गोरा
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रवीन्दनाथ टैगोर
पोर्च की छत जो कि ऊपर की मंजिल का बरामदा था, उस पर सफेद कपड़े से ढँकी मेज़ के आस-पास कुर्सियाँ लगी हुई थीं। मुँडरे के बाहर कार्निस पर छोटे-छोटे गमलों में सदाचार और दूसरे किस्म के फूलों के पौधे लगे हुए थे। मुँडेर पर से नीचे सड़क के किनारे के सिरिस और कृष्णचूड़ा के पेड़ों के पत्ते बरसात से धुलकर चिकने दीख रहे थे।
सूर्य अभी अस्त नहीं हुआ था, पश्चिम से ढलती धूप की किरणें छत के एक हिस्से में पड़ रही थीं। वहाँ पर उस समय कोई नहीं था। थोड़ी देर बाद ही सतीश सफेद और काले बालों वाले कुत्ते को लिए हुए आ पहुँचा। कुत्ते का नमा खुद्दे था। जो कुछ कुत्ते को आता था सतीश ने विनय को सब दिखाया- एक पैर उठाकर सलाम करना, फिर सिर ज़मीन पर टेककर प्रणाम करना, बिस्कुट का टुकड़ा देखकर पूँछ पर बैठ, अगले पैर जोड़कर भीख माँगना। इसके लिए खुद्दे को जो कुछ प्रशंसा मिली, सतीश ने उसे चाहे अपनी समझकर गर्व का अनुभव किया- पर स्वयं कुत्ते की ओर से ऐसा यश का कोई उत्साह नहीं था, बल्कि उसकी समझ में तो उस यश की अपेक्षा बिस्कुट का टुकड़ा ही अधिक उपयोगी था!
बीच-बीच में किसी दूसरे कमरे से लड़कियों की खिलखिलाहट और अचम्भे की आवाज़ें और उनके साथ एक मर्दानी आवाज़ भी सुनाई पड़ जाती थी। इस खुले हँसी-मज़ाक के वार्तालाप से विनय के मन में एक अपूर्व मिठास के साथ-साथ जैसे एक ईष्या की टीस-सी पैदा हुई। घर के भीतर लड़कियों की ऐसी आनंद-भरी हँसी, युवा होने के समय से उसने कभी नहीं सुनी। यह आनंद-लहरी उसके इतनी निकट प्रवाहित हो रही है, फिर भी वह उससे इतनी दूर है। सतीश उसके कान के निकट क्या कुछ बोलता ही चला जा रहा था, विनय उसकी ओर ध्याहन नहीं दे सका।
परेशबाबू की स्त्री अपनी तीनों लड़कियों को साथ लेकर आ गईं। उनके साथ एक युवक भी आया, उसका उनसे दूर का रिश्ता है।
परेशबाबू की स्त्री का नाम वरदासुंदरी है। उनकी उम्र कम नहीं है, किंतु समय तक गाँव-देहात की लड़की की तरह रहकर उन्हें सहसा एक दिन आधुनिक युग के साथ-साथ उसकी गति से चलने की धुन चढ़ गई थी। इसीलिए उनकी रेशमी साड़ी कुछ अधिक लहराती थी और उनके ऊँची एड़ी के जूते कुछ ज्यादा ही खट्-खट् करते थे। दुनिया में कौन-सी बातें ब्रह्म हैं और कौन-सी अब्रह्म, इसकी पड़ताल में वे हमेशा बहुत सतर्क रहती हैं। इसीलिए उन्होंने राधारानी का नाम बदलकर सुचरिता रख दिया है। रिश्ते में उनके ससुर लगने वाले एक सज्जन ने बरसों बाद अपनी परदेश की नौकरी से लौटने पर उनके लिए 'लमाईषष्टि' भेजी थी; परेशबाबू उस समय किसी काम से बाहर गए हुए थे; वरदासुंदरी ने उपहार में आई सभी चीजें वापस भेज दी थीं। उनकी राय में ये सब कुसंस्कार और मूर्ति पूजा के अंग थे। लड़कियों के पैरों में मोज़ा पहनने, और ओपी पहनकर बाहर निकलने को भी वह मानो ब्रह्म.... समाज के धर्म सिध्दांत का अंग मानती हों। किसी ब्रह्म-परिवार को ज़मीन पर आसन बिछाकर भोजन करते देख उन्होने यह आशंका प्रकट की थी कि आजकल ब्रह्म-समाज फिर से मूर्ति-पूजा की ओर फिसलने लगा है।
उनकी बड़ी लड़की का नाम लावण्य है। गोल-मटोल और हँसमुख, उसे लोगों से मिलना-जुलना और गप्पें लड़ाना अच्छा लगता है। गोल चेहरा, बड़ी-बड़ी ऑंखें, गेहुऑं रंग; पहनावे के मामले में वह स्वभाव से ही लापरवाह है, किंतु इस बारे में उसे माँ के निर्देश के अनुसार चलना होता है। उसे ऊँची एड़ी के जूतों से तकलीफ होती है, लेकिन पहने बिना चारा नहीं हैं। शाम को साजसँवार के समय अपने हाथों से माँ उसके चेहरे पर पाउडर और गालों पर सुर्खी लगा देती है। वह कुछ मोटी है, इसलिए वरदासुंदरी ने उसके कपड़े ऐसे चुस्त सिलवाए हैं कि जब लावण्य सजकर बाहर निकलती है तब जान पड़ता है मानो उसे ठूँस-दबाकर ऊपर से कपड़ा सिल दिया गया हो।
मँझली लड़की का नाम ललिता है। कहा जा सकता है कि वह बड़ी से ठीक उलटी है। लंबाई में बड़ी बहन से ऊँची, दुबली, रंग कुछ अधिक साँवला; बातचीत अधिक नहीं करती और अपने ढंग से रहती है; मन होने पर कटु-कटु बातें भी सुना करती है। वरदासुंदरी मन-ही-मन उससे डरती हैं, सहसा उसे नाराज़ कर देने का साहस नहीं करती।
लीला छोटी है। उसकी उम्र करीबन दस बरस होगी। वह दौड़-धूप और दंगा करने में तेज़ है; सतीश के साथ उसकी धक्का-मुक्की और मार-पीट बराबर चलती रहती है। विशेषतया घर के कुत्ते खुद्दे का मालिक कौन है, इसको लेकर उनका जो प्राचीन झगड़ा चला आता है, उसका अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका। कुत्ते की अपनी राय लेन से शायद वह दोनों में से किसी को भी अपना मालिक न चुनता,किंतु फिर भी इन दोनों में से उसका झुकाव सतीश की ओर ही कुछ अधिक है, क्योंकि लीला के प्यार का दबाव सहना उस बेचारे छोटे-से जीव के लिए सहज नहीं। लीला के प्यार की अपेक्षा सतीश का अत्याचार सहना उसके लिए कम मुश्किल था।
विनय ने वरदासुंदरी के आते ही उठकर शीश झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। परेशबाबू ने कहा, ''इन्हीं के घर उस दिन हम.... ''
वरदासुंदरी बोलीं, ''ओह! बड़ा उपकार किया आपने.... हम आपके बड़े आभारी हैं।'
विनय ऐसा संकुचित हुआ कि ठीक से कुछ उत्तर नहीं दे सका।
जो युवक लड़कियों के साथ आया था उसके साथ भी विनय का परिचय हुआ। उसका नाम सुधीर है; कॉलज में बी.ए. में पढ़ता है। सुंदर चेहरा, गोरा रंग, ऑंखों पर चश्मा और मूँछों की हल्की-सी रेख। स्वभाव बड़ा चंचल है- ज़रा देर भी चुपचाप बैठा नहीं रह सकता, कुछ-न-कुछ करेन के लिए उतावला हो उठता है। लड़कियों से हँसी-मज़ाक करके, या उन्हें चिढ़ाकर उनको परेशान किए रहता है। लड़कियाँ भी मानो उसे बराबर डाँटती ही रहती हैं, किंतु साथ ही सुधीर के बिना जैसे उनका समय ही नहीं कटता। सर्कस दिखाने या चिड़ियाघर की सैर कराने को, या शौक की कोई चीज़ खरीदकर लाने को सुधीर हमेशा तैयार होता है। सुधीर का लड़कियों के साथ बेझिझक अपनेपन का बर्ताव विनय को बिल्कुल नया और विस्मयकारी जान पड़ा। उसने मन-ही-मन पहले तो ऐसे बर्ताव की निंदा की, किंतु फिर उस निंदा के साथ थोड़ा-थोड़ा ईष्या का पुट भी मिश्रित होने लगा।
वरदासुंदरी ने कहा, ''जान पड़ता है आपको कहीं दो-एक बार देखा है।''
विनय को लगा, जैसे उसका कोई अपराध पकड़ा गया है। अनावश्यक रूप से लज्जित होता हुआ वह बोला, ''हाँ, कभी-कभी केशव बाबू के व्याख्यान सुनने चला जाता हूँ।''
वरदासुंदरी ने पूछा, ''आप शायद कॉलेज में पढ़ते हैं?''
''नहीं, अब तो नहीं पढ़ता।''
वरदा ने पूछा, ''कॉलेज में कहाँ तक पढ़े हैं?''
विनय बोला, '' एम.ए. पास किया है।''
यह सुनकर बच्चो-जैसे चेहरे वाले युवक के प्रति वरदासुंदरी को मानो ममता हुई। परेशबाबू की ओर उन्मुख हो लंबी साँस लकर उन्होंने कहा, ''हमारा मनू अगर होता तो वह भी अब तक एम.ए. पास कर चुका होता।''
वरदा की प्रथम संतान मनोरंजन की मृत्यु नौ वर्ष की आयु में ही हो गई थी। जब भी वह सुनती हैं कि किसी युवक ने कोई बड़ी परीक्षा पास की है या बड़ा पद पाया है, कोई अच्छी किताब लिखी है या कोई अच्छा काम किया है, तभी उन्हें यह ध्या न आता- मनू बचा रहता तो उसके द्वारा भी ठीक वैसा ही कार्य संपन्न हुआ होता। जो हो, अब जबकि वह नहीं है तो आज के जन-समाज में अपनी तीनों कन्याओं का गुण-गान ही वरदासुंदरी का विशेष कार्य हो गया। उनकी लड़कियाँ पढ़ने में बहुत तेज़ हैं, यह बात वरदा ने विशेष रूप से विनय को बताई। मेम ने उनकी लड़कियों की बुध्दि और गुणों के बारे में कब-कब क्या कहा, यह भी विनय से अनजाना न रहा। लड़कियों को स्कूल में पुरस्कार देने के लिए जब लेफ्टिनेंट-गवर्नर और उनकी मेम आइ थीं, तब उन्हें गुलदस्ते में भेंट करेन के लिए स्कूल की सब लड़कियों में से केवल लावण्य को ही चुना गया था; और गर्वनर की स्त्री ने लावण्य को उत्साह देने के लिए जो मीठा वाक्य कहा था, वह भी विनय ने सुन लिया।
अंत में वरदा ने लावण्य से कहा, ''जिस सिलाई के लिए तुम्हें पुरस्कार मिला था, ज़रा वह ले तो आना, बेटी!''
ऊन से कपड़े पर सिलाई की हुई एक तोते की आकृति इस घर के सभी आत्मीय परिजनों में विख्यात हो चुकी थी। यह मेम की सहायता से लावण्य ने बहुत दिन पहले बनाई थी, इसमें लावण्य का अपना करतब बहुत अधिक रहा हो यह बात नहीं थी। किंतु नए परिचित को यह दिखाना ही होगा, यह मानी हुई बात थी शुरु-शुरु में परेशबाबू आपत्ति करते थे, किंतु उसे बिल्कुंल बेकार जानकर अब उन्होंने भी आपत्ति करना छोड़ दिया है। ऊन के तोते की रचना की कारीगरी को विनय चकित ऑंखो से देख रहा था, तभी बैरे ने आकर एक चिट्ठी परेशबाबू के हाथ में दी।
परेशबाबू चिट्ठी पढ़कर खिल उठे। उन्होंने कहा, ''बाबू को यहीं लिवा लाओ!''
वरदा ने पूछा, ''कौन हैं?''
परेशबाबू बोले, ''मेरे बचपन के दोस्त कृष्णदयाल ने अपने लड़के को हम लोगों से मिलने के लिए भेजा है।''
सहसा विनय का दिल धक्-सा हो गया और उसका चेहरा पीला पड़ गया। क्षण-भर बाद ही फिर वह मुट्ठियाँ भींचकर जमकर बैठ गया, मानो किसी प्रतिद्वंद्वी से अपनी रक्षा करने के लिए तैयार हो गया हो। गोरा इस परिवार के लोगों को निश्चय ही अवज्ञा से देख-समझेगा, यह सोचकर विनय पहले से ही उत्तेजित हो उठा।
तश्तरी में मिठाई-नमकीन और चाय आदि सजाकर नौकर के हाथ दे, सुचरिता ऊपर आकर बैठी थी कि उसी समय बैरे के साथ गोरा ने प्रवेश किया। उसका गोरा-तगड़ा शरीर और चेहरा-मोहरा देखकर सभी चकित हो उठे।
गोरा के माथे पर गंगा की मिट्टी का तिलक था। गाढ़े की धोती के ऊपर उसने तनीदार कुर्ता पहन रखा था, कंधे पर मोटी चादर थी; पैरों में उठी सूँड़ वाले कटकी जूते थे। मानो वर्तमान ढंग के विरुध्द एक मूर्तिमान विद्रोह-सा वह सामने खड़ा था। विनय ने भी उसका ऐसा रूप इससे पहले कभी नहीं देखा था।
गोरा के मन में एक विरोध की आग आज विशेष रूप से धधक रही थी। उसका कारण भी था।
ग्रहण के नहान के लिए कल तड़के ही किसी स्टीमर-कंपनी का जहाज़ यात्री लादकर त्रिवेणी के लिए रवाना हुआ था। रास्ते में जहाँ-तहाँ हुए पड़ाव से अनेक स्त्री-यात्रियों के लिए रवाना हुआ था। रास्ते में जहाँ तहाँ हुए पड़ाव से अनक स्त्री-यात्रियों के झुंड, अपने साथ दो-दो एक-एक पुरुष अभिभावक लिए जहाज़ पर सवार हो रहे थे। बाद में कहीं जगह ही न मिले, इसलिए भारी ठेलम-ठेल हो रही थी। जहाज़ पर सवार होने के तख्ते पर कीचड़-सने पैरों से चलती हुई कोई-कोई स्त्री बेपर्दा होती हुई नदी के पानी में गिर पड़ती थी, किसी को खलासी भी धक्का देकर गिरा देते थे। कोई स्वयं सवार हो गई थी, पर साथियों के न चढ़ पाने से घबरा रही थी। बीच-बीच में वर्षा की बौछार आकर उन्हें और भिगो दे रही थी। जहाज़ में उनके बैठने का स्थान पूरा कीचड़ से भर गया था। उनके चेहरे पर और ऑंखों में एक पीड़ित, त्रस्त, करुण भाव था- मानो निश्चित रूप से यह जानकर कि वे बेबस होकर भी इतनी क्षुद्र हैं कि जहाज़ के मल्लाह से लेकर मालिक तक कोई उनकी विनती पर ज़रा-सी मदद भी नहीं करेगा, उनकी प्रत्येक चेष्टा में एक अत्यंत कातर आशंका का भाव दीख पड़ता था। ऐसी हालत में भरसक गोरा यात्रियों की मदद कर रहा था। ऊपर पहले दर्जे के डेक से एक अंग्रेज़ और एक आधुनिक ढंग के बंगाली बाबू जहाज़ की रेलिंग पकड़े आपस में हँसी-मज़ाक करके मुँह में चुरुट दबाए तमाशा देख रहे थे। बीच-बीच में किसी यात्री की बेहद दुर्गति देख कर अंग्रेज़ हँस उठता था, और बंगाली भी उसमें योग दे
रहा था।
इसी तरह दो-तीन स्टेशन पार करते हुए गोरा के लिए यह असह्य हो उठा। उसने ऊपर जाकर अपने वज्र कठोर स्वर में गरजकर कहा, ''धिक्कार है तुम लोगों को! शरम नहीं आती?''
कड़ी दृष्टि से अंग्रेज़ ने गोरा को सिर से पैर तक देखा। बंगाली ने उत्तर दिया, ''शरम? हाँ, देश के इन सब जाहिल जानवरों के कारण शरम ही आती है।''
मुँह लाल करके गोरा बोला, ''जाहिलों से बड़े जानवर वह हैं जिनमें हृदय नहीं है।''
बिगड़कर बंगाली ने कहा, ''यह तुम्हारी जगह नहीं है- यह फस्ट क्लास है।''
गोरा ने कहा, ''ठीक कहा, तुम्हारे साथ मेरी जगह हो ही नहीं सकती- मेरी जगह उन्हीं यात्रियों के बीच हैं लेकिन मैं कहे जाता हूँ- फिर मुझे अपने इस फर्स्ट क्लास में आने को मजबूर न करना! ''कहता हुआ गोरा धड़धड़ाता हुआ नीचे उतर गया। उसके जाते ही अंग्रेज़ ने आरामकुर्सी पर दोनों पाँव पसारकर उपन्यास में मुँह गड़ा लिया। उसके सहयात्री बंगाली ने उससे बात करने की दो-एक बार कोशिश की किंतु चली नहीं। देश के साधारण आदमियों में से वह नहीं है, यह साबित करने के लिए उसने खानसामा को बुलाकर पूछा, ''क्या खाने के लिए मुर्गी की कोई डिश मिल सकती है?''
खानसामा ने बताया कि केवल रोटी-मक्खन और चाय मिल सकती है।
इस पर बंगाली ने अंग्रेज़ को सुनाकर अंग्रेज़ी भाषा में कहा, ''क्रीचर कम्फर्ट्स के मामले में भी जहाज़ की व्यवस्था बिल्कुज़ल रद्दी है।''
अंग्रेज़ ने कोई जवाब नहीं दिया। उसका अख़बार मेज़ पर से उड़कर नीचे गिर गया था; बंगाली बाबू ने कुर्सी से उठकर उन्हें वह उठा दिया, किंतु बदले में 'थैंक्स' तक नहीं पाया। चंद्रनगर पहुँचकर उतरते समय अंग्रेज़ ने सहसा गोरा के पास जाकर टोपी उठाते हुए कहा, ''अपने बर्ताव के लिए मैं बहुत शर्मिंदा हूँ- आशा है कि आप मुझे क्षमा कर देंगे।'' कहता हुआ वह तेज़ी से आगे बढ़ गया।
लेकिन एक पढ़ा-लिखा बंगाली अपनी साधारण जनता की दुर्गति देखकर विदेशी से मिलकर अपनी श्रेष्ठता का अभिमान करके हँस सकता है, इसका आक्रोश गोरा के भीतर सुलगता रहा। देश की साधारण जनता ने अपने को सब तरह के अपमान और दुर्व्यवहार का ऐसा आदी बना लिया है कि उसके साथ पशुवत व्यवहार करने पर भी वे उसे स्वीकार कर लेते हैं, बल्कि उसे स्वाभाविक और जायज भी मान लेते हैं-इसकी जड़ में जो देशव्यापी घोर अज्ञान है उसका ध्याभन करके गोरा की छाती फटने लगी। किंतु उसे सबसे अधिक यही अखर रहा था कि देश के इस अपमान और दुर्गति को पढ़े-लिखे लोग अपने ऊपर नहीं लेते- निर्दय होकर अपने को अलग करके इसमें अपना गौरव भी मान सकते हैं। इसीलिए आज पढ़े-लिखे लोगों की सारी किताबी पढ़ाई और नकली संस्कार के प्रति पूर्णत: उपेक्षा दिखाने के लिए ही गोरा ने माथे पर गंगा की मिट्टी का तिलक लगाया था और अद्भुत ढंग के नए कटकी जूते खरीदे थे; उन्हें पहनकर गर्व से छाती फुलाकर वह इस ब्रह्म-परिवार में आया था।
मन-ही-मन विनय यह समझ गया कि गोरा का आज का यह रूप जैसे उसकी युध्द-सजा है। न जाने आज गोरा क्या कर बैठे, इसी आशंका से विनय का मन भय, संकोच और विरोध के भाव से भर उठा।
वरदासुंदरी विनय के साथ जब परिचय करा रही थी तब सतीश वहाँ अपने लिए कोई काम न पाकर छत के एक कोने में टीन की एक फिरकी घुमाता हुआ अपना मन बहला रहा था। गोरा को देखकर उसका खेल बंद हो गया। फिर उसने विनय के कान में प्रश्न किया, ''यही क्या आपके मित्र हैं?''
विनय ने कहा, ''हाँ।''
छत पर आकर गोरा एक क्षण विनय के चेहरे की ओर देखता रहा, फिर ऐसा हो गया मानो कि विनय उसे दीखा ही न हो। परेशबाबू को नमस्कार करके उसने नि:संकोच भाव से एक कुर्सी खींचकर तेज़ी से कुछ पीछे हटाई और उस पर बैठ गया। वहाँ कहीं कुछ स्त्रियाँ भी हैं, यह लक्ष्य करना उसने मानो अशिष्टता समझा।
इस असभ्य के पास से लड़कियों को लेकर चली जाएँ- वरदासुंदरी यह विचार कर रही थीं कि परेशबाबू ने उनसे कहा, ''इनका नाम गौरमोहन हैं, मेरे मित्र कृष्णदयाल के लड़के हैं।''
तब गोरा ने उनकी ओर मुड़कर नमस्कार किया। विनय से वार्तालाप में सुचरिता गोरा की बात पहले ही सुन चुकी थी, किंतु यह समझने में उसे देर लगी कि यह महाशय ही विनय के मित्र हैं। पहली दृष्टि से ही गोरा के प्रति उसमें एक खीझ उपजी। किसी अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे व्यक्ति में कट्टर हिंदूपन देखकर सह सके, ऐसे संस्कार सुचरिता के नहीं थे, न इतनी सहिष्णुता ही थी।
गोरा से परेशबाबू ने अपने बाल-बंधु कृष्णदयाल के हाल-चाल पूछे। फिर अपने छात्र जीवन की बात करते हुए बोले, ''उन दिनों कॉलेज में हमारी अलग जोड़ी थी; दोनों काले पहाड़ की तरह थे- कुछ मानते ही नहीं थे.... होटल में खाना ही अच्छा समझते थे। कितनी बार दोनों संध्यां के समय गोलदिग्घी पर बैठकर मुसलमान की दुकान का कबाब खाकर आधी-आधी रात तक बैठे इस पर चर्चा किया करते थे कि कैसे हम लोग हिंदू-समाज का सुधार करेंगे।''
वरदासुंदरी ने पूछा, ''आजकल वह क्या करते हैं?''
गोरा बोला, ''अब वह हिंदू-आचार का पालन करते हैं।''
वरदा बोलीं, ''लाज नहीं आतीं?'' मानो क्रोध से उनका सर्वांग जल उठा था।
कुछ हँसकर गोरा ने कहा, ''लाज कमज़ोर चरित्र का लक्षण है। कोई-कोई तो बाप का परिचय देने में भी लजाते हैं।''
वरदा, ''पहले वह ब्रह्म नहीं थे?''
गोरा, ''मैं भी तो एक समय ब्रह्म था।''
वरदा, ''और अब आप साकार उपासना में विश्वास करते हैं?''
गोरा, ''आकार नाम की चीज़ की बिना वजह अवज्ञा करूँ, ऐसा कुसंस्कार मेरा नहीं है। आकार को गाली देने से ही क्या वह मिट जाएगा? आकार का रहस्य कौन जान सका है?''
मृदु स्वर में परेशबाबू ने कहा, ''लेकिन आकार सीमा-विशिष्ट जो है।''
गोरा ने कहा, ''सीमा के न होने से तो कुछ प्रकट ही नहीं हो सकता। असीम अपने को प्रकट करने के लिए ही सीमा का आश्रय लेता है, नहीं तो वह प्रकट कहाँ है, और जो प्रकट नहीं है वह संपूर्ण नहीं है। वाक्य में जैसे भाव निहित हैं, वैसे ही आकार में निराकार परिपूर्ण होता है।''
गोरा, ''मैं यदि न भी कहूँ तो उससे कुछ आता-जाता नहीं है; संसार में आकार मेरे कहने-न कहने पर निर्भर नहीं करता। निराकार ही यदि यथार्थ परिपूर्णता होती तो आकार को तो स्थान न मिलता।''
सुचरिता की यह अत्यंत दिली इच्छा होने लगी कि कोई उस घमंडी युवक को बहस में बिल्कुाल हराकर इसे नीचा दिखा दे। विनय चुपचाप बैठा हुआ गोरा की बात सुन रहा है, यह देख मन-ही-मन उसे क्रोध आया। गोरा इतने ज़ोर से अपनी बात कह रहा था कि उस ज़ोर को नीचा दिखाने के लिए सुचरिता के मन में भी उबाल आ गया।
इसी समय बैरा चाय के लिए केतली में गरम पानी लाया। सुचरिता उठकर चाय बनाने लग गई। बीच-बीच में विनय चकित-सा सुचरिता के चेहरे की ओर देख लेता। उपासना के संबंध में यद्यपि विनय का मन गोरा से विशेष भिन्न नहीं था, किंतु उसे इस बात से दु:ख हो रहा था कि गोरा बिना बुलाए इस ब्रह्म-परिवार में आकर, ऐसी ढीठता से उनके विरुध्द मत का प्रतिपादन कर रहा है। इस प्रकार लड़ने को तैयार गोरा के आचरण के साथ वृध्द परेशबाबू के आत्म-स्थिति प्रशांत भाव, सभी तरह के तर्क-वितर्क से परे एक गहरी प्रसन्नता की तुलना करके विनय का हृदय उनके प्रति श्रध्दा से भर उठा। मन-ही-मन वह कहने लगा-मतामत कुछ नहीं होते, अंत:करण की पूर्णता, दृढ़ता और आत्म-प्रसाद, यही सबसे दुर्लभ वस्तुएँ हैं। अंत में कौन सच है, कौन झूठ, इसे लेकर चाहे जितना तर्क कर लें, उपलब्धि रूप जो सच है वही वास्तव में सच है। सारी बातचीत के बीच परेशबाबू कभी-कभी ऑंखें बंद करके अपने आत्म के भीतर कहीं डूब जाते थे- यही उनका अभ्यास था- उस समय की उनकी अंतर्निविष्ट, शांत मुखाकृति को विनय एकटक देख रहा था। गोरा इस वृध्द के प्रति भक्ति का अनुभव करके भी अपनी बातों को संयत नहीं कर पा रहा है, इससे विनय को बड़ी पीड़ा हो रही थी।
कई प्याले चाय बनाकर सुचरिता ने परेशबाबू के चेहरे की ओर देखा। चाय के लिए किससे वह अनुरोध करे और किससे नहीं, इस बारे में उसे दुविधा हो रही थी। गोरा की ओर देखते हुए वरदासुंदरी ने पूछ ही तो लिया, ''शायद आप तो यह सब कुछ लेंगे नहीं।''
गोरा ने कहा, ''नहीं।''
वरदा, ''क्यों? जात चली जाएगी क्या?''
गोरा ने कहा, ''हाँ।''
वरदा, ''आप जात मानते हैं?''
गोरा, ''जात क्या मेरी अपनी बनाई चीज़ है जो न मानूँगा? जब समाज को मानता हूँ तब जात को भी मानता हूँ।''
वरदा, ''क्या हर बात में समाज को मानना ही होगा?''
गोरा, ''न मानने से समाज टूट जाएगा।''
वरदा, ''टूट ही जाएगा तो क्या बुराई है?''
गोरा, ''जिस डाल पर सब एक साथ बैठे हों क्या उसे काट देने में बुराई नहीं है?''
मन-ही-मन सुचरिता ने बहुत विरक्त होकर कहा, ''माँ, फिजूल बहस करने से क्या फायदा- वह हमारा छुआ हुआ नहीं खाएँगे।''
पहली बार गोरा ने सुचरिता की ओर स्थिर दृष्टि से देखा। सुचरिता विनय की ओर देखकर थोड़े संशय के स्वर में बोली, ''आप क्या.... ?''
विनय कभी चाय नहीं पीता। मुसलमान की बनाई हुई डबल रोटी-बिस्कुट खाना भी उसने बहुत दिन पहले छोड़ दिया है। किंतु आज उसके न खाने से नहीं चलेगा। सिर उठाकर उसने ज़ोर से कहा, ''हाँ, अवश्य लूँगा।'' कहकर उसने गोरा की ओर देखा। गोरा के ओठों पर कठोर हँसी की हल्की-सी रेखा दीख पड़ी। चाय विनय को कड़वी लगी, किंतु उसने पीना नहीं छोड़ा।
मन-ही-मन वरदासुंदरी ने कहा- आह, यह विनय कितना भला लड़का है! फिर गोरा की ओर से उन्होंने बिल्कुील ही मुँह फेरकर विनय की ओर ध्यालन दिया। यह देखकर परेशबाबू ने धीरे-से अपनी कुर्सी गोरा की ओर सरकाते हुए मृदु स्वर में उससे बात शुरू किया।
सड़क पर मूँगफली वाले ने 'ताज़ी भुनी मूँगफली' की हाँक लगाई। सुनते ही लीला ने ताली बजाकर कहा,''सुधीर दा, मूँगफली वाले को बुलाओ!''
उसके कहते ही सतीश छत से झुककर मूँगफली वाले को बुलाने लगा।
इसी समय एक सज्जन और आ उपस्थिति हुए। सभी ने उन्हें 'पानू बाबू' कहकर संबोधित किया। किंतु उनका असली नाम था हरानचंद्र नाग। उस टोली में विदवता और बुध्दि के कारण उनकी विशेष ख्याति है। यद्यपि किसी ओर से भी कोई बात साफ-साफ नहीं कही गई, तथापि यह संभावना मानो वायुमंडल में बराबर तैरती रहती है कि इन्हीं के साथ सुचरिता का विवाह होगा। पानू बाबू का मन भी सुचरिता की ओर लगा है, इसके बारे में किसी को कोई संदेह नहीं था। और इसी बात की आड़ लेकर लड़कियाँ सदा सुचरिता से मज़ाक करती रहती थीं।
पानू बाबू स्कूल में मास्टरी करते हैं। वरदासुंदरी उन्हें निरा स्कूलमास्टर समझ उनका विशेष सम्मान नहीं करतीं। वह कुछ ऐसा भाव दर्शाती हैं कि पानू बाबू को अगर उनकी किसी कन्या के प्रति अनुराग प्रकट करने का साहस नहीं हुआ, तो वह उचित ही हुआ है। उनके भावी दामाद डिप्टीगिरी के पद की कठिन शर्त से बँधे हुए हैं....
हरानबाबू की ओर सुचरिता के एक प्याला चाय सरकाते ही लावण्य दूर से ही उसकी ओर देखकर दबे ओठों से मुस्कराने लगी। वह सूक्ष्म हँसी भी विनय की नज़र से बची न रही। इतने थोड़े समय में ही दो-एक मामलों में विनय की नज़र बड़ी तेज़ और सतर्क हो उठी थी- नहीं तो इससे पहले वह नज़र के पैनेपन के लिए ऐसा प्रसिध्द नहीं था।
हरान और सुधीर काफी दिनों से एक परिवार की लड़कियों से परिचित हैं, और इस परिवार के इतिहास के साथ इतने घुले हुए हैं कि लड़कियों के आपस के इशारों का विषय बन गए हैं। विनय को यह बात विधाता के अन्याय सी लगी तथा उसके मन में चुभन-सी होने लगी। उधर हरान के आ जाने से सुचरिता के मन में थोड़ी-सी आशा का संचार हुआ। गोरा की हेकड़ी को जैसे भी हो नीचा दिखाया जाय तभी उसका जी ठंडा होगा। दूसरे मौकों पर हरान की बहसबाज़ी से वह प्राय: खीझ उठती, किंतु आज इस तर्क-वीर को देखकर उसने आनंदपूर्वक उसके सम्मुख चाय और डबलरोटी की प्लेट हाज़िर कर दी।
परेशबाबू ने कहा, ''पानू बाबू, ये हैं हमारे.... ''
हरान ने कहा, ''इन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूँ। एक समय यह हमारे ब्रह्म-समाज के बड़े उत्साही सदस्य थे।''
यह कहकर गोरा से किसी तरह की और बातचीत की कोशिश न करके हरान चाय के प्याले की ओर ही सारा ध्या न देने लगे।
उन दिनों तक दो-एक बंगाली ही सिविल सर्विस की परीक्षा पास करके स्वदेश लौटे थे। उन्हीं में से एक के स्वागत की बात सुधीर सुना रहा था। हरान ने कहा, ''बंगाली चाहे जितनी परीक्षाएँ पास कर लें, लेकिन किसी बंगाली के द्वारा काम कुछ नहीं हो सकता।''
कोई बंगाली मजिस्ट्रेट या जज ज़िले का भार नहीं सँभाल सकेगा, यही प्रमाणिक करने के लिए हरानबाबू बंगाली चरित्र के अनेक दोषों और दुर्बलताओं की व्याख्या करने लगे। गोरा का मुँह देखते-देखते लाल हो उठा। उसने अपनी शेर की-सी दहाड़ को भरकर दबाते हुए कहा, ''आपकी राय अगर सचमुच यही है, तो आराम से यहाँ पर बैठे हुए डबलरोटी किस मुँह से चबा रहे हैं?''
विस्मय से हरान ने भवें उठाते हुए कहा, ''फिर आप क्या करने को कहते हैं?''
गोरा, ''या तो बंगाली चरित्र के कलंक को मिटाइए, या गले में फाँसी लगाकर मरिए। हमारी जाति के द्वारा कभी कुछ नहीं हो सकेगा, यह कटु बात क्या ऐसी आसानी से कह देने की है? आपके गले में रोटी अटक नहीं जाती?''
हरान, ''सच्ची बात कहने में क्या बुराई है?''
गोरा, ''आप बुरा न मानें, किंतु यह बात अगर आप यथार्थ में सच समझते, तो ऐसे आराम से यों बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कह सकते थे। आप जानते हैं कि बात झूठ है, तभी यह बात आपके मुँह से निकल सकी। हरानबाबू, झूठ बोलना पाप है, झूठी निंदा तो और भी बड़ा पाप है, और अपनी जाति की झूठी निंदा से बड़ा पाप शायद ही कोई हो!''
हरान गुस्से से बेचैन हो उठे। गोरा ने कहा, ''आप अकेले ही क्या अपनी सारी जाति से बड़े हैं? आप गुस्सा करेंगे, और अपने पुरखों की ओर से हम लोग चुपचाप सब सहते जाएँगे?''
अब तो हरान के लिए पराजय मानना और भी कठिन हो गया। उन्होंने और भी ऊँचे स्वर में बंगालियों की निंदा करना शुरू किया। बंगाली समाज की अनेक प्रथाओं का उदाहरण देकर वे बोले, ''ये सब रहते हुए बंगाली से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।''
गोरा ने कहा, ''जिन्हें आप कुप्रथा कहते हैं केवल अंगेज़ी किताबें रटकर कहते हैं; स्वयं उनके बारे में कुछ नहीं जानते। जब अंग्रेज़ की सब कुप्रथाओं की भी आप ठीक ऐसे ही निंदा कर सकेंगे तब इस बारे में और कुछ कहिएगा।''
इस प्रसंग को परेशबाबू ने बंद करने की चेष्टा की, किंतु क्रुध्द हरान ने बहस को किसी तरह नहीं छोड़ा। सूर्य अस्त हो गया; बादलों के भीतर से आने वाले एक अपूर्व लाल प्रकाश से सारा आकाश लालिमामय हो उठा। विनय के मन के भीतर एक स्वर तर्क के कोलाहल को डुबाता हुआ गूँज उठा। परेशबाबू अपनी सायंकालीन उपासना में चित्त लगाने के लिए छत से उठकर बगीचे में चंपा के पेड़ के नीचे बने हुए चबूतरे पर जा बैठे।
वरदासुंदरी का चित्त जैसे गोरा से विमुख था, वैसे ही हरान भी उनके विशेष प्रिय नहीं थे। इन दोनों की बहस जब उनके लिए बिल्कुदल आसह्य हो गई तब उन्होंने विनय बाबू को संबोधित कर कहा, ''चलिए विनय बाबू, हम लोग कमरे में चलें!''
वरदासुंदरी का यह स्नेहपूर्ण पक्षपात स्वीकार करके विनय को बेबस होकर छत से कमरे में जाना पड़ा। लड़कियों को भी वरदा ने बुला लिया। सतीश बहस की गति देखकर पहले ही मूँगफली का अपना हिस्सा लेकर और कुत्ते खुद्दे को साथ लिए वहाँ से जा चुका था।
वरदासुंदरी विनय के सामने अपनी लड़कियों के गुण सुनाने लगीं। लावण्य से बोली, ''अपनी वह कापी लाकर विनय बाबू को दिखाना.... ''
नए परिचितों को अपनी कापी दिखाने का लावण्य को अभ्यास हो गया है। यहाँ तक कि मन-ही-मन वह इसकी राह देखती रहती है। आज बहस उठ खड़ी होने के कारण वह कुंठित-सी हो गई थी।
विनय ने कापी खोलकर देखी, उसमें अंग्रेज़ी कवि मूर और लांगफेलों की कविताएँ लिखी हुई थीं। हाथ की लिखावट परिश्रम और सुघड़ता का परिचय दे रही थी। कविताओं के शीर्षक और प्रथमाक्षर रोमन शैली में लिखे गए थे।
विनय के मन में कापी देखकर वास्तविक विस्मय हुआ। उन दिनों मूर की कविता कापी में नकल कर सकना लड़कियों के लिए कम बहादुरी की बात नहीं थी। विनय का मन काफी प्रभावित हो गया है, यह देखकर वरदासुंदरी ने उत्साह से मँझली लड़की संबोधित करके कहा, ''ललिता, तू बड़ी लक्ष्मी-बेटी है, ज़रा अपनी वह कविता.... ''
रुखाई से ललिता ने कहा, ''नहीं माँ, मुझसे नहीं बनेगा। वह मुझे अच्छी तरह याद नहीं।'' यह कहकर वह दूर खिड़की के पास खड़ी होकर बाहर सड़क की ओर देखने लगी।
वरदासुंदरी ने विनय को समझाया, ''इसे याद सब-कुछ है, किंतु बड़ी घुन्नी है- अपनी विद्या को प्रकट नहीं करना चाहती।'' उन्होंने ललिता की आश्चर्यजनक विद्या-बुध्दि का परिचय देने के लिए दो-एक घटनाओं का हवाला देकर कहा, ''ललिता बचपन से ही ऐसी है, रुलाई आने पर उसकी ऑंखों में ऑंसू भी आते थे।'' इस मामले में उसके स्वभाव की पिता से तुलना भी उन्हांने की थी।
अब लीला की बारी आई। उसे कहते ही वह पहले तो खिलखिलाकर हँसती रही; फिर धड़ाधड़ एक ही साँस में चाबी की गुड़िया की तरह बिना अर्थ समझे हुए 'टि्वंकल टि्वंकल लिट्ल स्टार' कविता सुना गई।
अब संगीत-विद्या का परिचय देने का समय आ पहुँचा है, यह समझकर ललिता कमरे से बाहर चली गई।
तब तक बाहर आकर छत पर बहस तेजाबी हो उठी थी। गुस्से में आकर हरान तर्क छोड़कर गालियों पर उतर आने को हो रहे थे। हरान की अशिषटता से लज्जित और विरक्त होकर सुचरिता गोरा का पक्ष लेने लगी थी, यह बात भी हरान के लिए सांत्वीना देने वाली नहीं थी।
आकाश में कालिमा और सावन के मेघ घने हो गए। सड़क पर बेला के फूलों की हाँक लगाते हुए फेरी वाले निकल गए। सामने सड़क के कृष्णचूड़ा पेड़ के पत्ते में जुगनू चमकने लगे। साथ के घर की पोखर के पानी पर एक घनी काली परत छा गई।
परेशबाबू उपासना पूरी करके फिर छत पर आ गए। उन्हें देखते ही गोरा और हरान दोनों ही झेंपकर चुप हो गए। खड़े होकर गोरा ने कहा, ''रात हो गई, अब चलूँ!''
विदा लेकर विनय भी कमरे से बाहर छत पर आ गया। परेशबाबू ने गोरा से कहा, ''तुम्हारी जब मर्जी हो यहाँ आना! कृष्णदयाल मेरे भाई के बराबर हैं। अब उनसे मेरा मत नहीं मिलता, मुलाकात भी नहीं होती, चिट्ठी-पत्री बंद है; लेकिन बचपन की दोस्ती नस-नस में बस जाती है कृष्णदयाल के नाते तुमसे भी मेरा बड़ा निकट संबंध है। ईश्वर तुम्हारा मंगल करें!''
परेशबाबू के शांत मधुर स्वर से गोरा की इतनी देर तक बहस की गर्मी मानो सहसा ठंडी पड़ गई। गोरा ने आते समय परेशबाबू के प्रति कोई विशेष आदर प्रकट नहीं किया था। किंतु जाते समय सच्ची श्रध्दा से प्रणाम करता गया। सुचरिता से किसी तरह का विदा-सम्भाषण उसने नहीं किया। सुचरिता उसके सम्मुख है, अपनी किसी चेष्टा से इसको स्वीकार करना ही उसने अशिष्टता समझा। विनय ने परेशबाबू को झुककर प्रणाम किया और सुचरिता की ओर मुड़कर उसे नमस्कार किया। फिर लज्जित-सा शीघ्रता से गोरा के पीछे-पीछे नीचे उतर गया।
हरानबाबू विदा लेने से बचने के लिए कमरे में जाकर मेज़ पर रखी हुई 'ब्रह्म-संगीत' पुस्तक उठाकर उसके पन्ने उलटते रहे।
विनय और गोरा के जाते ही हरान जल्दी से छत पर आकर परेशबाबू से बोले, ''देखिए, हर किसी के साथ लड़कियों का परिचय करा देना सम्माननीय नहीं समझता।''
भीतर-ही-भीतर सुचरिता कुढ़ती रही थी; अब धीरज न रख सकी। बोली, ''यदि पिताजी यह नियम मानते तब तो आपसे हम लोगों का परिचय न हो पाया होता।''
हरान बोले, ''मेल-जोल अपने समाज तक सीमित रखना ही अच्छा होता है।''
हँसकर परेशबाबू बोले, ''पारिवारिक अंत:पुर को थोड़ा और विस्तार देकर आप एक सामाजिक अंत:पुर बनाना चाहते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ, लड़कियों का अलग-अलग मत के लोगों से मिलना ठीक ही है, नहीं तो यह उनकी बुध्दि को जान-बूझकर कमज़ोर करना होगा। इसमें भय या लज्जा का तो कोई कारण नहीं दीखता।''
हरान, ''मैं यह नहीं कहता कि भिन्न मत के लोगों से लड़कियों को नहीं मिलना चाहिए। किंतु लड़कियों से कैसे व्यवहार करना चाहिए, इसकी तमीज़ तक उन्हें नहीं है।''
परेशबाबू, ''नहीं-नहीं, यह आप क्या कहते हैं? जिसे आप तमीज़ की कमी कहते हैं वह केवल एक संकोच है.... लड़कियों से मिले-जुले बिना वह दूर नहीं होता।''
उध्दत भाव से सुचरिता ने कहा, ''देखिए, पानू बाबू, आज की बहस में तो मैं अपने समाज के ही आदमी के व्यवहार से लज्जित हो रही थी।''
इसी बीच दौड़ते हुए आकर लीला ने ''दीदी, दीदी!'' कहते हुए सुचरिता का हाथ पकड़ा और उसे भीतर खींचती हुई ले गई।
उस दिन बहस में गोरा को नीचा दिखाकर सुचरिता के सामने अपनी विजय-पताका फहराने की हारन की तीव्र इच्छा थी। सुचरिता भी आरंभ में यही आशा कर रही थी। किंतु संयोग से हुआ इससे ठीक उलटा ही। धार्मिक-विश्वास और सामाजिक सिध्दातों में सुचरिता की सोच गोरा से नहीं मिलती थी। किंतु अपने देश के प्रति ममता, अपनी जाति के लिए पीड़ा उसके लिए स्वाभाविक थी। वह देश के मामलों की चर्चा प्राय: करती रही हो, ऐसा नहीं था; किंतु उस दिन जाति की निंदा सुनकर अचानक जब गोरा गरज उठा, तब सुचरिता के मन में उसके अनुकूल ही प्रतिध्व नि गूँज गई। इतनी पीड़ा के साथ, इतने दृढ़ विश्वास के साथ कभी किसी ने उसके सामने देश की बात नहीं की थी। साधारणतया हमारे देश के लोग अपने देश और जाति की चर्चा में कुछ दिखावे का-सा भाव दिखाते रहते हैं; मानो वास्तव में वे उन पर विश्वास न रखते हों। इसीलिए कविता करते समय देश के बारे में वे जो चाहे कह दें, देश पर उनकी आस्था नहीं होती। किंतु गोरा अपने देश के सारे दु:ख, दुर्गति, दुर्बलता के पार एक महान सच्चारई को साक्षात देख सकता था, इसलिए देश के दारिद्रय को अस्वीकार किए बिना भी उसमें देश के प्रति ऐसी गहरी श्रध्दा थी। देश की आंतरिक शक्ति के प्रति उसमें ऐसा अडिग विश्वास था कि उसके निकट आने पर संशय करने वाले भी उसकी दुविधा-विहीन देशभक्ति की ललकार सुनकर हार जाते थे। गोरा की इसी अविचल भक्ति के सामने हरान के अज्ञानपूर्ण तर्क सुचरिता को निरंतर अपमान-शूल से चुभ रहे थे। बीच-बीच में वह झिझक छोड़कर ऊबे भाव से हरान की दलीलों का प्रतिवादन किए बिना न रह सकी थी।
फिर गोरा और विनय की पीठ के पीछे हरान ने जब ईष्यावश भद्दे ढंग से उनकी बुराई करनी शुरू की तब इस ओछेपन के विरुध्द भी सुचरिता को गोरा का ही पक्ष लेना पड़ा।
तब भी ऐसा नहीं था कि गोरा के विरुध्द सुचरिता के मन का विद्रोह एकदम शांत हो गया हो। गोरा का सिर पर चढ़ने वाला उध्दत हिंदूपन अब भी उसके मन पर आघात कर रहा था। वह ऐसा समझ रही थी कि इस हिंदूपन के भीतर कहीं प्रतिकूलता का भाव ज़रूर है- वह सहज शांत भाव नहीं हैं, अपनी आस्था में परिपूर्ण नहीं हैं बल्कि सर्वदा दूसरे को चोट पहुँचाने के लिए कमर कसे हुए हैं।
उस दिन शाम को हर बात में, हर काम में, यहाँ तक कि भोजन करते समय और लीला को कहानियाँ सुनाते समय भी सुचरिता के मन में कहीं गहरे में एक पीड़ा कसकती रही, जिसे वह किसी तरह भी दूर नहीं कर सकी। काँटा कहाँ चुभा है, यह ठीक-ठीक जानकर ही उसे निकाला जा सकता है। मन के काँटे को ढूँढ निकालने के लिए ही उस रात सुचरिता देर तक छत के बरामदे में अकेली बैठी रही।
रात के अंधकार में उसने अपने मन की अकारण जलन को जैसे पोंछकर दूर कर देने की कोशिश की, किंतु कुछ लाभ नहीं हुआ। हृदय का बोझ हल्का करने के लिए उसने रोना चाहा, पर रो भी न सकी।
एक अजनबी युवक माथेपर तिलक लगाकर गया, अथवा उसे बहस में हराकर उसका अहंकार नहीं तोड़ा जा सका, इसी बात को लेकर सुचरिता इतनी देर से पीड़ा पा रही है, इससे अधिक बेतुकी और हास्यास्जनक बात और क्या हो सकती है! इन कारणों को बिल्कुनल असंभव मानकर उसने मन से निकाल दिया। तब असल तथ्य उसके सामने आया, और उसका स्मरण आते ही सुचरिता को बड़ी लज्जा का बोध हुआ। आज तीन-चार घंटे तक सुचरिता उस युवक के सामने बैठी रही थी और बीच-बीच में उसका पक्ष लेकर बहस में योग देती रही थी, फिर भी मानो उसने उसे बिल्कुल लक्ष्य ही नहीं किया; जाते समय भी जैसे उसकी ऑंखों ने सुचरिता को देखा ही न हो। यह संपूर्ण उपेक्षा की सुचरिता को बहुत गहरे में चुभ गई है, इसमें कोई संदेह न रहा। दूसरे घर की लड़कियों से मेल-जोल का अभ्यास न होने से जो एक संकोच होता है- विनय के व्यवहार में जैसे संकोच का परिचय मिलता है- उस संकोच में भी एक शरमीली नम्रता होती है। गोरा के व्यवहार में उसका लेश भी नहीं था। उसकी इस कठोर और प्रबल उदासीनता को सह लेना या अवज्ञा करके उड़ा देना सुचरिता के लिए आज क्यों असंभव हो उठा है? इतनी बड़ी उपेक्षा अबोध पर वह मानो मरी जा रही थी। हरान की थोथी दलीलों से जब एक बार सुचरिता बहुत अधिक उत्तेजित हो उठी थी तब गोरा ने एक बार उकी ओर देखा था। उस चिवन में संकोच का लेश-मात्र भी नहीं था- किंतु उसमें क्या था यह भी समझना कठिन था। उस समय क्या मन-ही-मन वह कह रहा था- यह लड़की कितनी निर्लज्ज है? अथवा-इसकी हिम्मत तो देखो.... बिना बुलाए पुरुषों की बातचीत में टाँग अड़ाने आ गई है? लेकिन उसने अगर ठीक ऐसा ही सोचा हो, तो उससे क्या आता-जाता है? उससे कुछ भी आता-जाता नहीं फिर भी सुचरिता को यह सोचकर-सोचकर बड़ी तकलीफ होने लगी। उसने सारे प्रसंग को भूल जाने जाने की, मन से मिटा देने की चेष्टा की; पर सब व्यर्थ। तब उसे गोरा पर गुस्सा आने लगा। मन के पूरे बल से उसने चाहा कि गोरा को एक बदतमीज़ और उध्दत युवक कहकर उसकी अवज्ञा कर दे, किंतु उस विशाल शरीर, वज्र-स्वर पुरुष की उस नि:संकोच चितवन की स्मृति के सामने सुचरिता मानो अपने को बहुत तुच्छ अनुभव करने लगी- किसी तरह भी वह अपने गौरव को अपने सम्मुख स्थापित न कर सकी।
सुचरिता को विशेष कारणों से सबकी ऑंखों में रहने का, दुलार पाने का अभ्यास हो गया था। मन-ही-मन वह यह सब चाहती रही हो, ऐसा नहीं था; फिर आज की गोरा की उपेक्षा क्यों उसे इतनी असह्य जान पड़ी? बहुत सोचकर सुचरिता अंतत: इस परिणाम पर पहुँची कि उसने गोरा को खासतौर से नीचा दिखाने की इच्छा की थी, इसीलिए गोरा की अविचल लापरवाही से उसे इतनी चोट पहुँची।
इस तरह उधेड़-बुन करते-करते रात काफी बीत गई। बत्ती बुझाकर सब लोग सोने चले गए। डयोढ़ी का दरवाज़ा बंद होने का शब्द सूचना दे गया कि बैरा भी चौका-बासन समाप्त करके सोने जाने की तैयारी कर रहा है। तभी रात के कपड़े पहने हुए ललिता छत पर आई और सुचरिता से कुछ कहे बिना उसके पास से होती हुई छत के एक कोने की मुँडेर के सहारे खड़ी हो गई। मन-ही-मन सुचरिता हँसी; समझ गई कि ललिता उस पर नाराज़ है। आज उसकी ललिता के पास सोने की बात तय थी, इसे वह बिल्कुिल भूल गई थी। किंतु 'भूल गई थी' कहने से तो ललिता से अपराध क्षमा नहीं कराया जा सकता- वह कैसे भूल गई, यही तो सबसे बड़ा अपराध है! समय रहते वायदे की याद दिला देने वाली लड़की वह नहीं है। बल्कि वह मन मारकर सोने भी चली गई थी- ज्यों-ज्यों देर होती गई त्यों-त्यों उसका आहत अभिमान और तीखा होता गया था। अंत में जब और सहना बिल्कुतल असंभव हो गया तब वह बिस्तर से उठकर बिना कुछ कहे यह जताने चली आई थी कि मैं अभी तक जाग रही हूँ।
कुर्सी छोड़कर सुचरिता ने धीरे-धीरे ललिता के पास आकर उसे गले लगाया और कहा, ''ललिता, मेरी अच्छी बहन, नाराज़ मत हो!''
ललिता ने सुचरिता की बाँह हटाते हुए कहा, ''नहीं, मैं क्यों नाराज़ होने लगी? तुम जाओ, बैठो!''
सुचरिता ने उसे फिर हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, ''चलो भई, सोने चलें!''
ललिता ने कोई जवाब नहीं दिया, चुपचाप खड़ी रही। अंत में सुचरिता उसे खींचती हुई सोने के कमरे में ले गई।
रुँधे गले से ललिता ने कहा, ''तुमने इतनी देर क्यों की? पता है, ग्यारह बज गए हैं? मैं बराबर घंटे गिनती रही हूँ। और अब तुम शीघ्र ही सो जाओगी।''
ललिता को छाती की ओर खींचते हुए सुचरिता ने कहा, ''आज मुझसे गलती हो गई, बहन!''
यों अपराध स्वीकार कर लेने पर ललिता का क्रोध दूर हो गया। बिल्कुनल शांत होकर बोली, ''इतनी देर अकेली बैठी किसकी बात सोच रही थीं, दीदी? पानू बाबू की?''
तर्जनी से उसे मारते हुए सुचरिता ने कहा, ''दु!''
ललिता को पानू बाबू ज़रा भी अच्छे नहीं लगते। यहाँ तक कि और बहनों की तरह उनकी बात को लेकर सुचरिता को चिढ़ाना भी उसे अच्छा नहीं लगता। पानू बाबू की इच्छा सुचरिता से विवाह करने की है, यह बात सोचकर ही उसे गुस्सा आ जाता है।
थोड़ी देर चुप रहकर ललिता ने बात उठाई, ''अच्छा दीदी, विनय बाबू तो अच्छे आदमी हैं- हैं न?''
इस प्रश्न में सुचरिता की राय जानने का ही उद्देश्य था; यह नहीं कहा जा सकता।
सुचरिता ने कहा, ''हाँ, विनय बाबू तो अच्छे आदमी हैं ही- बहुत ही सज्जन हैं।''
ठीक जिस ध्वरनि की उम्मीद लालिता ने की थी उसकी गूँज उसे इस उत्तर में नहीं जान पड़ी। तब उसने फिर कहा, ''लेकिन जो भी कहो दीदी, गौरमोहन बाबू मुझे बिल्कुाल अच्छे नहीं लगे। कैसा भूरा-चिट्टा रंग है, खुरदरा चेहरा है, दुनिया में और किसी को कुछ समझते ही नहीं। तुम्हें कैसे लगे?''
सुचरिता बोली, ''कट्टर हिंदूपन है।''
ललिता ने कहा, ''नहीं-नहीं, हमारे मँझले काका में भी तो कड़ा हिंदूपन है, किंतु वह तो और ढंग का है। लेकिन यह तो न जाने कैसा है!''
हँसकर सुचरिता ने कहा, ''हाँ, ज़रूर न जाने कैसा है!'' कहते-कहते गोरा की वही चौड़े माथे वाली तिलकधारी छवि का स्मरण करके उसे फिर गुस्सा आ गया। गुस्सा इसलिए कि उस तिलक के द्वारा ही गोरा ने मानो अपने माथे पर बड़े-बड़े अक्षरों में यह लिख रहा है कि मैं तुमसे अलग हूँ। इस अलगाव के प्रचंड अभिमान को धूल धूसरित करके ही सुचरिता के जी की जलन मिट सकेगी।
धीरे-धीरे बातचीत बंद हो गई और दोनों सो गईं। रात के दो बजे सुचरिता ने जागकर देखा, बाहर झमाझम बारिश हो रही है और बार-बार बिजली की चमक उनकी मसहरी को भेदकर भीतर कौंध जाती है कमरे के कोने में जो दिया रखा था वह बुझ गया है। रात की निस्तब्धता और अंधकार में अविराम वर्षा के शब्द के साथ सुचरिता के मन में फिर वही वेदना जाग उठी। करवट अदल-बदलकर उसने सोने की बड़ी कोशिश की; पास ही गहरी नींद में डूबी हुई ललिता को देखकर उसे ईष्या भी हुई, किंतु किसी तरह नींद में डूबी ऊबकर बिस्तर छोड़कर वह बाहर निकल आई। खुले दरवाजे क़े पास खड़ी-खड़ी बौछार आने लगीं। ''आप जिन्हें अशिक्षित कहते हैं मैं उन्हीं के गुट का हूँ-आप जिसे कुसंस्कार कहते हैं वही मेरा संस्कार है। आप जब तक देश को प्रेम नहीं करते और देश के लोगों के साथ मिलकर खड़े नहीं होते तब तक आपके मुँह से देश की बुराई का एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं हूँ।'' इस बात के जवाब में पानू ने कहा था, ''ऐसा करने से देश का सुधार कैसे होगा?' गरजकर गोरा ने कहा था, ''सुधार? सुधार तो बहुत बाद की बात है। सुधार से कहीं बड़ी बात है प्रेम की, श्रध्दा की; पहले हम एक हों, फिर सुधार भीतर से ही अपने-आप हो जायेगा। अलग होकर आप लोग तो देश के टुकड़े-टुकड़े करना चाहते हैं- आप लोग जो कहते हैं कि देश में कुसंस्कार है इसलिए आप सुसंस्कारी लोग उससे अलग रहेंगे। किंतु मैं यह कहता हूँ कि किसी से श्रेष्ठ होकर किसी से अलग नहीं होऊँगा। यही मेरी बड़ी आकांक्षा है। फिर एक हो जाने पर कौन-सा संस्कार रहेगा, कौन-सा नहीं रहेगा, यह हमारा देश जाने- या जो देश के विधाता हैं वे जानें।'' पानू बाबू ने कहा था, ''ऐसे अनेक रीति-रिवाज़ और संस्कार हैं जो देश को एक नहीं होने देते।'' तब गोरा ने कहा था, ''आप अगर यही सझते हैं कि पहले उन सब रीति-रिवाज़ों और संस्कारों को उखाड़ फेंके, और उसके बाद देश एक होगा, यह तो समुद्र पार करने की चेष्टा करने से पहले समुद्र को सुखा देने जैसा होगा। अहंकार और अवज्ञा छोड़कर, नम्र होकर, प्रेम से पहले स्वयं को सच्चे दिल से सबके साथ मिलाइए; उस प्रेम के आगे हज़ारों त्रुटियाँ और कमज़ोरियाँ सहज ही नष्ट हो जाएँगी। सभी देशों के अपने-अपने समाजों में दोष और अपूर्णता है, किंतु देश के लोग जब तक जाति-प्रेम के बंधन से एकता में बँधे रहते हैं तब तक उसका विष खत्म कर आगे बढ़ सकते हैं। सड़ाँध का कारण हवा में ही होता है; किंतु जीते रहें तो उससे बचे रहते हैं, मर जाएँ तो सड़ने लते हैं। मैं आपसे कहता हूँ, ऐसा सुधार करने आएँगे तो हम नहीं सह सकेंगे, फिर चाहे आप लोग हों, चाहे मिशनरी हों।'' पानू बाबू बोले थे, ''क्यों नहीं सह सकेंगे?'' गोरा ने कहा था, ''नहीं सह सकेंगे, उसका कारण है। माँ-बाप की ओर से सुधार सहा जाता है, लेकिन पहरेदार की ओर से सुधार में, सुधार से कहीं अधिक अपमान होता है, इसलिए वैसा सुधार मानने में मनुष्यत्व खत्म होता है पहले अपने बनिए, फिर सुधारक बनिएगा.... नहीं तो आपकी शुभ बातों से भी हमारा अनिष्ट ही होगा।'' यों एक-एक करके सारी बातचीत सुचरिता के मन में तैर गई और एक अनिर्देश्य व्यथा की कसक टीस गई। थककर सुचरिता फिर बिस्तर पर आ लेटी और हथेली से ऑंखें ढँककर सोचना बंद करके सोने की कोशिश करने लगी। किंतु उसके शरीर और कानों में एक झनझनाहट हो रही थी, और इसी बातचीत के टुकड़े बार-बार उसके मन में गूँज उठते हैं।
गोरा
4
रवीन्दनाथ टैगोर
परेशबाबू के घर से निकलकर विनय और गोरा सड़क पर आ गए तो विनय ने कहा, ''गोरा, ज़रा धीरे-धीरे चलो भई.... तुम्हारी टाँगे बहुत लंबी हैं, इन पर कुछ अंकुश नहीं रखोगे तो तुम्हारे साथ चलने में मेरा दम फूल जाएगा।!''
गोरा ने कहा, ''मैं अकेला ही चलना चाहता हूँ- मुझे आज बहुत-कुछ सोचना है।'' यह कहता हुआ वह अपनी स्वाभाविक तेज़ चाल से आगे बढ़ गया।
विनय के मन को चोट लगी। उसने आज गोरा के विरुध्द विद्रोह करके उसका आदेश भंग किया है, इसे लेकर अगर गोरा के विरुध्द विद्रोह करके उसका आदेश भंग किया है, इसे लेकर अगर गोरा डाँट देता तो उसे खुशी ही होती। उनकी पुरानी दोस्ती के आकाश पर जो घटा घिर आई है, एक बौछार हो जाने से उसकी उमस मिट जाती है और वह फिर चैन की साँस ले सकता।
इसके सिवा एक और बात से भी उसे तकलीफ हो रही थी। गोरा ने परेशबाबू के घर सहसा आज पहले-पहल आकर विनय को वहाँ पुराने परिचित की तरह बैठा देखकर ज़रूर यह समझा होगा कि विनय यहाँ बराबर आता-जाता रहता है। यह बात नहीं है कि आने-जाने में कोई बुराई है; गोरा चाहे जो कहे, परेशबाबू के सुशिक्षित परिवार के साथ अंतरंग परिचय होने के सुयोग को विनय एक विशेष लाभ ही समझता है, इनसे मिलने-जुलने में गोरा को कोई बुराई दीखे तो वह उसकी निरी पोंगापंथी है। लेकिन पहले की बातचीत से तो गोरा यही समझता रहा होगा कि परेशबाबू के घर विनय आता-जाता नहीं है; हो सकता है कि आज अचानक उसके मन में यह बात आई हो कि वह जो समझा था झूठ था। वरदासुंदरी उसे खास तौर से कमरे में बुला ले गईं और उनकी लड़कियों से वहाँ उसकी बातचीत होती रही- गोरा की तीखी दृष्टि से यह बात ओझल न रही होगी। लड़कियों से ऐसे मिल-बैठकर और वरदासुंदरी की आत्मीयता से विनय ने मन-ही-मन एक गौरव और आनंद का अनुभव किया था- किंतु इसके साथ ही गोरा के और उसके साथ इस परिवार के बर्ताव का भेदभाव भीतर-ही-भीतर उसे अखर भी रहा था। आज तक इन दोनों सहपाठियों के बंधुत्व में कोई बात अड़चन बनकर नहीं आई थी। सिर्फ एक बार गोरा के ब्रह्म-समाज के उत्साह को लेकर दोनों की दोस्ती पर कुछ दिन के लिए एक धुंधली छाया सी पड़ गई थी- किंतु जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, विनय के निकट मत नाम की चीज़ कोई बहुत महत्व की नहीं थी; मत को लेकर वह चाहे जितना लड़-झगड़ ले, अंतत: उसके लिए मनुष्य ही अधिक बड़ा सत्य था। उन दोनों की दोस्ती में इस बार मनुष्य ही आड़े आते दीख रहे हैं, इससे वह डर गया। परेशबाबू के परिवार के साथ संबंध जुड़ने को विनय मूल्यवान समझता है, क्योंकि अपने जीवन में ऐसे आनंद का अवसर उसे और कभी नहीं मिला- किंतु गोरा का बंधुत्व भी विनय के जीवन का अभिन्न अंग है, उसके बिना जीवन की वह कल्पना ही नहीं कर सकता।
विनय ने अभी तक किसी दूसरे व्यक्ति को अपने हृदय के उतना निकट नहीं आने दिया था जितना गोरा को। आज तक वह किताबें पढ़ता रहा है और गोरा के साथ बहसबाज़ी करता रहा है, झगड़ता भी रहा है गोरा को ही प्यार भी करता रहा है; दुनिया में और किसी चीज़ की तरफ ध्यान देने का उसे अवकाश ही नहीं मिला। गोरा को भी भक्त-सम्प्रदाय की कमी नहीं थी, किंतु बंधु विनय को छोड़कर दूसरा नहीं था। गोरा की प्रकृति में एक नि:संगता का भाव है- इधर वह जन-साधारण से मिलने से नहीं हिचकिचाता, उधर तरह-तरह के लोगों से घनिष्ठता करना भी उसके लिए सर्वथा असंभव है। अधिकतर लोग उसके साथ एक दूरी का अनुभव किए बिना नहीं रहते।
आज विनय की समझ में यह आ गया कि परेशबाबू के परिवार की ओर उसके हृदय में गहरा अनुभाग उत्पन्न हो गया है, हालाँकि परिचय अधिक दिन का नहीं है। इससे गोरा के प्रति मानो कोई अपराध हो गया है, यह सोचकर वह लज्जित होने लगा।
आज वरदासुंदरी ने विनय को अपनी लड़कियों की अंग्रेज़ी कविता और शिल्प का काम दिखाकर और कविता सुनवाकर मातृत्व का जो प्रदर्शन किया वह गोरा के निकट कितना अवहेलना योग्य है, इसकी मन-ही-मन विनय स्पष्ट कल्पना कर सकता था। इसमें सचमुच हँसी की बात भी कम नहीं थी, और जो थोड़ी-बहुत अंग्रेज़ी वरदासुंदरी की लड़कियों ने सीख ली है, अंग्रेज़ मेमों से प्रशंसा पाई है और लैफ्टिनेंट-गवर्नर की पत्नी का क्षणिक साथ पाया है, इस सबके गरूर की ओट में एक तरह की दीनता भी छिपी थी। किंतु यह सब समझ-बूझकर भी विनय गोरा के आदर्श के अनुसार इन बातों से घृणा नहीं कर सका। यह सब उसे अच्छा ही लगा था। लावण्य-जैसी लड़की- देखने में बड़ी सुंदर है, इसमें कोई संदेह नहीं। अपने हाथ की लिखी मूर की कविता विनय को दिखाकर बड़ा अभिमान कर रही थी, इससे विनय के अहंकार की भी तृप्ति हुई थी। स्वयं वरदासुंदरी आधुनिकता के रंग में पूरी तरह रँग नहीं गई हैं फिर भी अतिरिक्त उत्साह से आधुनिकता दिखाने में व्यस्त हैं.... इस असंगति की ओर विनय का ध्यान न गया हो सो बात नहीं थी, फिर भी वरदासुंदरी उसे बहुत भली लगी थीं। उनके अहंकार और असहिष्णुता का भोलापन ही विनय को प्रीतिकर जान पड़ा। लड़कियाँ अपनी हँसी से कमरे का वातावरण मधुर किए रहती हैं, चाय बनाकर स्वागत करती हैं, अपने हाथ की कारीगरी से कमरे की ओर दीवारें सजाती हैं, और इसके साथ ही अंग्रेज़ी कविता पढ़कर उसमें रस लेती है, यह कितनी भी साधारण बात क्यों न हो, विनय इसी पर मुग्ध है। अपने बहुत कम लोगों से मिलने-जुलने वाले जीवन में ऐसा रस पहले कभी उसे नहीं मिला था। इन लड़कियों की हँसी-मज़ाक, वेश-भूषा, काम-काज के कितने मधुर चित्र मन-ही-मन वह ऑंकने लगा, इसकी सीमा नहीं थी। केवल किताबें पढ़ने और सिध्दांतों को लेकर बहस करने के अलावा जिसने यह भी नहीं जाना कि उसने कब यौवन में पदार्पण किया, उसके लिए परेशबाबू के इस साधारण परिवार के भीतर भी मानो एक नया और अचरज-भरा जगत प्रकाशित हो उठा।
गोरा जो विनय का साथ छोड़कर नाराज़ होकर आगे चला गया उस नाराजी को विनय अन्याय नहीं मान सका। दोनों दोस्तों की बहुत दिन पुरानी दोस्ती में इतने अरसे बाद आज सचमुच यह व्याघात उपस्थिति हुआ है।
बरसात की रात के स्तब्ध अंधकार को भंग करते हुए बादल बीच-बीच में गरज उठते थे। विनय अपने मन पर एक बहुत भारी बोझ का अनुभव कर रहा था। उसे लग रहा था, उसका जीवन चिरकाल से जिस राह पर बढ़ा जा रहा था आज उसे दोड़कर दूसरी नई राह पकड़ रहा है। इस अंधकार में गोरा न जाने किधर चला गया, और वह न जाने किधर जा रहा था।
बिछुड़ने के समय प्रेम और प्रबल हो उठता है। गोरा के प्रति विनय का प्रेम कितना बड़ा और प्रबल है, आज उस प्रेम पर आघात लगने से ही विनय इसका अनुभव कर सका।
घर पहुँचकर रात के अंधकार और कमरे के सूनेपन के कारण विनय को बहुत ही अटपटा लगने लगा। एक बार वह गोरा के घर जाने के लिए बाहर भी निकल आया; किंतु गोरा के साथ आज की रात उसका हार्दिक मिलन हो सकेगा ऐसी उम्मीद वह नहीं कर सका, और फिर कमरे में लौटकर थका हुआ-सा बिस्तर पर लेट गया।
दूसरे दिन सुबह उठने पर उसका मन कुछ हल्का था। रात को कल्पना में अपनी वेदना को उसने बहुत अनावश्यक तूल दे दिया था.... अब उसे ऐसा नहीं जान पड़ा कि गोरा से दोस्ती और परेशबाबू के परिवार में मेल-जोल में कहीं कोई एकांत विरोध है। ऐसी कौन-सी बड़ी बात थी, यह सोचकर विनय को कल रात की अपनी बेचैनी पर हँसी आने लगी।
कंधे पर चादर डालकर लपकता हुआ विनय गोरा के घर जा पहुँचा। उस समय गोरा निचले कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था। अभी विनय सड़क पर ही था कि गोरा ने उसे देख लिया, लेकिन आज विनय के आने पर भी उसकी नज़र अख़बार से नहीं हटी। विनय ने आते ही बिना कुछ कहे गोरा के हाथ से अख़बार छीन लिया।
गोरा ने कहा, ''मुझे लगता है आप गलती कर रहे हैं- मैं गौरमोहन हूँ- कुंसंस्कार में आकंठ डूबा हुआ हिंदू।''
विनय बोला, ''भूल शायह तुम्हीं कर रहे हो। मैं हूँ श्रीयुत विनय.... उन्हीं गौर मोहनजी का कुसंस्कारी बंधु।''
गोरा, ''किंतु गौरमोहन ऐसा बेशर्म है कि अपने कुसंस्कारो के लिए कभी किसी के आगे लज्जित नहीं होता।''
विनय, ''विनय भी ठीक वैसा ही है। इतना ही फर्क है कि वह अपने कुसंस्कारों के कारण चिढ़कर दूसरों पर आक्रमण करने नहीं जाता।''
देखते-ही-देखते दोनों दोस्तों में गरमा-गरम बहस छिड़ गई। मुहल्ले-भर के लोगों को पता लग गया कि गोरा से विनय का साक्षात् हो गया है।
गोरा ने पूछा, ''परेशबाबू के घर तुम जो आते-जाते हो, यह बात उस दिन मुझसे छिपाने की क्या ज़रूरत थी?''
विनय, ''न कोई ज़रूरत थी, न मैंने छिपाई.... न ही आता-जाता था इसीलिए वैसा कहा। तब से कल पहली बार उनके घर में गया था।''
गोरा, 'मुझे भय है कि तुम अभिमन्यु की तरह प्रवेश करने का रास्ता ही जानते हो, निकलने का रास्ता नहीं जानते।''
विनय, ''हो सकता है- शायद जन्म से ही मेरा वैसा स्वभाव है। जिन पर श्रध्दा करता हूँ या जिन्हें चाहता हूँ उनका त्याग नहीं कर सकता। मेरे इस स्वभाव का तुम्हें भी पता है।''
गोरा, ''तो फिर अब से उनके यहाँ आना-जाना जारी रहेगा?''
विनय, ''अकेले मेरा ही आना-जाना जारी रहगा, ऐसी तो कोई बात नहीं है। तुम्हारे भी तो हाथ-पैर हैं, तुम कोई अचल मूर्ति तो नहीं हो!''
गोरा, ''मैं तो जाता हूँ और लौट आता हूँ। किंतु तुम्हारे विचारों से तो यही जान पड़ता है कि तुम यदि गए तो समझो चले ही जाओगे। गरम चाय कैसी लगी?''
विनय, ''कुछ कड़वी तो लगी थी।''
गोरा, ''तो फिर?''
विनय, ''न पीना तो और भी कड़वा लगता।''
गोरा, ''यानी समाज को मानना केवल शिष्टाचार को मानना है?''
विनय, ''हमेशा नहीं। लेकिन देखो गोरा, समाज के साथ जब हृदय की ठन जाय तब मेरे लिए.... ''
अधीर होकर गोरा उठ खड़ा हुआ, विनय को अपनी बात उसने पूरी नहीं करने दी। गरजकर बोला, ''हृदय! समाज को तुम इतना छोटा, इतना घ्घ्घ् मानते हो तभी बात-बात में तुम्हारे हृदय से उसका टकराव है। किंतु समाज पर आघात करने से उसकी चोट कितनी दूर तक पहुँचती है, अगर तुम यह समझ सकते, तो अपने इस हृदय की चर्चा करते तुम्हें लज्जा आती। परेशबाबू की लड़कियों के मन को थोड़ी-सी ठेस पहुँचाते भी तुम्हें बहुत तकलीफ होती है; किंतु तुम्हें तकलीफ होती है इस ज़रा-सी बात को लेकर क्या तुम सारे देश को पीड़ा पहुँचाने को तैयार हो!''
विनय बोला, ''तो फिर सच्ची बात कहूँ, भाई! अगर कहीं एक प्याला चाय पीने से देश को पीड़ा पहुँचती है तो उस पीड़ा से देश का भला ही होगा। उसे बचाने की कोशिश करना देश को अत्यंत दुर्बल बना देना होगा-बाबू बना देना होगा।''
गोरा, ''महाशयजी, ये सब दलीलें रहने दो.... यह समझिए कि मैं एकदम भोला हूँ। लेकिन ये सब अभी की बातें नहीं हैं बीमार बच्चा जब दवा नहीं खाना चाहता तब माँ बीमार न होने पर भी स्वयं दवा खाकर उसे यह दिखाना चाहती है कि तुम्हारी और मेरी हालत एक-जैसी है। यह दलील की बात नहीं है, प्यार की बात है। यह प्यार न हो तो दलीलें चाहे जितनी हों, बेटे से माँ का संबंध नहीं रहता, और उस स्थिति में सब काम बिगड़ जाता है। मैं भी उस एक प्याला चाय को लेकर बहस नहीं कर रहा हूँ, लेकिन देश से कट जाना मैं सह नहीं सकता। चाय न पीना उससे कहीं कम कठिन है, और परेशबाबू की लड़कियों के मन को ठेस पहुँचाने की बात तो उससे भी छोटी है। सारे देश के साथ एकात्मक भाव से मिल जाना ही हमारी आज की अवस्था में सबसे बड़ा और मुख्य काम है। जब वह मिलन हो जाएगा, तब चाय पीने या न पीने की दलीलों का निवारण तो बात-की-बात में हो जाएगा।''
विनय, ''तब तो मालूम पड़ता है, मुझे चाय का दूसरा प्याला मिलने में अभी बहुत देर है!''
गोरा, ''नहीं, अधिक देर करने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन विनय, मेरे ही साथ क्यों? हिंदू-समाज की और बहुत-सी चीज़ों के साथ-साथ मुझे भी छोड़ देने का समय आ गया है। नहीं तो परेशबाबू की लड़कियों के मन को ठेस लगेगी।''
इसी समय अविनाश आ पहुँचा। अविनाश गोरा का शिष्य है। गोरा के मुँह से वह जो कुछ सुनता है उसे अपनी बुध्दि के कारण छोटा और अपनी भाषा के द्वारा विकृत करके चारों ओर दोहराता फिरता है। गोरा की बात जिन लोगों की समझ में नहीं आती अविनाश की बात वे बड़ी आसानी से समझ लेते हैं और उसकी तारीफ भी करते हैं।
अविनाश को विनय के प्रति बड़ी ईष्या है। इसलिए मौका मिलते ही वह विनय के साथ बच्चों की तरह बहस करने लग जाता है। विनय उसकी मूढ़ता पर बहुत अधीर हो उठता है, तब गोरा अविनाश का पक्ष लेकर स्वयं विनय से उलझ पड़ता है। अविनाश समझता है कि उसकी ही दलीलें गोरा के मुँह से निकल रही हैं।
अविनाश के आ जाने से गोरा से मेल करने की विनय की कोशिश में रुकावट पड़ गई। वह उठकर ऊपर चला गया। आनंदमई भंडारे के सामने बरामदे में बैठी तरकारी काट रही थीं।
आनंदमई ने कहा, ''बड़ी देर से तुम लोगों की आवाज़ सुन रही थी। बड़े सबेरे निकल पड़े- नाश्ता तो कर लिया था?''
और कोई दिन होता तो विनय कह देता, ''नहीं, अभी नहीं किया'', और आनंदमई के सामने जा बैठने से उसके नाश्ते की व्यवस्था हो जाती। किंतु आज उसने कहा, ''नहीं माँ, कुछ खाऊँगा नहीं- खाकर ही निकला था।''
गोरा के सामने अपना अपराध बढ़ाने का उसका मन नहीं था। परेशबाबू के साथ उसके मेल-जोल के लिए ही अभी तक गोरा ने उसे क्षमा नहीं किया और उसे मानो कुछ दूर करके रख है, यह अनुभव करके मन-ही-मन उसे दुख हो रहा था। जेब से चाकू निकालकर वह भी आलू छीलने लग गया।
पन्द्रह मिनट बाद नीचे जाकर उसने देखा, गोरा अविनाश को साथ लेकर कहीं चला गया है। बहुत देर तक विनय चुपचाप गोरा के कमरे में बैठा रहा। फिर अख़बार लेकर अनमना-सा विज्ञापन देखता रहा। फिर एक लंबी साँस लेकर वह भी बाहर निकल गया।
विनय का मन दोपहर को फिर गोरा से मिलने के लिए बेचैन हो उठा। गोरा के सामने झुक जाने में कभी उसे संकोच नहीं हुआ। लेकिन अपना अभिमान न भी हो, तो दोस्ती का तो एक अभिमान होता है, उसे भुला देना आसान नहीं होता है। परेशबाबू के यहाँ जाने से गोरा के प्रति इतने दिनों की उसकी निष्ठा में कुछ कमी हुई है, ये सोचकर वह स्वयं को अपराधी-सा अनुभव कर रहा था अवश्य, किंतु इसके लिए गोरा उसका मज़ाक-भर करेगा या डाँट-फटकार लेगा, यहीं तक उसने सोचा था। गोरा ऐसे उसे बिल्कुल दूर रखने का प्रयास करेगा, इसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। घर से थोड़ी दूर जाकर विनय फिर लौट आया। कहीं दोस्ती का फिर अपमान न हो, इस भय से वह गोरा के घर नहीं जा सका।
दोपहर को भोजन करके गोरा को चिट्ठी लिखने के विचार से वह कागज़-कलम लेकर बैठा। बैठकर, बिना कारण यह सोचा कि कलम भौंडी है, और चाकू लेकर धीरे-धीरे बड़े यत्न से उसे गढ़ने लगा। इसी समय नीचे से पुकार सुनाई दी, ''विनय!'' विनय कलम रखकर तेज़ी से नीचे दौड़ा और बोला, ''आइए महिम दादा, ऊपर आइए!''
ऊपर के कमरे में आकर महिम विनय की खाट पर बैठ गए और कमरे की सब चीजों का एक बार अच्छी तरह निरीक्षण करके बोले, ''देखो विनय, मैं तुम्हारा घर जानता न होऊँ सो बात नहीं है- बीच-बीच में ख़बर लेता रहता हूँ ओर उधर ध्यान भी रहता है। लेकिन मैं जानता हूँ, तुम लोग आजकल के अच्छे लड़के हो, तुम्हारे यहाँ तंबाकू मिलने की उम्मीद नहीं है, इसीलिए जब तक ज़रूरी न हो.... ''
हड़बड़कार विनय को उठते देख महिम ने कहा, ''तुम सोच रहे हो, अभी बाज़ार से नया हुक्का खरीदकर मुझे तंबाकू पिलाओगे- ऐसी कोशिश न करना! तंबाकू न पिलाने को तो क्षमा कर सकूँगा, लेकिन नए हुक्कू पर अनाड़ी हाथ की तैयार की हुई चिलम बर्दाश्त नहीं होगी।''
इतना कहकर महिम ने खाट पर से पंखा उठाकर अपनी हवा करना शुरु किया और बोले, ''आज रविचार के दिन की नींद मिट्टी करके जो तुम्हारे पास आया हूँ, उसका कारण है। मुझ पर एक उपकार तुम्हें करना ही होगा।''
विनय ने पूछा, ''कैसा उपकार?''
महिम बोले, ''पहले वायदा करो, तब बताऊँगा!''
विनय, ''मेरे वश की बात हो तभी तो।''
महिम, ''केवल तुम्हारे वश की ही बात है। और कुछ नहीं, तुम्हारे एक बार 'हां' कहने से ही हो जाएगा।''
विनय, ''आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? आप तो जानते हैं, मैं घर का ही आदमी हूँ- कर सकने पर आपका काम नहीं करूँगा यह कैसे हो सकता है?''
महिम ने जेब से एक दौना पान निकालकर दो पान विनय की ओर बढ़ाए और बाकी अपने मुँह में रख लिए। चबाते-चबाते बोले, ''अपनी शशिमुखी को तो तुम जानते ही हो। देखने-सुनने में ऐसी बुरी भी नहीं है- यानी अपने बाप पर नहीं गई। उम्र यही दस के आस-पास होगी। ब उसे किसी अच्छे पात्र को सौंपने का समय हो गया है। किस अभागे के हाथ पड़ेगी, यह सोच-सोचकर मुझे तो रात-भर नींद नहीं आती।''
विनय बोला, ''घबराते क्यों हैं, अभी तो समय है।''
महिम, ''तुम्हारी अपनी कोई लड़की होती तो समझते कि क्यों घबराता हूँ! उम्र तो दिन बीतने से अपने-आप बढ़ जाती है, लेकिन पात्र तो अपने-आप नहीं मिलता! इसलिए ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे हैं। मन उतना ही और बेचैन होता जाता है। अब तुम कुछ आसरा दो तो.... खैर, दो-चार दिन इंतज़ार भी किया जा सकता है।''
विनय, ''मेरी तो अधिक लोगों से जान-पहचान नहीं है। बल्कि एक तरह से कह सकता हूँ कि कलकत्ता-भर में आप लोगों का घर छोड़कर और किसी का घर नहीं जानता.... फिर भी खोज करके देखूँगा।''
महिम, ''शशिमुखी का स्वभाव तो जानते ही हो।''
विनय, ''जानता क्यों नहीं? जब वह छोटी-सी ही थी तभी से देखता आ रहा हूँ। बड़ी अच्छी लड़की है।''
महिम, ''तब फिर ज्यादा दूर खोजने की क्या जरूरत है, भैया! लड़की को तुम्हारे ही साथ सौंपूँगा।''
घबराकर विनय ने कहा, ''यह आप क्या कह रहे हैं?''
महिम- ''क्यों, बुरा क्या कह रहा हूँ। हम लोगों से तुम्हारा कुल ज़रूर कहीं ऊँचा है, लेकिन इतना पढ़-लिखकर भी तुम लोग अगर ये बातें मानो तो कैसे चलेगा!''
विनय, ''नहीं-नहीं, कुल की बात नहीं है, लेकिन उम्र तो.... ''
महिम, ''क्या बात है! शशि की उम्र क्या कम है? हिंदू घर की लड़की तो मेम साहब नहीं होती- समाज को यों उड़ा देने से तो नहीं चलेगा!''
महिम सहज ही छोड़ने वाले आसामी नहीं थे। उन्होंनें विनय को मजबूर कर दिया। अंत में विनय ने कहा, ''मुझे थोड़ा सोचने का समय दीजिए!''
महिम, ''तो मैं कौन सा आज ही दिन पक्का किए दे रहा हूँ।''
विनय, ''फिर भी, घर के लोगों से तो.... ''
महिम, ''हाँ, सो तो है। उनकी राय तो लेनी ही होगी। तुम्हारे काका महाशय जब मौजूद हैं तो उनकी राय के बिना कैसे कुछ हो सकता है।''
कहते हुए जेब से उन्होंने पान का दूसरा दौना निकाला और सारे पान मुँह में रख लिए। फिर, यह समझकर कि बातचीत पक्की हो गई है, वह चले गए।
आनंदमई ने कुछ दिन पहले एक बार शशिमुखी के साथ विनय के विवाह की चर्चा बातों-ही-बातों में उठाई थी। लेकिन विनय ने मानो कुछ सुना ही नहीं। आज भी उसे यह प्रस्ताव कुछ संगत लगा हो ऐसा नहीं था, लेकिन बात मानो उसके मन तक पहुँच गई। सहसा उसके मन में विचार उठा, यह विवाह हो जाने से गोरा उसे आत्मीय के नाते कभी दूर नहीं रहेगा। विवाह को हृदय की वृत्तियों के साथ जोड़ने को वह अंग्रेज़ीपन कहकर इतने दिनों से उसका मज़ाक करता आया है, इसीलिए शशिमुखी से विवाह करने की बात उसे असंभव नहीं जान पड़ी। महिम के इस प्रस्ताव को लेकर गोरा के साथ परामर्श करने का एक अवसर निकल आया, इससे भी विनय को खुशी ही हुई। विनय ने चाहा, गोरा इस बात को लेकर उससे थोड़ा आग्रह करे। महिम के आगे साफ हामी न भरने पर महिम ज़रूर ही गोरा से उस पर ज़ोर डलवायेगा, इस बारे में विनय को ज़रा भी संदेह नहीं था।
ये सब बातें सोचकर विनय के मन का क्लेश दूर हो गया। वह उसी समय गोरा के घर जाने के लिए तैयार होकर कंधे पर चादर डालकर बाहर निकल पड़ा। थोड़ी दूर जाने पर पीछे से आवाज़ सुनी, ''विनय बाबू!'' और जब मुड़कर देखा, सतीश उसे पुकार रहा है।
सतीश के साथ विनय फिर घर लौट आया। सतीश ने जेब से रूमाल की एक पोटली निकालते हुए पूछा, ''इसमें क्या है, बताइए तो?''
जो ज़बान पर आया विनय ने कह दिया। अंत में उसके हार मानेन पर सतीश ने बताया- रंगून में उसके एक मामा रहते हैं- उन्होंने वहाँ का यह फल माँ को भेजा है; माँ ने उसी से पाँच-छह फल विनय बाबू को उपहार में भेजे हैं।
बर्मा का यह मैंगोस्टीन फल उस समय कलकत्ता में सुलभ नहीं था। इसी से विनय ने फलों को हिला-डुला और उलट-पुलटकर पूछा, ''सतीश बाबू, यह फल खाया कैसे जाएगा''
विनय की इस अज्ञानता पर हँसते हुए सतीश ने कहा, ''देखिए, दाँत से न काटिएगा- छुरी से काटकर खाया जाता है।''
थोड़ी देर पहले सतीश स्वयं फल को दाँतों से काटने की निष्फल चेष्टा करके घर के लोगों की हँसी का पात्र बन चुका था। इसीलिए विनय के अज्ञान परविज्ञ-जन की-सी गूढ़ हँसी हँसने से उसके मन की उदासी दूर हो गई।
असमान उम्र के दोनों दोस्तों में थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। फिर सतीश ने कहा, ''विनय बाबू, माँ ने कहा है, आपको समय हो तो एक बार आज हम लोगों के यहाँ आ जाएँ- आज लीला का जन्मदिन है।''
विनय ने कहा, ''आज तो भई नहीं हो सकेगा- आज मुझे एक जगह और जाना है।''
सतीश, ''कहाँ जाना है?''
विनय, अपने दोस्त के घर।''
सतीश, ''आपके वही दोस्त?''
विनय, ''हाँ!''
दोस्त के घर जा सकते हैं, पर हमारे घर नहीं जाएँगे, सतीश इसकी संगतता नहीं समझ सका; इसलिए और भी नहीं क्योंकि विनय के यह दोस्त सतीश को अच्छे नहीं लगे थे। वह तो मानो स्कूल के हेडमास्टर से भी अधिक रूखे आदमी हैं, उन्हें आर्गन सुनाकर कोई तारीफ पा सकेगा ऐसे व्यक्ति वह नहीं हैं। ऐसे आदमी के पास जाने का भी कोई प्रयोजन विनय को हो सकता है, यह बात ही सतीश को नहीं जँची। वह बोला, ''नहीं, विनय बाबू, आप हमारे घर चलिए!''
बुलाए जाने पर भी वह परेशबाबू के घर न जाकर गोरा के घर ही जाएगा, मन-ही-मन विनय ने यह पक्का निश्चय कर लिया था। आहत बंधुत्व के अभिमान की वह उपेक्षा नहीं करेगा, गोरा की दोस्ती के गौरव को वह सबसे ऊपर रखेगा, उसने यही स्थिर किया था।
किंतु हार मानते उसे अधिक देर न लगी। दुविधा में पड़े-पड़े, मन-ही-मन आपत्ति करते-करते भी अंतत: वह सतीश का हाथ पकड़ कर 78 नंबर मकान की ओर चल पड़ा। किसी को बर्मा से आए हुए दुर्लभ फलों का हिस्सा भेजने का ध्यान रहे, इसमें जो अपनापन झलकता है, उसका मान न रखना विनय के लिए असंभव है।
परेशबाबू के घर के पास आकर विनय ने देखा, पानू बाबू और दूसरे कुछ अपरिचित लोग परेशबाबू के घर से बाहर आ रहे हैं। ये लीला के जन्मदिन पर दोपहर के भोज में निमंत्रित थे। पानू बाबू ने विनय को मानो देखा ही न हो, ऐसे भाव से आगे बढ़ गए।
घर में कदम रखते ही विनय ने खुली हँसी की ध्वनि और दौड़-भाग के शब्द सुने। सुधीर ने लावण्य की दराज़ की चाबी चुरा ली थी; इतना ही नहीं, वह उस सारे समाज में इस बात का भंडा-फोड़ करने की भी धमकी दे रहा था कि लावण्य ने दराज़ में एक कापी छिपा रखी है। जिसमें उस कवियश: प्रार्थिनी का उपहास करने के लिए ढेरों सामग्री है! जिस समय विनय ने उस रंगभूमि में प्रवेश किया उस समय इसी बात को लेकर दोनों पक्षों में लड़ाई चल रही थी।
उसे देखते ही लावण्य का गुट फौरन लोप हो गया। उनके हँसी-मज़ाक में हिस्सा लेने के लिए सतीश भी उनके पीछे दौड़ा। कुछ देर बाद सुचरिता ने कमरे में आकर कहा, ''माँ ने आपको ज़रा देर बैठने के लिए कहा है, वह अभी आ रही है। बाबा ज़रा अनाथ बाबू के घर तक गए हैं, उन्हें भी लौटने में देर नहीं होगी।''
सुचरिता ने विनय का संकोच दूर करने के लिए गोरा की बात उठाई। हँसकर बोली, ''जान पड़ता है आपके मित्र यहाँ फिर कभी नहीं आएँगे?''
विनय ने पूछा, ''क्यों?''
सुचरिता ने कहा, ''हम लोग पुरुषों के सामने आती हैं, बात करती हैं उन्हें यह देखकर ज़रूर अचंभा हुआ होगा। घर के काम-काज को छोड़कर और कहीं लड़कियों को देखना, शायद उन्हें अच्छा नहीं लगता।''
इसका उत्तर देने में विनय कठिनाई में पड़ गया। बात का प्रतिवाद कर सकता तो उसे खुशी होती, किंतु झूठ वह कैसे बोले? बोला, ''गोरा की राय में लड़कियाँ घर के काम में पूरा मन न ला पाएँ तो उनके कर्तव्य की परिपाटी नष्ट होती है।''
सुचरिता ने कहा, ''तब तो स्त्री-पुरुषों का घर और बाहर का पूरा बँटवारा कर लेना ही अच्छा होता है। पुरुषों को घर में घुसने देने से भी तो शायद उनका बाहर का कर्तव्य अच्छी तरह संपन्न नहीं होता। आपकी राय भी क्या अपने मित्र की राय जैसी है?''
अभी तक तो नारी-सिध्दांत के संधन में गोरा का मत ही विनय का मत रहा है। उसी को लेकर अख़बारों में वह लिखता भी रहा है। किंतु इस समय यह बात उसके मुँह से न निकल सकी कि उसका मत भी वही है। उसने कहा, ''देखिए, इन सब मामलों में असल में हम सब आदतों के दास हैं। इसीलिए लड़कियों को बाहर आते देखकर मन में खटका-सा होता है। उसके बुरा लगने का कारण यह है कि वह अन्याय है या अनुचित है, यह तो हम ज़बरदस्ती सिध्द करना चाहते हैं। असल बात संस्कार की होती है, दलील तो केवल उपलक्ष्य भर होता है।''
सुचरिता ने कहा, ''जान पड़ता है, आपके दोस्त के संस्कार बड़े दृढ़ हैं।''
विनय, ''बाहर से देखने पर सहसा ऐसा ही जान पड़ता है। किंतु एक बात आप याद रखिए! वह जो हमारे देश के संस्कारों से चिपटे रहते हैं, उसका कारण यह नहीं कि वह उन संस्कारों को अच्छा समझते हैं। हम लोग देश के प्रति अंधी अश्रध्दा के कारण उसकी सभी प्रथाओं की अवज्ञा करने लगे थे, इसी अनर्थ के निवारण के लिए खड़े हुए हैं। वह कहते हैं, हमें पहले श्रध्दा और प्रेम के द्वारा देश को समग्र रूप से अपनाना होगा, उसके बाद स्वाभाविक स्वास्थ्य के नियम के अनुसार अपने-आप भीतर से ही सुधार का काम होने लगेगा।''
सुचरिता ने कहा, ''अपने-आप होना होता तो इतने दिन क्यों नहीं हुआ?''
विनय, ''नहीं हुआ, उसकी वजह यह है कि अब तक हम देश के नाम पर समूचे देश को, जाति के नाम पर समूची जाति को एक मानकर नहीं देख सके। फिर हमने अपनी जाति पर अगर अश्रध्दा नहीं की तो श्रध्दा भी नहीं की- यानी उसे ठीक से समझा ही नहीं, इसलिए उसकी शक्ति भी सुप्त रही। जैसे एक रोगी की ओर देखे बिना, उसे बिना दवा-दारू और बिना पथ्य के एक ओर हटा दिया गया था, अब उसे दवाखाने में लाया ज़रूर गया है, किंतु डॉक्टर की उस पर इतनी अश्रध्दा है कि सेवा-शुश्रूषा साध्य लंबे इलाज की बात सोचने का भी धीरज उसमें नहीं है- उसे यही लगता है कि एक-एक करके रोगी के अंग कफ फेंके जाएँ! ऐसी अवस्था में मेरा दोस्त डॉक्टर कहता है, अपने इस परम आत्मीय को इलाज के नाम पर काट-कूटकर फेंक दिया जाय, मैं यह नहीं सह सकता। मैं अब इस अंग-विच्छेद को बिल्कुल बंद करके पहले अनुकूल पथ्य देकर इसके भीतर की जीवनी-शक्ति को जगाऊँगा। उसके बाद काटने की यदि ज़रूरत होगी तो रोगी उसे सह सकेगा, और शायद बिना काटे भी वह अच्छा हो जाएगा। गोरा कहते हैं, हमारे देश की वर्तमान स्थिति में गंभीर श्रध्दा ही सबसे बड़ा पथ्य है- इस श्रध्दा के अभाव के कारण हम देश को समग्र भाव से जान नहीं पाते-और जान न पाने के कारण उसके लिए जो भी सुव्यवस्था करते हैं वह सुव्यवस्था साबित होती है। देश से प्रेम न हो तो उसे अच्छी तरह जानने का धैर्य नहीं होता; और उसे जाने बिना उसका भला करना चाहने पर भी भला होता नहीं है।''
थोड़ा-थोड़ा बराबर छेड़ते रहकर सुचरिता ने गोरा-संबंधी चर्चा को बंद नहीं होने दिया। विनय भी गोरा की ओर से जो-कुछ कह सकता था सुलझा-समझाकर कहता रहा। ऐसी अच्छी दलीलें, ऐसे अच्छे दृष्टांत देकर और इतनी सुलझाकर उसने मानो पहले कभी यह बात नहीं रखी; गोरा स्वयं भी अपनी राय को इतनी सफाई और स्पष्टता से प्रकट कर सकता कि नहीं इसमें संदेह है। बुध्दि द्वारा विवेचन की इस अपूर्व उत्तेजना पर मन-ही-मन उसे आनंद अनुभव होने लगा और उस आंनद से उसका चेहरा दीप्त हो उठा।
विनय ने कहा, ''देखिए, शास्त्रों में कहा गया है, 'आत्मनां विध्दि'- अपने को जानो! नहीं तो मुक्ति का कोई साधन नहीं है। मैं आप से कहता हूँ, मेरे ब्धु गोरा में भारतवर्ष का यही आत्म-बोध प्रत्यक्ष रूप से आविर्भूत हुआ है। मैं उन्हें आम आदमी मान ही नहीं सकता। जब हम सबका मन ओछे आकर्षण, नएपन के लालच में पड़कर बाहर की ओर बिखर गया, तब वही एक अकेला व्यक्ति इस सारे पागलपन के बीच स्थिर खड़ा सिंह-गर्जनो के साथ वही मंत्र देता रहा.... ''आत्मानं विध्दि'।''
यह चर्चा और भी काफी देर तक चल सकती थी-सुचरिता भी बड़ी लगन से सुन रही थी। किंतु साथ के किसी कमरे में सहसा सतीश ने चिल्ला-चिल्लाकर पढ़ना शुरू किया :
बोलो न कटु वचन बिना किए विचार
जीवन सवप्न-समान है, माया का संसार!
बेचारा सतीश घर के अतिथि-आगंतुकों के सामने अपनी विधा दिखाने का कोई मौक़ा ही नहीं पाता। लीला तक अंगेज़ी कविता सुनकार सभी का मनोरंजन कर सकती है, किंतु सतीश को वरदासुंदरी कभी नहीं बुलातीं। पर हर मामले में लीला के साथ सतीश की होड़-सी रहती है। किसी प्रकार भी लीला को नीचा दिखाना सतीश के जीवन का पहला सुख है। विनय के सामने लीला की परीक्षा हो गई; उस समय बुलाए न जाने के कारण सतीश उसे हराने की कोई कोशिश नहीं कर सका- कोशिश करता भी तो वरदासुंदरी उसे उसी समय टोक देतीं। इसी से वह आज पास के कमरे में मानो अपने-आप ऊँचे स्वर से काव्य-पाठ करने लगा था। सुनकर सुचरिता अपनी हँसी न रोक सकी।
उसी समय अपनी चोटी झुलाती हुई लीला कमरे में आकर सुचरिता के गले से लिपटकर उसके मान में कुछ कहने लगी। सतीश ने भी पीछे-पीछे दौड़ते हुए आकर कहा, ''अच्छा लीला, बताओ तो 'मनोयोग' का मतलब क्या है?''
लीला ने कहा, ''नहीं बताती।''
सतीश, ''ए हे! नहीं बताती! यह कहो न कि नहीं जानती!''
सतीश को विनय ने अपनी ओर खींचते हुए पूछा, ''तुम बताओ तो 'मनोयोग' के क्या माने हैं?''
गर्व से सिर उठाकर सतीश ने कहा, ''मनोयोग माने- मनोनिवेश।''
सुचरिता ने जिज्ञासा की, ''मनोनिवेश से तुम्हारा क्या आशय है?''
भला अपनों के सिवा कौन किसी को ऐसी मुसीबत में डाल सकता है! पर सतीश ने जैसे सवाल सुना ही न हो ऐसे उछलता-कूदता कमरे से बाहर चला गया।
परेशबाबू के घर से जल्दी ही छुट्टी लेकर विनय गोरा के घर जाने का निश्चय करके आया था। गोरा की चर्चा करते-करते उसके पास जाने की ललक भी उसके मन में प्रबल हो उठी। इसीलिए वह चार बजते जानकर जल्दी से कुर्सी छोड़कर उठ खड़ा हुआ।
सुचरिता बोली, ''आप अभी जाएँगे? माँ तो आपके लिए जल-पान तैयार कर रही है; थोड़ी देर और न बैठ सकेंगे?''
विनय के लिए यह प्रश्न नहीं, आदेश था। वह फिर बैठ गया।
रंगीन रेशमी परिधन में सज-धाजकर लावण्य आई और बोली, ''दीदी, नाश्ता तैयार हो गया है, माँ ने छत पर चलने को कहा है।''
छत पर जाकर विनय को नाश्ते में जुट जाना पड़ा। वरदासुंदरी प्रथानुसार अपनी सब संतानों का जीवन-वृत्तांत सुनाने लगीं। ललिता सुचरिता को भीतर खींचकर ले गई। एक कुर्सी पर बैठकर लावण्य कंधे झुकाए लोहे की सलाइयों से बुनाई करने में लग गई। कभी उसे किसी ने कहा था- बुनाई के समय उसकी उँगलियों का संचालन बहुत सुंदर लगता है। तभी से लोगों के सामने बिना कारण बुनाई करने की उसकी आदत हो गई है।
परेशबाबू भी आ गए। साँझ हो चली थी। आज रविवार था, उपासना-गृह जाने की बात थी। वरदासुंदरी ने विनय से कहा, ''आपत्ति न हो तो आप भी हम लोगों के साथ समाज में चलें?''
ऐसे में आपत्ति करना कैसे संभव था? दो गाड़ियों में बैठकर सब लोग उपासना-भवन गए। लौटते समय जब सब गाड़ी पर सवार हो रहे थे तब सुचरिता ने आचानक चौंककर संकेत कर कहा, ''वह गौरमोहन बाबू जा रहे हैं!''
गोरा ने इन लोगों को देख लिया है, इसमें किसी को शक नहीं था। किंतु वह ऐसे भाव से तेज़ी से बढ़ गया मानो उसने उन्हें देखा न हो। गोरा के इस अशिष्टता के कारण विनय ने परेशबाबू के सम्मुख लज्जित होकर सिर झुका लिया। किंतु मन-ही-मन वह स्पष्ट समझ गया कि विनय को इस गुट में देखकर ही यों विमुख होकर गोरा इतनी तेज़ी से चला गया। अब तक उसके मन में एक आनंद का जो प्रकाश हो रहा था वह सहसा बुझ गया। विनय के मन का भाव और उसका कारण सुचरिता फौरन समझ गई, और विनय-जैसे बंधु के प्रति गोरा की इस ज्यादती और ब्रह्मों के प्रति उसकी इस अनुचित अवज्ञा से उसे गोरा पर फिर क्रोध आ गया। गोरा का किसी तरह भी पराभव हो, उसका मन यही चाह उठा।
दोपहर को गोरा खाने बैठा तो आनंदमई ने धीरे-धीरे बात चलाई- ''आज सबेरे विनय आया था। तुमसे नहीं मिला?''
थाली पर से ऑंख उठाए बिना ही गोरा ने कहा, ''हाँ, मिला था।''
बहुत देर तक आनंदमई चुपचाप बैठी रही। उसके बाद बोलीं, ''उसे रुकने को कहा था, किंतु वह अनमना-सा होकर चला गया।''
गोरा ने फिर कोई उत्तर नहीं दिया। आनंदमई ने कहा, ''उसके मन को न जाने क्या दुख है गोरा, उसे मैंने कभी ऐसा नहीं देखा। मुझे कुछ अजीब-सा लग रहा है!''
गोरा चुपचाप खाता रहा। अत्यंत स्नेह के कारण ही आनंदमई मन-ही-मन गोरा से थोड़ा डरती थीं। अगर वह अपने मन की बात अपने-आप उनसे न कहता तो वह उसे मजबूर नहीं करती थी। और कोई दिन होता, तो इतने पर ही चुप हो जातीं। किंतु उनके मन में आज विनय के लिए बड़ा दर्द था, इसीलिए उन्होंने फिर कहा ''देखो गोरा, एक बात कहूँ- नाराज़ मत होना! भगवान ने अनेक लोग बनाए हैं, लेकिन रास्ता सबके लिए केवल एक ही नहीं बनाया। विनय तुम्हें प्राणों से बढ़कर स्नेह करता है, इसलिए तुम्हारी ओर से सब-कुछ सह लेता है- लेकिन उसे तुम्हारे ही निर्देश पर चलना होगा, ऐसी ज़बरदस्ती करने का फल सुखकर नहीं होगा!!''
गोरा ने कहा, ''माँ, और थोड़ा दूध ला देना तो!''
बात यहीं खत्म हो गई। भोजन के बाद आनंदमई चुपचाप तख्तपोश पर बैठकर सिलाई करने लगीं। लछमिया घर के किसी नौकर के दुर्व्यवहार की शिकायत में आनंदमई की दिलचस्पी जगाने की बेकार चेष्टा करके फर्श पर लेटकर सो गई।
चिट्ठी-पत्री में गोरा ने बहुत-सा समय बिता दिया। गोरा विनय पर नाराज़ है, आज सबेरे विनय यह स्पष्ट देख गया है। फिर भी वह इस नाराज़गी को मिटाने के लिए गोरा के पास न आए, यह हो ही नहीं सकता। यही मानकर अपने सब कामों के बीच भी वह विनय के पैरों की ध्वनि के लिए कान लगाए था।
पर बड़ी देर तक भी विनय नहीं आया। गोरा लिखना छोड़कर उठने की सोच रहा था। कि तभी महिम कमरे में आ गए। आते ही कुर्सी पर बैठकर बोले, ''शशिमुखी के ब्याह के बारे में क्या सोचा, गोरा?''
इस बारे में कभी कुछ गोरा ने सोचा ही नहीं था, इसलिए अपराधी-सा चुप खड़ा रहा।
पात्र का भाव बाज़ार में कितना बढ़ा हुआ है, और इधर घर में रुपए-पैसे की कितनी तंगी है, महिम ने यह सब बताकर गोरा को कुछ उपाय सोचने को कहा। गोरा सोचकर भी जब कोई हल न पा सका तब उन्होंने मानो इस चिंता-संकट से उसको मुक्त करने के लिए ही विनय की बात चलाई। हालाँकि इतना घुमा फिराकर बात करने की कोई ज़रूरत नहीं कि, किंतु मुँह से महिम चाहे जो कहें, मन-ही-मन गोरा से डरते थे।
इस प्रसंग से विनय की बात भी उठ सकती है, गोरा ने यह कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था। बल्कि गोरा और विनय ने तय कर रखा था कि वे विवाह न करके अपना जीवन देश के लिए न्यौछावर कर देंगे। इसलिए गोरा ने कहा, ''विनय ब्याह करेगा क्यों?''
महिम बोले, ''क्या यही तुम लोगों का हिंदूपन है! हज़ार चुटिया रखो और तिलक लगाओ, साहिबी सिर पर चढ़कर बोलती हैं! शास्त्रों के अनुसार विवाह भी ब्राह्मण के लड़के का एक संस्कार है, यह तो जानते हो?''
आजकल के लड़कों की तरह महिम आचार भी नहीं तोड़ते, और शास्त्र की दुहाई भी नहीं देते। होटल में खाना खाकर बहादुरी दिखाने को भी वह ठीक नहीं समझते, और गोरा की तरह हमेशा श्रुति-स्मृति लेकर उलझते रहने को भी वह स्वस्थ आदमी का लक्षण नहीं मानते। किंतु 'यस्मिन् देशे सदाचार:'-गोरा के सामने शास्त्र की दुहाई न्हें देनी ही पड़ी।
अगर दो दिन पहले यह प्रस्ताव आया होता तो गोरा उसे एकबारगी अनसुना कर देता। किंतु आज उसे लगा कि बात एकदम उपेक्षा के योग्य नहीं है। कम-से-कम इस प्रस्ताव के कारण फौरन विनय के घर जाने का एक मौका तो मिल ही सकता है।
अंत में उसने कहा, ''अच्छा, विनय का विचार क्या है, ज़रा समझ लूँ!''
महिम बोले, ''उसमें समझने को क्या है? वह तुम्हारी बात को किसी तरह टाल नहीं सकता। वह मान जाएगा। तुम्हारा कहना ही काफी है।''
उसी दिन साँझ को गोरा विनय के घर जा पहुँचा। ऑंधी के समान उसके कमरे में प्रवेश करके उसने देखा, वहाँ कोई नहीं है। बैरा को बुलाकर पूछने पर पता चला कि बाबू 78 नंबर मकान में गए हैं। सुनकर गोरा का चित्त फिर विकल हो उठा। जिसके लिए आज सारा दिन गोरा का मन अशांत रहा, उस विनय को आजकल गोरा का ध्यान करने की भी फुरसत नहीं है! गोरा चाहे नाराज़ हो, चाहे दुखित हो; विनय की शांति और चैन में उससे कोई रुकावट नहीं पड़ती!
परेशबाबू के परिवार के विरुध्द, ब्रह्म-समाज के विरुध्द गोरा का मन बिल्कुल विषाक्त हो उठा। मन में एक तीखा आक्रोश लेकर वह परेशबाबू के घर की ओर चला। उसका मन हुआ, वहाँ कुछ ऐसी बात पैदा कर दे जिसे सुनकर उस ब्रह्म-परिवार के लोग जल उठें और विनय भी तिलमिलाकर रह जाए।
उसने परेशबाबू के घर पहुँचकर सुना, घर पर कोई नहीं है, सभी उपासना-भवन गए हैं उसने क्षण-भर के लिए सोचा, विनय शायद न गया हो- शायद इसी समय वह गोरा के घर की ओर गया हो।
वह वहाँ और न रुक सका। अपनी स्वाभाविक ऑंधी-सी चाल से वह भवन की ओर ही चला। द्वार के पास पहुँचते ही देखा, विनय वरदासंदरी के पीछे उनकी गाड़ी पर सवार हो रहा है- खुली सड़क के बीच बेशरम होकर पराए घर की लड़कियों के साथ एक गाड़ी में बैठ रहा है। मूढ़! नागपाश में इतनी जल्दी, इतनी आसानी में फँस गया? तब दोस्ती के लिहाज़ का अब कोई मतलब नहीं रहता। गोरा ऑंधी की तरह आगे बढ़ गया और गाड़ी के अंधेरे हिस्से में बैठा हुआ विनय चुपचाप रास्ते की ओर ताकता रह गया।
वरदासुंदरी ने समझा, आचार्य का उपदेश विनय के मन पर असर कर रहा है। इसीलिए आगे उन्होंने कोई बात नहीं की।
वरदासुंदरी ने समझा, आचार्य का उपदेश विनय के मन पर असर कर रहा है। इसीलिए आगे उन्होंने कोई बात नहीं की।
गोरा
5
रवीन्दनाथ टैगोर
रात को घर लौटकर गोरा अंधेरी छत पर व्यर्थ चक्कर काटने लगा। उसे अपने ऊपर क्रोध आया। रविवार उसने क्यों ऐसे बेकार बीत जाने दिया! एक व्यक्ति के स्नेह के लिए दुनिया के और सब काम बिगाड़ने तो गोरा इस दुनिया में नहीं आया। विनय जिस रास्ते पर जा रहा है उससे उसे खींचते रहने की चेष्टा करना केवल समय नष्ट करना और अपने मन को तकलीफ देना है। इसलिए जीवन उद्देश्य के पथ पर विनय से यहीं अलग हो जाना होगा। जीवन में गोरा का एक ही मित्र है, उसी को छोड़कर वह अपने धर्म के प्रति अपनी सच्चाई प्रमाणित करेगा! ज़ोर से हाथ झटकर गोरा ने मानो विनय के साहचर्य को अपने चारों ओर से दूर हटा दिया।
तभी छत पर पहुँचकर महिम हाँफते हुए बोले, ''इंसान को अगर पंख नहीं मिले तो तिमंज़िले मकान क्यों बनवाए? ज़मीन पर चलने वाला मनुष्य आसमान में रहने की कोशिश करे तो आकाशचारी देवता इसे कैसे सहेंगे?.... विनय के पास गए थे?''
इसका गोरा ने सीधा जवाब न देते हुए कहा, ''विनय के साथ शशिमुखी का ब्याह नहीं हो सकेगा।''
महिम, ''क्यों? क्या विनय की मर्ज़ी नहीं?''
गोरा, ''मेरी मर्ज़ी नहीं है।''
हाथ नचाकर महिम ने कहा, ''वाह! यह एक नया फसाद खड़ा हुआ। तुम्हारी मर्ज़ी नहीं है! वजह क्या है, ज़रा सुनूँ?''
गोरा, ''मैंने अच्छी तरह समझ लिया है कि विनय के लिए हमारे समाज में बने रहना मुश्किल होगा। उसके साथ हमारे घर की लड़की का विवाह नहीं हो सकता।''
महिम, ''मैंने बहुत हिंदूपना देखा है, लेकिन ऐसा तो कभी नहीं देखा! तुम तो काशी-भाटपाड़ा से भी आगे बढ़ गए! तुम तो भविष्य देखकर विधान देते हो! किसी दिन मुझे भी कहोगे, सपने में देखा कि तुम ख्रिस्तान हो गए हो, गोबर खाकर फिर जात में आना होगा!''
काफी बक-बक कर लेने के बाद महिम ने फिर कहा, ''लड़की को किसी मूर्ख के गले तो बाँध नहीं सकता। और जो पढ़ा-लिखा लड़का होगा, समझदार होगा, तो बीच-बीच में शास्त्र का उल्लंघन करेगा ही। इसके लिए उसमें बहस करो, उसे गाली दो; किंतु ब्याह रोककर बीच में मेरी लड़की को सज़ा क्यों देते हो? तुम हर बात उलटी ही सोचते हो!''
महिम ने नीचे उतरकर आनंदमई से कहा, ''माँ, अपने गोरा को तुम सँभालो!''
घबराकर आनंदमई ने पूछा, ''क्या हुआ?''
महिम, ''शशिमुखी के साथ विनय के ब्याह की बात एक तरह से मैं पक्की करके आया था। गोरा को भी राज़ी कर लिया था, इस बीच गोरा ने अच्छी तरह समझ लिया है कि विनय में उसके जैसा हिंदूपन नहीं है- मनु-पराशर की राय से उसकी राय कभी थोड़ी उन्नीस-बीस हो जाती है। इसीलिए गोरा अड़ गया है-अड़ने पर वह कैसा अड़ता है, यह तुम जानती ही हो। कलियुग के जनक ने अगर प्रण किया होता कि जो टेढ़े गोरा को सीधा करेगा उसी को सीता देंगे, तो श्री रामचंद्र क्वाँरे ही रह जाते, यह मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ। मनु-पराशर के बाद इस दुनिया में वह एक तुम्हीं को मानता है- अब तुम्हीं अकर उबारों तो लड़की का कल्याण हो सकता है। ढूँढ़ने पर भी ऐसा पात्र नहीं मिलेगा।''
छत पर गोरा के साथ जो कुछ बातचीत हुई थी, महिम ने उसका पूरा खुलासा सुना दिया। विनय से गोरा का विरोध और गहरा हो गया है, यह जानकर आनंदमई का मन अत्यंम उद्विग्न हो उठा।
ऊपर आकर आनंदमई ने देखा, गोरा छत पर टहलना छोड़कर कमरे में एक कुर्सी पर जा बैठा है और दूसरी कुर्सी पर पैर फैलाकर किताब पढ़ रहा हैं एक कुर्सी पास खींचकर आनंदमई भी बैठ गईं। गोरा ने कुर्सी पर से पैर हटा लिए और सीधे बैठते हुए आनंदमई के चेहरे की ओर देखने लगा।
आनंदमई ने कहा, ''बेटा, गोरा, मेरी एक बात याद रखना.... विनय से झगड़ा मत करना! मेरे लिए तुम दोनों दो भाई हो- तुम्हारे बीच फूट पड़ जाएगी तो मुझसे नहीं सहा जाएगा।''
गोरा बोला, ''बंधु ही अगर बंधन काट देगा तो उसके पीछे-पीछे भागने में मुझसे समय नष्ट नहीं किया जाएगा।''
आनंदमई ने कहा, ''मैं नहीं जानती कि तुम दोनों के बीच क्या घटा है। किंतु विनय तुम्हारा बंधन काटना चाहता है, इस बात पर तुम अगर विश्वास करते हो तो फिर तुम्हारी दोस्ती में क्या असर है?'
गोरा- ''माँ, मुझे सीधा रास्ता पसंद है। जो दोनों तरफ बनाए रखना चाहते हैं मेरी उनके साथ नहीं निभती। जिसका स्वभाव ही दा नावों में पैर रखने का है उसको मेरी नाव में से पैर हटाना ही पड़ेगा- इसमें चाहे मुझे तकलीफ हो, चाहे उसे तकलीफ हो।''
आनंदमई, ''हुआ क्या, यह तो बताओ? वह ब्रह्म लोगों के घर आता-जाता है, उसका यही अपराध है न?''
गोरा, ''बहुत-सी बातें हैं, माँ!''
आनंदमई, ''हुआ करें बहुत-सी बातें। लेकिन मेरी एक बात सुनो, गोरा! हर मामले में तुम इतने जिद्दी हो कि जिसे पकड़ते हो उसे तुमसे कोई छुड़ा नहीं सकता। फिर विनय के बारे में ही तुम क्यों ऐसे ढीले हो?। तुम्हारा अविनाश अगर गुट छोड़ना चाहता तो क्या तुम उसे सहज ही छोड़ देते? वह तुम्हें बंधु कहता है, क्या इसीलिए तुम्हारे और सब साथियों से वह कमतर हो गया?''
गोरा चुप होकर सोचने लगा। आनंदमई की इस ताड़ना से अपने मन की स्थिति उसके सामने साफ हो गई। अब तक वह समझ रहा था कि वह कर्तव्य के लिए दोस्ती का बलिदान करने जा रहा है, अब उसने स्पष्ट देखा कि बात इससे ठीक विपरीत है। उसकी दोस्ती के अभिमान को ठेस लगी है, इसलिए विनय को वह दोस्ती की सबसे बड़ी सज़ा देने को उद्यत हुआ है! मन-ही-मन वह जानता था कि विनय को बाँधे रखने के लिए मित्रता ही काफी है, और किसी तरह की कोशिश दोस्ती का अपमान होगा।
उनकी बात गोरा के मन को छू गई है, इसका भान होते ही आनंदमई और कुछ कहे बिना उठकर धीरे-धीरे जाने लगीं। सहसा गोरा भी तेजी से उठा और खूँटी पर से चादर उताकर कंधे पर डाल दी।
आनंदमई ने पूछा, ''कहीं जा रहे हो, गोरा?''
गोरा ने कहा, ''विनय के घर जा रहा हूँ।''
आनंदमई, ''खाना तैयार है, खाकर जाना।''
गोरा, ''मैं विनय को पकड़कर लाता हूँ, वह भी यहीं खाएगा।''
और कुछ न कहकर आनंदमई नीचे की ओर चलीं। सीढ़ी पर पैरों की ध्वनि सुनकर सहसा रुककर बोलीं, ''विनय तो वह आ रहा है।''
विनय को देखते ही आनंदमई की ऑंखें छलछला उठीं। उन्होंने स्नेह से विनय के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ''विनय बेटा, खाना तो नहीं खाया तुमने?''
विनय ने कहा, ''नहीं, माँ!''
आनंदमई, ''तुम्हें यहीं भोजन करना होगा।''
एक बार विनय ने गोरा के मुँह की ओर देखा। गोरा ने कहा, ''तुम्हारी बड़ी लंबी उम्र है, विनय! मैं तुम्हारे यहाँ ही जा रहा था।''
आनंदमई का हृदय हल्का हो गया; वह तेज़ी से उतर गईं।
कमरे में आकर दोनों बैठे तो गोरा ने यों ही वार्तालाप शुरू करने को कुछ बात उठाते हुए कहा, ''जानते हो, अपने साथियों के लिए एक बहुत अच्छा जिमनास्टिक मास्टर मिल गया है। सिखा भी अच्छा रहा है।''
मन के भीतर दबी बात सामने लाने का साहस अभी किसी को नहीं था। दोनों जब खाने बैठ गए तब उनकी बातचीत के ढंग से आनंदमई जान गईं कि अभी उनके बीच का खिंचाव बिल्कुल खत्म नहीं हुआ है-दुराव अभी भी बाकी है। बोलीं, ''विनय, रात बहुत हो गई है, आज तुम यहीं सो रहाना! मैं तुम्हारे घर सूचना भिजवाए देती हूँ।''
विनय ने चकित होकर गोरा के चेहरे की ओर देखते हुए कहा, ''भुक्त्वा राजवदाचरेत्! खा-पीकर राह चलने का नियम नहीं है। तो फिर यहीं सोया जाएगा।''
भोजन करके दोनों मित्र छत पर आकर चटाई बिछाकर बैठ गए। भादों जा रहा था; शुक्ल पक्ष की चाँदनी आकाश में छिटकी हुई थी। हल्के सफेद बादल मानो जींद के हल्के झोंके-से बीच-बीच में चाँद पर ज़रा घूँघट करते धीरे-धीरे उड़े चले जा रहे थे। चारों ओर दिगंत तक छोटी-बड़ी, ऊँची-नीची छतों की श्रेणी प्रकाश-छाया में, और कभी-कभी पेड़ों के शिखरों के साथ मिलती हुई, मानो किसी कवि की कल्पना की तरह फैली हुई थी।
गिरजाघर की घड़ी में ग्यारह बजे। कुल्फी वाला अपना आज की आखिरी हाँक लगाकर चला गया। गाड़ियों का शोर धीमा पड़ गया। गोरा की गली में किसी के जागने का कोई चिन्ह नहीं था; केवल पड़ोसी के अस्तबल के काठ के फर्श पर घोड़े की टाप का शब्द कभी-कभी सुनाई पड़ जाता या कोई कुत्ता भौंक उठता। बहुत देर तक दोनों चुप रहे। फिर विनय ने पहले कुछ ससकुचाते हुए और फिर बड़ी तेज़ी से अपने मन की बात कह डाली, ''भाई गोरा, मेरा हृदय भर उठा है। मैं जातना हूँ कि इन सब बातों की ओर तुम्हारा ध्यान नहीं है, किंतु तुम्हें कहे बिना रहा भी नहीं जा सकता। भला-बुरा कुछ नहीं समझ पा रहा हूँ-किंतु इतना निश्चय है कि यहाँ कोई चालाकी नहीं चलेगी। किताबों में बहुत-कुछ पढ़ा है, और इतने दिनों से यही सोचता आया हूँ कि मैं सब जानता हूँ। जैसे तस्वीरों में पानी देखकर सोचता रहता था कि तैरना तो बहुत आसान है; किंतु आज पानी में उतरकर पलभर में ही पता चल गया कि यह हँसी-खेल नहीं है।
यों कहकर विनय अपने जीवन के इस नए आश्चर्य के उदय को यत्नपूर्वक गोरा के सामने प्रकट करने लगा।
वह कहने लगा- आजकल उसके लिए जैसे दिन और रात में कहीं कोई दूरी नहीं है, सारे आकाश में कहीं कोई सूनी जगह नहीं है, सब-कुछ पूर्ण रूप से भर गया है- जैसे वसंत-ऋतु में शहद का छत्ता शहद से भरकर फटने-सा लगता है, वैसे ही। पहले इस चराचर विश्व का बहुत-सा हिस्सा उसके जीवन के बाहर ही पड़ा रहता था- जितने से उसका मतलब था उतना ही उसकी नज़र पड़ता था। किंतु आज वह पूरा उसके सामने है, पूरा उसे स्पर्श करता है, पूरा एक नए अर्थ से भर उठा है। वह नहीं जानता था कि धरती को वह इतना प्यार करता है, आकाश ऐसे अचरज-भरा है, प्रकाश ऐसा अपूर्व होता है, सड़क पर अपरिचित यात्रियों का आना-जाना भी इस गंभीर भाव से सच है। उसकी उद्दाम इच्छा होती है, इस संपूर्णता के लिए वह कुछ उद्यम करे, अपनी सारी शक्ति को आकाश के सूर्य की भाँति वह संसार के अनवरत उपयोग में लगा दे।
सारी बातें विनय किसी विशेष व्यक्ति के संबंध में कह रहा है, ऐसा नहीं जान पड़ता। मानो वह किसी का भी नाम ज़बान पर नहीं ला सकता, कोई आभास देने में भी सकुचा जाता है। यह जो चर्चा वह कर रहा है, इसमें भी वह जैसे अपने को किस के प्रति अपराध अनुभव कर रहा है। यह चर्चा अन्याय है, यह अपमान है-किन्तु आज इस सूनी रात में, नि:स्तब्ध आकाश के नीचे, बंधु के पास बैठकर इस अन्याय से वह किसी तरह अपने को नहीं रोक सका।
कैसा है यह चेहरा! प्राणों की दीप्ति उसके कपोलों की कोमलता के बीच कितनी सुकुमारता से चमक उठती हैं! हँसने पर उसका अंत:करण मानो अद्भुत आलोक-सा फूट पड़ता है। ललाट पर कैसी बुध्दि झलकती है! और घनी भौंहों की छाया के नीचे दोनों ऑंखें कैसी अवर्णनीय! और वे दोनों हाथ-मानो कह रहे हों कि सेवा और प्रेम की सुंदरता को सार्थक करने के लिए सदा प्रस्तुत हैं। विनय अपने जीवन और यौवन को धन्य मानता है, आनंद से मानो उसका हृदय फूला नहीं समा रहा है। पृथ्वी के अधिकतर लोग जिसे देखे बिना ही जीवन बिता देते हैं, विनय उसे यों ऑंखों के सामने मूर्त होते देख सकेगा, इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है?
लेकिन यह कैसा पागलपन है- अनुचित बात है! हुआ करे अनुचित- अब उससे और सँभलता नहीं। अगर यही धारा उसे कहीं किनोर लगा दे तो ठीक है; अगर बहा दे या डुबा ही दे-तो क्या उपाय है? मुश्किल तो यही है कि उध्दार की इच्छा भी नहीं होती- इतने दिनों के संस्कार और परिस्थितियाँ सब भुलाकर चलते जाना ही मानो जीवन का सार्थक लक्ष्य है!
गोरा चुपचाप सुनता रहा। इसी छत पर ऐसी ही निर्जन चाँदनी रात में और भी अनेक बार दोनों में बहुत बातें हुई हैं- साहित्य की, ज़माने की, समाज कल्याण की कितनी चर्चाएँ, आगत जीवन के बारे में दोनों के कितने संकल्प, लेकिन ऐसी बात इससे पहले कभी नहीं हुई। मानव-हृदय का इतना बड़ा सत्य, ऐसा प्रकाश, गोरा के सामने इस प्रकार कभी नहीं आया। इस सारे क्रिया कलाप को वह इतने दिन से कविता का खिलवाड़ कहकर उसकी पूर्णत: उपेक्षा करता आया है। आज उसे इतना पास देखकर वह उसको और अस्वीकार न कर सका। इतना ही नहीं, उसके वेग ने गोरा के मन को हिला दिया, उसकी पुलक उसके सारे शरीर में बिजली-सी लहक गई। उसके यौवन के किसी अगोचर अंश का पर्दा पल-भर के लिए हवा से उड़ गया और अनेक दिनों से बंद उस स्थान में शरद रजनी की चाँदनी प्रवेश करके माया का विस्तार करने लगी।
न जाने कब चद्रमा छतों के पीछे छिप गया। फिर पूर्व की ओर सोए हुए शिशु की मुस्कराहट-सा हल्के प्रकाश का आभास हुआ। इतनी देर के बाद विनय का मन हल्का हुआ तो एक झिझक ने उसे ग्रस लिया। थोड़ी देर चुप रहकर वह बोला, ''मेरी ये सब बातें बड़ी ओछी लगेंगी तुम्हें। तुम शायद मन-ही-मन मेरा मज़ाक भी उड़ा रहे हो। लेकिन क्या करूँ, कभी तुमसे कुछ छिपाया नहीं है, आज भी कुछ नहीं छिपा रहा हूँ-तुम समझो या न समझो!''
गोरा ने कहा, ''विनय, मैं ये सब बातें ठीक-ठीक समझता हूँ, ऐसा तो नहीं कह सकता। अभी दो दिन पहले तक तुम भी कहाँ समझते थे। और जीवन के काम-काज के बीच आज तक ये सब आवेग और आवेश मेरी नज़र में बड़ी छोटी चीज़ थीं, इससे भी इनकार नहीं कर सकता। लेकिन इसीलिए ये सचमुच छोटी है ऐसा शायद नहीं है। इनकी शक्ति और गंभीरता से मेरा सामना नहीं हुआ, इसीलिए ये मुझे सार-हीन और छलना-सी लगी हैं। लेकिन तुम्हारी इतनी बड़ी उपलब्धि को मैं आज झूठ कैसे कह दूँ? असल में बात यह है कि जो आदमी जिस क्षेत्र में है उस क्षेत्र के बाहर की सच्चाई यदि उसके निकट छोटी न बनी रहे तो वह काम ही नहीं कर सकता। इसीलिए नियमत: दूर की चीजें मनुष्य को छोटी नज़र आती हैं- सब सत्यों को ईश्वर एक-सा प्रत्यक्ष करके उसे आफत में नहीं डालता। हमें कोई एक पक्ष चुनना ही होगा, सब-कुछ एक साथ जकड़ लेने का लोभ छोड़ना ही होगा, नहीं तो सच्चाई हाथ नहीं आएगी। तुम जहाँ खड़े होकर सत्य की जिस मूर्ति को प्रत्यक्ष देखते हो, मैं वहीं पर उसी मूर्ति का अभिवादन करने नहीं जा सकूँगा- उससे मेरे जीवन का सत्य नष्ट हो जाएगा। वह या तो इधर हो, या उधर।''
विनय बोला, ''यानी-या तो विनय हो,या गोरा! मैं अपने को भर लेने के लिए निकला हूँ, और तुम अपने को त्याग देने के लिए!''
खीझकर गोरा ने कहा, ''विनय, तुम मुँहज़बानी किताबें लिखना शुरु मत करो! तुम्हारी बात सुनकर एक बात मैं स्पष्ट समझ गया हूँ। अपने जीवन में तुम आज एक बहुत प्रबल सत्य के सामने खड़े हो- उसे टाल नहीं सकोगे। सत्य की उपलब्धि हो जाने से उसके आगे आत्म-समर्पण करना ही होगा- कोई दूसरा मार्ग नहीं है। जिस क्षेत्र में मैं हूँ उस क्षेत्र के सत्य को मैं भी ऐसे ही एक दिन पा लूँ, यही मेरी आकांक्षा है। इतने दिनों तक तुम किताबी-प्रेम का परिचय पाकर ही संतुष्ट थे- मैं भी किताबी स्वदेश-प्रेम ही जानता हूँ। आज तुम्हारे सामने जब प्रेम प्रत्यक्ष हुआ तभी तुम जान सके कि किताबी ज्ञान से वह कितना अधिक सत्य है- वह तुम्हारे चराचर जगत पर छा गया है और तुम कहीं भी उससे छुटकारा नहीं पा रहे हो। मेरे सामने जिस दिन स्वदेश-प्रेम ऐसे ही सर्वांगीण भाव से प्रत्यक्ष हो जाएगा उस दिन मेरे भी बचाव का रास्ता न रहेगा- उस दिन वह मेरा धन-जीवन, मेरा हाड़-मांस-मज्जा, मेरा आकाश-प्रकाश, मेरा सब-कुछ अनायास खींचकर ले जा सकेगा स्वदेश की वह सत्य-मूर्ति कैसी विस्मय-भरी सुंदर, सुनिश्चित और सुगोचर है, उसका आनंद और उसकी वेदना कितनी प्रचंड है, प्रबल है, जो पल-भर में जीवन-मरण को बाढ़ की तरह बहा ले जाती है- यह आज तुम्हारी बात सुनकर मन-ही-मन थोड़ा-थोड़ा अनुभव कर पा रहा हूँ। तुम्हारे जीवन की यह उपलब्धि आज मेरे जीवन को ललकार रही है- तुमने जो पाया है मैं उसे कभी समझ सकूँगा या नहीं यह तो नहीं जानता; कितु मैं जो पाना चाहता हूँ मानो उसका आस्वाद तुम्हारी मार्फत थोड़ा-थोड़ा पा सकता हूँ।
कहते-कहते चटाई छोड़ गोरा उठकर खड़ा हुआ और छत पर टहलने लगा। पूर्व में उषा का आभास मानो उसे एक वेद वाक्य-सा लगा; मानो प्राचीन तपोवन से एक वेद-मन्त्र उच्चरित हो उठा। उसका शरीर रोमांचित हो आया- क्षण-भर वह मुग्ध-सा खड़ा रहा और उसे लगा कि उसका ब्रह्म-रंध्र भेदकर एक ज्योति सूक्ष्म मृणाल-तन्तु के सहारे उठकर एक ज्योतिर्मय शतदल-सी सारे आकाश में व्याप्त होकर खिल उठी है- उसके प्राण, चेतना, शक्ति मानो पूर्णत: एक परम आनंद में जा मिली है।
जब गोरा अपने-आप में लौट आया तब सहसा बोला, ''विनय, तुम्हें इस प्रेम को भी पार करके आना होगा- मैं कहता हूँ, वहीं रुक जाने से नहीं चलेगा। मेरा आह्नान जिस महाशक्ति ने किया है, वह जितना बड़ा सत्य है, यह मैं एक दिन तुम्हें दिखाऊगा। आज मेरा मन भारी आनंद से पूरित है- अब मैं तुम्हें और किसी के हाथों में नहीं छोड़ सकूँगा।''
चटाई छोड़कर विनय उठ गया और गोरा के पास जा खड़ा हुआ। गोरा ने एक अपूर्व उत्साह से उसे दोनों बाँहों में घेरकर गले लगाते हुए कहा, ''भाई विनय, हम मरेंगे तो एक ही मौत मरेंगे- हम दोनों एक हैं, कोई हमें अलग नहीं कर सकेगा, कोई बाँध नहीं सकेगा।''
गोरा के इस गहन उत्साह का वेग विनय के हृदय को भी तरंगित करने लगा; उसने कुछ कहे बिना अपने को गोरा के इस उत्साह के प्रति सौंप दिया।
गोरा और विनय दोनों चुपचाप साथ-साथ टहलने लगे। पूर्व का आकाश लाल हो उठा। गोरा ने कहा, ''भाई, अपनी देवी को मैं देखता हूँ तो सौंदर्य के बीच नहीं, वहाँ तो अकाल है, दारिद्रय है, दुख और अपमान है। वहाँ प्रार्थना गाकर, फूल चढ़कार पूजा नहीं होती; वहाँ प्रेरणा देकर, लहू बहाकर पूजा करनी होगी। मुझे तो सबसे बड़ा आनंद यही जान पड़ता है कि वहाँ सुख में मगन होने को कुछ नहीं है, वहाँ अपने ही सहारे पूरी तरह जाग्रत रहना होगा, सब-कुछ देना होगा। वहाँ मधुरता नहीं है- वह एक दुर्जय, दुस्सह आविर्भाव है-निष्ठुर है, भयंकर है- उसमें एक ऐसी झंकार है जिसमें सातों स्वर एक साथ बज उठने से तार ही टूट जाते हैं! उसके स्मरण से ही मेरा मन उल्लास से भर उठता है। मुझे जान पड़ता है कि यही है पुरुष का आनंद- यही है जीवन का तांडव नृत्य! पुराने के ध्वंस-यज्ञ की अग्नि-शिखा के ऊपर नए की सुंदर मूर्ति देखने के लिए ही पुरुष की साधना है। मैं लाल प्रकाश में एक बंधन-मुक्त ज्योतिर्मय भविष्य को देख पाता हूँ- आह के इस मोह में भी देख रहा हूँ- देखो, मेरे हृदय के भीतर कौन डमरू बजा रहा है!''
विनय ने कहा, ''भाई गोरा, मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा। किंतु तुमसे इतना कहता हूँ, मुझे कभी दुविधा में मत रहने देना! एकदम भाग्य की तरह कठोर होकर मुझे खींचे लिए जाना। हम दोनों का रास्ता एक है, लेंकिन दोनों की शक्ति तो बराबर नहीं है।''
गोरा ने कहा, ''हमारी प्रकृतियाँ अलग-अलग हैं। लेकिन एक बहुत गहरा आनंद हमारी भिन्न प्रकृतियों को एक कर देगा- जो प्रेम तुम्हारे-मेरे बीच है उससे भी बड़ा प्रेम हमें एक कर देगा। जब तक वह प्रेम प्रत्यक्ष नहीं होगा तब तक हम दोनों के बीच पग-पग पर टकराहट, विरोध, अलगाव होता रहेगा- फिर एक दिन हम सब-कुछ भूलकर, अपना अलगाव, अपना बंधुत्व भी भूलकर, एक बहुत विशाल, प्रचंड आत्म-परिहास के द्वारा, अटल शक्ति के द्वारा एक हो जाएँगे-वह कठिन आनंद ही हमारे बंधुत्व की चरम उपलब्धि होगा।''
गोरा का हाथ पकड़ते हुए विनय बोला, ''ऐसा ही हो!''
गोरा ने कहा, ''लेकिन तब तक तुम्हें मैं बहुत दु:ख देता रहूँ। मेरे अत्याचार तुम्हें सहने होंगे, क्योंकि अपने बंधुत्व को ही मैं जीवन का अंतिम उद्देश्य नहीं मान सकूँगा- किसी भी तरह उसी को बचाते रहने की कोशिश करके उसका अपमान नहीं करूँगा। इससे अगर दोस्ती टूट जाए तब तो कोई उपाय नहीं है, लेकिन गर रहे तभी उसकी सार्थकता है।''
इसी समय पैरों की आवाज़ सुनकर चौंककर दोनों ने पीछे मुड़कर देखा आनंदमई छत पर आ रही थी। उन्होंने दोनों के हाथ पकड़कर खींचकर उन्हें नीचे ले जाते हुए कहा, ''चलो, जाकर सोओ!''
दोनों ने कहा, ''अब क्या नींद आएगी, माँ!''
''आएगी'', कहकर आनंदमई ने दोनों को बिस्तर पर पास-पास लिटा दिया और कमरे का दरवाज़ा उढ़काकर सिरहाने बैठकर पंखा झलने लगीं।
विनय ने कहा, ''माँ, तुम्हारे पंखा झेलते रहने से तो हमें नींद नहीं आएगी।''
आनंदमई बोली, ''कैसे नहीं आएगी, देखूँगी! मैं चली गई तो तुम लोग फिर बहस करने लगोगे- वह नहीं होने का।''
दोनों के सो जाने पर चुपके से आनंदमई कमरे के बाहर चली गईं। उन्होंने सीढ़ियाँ उतरते हुए देखा, महिम ऊपर जा रहा है। उन्होंने कहा, ''अभी नहीं- सारी रात वे लोग सोए नहीं। मैं अभी-अभी उन्हें सुलाकर आ रही हूँ।''
महिम ने कहा, ''वाह रे, इसी को कहते हैं दोस्ती! ब्याह की कोई बात हुई थी या नहीं, तुम्हें कुछ पता है?''
आनंदमई, ''पता नहीं।''
महिम, ''जान पड़ता है, कुछ-न-कुछ तय हो गया है। उनकी नींद कब टूटेगी? ब्याह जल्दी न हुआ तो कई मुश्किलें आ खड़ी होंगी।''
हँसकर आनंदमई ने कहा, ''उनके सो जाने से ऐसी कोई बड़ी मुश्किल नहीं होगी- वे लोग आज ही किसी समय जाग जाएँगे।''
वरदासुंदरी ने परेशबाबू से पूछा, ''तुम सुचरिता का ब्याह नहीं करोगे?''
थोड़ी देर परेशबाबू अपने स्वाभाविक शांत गंभीर भाव से दाढ़ी सहलाते रहे, फिर मृदु स्वर में बोले, ''पात्र कहाँ है?''
वरदासुंदरी बोलीं, ''क्यों, पानू बाबू के साथ उसके विवाह की बात तो तय हो ही चुकी है- कम से कम हम लोग तो यही समझते हैं, सुचरिता भी यही समझती है।''
परेशबाबू बोले, ''मुझे तो ऐसा नहीं लगता कि राधारानी को पानू बाबू ठीक पसंद ही हैं।''
वरदासुंदरी- ''देखो, यही सब मुझे अच्छा नहीं लगता। सुचरिता को कभी मैंने अपनी लड़कियों से अलग नहीं माना; लेकिन इसीलिए ही यह भी कहना होगा कि उसमें ऐसी क्या असाधारण बात है? पानू बाबू जैसे विद्वान धार्मिक आदमी को वह अगर पसंद है तो यह क्या यों ही उड़ा देने की बात है? तुम जो कहो, मेरी लावण्य देखने में उससे कहीं सुंदर है, लेकिन मैं तुमसे कहे देती हूँ, जिसे भी हम पसंद कर देंगे, वह उससे ब्याह कर लेगी, कभी 'ना' नहीं करेगी। तुम्हीं सुचरिता को अगर ऐसे सिर चढ़ाकर रखोगे तो उसके लिए पात्र मिलना मुश्किल हो जाएगा।
इस पर परेशबाबू ने और कुछ नहीं कहा। वह वरदासुंदरी के साथ कभी बहस नहीं करते, खासकर सुचरिता के संबंध में।
सतीश को जन्म देकर जब सुचरिता की माँ की मृत्यु हुई तब सुचरिता सात बरस की थी। उसके पिता रामशरण हालदार ने पत्नी की मृत्यु के बाद ब्रह्म-समाज अपनाया और पड़ोसियों के अत्याचार के कारण गाँव छोड़कर ढाका में आ बसे। वहीं पोस्ट-ऑफिस की नौकरी करते परेशबाबू के साथ उनकी घनिष्ठता हो गई। तभी से सुचरिता परेशबाबू को ठीक अपने पिता के समान मानती है।
रामशरण की मृत्यु अचानक हो गई। अपनी वसीयत में अपना सब रुपया-पैसा लड़के और लड़की के नाम करके वह उनकी देख-भाल परेशबाबू को सौंप गए। सतीश और सुचरिता तभी से परेशबाबू के परिवार के हो गए।
घर या बाहर के भी लोग सुचरिता के प्रति जब विशेष स्नेह या दिलचस्पी दिखाते तो वरदासुंदरी को ठीक न लगता। फिर भी चाहे जिस कारण हो, सुचरिता सभी से स्नेह और सम्मान पाती। वरदासुंदरी की अपनी लड़कियाँ भी उसके स्नेह के लिए आपस में झगड़ती रहतीं। विशेषकर मँझली लड़की ललिता तो अपने ईष्या-पोषित स्नेह से सुचरिता को मानो दिन-रात जकड़कर बाँधे रखना चाहती थी।
पढ़ने-लिखने में उनकी लड़कियाँ उस ज़माने की सब विदुषियों से आगे निकल जाएँ, वरदासुंदरी की यही कामना थी। उनकी लड़कियों के साथ-साथ बड़ी होती हुई सुचरिता भी उन-सा ही कौशल प्राप्त कर ले, यह बात उनके लिए सुखकर नहीं थी। इसीलिए सुचरिता के स्कूल जाने के समय तरह-तरह के विघ्न खड़े होते ही रहते हैं।
इन सब विघ्नों के कारण को समझते हुए परेशबाबू ने सुचरिता का स्कूल छुड़ा दिया और स्वयं पढ़ाना आरंभ कर दिया। इतना ही नहीं, सुचरिता मानो विशेष रूप से उन्हीं की संगिनी हो गई। वह उसके साथ अनेक विषयों पर बातचीत करते, जहाँ जाते उसे साथ ले जाते, जब कहीं दूर रहने को मजबूर होते तब चिट्ठियों में अनेक प्रसंग उठाकर उनकी विस्तृत चर्चा किया करते। इसी ज्ञान के ारण सुचरिता का मन उसकी उम्र और अवस्था से कहीं आगे बढ़ गया था। उसके चहेरे पर और आचरण में जो एक सौम्य गंभीरता आ गई थी, उसे देखकर कोई उसे बालिका नहीं समझ सकता था; और लावण्य उम्र में उसके लगभग बराबर होने पर भी हर बात में सुचरिता को अपने से बड़ा मानती थी। यहाँ तक कि वरदासुंदरी भी चाहने पर भी किसी तरह उसकी अवज्ञा नहीं कर सकती थीं।
पाठक यह तो जान ही चुके हैं कि हरानबाबू बड़े उत्साही ब्रह्म थे। ब्रह्म समाज के सभी कामों में उनका सहयोग था- रात्रि-पाठशाला में वह शिक्षक थे, पत्र के संपादक थे, स्त्री-विद्यालय के सेक्रेटरी थे- वह मानो काम से थकते ही न थे। एक दिन यह युवक ब्रह्म-समाज में बहुत ऊँचा स्थान पाएगा, इसका सभी को विश्वास था। विशेष रूप से अंग्रेजी भाषा पर उनके अधिकार और दर्शन-शास्त्र में उनकी गहरी पैठ की ख्याति विद्यालय के छात्रों के द्वारा ब्रह्म-समाज के बाहर भी फैल गई थी।
इन्हीं सब कारणों से सुचरिता भी दूसरे ब्रह्म लोगों की तरह हरानबाबू को विशेष श्रध्दा से देखती थी। ढाका से कलकत्ता आते समय हरानबाबू से परिचय के लिए उसके मन में विशेष उत्सुकता भी थी।
अंत में इन्हीं सुप्रसिध्द हरानबाबू के साथ सुचरिता का न केवल परिचय हुआ, बल्कि थोड़े दिनों में ही सुचरिता के प्रति अपने हृदय के आकर्षण को प्रकट करने में भी हरानबाबू को संकोच न हुआ। उन्होंने स्पष्ट रूप से सुचरिता के सामने प्रणय-निवेदन किया हो ऐसी बात नहीं थी; किंतु सुचरिता की सब प्रकार की अपूर्णता पूरी करने, उसकी कमियों का संशोधन करके उसका उत्साह बढ़ाने, और उसकी उन्नति के साधन जुटाने का काम वह ऐसे मनोयोग से करने लगे कि सभी ने यह समझ लिया कि वह विशेष रूप से इस कन्या को अपने लिए उपयुक्त संगिनी के रूप में तैयार करना चाहते हैं
इस बात से हरानबाबू के प्रति वरदासुंदरी की पहले की श्रध्दा खत्म हो गई। वह उन्हें मामूली स्कूल-मास्टर मानकर उनकी अवज्ञा करने की कोशिश करने लगी।
जब सुचरिता ने भी यह जान लिया कि विख्यात हरानबाबू के चित्त पर उसने विजय पाई है, तब उसे मन-ही-मन भक्ति-मिश्रित गर्व का अनुभव हुआ।
प्रधान पक्ष की ओर से कोई प्रस्ताव न आने पर भी सबने जब यह तय कर लिया कि हरानबाबू के साथ ही सुचरिता का विवाह ठीक हो गया है, तब मन-ही-मन सुचरिता ने भी हामी भर दी थी; और हरानबाबू ने ब्रह्म-समाज के जन हितों के लिए अपना जीवन उत्सर्ग किया है, उनके उपयुक्त होने के लिए उसे कैसे ज्ञान और साधना की आवश्यकता होगी, उसके लिए यह विशेष उत्सुकता का विषय हो गया था। वह किसी मनुष्य से विवाह करने जा रही है, इसका हृदय से उसने अनुभव नहीं किया- मानो वह समूचे ब्रह्म-समाज के महान मंगल से ही विवाह करने जा रही हो, और बहुत-से ग्रंथ पढ़कर मंगल विद्वान हो गया हो तथा तत्व-ज्ञान के कारण बहुत गंभीर भी। विवाह की कल्पना उसके लिए मानो बहुत बड़ी जिम्मेदारी की घबराहट के कारण रचा हुआ एक पत्थर का किला हो गई। केवल सुख से रहने के लिए वह किला नहीं है बल्कि युध्द करने के लिए है- पारिवारिक नहीं, ऐतिहासिक है।
ऐसी स्थिति में ही विवाह हो जाता तो कम-से-कम कन्या-पक्ष के सभी लोग हमें बहुत बड़ा सौभाग्य मानकर ही ग्रहण करते। किंतु हरानबाबू जीवन के अपने ही बनाए हुए महान उत्तरदायित्व को इतना बड़ा करके देखते थे कि केवल अच्छा लगने के कारण आकर्षित होकर विवाह करने को वे अपने लिए योग्य नहीं मानते थे। ब्रह्म-समाज को इस विवाह के द्वारा कहाँ तक लाभ होगा, इस पर पूरा विचार किए बिना वह इस ओर प्रवृत्त नहीं हो सकते थे। इसीलिए उन्होंने इसी नज़रिए से सुचरिता की परीक्षा लेनी आरंभ कर दी।
इस प्रकार परीक्षा देनी आरंभ कर दी। हरानबाबू परेशबाबू के घर में सबके सुपरिचित हो गए। उनके अपने घर के लोग उन्हें पानू बाबू कहकर पुकारते हैं, इसलिए इस घर में भी उनका वही नाम चलने लगा। अब उन्हें केवल अंग्रेजी विद्या के भंडार, तत्व-ज्ञान के आधार, और ब्रह्म-समाज के मंगल के अवतार के ही रूप में देखना काफी न रहा-वह मनुष्य भी है यही परिचय सबसे निकटतम परिचय हो गया। इस तरह वह केवल श्रध्दा और सम्मान के अधिकारी न रहकर अच्छा और बुरा लगने के नियम के अधीन हो गए।
विस्मय की बात यह थी कि पहले दूर से हरानबाबू की जो प्रवृत्ति सुचरिता की श्रध्दा पाती थी, निकट आने पर वही अब उसे अखरने लगी। ब्रह्म-समाज में जो कुछ सत्य, मंगल और सुंदर है, हरानबाबू द्वारा उस सबका मानो पालक बनकर उसकी रक्षा का भार लेने पर उसे बहुत ही छोटे जान पड़े। मनुष्य का सत्य के साथ संबंध भक्ति का संबंध है- वह भक्ति स्वभावतया मनुष्य को विनयशील बना देती है। ऐसा न होने पर वह संबंध जहाँ मनुष्य को उध्दत और अहंकारी बनाता है, वहाँ मनुष्य उस सत्य की तुलना में अपने ओछेपन को बहुत स्पष्ट प्रकाशित कर देता है। सुचरिता इस मामले में मन-ही-मन परेशबाबू और हरान के अंतर की समीक्षा किए बिना न रह सकी। ब्रह्म-समाज से जो कुछ परेशबाबू ने पाया है उसके सम्मुख वह मानो सदा नत-मस्तक है, वह उसे लेकर ज़रा भी प्रगल्भ नहीं होते, उसकी गहराई में उन्होंने अपने जीवन को डुबा दिया है। परेशबाबू की शांत मुख-छवि देखने पर, जिस सत्य को हृदय में वह धारणा किए हैं उसी की महत्ता ऑंखों के सामने आती है। हरानबाबू किंतु वैसे हैं, उनमें ब्रह्मत्व नाम का एक तीव्र आत्म-प्रकाश बाकी सब-कुछ के ऊपर छा जाता है और उनकी प्रत्येक बात तथा उनके प्रत्येक काम में अशोभन ढंग से प्रकट हो जाता हैं इससे संप्रदाय में उनका सम्मान बढ़ा था; किंतु परेशबाबू की शिक्षा के प्रभाव से सुचरिता साम्प्रदायिक संकीर्णता में नहीं बँध सकी थी, इसलिए हरानबाबू की यह एकाकी ब्राह्मिकता उसकी स्वाभाविक मानवता को ठेस पहुँचाती थी। हरानबाबू समझते थे धर्म-साधना के कारण उनकी दृष्टि इतनी स्वच्छ व तेज़ हो गई है कि दूसरे सब लोगों का भला-बुरा और झूठ-सच वह सहज ही समझ सकते हैं। इसीलिए वह सदा हर किसी का विचार करने को तैयार रहते। विषई लोग पर निंदा और नुक्ताचीनी करते रहते हैं; लेकिन जो धार्मिक भाषा में यह काम करते हैं उनकी इस निंदा के साथ एक तरह का आध्यात्मिक अहंकार भी मिला रहता है जो संसार में बहुत बड़ा उपद्रव पैदा कर देता है। उस भाव को सुचरिता बिल्कुल नहीं सह सकती थी। उसके मन में ब्रह्म-संप्रदाय के बारे में कोई गर्व न हो ऐसा नहीं था; किंतु ब्रह्म-समाज में जो बड़े लोग हैं वे ब्रह्म होने के कारण ही एक विशेष शक्ति पाकर बड़े बने हैं, या कि ब्रह्म-समाज के बाहर जो चरित्र-भ्रष्ट लोग हैं वे ब्रह्म न होने के कारण ही विशेष रूप से शक्तिहीन होकर बिगड़ गए हैं, इस बात को लेकर हरानबाबू से सुचरिता की कई बार बहस हो जाती थी।
ब्रह्म-समाज के मंगल की आड़ लेकर विचार करने बैठकर हरानबाबू जब परेशबाबू को भी अपराधी ठहराने से नहीं चूकते थे तब सुचरिता मानो आहत नागिन-सी तिलमिला उठती थी। बंगाल में उन दिनों अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों में भगवद्गीता को लेकर बातचीत नहीं होती थी, लेकिन परेशबाबू सुचरिता के साथ कभी-कभी गीता पढ़ते थे, कालीसिंह का महाभारत भी उन्होंने सुचरिता को लगभग पूरा पढ़कर सुनाया था। हरानबाबू को यह अच्छा नहीं लगा। इन सब ग्रंथों को वह ब्रह्म-घरों से दूर देने के पक्षपाती थे। उन्होंने स्वयं भी ये सब नहीं पढ़े थे। रामायण, महाभारत, भगवद्गीता को वह हिंदुओं की किताबें कहकर दूर रखना चाहते थे। धर्म-शास्त्रों में एक मात्र बाइबल ही उनका मान्य ग्रंथ था। परेशबाबू अपनी शास्त्र-चर्चा में एवं छोटी-मोटी अनेक बातों में ब्रह्म-अब्रह्म की सीमा की रक्षा करते हुए नहीं चलते, यह बात हरान के मन में काँटें-सी चुभती थी। परेशबाबू के आचरण के बारे में प्रकट या मन-ही-मन कोई किसी तरह का दोषारोपण करने का साहस करे, सुचरिता यह नहीं सह सकती थी। हरानबाबू का ऐसा दु:साहस प्रकट हो जाने के कारण ही वह सुचरिता की नज़रों में गिर गए थे।
अनेक ऐसे ही कारणों से परेशबाबू के घर में हरानबाबू का मान दिन-प्रतिदिन घटता गया था। वरदासुंदरी भी ब्रह्म-अब्रह्म का भेद निबाहने में यद्यपि हरानबाबू से किसी मायने में कम उत्साही न थी, और उन्हें भी अनेक समय पति के आचरण के कारण लज्जा का बोध होता था, फिर भी हरानबाबू को वह आदर्श-पुरुष नहीं मानती थीं। हरानबाबू के हज़ारों दोष उनकी नज़रों में रहते थे।
हरानबाबू के साम्प्रादायिक उत्सह के अत्याचार और नीरस संकीर्णता से भीतर-ही-भीतर सुचरिता का मन प्रतिदिन उनसे विमुख होता जाता था, फिर भी उसका विवाह हरानबाबू से ही होगा, इस संबंध में किसी पक्ष के मन में कोई विघ्न या संदेह नहीं था। धर्म समाज की दुकान में जो व्यक्ति अपने ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में बहुत ऊँचे दाम का लेबिल लगाए रहता है, धीरे-धीरे अन्य लोग भी उसका महूँगापन स्वीकार कर लेते हैं। इसलिए न तो स्वयं हरानबाबू के, न और किसी के मन में इस बारे में कोई शंका थी कि अपने महान संकल्प के अनुसार चलते हुए अच्छी तरह परीक्षा करके सुचरिता को पसंद कर लेने पर हरानबाबू के निश्चय को सभी लोग सिर-ऑंखों पर नहीं लेंगे। और तो और, परेशबाबू ने भी हरानबाबू के दावे को अपने मन में अग्राह्य नहीं माना था। सभी लोग हरानबाबू को ब्रह्म-समाज का भावी नेतृत्व मानते थे; वह भी इसके विरुध्द न सोचकर हामी भर देते थे। इसीलिए उनके लिए भी विचारणीय बात यही थी कि हरानबाबू जैसे आदमी के लिए सुचरिता उपयुक्त होगी या नहीं; सुचरिता के लिए हरानबाबू कहाँ तक उपयुक्त होंगे, यह उन्होंने भी नहीं सोचा था।
इस विवाह के सिलसिले में और किसी ने जैसे सुचरिता की बात सोचना ज़रूरी नहीं समझा, वैसे ही अपनी बात सुचरिता ने भी नहीं सोची। ब्रह्म-समाज के और सब लोगों की तरह उसने भी सोच लिया था कि हरानबाबू जिस दिन कहेंगे, ''मैं इस कन्या को ग्रहण करने को तैयार हूँ'', वह उसी दिन इस विवाह के रूप में अपने महान कर्तव्य को स्वीकार कर लेगी।
सब ऐसे ही चलता जा रहा था। इसी मध्य उस दिन गोरा को उपलक्ष्य करके हरानबाबू के साथ सुचरिता का दो-चार कड़ी बातों का जो आदान-प्रदान हो गया, उसका सुर समझकर परेशबाबू के मन में शंका उठी कि सुचरिता शायद हरानबाबू पर यथेष्ट श्रध्दा नहीं करती, या शायद दोनों के स्वभाव में मेल न होने के कारण ऐसा है। इसीलिए जब वरदासुंदरी विवाह के लिए ज़ोर दे रही थीं तब परेशबाबू पहले की तरह हामी नहीं भर सके। उसी दिन वरदासुंदरी ने अकेले में सुचरिता को बुलाकर कहा, ''तुमने तो अपने पिता को सोच में डाल दिया है।''
सुनकर सुचरिता चौंक उठी। भूल से भी वह परेशबाबू के दु:ख का कारण ो, इससे अधिक कष्ट की बात उसके लिए और नहीं हो सकती। उसका चेहरा फीका पड़ गया। उसने पूछा, ''क्यों, मैंने क्या किया है?''
वरदासुंदरी, ''मैं क्या जानूँ, बेटी! उन्हें लगता है, पानू बाबू तुम्हें पसंद नहीं है। ब्रह्म-समाज के सभी लोग लोग जानते हैं कि पानू बाबू के साथ तुम्हारा विवाह एक तरह से पक्का हो चुका है- ऐसी हालत में अगर तुम.... ''
सुचरिता, ''लेकिन माँ, इस बारे में मैंने तो किसी से कोई बात ही नहीं की?''
सुचरिता का आश्चर्य करना स्वाभाविक ही था। वह हरानबाबू के व्यवहार से कई बार क्रोधित अवश्य हुई है; किंतु विवाह-प्रस्ताव के विरुध्द उसने कभी मन-ही-मन भी कुछ नहीं सोचा। इस विवाह से वह सुखी होगी या दु:खी होगी, उसके मन में यह सवाल भी कभी नहीं उठा, क्योंकि वह यही जानती थी कि सुख-दु:ख की दृष्टि से इस विवाह पर विचार नहीं किया जा सकता।
तब उसे ध्यान आया, परेशबाबू के सामने ही उस दिन उसने पानू बाबू के प्रति अपनी विरक्ति प्रकट की थी। इसी से वे उद्विग्न हुए हैं- यह सोचकर उसे दु:ख हुआ। ऐसा असंयम उससे पहले तो कभी नहीं हुआ था। उसने मन-ही-मन तय किया कि अब फिर ऐसी भूल कभी न होगी।
उधर उसी दिन हरानबाबू भी कुछ देर बाद फिर आ पहुँचे। उनका मन भी चंचल हो उठा था। इतने दिन से उनका विश्वास था कि मन-ही-मन सुचरिता उनकी पूजा करती है, और इस पूजा का अर्घ्य और भी संपूर्णता से उनको मिलता अगर अंध-संस्कार के कारण बूढ़े परेशबाबू के प्रति सुचरिता की अंध-भक्ति न होती। परेशबाबू के जीवन में अनक कमियाँ दीखने पर भी सुचरिता मानो उन्हें देवता ही समझती है, इस पर मन-ही-मन हरानबाबू को हँसी भी आती थी तथा खीझ भी होती थी; फिर भी उन्हें आशा थी कि यथा समय मौका पाकर वह इस अत्यधिक भक्ति को ठीक राह पर डाल सकेंगे।
जो हो, जब तक हरानबाबू अपने को सुचरिता की भक्ति का पात्र समझते रहे तब तक उसके छोटे-छोटे कामों और आचरण की भी केवल समालोचन करते रहे और सदा उसे उपदेश देकर अपने ढंग से गढ़ने की कोशिश करते रहे- विवाह के बारे में कोई साफ बात उन्होंने नहीं की। उस दिन सुचरिता की दो-एक बातें सुनकर सहसा जब उनकी समझ में आ गया कि वह उन पर विचार भी करने लगी है, तब से उनके लिए अपना अविचल गांभीर्य और स्थिरता बनाए रखना दूभर हो गया। इधर सुचरिता से दो-एक बार जो उनकी भेंट हुई है उसमें वह पहले की तरह अपने गौरव को स्वयं अनुभव या प्रकाशित नहीं कर सके हैं, बल्कि सुचरिता के साथ उनकी बातचीत और व्यवहार में कुछ झगड़े का-सा भाव दीख पड़ता रहा है। इसे लेकर वह अकारण ही, या छोटे-छोटे कारण ढूँढ़कर नुक्ताचीनी करते रहे हैं। इस मामले में भी सुचरिता की अविचल उदासीनता से मन-ही-मन उन्हें हार माननी पड़ती है, और घर लौटकर अपनी मान-हानि पर वह पछताते रहे हैं।
जो हो, सुचरिता की श्रध्दाहीनता के दो-एक प्रकट लक्षण देखकर हरानबाबू के लिए अब बहुत समय स्थिर होकर उसके परीक्षक के आसन पर बैठे रहना मुश्किल हो गया। इससे पहले परेशबाबू के घर वह यों बार-बार नहीं आते-जाते थे। कोई यह न समझे कि सुचरिता के प्रेम में वह चंचल हो उठे हैं, इस आशंका से वह सप्ताह में केवल एक बार आते थे और अपनी गरिमा में ऐसे मंडित रहते थे मानो सुचरिता उनकी छात्र हो। लेकिन इधर कुछ दिन से न जाने क्या हुआ है कि कोई भी छोटा-मोटा बहाना लेकर हरानबाबू दिन में एक से अधिक बार भी आए हैं, और उससे भी छोटा बहाना ढूँढ़कर सुचरिता के करीब आकर बातें करने की चेष्टा करते रहे हैं। इससे परेशबाबू को भी दोनों अच्छी तरह पर्यवेक्षण करने का अवसर मिल गया है, और इससे उनका संदेह क्रमश: दृढ़ ही होता गया है।
आज हरानबाबू के आते ही उन्हें अलग बुलाकर वरदासुंदरी ने पूछा, ''अच्छा पानू बाबू, सभी लोग कहते हैं कि हमारी सुचरिता से आप विवाह करेंगे लेकिन आपके मुँह से हमने तो कभी कोई बात नहीं सुनी। सचमुच अगर आपका ऐसा अभिप्राय हो तो आप साफ-साफ कह क्यों नहीं देते?''
अब हरानबाबू और देर नहीं कर सके। अब सुचरिता को वह किसी तरह बंधन में कर लें तभी निश्चिंत होंगे- उनके प्रति उसकी भक्ति की, और ब्रह्म-समाज के हित के लिए उसकी योग्यता की परीक्षा फिर कभी की जा सकेगी। वरदासुंदरी से उन्होंने कहा, ''कहने को अनावश्यक मानकर ही मैंने नहीं कहा। सुचरिता के अठारह वर्ष पूरे होने की ही इंतज़ार कर रहा था।''
वरदासुंदरी बोलीं, ''आप तो ज़रूरत से ज्यादा सोचते हैं। हम लोग तो चौदह वर्ष की उम्र विवाह के लिए काफी समझते हैं।''
उस दिन परेशबाबू चाय के समस्त सुचरिता का व्यवहार देखकर चकित रह गए। बहुत दिनों से सुचरिता के हरानबाबू के लिए इतना जतन और आग्रह नहीं दिखाया था। यहाँ तक कि वह जब जाने को उठे तब लावण्य की शिल्पकारी का एक नया नमूना दिखाने की बात कहकर सुचरिता ने उनसे और कुछ देर बैठने का अनरोध किया।
परेशबाबू निश्चिंत हो गए। उन्होंने मान लिया कि उनसे समझने में भूल हुई थी। बल्कि मन-ही-मन वह थोड़ा हँसे भी। उन्होंने सोचा कि दोनों में कोई हल्का-फुल्का प्रणय-कलह हुआ था और अब फिर से सुलह हो गई है।
विदा होते समय उस दिन हरानबाबू ने परेशबाबू के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रख दिया। उन्होंने यह भी जता दिया कि इस संबंध में और देर करने की उनकी मंशा नहीं है।
कुछ अचरज करते हुए परेशबाबू ने कहा, ''लेकिन आपका तो मत है कि अठारह वर्ष से कम उम्र की लड़की का विवाह करना अनुचित है? बल्कि आपने तो अखबारों में भी ऐसा लिखा है।''
हरानबाबू बोले, ''सुचरिता के बारे में वह शर्त लागू नहीं होती। क्योंकि जैसा उसका मन विकसित है वैसा उससे कहीं अधिक उम्र की लड़कियों में भी नहीं पाया जाता।''
शांत दृढ़ता के साथ परेशबाबू ने कहा, ''वह होगा, पानू बाबू! लेकिन जब कोई हानि नहीं दीख पड़ती तब आपके मन के अनुसार राधारानी की उम्र पूरी होने तक प्रतीक्षा करना ही प्रथम कर्तव्य है।
अपनी दुर्बलता से साक्षात हो जाने पर लज्जित हरानबाबू ने कहा, ''वह अवश्य ही कर्तव्य है। मेरी इतनी इच्छा है कि एक दिन सबको बुलाकर भगवान का नाम लेकर संबंध पक्का कर दिया जाय।''
परेशबाबू ने कहा, ''यह तो बहुत अच्छा प्रस्ताव है।''
गोरा
6
रवीन्दनाथ टैगोर
गोरा ने दो-तीन घंटे की नींद के बाद जागकर देखा कि विनय पास ही सोया हुआ है, देखकर उसका हृदय आनंद से भर उठा। कोई प्रिय वस्तु सपने में खोकर, जागकर यह देखे कि वह वस्तु खोई नहीं है, तब मन को जैसा संतोष होता है वैसा ही गोरा को हुआ। गोरा का ज़ीवन विनय को छोड़ देने से कितना अधूरा हो जाता, विनय को पास ही देखकर आज उसने इस बात का अनुभव किया। इसी आनंद की लहर में गोरा ने विनय को उसका सिर हिलाकर जगा दिया और कहा, ''चलो, एक काम है।''
गोरा का रोज सबेरे का एक नियमबध्द काम था। पड़ोस के निम्न श्रेणी के लोगों के घर वह जाता था। उसकी मदद करने या उन्हें उपदेश देने के लिए नहीं, सिर्फ उन्हें देखने ही जाता था। पढ़े-लिखे अन्य लोगों के साथ उनका ऐसा मेल-जोल कतई नहीं था। गोरा को वे लोग 'दादा ठाकुर' कहते थे और कौड़ियाँ-लगे हुक्के से उसका स्वागत करते थे। केवल इन लोगों का आतिथ्य स्वीकार करने के लिए ही गोरा ने जबर्दस्ती तम्बाकू पीना शुरू कर दिया था।
नंद इन लोगों में गोरा का खास भक्त था। बढ़ई का लड़का था नंद, उम्र लगभग बाईस। बाप की दुकान में वह लकड़ी के बक्स तैयार किया करता था। मैदान में शिकार खेलने वालों में नंद के बराबर बंदूक का निशाना साधने वाला कोई नहीं था। क्रिकेट के खेल में गेंद फेंकने में भी वह सबसे अव्वल था।
अपनी शिकार और क्रिकेट की टोलियों में गोरा ने भद्र घरों के विद्यार्थियों के साथ इन सब बढ़ई-लुहार लड़को को भी मिला लिया था। इस मिले-जुले गुट में नंद सब तरह के खेलों और कसरत में सबसे आगे था। भद्र विद्यार्थियों में कोई कोई उससे ईष्या भी करते थे, पर गोरा के शासन में सभी को उसे सरदार मानने को बाध्य होना पड़ता था।
कुदाल लगने से पैर कट जाने के कारण यही नंद पिछले कुछ दिन से खेल के मैदान में नहीं आ रहा था। उन दिनों गोरा विनय की बात को लेकर बेचैन था, इसलिए वह नंद के घर नहीं जा सका था। किंतु आज सबेरे ही वह विनय को साथ लेकर बढ़ई-टोले में जा पहुँचा।
नंद मर गया! ऐसी शक्ति, ऐसा तेज, ऐसा स्वास्थ्य, कर्मठ, इतनी कम उम्र-और ऐसा नंद आज सबेरे मर गया। गोरा अपने सारे शरीर को कड़ा करके किसी तरह सँभलकर खड़ा रह सका। नंद एक मामूली बढ़ई का लड़का था- उसके न रहने से संसार की रफ्तार में क्षण-भर की जो बाधा पड़ेगी उसे बहुत थोड़े ही लोग देख सकेंगे- लेकिन आज गोरा को नंद की मृत्यु असहनीय रूप से असमय और असंभव जान पड़ रही थी। गोरा ने तो देखा था कि उसमें कितना आत्मबल है- इतने और लोग जीते हैं लेकिन उस-जैसा प्राणवान तो कोई नहीं दीखता।
कैसे मृत्यु हुई, यह पूछने पर मालूम हुआ कि उसे धनुष्टंकार हो गया था। नंद के बाप ने डॉक्टर को बुलाना चाहा था, किंतु नंद की माँ ने ज़ोर देकर कहा था कि उसके लड़के को भूत लग गया है। ओझा सारी रात मंत्र पढ़कर और मारकर उसे झाड़ते रहे। बेहोश होने से पहले नंद ने गोरा को खबर देने का अनुरोध किया था, लेकिन गोरा आकर कहीं डॉक्टरी इलाज के लिए जिद न करने लगे, इस भय से किसी को नंद की माँ ने गोरा तक खबर पहुँचाने जाने नहीं दिया।
विनय ने वहाँ से लौटते समय कहा, ''कैसी अज्ञानता है! और उसकी कैसी भयानक सजा!''
गोरा ने कहा, ''इस अज्ञान को एक तरफ करके और स्वयं को इससे बाहर मानकर अपने को तसल्ली मत दो, विनय! यह अज्ञानता कितनी बड़ी है, और उसकी सजा भी कितनी भीषण है, यह अगर तुम साफ-साफ देख सकते तो ऐसे आक्षेप का एक वाक्य कहकर पल्ला झाड़ सारे मामले से तटस्थ हो जाने की चेष्टा न करते!''
मन के आवेग के साथ क्रमश: गोरा के कदम भी तेज़ होते गए। विनय उसकी बात का कोई उत्तर न देकर उसके बराबर कदम रखता हुआ साथ चलने की कोशिश में लग गया।
गोरा कहता रहा, ''सारी जाति ने अंधता के हाथों अपनी अक्ल बेच दी है। देवता, भूत-प्रेत, उल्लू, छींक, बृहस्पतिवार, बिल्ली-किस-किसका डर है, इसका कोई अंत नहीं हैं सत्य के साथ जगत में कैसे मर्दानगी से जूझना होता है, यह ये लोग कैसे जानेंगे? और हम-तुम जैसे समझ लेते हैं कि हम लोगों ने दो-चार पन्ने विज्ञान पढ़ लिया है इसलिए हम इनके गुट में नहीं है। लेकिन यह निश्चित जानों, चारों ओर फैली हुई हीनता की जकड़ से थोड़े-से लोग किताबी विद्या के सहारे कभी अपने को बचाकर नहीं रह सकते। ये लोग जब तक दुनिया के चलने के नियम के आधिपत्य में विश्वास नहीं करेंगे, जब तक लोग मिथ्याचार में जकड़े रहेंगे, तब तक हमारे शिक्षित लोग भी इसके प्रभाव से बच नहीं सकते।''
विनय ने कहा, ''शिक्षित लोग यदि बच भी जाएँगे तो क्या! शिक्षित हैं ही कितने? पढ़े-लिखों को उन्नत करने के लिए ही दूसरों को उन्नत होना होगा, ऐसी बात नहीं हैं बल्कि दूसरों को उन्नत करने में ही पढ़े-लिखों की शिक्षा का सदुपयोग है।''
विनय का हाथ पकड़कर गोरा ने कहा, ''ठीक यही बात तो मैं कहना चाहता हूँ। लेकिन तुम लोग अपनी भद्रता और शिक्षा के अभिमान में साधारण लोगों से अलग होकर मजे में निश्चिंत हो सकते हो, यह मैंने अक्सर देखा है; इसीलिए तुम्हें मैं सावधान कर देना चाहता हूँ कि नीचे के लोगों का निस्तार किए बिना यथार्थ में तुम्हारा निस्तार कभी नहीं होगा। नाव के तल में छेद हो तो नाव का मस्तूल कभी अकड़कर नहीं चल सकता, चाहे वह कितना ही ऊँचा क्यों न हो।''
निरुत्तर होकर विनय गोरा के साथ चलता रहा।
गोरा थोड़ी देर चुप रहकर फिर बोल उठा, ''नहीं विनय, इसे मैं किसी तरह सहज भाव से बर्दाश्त नहीं कर कर सकता! जो ओझा आकर मेरे नंद को मार गया है, उसकी मार मुझ पर पड़ रही है, सारे देश पर पड़ रही है। इन सब बातों को मैं अलग-अलग, छोटी-छोटी घटनाओं के रूप में किसी तरह नहीं देख पाता।''
फिर भी विनय को निरुत्तर देखकर गोरा भड़क उठा, ''विनय, मैं यह खूब समझता हूँ कि मन-ही-मन तुम क्या सोचते हो। तुम सोचते हो, यह जो सब अंधविश्वास और झूठ भारतवर्ष की छाती पर सवार है, इसका बोझ हिमालय के बोझ की तरह अडिग है, इसे कौन सरका सकता है, लेकिन मैं ऐसे नहीं सोचता, सोचता तो बचता नहीं। जो कुछ भी हमारे देश को चोट पहुँचाता है उसका प्रतिकार ज़रूर है, फिर वह चाहे कितनी ही प्रबल क्यों न हो। और प्रतिकार एकमात्र हमारे ही हाथ में है, ऐसा मेरा अटल विश्वास है; तभी मैं चारों ओर फैले इस दु:ख-अपमान-दुर्गति को सह सकता हूँ।''
विनय ने कहा, ''देश-व्यापी इतनी बड़ी दुर्गति के सामने अपने विश्वास को दृढ़ रखने का मुझे तो साहस ही नहीं होता।''
गोरा ने कहा, ''अंधेरा विस्तृत होता है और दीए की शिखा छोटी। पर इतने बड़े अंधकार के बजाय इतनी छोटी-सी शिखा पर ही मैं अधिक आस्था रखता हूँ। दुर्गति चिरस्थाई हो सकती है, किसी तरह भी यह बात मैं नहीं मान सकता। सारे विश्व की ज्ञान-शक्ति, प्राण-शक्ति उस पर भीतर और बाहर से बराबर चोट कर रही है। हम लोग छोटे ही क्यों न हों, उसी ज्ञान और प्राण के गुट में जा शामिल होगे। वहाँ खड़े-खड़े यदि मर भी जाएँ तो मन में यह निश्चय जानकर मरें कि हमारे गुट की जीत होगी। देश की जड़ता को ही सबसे बड़ा और प्रबल मानकर उसी का रोना लेकर पड़े नहीं रहेंगे। मैं तो कहता हूँ, संसार में शैतान के ऊपर श्रध्दा रखना और भूत से डरना एक बराबर है; दोनों का फल यही होता है कि रोग की सही चिकित्सा की ओर प्रवृत्ति ही नहीं होती। जैसा झूठा डर वैसा ही झूठा ओझा; दोनों ही हमें मारते रहते हैं। विनय, तुमसे मैंने बार-बार कहा है, इस बात को एक क्षण-भर के लिए भी, कभी सपने में भी, असम्भव मत समझो कि हमारा यह देश मुक्त होगा ही नहीं; अज्ञान उसे हमेश जकड़े नहीं रहेगा तथा यह अंग्रेज भी उसे अपनी व्यापार की नौका के पीछे-पीछे साँकल से बाँधे हुए नहीं ले जा सकेगा। मन में यही बात दृढ़ रखकर हमेशा तैयार रहना होगा। भारतवर्ष की स्वाधीनता के लिए भविष्य में किसी एक दिन की लड़ाई शुरू होगी, तुम लोग इसी पर अपनी किस्मत छोड़कर निश्चिंत बैठे हो। किंतु मैं कहता हूँ, लड़ाई आरंभ हो गई है- हर क्षण हो रही है; ऐसे समय में भी अगर तुम निश्चिंत रह सकते हो तो इससे बड़ी का पुरुषता और नहीं हो सकती।''
विनय ने कहा, ''देखो गोरा, तुममें और अपने में एक अंतर मुझे यह दीखता है, कि हमारे देश में प्रतिदिन राह चलते जो कुछ होता रहता है, और बहुत दिन से जो होता चला आ रहा है, तुम उसे मानो रोज नई दृष्टि से देख पाते हो। जैसे हम साँस लेने को भूल रहते हैं, हमारे लिए यह सब भी वैसा ही है- न हमें आशा देता है, न हताश करता है- उसमें हमें न आनंद है, न दु:ख है- दिन पर दिन शून्य भाव से बीतते जाते हैं और इस सबके मध्य हम अपना या अपने देश का अनुभव ही नहीं करते।''
गोरा का मुँह सहसा लाल हो गया और माथे की नसें तन गईं.... दोनों हाथों की मुट्ठियाँ भींचकर वह रास्ते के बीच जाती हुई दो घोड़ों वाली गाड़ी के पीछे दौड़ा और राह चलते लोगों को अपनी गरज से चौंकाता हुआ चिल्लाया, ''गाड़ी रोको!'' भारी घड़ी-चेन पहने हुए एक बाबू गाड़ी हाँक रहे थे, उन्होंने एक बार पीछे मुड़कर देखा और दोनों घोड़ों को चाबुक मारकर क्षण-भर में भागकर दूर निकल गई।
एक बूढ़ा मुसलमान सिर पर फल-सब्जी, अण्डा, रोटी, मक्खन आदि खाने-पीने की चीज़ें को लेकर किसी अंग्रेज प्रभु की रसोई की ओर चला जा रहा था। चेन पहने हुए बाबू ने उसे गाड़ी के आगे से हट जाने की हाँक भी लगाई थी, पर बूढ़े के न सुन पाने से गाड़ी उसके ऊपर से निकल गई थी। बूढ़े के प्राण तो बच गए, लेकिन टोकरी की सब चीजें लुढ़ककर सड़क पर बिखर गईं। क्रुध्द बाबू ने कोच-बक्स से 'डैम सूअर!' की गाली देकर चाबुक उठाया और तड़क से बूढ़े के सिर पर जमा दिया। उसके माथे पर लहू की लाल रेखा खिंच गई। बूढ़े ने 'अल्लाह!' कहकर लंबी साँस ली और चीजें बच गई थी उन्हें उठा-उठाकर टोकरी में रखने लगा। गोरा भी मुड़कर बिखरी हुई चीजें बीन-बीनकर उसकी टोकरी में रखने लगा। बूढ़ा मुसलमान एक अच्छे-भले भद्र पथिक का ऐसा व्यवहार देखकर सकुचाते हुए बोला, ''आप क्यों कष्ट करते हैं बाबू- अब ये किसी काम नहीं आएँगी।''
यह गोरा भी जानता था कि जो वह कर रहा है अनावश्यक है, और यह भी जानता था कि जिसकी सहायता की जा रही है उसे संकोच हो रहा है। वास्तव में सहायता के उस कार्य का कोई विशेष मूल्य नहीं था। लेकिन एक भद्रजन ने जिसका अपमान किया है, उसी अपमानित के साथ एक दूसरा भद्रजन अपने को मिलाकर धर्म की क्षुब्ध व्यवस्था में सामंजस्य लाने का प्रयत्न कर रहा है, यह बात राहगीर लोगों के लिए समझनी असंभव थी। टोकरी भर जाने पर गोरा ने बूढ़े से कहा, ''तुमसे तो इतना नुकसान सहा नहीं जाएगा। चलो, हमारे घर चलो, पूरे दाम चुकाकर हम सब ले लेंगे। लेकिन बाबा, एक बात तुमसे कहूँ- तुमने जो यह अपमान बिना कुछ कहे सह लिया, उसके लिए अल्लाह तुम्हें माफ नहीं करेंगे।''
मुसलमान ने कहा, ''कुसूर जिसका है, अल्लाह उसको सज़ा देंगे मुझे क्यों देंगे?''
गोरा ने कहा, ''जो अन्याय सहता है, वह भी दोषी है। क्योंकि दुनिया में अन्याय को बढ़ावा देता है। तुम मेरी बात समझोगे नहीं, पर याद रखो, दुष्ट के साथ भलमनसाहत धर्म नहीं है; उससे दुष्ट लोगों का हौसला बढ़ता है। तुम्हारे मुहम्मद साहब इस बात को समझते थे, तभी भलेमानस के ढंग से उन्होंने धर्म-प्रचार नहीं किया।''
गोरा का घर वहाँ से नजदीक नहीं था, इसलिए उस मुसलमान को गोरा विनय के घर ले गया। विनय की मेज के दराज के सामने खड़े होकर वह विनय से बोला, ''पैसा निकालो!''
विनय ने कहा, ''उतावले क्यों होते हो, तुम बैठो तो, मैं दे रहा हूँ!''
लेकिन एकाएक चाबी नहीं मिल सकी। अधीर होकर गोरा ने दराज को झटका दिया तो वह खुल गया।
दराज के खुलते ही परेशबाबू के घर के लोगों का एक बड़ा फोटो सबसे पहले दिखाई पड़ा। उसे विनय ने अपने मित्र सतीश से प्राप्त किया था।
गोरा ने उस मुसलमान को पैसे देकर विदा कर दिया। किंतु फोटोग्राफ के बारे में कोई बात नहीं की। इस विषय में गोरा के चुप लगा जाने से विनय भी कुछ बात नहीं कह सका, हालाँकि दो-चार बातें हो जाने से विनय का मन स्वस्थ हो जाता।
गोरा ने सहसा कहा, ''मैं चलता हूँ।''
विनय ने कहा, ''वाह, अकेले कैसे चल दिए? मुझे माँ ने तो तुम्हारे यहाँ खाने को बुलाया है। चलो, मैं भी चलता हूँ।''
दोनों सड़क पर आ गए। किंतु गोरा ने रास्ते-भर और कोई बात नहीं की। मेज के दराज में वह फोटो देखकर फिर एक बार गोरा को याद हो आया था कि विनय के चित्त की एक मुख्य धारा एक ऐस दिशा में बह रही है जिससे गोरा के जीवन का कोई संपर्क नहीं है। आगे चलकर ऐसा हो सकता है कि बंधुत्व की स्नेह-गंगा सूख जाय और नदी का सारा प्रवाह इस दूसरी ओर बहने लगे, यह छुपी आशंका गोरा के हृदय की गहराई में कहीं एक बोझ-सी बन गई। हर काम और सोच-विचार में अब तक दोनों बंधुओं के बीच कोई रुकावट नहीं थी, लेकिन अब यह स्थिति बनाए रखना कठिन हो गया है- एक बिंदु पर विनय स्वतंत्र हो गया है।
विनय यह समझ गय कि गोरा क्यों चुप लगा गया है। लेकिन नीरवता के इस बाँध को ज़बरदस्ती तोड़ने में उसे संकोच हुआ। जिस जगह गोरा का मन आकार उलझ जाता हैं वहाँ सचमुच एक रुकावट है, यह विनय ने स्वयं भी अनुभव किया।
उन्होंने घर पहुँचते ही देखा कि महिम रास्ते की ओर देखते हुए दरवाज़े पर खड़े हैं। उन्होंने दोनों बन्धुओं को देखकर कहा, ''मामला क्या है कल की रात तो तुम दोनों ने सोए बिना ही काट दी- मैं तो समझ रहा था, शायद दोनों आराम से कहीं फुटपाथ पर पड़े सो रहे होगे। कितनी देर हो गइ है! जाओ विनय, जाकर नहाओ!''
विनय को नहाने के लिए भेजकर महिम गोरा की ओर मुड़े। बोले, ''देखो गोरा, तुमसे जो बात कही थी उस पर ज़रा सोचकर देखो। विनय भी अगर तुम्हें अनाचारी जान पड़ता है, तो फिर आजकल के समान में हिंदू पात्र मिलेगा कहाँ? और कोरा हिंदूपन होने से भी तो नहीं चलेगा, लिखाई-पढ़ाई भी तो चाहिए। लिखाई-पढ़ाई और हिंदूपन मिलने से जो चीज़ बनती है, वह हमारे हिंदू मत से ठीक शास्त्रीय चीज़ तो नहीं होती- लेकिन ऐसी बुरी चीज़ भी नहीं होती। अगर तुम्हारे लड़की होती तब इस मामले में तुम्हारी राय मेरी राय से बिल्कुल मिल जाती!''
गोरा ने कहा, ''तो अच्छा ही है- मेरे खयाल में विनय को कोई आपत्ति न होगी।''
महिम ने कहा, ''सुनो गोरा! विनय की आपत्ति की बात कौन सोच रहा है! तुम्हारी आपत्ति से तो पहले निबट लें। एक बार तुम अपने मुँह से विनय से अनुरोध करो, और मुझे कुछ नहीं चाहिए। भले ही उससे फल न हो, तो न हो।''
गोरा बोला, ''अच्छा''
मन-ही-मन महिम ने कहा- अब तो मेहरा की दुकान से संदेश और गयला की दुकान से दही-रबड़ी की फरमाइश की जा सकेगी!''
गोरा ने मौका पाकर विनय से कहा, ''शशिमुखी के साथ तुम्हारे विवाह के लिए ददा दबाव डाल रहे हैं। तुम्हारी राय है?''
विनय ने पूछा, ''तुम्हारी क्या राय है, पहले यह बताओ!''
गोरा, ''मैं तो कहता हूँ, बुरा क्या है।''
विनय, ''पहले तो तुम बुरा ही कहते थे। हम दोनों में से कोई ब्याह नहीं करेगा, यह तो एक तरह से तय हो चुका था।''
गोरा बोला, ''अब यह तय समझो कि तुम ब्याह करोगे और मैं नहीं करूँगा।''
विनय ने कहा, ''क्यों, एक ही यात्रा के अलग-अलग पड़ाव क्यों?''
गोरा, '''अलग पड़ाव होने के भय से ही तो यह व्यवस्था की जा रही है। किसी को विधाता यों ही ज्यादा बोझ से लाद देते हैं, और किसी को बिल्कुल सहज भार-मुक्त। ऐसे असम प्राणियों को एक साथ जोतकर चलाना हो तो इनमें से एक बाहर से बोझ लादकर दोनों का बोझ बराबर करना पड़ता है। तुम विवाह करके कुछ जिम्मेदारी से लद जाओगे तो फिर हम तुम एक-सी चाल से चल सकेंगे!''
कुछ हँसकर विनय ने कहा, ''अगर यहीं मंशा है तो ठीक है, बाट उसी पलड़े में डाल दो!''
गोरा ने पूछा, ''बाट के बारे में तो कोई आपत्ति नहीं है?''
विनय, ''भार बराबर करने के लिए तो हाथ पड़ जाय उसी से काम चल सकता है- वह पत्थर हो तो भी चल सकता है, ढेला हो तो भी!''
इस विवाह के प्रस्ताव में गोरा ने क्यों उत्साह दिखाया है, यह समझने में विनय को देर न लगी। गोरा को आशंका हुई थी कि विनय कहीं परेशबाबू के परिवार मे विवाह न कर ले, यह समझकर मन-ही-मन विनय हँसा। ऐसे विवाह का संकल्प तो क्या, संभावना भी क्षण-भर के लिए उसके मन में उदित नहीं हुई। वह तो हो ही नहीं सकता! जो भी हो, शशिमुखी से विवाह हो जाने पर ऐसी आशंका जड़-मूल से उखड़ जाएगी, और वैसा होने पर दोनों का बंधु-भाव फिर स्वस्थ और निर्बाध हो जाएगा; और परेशबाबू के परिवार से मिलने-जुलने में भी किसी ओर से उसे संकोच करने का कोई कारण न करेगा, यही सोचकर शशिमुखी से विवाह के लिए उसने सहज ही सम्मति दे दी।
दोपहर के भोजन के बाद रात की नींद की कमी पूरी करते-करते दिन बीत गया। दोनों बंधुओं में दिन-भर और कोई बात नहीं हुई। पर साँझ को, जब सारे जगत पर अंधकार का पर्दा पड़ जाता है तब मानो बंधुओं के मन का पर्दा उठ जाता है, ऐसे झुटपुटे के समय छत पर बैठे-बैठे विनय ने सीधे आकाश की ओर ताकते हुए कहा, ''देखो गोरा, मैं तुम्हें एक बात कहना चाहता हूँ। मुझे लगता है, हमारे स्वदेश-प्रेम में एक बहुत बड़ा अधूरापन है। हम लोग भारतवर्ष को आधा ही करके देखते हैं।''
गोरा ने पूछा ''वह कैसे?''
विनय, ''भारतवर्ष को हम केवल पुरुषों का देश मानकर देखते हैं, स्त्रियों को बिल्कुल देखते ही नहीं।''
गोरा, ''तो तुम अंग्रेजों की तरह शायद घर में और बाहर, जल-थल और आकाश में, आहार-विहार और कर्म में, सब जगह स्त्रियों को देखना चाहते हो? उसका नतीजा यही होगा कि स्त्रियों को पुरुषों से अधिक मानना होगा- उससे भी दृष्टि में सामंजस्य नहीं रहेगा।''
विनय, ''नहीं-नहीं, मेरी बात को ऐसे उड़ा देने से तो नहीं चलेगा। अंग्रेजों की तरह देखने या न देखने का सवाल कहाँ उठता है? मैं तो यह कहता हूँ कि इतना तो सत्य है कि स्वदेश में स्त्रियों के अंश को हम लोगों ने अपने चिंतन में उचित स्थान नहीं दिया है। तुम्हारी ही बात लो। स्त्रियों के बारे में तुम कभी क्षण-भर भी नहीं सोचते- तुम्हारी राय में देश मानो नारीहीन ही है। ऐसा समझना कभी सत्य समझना नहीं हो सकता।''
गोरा, ''मैंने अपनी माँ को जब देखा है, जाना है, तब अपने देश की सभी स्त्रियों को एक उसी रूप में देख और जान लिया है।''
विनय, ''यह तो अपने को भुलावा देने के लिए तुम आलंकारिक बात कह रहे हो। घर के काम-काज के बीच हम घर की स्त्रियों को अति-परिचित भाव से देखते हैं, उससे ही वास्तविक देखना नहीं होता। गृहस्थी के काम-काज से बाहर यदि हमारे देश की स्त्रियों को हम देख पाते तो स्वदेश के सौंदर्य और संपूर्णता को देखते। देश की एक ऐसी छवि दिखाई देती जिसके लिए प्राणोत्सर्ग आसान होता- कम-से-कम यह मानने की भूल हमसे कभी न होती कि देश में स्त्रियाँ मानो कहीं हैं ही नहीं। मैं जानता हूँ कि अंग्रेजों के समाज से अपनी तुलना करने लगते ही तुम आग-बबूला हो उठोगे- वह मैं करना भी नहीं चाहता। यह भी मैं नहीं जानता कि ठीक किस हद तक या किस ढंग से हमारे समाज में स्त्रियों के आगे आने से उनकी मर्यादा का उल्लंघन नहीं होगा। लेकिन यह हमें मानना होगा कि स्त्रियों के छिपे रहने से हमारा स्वदेश हमारे लिए आधा ही सच है- यह हमारे हृदय को पूरा या पूरी शक्ति नहीं दे सकता।''
गोरा, ''लेकिन तुम्हें हठात् यह बात इस समय कैसे सूझ गई?''
विनय, 'हाँ, अभी ही सूझी है और हठात् सूझी है। इतना बड़ा सत्य मैं इतने दिन से नहीं जानता था। अब जान सका हूँ, अपने को इसके लिए भाग्यवान् समझता हूँ। जैसे हम लोग किसान को केवल उसकी खेती के, या जुलाहे को केवल उसकी बुनाई के बीच देखते हैं, इसीलिए उन्हें छोटी जाति मानकर उनकी अवज्ञा करते हैं, वे हमें पूरी दीखती ही नहीं, और इस छोटे-बड़े के भेद के कारण ही देश कमज़ोर हुआ है। ठीक उसी तरह देश की स्त्रियों को भी केवल चौका-बासन और कुटाई-पिसाई से घिरी हुई देखकर हम स्त्रियों को केवल 'मादा' मानकर उन्हें ओछी नज़र से देखते हैं.... इससे हमारा सारा देश अधूरा हो जाता है।''
गोरा, ''जैसे दिन और रात, पूर्ण दिवस के दो भाग हैं, वैसे ही पुरुष और स्त्री समाज के दो अंश हैं। समाज की स्वाभाविक अवस्था में स्त्री रात की तरह ओझल ही रहती है- उसका सारा कार्य गूढ़ और निभृत है। अपने कार्य के हिसाब में हम रात को नहीं गिनते। लेकिन न गिनने से ही उसका जो गंभीर कार्य है उसमें से कुछ भी घट नहीं जाता। वह गोपन-विश्राम के बहाने क्षति-पूर्ति करती है, हमारे पोषण में सहायक होती है। जहाँ समाज की व्यवस्था अस्वाभाविक है वहाँ ज़बरदस्ती रात को दिन बनाया जाता है- गैस जलाकर मशीनें चलाई जाती हैं, बत्तियाँ जलाकर रात-भर नाच-गाना जमता है। उसका परिणाम क्या होता है? यही कि रात का जो स्वाभाविक अलक्षित काम है वह नष्ट हो जता है, अनिद्रा से थकान बढ़ती जाती है, क्षति-पूर्ति नहीं हो पाती, इंसान उन्मादी हो उठता है। ऐसे ही स्त्रियों को भी यदि हम खुले कर्म-क्षेत्र में खींचकर ले आएँ तो उससे उनके निगूढ़ कर्म की अवस्था नष्ट हो जाती है-उससे समाज का स्वास्थ्य और शांति नष्ट होती है, समाज पर एक पागलपन सवार हो जाता है। उस पागलपन से कभी शक्ति का भ्रम हो सकता है, किंतु यह शक्ति विनाश करने की शक्ति है। शक्ति के दो अंश होते हैं- एक व्यक्त और एक अव्यक्त; एक उद्योग और एक विश्राम; एक प्रयोग और एक संवरण। शक्ति का यह सामंजस्य नष्ट करने से वह क्षुब्ध हो उठती है, लेकिन वह क्षोभ मंगलदायक नहीं है। नर-नारी समाज-शक्ति के दो पक्ष हैं; पुरुष व्यक्त हैं, लेकिन व्यक्त होने से ही वह बड़ा है ऐसा उचित नहीं है। नारी अव्यक्त है; इस अव्यक्त शक्ति को अगर केवल व्यक्त करने की कोशिश की जाएगी तो समाज का सारा मूल-धन खर्च करके तेज़ी से उसे दिवालियापन की ओर ले जाना ही होगा। इसीलिए कहता हूँ, कि पुरुष लोग अगर यज्ञ के क्षेत्र में रहे और स्त्रियाँ भंडारे के पीछे, तभी स्त्रियों के अदृश्य रहने पर भी यज्ञ ठीक से संपन्न होगा। सारी शक्ति को जो लोग एक ही जगह, एक ही दिशा में, एक ही ढंग से खर्च करना चाहते हैं, वे पागल हैं।''
विनय, ''गोरा, जो तुमने कहा है मैं उसका प्रतिवाद नहीं करना चाहता। किंतु जो कुछ मैंने कहा था, तुमने भी उसका प्रतिवादन नहीं किया। असल बात.... ''
गोरा, ''देखो विनय, इससे आगे इस मुद्दे को लेकर और अधिक बहस करना कोरी दलीलबाजी होगी। मैं यह मानता हूँ कि तुम आजकल स्त्रियों के मामले में जितने सजग हो उठे हो मैं अभी उतना नहीं हुआ। इसीलिए जो अनुभव तुम करते हो मुझे भी वही अनुभव कराने की चेष्टा कभी सफल नहीं हो सकती। इसलिए फिलहाल यही क्यों न मान लिया जाय कि इस मामले में हम दोनों की राय नहीं मिल सकती!''
इस तरह गोरा ने बात उड़ा दी। लेकिन बीज को उड़ा देने से भी अंत में वह भूमि पर गिरता ही है और गिरकर सुयोग होने पर उसमें अंकुर भी फूटता ही है। अब तक जीवन के क्षेत्र में गोरा ने स्त्री-जाति को अलग कर रखा था; उसने इसे कभी सपने में भी अभाव या क्षति के रूप में अनुभव नहीं किया था। आज विनय की बदली हुई अवस्था देखकर संसार में स्त्री-जाति की विशेष सत्ता और प्रभाव उसके सामने प्रकट हो उठा। लेकिन इसका स्थान कहाँ है, इसका प्रयोजन क्या है, यह वह किसी तरह स्थिर नहीं कर सका, इसलिए विनय के साथ इस बारे में और बहस करना उसे अच्छा नहीं लगा। इस विषय को न वह अस्वीकार कर पा रहा थ, न उस पर अधिकार कर पा रहा था, इसीलिए वह उसे वार्तालाप से अलग ही रखना चाहता था।
विनय जब रात को घर लौट रहा था तब आनंदमई ने उसे बुलाकर पूछा, ''विनय, सुनती हूँ कि तुम्हारा विवाह शशिमुखी के साथ ठीक हो गया है- यह सच है?''
लजाई हुई हँसी के साथ विनय ने कहा, ''हाँ माँ, गोरा ही इस शुभ कर्म का कर्त्ता है।''
आनंदमई बोलीं, ''शशिमुखी अच्छी लड़की है। लेकिन बेटा, तुम बचपना मत करो! तुम्हारा मन मैं समझती हूँ, विनय- तुम कुछ दुचित्ते हो रहे हो इसीलिए जल्दी-जल्दी में यह किए डाल रहे हो। अब भी सोचकर देखने का समय है अब तुम सयाने हो गए हो- इतना बड़ा काम बिना विचारे मत करो!''
यह कहते हुए आनंदमई ने विनय का कंधा सहला दिया। विनय कुछ कहे बिना वहाँ से धीरे-धीरे चला गया।
आनंदमई की बात के बारे में सोचता-विचारता विनय घर पहुँचा। आनंदमई की कही हुई कोई भी बात कभी उसके लिए उपेक्षणीय नहीं हुई; यह बात भी रात-भर उसके मन को बेचैनी करती रही।
दूसरे दिन सबरे उठकर मानो उसे मुक्ति का-सा अनुभव हुआ। उसे लगा कि गोरा की मित्रता का बहुत बड़ा दाम उसने चुका दिया है। एक ओर शशिमुखी से विवाह करने को राजी होकर उसने जो जीवन-भर का बंधन स्वीकार किया है, उसके बदले एक दूसरी ओर अपने बंधन काट देने का अधिकार भी उसे मिल गया है। उस पर गोरा को जो अत्यंत अन्यायपूर्ण संदेह हुआ था कि वह अपना समाज छोड़कर ब्रह्म-परिवार में विवाह करने के लिए ललचा रहा है, शशिमुखी से विवाह की सम्मति देकर इस संदेह से विनय ने अपने को मुक्त कर लिया है। तब से परेशबाबू के घर विनय ने नि:संकोच भा से और अक्सर आना-जाना प्रारंभ कर दिया।
उसे जो अच्छे लगें, उनके साथ घर के आदमी जैसा घुल-मिल जाना विनय के लिए कठिन नहीं है। जो संकोच गोरा के कारण था उसे मन से निकाल देने पर वह देखते-देखते परेशबाबू के घर के सभी लोगों से ऐसा घुल-मिल गया मानो बरसों से परिचय हो।
केवल जितने दिन ललिता के मन में यह संदेह रहा कि सुचरिता का मन शायद विनय की ओर कुछ आकृष्ट है, उतने दिन उसका मन विनय के विरुध्द मानो अस्त्र धारण किए रहा। किंतु उसने जब स्पष्ट समझ लिया कि सुचरिता का विनय की ओर ऐसा झुकाव नहीं है तब स्वत: उसके मन का विद्रोह दूर हो गया, और उसे बड़ी शांति मिली। फिर विनय बाबू को बहुत ही भला आदमी मानने में उसे कोई हिचक न रही।
हरानबाबू भी विनय से विमुख नहीं हुए- बल्कि कुछ अधिक जोर देकर यह स्वीकार किया कि विनय को भद्र आचरण का ज्ञान है। इस स्वीकारोक्ति का अभिप्राय मात्र यही था कि गोरा में इतनी तमीज नहीं है।
हरानबाबू के सामने विनय कभी कोई बहस की बात नहीं छेड़ता था, और सुचरिता की भी कोशिश रहती कि ऐसी कोई बात न उठे। इसीलिए इतने दिनों चाय की मेज पर शांति भंग नहीं हुई।
लेकिन हरान की अनुपस्थिति में जान-बूझकर सुचरिता विनय को अपने सामाजिक विचारों की चर्चा के लिए उकसाती। गोरा और विनय जैसे पढ़े-लिखे लोग देश के कुसंस्कारों का कैसे समर्थन कर सकते हैं, यह जानने का उसका उतावलापन किसी तरह शांत नहीं होता था। गोरा और विनय को वह स्वयं न जानती होती, तो यह सोचकर ही कि इन सब बातों को वे मानते हैं, और कुछ जाने-सुने बिना सुचरिता उन्हें अवहेलना के योग्य ठहरा देती। किंतु गोरा को देखने के बाद किसी तरह भी वह उसे अवहेलना के साथ मन से दूर नहीं कर सकी। तभी मौका मिलते ही घुमा-फिराकर वह विनय के साथ गोरा के विचारों और जीवन की चर्चा उठाती, और प्रतिवाद के द्वारा कोंचकर सब कुछ निकालने की कोशिश करती। परेशबाबू की राय में सभी संप्रदायों के विचार सुनने देना ही उसकी शिक्षा का तरीका था, इसलिए इस सब वाद-विवाद में उन्होंने कभी कोई पक्ष नहीं लिया, न कभी बाधा दी।
एक दिन सुचरिता ने पूछा, ''अच्छा गौरमोहन बाबू क्या सचमुच जाति-भेद नहीं मानते, या वह केवल देश-प्रेम का अतिरिक्त जोश है?''
विनय ने कहा, ''आप क्या सीढ़ी के अलग-अलग चरणों को मानती हैं? वे भी तो सब विभाग हैं- कोई ऊपर है, कोई नीचे।''
सुचरिता, ''वह मानती हूँ तो इसीलिए, कि नीचे से ऊपर उठना होता है- नहीं तो ऐसा मानने की कोई ज़रूरत नहीं थी। समतल भूमि पर सीढ़ी को न मानने से भी काम चल जाएगा।''
विनय, ''आप ठीक कहती हैं। हमारा समाज भी एक सीढ़ी है। उसका एक उद्देश्य था- वह था नीचे से ऊपर उठने देना- मानव-जीवन को एक शिखर तक ले जाना। अगर हम इस समाज को, इस संसार को ही मंजिल समझते तब तो किसी विभाग-व्यवस्था की कोई ज़रूरत ही नहीं थी; तब तो यूरोपीय समाज की तरह हम भी प्रत्येक दूसरे से अधिक कुछ झपट लेने के लिए छीना-झपटी और मारपीट करते होते! जो सफल होता संसार में वही सिर उठता और जिसकी कोशिश निष्फल हो जाती वह बिल्कुल नीचे दब जाता। हम लोग संसार में रहते हुए संसार के पार हो जाना चाहते हैं, इसीलिए हमने संसार के कर्तव्यों को प्रवृत्ति और प्रतियोगिता के आधार पर स्थिर नहीं किया.... सांसारिक कर्म को भी माना, क्योंकि कर्म के द्वारा कोई दूसरी उपलब्धि नहीं, मुक्ति ही पानी होगी। इसीलिए एक ओर संसार का काम, दूसरी अरे संसार के काम की परिणति, दोनों को मानकर ही हमारे समाज में वर्ण-भेद की अर्थात् वृत्ति-भेद की स्थापना हुई।''
सुचरिता, ''आपकी बात मैं बहुत अच्छी तरह समझ पा रही हूँ, ऐसा नहीं है। किंतु मेरा प्रश्न यह है कि जिस उद्देश्य से आप समाज में वर्ण-भेद का चलन शुरू हुआ मानते हैं, उस उद्देश्य को क्या सफल होता देख रहे हैं?''
विनय, ''दुनिया में सफलता को ठीक-ठीक पहचानना बड़ा कठिन है। ग्रीस की सफलता आज ग्रीस में नहीं है, पर इसीलिए यह नहीं कहा जा सकता कि ग्रीस का सारा विचार ही भ्रांत या व्यर्थ रहा। ग्रीस का विचार अब भी मानव-समाज में कई प्रकार की सफलता प्राप्त कर रहा है। भारतवर्ष ने जाति-भेद नाम से सामाजिक समस्या का एक बहुत सटीक उत्तर दिया था- वह उत्तर अभी भी लुप्त नहीं है- अब भी दुनिया के सामने मौजूद है। यूरोप भी सामाजिक समस्या का कोई और अच्छा हल अभी तक नहीं दे सका; वहाँ केवल ठेला-ठेली और छीना-झपटी ही चल रही है। भारतवर्ष का यह उत्तर मानव-समाज में अब भी सफलता की प्रतीक्षा कर रहा है- एक तुच्छ संप्रदाय की ओछी अंधता के कारण हमारे उसे उड़ा देना चाहने से ही वह उड़ जाएगा, ऐसा कभी न मानिएगा। हमारे छोटे-छोटे संप्रदाय पनी की बूँद जैसे समुद्र में मिल जाएँगे, लेकिन भारतवर्ष की सहज प्रतिभा से प्रकांड मीमांसा उद्भूत हुई है, वह तब तक स्थिर खड़ी रहेगी, जब तक कि पृथ्वी पर उसका कार्य पूर्ण न हो जाए।''
सकुचाते हुए सुचरिता ने पूछा, ''बुरा न मानिएगा, लेकिन सच बताइए, ये सब बातें कहीं गौरमोहन बाबू की प्रतिध्वनि मात्र तो नहीं है, या कि सचमुच आप इन पर पूरा विश्वास करते हैं?''
हँसकर विनय ने कहा, ''आपसे सत्य ही कहता हूँ, मेरे विश्वास में गोरा जैसा बल नहीं है। जब जाति-भेद के आडंबर और समाज के विकारों को देखता हूँ तब कई बार मैं संदेह भी प्रकट करता हूँ, किंतु गोरा का कहना है कि बड़ी चीज को छोटा करके देखने के कारण ही संदेह उत्पन्न होता है.... पेड़ की बड़ी चीज को छोटा करके देखने के कारण ही संदेह उत्पन्न होता है.... पेड़ की टूटी हुई डाल या सूखे पत्ते को ही पेड़ की चरम प्रकृति मानना विवेक की असहिष्णुता है- टूटी डाल की तारीफ करने को नहीं कहता, लेकिन वनस्पति के महत्व को भी देखो और उसका कार्य समझने की कोशिश करो।''
सुचरिता, ''पेड़ के सूखे पत्ते यदि न भी देखे सही किंतु पेड़ का फल तो देखना होगा? हमारे देश के लिए जाति-भेद का फल कैसा है?''
विनय, ''आप जिसे जाति-भेद का फल कहती हैं, वह अवस्था का फल है, केवल जाति-भेद का नहीं। हिलती हुई दाढ़ से चबाने पर दर्द होता है, वह दाँत का दोष नहीं है, हिलती दाढ़ का दोष है। विभिन्न कारणों से हम लोगों में विकार और दुर्बलता आ गई है, इसलिए हम भारतवर्ष के विचार को सफल न करके उसे और विकृत किए दे रहे हैं.... वह विकार विचार का मूलगत नहीं है। हममें आत्मबल और स्वास्थ्य भरपूर हो तो सब अपने-आप ठीक हो जाएगा। इसीलिए गोरा बार-बार कहते हैं कि सिर दुखता है इसलिए सिर उड़ा देने से नहीं चलेगा.... स्वस्थ बनो, सबल बनो!''
सुचरिता, ''अच्छा तो आप ब्राह्मण-जाति को नर-देवता मानने को कहते हैं? क्या आप मानते हैं कि ब्राह्मण के पैरों की धूल से मनुष्य सचमुच पवित्र हो जाता है?''
विनय, ''पृथ्वी पर बहुत-से सम्मान तो हमारे अपने बनाए हुए हैं। जब तक राजा की ज़रूरत रहती है- चाहे जिस कारण से भी हो- तब तक तनुष्य उसे असाधारण ही कहकर चर्चा करते हैं। लेकिन वास्तव में तो राजा असाधारण नहीं है। फिर भी अपनी साधारणता की हद लाँघकर उसे असाधारण हो उठता होगा, नहीं तो वह राज ही नहीं कर सकेगा। राजा से सुचारू ढंग से व्यवस्था पाने के लिए हम उसे असाधारण बना देते हैं- हमारे उस सम्मान की जिम्मेदारी राजा को सँभालनी पड़ती है, यानी उसे असाधारण बनना पड़ता है। मनुष्य के सभी संबंधों में ऐसी ही कृत्रिमता है। यहाँ तक कि माता-पिता का जो आदर्श हम सबने मिलकर खड़ा किया है, उसी के कारण माता-पिता को समाज में विशेष रूप से आदरणीय माना जाता है, केवल स्वाभाविक स्नेह के कारण नहीं। संयुक्त परिवार में बड़ा भाई छोटे भाई के लिए बहुत-कुछ सहता है और त्याग करता है- क्यों करता है? बड़े भाई को हमारे समाज में बड़े भाई का विशेष पद इसीलिए दिया गया है, दूसरे समाजों में वैसा नहीं है। अगर ब्राह्मण को भी सचमुच ब्राह्मण बनाया जा सके तो वह क्या समाज के लिए मामूली उपलब्धि होगी? हम लोग नर-देवता चाहते हैं। यदि सच्चे मन से और विवेकपूर्वक हम नर-देवता को चाहें तो अवश्य पाएँगे-और अगर मूर्खों की तरह चाहें तो जो सब अपदेवता तरह-तरह के ढोंग करते रहते हैं, और हमारे माथे पर अपने चरणों की धूल डालना जिनकी जीविका का साधन है, उनका गुट और धरती का बोझ-बढ़ेगा ही!''
सुचरिता, ''आपके ये नर-देवता कहीं हैं भी?''
विनय, ''जैसे बीज में पौधा छुपा होता है वैसे ही हैं, भावतवर्ष के आंतरिक अभिप्राय और प्रयोजन में हैं। अन्य देश वेलिंगटन-जैसा सेनापति, न्यूटन-जैसा वैज्ञानिक, राथ्सचाइल्ड-जैसा लखपति चाहते हैं, हमारा देश ब्राह्मण चाहता है। ब्राह्मण-जिसे डर नहीं है, जो लालच से घृणा करता है, जो दु:ख पर विजय पाता है, जो अभाव की परवाह नहीं करता, जो 'परमे ब्रह्मणि योजितचित्त:' है, जो अटल हैं, शांत है, मूर्त है- उस ब्राह्मण को भारतवर्ष चाहता है- सचमुच उसे पा लेने से भारतवर्ष स्वाधीन हो सकेगा। हमारे समाज के प्रत्येक अंश में, प्रत्येक र्म में, नवरत मुक्ति का स्वर गुँजाने के लिए ही ब्राह्मण चाहिए- खाने और घंटी बजाने के लिए नहीं! समाज की सार्थकता को हर समय समाज की ऑंखों के सामने प्रत्यक्ष किए रहने के लिए ही ब्राह्मण चाहिए। ब्राह्मण के इस आदर्श को हम जितना बड़ा अनुभव करेंगे, ब्राह्मण के सम्मान को भी उतना ही बड़ा करे रखना होगा। वह सम्मान राजा के सम्मान से भी कहीं अधिक है; वह सम्मान देवता का ही सम्मान है। जब ब्राह्मण देश में इस सम्मान का यथार्थ अधिकारी होगा, तब इस देश को कोई अपमानित नहीं कर सकेगा। हम लोग क्या स्वयं राजा के सामने सिर झुकाते हैं? अत्याचारी का बंधन गले में पहनते हैं? अपने डर के सामने ही हमारा सिर झुकता है, अपने लालच के जाल में ही हम बँधे हैं, अपनी मूढ़ता के ही हम दासानुदास है। ब्राह्मण तपस्या करें, उस डर से, लालच से, मूढ़ता से हमें मुक्त करे- हम उनसे युध्द नहीं चाहते, व्यापार नहीं चाहते, और कुछ भी नहीं चाहते- हमारे समाज में वे केवल मुक्ति-साधना को जीवित किए रहें!''
अब तक परेशबाबू चुपचाप सुन रहे थे। अब धीरे-धीरे बोले, ''भारतवर्ष को मैं पूर्णत: जानता हूँ, यह तो नहीं कह सकता; और भारतवर्ष ने क्या चाहा था, या जो चाहा था वह कभी पाया भी नहीं, यह मैं निश्चयपूर्वक नहीं जानता। लेकिन जो समय बीत गया है उसकी ओर क्या कभी लौटा जा सकता है? आज जो कुछ सम्भव है वही हमारी साधना का विषय है- अतीत को पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाकर समय नष्ट करने से कोई काम नहीं होगा।''
विनय ने कहा, ''जैसा आप कहते हैं मैं भी वैसा ही सोचता हूँ, और मैंने कई बार कहा भी है। गोरा का कहना है, हमने अतीत को अतीत कहकर निरस्त कर दिया है, क्या इसी से वह अतीत हो गया है? वर्तमान की चीख-पुकार की ओट हमारी दृष्टि से वह ओझल हो गया है, इतने से ही वह अतीत नहीं हो जाता- वह भारतवर्ष की मज्जा में बसा हुआ है। कभी भी कोई भी सत्य अतीत नहीं हो सकता, इसीलिए भारतवर्ष के इस सत्य ने हम पर चोट करना आरंभ किया है। हममें से एक मनुष्य भी एक दिन इसे सत्य मानकर पहचान और ग्रहण कर सकेगा तो उसी से हमारे शक्ति स्रोत का रास्ता खुल जाएगा, अतीत तब वर्तमान की सामग्री हो उठेगा! आप क्या समझते हैं कि भारतवर्ष में कहीं भी ऐसे सार्थक-जन्मा व्यक्ति का आविर्भाव नहीं हुआ?''
सुचरिता ने कहा, ''जिस ढंग से आप ये बातें कहते हैं, साधारण लोग उसी ढंग से नहीं कहते। इसीलिए आपकी राय को सारे देश की राय मान लेने में संकोच होता है।''
विनय बोला ''देखिए, सूर्योदय की वैज्ञानिक लोग एक तरीके से व्याख्या करते हैं, और साधारण लोग एक दूसरे तरीके से। इससे सूर्य के उदय का कुछ घटता-बढ़ता नहीं है। फिर भी सत्य को ठीक तरह जानने में हम लोगों का लाभ ही है। हम लोग देश के जिन सब सत्यों को खंडित करके या बिगाड़कर देखते हैं, गोरा उन सबको एक करके, संयुक्त करके देख सकते हैं- इसकी उनमें आश्चर्यजनक क्षमता है- लेकिन क्या इसी से गोरा के ऐसे देखने को दृष्टि का भ्रम मन लेना होगा और जो लोग तोड़-मरोड़कर देखते हैं, उनके देखने को सत्य?''
सुचरिता चुप हो गई। विनय ने कहा, ''साधारणतया हमारे देश में जो सब लोग अपने को परम हिंदू मानकर गर्व करते हैं, मेरे मित्र गोरा को आप उनके गुट का न समझिएगा। अगर उनके पिता कृष्णदयाल बाबू को आप देखतीं तो बाप-बेटे का अंतर सहज ही समझ सकतीं। कृष्णदयाल बाबू हमेशा अपने को सुपवित्र किए रखने के लिए कपड़े उतारने, गंगाजल छिड़कने, पोथी-पत्र बाँचने को लेकर ही दिन-रात व्यस्त रहते हैं। रसोई के मामले में वह बहुत शुध्द ब्राह्मण पर भी विश्वास नहीं करते कि उसके ब्राह्मणत्व में कहीं कोई त्रुटि न रह गई हो; गोरा को भी अपने कमरे की सीमा में घुसने नहीं देते। कभी अगर किसी काम के लिए उन्हें पत्नी के कमरे में जाना पड़े तो फिर लौटकर अपने को पवित्र कर लेते हैं। दिन-रात पृथ्वी पर बिल्कुल अलग रहते हैं कि कहीं जाने-अनजाने किसी नियम-भंग की धूल का एक कण भी उन्हें न छू जाय! जैसे कोई बहुत ही 'छैला बाबू' अपने को धूल से बचाते हुए अपने रंग-रूप की, बालों की सँवार की, कपड़ों की चुन्नट की रक्षा के लिए सचेत रहता है वैसे ही! गोरा बिल्कुल ऐसे नहीं है। हिंदूपन के नियमों में वे अश्रध्दा नहीं करते, लेकिन ऐसे झाड़-पोंछकर भी नहीं चल सकते। हिंदू-धर्म को वह भीतर से और बहुत ऊँची दृष्टि से देखते हैं, ऐसा वह कभी नहीं सोचते कि हिंदू-धर्म के प्राण इतने नाजुक हैं कि जरा-सी छुअन से ही मुरझा जाएँगे या ठेस लगते ही ध्वस्त हो जाएँगे!''
सुचरिता, 'लेकिन लगता तो यही है कि छुआ-छूत के मामले में वह बड़े सतर्क होकर चलते हैं।''
विनय, ''उनकी यह सतर्कता ही एक अद्भुत वस्तु है। अगर उनसे पूछा जाय तो वह तुरंत कहेंगे, 'हाँ, मैं यह सब मानता हूँ- छू जाने से जाति जाती है, खाने से पाप होता है, ये सब अभ्रांत सत्य हैं।' लेकिन मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि ये सब उनकी ज़बरदस्ती की बातें हैं- ये बातें जितनी ही असंगत होंगी मानो वह उतनी ही ज़ोर से सुना-सुनाकर सबको कहते हैं। वर्तमान हिंदूपन की मामूली-सी बात को भी न मानने पर अन्य मूर्ख लोगों द्वारा कही हिंदुत्व की बड़ी बातों का भी असम्मान न हो, और हिंदुत्व पर जिन्हें श्रध्दा नहीं है कहीं वे उसे अपनी जीत समझें, इस खयाल से बिना विचारे गोरा सभी कुछ मानकर चलना चाहते हैं। मेरे सामने भी इस बारे में कोई शिथिलता प्रकट नहीं करना चाहते।''
परेशबाबू बोले, ''ऐसे तो ब्रह्म लोगों में भी बहुत हैं। वे हिंदुत्व की सभी बातों को बिना विचारे दूर कर देना चाहते हैं, जिससे कोई बाहर का व्यक्ति भूल से भी यह न समझे कि वे हिंदू-धर्म की कुप्रथाओं को स्वीकार करते रहे हैं। ऐसे लोग सहज भाव से दुनिया में चल ही नहीं सकते; या तो दिखावा करते हैं या होड़ करते हैं; समझते हैं कि सत्य दुर्बल है और उसे चतुराई या ज़बरदस्ती से बचाना कर्तव्य का ही अंग है। जो लोग ऐसा मानते हैं कि 'सत्य हम पर निर्भर करता है, सत्य पर हम निर्भर नहीं हैं', उन्हीं को तो कठमुल्ला कहते हैं। सत्य की शक्ति पर जिन्हें विश्वास है, वे अपने बल को संयत रखते हैं। दो-चार दिन बाहर के लोग गलत समझ भी लें, यह कोई बड़ा नुकसान नहीं है। लेकिन किसी तुच्छ संकोच के कारण सच्चाई को स्वीकर न कर सकना बहुत बड़ी क्षति है मैं तो सर्वदा ईश्वर से यही माँगता हूँ कि चाहे ब्रह्म-सभा में हो चाहे हिंदू चंडी-मंडप में, मैं सत्य को सर्वत्र सिर झुकाकर सहज भाव से और बिना विद्रोह के नमन कर सकूँ- बाहर की कोई बाधा मुझे रोक न सके।''
परेशबाबू ने इतना कहकर क्षण-भर स्तब्ध होकर मानो अपने मन का भीतर-ही-भीतर समाधन किया। परेशबाबू ने मृदु स्वर में जो यह बात कहीं उसने इतनी देर की सारी बातचीत में मानो एक गंभीर स्वर ला दिया- वह स्वर परेशबाबू की इस बात का स्वर नहीं था, बल्कि उनके अपने जीवन की एक प्रशांत गंभीरता का स्वर था। सुचरिता और ललिता के चेहरे पर एक आनंदमय भक्ति की दीप्ति फैल गई। विनय चुप रह गया। मन-ही-मन वह जानता था कि गोरा में एक प्रचंड हठधर्मिता है- सत्य के वाहकों के मन, वचन और कर्म में जो एक सहज, सरल शांति रहनी चाहिए कि वह गोरा में नहीं है। परेशबाबू की बात ने मानो उसके मन पर और भी स्पष्ट आघात किया। अवश्य ही इतने दिन विनय गोरा के पक्ष में मन-ही-मन यह दलील देता रहा है कि जब समाज की व्यवस्था डगमग है, जब बाहर के देश-काल के साथ लड़ाई हो रही है, तब सत्य के सिपाही स्वाभाविकता की रक्षा नहीं कर सकते- तब सामयिक ज़रूरतों के दबाव से सच्चाई में भी मिलावट आ जाती है। परेशबाबू की बात से आज क्षण-भर को विनय के मन में प्रश्न उठा- 'तात्कालिक प्रयोजन साधने के लोभवश सच्चाई को बिगाड़ना साधारण लोगों के लिए तो स्वाभाविक है, पर उसके गोरा भी क्या ऐसे ही साधारण लोगों के गुट के हैं?''
जब सुचरिता रात को बिस्तर पर आ लेटी तब ललिता आकर उसकी खाट के किनारे पर बैठ गई। सुचरिता ने जान लिया कि ललिता के मन में कोई बात चक्कर काट रही है। उस बात का संबंध विनय से है, यह भी उसने समझ लिया।
सुचरिता ने इसीलिए स्वयं बात चलाई, ''लेकिन विनय बाबू मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।''
सुचरिता ने बात का इंगित समझकर भी नहीं समझा हो ऐसा एक सरल भाव धारण करते हुए उसने कहा, ''सच ही, उनके मुँह से गोरा बाबू की बात सुनकर बड़ा आनंद होता है। मानो उन्हें मैं स्पष्ट देख रही हूँ।''
ललिता ने कहा, ''मुझे तो बिल्कुल अच्छा नहीं लगता- मुझे तो गुस्सा आता है।''
अचंभे से सुचरिता ने कहा, ''क्यों?''
ललिता बोली, ''गोरा, गोरा, गोरा दिन-रात केवल गोरा! मान लिया कि उनके दोस्त गोरा बहुत बड़े आदमी हैं, अच्छी बात है- लेकिन वह खुद भी तो आदमी हैं!''
हँसकर सुचरिता ने कहा, ''सो तो है! लेकिन इसमें हर्ज क्या है?''
ललिता, ''उनके दोस्त उन पर ऐसे छाए हैं कि वह अपनी बात कह ही नहीं सकते। मानो एक मड़ी ने एक टिड्डे को घेर लिया हो.... वैसी हालत में मकड़ी पर भी मुझे गुस्सा आता है, और टिड्डे पर श्रध्दा होती हो ऐसा भी नहीं है।''
ललिता की बात के पैनेपन पर सुचरिता कुछ न कहकर हँसने लगी।
ललिता ने कहा, ''दीदी, तुम हँस रही हो, लेकिन मैं तुमसे कहे देती हूँ, कोई मुझे वैसे दबाए रखने की कोशिश करता तो एक दिन भी मैं सहन न करती। तुम यही सोचो- लोग चाहे जो समझें, तुमने मुझे आच्छन्न करके नहीं रखा- वैसी प्रकृति ही तुम्हारी नहीं है- इसीलिए तो तुम इतनी अच्छी लगती हो। असल में तुमने यह बाबा से ही सीखा है- वह हर किसी के लिए उसके लायक स्थान छोड़ देते हैं।''
सुचरिता और ललिता इस परिवार में परेशबाबू की परम भक्त हैं। ''बाबा' कहते ही उनका हृदय जैस खिल उठता है।
सुचरिता ने कहा, ''अब बाबा से किसी की तुलना थोड़े ही हो सकती है? लेकिन जो हो भई, विनय बाबू बात को बड़े अच्छे ढंग से कह सकते हैं।''
ललिता, ''वे सब बातें उनके मन की नहीं हैं न, तभी इतने अच्छे ढंग से कह सकते हैं! अपनी बातें कहते तो बड़ी सीधी-सरल बातें होतीं, यह न लगता कि सोच-सोचकर, बना-बनाकर कह रहे हैं। इस सब बढ़िया-बढ़िया बातों के मुकाबले वह मुझे कहीं ज्यादा अच्छा लगता।''
सुचरिता, ''तो तू नाराज क्यों होती है! गौरमोहन बाबू की बातें उनकी अपनी बातें हो गई हैं।''
ललिता, ''अगर ऐसा है तो यह और भी बुरा है। भगवान ने बुध्दि क्या इसीलिए दी है कि दूसरों की बात की व्याख्या करते रहें, और मुँह इसलिए दिया है कि दूसरों की ही बातें अच्छे ढंग से कहते रहें? मुझे ऐसे अच्छे ढंग की कोई ज़रूरत नहीं है।''
सुचरिता, ''लेकिन यह बात तू क्यों नहीं समझती कि विनय बाबू गौरमोहन बाबू को बहुत चाहते हैं- उनके साथ उनके मन का सच्चा जुड़ाव है?''
अधीर होकर ललिता ने कहा, ''नहीं, नहीं, नहीं! पूरा जुड़ाव नहीं है गौरमोहन बाबू को आदर्श मानकर चलना उनकी आदत हो गई है- वह प्रेम नहीं है, गुलामी है। फिर भी ज़बरदस्ती मानना चाहते हैं कि उनके साथ उनकी राय बिल्कुल मिलती है। उनकी राय को इसीलिए इतने यत्न से सजा-सजाकर अपने को और दूसरे को भुलाने की कोशिश करते हैं। वह केवल अपने मन के संदेह और विरोध को दबा देना चाहते हैं, ताकि गौरमोहन बाबू को कहीं अमान्य न करना पड़े। उनको अमान्य करने का हौसला उनमें नहीं है। प्रेम हो तो राय अलग होने पर भी बात मानी जा सकती है- बिना अंधे हुए भी अपने को छोड़ दिया जा सकता है- उनका रवैया वैसा नहीं है। गौरमोहन बाबू को वह मानते तो शायद प्रेम के कारण ही हैं, पर किसी तरह इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते। उनकी बात सुनने से साफ पता चल जाता है। अच्छा दीदी, बताओ, क्या तुम्हें नहीं पता लगता?''
ललिता की भाँति सुचरिता ने यह सब बात इस ढंग से सोची ही नहीं थी। उसका कौतूहल गोरा को पूरी तरह जानने के लिए ही इतना व्यग्र था कि अकेले विनय को स्वतंत्र रूप से समझने की ओर उसका ध्यान ही नहीं था। ललिता के प्रश्न का सुचरिता ने स्पष्ट उत्तर न देकर कहा, ''अच्छा चल; तेरी बात ही मन ली- तो बता, फिर क्या किया जाय?''
ललिता, ''मेरा मन तो करता है, उनके दोस्त के बंधन से उन्हें छुड़ाकर स्वाधीन कर दिया जाय।''
सुचरिता, ''तो प्रयास करके देख ले न!''
ललिता- ''मेरे प्रयास से नहीं होगा- ज़रा तुम ध्यान दोगी तो हो सकेगा।''
यद्यपि सुचरिता ने मन-ही-मन समझ लिया था कि विनय उसके प्रति अनुरक्त है, तब भी ललिता की बात को उसने हँसकर टाल देना चाहा।
ललिता ने कहा, ''गौरमोहन बाबू का आदेश तोड़कर भी तुम्हारे पास वह जो ऐसे पकड़ाई देने आते हैं, इसीलिए वह मुझे अच्छे लगते हैं। उनकी जगह और कोई होता तो ब्रह्म लड़कियों को गालियाँ देकर नाटक लिखता। उनका मन अब भी खुला है, इसका यही सबूत है कि वह तुम्हें चाहते हैं और बाबा का आदर करत हैं। विनय बाबू को अब उनके अपने रूप में खड़ा करना ही होगा, दीदी! केवल गौरमोहन बाबू का वह जो प्रचार करते रहते हैं, वह मुझे असहनीय लगता है।''
सतीश इसी समय 'दीदी' पुकारता हुआ आ पहुँचा। आज विनय उसे बड़े मैदान में सर्कस दिखाने ले गया था। यद्यपि रात बहुत बीत गई थी फिर भी अपने पहली बार सर्कस देखने का उत्साह उससे सँभल नहीं रहा था। सर्कस का पूरा वर्णन सुना देने के बाद वह बोला, ''विनय बाबू को पकड़कर आज मैं अपने बिस्तर पर ला रहा था- वह घर के अंदर आए भी थे, फिर चले गए। बोले कि कल आएँगे। दीदी, उनसे मैंने कहा है एक दिन वे आप लोगों को भी सर्कस दिखा लावें।''
ललिता ने पूछा, ''उन्होंने इस पर क्या कहा?''
सतीश ने कहा, ''वह बोले, लड़कियाँ बाघ देखकर डर जाएँगी। लेकिन मुझे बिल्कुल डर नहीं लगा।''
कहते-कहते पौरुष के अभिमान से छाती फुलाकर सतीश बैठ गया।
ललिता ने कहा, ''ऐसी बात है! तुम्हारे दोस्त विनय बाबू का साहस कितना प्रबल है, खूब समझ सकती हूँ। नहीं दीदी, सर्कस दिखाने के लिए उन्हें हमें अपने साथ ले जाना ही होगा।''
सतीश बोला, ''कल तो सर्कस दिन में होगा।''
ललिता ने कहा, ''वह तो और अच्छ है- दिन में ही जाएँगे।''
दूसरे दिन विनय के आते ही ललिता बोल उठी, ''लीजिए, ठीक वक्त पर आए हैं, विनय बाबू! चलिए!''
विनय ने पूछा, ''कहाँ चलना होगा?
ललिता, ''सर्कस देखने।''
सर्कस देखने! वह भी दिन दहाड़े शामियाना-भर लोगों के सामने लड़कियों को लेकर सर्कस देखने जाना! हक्का-बक्का हो गया विनय।
ललिता बोली, ''ऐसा जान पड़ता है, गौरमोहन बाबू नाराज़ होंगे?''
ललिता के इस प्रश्न से विनय कुछ चकित हुआ।
ललिता ने फिर कहा, ''सर्कस दिखाने लड़कियों को ले जाने के बारे में भी क्या गौरमोहन बाबू की कोई राय है?''
विनय ने कहा, ''जरूर है।''
ललिता, ''उसकी व्याख्या आप किस ढंग से करते हैं, ज़रा बताइए तो? मैं दीदी को बुला लाऊँ, वह भी सुन लेंगी।''
झेंपकर विनय हँसा। ललिता ने कहा, ''हँसते क्यों हैं, विनय बाबू? आपने कल सतीश से कहा था कि लड़कियाँ बाघ से डरती हैं। जैसे आप किसी से नहीं डरते!'
विनय इस पर लड़कियों को सर्कस दिखाने ले गया था। इतना ही नहीं, गोरा के साथ उसका संबंध ललिता को, और शायद परिवार की सभी लड़कियों को कैसा जान पड़ता है- मन-ही-मन इस बात को लेकर भी वह काफी उधेड़-बुन करता रहा था।
इस प्रकरण के बाद विनय से जिस दिन ललिता की भेंट हुई उसने बड़े भोलेपन से पूछा, ''उस दिन की सर्कस जाने वाली बात क्या आपने गौरमोहन बाबू को बता दी?''
विनय को यह प्रश्न बहुत अखरा, क्योंकि कानों तक लाल होते हुए उसे कहना पड़ा, ''नहीं, अभी तक मौका नहीं मिला।'
हँसते हुए लावण्य ने कमरे में आकर कहा, ''विनय बाबू, आइए न।''
ललिता बोली, ''कहाँ? सर्कस देखने?''
लावण्य ने कहा, ''वाह, आज कैसा सर्कस? मैं इसलिए बुला रही हूँ कि पेंसिल से मेरे रूमाल के चारों ओर एक बेल ऑंक दें- मैं काढूँगी। विनय बाबू बड़ा सुंदर ऑंकते हैं।''
कहती हुई लावण्य विनय को खींचकर ले गई।
गोरा
7
रवीन्दनाथ टैगोर
सुबह गोरा कुछ काम कर रहा था। अचानक विनय ने आकर छूटते ही कहा, ''उस दिन परेशबाबू की लड़कियों को मैं सर्कस दिखाने ले गया था।''
लिखते-लिखते गोरा ने कहा, ''मैंने सुना?''
गोरा, ''अविनाश से। उस दिन वह भी सर्कस देखने गया था।''
आगे कुछ न कहकर गोरा फिर लिखने में जुट गया। गोरा ने यह बात पहले ही सुन ली है और वह भी अविनाश से, जिसने नमक-मिर्च लगाकर कहने में कोई कसर नहीं रखी होगी; विनय को इस बात से अपने पुराने संस्कार के कारण बड़ा संकोच हुआ। सर्कस जाने की बात की समाज में ऐसी आम चर्चा न हुई होती तभी अच्छा होता!
तभी उसे याद आया, कल रात वह मन-ही-मन बहुत देर तक जागते रहकर ललिता से झगड़ता रहा। है। ललिता समझती है, वह गोरा से डरता है और बच्चे जैसे मास्टर को मानते हैं वैसे ही वह गोरा को मानकर चलता है। कोई किसी को क्या इतना गलत समझ सकता है! गोरा और वह तो एकात्मा हैं। यह ठीक है कि गोरा की असाधारणता के कारण उसकी उस पर श्रध्दा भी है, लेकिन इसी से ललिता का ऐसा सोच लेना गोरा के साथ तो अन्याय है ही विनय के साथ भी है। विनय बच्चा नहीं है, न ही गोरा उसका अभिभावक है!
चुपचाप गोरा लिखता रहा और ललिता के वही दो-तीन तीखे प्रश्न बार-बार विनय को याद आने लगे। आसानी से विनय उन्हें मन से न हटा सका।
अचानक विनय के भीतर एक विद्रोह ने सिर उठाया- सर्कस देखेन गया तो क्या हुआ? कौन होता है अविनाश इस बात की गोरा से चर्चा करने वाला- और गोरा भी क्यों मेरे काम के बारे में उस वाचाल से बातचीत करने गया, मैं क्या गोरा का नज़रबंद हूँ? मैं कहाँ आता-जाता हूँ, गोरा के सामने क्या इसका भी जवाब देना होगा? यह तो दोस्ती का अपमान है।
विनय को गोरा और अविनाश पर इतना गुस्सा न आया होता यदि अपनी भीरुता सहसा उसके सामने इतनी स्पष्ट प्रकट न हो गई होती। वह जो थोड़ी देर के लिए भी कोई बात गोरा से छिपाने के लिए मजबूर हुआ, इसके लिए वह आज मन-ही-मन मानो गोरा को ही अपराधी ठहराना चाहता है। सर्कस जाने की बात को लेकर अगर गोरा विनय से झगड़े की दो-एक बातें कहता तो भी उनकी दोस्ती की एकलयता बनी रहती और विनय को तसल्ली होती- लेकिन गोरा इतना गंभीर होकर विचारमग्न बन बैठा है और अपनी चुप्पी से उसका अपमान कर रहा है, यह देखकर ललिता की बात की चुभन उसे फिर-फिर बींधने लगी।
इसी समय वहाँ हाथ में हुक्का लिए महिम ने कमरे में प्रवेश किया। डिब्बे में बंद गीले कपड़े के भीतर से निकालकर एक पान विनय के हाथ में देते हुए बोले, ''भाई विनय, इधर तो सब ठीक हो गया, अब तो तुम्हारे काका महाशय की एक चिट्ठी आ जाय तो निश्चंत हो सकें। तुमने उन्हें लिख तो दिया है न?''
विनय को विवाह का यह आग्रह आज बहुत बुरा लगा, यद्यपि वह जानता था कि महिम का कोई दोष नहीं है- उन्हें तो वचन दिया जा चुका है। किंतु उस वचन देने में एक हीनता-सी उसे जान पड़ी। आनंदमई ने तो उसे एक प्रकार से मना ही किया था- इस विवाह के मामले में उसका अपना भी कोई आकर्षण नहीं था-हड़बड़ी में क्षण-भर में ही यह बात कैसे पक्की हो गई? यह भी नहीं कहा जा सकता कि गोरा ने कोई जल्दी की थी। अगर विनय ने कुछ आपत्ति की होती तब भी गोरा उस पर दबाव डालता ही, ऐसी बात भी नहीं थी। लेकिन फिर भी.... ! इस ''पर भी' को लेकर ही ललिता की बात उसे सालने लगी। कोई विशेष घटना उस दिन नहीं हुई थी, किंतु जो हुआ उसके पीछे अनेक दिनों का शासन था। विनय केवल अपने स्नेह के कारण और नितांत भलमानसाहत के कारण गोरा के आधिपत्य को सहते रहने का आदी हो गया है। इसीलिए प्रभुत्व का यह संबंध बंधुत्व के सिर पर चढ़ बैठा है। इतने दिन विनय ने इसको महसूस नहीं किया, किंतु अब इसे स्वीकार किए बिन नहीं चलेगा। तो क्या शशिमुखी से विवाह करना ही होगा?
विनय ने कहा, ''नहीं, अभी काका को तो नहीं लिखा।''
महिम बोले, ''वह मेरी ही गलती है। यह चिट्ठी तुम्हारे लिखने की तो चीज़ नहीं है, वह मैं ही लिखूँगा। उना पूरा नाम क्या है ज़रा बताना।''
विनय ने कहा, ''आप चिंता क्यों करते हैं? आश्विन-कार्तिक में तो विवाह हो ही नहीं सकता। एक अगहन है- लेकिन उसमें भी मुश्किल है। हमारे परिवार के इतिहास में न जाने कब किसके साथ कौन-सी दुर्घटना अगहन के महीने में घटी थी, तब से हमारे वंश मे अगहन में विवाह आदि शुभ-कर्म बंद हैं।''
हुक्का कमरे के कोने में दीवार के साथ टेककर महिम ने कहा, ''विनय, तुम लोग भी यह सब मानते हो तो सारी लिखाई-पढ़ाई क्या किताबों को रटते-रटते मर जाना ही है इस कमबख्त देश में अव्वल तो वैसे ही शुभ दिन ढूँढ़े नहीं मिलता, उस पर अगर हर घर अपना निजी पोथी-पत्र लेकर बैठ जाएगा तो काम कैसे चलेगा?''
विनय ने कहा, ''फिर आप भाद्र-आश्विन महीने भी क्यों मानते हैं?''
महिम बोले, ''मैं कहाँ मानता हूँ? कभी नहीं मानता। लेकिन क्या करूँ भैया- इस देश में एक बार भगवान को माने बिना मजे में चल सकता है, लेकिन भाद्र-आश्विन, बृहस्पति-शनि, तिथि-नक्षत्र माने बिना कोई गति नहीं! फिर यह भी कहूँ कि कहने को तो मैंने कह दिया कि नहीं मानता, लेकिन काम करने के समय तिथि-मुहूर्त इधर-उधर होने से मन प्रसन्न नहीं रहता- देश की हवा मैं जैसे मलेरिया होता है, वैसे ही इसका भय भी होता है, उससे ऊपर नहीं उठा जा सकता।''
विनय, ''हमारे वंश में अगहन का दोष भी किसी तरह नहीं मिटता। काकी माँ तो किसी तरह राजी नहीं होंगी।''
इस तरह उस दिन तो विनय ने जैसे-तैसे करके बात टाल दिया।
विनय के बात करने के ढंग से गोरा ने यह समझ लिया कि विनय के मन में एक दुविधा बस गई है। कुछ दिनों से उसकी विनय से भेंट ही नहीं हो रही थी, इससे ही गोरा ने समझ लिया था कि परेशबाबू के घर विनय का आना-जाना और भी बढ़ गया है तिस पर आज के इस विवाह-प्रस्ताव को टालने की कोशिश से गोरा के मन में और भी संदेह हुआ।
जैसे साँप किसी को निगलना शुरू करने पर उसे किसी तरह छोड़ ही नहीं सकता, मानो गोरा भी उसी तरह अपने किसी भी संकल्प को छोड़ देने या उसमें ज़रा भी परिवर्तन करने में असमर्थ था। दूसरी ओर से किसी तरह की बाधा अथवा शिथिलता आने पर वह और भी हठ पकड़ लेता था। दुविधा में पड़े हुए विनय को जकड़ रखने के लिए गोरा पूरे अंत:करण से उतावला हो उठा।
लिखना छोड़ मुँह उठाकर उसने कहा, ''विनय, जब एक बार तुमने दादा को वचन दे दिया है, तब अनिश्चय में रखकर क्यों व्यर्थ दु:ख देते हो?''
सहसा विनय ने बिगड़कर कहा, ''मैंने वचन दिया है, या कि मुझे हड़बड़ाकर जल्दी में मुझसे वचन ले लिया गया है?''
विनय के इस अचानक विद्रोह को देखकर गोरा विस्मित हो गया। कड़ा पड़ते हुए उसने पूछा, ''तुमने!''
गोरा, ''मैंने! इस बारे में मेरी तुमसे दो-चार बात से अधिक नहीं हुई- यही क्या ज़बरदस्ती वचन ले लेना हो गया?''
विनय के पक्ष में प्रमाण वास्तव में ख़ास कुछ नहीं था, गोरा का कहना सच ही था कि उनकी बातचीत बहुत थोड़ी ही हुई थी और उसमें ऐसा कोई बहुत आग्रह भी नहीं था जिसे कि दबाव डालना कहा जा सके। फिर भी यह बात भी सच थी कि अप्रकटत: विनय से गोरा ही ने उसकी सम्मति ज़बरदस्ती ले ली थी। जिस अभियोग का प्रमाण जितना कम होता है, उसे लगाने वाले का क्रोध उतना ही अधिक होता हैं तभी विनय ने कुछ असंगत क्रोध से कहा, ''कहलवा लेने के लिए अधिक बातचीत करना ज़रूरी तो नहीं है।''
मेज़ छोड़कर गोरा उठ खड़ा हुआ और बोला, ''तो ले जाओ अपनी सम्मति वापस। यह कोई इतनी बड़ी या मूल्यवान बात नहीं है कि इसके लिए तुमसे भीख माँगी जाय या ज़बरदस्ती की जाय।''
महिम साथ के कमरे में ही थे, वज्र-स्वर में गोरा ने उन्हें पुकारा, ''दादा!''
हड़बड़ाकर कमरे में आते महिम से गोरा ने कहा, ''दादा, मैंने क्या आपको शुरू में ही नहीं कहा था कि शशिमुखी के साथ विनय का विवाह नहीं हो सकता-इसमें मेरी राय नहीं है?''
महिम, ''ज़रूर कहा था। ऐसी बात तुम्हारे शिवा और कौन कह सकता था? और कोई भाई होता तो भतीजी के विवाह की बात शुरू में ही उत्साह दिखाता!''
गोरा, ''फिर क्यों मेरे द्वारा आपने विनय से अनुरोध करवाया?''
महिम, ''यही सोचकर कि इससे काम हो सकेगा, और तो कोई कारण नहीं है।''
गोरा का मुँह लाल हो आया। वह बोला, ''मैं इस सबमें नहीं पड़ता, ब्याह ठीक करना मेरा धंधा नहीं है, मुझे अन्य काम है।''
गोरा ऐसा कहकर घर से बाहर हो गया। हतबुध्दि महिम विनय से इस बारे में कोई प्रश्न पूछते, इससे पहले वह भी निकलकर सड़क पर पहुँच गया। दीवार के कोने में टिका हुआ हुक्का महिम ने उठाया और चुपचाप बैठकर कश लगाने लगे।
इससे पहले भी कई बार गोरा के साथ विनय के कई झगड़े हुए हैं लेकिन ऐसा ज्वालामुखी की तरह अचानक फट पड़ने वाला झगड़ा पहले कभी नहीं हुआ। पहले तो विनय अपने कृत्य पर स्तंभित-सा हो रहा, फिर घर पहुँचने के बाद भीतर-ही-भीतर यह बात उसे सालने लगी। ज़रा-सी देर में वह गोरा को कितनी बड़ी चोट पहुँचा आया है, यह सोचकर उसकी खाने-पीने या विश्राम करने की कोई इच्छा न रही। इस मामले में विशेषतया गोरा को अपराधी ठहराना कितना ग़लत और बेतुका हुआ, बार-बार यह बात उसे चुभने लगी। बार-बार उसका मन उसे धिक्कारने लगा अन्याय, अन्याय, अन्याय!
लगभग दो बजे आनंदमई खा-पीकर सिलाई लेकर बैठी ही थीं कि विनय उनके पास जा बैठा। सुबह की थोड़ी-बहुत चर्चा तो उन्होंने महिम से सुन ली थी। भोजन के समय गोरा का चेहरा देखकर भी उन्होंने समझ लिया था कि एक तूफान आकर गुज़र चुका है।
विनय ने आते ही कहा, ''माँ, मैंने ज्यादती की है। शशिमुखी से विवाह की बात को लेकर गोरा को मैंने जो कुछ कहा उसका कोई अर्थ नहीं होता।''
आनंदमई ने कहा, ''हो सकता है विनय- कोई दर्द मन में दबा रखने की कोशिश करने से वह इसी तरह फूट निकलता है। यह ठीक ही हुआ। इस झगड़े की बात दो दिन बाद तुम भी भूल जाओगे, गोरा भी भूल जाएगा।''
विनय, ''लेकिन माँ, शशिमुखी से विवाह करने में मुझे काई आपत्ति नहीं है, यही बात तुम्हें बताने मैं आया हूँ।''
आनंदमई, ''बेटा, जल्दी से झगड़ा खत्म करने की कोशिश में एक और मुसीबत में मत पड़ो। झगड़ा तो दिन का है, विवाह तो हमेशा की बात है।''
उनकी कोई बात विनय ने नहीं सुनी। वह फौरन यह प्रस्ताव लेकर गोरा के पास तो नहीं जा सका इसलिए महिम से ही जाकर उसने कहा कि विवाह में कोई बाधा नहीं है और माघ में ही वह प्रसन्न हो सकेगा तथा इस बात का ज़िम्मा भी विनय ही लेगा कि उसके काका महाशय को कोई आपत्ति न हो।
महिम बोले, ''तो फिर सगाई हो जाय न!''
विनय ने कहा, ''ठीक है, वह आप गोरा से सलाह करके कर लिजिए।''
घबराकर महिम ने कहा, ''फिर गोरा से सलाह?''
विनय बोला, ''हाँ, उसके बिना तो नहीं हो सकता।''
महिम बोले, ''यदि नहीं हो सकता तब तो कोई उपाय नहीं है, लेकिन.... '' कहते-कहते झट उन्होंने एक पान उठाकर मुँह में रख लिया।
20
उस दिन तो महिम ने गोरा से कुछ नहीं कहा, किंतु अगले दिन उसके कमरे में गए। उन्होंने सोचा था कि फिर से गोरा को राज़ी करने के लिए लंबी बकझक करनी होगी। पर जब उन्होंने आकर बताया कि कल दोपहर विनय ने आकर विवाह के बारे में पक्का वचन दे दिया है और सगाई के बारे में गोरा की सलाह लेने को कहा है, तब तुरंत गोरा ने अपनी राय ज़ाहिर कर दी, ''ठीक है, तो सगाई हो जाय।''
अचरज से महिम ने कहा, ''अभी तो 'ठीक है' कह रहे हो- इसके बाद फर तो टाँग नहीं अड़ाओगे?''
गोरा ने कहा, ''मैंने बाधा देकर टाँग नहीं अड़ाई, अनुरोध करके ही अड़ाई थी।''
महिम, ''इसीलिए तुमसे मेरी यही प्रार्थना है कि तुम बाधा भी न देना, और अनुरोध भी मत करना। न तो मुझे कौरवों की ओर से नारायण की सेना की ज़रूरत है, और पांडवों की ओर से स्वयं नारायण की ज़रूरत ही दीखती है। मुझ अकेले से ही जो बन सकेगा वही ठीक हैं मुझसे भूल हुई- तुम्हारी सहायता भी इतनी विपरीत पड़ेगी, यह मैं पहले नहीं जानता था। खैर, विवाह हो यह तो तुम चाहते हो न?''
''हाँ, चाहता हूँ।''
महिम, ''तो चाहने तक ही रहो, कोशिश करने की ज़रूरत नहीं है।''
गोरा को जब क्रोध आता है तो उसके क्षणिक आवेश में वह कुछ भी कर सकता है, यह सत्य है; लेकिन उस गुस्से को सहेजकर अपने संकल्प नष्ट करना उसका स्वभाव नहीं है। जैसे भी वह विनय को बाँधना चाहता है, रूठने का समय यह नहीं है। कल के झगड़े की प्रतिक्रिया स्वरूप ही विवाह की बात पक्की हुई, विनय के विद्रोह ने ही विनय के बंधन मज़बूज कर दिए, यह बात सोचकर कल की घटना पर गोरा को मन-ही-मन खुशी ही हुई। विनय के साथ हमेशा का सहज संबंध फिर से स्थापित करने में गोरा ने ज़रा भी देर नहीं की। लेकिन दोनों के बीच जो एक सहजता का भाव था, उसमें तो कुछ कमी आ ही गई।
अब गोरा ने यह भी समझ लिया कि विनय को दूर से बाँधकर रखना कठिन होगा; जहाँ से खतरे का उद्गम हैं वहीं जकर पहरा देना होगा। मन-ही-मन उसने सोचा, अगर परेशबाबू के घर मैं बराबर आना-जाना रखूँ तो विनय को ठीक रास्ते पर रखे रह सकूँगा।
उसी दिन, अर्थात् झगड़े के अगले ही दिन, करीब तीसरे पहर गोरा विनय के घर जा पहुँचा। विनय को इसकी बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि गोरा उसी दिन आ पहुँचेगा, इसीलिए उसे मन-ही-मन जितनी खुशी हुई उतना ही आश्चर्य भी हुआ।
इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह थी कि गोरा ने अपने-आप परेशबाबू की लड़कियों की बात चलाई, और उस बात में ज़रा भी विरूपता नहीं थी। इस चर्चा में विनय का उत्साह जगा देने के लिए अधिक परिश्रम की ज़रूरत भी नहीं थी।
विनय सुचरिता के साथ जिन बातों की चर्चा करता रहा था, वह सब विस्तार से गोरा को बताने लगा। स्वयं सुचरिता विशेष आग्रह से ये सब बातें उठाती हैं, और चाहे जितनी बहस करे; धीरे-धीरे अनजाने में उनसे सहमत भी होती जा रही है, यह बात गोरा को बताकर विनय ने उसे उत्साहित करने की कोशिश की।
विनय ने बातों-बातों में कहा, ''नंद की माँ ने ओझा को बुलाकर भूत के भ्रम में कैसे नंद के प्राण ले लिए और इस विषय में तुम्हारे साथ क्या बात हुई थी, जब मैंने यह बताया तब कहने लगी, 'आप लोग सोचते हैं, लड़कियों को घर में बंद करके चौके-बर्तन और सफाई करने देने से ही उनका सारा कर्तव्य पूरा हो जाता है। एक ओर तो ऐसा करके उनकी समझ-बूझ सब चौपट करके रख देंगे, उधर जब वे ओझा को बुलाएँगी तब उन पर बिगड़ने से भी नहीं चूकेंगे। जिनके लिए सारी दुनिया अड़ोस-पड़ोस के दो-एक घरों तक ही सीमित है, वे कभी संपूर्ण मानव नहीं हो सकतीं-और अधूरी रहकर पुरुषों के बड़े कामों को बिगाड़कर, अधूरे करके, पुरुष को बोझ से लादकर नीचे की ओर खींचकर, वे अपनी दुर्गति का बदला तो लेंगी ही। आप ही ने नंद की माँ को ऐसा बनाया है और ऐसी जगह घेरकर रखा है कि आज आप जान लगाकर भी उसे सुबुध्दि देना चाहें तो वह उस तक पहुँचेगी ही नहीं।' इस बारे में मैंने तर्क करने की बहुत कोशिश की, लेकिन सच कहूँ गोरा, मन-ही-मन उनसे सहमत होने के कारण कोई जोरदार दलील मैं नहीं दे सका और उनसे तो फिर भी बहस हो जाती है, लेकिन ललिता से बहस करने का मुझे कतई साहस नहीं होता। जब ललिता ने भँवें सिकोड़कर कहा, 'आप लोग जो सोचते हैं कि दुनिया-भर का काम तो आप लोग करेंगे, और आप लोगों का काम हम करेंगी, यह नहीं होने का। या तो हम भी दुनिया का काम सँभालेंगी, नहीं तो बोझ होकर रह जाएँगी। हम बोझ होंगी तो फिर आप बिगड़कर कहेंगे- पथे नारी विवर्जिता। आप यदि नारी को भी चलने दें तो फिर उसका विवर्जन करने की ज़रूरत न होगी- न घर में, न पथ पर।'- तब मुझसे कोई जवाब नहीं बन पड़ा और मैं चुप रह गया। आसानी से कोई बात ललिता नहीं कहती, लेकिन जब कहती है तब बहुत सोच-समझकर जवाब देना होता है। तुम चाहे जो कहो गोरा, मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि हमारी नारियाँ अगर चीनी नारियों के पैरों की तरह बाँधकर रखी जाएँगी तो उससे हमारा कोई काम आगे नहीं बढ़ेगा।'
गोरा ने कहा, ''लड़कियों को शिक्षा न दी जा, यह तो मैंने कभी नहीं कहा।''
विनय, ''चारु-पाठ तीसरा भाग पढ़ा देने से ही क्या शिक्षा हो जाती है?''
गोरा, ''अच्छी बात है, अब से विनय- बोले प्रथम भाग पढ़ाया जाएगा।''
इस प्रकार दोनों मित्रों के घूम-फिरकर परेशबाबू की लड़कियों की बात करते-करते रात हो गई।
अकेले घर लौटते समय ये सब बातें गोरा के मन में घूमती रहीं। घर पहुँचकर चारपाई पर लेटे-लेटे भी जब तक गोरा सो नहीं गया, परेशबाबू की लड़कियों की बात मन से नहीं हटा सका। ऐसी बात गोरा के जीवन में पहले कभी नहीं हुई थी; उसने लड़कियों की बात कभी सोची ही नहीं। आज विनय ने यह प्रमाणित कर दिया कि संसार में यह भी एक सोचने की बात है-इसे यों ही उड़ाया नहीं जा सकता, या तो इसका समझौता करना होगा या लड़ना होगा।
विनय ने जब दूसरे दिन गोरा से कहा, ''एक बार परेशबाबू के घर चले ही चलो न; बहुत दिनों से गए नहीं, अक्सर वह तुम्हारी बात पूछते हैं'', तब बिना आपत्ति किए गोरा तैयार हो गया। केवल तैयार ही नहीं हो गया, बल्कि उसका मन भी पहले-सा उदास नहीं था। पहले सुचरिता और परेशबाबू की अन्य लड़कियों के अस्तित्व के बारे में संपूर्ण भाव से गोरा उदासीन था, फिर बीच में उनके विरुध्द उसके मन में अवज्ञा का भाव उत्पन्न हुआ था, अब उसके मन में एक उत्सुकता का उदय हो आया था। कौन-सी चीज़ विनय के चित्त को इतना आकर्षित करती है, यह जानने के लिए उसके मन में एक विशेष उत्सुकता उत्पन्न हो गई थी।
जिस समय दोनों परेशबाबू के घर पहुँचे उस समय साँझ हो रही थी। दूसरी मंज़िल के एक कमरे में लैंप की रोशनी में हरानबाबू अपना एक अंग्रेज़ी लेख परेशबाबू को सुना रहे थे। वास्तव में इस समय परेशबाबू केवल उपलक्ष्य-मात्र थे- लेख सुचरिता को सुनाना ही उनका उद्देश्य था। सुचरिता मेज़ के परले सिरे पर चौंध से ऑंखों को ओट देने के लिए ताड़ के पत्ते का पंखा चेहरे के सामने रखे चुपचाप बैठी थी। अपने स्वभाव के कारण वह लेख को एकाग्र होकर सुनने की चेष्टा रही थी, किंतु रह-रहकर उसका मन इधर-उधर हुआ जा रहा था।
इसी बीच नौकर ने आकर जब गोरा और विनय के आने की सूचना दी तो वह चौंक उठी। कुर्सी छोड़कर वह जाने को ही थी कि परेशबाबू ने कहा, ''कहाँ जा रही हो राधा, और कोई नहीं है, अपने विनय और गौर आए हैं।''
सकुचाती हुई सुचरिता फिर बैठ गई। हरान के लंबे अंग्रेज़ी लेख-पठन के रुक जाने से उसे कुछ तसल्ली हुई। गोरा के आने की बात सुनकर सुचरिता के मन में कुछ उत्तेजना न हुई हो, यह बात नहीं थी; किंतु हरानबाबू के होते गोरा के आने से मन-ही-मन उसे एक बेचैनी और संकोच होने लगा था- कहीं दोनों में कुछ बहस न हो जाय इस भय से अथवा किसी दूसरे कारण से, यह कहना कठिन है।
हरानबाबू का मन गोरा का नाम सुनते ही भीतर-ही-भीतर बिल्कुल विमुख हो उठा। जैसे-तैसे गौर के नमस्कार का जवाब देकर वे गंभीर होकर बैठे रहे। हरान को देखते ही गोरा की युध्द करने की इच्छा हथियार भाँजकर तैयार हो गई।
अपनी तीनों लड़कियों को लेकर वरदासुंदरी कहीं निमंत्रण पर गई थीं; साँझ होने पर परेशबाबू द्वारा उन्हें लिवा लाने की बात तय थी। परेशबाबू के जाने का समय हो गया था। इसी मध्य गोरा और विनय के आ जाने से वह संकोच में पड़ गए। किंतु और देर करना ठीक न समझकर धीरे से उन्होंने हरान और सुचरिता से कहा, ''तुम लोग ज़रा इनके साथ बैठो, मैं फौरन लौटकर आता हूँ।'' और चले गए।
गोरा और हरानबाबू में देखते-देखते बहस शुरू हो गई। बहस जिस प्रसंग को लेकर हुई वह कुछ यों था : कलकत्ता के पास के किसी ज़िले के मजिस्ट्रेट ब्राउनलो के साथ परेशबाबू की जान-पहचान ढाका में रहते समय हुई थी। परेशबाबू की स्त्री और कन्याएँ घर से बाहर निकालती हैं, इसलिए साहब और उनकी स्त्री इनकी बहुत आवभगत करते थे। साहब अपने जन्मदिन पर हर साल कृषि प्रदर्शनी का मेला आयोजित किया करते थे। इस बार वरदासुंदरी के ब्राउनलो साहब की मेम के साथ बातचीत करते समय अंग्रेज़ी काव्य-साहित्य में अपनी लड़कियों की रुचि की बात करने पर सहसा मेम साहब ने कहा कि इस बार मेले में लैफ्टिनेंट गवर्नर सपत्नीक आएँगे- अगर आपकी लड़कियाँ उनके सामने किसी छोटे-से अंग्रेजी काव्य-नाटय का अभिनय कर दें तो बड़ा अच्छा हो। इस प्रस्ताव पर वरदासुंदरी अत्यंत उत्साहित हो उठी थीं। आज वह लड़कियों को उसी की रिहर्सल कराने के लिए किसी बंधु के घर ले गई हैं। यह पूछने पर कि स मेले में गोरा का उपस्थिति होना संभव होगा या नहीं, गोरा ने कुछ ज्यादा ही रुखाई के साथ कह दिया, 'नहीं'। इसी बात को लेकर देश में अंग्रेज़-बंगाली संबंध और परस्पर सामाजिक सम्मिलन की बाधा को लेकर बाकायदा दोनों जनों में लड़ाई छिड़ गई।
हरान ने कहा, ''बंगाली का ही दोष है। हमारे यहाँ इतने कुसंस्कार और कुप्रथाएँ हैं कि अंग्रेज़ों से मिलने के योग्य हम हैं ही नहीं।''
गोरा ने कहा, ''यदि यही सच हो तो इस अयोग्यता के रहते अंग्रेज़ से मिलने के लिए ललचाना हमारे लिए लज्जाजनक है।''
हरान बोले, ''लेकिन जो योग्य हो गए हैं उनको अंग्रेज़ से काफी सम्मान मिलता है- जैसे इन सबको।''
गोरा, ''एक आदमी के सम्मान से जहाँ और सबका असम्मान प्रकट होता हो, वहाँ ऐसे सम्मान को मैं अपमान मानता हूँ।''
हरानबाबू देखते-देखते अत्यंत क्रुध्द हो उठे, और गोरा रह-रहकर उन्हें बाग्बाणों से घायल करने लगा।
जब दोनों में इस प्रकार की बहस हो रही थी तब सुचरिता मेज़ के पास बैठी पंखे की ओट से एकटक गोरा को देख रही थी। जो बातें हो रही थीं वे उसके कानों में पड़ ज़रूर रही थीं, लेकिन उसका मन उधर बिल्कुल नहीं थ। वह जो अपलक नेत्रों से गोरा को देख रही थी, उसकी खबर उसे स्वयं होती तो सुचरिता लज्जित हो जाती; किंतु जैसे आत्म-विस्मृत होकर ही वह गोरा को देख रही थी। गोरा अपनी दोनो बलिष्ठ भुजाएँ मेज़ पर टेककर थोड़ा आगे झुककर बैठा था; उसके प्रशस्त उज्ज्वल ललाट पर लैंप की रोशनी पड़ रही थी; चेहरे पर कभी अवज्ञा की हँसी, कभी घृणा की छवि लहरा जाती थी। उसके चेहरे की प्रत्येक भाव-भंगिमा से एक आत्म-मर्यादा का गौरव प्रकट होता था। जो कुछ वह कह रहा है वह केलव सामयिक बहस या आक्षेप की बात नहीं है, प्रत्येक बात उसके अनेक दिल के चिंतन और व्यवहार से असंदिग्ध रूप से सिध्द हुई है। उसमें किसी प्रकार की दुविधा, दुर्बलता या आकस्मिकता नहीं है, यह मात्र उसकी आवाज़ से ही नहीं, उसके चेहरे और उसके समूचे शरीर के दृढ़ भाव से प्रकट हो रहा था। विस्मित होकर सुचरिता उसे देखने लगी। अपने जीवन में इतने दिनों बाद जैसे यहीं पहले-पहल उसने किसी को एक विशेष व्यक्ति, एक विशेष पुरुष के रूप में देखा। उस व्यक्ति को वह और दस लोगों से मिलाकर न देख सकी। ऐसे गोरा के विरुध्द खड़े होकर हरानबाबू मानो तुच्छ हो गए। उनके शरीर और चेहरे की आकृति, उनकी भाव-भंगिमा, यहाँ तक कि उनके कपड़े और चादर तक उन पर व्यंग्य करने लगी। इतने दिनों तक विनय के साथ बार-बार गोरा की चर्चा करते रहकर सुचरिता गोरा को एक विशेष मत का असाधारण व्यक्ति-भर समझने लगी थी; उसके द्वारा देश का कोई विशेष मंगल लक्ष्य सिध्द हो सकता है, उसने इतनी ही कल्पना की थी। आज एकटक उसके चेहरे की ओर देखते-देखते सुचरिता ने गोरा को जैसे सभी दलों, सभी मतों, सभी उद्देश्यों से अलग रखकर केवल गोरा के रूप में देखा। जैसे चाँद को समुद्र सारे प्रयोजनों और व्यवहारों से परे करके देखकर अकारण ही उद्वेलित हो उठता है, सुचरिता का मन भी आज वैसे ही सब-कुछ भूलकर, सारी बुध्दि और संस्कार छोड़कर, अपने सारे जीवन का अतिक्रमण करके मानो चारों ओर उच्छ्वसित होने लगा। मनुष्य क्या है, मनुष्य की आत्मा क्या है, यह मानो सुचरिता ने पहले-पहल देखा और इस अपूर्व अनुभूति से वह जैसे अपने अस्तित्व को बिल्कुल भूल गई।
हरानबाबू ने सुचरिता का यह भाव लक्ष्य किया। इससे बहस में उनकी युक्तियों का दम कुछ बढ़ा नहीं। अंत में अत्यंत अधीर होकर एकाएक आसन छोड़कर वह उठ खड़े हुए और बिल्कुल आत्मीय की तरह सुचरिता को पुकारते हुए बोले, ''सुचरिता, ज़रा इस कमरे में आओ, तुम्हें एक बात कहनी है।''
एकबारगी सुचरिता चौंक उठी, जैसे उसे किसी ने पीट दिया हो। हरानबाबू के साथ उसका जैसा संबंध है, उसमें उसे वह कभी इस तरह नहीं बुला सकते, ऐसा नहीं है; कोई दूसरा समय होता तो वह इसकी कुछ परवाह भी न करती, किंतु आज गोरा और विनय के सामने उसने अपने को अपमानित अनुभव किया। विशेषतया गोरा ने तो उसके चेहरे की ओर कुछ ऐसे ढंग से देखा कि वह हरानबाबू को क्षमा न कर सकी। वह पहले तो वैसे ही चुपचाप बैठी रही जैसे उसने हरानबाबू की बात सुनी ही न हो। इस पर हरानबाबू ने अपने स्वर में कुछ खीझ लाते हुए फिर पुकारा, ''सुनती हो सुचरिता- मुझे एक बात कहनी है, एक बार उस कमरे में आना तो।''
उनके चेहरे की ओर देखे बिना सुचरिता ने उत्तर दिया, ''अभी रहने दीजिए- बाबा आ जाएँ, फिर हो जाएगी।''
खड़े होते हुए विनय ने कहा, ''नहीं तो हम लोग चलें.... ''
जल्दी से सुचरिता ने कहा, ''नहीं विनयबाबू, बैठे रहिए! बाबा आपको बैठने को कह गए हैं- बस अभी आते ही होंगे।''
उसके स्वर से एक व्याकुल विनती का भाव प्रकट हो रहा था। मानो हिरनी को व्याघ्र के हाथों सौंपकर चले जाने का प्रस्ताव हो रहा हो।
''मैं और नहीं रुक सकता- अच्छा मैं चल दिया'', कहते हुए हारन बाबू जल्दी से कमरे से निकल गए। गुस्से में वह बाहर तो आ गए, किंतु अगले ही क्षण उन्हें पछतावा होने लगा। लेकिन तब फिर से लौटने का कोई बहाना न ढूँढ सके।
हरानबाबू के चले जाने के बाद सुचरिता जब गहरी लज्जा से लाल चेहरा झुकाए हुए बैठी थी, क्या करे या क्या कहे यह नहीं सोच पा रही थी, तब गोरा को उसके चेहरे की ओर अच्छी तरह देखने का मौका मिल गया। शिक्षित लड़कियों में जिस घमंड और प्रगल्भता की कल्पना गोरा ने कर रखी थी, सुचरिता के चेहरे पर उसका आभास तक भी नहीं था। उसके चेहरे पर बुध्दि की उज्ज्वलता अवश्य प्रकाशित हो रही है, किंतु नम्रता और लज्जा से आज वह कैसी सुंदर और कोमल दिखाई दे रही है! चेहरा कितना सुकुमार है, भँवों के ऊपर माथा मानो शरद् के आकाश-जैसा स्वच्छ-निर्मल! ओठ चुप हैं, किंतु अनुच्चारित बात का माधुर्य दोनों ओठों के मध्य एक कोमल कली-सा अटका हुआ है। आधुनकि स्त्रियों की वेश-भूषा की ओर इससे पहले गोरा ने कभी ध्यान से नहीं देखा, और बिना देखे ही उसके प्रति एक धिक्कार-भाव पाले रहा है- आज सुचरिता की देह पर नए ढंग की साड़ी पहनने की कला उसे विशेष अच्छी लगी। सुचरिता का एक हाथ मेज पर था, उसकी आस्तीन के सिकुड़े हुए भाग से निकला हुआ वह हाथ गोरा को आज किसी कोमल हृदय के कल्याणमई राग-सा लगा। प्रकाशित शांत संध्या में सुचरिता को घेरे हुए सारा कमरा अपने प्रकाश, अपनी दीवारों के चित्र, अपनी सजावट और अपनी सुव्यवस्था के कारण जैसे एक विशेष अनिंद्य रूप लेकर दिखाई दिया। वह घर है, वह सेवा-कुशल नारी के यत्न, स्नेह और सौंदर्य से मंडित है, वह मात्र दीवारों और शहतीरों पर टिकी हुई छत से कहीं अधिक कुछ है- यह सब आज मानो क्षण-भर में गोरा के सामने प्रत्यक्ष हो उठा। अपने चारों ओर के आकाश में गोरा ने जैसे एक सजीव सत्ता का अनुभव किया- उसके हृदय पर चारों ओर से एक अन्य हृदय की लहरें आकर आघात करने लगीं; न जाने कैसी एक निविड़ता-सी उसे घेरने लगी। ऐसी अद्भुत उपलब्धि उसे जीवन में पहले कभी नहीं हुई। देखते-देखते सुचरिता के माथे पर बिखरे केशों से लेकर उसके पैरों के पास साड़ी के किनारे तक क्रमश: सब अत्यंत सत्य और अत्यंत विशेष हो उठा। एक ही साथ समग्र रूप में सुचरिता, और स्वतंत्र रूप में सुचरिता का प्रत्येक अंग गोरा की दृष्टि को आकर्षित करने लगा।
कुछ देर किसी के कुछ न बोल सकने से सभी ओर सन्नाटा पसरा था। तभी विनय ने सुचरिता की ओर देखकर कहा, ''उस दिन हम लोगों में बात हो रही थी कि....'' और इस प्रकार बात का सिलसिला चलाया।
वह बोला, ''आप से तो मैं पहले ही कह चुका हूँ, मेरा एक समय ऐसा था जब मेरे मन में यह विश्वास जमा हुआ था के अपने देश के लिए, समाज के लिए हम कोई उम्मीद नहीं कर सकते- चिरकाल तक हम अबोध ही रहेंगे और अंग्रेज़ हमारे अभिभावक बने रहेंगे- जो जैसा है वह वैसा ही बना रहेगा- अंग्रेज की प्रबल शक्ति और समाज की प्रबल जड़ता के विरुध्द कहीं कोई उपाय भी हम न कर सकेंगे। हमारे देश के अधिकतर लोगों के मन का ऐसा ही भाव है। ऐसी स्थिति में मनुष्य या तो अपने स्वार्थ में ही लिप्त रहता है, या फिर उदासीन हो जाता है। हमारे देश के मध्य-वर्ग के लोग इसीलिए नौकरी में तरक्की के अलावा दूसरी कोई बात सोच ही नहीं सकते, और धनी लोग सरकार से खिताब पाने को ही जीवन की सार्थकता मानते हैं। हमारी जीवन-यात्रा का पथ थोड़ी दूर जाकर ही रुध्द हो जाता है- किसी सुदूर उद्देश्य की कल्पना भी हमारे दिमाग़ में नहीं आती, और उसके लिए साधन जुटाने को भी हम बिल्कुल अनावश्यक मान लेते हैं मैंने भी कभी सोचा था, गोरा के पिता की सिफारिश से कोई नौकरी ठीक कर लूँगा। ऐसे ही समय मुझसे गोरा ने कहा था- नहीं, सरकारी नौकरी तुम किसी तरह नहीं कर सकोगे।''
संचरिता के चेहरे पर इस बात से हल्का-सा आश्चर्य का भाव देखकर गोरा ने कहा, ''आप यह न समझिए कि गवर्नमेंट पर रुष्ट होकर मैंने ऐसी बात कही थी। जो लोग गर्वनमेंट का पक्ष लेते हैं वे गवर्नमेंट की शक्ति को अपनी शक्ति मानकर घमंड करते हैं और देश के आम लोगों से अलग एक वर्ग के हो जाते हैं- ज्यों-ज्यों दिन बीतते हैं हमारा यह भाव भी त्यों-त्यों बढ़ता जाता है। मैं जानता हूँ, मेरे परिचय के एक पुराने डिप्टी थे- अब काम छोड़ चुके हैं- उनसे डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने पूछा था, 'बाबू, तुम्हारी कचहरी में इतन ज्यादा लोग कैसे बरी हो जाते हैं?' इस पर उन्होंने जवाब दिया था, 'साहब, उसकी एक वजह है। जिन्हें आप जेल भी भेजते हैं, वे आपके लिए कुत्ते-बिल्ली के समान हैं, और मैं जिन्हें जेल भेजता हूँ वे तो मेरे अपने भाई-बंधु हैं।' तब तक भी ऐसे डिप्टी थे जो इतनी बड़ी बात कह सकें, और ऐसे अंग्रेज़ मजिस्ट्रेटों की भी कमी नहीं थी जो ऐसा सुन सकें। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते जाते हैं, नौकरी के फंदे अंग के गहने होते जा रहे हैं, और आजकल के डिप्टियों के लिए भी देश के लोग धीरे-धीरे कुत्ते-बिल्ली के समान हुए जा रहे हैं। और इस प्रकार तरक्की पाते रहने से उनकी जो केवल अधोगति हो रही है, इस बात की अनुभूति भी उनको नहीं हो रही है। दूसरे के कंधे का सहारा लेकर अपनो को नीचा समझना, और नीचा समझकर उनके साथ अन्याय करने को उध्दत होना, इससे कोई मंगल नहीं हो सकता।''
कहकर मुट्ठी से मेज़ पर गोरा ने आघात किया; तेल का लैंप काँप उठा।
विनय ने कहा, ''गोरा, यह मेज़ गवर्नमेंट की नहीं है, और यह लैंप भी परेशबाबू का है।''
गोरा ऊँचे स्वर से हँसा। उसकी प्रबल हँसी की गूँज से सारा कमरा भर गया। मज़ाक करने पर ऐसे बच्चों की तरह गोरा खुलकर हँस सकता है, इससे सुचरिता को अचंभा हुआ और मन-ही-मन आनंद भी हुआ। जो लोग बड़ी-बड़ी बातों की चिंता करते हैं वह ऐसे जी खोलकर हँस भी सकते हैं, यह वह नहीं जानती थी।
उस दिन गोरा ने बहुत बातें कीं। यद्यपि सुचरिता चुप ही रही फिर भी उसके चेहरे का भाव कुछ ऐसी सहमति का था कि गोरा का हृदय उत्साहित हो उठा। अंत में जैसे विशेष रूप से सुचरिता को संबोधित करके ही उसने कहा, ''देखिए, एक बात याद रखिए। अगर हमें यही ग़लत धारणा हो कि अंग्रेज़ क्योंकि इतने प्रबल हो गए हैं, इसलिए हम भी ठीक अंग्रेज़ हुए बिना किसी प्रकार प्रबल नहीं हो सकते, तो फिर यह असंभव कभी संभव नहीं होगा और हम लोग नकल करते-करते ही घर से बाहर खदेड़ दिए जाएँगे। आप निश्चिय जानिए, भारत की एक विशेष प्रकृति है, विशेष शक्ति और विशेष सच्चाई है, उसी के संपूर्ण विकास द्वारा ही भारत सार्थक होगा, भारत की रक्षा होगी। अंग्रेज़ का इतिहास पढ़कर भी यदि हमने यह नहीं सीखा तो सब कुछ ग़लत सीखा है। आपसे मेरी यही प्रार्थना है आप भारतवर्ष के भीतर आइए, उसकी सब अच्छाई-बुराई के बीचों-बीच उतरकर खड़ी होइए- विकृति हो तो भीतर से सुधार कर दीजिए; लेकिन उसे देखिए, समझिए, उसको जानिए, उसकी ओर मुड़िए, उसके साथ एक होइए! उसके विरुध्द खड़े होकर, बाहर रहकर बचपन से ख्रिस्तानी संस्कारों में दीक्षित होकर आप उसे समझ ही नहीं सकेंगी, उसे केवल क्षति ही पहुँचाती रहेंगी, उसके मंगल के काम नहीं आ सकेंगी।''
गोरा ने कहा तो 'मेरी प्रार्थना' किंतु यह प्रार्थना नहीं थी; मानो आदेश था। बात में कुछ ऐसा प्रचंड बल था कि दूसरे की सम्मति की उसे उपेक्षा न थी। सिर झुकाकर सुचरिता ने सब सुन लिया। विशेष रूप से गोरा ने उसी को संबोधित करके इतने प्रबल आग्रह के साथ ये बातें कहीं, इससे सुचरिता के मन में एक उथल-पुथल मच गई। यह बेचैनी किस बात की है, यह सोचने का समय तब नहीं था। भारतवर्ष नाम की एक महान प्राचीन सत्ता है, यह बात सुचरिता ने क्षण-भर के लिए भी कभी नहीं सोची थी। यह सत्ता छिपी रहकर भी अधिकार पूर्वक सुदूर अतीत से लेकर सुदूर भविष्य तक मानव-जाति के विराट भाग्य-जाल में एक विशेष रंग का सूत्र एक विशेष ढंग से बुनती रही है, यह सूत्र कितना सूक्ष्म और अनोखा है और कितनी दूर तक उसका कितना गहरा प्रभाव है, यह आज गोरा के प्रबल स्वर के रूप में सुचरिता के सामने मानो सहसा प्रकट हो गया। प्रत्येक भारतवासी का जीवन इतनी बड़ी एक सत्ता से घिरा हुआ और अधिकृत है, उसे चेतन भाव से अनुभव न करने से हम लोग कितने छोटे हो जाते हैं और अपने चारों ओर की स्थित से कैसे बेखबर होकर काम करते हैं, यह सुचरिता के सम्मुख क्षण-भर में स्पष्ट हो गया। इसी आकस्मिक स्फूर्ति के आवेग से सुचरिता अपना सब संकोच त्यागकर सहज ही विनय से कह उठी, ''देश की बात कभी मैंने इस ढंग से उसे इतना बड़ा और सत्य मानकर नहीं सोची। लेकिन एक बात मैं पूछना चाहती हूँ- धर्म के साथ देश का क्या संबंध है? क्या धर्म देश से परे नहीं है?''
धीर स्वर में पूछा गया सुचरिता का यह प्रश्न गोरा को बड़ा सरस लगा। सुचरिता की बड़ी-बड़ी ऑंखों में यह प्रश्न और भी रसपूर्ण दिखाई दिया। गोरा ने कहा, ''देश से जो परे हैं, देश से जो कहीं बड़ा है, वह देश के भीतर से ही प्रकट होता है। ऐसे ही विचित्र भाव से ईश्वर अपने अनंत स्वरूप को व्यक्त करते हैं। जो कहते हैं कि सत्य एक है, इसलिए केवल एक ही धर्म सत्य हो सकता है, या धर्म का एक ही रूप सत्य हो सकता है, वे इस सत्य को तो मानते हैं कि सत्य एक है, लेकिन इस सत्य को नहीं मानना चाहते हैं कि सत्य अंतहीन होता है। वह जो अंतहीन एक है, वह अंतहीन अनेक में अपने को एकाशित करता रहता है- उसी की लीला तो सारे जगत में हम देखते हैं। इसीलिए धर्म-मत भी विभिन्न रूप लेकर कई दिशाओं से उसी धर्म-राज की उपलब्धि कराते हैं। मैं निश्चयपूर्वक आप से कहता हूँ, भारतवर्ष की खुली खिड़की से आप सूर्य को देख सकेंगी- इसके लिए सागर-पार जाकर ख्रिस्तान गिरजाघर की खिड़की में बैठने की कोई आवश्यकता न होगी।''
सुचरिता ने कहा, ''आप यह कहना चाहते हैं कि भारतवर्ष का धर्म-तंत्र हमें एक विशेष मार्ग से ईश्वर की ओर ले जाता है। वह विशेष क्या है?''
गोरा ने कहा, ''वह यह कि ब्रह्म जो निर्विशेष है, वह विशेष में ही व्यक्त होता है, किंतु उसका विशेष अंतहीन है। जल भी उसका विशेष है, स्थल भी उसका विशेष है; अग्नि, वायु, प्राण उसके विशेष हैं; बुध्दि, प्रेम सभी उसके विशेष हैं। गिनकर उसका कोई अंत नहीं पाया जा सकता, इसीलिए विज्ञान का सिर चकरा जाता है। जो निराकार है उसके आकार का अंत नहीं है- ह्रस्व-दीर्घ, स्थूल-सूक्ष्म का अनंत प्रवाह ही उसका है। जो अनंत विशेष है वही निर्विशेष है, जो अनंत रूप है वही अरूप है। दूसरे देशों में ईश्वर को कम या अधिक मात्रा में किसी एक विशेष में बाँधने की कोशिश होती है- भारतवर्ष में भी ईश्वर को विशेष में देखने की कोशिश होती है अवश्य; किंतु भारतवर्ष उसी विशेष को एकमात्र और चरम नहीं कहता। ईश्वर उस विशेष का भी अनंत प्रकार से अतिक्रमण करता रहता है, इस तथ्य को भारतवर्ष में कोई भक्त कभी अस्वीकार नहीं करते।''
सुचरिता ने कहा, ''ज्ञानी नहीं करते, लेकिन अज्ञानी?''
गोरा बोला, ''मैंने तो पहले ही कहा, सब देशों में अज्ञानी सब सत्यों को विकृत करते हैं।''
सुचरिता ने कहा, ''लेकिन हमारे देश में यह विकृति क्या अधिक दूर तक नहीं पहुँच गई है?''
''हो सकता है, किंतु उसका कारण यही है कि धर्म के स्थूल सूक्ष्म, अंत: और बाह्य, शरीर और आत्मा, भारतवर्ष इन दोनों अंगो को पूर्णरूपेण स्वीकार करना चाहता है; इसलिए जो लोग सूक्ष्म को ग्रहण नहीं कर पाते वे स्थूल का ही वरण करते हैं और अज्ञानवश उस स्थूल में अनेक विकार पैदा करते रहते हैं। लेकिन जो रूप में भी और अरूप में भी सत्य है, स्थूल में भी और सूक्ष्म में भी सत्य है ध्यान में भी और प्रत्यक्ष में भी सत्य है, उन्हें शरीर-मन-कर्म सभी से प्राप्त करने का जो आश्चर्यजनक और विशाल प्रयत्न भारतवर्ष कर रहा है, मूर्खों की तरह उसकी अवज्ञा करके अठारहवीं शताब्दी के यूरोप के नास्तिकता और आस्तिकता-मिश्रित एक संकीर्ण, नीरस, अंगहीन धर्म को हम एकमात्र धर्म मानकर ग्रहण कर लें, यह कैसे संभव हो सकता है? मैं जो कह रहा हूँ वह आप शायद अपने बचपन में पड़े हुए संस्कारों के कारण अच्छी तरह न समझ सकेंगी, सोचेंगी कि इस आदमी को अंग्रेज़ी पढ़कर भी शिक्षा का कुछ फल नहीं मिला। लेकिन आपमें कभी भारतवर्ष की सत्य प्रकृति और सत्य साधना के प्रति श्रध्दा उत्पन्न हो सकी- हज़ारों बाधाओं और विकृतियों के बीच भी भारतवर्ष जैसे अपने को प्रकाशित कर रहा है, उस प्रकाश की गहराई में आप फिर पाकर आप मुक्ति-लाभ कर सकेंगी।''
बहुत देर तक सुचरिता को चुप बैठे देखकर गोरा ने कहा, ''मुझे आप एक कट्टर व्यक्ति न समझ लीजिएगा। कट्टर लोग, विशेषकर जो लोग नए ढंग से कट्टर हो गए हैं वे जिस ढंग से हिंदू-धर्म के बारे में बात करते हैं मेरी बात को उस ढंग से न लीजिएगा। भारतवर्ष की अनेक प्रकार की छवि और विचित्र चेष्टाओं के बीच मैं एक गहरा और बृहत् ऐक्य देख पाया हूँ, उसी ऐक्य के आनंद से मैं पागल हूँ। उसी ऐक्य के आंनद से, भारतवर्ष में जो सबसे मूढ़ हैं उनके साथ हिल-मिलकर धूल में भी बैठने में मुझे थोड़ा भी संकोच नहीं होता। भारतवर्ष के इस संदेश को कोई समझते हैं, कोई नहीं समझते-तो न सही; मैं अपने देश के सब लोगों के साथ एक हूँ; वे सभी मेरे अपने हैं। उन सबके बीच चिंरतन भारतवर्ष का गू आविर्भाव बराबर अपना कार्य कर रहा है, इस विषय में मेरे मन में ज़रा भी शंका नहीं है।''
गोरा की ये ज़ोरदार बातें जैसे कमरे की दीवारों से, मेज़ से, सभी सामान से प्रतिध्वनित होकर आने लगीं।
ये सब बातें सुचरिता के पूर्णत: स्पष्ट समझने की नहीं थी। किंतु अनुभूति का पहला सूक्ष्म संचार भी बड़ा प्रबल होता है। जीवन किसी चारदीवारी या गुट की सीमा में बँधा नहीं है, यह उपलब्धि सुचरिता के मन में कसकने लगी।
सीढ़ी के पास से सहसा लड़कियों की ऊँची हँसी के साथ पैरों की तेज चाप सुनाई दी। वरदासुंदरी तथा लड़कियों को लेकर परेशबाबू लौट आए थे। सुधीर सीढ़ियाँ चढ़ते समय कुछ दंगा कर रहा था, यही उस हँसी का कारण था।
लावण्य, ललिता और सतीश कमरे में आते ही गोरा को देख सँभलकर खड़े हो गए। लावण्य कमरे से बाहर चली गई, सतीश विनय की कुर्सी के पास खड़े होकर उसके कान में कुछ कहने लगा। ललिता एक कुर्सी सुचरिता के पीछे खींचकर उसकी ओट में अदृश्य-सी होकर बैठ गई।
परेशबाबू ने आकर कहा, ''मुझे लौटने में बड़ी देर हो गई। जान पड़ता है, पानू बाबू चले गए?''
सुचरिता ने कोई उत्तर नहीं दिया। विनय ने ही कहा, ''हाँ, वह और नहीं रुक सके।''
उठकर गोरा ने कहा, ''अब हम लोग भी चलें।'' कहकर उसने झुककर परेशबाबू को नमस्कार किया।
परेशबाबू ने कहा, ''आज तुम लोगों से बातचीत का मौका ही नहीं मिला। बाबा, जब भी तुम्हें फुरसत हो आते रहना!''
गोरा और विनय कमरे से निकल रहे थे कि वरदसुंदरी आ गईं। दोनों ने उन्हें नमस्कार किया। उन्होंने कहा, ''आप लोग अब जा रहे हैं क्या?''
गोरा ने कहा, ''हाँ।''
विनय से वरदासुंदरी ने कहा, ''लेकिन विनय बाबू, अभी आप नहीं जा सकते- आपको भोजन करके ही जाना होगा। आज कुछ काम की बात करनी है।''
सतीश ने उछलकर विनय का हाथ पकड़ लिया और कहा ''हाँ माँ, विनय बाबू को जाने मत देना; आज वह मेरे पास रहेंगे।''
विनय कुछ सकुचा रहा है और कोई उत्तर नहीं दे पा रहा है, यह देखकर वरदासुंदरी ने गोरा से कहा, ''विनयबाबू को क्या आप साथ ही ले जाना चाहते है-उनकी क्या अभी ज़रूरत है?''
गोरा ने कहा, ''नहीं, बिल्कुल नहीं। विनय, तुम रह जाओ न- मैं जाता हूँ।'' कहता हुआ गोरा जल्दी से उतर गया।
जैसे ही विनय के रुक जाने के बारे में वरदासुंदरी ने गोरा से अनुमति माँगी, वैसे ही ललिता की ओर देखे बिना विनय न रह सका। ललिता ने दबे ओठों से मुस्कराकर मुँह फेर लिया।
ललिता के इस छोटे-से विहँसते व्यंग्य के साथ विनय झगड़ा नहीं कर सकता, पर उसे यह काँटे सा चुभता है। कमरे में आकर विनय के बैठते ही ललिता ने कहा, ''विनय बाबू, आज तो आपका भाग जाना ही ठीक रहता।''
विनय ने कहा, ''क्यों?''
''माँ ने आपको मुश्किल में डालने की सोची है। मजिस्ट्रेट के मेले में जो अभियान होगा उसके लिए एक आदमी कम पड़ रहा है- माँ ने आप ही का चुनाव किया है।''
घबराकर विनय ने कहा, ''मारे गए! मुझसे तो यह काम नहीं होगा!''
हँसकर ललिता ने कहा ''यह तो मैंने पहले ही माँ से कह दिया है। वैसे भी इस अभिनय में अपके दोस्त कभी आपको भाग नहीं लेने देंगे।''
चोट खाकर विनय ने कहा, ''दोस्त की बात छोड़िए। मैंने सात जन्म में कभी अभिनय नहीं किया-मुझे क्यों चुना?''
ललिता ने कहा, ''और हम लोग तो मानो जन्म जन्मांतर से अभिनय करती आ रही हैं न?''
इसी समय कमरे में वरदासुंदरी बैठ गईं। ललिता ने कहा, ''माँ, अभिनय के लिए तुम विनय बाबू से यों ही कह रही हो? पहले उनके दोस्त को राज़ी कर सको तभी.... ''
कातर होकर विनय ने कहा, ''दोस्त के राज़ी होने की कुछ बात नहीं है। अभिनय यों ही तो नहीं हो जाता-मुझे तो आता ही नहीं।''
वरदासुंदरी ने कहा, ''उनकी चिंता न करें- हम आप को सिखा पढ़ाकर तैयार कर देंगी। छोटी-छोटी लड़कियाँ कर सकेंगी और आप नहीं कर सकेंगे?''
विनय के बचाव का कोई रास्ता नहीं रहा।
21
अपनी स्वाभाविक तेज़ चाल छोड़कर गोरा अन्यमनस्क-सा धीरे-धीरे घर की ओर जा रहा था। घर का सीधा रास्ता छोड़ उसने बहुत घूमकर गंगा के किनारे का रास्ता पकड़ा। उस समय कलकत्ता की गंगा और उसका किनारा वणिक-सभ्यता की लाभ.... लोलुप कुरूपता से जल-थल पर आक्रांत नहीं हुआ था; किनारे पर रेल की पटरी और पानी पर पुल की बेड़ियाँ नहीं पड़ी थीं। उन दिनों जाड़ों की संध्या में शहर के नि:श्वासों की कालिख आकाश पर इतनी सघन नहीं छाती थी। सुदूर हिमालय की निर्जन चोटियों से नदी तब कलकत्ता की धूल-लिपटी व्यस्तता के बीच शांति की वार्ता लिए हुए ही उतरती थी।
गोरा के मन को आकृष्ट करने का प्रकृति को कभी अवसर नहीं मिला था। उसके अपने कम-काज के वेग से ही उसका मन बराबर तरंगित रहता था, जो जल-थल आकाश मुक्त रूप से उसके काम-काज का क्षेत्र बने हुए थे उन्हें जैसे उसने कभी लक्ष्य ही नहीं किया था।
किंतु आज नदी के ऊपर का वही आकाश नक्षत्रों से खचित अपने अंधकार के द्वारा बार-बार गोरा के हृदय को मौन भाव से छूने लगा। नदी शांत थी, कलकत्ता के घाटों पर कुछ नौकाओं में रोशनी हो रही थी और कुछ पर प्रकाशहीन सन्नाटा था। दूसरी तरफ के पेड़ों के झुरमुटों पर घनी कालिमा छाई थी। उसके ऊपर अंधकार के अंतर्यामी-सा बृहस्पति अपनी तिमिर-भेदी अपलक दृष्टि लिए चमक रहा था।
आज इस विशाल नि:स्तब्ध प्रकृति ने जैसे गोरा के तन-मन को पुलकित कर दिया। आकाश का विराट अंधकार गोरा के हृदय की गति पर मानो ताल देने लगा। इतने दिनों से प्रकृति धीरज धर स्थिर बैठी थी-आज गोरा के अंतस् का कोई द्वार खुला पाकर उसने इस असावधानी में क्षण-भर में दुर्ग को विजित कर लिया। अब तक अपनी विद्या-बुध्दि, चिंता और कर्म के बीच गोरा बिल्कुल स्वतंत्र था- आज सहसा क्या हुआ, न जाने कहाँ आज उसने प्रकृति को स्वीकार किया और उसके स्वीकार करते ही इस गहरे काले जल, निविड़ काले तट, इस उदार काले आकाश ने उसे वरण कर लिया। आज न जाने कैसे गोरा प्रकृति की पकड़ाई में आ गया।
रास्ते के किनारे पर व्यापारिक दफ्तर के बगीचे की किसी विलायती लता से किसी अनजाने फूल की मोहक कोमल गंध गोरा के व्याकुल हृदय को सहलाने लगी। नदी ने उसे भीड़-भरे कर्म-क्षेत्र से किसी अनिर्दिष्ट सुदूर की ओर इंगित कर दिया जहाँ निर्जन जल के किनारे पेड़ों की गुम्फित डालों में न जाने कौन-से फूल खिलते हैं, कौन-सी छायाएँ फैलती हैं। वहाँ निर्मल नीलव्योम के नीचे दिन मानो किसी की ऑंखों की उन्मीलित चमक है और रातें मानो किसी की झुकी हुई पलकों की लज्जा-जड़ित छाया। चारों तरफ से माधुर्य की लहरें आकर गोरा को जिस एक अतल, अनादि शक्ति के आकर्षण में समेट लिया, उसका कोई ज्ञान गोरा को इससे पहले नहीं था। वह एक साथ ही वेदना और आनंद से उसके समूचे मन को एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर ले जाने लगी। आज इस हेमंती रात में नदी के किनारे नगर के कोलाहल से दूर और नक्षत्रों के अस्फुट प्रकाश में गोरा किसी विश्वव्यापिनी अवगुंठित मायाविनी के सम्मुख आत्मविस्मृत-सा खड़ा हुआ था। इतने दिन इस महारात्रि को उसने सिर झुकाकर नहीं किया, इसीलिए अचानक आज उसके शासन के जादू ने गोरा को अपनी सह-वर्ण डोर से जल, थल, आकाश के साथ चारों ओर से बाँध लिया। अपने ऊपर गोरा स्वयं हैरान होता हुआ नदी के सूने घाट की एक सीढ़ी पर बैठ गया। बार-बार वह अपने-आपसे पूछने लगा कि उसके जीवन में यह किस नई चीज़ का आविर्भाव हो रहा है और इसका प्रयोजन क्या है! जिस प्रण के द्वारा उसने अपने जीवन को एक सिरे से दूसरे सिरे तक व्यवस्थित कर रखा था उसके बीच इसका स्थान कहाँ है? यह क्या उसके विरुध्द है- इसे क्या संघर्ष करके परास्त करना होगा? यह सोचकर जैसे ही गोरा ने मुट्ठियाँ कसकर बाँधी, वैसे ही बुध्दि से उज्ज्वल, नम्रता से कोमल को स्निग्ध ऑंखों की जिज्ञासु दृष्टि उसके मन के सम्मुख आ गई- किसी अनिन्द्य सुंदर हाथ की उँगलियों ने स्पर्श-सौभाग्य का अनचखा अमृत उसके ध्यान के सामने ला रखा- गोरा के सारे शरीर में पुलक की बिजली-सी कौंध गई। अंधकार के सूनेपन में यह सरस अुभूति उसके सभी संदेहों को, उसकी दुविधा को बिल्कुल निरस्त कर गई। अपने पूरे तन-मन से वह इस नई अनुभूति का उपभोग करने लगा, इसे छोड़कर उठ जाने की उसकी इच्छा नहीं हुई।
जब बहुत रात गए वह घर लौटा तब आनंदमई ने पूछा, ''इतनी रात कर दी, बेटा? खाना तो ठंडा हो गया है।''
गोरा ने कहा, ''क्या जाने माँ, आज क्या सूझा कि बहुत देर गंगा के घाट पर बैठा रहा।''
आनंदमई ने पूछा, ''क्या विनय साथ था?''
गोरा ने कहा, ''नहीं, मैं अकेला ही था।''
मन-ही-मन आंनदमई को कुछ अचरज हुआ। बिना प्रयोजन गोरा इतनी रात तक गंगा के किनारे बैठकर सोचे, ऐसी घटना पहले तो कभी नहीं हुई। चुपचाप बैठे रहना तो गोरा का स्वभाव ही नहीं है। जब अनमना-सा गोरा खाना खा रहा था तब आनंदमई ने लक्ष्य किया कि उसके चेहरे पर एक नए ढंग की उलझन बिखरी हुई है।
आनंदमई ने थोड़ी देर के बाद धीरे-से पूछा, ''शायद आज विनय के घर गए थे?''
गोरा ने कहा, नहीं, हम दोनों ही आज परेशबाबू के यहाँ गए थे।''
आनंदमई यह सुनकर थोड़ी देर चुप बैठी सोचती रही। फिर उन्होंने पूछा, ''उन सबके साथ तुम्हारा परिचय हो गया है?''
गोरा ने कहा, ''हाँ, हो गया।''
आनंदमई, ''उनकी लड़कियाँ सामने आती हैं?''
''हाँ, उन्हें कोई झिझक नहीं है।''
और किसी समय गोरा के ऐसे उत्तर के साथ थोड़ी उत्तेजना भी प्रकट होती, किंतु आज उसके कोई लक्षण न देखकर आनंदमई फिर चुपचाप सोचने लगीं।
अगले दिन गोरा सबेरे उठकर अन्य दिनों की भाँति फौरन मुँह-हाथ धोकर दैनिक कामों के लिए तैयार होने नहीं गया। अन्यमनस्क-सा सोने के कमरे के पूरब की ओर का दरवाज़ा खोलकर कुछ देर खड़ा रहा। पूरब की ओर उनके घर की गली एक बड़ी सड़क में जा मिलती है, उस सड़क के पूरब की ओर एक स्कूल है, उस स्कूल से लगे मैदान में एक पुराने जामुन के पेड़ के ऊपर हल्का कुहासा तैर रहा था और उसकी आड़ में सूर्योदय की अरुण रेखा धुंधली-सी दीख रही थी। बहुत देर तक गोरा के चुपचाप उधर देखते-देखते वह हल्का कुहासा लुप्त हो गया और खिली धूप पेड़ की डालों के भीतर से अनगिनत चमचमाती संगीनों की तरह पार हो गई और देखते-देखते कलकत्ता की सड़कें लोगों से और कोलाहल से भर उठीं।
इसी समय गली के मोड़ पर अविनाश के साथ कुछ और विद्यार्थियों को अपने घर की ओर आते देखकर गोरा ने अपने इस स्वप्न के जाल को ज़ोर से झटककर तोड़ दिया। अपने मन को स्थिर कर उनसे कहा, ''नहीं, यह सब कुछ नहीं है, ऐसे नहीं चलेगा।'' ऐसा कहते हुए वह शीघ्रता से सोने के कमरे से निकल गया। गोरा के गुट के लोग उसके घर आएँ और उनके आने से पहले गोरा तैयार हो गया हो, ऐसी घटना इससे पहले कभी नहीं घटी। इस ज़रा-सी भूल ने ही गोरा को बहुत गहरे धिक्कारा। मन-ही-मन उसने निर्णय किया कि फिर वह परेशबाबू के घर नहीं जाएगा और ऐसी कोशिश करेगा कि विनय से भी कुछ दिन तक मिलना न हो और इन बातों की चर्चा बंद रहे।
उस दिन नीचे जाकर सलाह करके सबकी सम्मति से यही तय हुआ कि गुट के दो-तीन आदमियों को साथ लेकर गोरा पैदल ग्रांड ट्रंक रोड की यात्रा करने निकलेगा, साथ में रुपया-पैसा कुछ नहीं लेगा, रास्ते में गृहस्थों का आतिथ्य स्वीकार किया जाएगा।
इस अद्भुत संकल्प को साधकर गोरा कुछ अतिरिक्त ही उत्साहित हो उठा। इस तरह खुली सड़क पर सारे बंधन काटकर चल निकलने का एक अनोखा आनंद उस पर छा गया। उसे लगा कि उसका हृदय भीतर-ही-भीतर जिस जाल में फँस गया था, उससे छुटकारे की इस कल्पना से ही वह टूट गया है। यह सब भावावेश सिर्फ माया है और कर्म ही सत्य है, यह बात बड़े ज़ोर से अपने मन में दुहराकर और प्रतिध्वनित करके, यात्रा की तैयारी करने के लिए गोरा घर की निचली मंज़िल के बैठक वाले कमरे से यों लगभग दौड़ता हुआ बाहर निकला जैसे लड़के स्कूल की छुट्टी होने पर निकलते हैं।
उस समय कृष्णदयाल गंगा-स्नान करके, लोटे में गंगाजल लिए, नामावली ओढ़े, मन-ही-मन मंत्रजाप करते घर लौट रहे थे। एकाएक गोरा उनसे टकरा गया। लज्जित होकर जल्दी से उसने उन्हें पैर छूकर प्रणाम किया, वह ''रहने दो, रहने दो'' कहकर सकपकाए हुए-से अंदर चले गए। पूजा पर बैठने से पहले गोरा का संस्पर्श हो जाने से उनके गंगा-स्नान का फल तो नष्ट हो गया। कृष्णदयाल गोरा के संस्पर्श से ही विशेषत: बचने की कोशिश करते हैं, यह गोरा ठीक-ठीक नहीं समझता था। वह यही सोचता था कि छुआछूत मानने के कारण सभी के हर तरह के संसर्ग से बचने के लिए ही वह इतने सतर्क रहते हैं। आनंदमई को तो म्लेक्ष कहकर वह दूर रखते ही थे, महिम काम-काजी आदमी था सो उससे तो भेंट होने का मौका नहीं आता था। सारे परिवार में मात्र महिम की लड़की शशिमुखी को अपनाकर उसे वह संस्कृत के स्रोत रटाते थे और पूजा-अर्चना की विधि सिखलाते थे।
गोरा द्वारा पाँव छुए जाने से कृष्णदयाल के व्यस्त होकर जल्दी से हट जाने पर गोरा का ध्यान उनके संकोच के कारण की ओ गया और वह मन-ही-मन हँसा। इसी तरह पिता के साथ गोरा का संबंध धीरे-धीरे प्राय: खत्म-सा हो गया था, और माँ के अनाचार की वह चाहे जितनी बुराई करे, इसी आचारद्रोहिणी माँ की ही वह अपने मन की सारी श्रध्दा के साथ पूजा करता था।
भोजन के बाद कुछ कपड़ों की पोटली बाँधकर और उसे विदेशी पर्यटकों की तरह कंधे पर डालकर वह माँ के निकट जा उपस्थित हुआ। बोला, ''माँ, मैं कुछ दिन के लिए बाहर जाऊँगा।''
आनंदमई ने पूछा, ''कहाँ जाओगे, बेटा?''
गोरा ने कहा, ''यह तो मैं ठीक नहीं बता सकता।''
आनंदमई ने पूछा, ''कोई काम है?''
गोरा ने कहा, 'जिसे काम कहा जाता है वैसा तो कुछ नहीं-बस बाहर जाना ही काम है।''
गोरा ने आनंदमई को चुप होते देखकर कहा, ''माँ, मैं हाथ जोड़ता हूँ, मुझे मना मत करना। तुम तो मुझे जानती हो, मेरे सन्यासी हो जाने का तो कोई भय है नहीं। फिर सोचो तुम्हें छोड़कर अधिक दिन क्या मैं कहीं रह सकता हूँ।''
माँ के प्रति अपने प्यार की बात कभी गोरा ने अपने मुँह से इस तरह नहीं कही थी, इसलिए यह बात कहकर वह लज्जित हो गया।
आनंदमई ने पुलकित होकर जल्दी से उसकी लज्जा को ओट देते हुए कहा, ''तो विनय भी साथ जाएगा?''
हड़बड़ाकर गोरा ने कहा, ''नहीं माँ, विनय नहीं जाएगा! यह लो, अब माँ ने यह सोचना शुरू कर दिया कि विनय न गया तो सफर में उसके गोरा की देख-भाल कौन करेगा! विनय को मेरा रखवाला समझती हो यह तुम्हारी बुरी आदत है माँ- इस बार मेरे भले-चंगे लौट आने से ही तुम्हारा यह भ्रम दूर होगा।''
आनंदमई ने पूछा, ''बीच-बीच में खबर तो मिलती रहेगी न?''
गोरा ने कहा, ''तुम यही समझ लो कि खबर नहीं मिलेगी- फिर भी अगर मिल जाय तो तुम्हें अच्छा ही लगेगा। घबराने की कोई बात नहीं है, तुम्हारे गोरा को कोई ले नहीं जाएगा। जितना तुम मुझे मूल्यवान समझती हो माँ, उतना और कोई नहीं समझता न! या इस गठरी पर ही किसी को लोभ हो तो यह उसे दान देकर चला आऊँगा, इसको बचाने के लिए जान नहीं गँवाऊँगा- यह तो निश्चय समझो।''
आनंदमई की चरण-धूल लेकर गोरा ने प्रणाम किया। उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरकर हाथ चूम लिया, किसी तरह का निषेध नहीं किया। अपने कष्ट या किसी अनिष्ट की आशंका की बात कहकर आनंदमई कभी किसी को नहीं रोकती थी। उन्होंने अपने जीवन में अनेक बाधाएँ और विपत्तियाँ सही थीं, बाहर की दुनिया उनके लिए अजानी न थी। भय का उनके मन में लेश भी नहीं था। यह शंका उन्हें नहीं हुई कि गोरा पर कोई मुसीबत आ सकती है, किंतु पिछले दिन यही सोचकर वह चिंतित थीं कि न जाने गोरा के मन में क्या उथल-पुथल हो रही है। सहसा आज यह सुनकर कि गोरा अकारण ही भ्रमण करने जा रहा है, उनकी चिंता और भी गहरी हो गई।
गोरा जैसे गठरी कंधे पर रखकर बाहर निकला वैसे ही विनय हाथों में गहरे लाल रंग के गुलाबों का एक जोड़ा बड़े यत्न से सँभाले हुए सामने आ खड़ा हुआ। गोरा ने कहा, ''विनय, तुम्हारा दर्शन असगुन है कि सगुन, इसकी जाँच अब हो जाएगी।''
विनय ने पूछा, ''कहीं जा रहे हो क्या?''
गोरा ने कहा, ''हाँ।''
विनय ने पूछा, ''कहाँ?''
गोरा ने कहा, ''अनुगूँज उत्तर देती है, कहाँ।''
विनय, ''अनुगूँज से अच्छा और उत्तर नहीं है क्या?''
गोरा, ''नहीं। तुम माँ के पास जाओ, उनसे सब पता लग जाएगा। मैं चलता हूँ।''
गोरा तेज़ी से चला गया, विनय ने भीतर आनंदमई को प्रणाम करके गुलाब के फूल उनके चरणों पर रख दिए।
फूल उठाते हुए आनंदमई ने पूछा, ''ये कहाँ मिले, विनय?''
विनय ने प्रश्न का सीधा उत्तर न देकर कहा, ''अच्छी चीज़ मिलने पर पहले उसे माँ के चरणों में चढ़ाने का मन होता है।''
फिर आनंदमई के तख्तपोश पर बैठते हुए विनय ने कहा, ''लेकिन माँ, आज तुम कुछ अनमनी जान पड़ती हो।''
आनंदमई ने कहा, ''भला क्यों?''
''क्योंकि आज मुझे मेरा पान देना तो भूल ही गई।''
लज्जित होकर आनंदमई ने विनय को पान ला दिया।
फिर दोपहर-भर दोनों में बातचीत होती रही। गोरा के निरुद्देश्य भ्रमण के असली कारण के बारे में विनय कुछ ठीक-ठाक न बतला सका।
बातों-बातों में आनंदमई ने पूछा, ''कल शायद गोरा को साथ लेकर तुम परेशबाबू के घर गए थे?''
पिछले दिन की सारी बात विनय ने ब्यौरेवार सुना दी, आनंदमई पूरा मन लगाकर सुनती रहीं।
जाते समय विनय ने कहा, ''माँ, पूजा तो संपन्न हो गई, अब तुम्हरे चरणों का प्रसाद ये दो फूल सिर पर धारण करके ले जाऊँ?''
हँसकर आनंदमई ने दोनों गुलाब विनय के हाथ में दे दिए और मन-ही-मन सोचा, केवल सौंदर्य के लिए इन गुलाबों को इतना सम्मान मिल रहा हो सो बात नहीं है- अवश्य ही इनमें वनस्पति तत्व से परे किसी गूढ़ तत्व की भी बात है। तीसरे पहर विनय के चले जाने पर वह बहुत-कुछ सोचती रहीं और भगवान को पुकारकर बार-बार प्रार्थना करती रहीं कि गोरा को कोई कष्ट न हो और विनय से उसके मन-मुटाव की कोई घटना न घटित हो।
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