अ꣣ग्नि꣢र्वृ꣣त्रा꣡णि꣢ जङ्घनद्द्रविण꣣स्यु꣡र्वि꣢प꣣न्य꣡या꣢ । स꣡मि꣢द्धः शु꣣क्र꣡ आहु꣢꣯तः ॥४॥
(द्रविणस्युः) उपासकों को आध्यात्मिक धन और बल देने का अभिलाषी (अग्निः) तेजोमय परमात्मा (विपन्यया) विशेष स्तुति से (समिद्धः) संदीप्त, (शुक्रः) प्रज्वलित और (आहुतः) उपासकों की आत्माहुति से परिपूजित होकर (वृत्राणि) अध्यात्म-प्रकाश के आच्छादक पापों को (जङ्घनत्) अतिशय पुनः-पुनः नष्ट कर दे ॥४॥ श्लेष से यज्ञाग्नि-पक्ष में भी इस मन्त्र की अर्थ-योजना करनी चाहिए ॥४॥
याज्ञिक जनों द्वारा हवियों से आहुत प्रदीप्त यज्ञाग्नि जैसे रोग आदिकों को निःशेषरूप से विनष्ट कर देता है, वैसे ही परमात्मा-रूप अग्नि योगाभ्यासी जनों के द्वारा हार्दिक स्तुति से बार-बार संदीप्त तथा प्राण, इन्द्रिय, आत्मा, मन, बुद्धि आदि की हवियों से आहुत होकर उनके पाप-विचारों को सर्वथा निर्मूल कर देता है ॥४॥
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