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परमेश्वर की उपासना क्यों करनी चाहिए

 

परमेश्वर की उपासना क्यों करनी चाहिए

 

१. ईश्वर के उपकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए।

२. वह संसार का निर्माता है।

३. वह वेद ज्ञान का दाता है।

४. वह सर्वरक्षक और परम हितैषी है ।

५. उपासना से मन-इन्द्रियों पर नियन्त्रण होता है ।

६. इससे सहन शक्ति बढ़ती है ।

७. इससे कर्म निष्काम बनते हैं।

८. बुरे संस्कार नष्ट होकर अच्छे संस्कार उत्पन्न होते हैं ।

९. विशुद्ध सुख की प्राप्ति होती है।

१०. ईश्वरीय गुणों की प्राप्ति होती है ।

११. आत्म-साक्षात्कार होता है।

१२. ईश्वर का साक्षात्कार और मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

ओ३म् प्रणव से स्तुति = प्र उपसर्ग पूर्वक णु स्तुतौ धातु से अप् प्रत्यय करने से प्रणव शब्द बनता है। जिसके द्वारा उत्कृष्टता से ईश्वर की स्तुति की जाये वह प्रणव है, ओ३म् है।

स्तुति - ईश्वर सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, अजन्मा, अनन्त, निविकार, अनादि, अनुपम्, दयालु, सर्व जगत् पिता, माता, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाव, आनन्ददायक, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष प्रदाता है। इन विशेषणों से परमात्मा की ही स्तुति (=गुण कीर्तन) करनी चाहिये ।

प्रार्थना - ईश्वर से स्वप्रयत्नोपरान्त सब श्रेष्ठ कार्यों में सहाय चाहना।


उपासना - प्रभु के आनन्द स्वरूप में मग्न हो जाना, सो पूर्वोक्त ने पर निराकार आदि लक्षण वाले की ही भक्ति करना, उससे अतिरिक्त किसी और की कभी न करना। जैसे सुख-दुःख का ध्यान मन में होता है वैसे ईश्वर का ध्यान मन में होना चाहिये। मूर्ति की कुछ आवश्यकता नहीं। ईश्वर को सुख-दुःख की भाँति पहचाना या अनुभव किया जा सकता है। ईश्वर की सत्ता सभी प्राणियों में सर्वत्र एक समान है, परन्तु जिसकी आत्मा में उस चेतन ईश्वर के जितने ज्ञान का अनुभव स्व स्व सामर्थ्यानुसार होगा उसकी आत्मा उतने ही सुख को प्राप्त होगी। जो ईश्वर द्युलोक, पृथ्वी लोक, आन्तरिक मन-इन्द्रियों आदि सारे पदार्थों में ओत-प्रोत है उसी ईश्वर को जानो। वही मुक्ति का अमृत सेतु है। अन्य बातों का परित्याग करो।

 

ईश्वर का आनन्द कैसा ?

 

ईश्वर आनन्द से परिपूर्ण है। जैसे भूखे व्यक्ति को अत्यन्त स्वादिष्ट उचित भोजन मिलने पर लौकिक सुख मिलता है (परन्तु यह हीन उपमा है)। ऐसे ही दुःख की निवृत्ति और आनन्द की प्राप्ति योगाभ्यास द्वारा ईश्वर-प्राप्ति में होगी।


सांसारिक सुख में चार प्रकार का दु:ख मिश्रित है, मिश्री-हलवे की मिठास अन्तत: कम होते होते गारा मिट्टी के समान नीरस लगने लगेगी। परन्तु ईश्वर उपासना से आनन्द बढ़ता ही जाता है। सांसारिक सुख से रोगी, ईश्वरीय सुख सेवन से निरोगी होता है। ईश्वर का आनन्द नित्य और विशुद्ध है।


जब तक व्यक्ति सांसारिक सुख में चार प्रकार का दु:ख नहीं अनुभव करता, तब तक ईश्वर के आनन्द में प्रवृत्त नहीं होता। जीवन काल में ही दुःखों से मुक्ति मिलने पर मृत्यु के बाद भी मुक्ति मिलती है। केवल मरने से ही मुक्ति नहीं मिलती। जीवित रहते-रहते जिसने ब्रह्म को जान लिया सो वह कृतकृत्य हो गया। ईश्वर अनुपम होने से उसके लिये उपमा नहीं दी जा सकती परन्तु समझने की दृष्टि से हीन उपमा दी गई है। जो सर्वशक्तिमान् को सच्चा जानता-मानता है, उसके उचित न्याय पर भरोसा करता है वह कभी दु:खी नहीं होता। राजा तो अल्पज्ञता से उचित-अनुचित निर्णय भी देता है पर ईश्वर सदा उचित करेगा और वह भी सुधारने के हेतु दया ही करता है। धन सम्पत्ति की तुलना में योग विद्या की प्राप्ति में सहस्र गुणा सुख (आनन्द) अधिक है। में प्रभु को जानूँ, प्राप्त करूँ, साक्षात्कार करूँ यह भावना तीव्र रूप में बनाये रखें। केवल नाम स्मरण करते जाना परन्तु तदनुसार अपना चरित्र न सुधारना ईश्वर को प्राप्त करने का निष्फल प्रयास है ।


ईश्वर से उचित व्यवहार

 

जो काम जिस विधि से किया जाता है उसी विधि से करना चाहिये, तभी सफलता मिलती है। आसन पर बैठते ही सब विचार छोड़ देना। ऐसा न हो कि छेड़ना था ईश्वर का चिन्तन-मनन और छेड़ दिया व्यापार, धन्धा, पढ़ना आदि अन्य विषय। दिया समय ईश्वर को मिलने का और मुख फेर कर बातें-विचार करने लग गये संसार की संसार के साथ तो यह बुलाये हुए अतिथि के समान ईश्वर के साथ अनुचित व्यवहार किया, सो कैसे उसे प्राप्त कर सकेंगे?


इन्द्रिय दोष से और संस्कार दोष से अविद्या पैदा होती है। अज्ञान उद्वेग को पैदा करता है। सन्ध्या में बैठते ही निश्चय करो कि विषयों में मन को नहीं चलाऊँगा। जप अर्थ सहित, अपने को ईश्वर अर्पण करते हुए, प्रभु प्रेम में विह्वल हो, प्रभु से बातें करते हुए होना चाहिए। इस प्रक्रिया को अपनाने से संध्या उपासना में मन लगने लगता है। कहा भी है-


पास रहता हूँ तेरे सदा मैं अरे

तू नहीं जान पाये तो मैं क्या करू? (कवि प्रकाश)


व्यवहार काल - व्यवहार काल में यम-नियम का पालन करते हुए बुरी वृत्तियों को रोकना पड़ता है और अच्छी वृत्तियों को जगाना पड़ता है। व्यवहार काल में मन को देव मार्ग पर चलाये। जैसा कि वेद में कहा है-

स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव ।

पुनर्ददताघ्नता जानता संगमेमहि । (ऋग्वेद)


ददता- अर्थात् दानी पुरुषों के साथ चलें। अष्नता- अहिंसक (द्वेष भावना रहित) पुरुषों के साथ चलें। जानता- ब्रह्म को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों का अनुकरण करें। सूर्य समान- बिना विश्राम लिए योग (= कल्याण) मार्ग पर लगातार चलें। कष्ट आने पर सस्मित रहें।


व्यवहार काल में चोरी, जारी, झूठ, ईर्ष्या, द्वेष आदि की प्रवृत्तियों को रोककर, स्वार्थ की जगह परोपकार, असत्य छोड़कर सत्य प्रवृत्तियों को जगायें। परन्तु उपासना काल में अच्छी प्रवृत्तियों-विचारों को भी रोकना पड़ता है। जैसे वेद का पढ़ना-पढ़ाना, धर्म है। यज्ञ करना, दान, पठन-पाठन का विचार आदि को यदि उपासना काल में करेंगे तो ईश्वर से सम्बन्ध नहीं जुड़ पायेगा। व्यवहार काल में भी मन-इन्द्रियों को खुला नहीं छोड़ना, इन्हें यम-नियम से आबद्ध रखें।


उपासना काल - बालक का व्यवहार जैसे अपने माता-पिता-गुरु के साथ होता है वैसा ही व्यवहार जीवात्मा को परमात्मा के साथ करना चाहिए। प्रातः काल उपासना में बैठने की तैयारी जगते ही करनी पड़ती है। इस काल में कोई भी सांसारिक बातचीत, चर्चा- विचारणा न करके मौन धारण करना। दोनों काल की उपासना से पूर्व छोड़ने योग्य कार्य व विचारों को छोड़ना और करने योग्य कार्य व विचारों को ही करना। पहले जप, फिर अर्थ विचार, फिर समर्पण। जप में अज्ञान वश भूल से जो विचार उठें उसे पकड़ना और हटा देना। उलटे संस्कारों के कारण यदि कोई विचार असावधानी से उठा लें तो उसी समय सावधानी पूर्वक उसे हटा दिया जाये। पश्चात् भगवान की तरफ सहयोग के लिये दौड़ेंगे तब निश्चय ही हमें ईश्वर सहाय देगें।


योगविद्या का ज्ञान-विज्ञान जानने के लिये पहले चित्त की अवस्थायें जाननी पड़ेगी। पठित विद्वान् होने पर भी व्यक्त अनुभव करता है कि चित्त बलात् विषयों की ओर जा रहा है। गया कब? किसने भेजा ? यह वह भूल जाता है। परिणाम स्वरूप व्यक्ति मन-इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाता है। बुद्धिपूर्वक की गई कुछ क्रियायें भी स्वभावतः होती लगती हैं। ईश्वर बुद्धिपूर्वक सृष्टि की रचना, पालन, व प्रलय करता है। इसी प्रकार जीव इन्द्रियों का चलाना, अच्छा सोचना, बुरा सोचना, चित्त का रोकना आदि क्रियाएँ करता है। वस्तुत: आपने स्वयं मन को चलाया, पर भूल यह हुई कि उसे पकड़ (जान) न सके कब चलाया ? ध्यान देंगे तो पता चल जायेगा कि मैं ही इसे विषयान्तर में ले गया था।


मन में तरंगें विचार उत्पन्न होते रहते हैं पर पता नहीं लगता। परन्तु सावधानी पूर्वक ध्यान देने से पता लगेगा कि मेंने एक मास पहले एक व्यक्ति के बारे में बुरा सोचा था, महीनों-वर्षों बाद विशेष ध्यान देने पर पूर्व सोचा हुआ विचार याद आ जाता है। उपासक इसके कारण उपासना में चित्त को एकाग्र नहीं कर पाता। लगा था संध्या करने सोचने लग गया अन्य विचार फिर १५ मिनट बाद पता लगा में कहीं चला गया मन को निरुद्ध करने का अभ्यास करते-करते उपासक को फिर ५ मिनट, एक मिनट, कुछ सेकण्ड बाद ही पता लग जाता है, कि मन को अन्य विषयों में लगा दिया, पर कब लगाया यह पता नहीं लगता। लगने के बाद पता चलता है कि मन विषयान्तर हो गया। अनेक बार पकड़ में आने पर भी, पता लगने पर भी व्यक्ति उन सांसारिक विचारों को चाहता है। तब उसे लगता है कि में खींचता हूँ ईश्वर की ओर पर मन खींचता है विषय चिन्तन की ओर। वास्तव में एक ही चेतनात्मा है जो मन को चलाता है। जीवात्मा अपनी सूक्ष्म इच्छा से ही मन को इतनी तीव्रता से चलाता है कि उसे पता ही नहीं लगता कि मन को चलाने वाला में हूँ वा यह स्वयं चल रहा है। ये सब बेकार का चिंतन असावधानी के कारण होता है। चेतना पूर्वक (तीव्र ज्ञान इच्छा पूर्वक) प्रयास करने से वृत्तियों का पता लग जाता है। जो क्रियायें सूक्ष्म इच्छाओं से होती हैं उनका पता साधक को नहीं चल पाता। इसे वैज्ञानिक अचेतन मन कहते हैं। वास्तव में सावधान-असावधान तो जीवात्मा ही होता है ।


अनुभव से संस्कार बनता है। संस्कार से स्मृति, और स्मृति से मानव चरित्र बनता है। अच्छे बुरे विचारों की टक्कर होती रहती है तब संघर्ष करने से विजय होगी। उस समय मन को चलाना छोड़ दो, शान्त हो जायेगा। जीतने पर गद्गद् हो जाता है, तब जो आनन्द आता है वह वर्णनातीत है। मन को जड़ मानकर साधक बार-बार यह वाक्य दोहराये "मेरी इच्छा के बिना यह जड़ मन इन्द्रियाँ चलेंगे ही नहीं। मैं जहाँ चलाऊँगा, विचारूँगा वहीं मेरे पीछे जायेंगे।"


अभ्यास - श्रद्धापूर्वक, ज्ञानपूर्वक, ब्रह्मचर्यपूर्वक व तपपूर्वक यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान में निरन्तर लगे रहना अभ्यास कहलाता है। साधक अपने आचरण-व्यवहार को दीर्घ काल तक अर्थात् जब तक बुरे संस्कार दग्धबीज भाव को प्राप्त न हो जायें विधि पूर्वक निरन्तर अभ्यास करते हुए स्वच्छ व परिपक्व बनाये। यदि योगाभ्यास बीच में छोड़ दिया तो स्थिति वही की वही हो जायेगी। संस्कार तेजी से बिजली की तरह  एक दूसरे को दबाते हैं। बुद्धिमान् अच्छे संस्कारों को उत्पन्न करता है, बुरों को दबा देता है। परन्तु मूर्ख अच्छों को दबा देता है, बुरों को उभार कर विचारने लगता है। बड़ी तीव्रता से विचार चलते हैं। व्यवहार काल में ईश्वर को समक्ष नहीं रखा तो उपासना काल में प्राप्त करना कठिन होगा ।


संघर्ष - स्वस्थ (= योगस्थ) अवस्था में जीव के अधीन विचार तरंगें रहती हैं। निरोध के संस्कारों को जगाता है तो ईश्वर में आनन्द आने लगता है; और जब संसारी तरंगें जगाने लगता है तो दु:ख सागर में डूबता जाता है। मन को खुला छोड़ देने पर अन्यथा विचारेगा अन्यथा विचारने से बुद्धि ठिकाने नहीं रहेगी। महान् बनने के लिये कुछ आदर्श हैं, नियम हैं, व्रत हैं, संकल्प हैं, उन्हें लेकर चलना पड़ता है, नहीं लेने से नीचे गिरता चला जायेगा। ईश्वर भी अपने अटल नियम पर चलता रहता है। साधक कभी निराश न हो। प्रयत्न करने पर भी मन डिग जाये तो प्रायश्चित्त करके पुन: सन्मार्ग पर चलना शुरू कर दे। गिरने पर पुनः चलने की प्रक्रिया से उन्नति होगी, न कि बिलकुल ही न चलने से। मन-वचन-कर्म से अपने वा अन्य के दोषों से सन्धि न करें। बुराईयों के साथ बड़ा भारी अथक संघर्ष/युद्ध करना पड़ता है।


मन की विचार तरंगें (वृत्तियां) स्वयं उठती हैं या मैं उठाता हूँ? मन-इन्द्रियाँ अथवा ईश्वर उठाता है ? सूक्ष्मता से विचारने पर ज्ञात होगा कि निश्चय ही केवल में स्वयं ही उठाता हूँ। इस प्रकार विचार करने से साधक को ऐसा प्रतीत होगा कि मुझ में साहस, श्रद्धा, शक्ति आ गई कि यह मेरे हाथ में है कि कब किस विचार को में उठाता हूँ। परन्तु यह सब ईश्वर प्रदत्त मानें। यदि 'अहम्' मैं करने वाला विचार लायेगा तो मिथ्या अभिमान होगा। लोकैषणा व स्वामित्त्व से अभिमान होता है जो साधक को पथ भ्रष्ट कर देता है।


सोते समय प्रतिदिन आत्म-निरीक्षण करें। इन्द्रिय निग्रह अर्थात् उन्हें सदा अपने अधिकार में रखें ताकि बुराई में न फँसें रात्रि में सोने से पूर्व सोचें आज क्या अच्छा किया क्या बुरा किया, फिर अन्तिम क्षण में ईश्वर चिन्तन के सिवाय अन्य कुछ न विचारें।


प्रात: उठते समय 'ओ३म्' सच्चिदानन्द स्वरूप आदि का ध्यान करते हुए फिर मुंह हाथ धोकर ईश्वर को याद रखते हुए अन्य कार्य करें। ईश स्मरण में (१) कोई अन्य वृत्ति न उठायें। (२) केवल ईश्वर में ध्यान लगाकर उसके गुणों का अर्थ सहित चिन्तन करें। (३) मन पर पूर्ण नियन्त्रण रखें। एक ही स्थान पर नित्य प्रति बैठें ताकि उसी जगह बैठने पर वही ईश्वर मिलन के विचार आयेंगे। बैठने का समय भी निश्चित हो।


आसन पर बैठने का लक्ष्य दोहराएँ कि मैं प्रभु से मिलने बैठा हूँ, अन्य विचार नहीं करूँगा। मन जड़ है इसे मैं चलाऊँगा। जड़-चेतन का विवेक रखना। ईश्वर-प्रणिधान, प्रलयावस्था का सम्पादन करने से ईश्वर समर्पित होकर मन वश में हो जायेगा। सुन्दर दिखने वाले शरीर में मांस, हड्डी, मलमूत्र भरा है इस विचार से आकर्षण समाप्त हो जायेगा। परन्तु इसका उपयोग धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की उपलब्धि के लिये करना है


सर्वरक्षक-सर्वदाता ईश्वर - सृष्टि में सब पदार्थों को बना (रचना) कर सब प्राणियों को जीवन दे रहा है। ईश्वर रोटी, कपड़ा, मकान बनाकर नहीं देता परन्तु इनके लिये गेहूँ, कपास, लोहा, मिट्टी, पानी आदि देता है। आगे का काम जीव का है। ईश्वर की सहायता के बिना कोई भी जड़-चेतन वस्तु व्यक्ति का कुछ भी भला नहीं कर सकती। जो कुछ भला करते हैं वह ईश्वर प्रदत्त पदार्थों से ही सहायता प्राप्त करते हैं। ईश्वर नित्य कल्याण करता है, कभी प्रतिशोध नहीं करता। उपासक ईश्वर से उचित व्यवहार, उसे पाने की तीव्र इच्छा (जिज्ञासा), पुरुषार्थ, तप आदि करता है तो अपनी सत्य कामना पूर्ण करता है।


ईश खोज के लिये ध्यान - उपासक ऋषियों, गुरुओं से सुनकर उसको खोजता है। एक उच्च तत्त्व की खोज करता है। लौकिक चीजों से ध्यान हटाकर निष्क्रिय होकर बैठना, कुछ भी नहीं सोचना यह ध्यान नहीं। ''तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्" = जहाँ धारणा की है वहाँ एक ज्ञान का बना रहना ध्यान है। निर्विषय = सांसारिक विषय वस्तुओं से मन को हटाकर ईश्वर को जपता हुआ खोजता है - यह ध्यान है।


ईश्वर से बातें - हे प्रभु ! मैं आपका दर्शन साक्षात्कार करने बैठता हूँ। आपका स्वरूप वेदों के अनुसार और आर्य समाज के दूसरे नियम के अनुसार है उसको मैं देखना चाहता हूँ। आप सच्चिदानन्द स्वरूप कष्ट-क्लेश रहित, शुभ अशुभ कर्म से रहित, भोग-वासनाओं से रहित पुरुष विशेष हैं। आप अनन्त ज्ञान के भण्डार हैं। आप मेरे पिता के भी पिता, गुरु के भी गुरु हैं। आप मुझे विद्या भी देते हैं। आपका नाम 'ओ३म्' है। आप के नाम जप विचार के फल से सब विघ्नों का नाश हो जाता है। हे प्रभु ! वेद आपको"सपर्यगात्, अकायम्" कहा है...।


जैसे एक अच्छे भूखे बालक को मां गोद में उठा दूध पिलाकर तृप्त कर देती है। इसी प्रकार ईश्वर प्रणिधान से युक्त जीव को ईश्वर अपने ज्ञानानन्द से भरपूर करके समाधि लगा देता है ।

गुण-गुणी एक - गुण और गुणी की अलग-अलग व्याख्या की जाती है। किन्तु गुण और गुणी एक हैं, स्वतन्त्र वस्तु नहीं । ईश्वर साक्षात्कार में ईश्वर के गुणों द्वारा ही उसका प्रत्यक्ष-अनुभव-दर्शन होता है। जैसे अग्नि का गुण दाह प्रकाश है, इससे भिन्न अग्नि कुछ भी नहीं ।

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