशिश में लुट जाना पड़े, तो ऐसे अन्याय के लिए एक धेला भी मैं ख़र्च करना नहीं चाहता।''
सातकौड़ी ने कहा, ''लेकिन काज़ी के राज में तो घूस देने के लिए ही सिर बेचना पड़ता था।''
गोरा ने कहा, ''लेकिन घूस देने का विधान राजा का तो नहीं था। जो काज़ी बुरा होता था वह घूस लेता था- आज-कल भी वही हाल है। लेकिन आज-कल इंसाफ के लिए राजा के सामने जाने पर चाहे वादी हो चाहे प्रतिवादी, चाहे दोषी हो चाहे निर्दोष, प्रजा को रोना ही पड़ता है। जो ग़रीब है, इन्साफ की लड़ाई में उसके लिए हार-जीत दोनों ही में सर्वनाश है। फिर जहाँ राजा वादी है और हम-जैसे लोग प्रतिवादी, वहाँ उनकी ओर से ही सब वकील बैरिस्टर हैं, और अगर मैं जुटा सकूँ तो ठीक है, नहीं तो मेरा भाग्य। इंसाफ के लिए अगर सफाई वकील की ज़रूरत नहीं है तो फिर सरकारी वकील किसलिए? और अगर ज़रूरत है तो फिर गवर्नमेंट के खिलाफ अपना वकील स्वयं खोजने की मजबूरी क्यों हो? यह क्या प्रजा के साथ शत्रुता नहीं है? कैसा राजधर्म है यह?''
सातकौड़ी ने कहा, ''बिगड़ते क्यों हो भाई। सिविलाइजेशन कोई सस्ती चीज़ तो नहीं है। इंसाफ में बारीकी के लिए कानून में भी बारीकी आवश्यक है-कानून में बारीकी होने पर बिना पेशेवर कानूनदाँ के काम नहीं चलता- पेशे की बात आते ही बिक्री-ख़रीद की बात आ जाती है इसलिए सभ्यता की अदालत में इंसाफ अपने-आप दुकानदारी हो जाता है इसी से जिसके पास पैसा नहीं है उसके ठगे जाने की संभावना रहती ही है। यदि तुम राजा होते तो क्या करते भला?''
गोरा बोला, ''यदि ऐसा कानून बनाता कि हज़ार-डेढ़ हज़ार रुपया वेतन पाने वाले जज की अक्ल के लिए भी उससे भुगत पाना असंभव होता, तो अभागे वादी-प्रतिवादी दोनों पक्षों के लिए सरकारी खर्च पर वकील नियुक्त करता। ठीक इंसाफ होने का ख़र्चा प्रजा के सिर मढ़कर अपनी न्याय-व्यवस्था पर गर्व करता हुआ मुगल-पठान राजाओं को गालियाँ न देता।''
सातकौड़ी ने कहा, ''ठीक है, लेकिन अभी वह शुभ दिन जब नहीं आया, तुम राजा भी नहीं हुए, जब आज तुम सभ्य राजा की अदालत में आसामी बने पेशे हो तब तुम्हें या तो अपनी गाँठ से पैसा खर्च करना होगा या किसी दोस्त-वकील की शरण लेनी होगी, नहीं तो और किसी प्रकार तो मुसीबत टलती नहीं।''
हठ करके गोरा ने कहा, ''कोई कोशिश न करने से जो सिर पर आयेगी भले ही वह मेरे सिर पर आए। बिल्कुल असहाय की इस राज्य में जो गति होगी वही मेरी भी हो।''
विनय ने भी बड़ी मिन्नतें कीं, लेकिन गोरा ने सबकी अनसुनी कर दी। उसने विनय से पूछा, ''अचानक तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे?''
विनय का चेहरा ज़रा तमतमा उठा। गोरा आज हवालात में न होता तो शायद विनय कुछ विद्रोह के स्वर में ही अपने वहाँ होने का कारण बता देता। लेकिन आज स्पष्ट बात उसके मुँह पर नहीं आई। वह बोला, ''मेरी बात फिर होगी, अभी तो तुम्हारी.... ''
गोरा ने कहा, ''मैं तो आज सरकारी मेहमान हूँ। मेरी चिंता तो सरकार स्वयं कर रही है, तुम लोगों को कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं है!''
विनय जानता था कि गोरा को डिगाना संभव नहीं, इसलिए वकील करने की कोशिश उसने छोड़ दी। बोला, ''यहाँ का तो तुम खा नहीं सकोगे, बाहर से कुछ खाना भेजने का प्रबंध कर दूँ।''
अधीर होकर गोरा ने कहा, ''विनय, क्यों तुम बेकार में दौड़-धूप करते हो? मुझे बाहर से कुछ नहीं चाहिए। सबके भाग्य में हवालात में जो आता है उससे अधिक मैं कुछ नहीं चाहता।''
लाचार होकर विनय डाक-बँगले लौट आया। सुचरिता रास्ते की ओर वाले एक सोने के कमरे में दरवाज़ा बंद करके खिड़की खोले विनय के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी। किसी प्रकार भी दूसरों का साथ या उनकी बातचीत उसे सहन नहीं हो पा रही थी।
जब सुचरिता ने देखा कि विनय उदास और चिंतित चेहरा लिए डाक-बँगले की ओर आ रहा है तब उसके हृदय में अनेक आशंकाएँ उठने लगीं। बड़ी मुश्किल से अपने को शांत करके एक किताब हाथ में लेकर वह बैठने के कमरे में आई। सिलाई का काम ललिता को बिल्कुल नहीं रुचता, लेकिन आज एक कोने में चुपचाप बैठी वह सिलाई कर रही थी, लावण्य सुधीर के साथ अंग्रेज़ी शब्द बनाने का खेल खेल रही थी, लीला दर्शक बनी बैठी थी। हरानबाबू वरदासुंदरी के साथ आगामी कल के उत्सव के बारे में बातचीत कर रहे थे। विनय ने आज सबेरे पुलिस के साथ गोरा के झगड़े का सारा किस्सा ब्यौरेवार सुना दिया। सुचरिता स्तब्ध बैठी रही, ललिता की गोद से सिलाई नीचे गिर गई और उसका मुँह लाल हो आया।
वरदासुंदरी ने कहा, ''आप कोई चिंता न कीजिए, विनय बाबू- आज शाम को ही मजिस्ट्रेट साहब की मेम से मैं गौर बाबू के लिए कहूँगी।''
सुधीर ने कहा, ''उसके बचाव के लिए तो कोई प्रबंध करना होगा।''
ज़मानत पर छुड़वाने और वकील नियुक्त करने के बारे में गोरा ने जो आपत्तियाँ की थीं विनय ने वे सब बता दीं। सुनकर हरानबाबू चिढ़कर बोले, ''यह सब बेकार की हेकड़ी है।''
ललिता के मन का भाव हरानबाबू के प्रति जैसा भी रहा हो, पर अब तक वह उनका सम्मान करती आई थी और कभी उनके साथ बहस में नहीं पड़ी थी। आज ज़ोर से सिर झटककर बोल उठी, ''बिल्कुल बेकार नहीं है। गौर बाबू ने जो किया है बिल्कुल ठीक किया है। मजिस्ट्रेट सिर्फ हमको दबाता रहेगा और हम अपनी रक्षा खुद करेंगे? उसकी मोटी तनख्वाह जुटाने के लिए टैक्स भी भरना होगा, और फिर उसी से अपनी जान छुड़ाने के लिए गाँठ से वकील की फीस भी देनी होगी? ऐसा इंसाफ पाने से जेल जाना कहीं अच्छा है।''
हरानबाबू ललिता को अब तक बच्चा ही समझते आए थे- उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उसकी भी कोई राय हो सकती है। उसी ललिता के मुँह से तीखी बात सुनकर वह हक्के-बक्के रह गए। फिर उसे डाँटते हुए बोले, ''तुम ये सब बातें क्या जानो! जो दो-चार किताबें रटकर कालिज पास कर आए हैं, जिनका न धर्म है न धारणा, उनके मुँह से गैर-ज़िम्मेदाराना पागलपन की बकवास सुनकर तुम्हारा सिर फिर गया है।''
यह कहकर हरानबाबू ने कल शाम को मजिस्ट्रेट के साथ गोरा के साक्षात् की और उसके बारे में उनसे मजिस्ट्रेट की जो बातचीत हुई थी उसका पूरा ब्यौरा सुना दिया। विनय को घोषपुर गाँव का मामला मालूम न था। बात सुनकर वह शंकित हो उठा, उसने समझ लिया कि गोरा को मजिस्ट्रेट सहज ही न छोड़ेंगे।
जिस मतलब से हरान ने बात सुनाई थी उससे ठीक उल्टा असर हुआ। गोरा को देखने की बात जो अब तक उन्होंने छिपा रखी थी, उससे जो ओछापन झलकता था वह सुचरिता को चुभ गया। गोरा के प्रति उनकी प्रत्येक बात से एक व्यक्तिगत ईष्या टपकती थी। गोरा की इस मुसीबत के समय उनके व्यवहार के कारण सभी को उनके प्रति एक घृणा हुई। सुचरिता अब तक चुप ही थी, कुछ कहने को उसका मन अकुला रहा था, किंतु अपने को रोककर वह किताब खोलकर काँपते हाथों से उसके पन्ने पलटने लगी। ललिता ने उध्दत भाव से कहा, ''हरानबाबू की राय में और मजिस्ट्रेट की राय में चाहे जितनी समानता हो, घोषपुर के मामले में गौरमोहन बाबू की बड़ाई ही सबित होती है।''
29
छोटे लाल साहब आज पधारेंगे, इसलिए मजिस्ट्रेट साहब ठीक साढ़े दस बजे इजलास पहुँच गए जिससे दिन का काम जल्दी निबटा लें।
कॉलेज के लड़कों की ओर से पैरवी करते हुए सातकौड़ी बाबू ने अपने दोस्त को भी बचाने की चेष्टा की। मामले का रुख देखकर उन्होंने समझ लिया था कि अपराध स्वीकार करना ही यहाँ फायदेमंद होगा। लड़के मनचले होते ही हैं, वे अभी निर्बोध हैं, इत्यादि दलीलें देकर उनकी ओर से उन्होंने क्षमा-प्रार्थना की। मजिस्ट्रेट ने विद्यार्थियों को जेल ले जाकर प्रत्येक की उम्र और उसके अपराध के अनुसार पाँच से लेकर पच्चीस तक बेंत लगाने की सज़ा सुना दी। गोरा का कोई वकील नहीं था। खुद अपनी पैरवी करते हुए पुलिस के अत्याचार के बारे में उसके कुछ कहने की शुरुआत करते ही मजिस्ट्रेट ने तिरस्कार पूर्वक उसे रोक दिया और पुलिस के काम में हस्तक्षेप करने के अपराध में उसे एक मास के कठिन कारावास की सज़ा सुनाते हुए यह भी कहा कि इतनी हल्की सज़ा देकर वह विशेष दया दिखा रहे हैं।
सुधीर और विनय अदालत में उपस्थित थे। विनय गोरा के मुँह की ओर नहीं देख सका। मानो उसका दम घुटने लगा, वह जल्दी से कचहरी से बाहर निकल आया। सुधीर ने उससे डाक-बँगले पर लौटकर स्नान-भोजन करने का अनुरोध किया, पर वह उसे अनसुना करके मैदान पार करते-करते राह में ही एक पेड़ के नीचे बैठ गया और सुधीर से बोला, ''तुम डाक-बँगले लौट जाओ, मैं बाद में आऊँगा।''
सुधीर चला गया।
कितना समय ऐसे ही बीत गया, इसका विनय को होश न रहा। सूर्य शिखर तक पहुँचकर पश्चिम की ओर उतरने लगा था तब एक गाड़ी ठीक उसके सामने आकर रुकी। मुँह उठाकर विनय ने देखा, सुधीर और सुचरिता गाड़ी से उतरकर उसकी ओर आ रहे थे। वह जल्दी से उठ खड़ा हुआ। सुचरिता के पास उतरकर आने पर वह जल्दी से उठ खड़ा हुआ। सुचरिता ने पास आकर स्नेह-भरे स्वर में कहा, ''विनय बाबू, चलिए!''
सहसा विनय ने लक्ष्य किया कि वे राह चलते लोगों के लिए कौतूहल का विषय बन गए हैं। जल्दी से वह गाड़ी पर सवार हो गया। सारे रास्ते कोई भी कुछ बात न कर सका।
विनय ने डाक-बँगले पर पहुँचकर देखा, वहाँ लड़ाई चल रही है। ललिता इस बात पर अड़ी हुई थी कि किसी तरह वह मजिस्ट्रेट के घर नहीं जाएगी। वरदासुंदरी बड़ी मुश्किल में पड़ गई थीं। हरानबाबू ललिता- जैसी बच्ची के इस असंगत विद्रोह से क्रोधवश पागल हो रहे थे। बार-बार वह कहे जा रहे थे- आजकल के लड़के-लड़कियाँ न जाने क्यों ऐसे बिगड़ रहे हैं, कोई अनुशासन ही नहीं मानना चाहता। ऐरे-गैरे लोगों की संगत में फिजूल बातचीत करते रहने का यही नतीजा होता है।
ललिता ने विनय के आते ही कहा, ''विनय बाबू, मुझे माफ कर दीजिए, मैंने आपके निकट भारी अपराध किया है। तब आपने जो कहा था मैं कुछ समझ नहीं सकी थी। हम लोग बाहर की हालत बिल्कुल नहीं जानतीं इसीलिए ऐसा उलटा समझ लेती हैं। पानू बाबू कहते हैं कि भारतवर्ष में मजिस्ट्रेट का यह शासन नियति का विधान है- ऐसा है तो फिर इस शासन को तन-मन-वचन से शाप देने की इच्छा जगाना भी उसी नियति का ही विधान है।''
हरानबाबू बिगड़कर कहने लगे, ''ललिता, तुम.... ''
हरानबाबू की ओर पीठ फेरकर खड़े होते हुए ललिता ने कहा, ''चुप रहिए, मैं आप से बात नहीं कर रही। विनय बाबू, किसी की मत सुनिएगा। आज अभिनय किसी तरह नहीं हो सकेगा।''
जल्दी से वरदासुंदरी ने ललिता की बात काटते हुए कहा, ''ललिता, तू तो बड़ी अजीब लड़की है! विनय बाबू को आज नहाने-खाने भी नहीं देगी? डेढ़ बज गया है, उसकी भी खबर है? देख तो उनका चेहरा कैसा सूख रहा है।''
विनय ने कहा, ''हम लोग यहाँ उसी मजिस्ट्रेट के मेहमान हैं- इस घर में मेरा स्नान-भोजन अब नहीं हो सकेगा।''
वरदासुंदरी ने विनय को समझाने की बड़ी कोशिश की, खुशामद भी की। लड़कियों को चुप देखकर उन्होंने बिगड़कर कहा, ''तुम सबको हुआ क्या है? सुचि, विनय को ज़रा तुम्हीं समझाओ न। हम लोगों ने वायदा किया है- इतने लोग बुलाए गए हैं- आज तो किसी तरह निभाना ही होगा, नहीं तो वे लोग क्या सोंचेगे भला? फिर कभी उनके सामने मुँह न दिखा सकेंगे।''
चुपचाप सुचरिता सिर झुकाए बैठी रही।
नदी दूर नहीं थी, विनय स्टीमर-घाट की ओर चला गया। स्टीमर लगभग दो घंटे बाद छूटेगा- कल आठ बजे के लगभग कलकत्ता पहुँच जाएगा।
उत्तेजित होकर हरानबाबू विनय और गोरा की बुराई करने लगे। सुचरिता ने जल्दी से कुर्सी से उठकर साथ के कमरे में जाकर किवाड़ बंद कर लिए। थोड़ी देर बाद ही ललिता ने किवाड़ ठेलकर कमरे में प्रवेश किया तो देखा, दोनों हाथों से मुँह ढके सुचरिता बिस्तर पर पड़ी है।
ललिता ने भीतर से दरवाजे बंद कर लिए और सुचरिता के पास बैठकर धीरे-धीरे उसके सिर के बालों को उँगलियों से सहलाने लगी। बहुत देर बाद सुचरिता जब शांत हो गई तब ज़बरदस्ती उसके हाथ चेहरे के सामने से हटाकर ललिता उसके कान से मुँह सटाकर कहने लगी, ''दीदी, चलो हम लोग यहाँ से कलकत्ता लौट चलें- आज मजिस्ट्रेट के यहाँ तो नहीं जा सकते।''
सुचरिता ने बहुत देर तक इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। ललिता जब बार-बार कहने लगी तब वह बिस्तर पर उठ बैठी और बोली, ''यह कैसे हो सकता है, री। मेरी तो आने की ज़रा भी इच्छा नहीं थी- जब बाबा ने भेज दिया है तब जिस काम के लिए आई हूँ वह पूरा किए बिना कैसे लौट सकती हूँ?''
ललिता ने कहा, ''बाबा ये सब बातें कहाँ जानते थे? जानते तो कभी हमें यहाँ रुकने को न कहते।''
सुचरिता ने कहा, ''यह मैं कैसे जानूँ, भला?''
ललिता, ''दीदी, क्या तू जा सकेगी? कैसे जाएगी भला? फिर बन-ठनकर स्टेज पर खड़े होकर कविता सुनानी होगी। मेरी तो जबान कट जाए तब भी बात नहीं निकलेगी!''
सुचरिता ने कहा, ''वह तो जानती हूँ, बहन, लेकिन नरक यंत्रणा भी सहनी ही होती है। अब और तो कोई चारा नहीं है। आज का दिन जीवन-भर भूल नहीं सकूँगी।''
ललिता सुचरिता की इस बेचारगी पर बिगड़कर बाहर निकल गई। जाकर माँ से बोली ''माँ, क्या तुम जा नहीं रहीं?''
वरदासुंदरी ने कहा, ''तू पागल तो नहीं हो गई! रात को नौ बजे के बाद जाना है।''
ललिता ने कहा, ''मैं कलकत्ता जाने की बात कर रही हूँ।''
वरदासुंदरी, ''ज़रा इस लड़की की बात तो सुनो?''
सुधीर ने ललिता से पूछा, ''सुधीर, तो तुम भी यहीं रहोगे?''
गोरा की सज़ा से सुधीर का मन व्याकुल ज़रूर था, लेकिन बड़े-बड़े साहबों के सामने अपनी विद्या दिखाने का लोभ छोड़ देना उसके वश की बात नहीं थी। उसने कुछ अस्पष्ट-सा गुनगुना दिया, जिससे यही समझ में आया कि उसे संकोच तो है, पर वह यहीं रह जाएगा।
वरदासुंदरी ने कहा, ''गड़बड़ी में इतनी देर हो गई अब और देर करने से नहीं चलेगा। अब साढ़े पाँच बजे तक बिस्तर से कोई उठ न सकेगा- सबको आराम करना होगा, नहीं तो रात को थकान से मुँह सूख जाएगा- देखने में अच्छा नहीं लगेगा।''
उन्होंने यों कह-कहकर सबको ज़बरदस्ती सोने के कमरों में ले जाकर लिटा दिया। सभी सो गए, केवल सुचरिता को नींद न आई और दूसरे कमरे में ललिता भी अपने बिस्तर पर बैठी रही।
रह-रहकर स्टीमर की सीटी सुनाई देने लगी।
जब स्टीमर छूटने ही वाला था और खलासी सीढ़ी उठाने की तैयारी कर रहे थे, तब डेक से विनय ने देखा, एक भद्र महिला तेज़ी से जहज़ की ओर बढ़ी आ रही है। उसकी वेश-भूषा से वह विनय को ललिता-सी ही जान पड़ी किंतु सहसा वह ऐसा विश्वास नहीं कर सका। अंत में ललिता के निकट आ जाने पर जब बिल्कुल संदेह न रहा तब उसने एक बार सोचा कि शायद ललिता उसे लौटा ले जाने के लिए आई हो-लेकिन ललिता ही तो मजिस्ट्रेट का निमंत्रण न मानने के लिए अड़ी हुई थी। ललिता स्टीमर पर सवार हो गई, खलासियों ने सीढ़ी उठा ली। शंकित-सा विनय ऊपर डेक से नीचे उतरकर ललिता के सामने आ खड़ा हुआ। ललिता बोली, ''मुझे ऊपर ले चलिए!''
विस्मित होकर विनय ने कहा, ''जहाज़ तो छूट रहा है।''
ललिता बोली, ''मैं जानती हूँ।'' और विनय की प्रतीक्षा न करके सामने की सीढ़ी से ऊपर चली गई। स्टीमर सीटियाँ देता हुआ चल पड़ा।
पहले दर्जे के डेक पर ललिता को आराम-कुर्सी पर बिठाकर विनय चुपचाप प्रश्न-भरी ऑंखों से उसक चेहरे की ओर देखने लगा।
ललिता ने कहा, ''मैं कलकत्ता जाऊँगी- यहाँ मुझसे किसी तरह नहीं रहा गया।''
विनय ने पूछा, ''और वे सब?''
ललिता ने कहा, ''अभी तक किसी को मालूम नहीं है। मैं चिट्ठी रखकर आई हूँ- पढ़ेंगे तो पता लगेगा।''
ललिता के इस दु:शाहस से विनय चकित हो गया। सकुचाता हुआ कहने को हुआ, ''किंतु.... ''
जल्दी से ललिता ने उसे टोकते हुए कहा, ''जहाज़ तो छूट गया, अब किंतु-परंतु को लेकर क्या होगा। लड़की होकर जन्मी हूँ इसीलिए चुपचाप सब सह लेना होगा, मैं ऐसा नहीं मानती हमारे लिए भी न्याय-अन्याय और संभव-असंभव है। आज के न्योते में अभिनय करने जाने से आत्महत्या कर लेना मेरे लिए कहीं ज्यादा सुखद है।''
विनय ने समझ लिया कि जो होना था वह हो गया है, अब इस काम की अच्छाई-बुराई सोचकर मन को उलझाने से कोई लाभ नहीं है।
थोड़ी देर चुप रहकर ललिता ने कहा, ''देखिए, आपके मित्र गौर मोहन बाबू के प्रति मन-ही-मन मैंने बड़ा अन्याय किया था। न जाने क्यों शुरू से ही उन्हें देखकर, उनकी बात सुनकर मेरा मन उनके विरुध्द हो गया था। वह बहुत ज्यादा ज़ोर देकर अपनी बात कहते थे, और आप सब लोग मानो उनकी हाँ-में-हाँ मिला देते थे- मुझे यह देखकर गुस्सा आता रहता था। मेरा स्वभाव ही ऐसा है, जब देखती हूँ कि कोई बात में या व्यवहार में ज़ोर दिखा रहा है तो मैं बिल्कुल सहन नहीं कर सकती। लेकिन गौरमोहन बाबू केवल दूसरों पर ही ज़ोर नहीं दिखाते, अपने को भी वैसे ही काबू में रखते हैं- यही सच्ची ताकत है। ऐसा आदमी मैंने नहीं देखा।''
ललिता इस प्रकार बोलती ही चली गई। केवल गोरा के बारे में उसे अनुताप हो रहा हो इसलिए यह ये सब बातें कह रही हो, बात इतनी ही नहीं थी। वास्तव में उसने जोश में आकर जो काम कर डाला था उसका संकोच ही उसके मन के भीतर उमड़ आना चाहता था। बार-बार यह दुविधा मन में उठ आती थी कि यह काम शायद ठीक नहीं हुआ। विनय के साथ स्टीमर पर ऐसे अकेले बैठे रहना कितने असमंजस की बात हो सकती है, इससे पहले यह वह सोच भी नहीं सकी। लेकिन लज्जा दिखाने से तो यह मामला और भी लज्जाजनक हो जाएगा, इसीलिए वह प्राण-पण से चेष्टा करके बातें किए जा रही थी। विनय के मुँह से कोई बात ही नहीं निकल रही थी। एक ओर गोरा का दु:ख और दूसरी ओर इस बात की ग्लानि को लेकर इस आकस्मिक परिस्थिति का संकट, सबने मिलकर विनय को मूक कर दिया था।
पहले कभी ऐसा होता तो ललिता के इस दु:साहस पर विनय के मन में तिरस्कार का ही भाव उदित होता, लेकिन आज वैसा नहीं हुआ। इतना ही नहीं, उसके मन में जो विस्मय उदित हुआ था उसमें श्रध्दा भी मिली हुई थी। साथ ही एक आनंद भी था कि उनके सारे गुट में गोरा के अपमान के प्रतिकार की-चाहे सामान्य प्रतिकार की भी- चेष्टा करने वाले केवल विनय और ललिता ही थे। विनय को तो इसके लिए विशेष कुछ तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी, लेकिन ललिता को अपने काम के फलस्वरूप बहुत दिनों तक काफी कष्ट भोगना पड़ेगा। और इसी ललिता को बराबर विनय गोरा का विरोध समझता आया था! विनय जितना ही सोचता रहा उतना ही ललिता के इस बिना अंत सोचे-समझे साहस पर और अन्याय के प्रति एकांत घृणा के भाव पर विनय को श्रध्दा होने लगी। कैसे, क्या कहकर वह इस श्रध्दा को प्रकट कर सकता है, कुछ सूझ न सका। उसक मन में बार-बार यह बात आने लगी कि ललिता उसे जो साहसहीन और दूसरों का मुँह जोहने वाला कहकर तिरस्कार करती थी, वह ठीक ही था। वह तो कभी किसी विषय में भी अपने सब आत्मीय-बन्धुओं की निंदा-प्रशंसा की उपेक्षा करके साहसपूर्ण आचरण के द्वारा अपना मत प्रकाशित न कर सकता। उसने जो कई बार गोरा को कष्ट पहुँचने के डर से, अथवा कहीं गोरा उसे कमजोर न समझ ले इस आशंका से अपने स्वभाव का अनुसरण नहीं किया, और कई बार बाल की खाल उतारने वाली दलीलों से अपने को यह भुलावा देने की चेष्टा की है कि गोरा की राय उसकी राय है, आज मन-ही-मन यह स्वीकार करके उसने ललिता को उसके स्वाधीन बुध्दि-बल के कारण अपने से कहीं श्रेष्ठ मान लिया। इससे पहले वह मन-ही-मन अनेक बार ललिता की बुराई भी करता रहा था। यह याद करके उसे शर्म आने लगी। उसने यहाँ तक चाहा कि ललिता से क्षमा माँग ले, किंतु कैसे क्षमा माँगे, यह वह नहीं सोच सका। ललिता की कमनीय स्त्री-मूर्ति अपने आंतरिक तेज के कारण विनय की ऑंखों में ऐसी महिमामई होकर दिखाई दी कि नारी के इस अपूर्व परिचय से विनय ने अपने जीवन को धन्य माना। अपने सारे घमंड, सारी क्षुद्रा को उसने इस माधुर्य-मंडित शक्ति के आगे उत्सर्ग कर दिया।
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