प्रे꣡ष्ठं꣢ वो꣣ अ꣡ति꣢थिꣳ स्तु꣣षे꣢ मि꣣त्र꣡मि꣢व प्रि꣣य꣢म् । अ꣢ग्ने꣣ र꣢थं꣣ न꣡ वेद्य꣢꣯म् ॥५॥
हे (अग्ने) अग्रणी परमात्मन् ! (प्रेष्ठम्) सबसे अधिक प्रिय (अतिथिम्) अतिथिरूप, (मित्रम् इव) मित्र के समान (प्रियम्) प्रिय, (रथं न) रथ के समान, (वेद्यम्) प्राप्तव्य (वः) आपकी, मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ ॥५॥ यहाँ मित्र के समान प्रिय और रथ के समान प्राप्तव्य में उपमालङ्कार है। अग्नि में अतिथित्व के आरोप में रूपक है ॥५॥
मित्र जैसे सबको प्रिय होता है, वैसे परमात्मा उपासकों को प्रिय है। रथ जैसे गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए प्राप्तव्य होता है, वैसे ही परमात्मा प्रेय-मार्ग और श्रेय-मार्ग के लक्ष्यभूत ऐहिक और पारलौकिक उत्कर्ष को पाने के लिए सबसे प्राप्त करने योग्य तथा स्तुति करने योग्य है। हृदयप्रदेश में विद्यमान परमात्मा साक्षात् घर में आया हुआ सबसे अधिक प्रिय अतिथि ही है, अतः वह अतिथि के समान सत्कार करने योग्य है ॥५॥
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