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कर्म का फल, परिणाम व प्रभाव

 

कर्म का फल, परिणाम व प्रभाव

 

 

फल अपने किये हुए कर्मों का मिलता है। परिणाम व प्रभाव दूसरों को कर्मों (की हुई क्रियाओं) का भी होता है।

एक बालक अज्ञानता से ब्लेड से उंगली काट लेता है यह 'परिणाम'। दूसरा बच्चा उसके निकलते खून को देख कर रोता है यह 'प्रभाव'। मां आकर उसे चांटा लगाती है, यह कर्म का 'फल' हुआ।

कर्म का फल है - जाति, आयु और भोग।

जाति = योनि यथा मनुष्य, पशु, पक्षी आदि की।

आयु = जन्म से मृत्यु तक का समय। जैसे कीट-पतंग की कुछ घण्टे ही, पशु-पक्षी की कुछ वर्ष, मनुष्य की सौ वर्ष। मनुष्य अपनी आयु एक सीमा तक ही बढ़ा सकता है। अमुक दिन इतने बजे मरेगा, इस रूप में आयु निश्चित नहीं होती।

भोग = सुख और दुःख के साधनों का मिलना यह योनि (=शरीर) के अनुसार होता है। मांस खानेवाले शेर आदि, घास खाने वाले गाय-घोड़ा आदि, अन्न-फल-वनस्पति खाने वाले मनुष्य।

मिलकर फल देना - एक साथ एक कर्म का फल सुख व दूसरे कर्म का दु:ख भी मिल रहा है। जैसे घर में फ्रीज, टी. वी. से सुख तो मिल रहा है। पर साथ साथ बीमारी का दु:ख भी भोग रहा है।

कर्म फल का नाश होना - मुक्ति के काल तक भोगने से शेष बचे कर्मों का फल अभी न मिलना, लौट कर आने पर मिलना।

व्यक्ति स्वयं दण्ड ले ले अथवा माता-पिता, गुरु-राजा आदि दण्ड दे दें तो इन कर्मों का फल ईश्वर से नहीं मिलेगा। यदि न्यूनाधिक मात्रा में लिया-दिया होगा तो शेष दण्ड (फल) ईश्वर देगा। कर्मों की वासना (= संस्कार) समाप्त कर दिये तो सकाम कर्म नहीं होंगे। उन निष्काम कर्मों का लौकिक फल नहीं मिलेगा। जीवनमुक्त योगी को पहले के किये कर्म का दण्ड मिलता है तो उसे वह ज्ञान के ऊँचे स्तर के कारण अनुभव नहीं करेगा। काल का प्रभाव कर्मों पर नहीं पड़ता। शुभकर्म करते हुए भी यदि अच्छा फल नहीं मिला तो समझें कि कर्म विधि में भूल हुई या कत्त्ता आलसी है या साधन उपयुक्त नहीं है। मुक्ति के लिये सब कर्म फलों का नाश होना आवश्यक नहीं, पर अविद्या का नाश जरूरी है।

 

कर्म करते हुए जीना

 

कोई भी मनुष्य एक क्षण के लिये भी कार्य किये बिना नहीं रह सकता। मनुष्य अपने तीन प्रकार के साधनों मन, वाणी व शरीर से या तो कुछ चाह रहा होता है अथवा छोड़ रहा होता है। जीवात्मा के कर्म प्रवाह से अनादि हैं व वे उसके साथ ही हैं। जो मुक्त जीव सृष्टि में घूम रहे हैं, उनके भी कर्म अवशिष्ट हैं। कर्म अलग हैं, संस्कार अलग। पुरुषार्थ से कर्मों के संस्कार नष्ट हो सकते हैं। आज भी यदि अच्छे बुरे सकाम कर्मों के संस्कारों को दग्धबीज भाव में पलट दें और निष्काम कर्म करते रहें तो मुक्ति हो जायेगी ।

वेद की आज्ञा है कि व्यक्ति कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करे। शुभ कर्म करने से एक यह लाभ भी होता है कि व्यक्ति बुरे कर्मों से बच जाता है। जीवात्मा जब दुरित को छोड देता है तो सदा आनन्द से भरपूर रहता है।

ध्यान देने की बात है कि क्या कभी ईश्वर विश्राम करता है ? व्यक्ति प्राय: काम से बचना चाहता है। वर्तमान में प्रायः ऐसी मानोवृत्ति बन गई है कि :

(१) काम करने को कोई तैयार नहीं, पर फल सभी पाना चाहते हैं ।

(२) आज का व्यक्ति काम गलत करता है, पर फल अच्छा चाहता है।

(३) परिश्रम करता कम (कौड़ी का) फल चाहता अधिक (रुपये का)

विचार धारा बन गई कि जो सतत काम करता है वह दु:खी होता है। किन्तु कर्म करने से दुःख नहीं होता। यदि कर्म करने से दु:ख होता तो ईश्वर को भी दुःख होता। हाँ, ईश्वर को खैंचातानी नहीं करनी पड़ती। व्यक्ति को बल लगता है, कठिनाई महसूस होती है।

ईश्वर को ठीक नहीं जानने से लोग मानने लगे कि ईश्वर के सर्वशक्तिमान् होने का अर्थ है ईश्वर चाहे जो कर सकता है। ईश्वर चाहे जो कुछ नहीं कर सकता। बिना उपादान कारण के ईश्वर भी कार्य -सृष्टि नहीं बना सकता। ऐसा कहने का साहस बहुत कम व्यक्ति रखते हैं। चोरी करने में डरें पर जैसा ईश्वर है उसे वैसा कहने में नहीं डरना चाहिये। ईश्वर में अनन्त सामर्थ्य है, अनन्त बल है, निरन्तर कार्य करता रहता है।

ईश्वर काम से कभी नहीं ऊबता, अत: हमें भी अच्छे कामों से कभी नहीं ऊबना चाहिये। ईश्वर का सदा अनुकरण करें। ईश्वर कर्म करता ही रहता है। जो व्यक्ति धर्म में, अच्छे कामों में दान नहीं देता उसका धन बुरे कामों में नष्ट होता है। अच्छे काम सकाम से लेकर निष्काम की कोटि तक होते हैं। जैसे ब्रह्मचर्य पालन से, पुरुषार्थ से आयु को बढ़ाना सकाम भी हो सकता है और निष्काम भी। जान बूझकर निष्काम कर्म करते रहें तो ही योगी बन सकते हैं।

 

कर्मफल विवरण

 

कर्मों का फल कब, कैसा, कितना मिलता है, यह जिज्ञासा सभी धार्मिक व्यक्तियों के मन में होती है। कर्मफल देने का कार्य मुख्यरूप से ईश्वर द्वारा संचालित व नियंत्रित है, वही इसके पूरे विधान को जानता है। मनुष्य इस विधान को कम अंशों में व मोटे तौर पर ही जान पाया है, उसका सामर्थ्य ही इतनी है। ऋषियों ने अपने ग्रन्थों में कर्मफल की कुछ मुख्य-मुख्य महत्त्वपूर्ण बातों का वर्णन किया है, उन्हें इस लेख में व सम्बन्धित चित्र (CHART) में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है ।

कर्मफल सदा कर्म के अनुसार मिलते हैं। फल की दृष्टि से कर्म दो प्रकार के होते हैं। १. सकाम कर्म २. निष्काम कर्म। सकाम कर्म उन कमों को कहते हैं, जो लौकिक फल (धन, पुत्र, यश आदि) को प्राप्त करने की इच्छा से किये जाते हैं। तथा निष्काम कर्म वे होते हैं जो लौकिक फलों को प्राप्त करने के उद्देश्य से न किये जायें बल्कि ईश्वर/मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से किये जायें।

सकाम कर्म तीन प्रकार के होते हैं - अच्छे, बुरे व मिश्रित। अच्छे कर्म-जैसे सेवा, दान, परोपकार करना आदि, बुरे कर्म-जैसे झूठ बोलना, चोरी करना आदि। मिश्रित कर्म - जैसे खेती करना आदि इसमें पाप व पुण्य (कुछ अच्छा व कुछ बुरा) दोनों मिले जुले रहते हैं। निष्काम कर्म सदा अच्छे ही होते हैं, बुरे कभी नहीं होते। सकाम कर्मों का फल अच्छा या बुरा होता है, जिसे इस जीवन में या मरने के बाद मनुष्य, पशु, पक्षी आदि शरीरों में अगले जीवन में जीवित अवस्था में ही भोगा जाता है। निष्काम कर्मों का फल ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति के रूप में होता है, जिसे जीवित रहते हुए समाधि अवस्था मोक्ष अवस्था में भोगा जाता है।

जो कर्म इसी जन्म में फल देने वाले होते हैं, उन्हें 'दृष्टजन्मवेदनीय' कहते हैं। और जो कर्म अगले किसी जन्म में फल देने वाले होते हैं उन्हें 'अदृष्टजन्मवेदनीय' कहते हैं। इन सकाम कर्मों से मिलने वाले फल तीन प्रकार के होते हैं - १ जाति २. आयु ३. भोग। समस्त कर्मों का समावेश इन तीन विभागों में हो जाता है। जाति - अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग , वृक्ष, वनस्पति आदि विभिन्न योनियाँ, आयु-अर्थात् जन्म से लेकर मृत्यु तक का बीच का समय, भोग-अर्थात् विभिन्न प्रकार के भोजन, वस्त्र, मकान, यान आदि साधनों की प्राप्ति। जाति, आयु व भोग - इन तीनों से जो 'सुख-दु:ख' की प्राप्ति होती है, कर्मों का वास्तविक फल तो वही है। किन्तु सुख-दुःख रूपी फल का साधन होने के कारण 'जाति, आयु, भोग' को फल नाम दे दिया गया है।

'दृष्टजन्मवेदनीय' कर्म किसी एक फल व मृत्यु के बाद बिना जन्म लिए केवल आयु या केवल भोग, अथवा दो फल= आयु व भोग को दे सकते हैं जैसे उचित आहार-विहार, व्यायाम, ब्रह्मचर्य, निद्रा आदि के सेवन से शरीर की रोगों से रक्षा की जाती है तथा बल-वीर्य, पुष्टि, भोग सामर्थ्य व आयु को बढ़ाया जा सकता है। जब कि अनुचित आहार, विहार आदि से बल, आयु आदि घट भी जाते हैं ।

दृष्टजन्मवेदनीय कर्म 'जाति रूप फल' को देने वाले नहीं होते हैं। क्योंकि जाति (=योनि) तो इस जन्म में मिल ही चुकी है, उसे जीते जी बदला नहीं जा सकता; जैसे मनुष्य शरीर की जगह पशु का शरीर बदल लेना। हाँ मरने के बाद तो शरीर बदल सकता है, पर मरने के बाद नई योनि को देने वाला कर्म 'अदृष्टजन्मवेदनीय' कहा जायेगा, न कि 'दृष्टजन्मवेदनीय'

अदृष्टजन्मवेदनीय कर्म दो प्रकार के होते हैं - १. नियत विपाक २. अनियत विपाक। कर्मों का ऐसा समूह जिसका फल निश्चित हो चुका हो, और जो अगले जन्म में फल देने वाला हो उसे 'नियत विपाक' कहते हैं। कर्मों का ऐसा समूह जिसका फल किस रूप में व कब मिलेगा, यह निश्चित न हुआ हो उसे 'अनियतविपाक' कहते हैं।  

    कर्म समूह को शास्त्र में 'कर्माशय' नाम से कहा गया है। 'नियत विपाक कर्माशय' के सभी कर्म परस्पर मिलकर (संमिश्रित रूप में) अगले जन्म में जाति, आयु, भोग प्रदान करते हैं। इन तीनों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से जानने योग्य है।

१. जाति - इस जन्म किये गये कर्मों का सबसे बड़ा वा महत्त्व पूर्ण फल अगले जन्म में जाति-शरीर के रूप में मिलता है। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, स्थावर=वृक्ष से शरीरों को जाति के अन्तर्गत ग्रहण किया जाता है। यह जाति भी अच्छे व निम्न स्तर की होती है यथा मनुष्यों में पूर्णाङ्ग-विकलाङ्ग, सुन्दर-कुरूप, बुद्धिमान्-मूर्ख आदि, पशुओं में गाय, घोड़ा, गधा, सुअर आदि।

२. आयु - नियत विपाक कर्माशय का दूसरा फल आयु-अर्थात् जीवन काल के रूप में मिलता है। जैसी जाति (=शरीर योनि) होती है, उसी के अनुसार आयु भी होती है। यथा मनुष्य की आयु सामान्यतया १०० वर्ष, गाय, घोड़ा, आदि पशुओं की २५ वर्ष, तोता, चिड़िया आदि पक्षियों की २-४ वर्ष, मक्खी, मच्छर, भोंरा, तितली आदि कीट पतंगों की २-४-६ मास की आयु होती है। कुछ प्राणी ऐसे भी होते हैं जिनकी आयु कुछ ही दिनों की होती है। मनुष्य अपनी आयु को स्वतंत्रता से घटा-बढ़ा भी सकता है।

३. भोग - 'नियत विपाक कर्माशय' का तीसरा फल भोग (=सुख-दुःख को प्राप्त कराने वाले साधन) के रूप में मिलता है। जैसी जाति (शरीर-योनि) होती है, उसी जाति के अनुसार भोग होते हैं। जैसे मनुष्य अपने शरीर, बुद्धि, मन, इन्द्रिय आदि साधनों से मकान, कार, रेल, हवाई जहाज, मिठाई, पॅखा, कूलर आदि साधनों को बनाकर, उनके प्रयोग से विशेष सुख को भोगता है। किन्तु गाय-भैंस-घोड़ा-कुत्ता आदि पशु केवल घास, चारा, रोटी आदि ही खा सकते हैं, कार-कोठी नहीं बना सकते। शेर-चीत्ता-भेड़िया आदि हिंसक प्राणी केवल मांस ही खा सकते हैं वे मिठाई, गाड़ी, मकान वस्त्र आदि की सुविधाएँ उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। जैसे कि पूर्व कहा गया कि 'नियत विपाक कर्माशय' से मिली आयु व भोग पर 'दृष्ट जन्मवेदनीय कर्माशय' का प्रभाव पड़ता है, जिससे आयु व भोग घट-बढ़ सकते हैं, पर ये एक सीमा तक (उस जाति के अनुरूप सीमा में) ही बढ़ सकते हैं।

'अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय' के अन्तर्गत 'अनियत विपाक' कर्मों का फल भी जाति, आयु, भोग के रूप में ही मिलता है। परन्तु यह फल कब व किस विधि से मिलता है इस के लिए शास्त्र में तीन स्थितियाँ (= गतियाँ) बतायी गयी हैं। १. कर्मों का नष्ट हो जाना २. साथ मिल कर फल देना ३. दबे रहना।

१. प्रथम गति - कर्मों का नष्ट हो जाना-वास्तव में बिना फल को दिये कर्म कभी भी नष्ट नहीं होते, किन्तु यहाँ प्रकरण में नष्ट होने का तात्पर्य बहुत लम्बे काल तक लुप्त हो जाना है। किसी भी जीव के कर्म सर्वांश में कदापि समाप्त नहीं होते, जीव के समान वे भी अनादि-अनन्त हैं। कुछ न कुछ मात्रा-संख्या में तो रहते ही हैं, व चाहे जीव मुक्ति में भी क्यों न चला जावे। अविद्या (=राग-द्वेष आदि) के संस्कारों को नष्ट करके जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, जितने कर्मों का फल उसने अब तक भोग लिया है, उनसे अतिरिक्त जो भी कर्म बच जाते हैं, वे मुक्ति के काल तक ईश्वर के ज्ञान में बने रहते हैं। इन्हीं बचे कर्मों के आधार पर मुक्ति काल के पश्चात् जीव को पुन: मनुष्य शरीर मिलता है। तब तक ये कर्म फल नहीं देते, यही नष्ट होने का अभिप्राय है।

२. दूसरी गति - साथ मिलकर फल देना - अनेक स्थितियों में ईश्वर अच्छे व बुरे कर्मों का फल साथ-साथ भी दे देता है। अर्थात् अच्छे व बुरे कर्मों का फल अच्छी जाति, आयु और भोग मिलता है, किन्तु साथ में कुछ अशुभ कर्मों का फल-दु:ख भी भुगा देता है। इसी प्रकार अशुभ का प्रधान रूप से निम्न स्तर की जाति आयु भोग रूप फल देता है, किन्तु साथ में कुछ शुभ कर्मों का फल सुख भी मिल जाता है। उदाहरण के लिए शुभ कर्मों का फल मनुष्य जन्म तो मिला किन्तु अन्य अशुभ कर्मों के कारण उस शरीर को अन्धा, लूला या कोढ़ी बना दिया। दूसरे पक्ष में प्रधानता से अशुभ कर्मों का फल गाय-कुत्ता आदि पशु योनि रूप में मिला किन्तु कुछ शुभ कर्मों के कारण अच्छे देश में अच्छे घर में मिला परिणाम स्वरूप सेवा भोजन आदि अच्छे स्तर के मिले।

३. तीसरी गति - कर्मों का दबे रहना-मनुष्य अनेक प्रकार के कर्म करता है, उन सारे कर्मों का फल किसी एक ही योनि-शरीर में मिल जाये, यह संभव नहीं है। अत: जिन कर्मों की प्रधानता होती है, उनके अनुसार अगला जन्म मिलता है। जिन कर्मों की अप्रधानता रहती है, वे कर्म पूर्व संचित कर्मों में जाकर जुड़ जाते हैं, और तब तक फल नहीं देते, जब तक उन्हीं के सदृश, किसी मनुष्य शरीर में मुख्य कर्म न कर लिये जायें। इस तीसरी स्थिति को 'कर्मों का दबे रहना' नाम से कहा जाता है।

उदाहरण - किसी मनुष्य ने अपने जीवन में 'मनुष्य की जाति आयु-भोग दिलाने वाले कर्मों के साथ-साथ, कुछ कर्म 'सूअर की जाति आयु-भोग' दिलाने वाले भी कर दिये। प्रधानता-अधिकता के कारण अगले जन्म में मनुष्य शरीर मिलेगा और सूअर की योनि देने वाले कर्म तब तक दब रहेंगे जब तक कि सूअर की योनि देने वाले कर्मों की प्रधानता न हो जाय ।

उपर्युक्त विवरण का सार यह निकलता कि इस जन्म में दु:खों से बचने तथा सुख को प्राप्त करने के लिए तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमें सदा शुभ कर्म करने चाहिए और उनको भी निष्काम भावना से करना चाहिए ।

 

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