सृष्टि रचना
लगभग दो अरब वर्ष
पहले यह पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रादि कुछ
नहीं था। बद्ध जीवात्माएँ मूरचछित अवस्था में थीं। जैसे निद्रा में कोई अनुभूति
नहीं होती उसी तरह प्रलयकाल में भी नहीं होती है। सत्त्व-रज-तम करणों को इकठ्ठा कर
ईश्वर ने अपने ज्ञान-सामर्थ्य से महत्तत्त्व, फिर अहंकार, फिर पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, मन व पांच तन्मात्रायें (सूक्ष्मभूत) कुल अठारह तत्त्व, फिर पांच स्थूलभूत-उनसे सूर्य, चन्द्र, तारे,
पृथ्वी आदि यह स्थूल जगत बनाया। वनस्पति, मछलियाँ, कीट, पतंग, पशु आदि के उपरान्त अन्त में मनुष्यों के शरीरों की रचना हुई। मनुष्य सब युवा
शरीरवाले उत्पन्न हुए। अमैथुनी सृष्टि बनी।
प्राणी उत्पत्ति
चार प्रकार की है -
(१) जरायुज = मनुष्य, पशु आदि ।
(२) अण्डज = पक्षी, कीट आदि ।
(३) उद्भिज = वृक्ष आदि
पृथ्वी में से निकलते हैं ।
(४) स्वेदज = पसीने से
जुएँ, गेहूं आदि में कीड़े-कीटाणु आदि।
ईश्वर ने अग्नि, वायु,
आदित्य, अंगिरा इन चार ऋषियों को
चार वेदों का ज्ञान दिया। १ अरब ९६ करोड़ ८ लाख ५३ हजार १२० वर्ष बीत गये अमैथुनी
सृष्टि को हुए। ४ अरब ३२ करोड़ वर्ष इस सृष्टि की कुल आयु है। फिर विनाश की
प्रक्रिया होती है, जिसे विचार कर वैराग्य की भावना जगा
सकते हैं। जीवन और पृथ्वी का आधार 'सूर्य की गर्मी', दो अरब कुछ करोड़ वर्ष उपरान्त कम होती जायेगी, तब इस पर आधारित मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, वनस्पति आदि
धीरे-धीरे क्षीण होते-होते नष्ट हो जायेंगे। इस उत्पत्ति-प्रलय की प्रक्रिया से
संसार की नश्वरता ज्ञात होती है व प्रलयावस्था के सम्पादन से वृत्ति निरोध होकर
जीवात्मा ईश्वर की शरण में समाधि प्राप्त कर लेता है।
संसार सम्बन्धी
व्यावहारिक ज्ञान
जब तक मनुष्य की
संसार के प्रति तृष्णा समाप्त नहीं होती तब तक ईश्वर की ओर श्रद्धा नहीं होगी। जब
तक इस संसार को जानने-देखने से तृप्ति नहीं होती, तब तक इससे छुटकारा नहीं होगा। गहराई से विचार करें कि रंग-आकार का थोड़ा बहुत
फेर होगा बाकी सब भूगोल के मनुष्य एक जैसे हैं। जन्म की प्रक्रिया एक समान। उलटे
सीधे काम की आदतें एक समान। अन्याय, शोषण, शत्रु, मित्र एक समान। इसी प्रकार सब देशों में
पशु-पक्षी भी समान। जैसे जल, नदी, पहाड़, रेगिस्तान, नीम,
पीपल, शाक, पान,
जंगल, वनस्पति यहां पर, वैसे ही यूरोप-अमेरिका में। इस प्रकार विचारने से दुनियाँ को देखने की लालसा
समाप्त हो जायेगी। एक योगी को कुटिया में बैठे-बैठे अनुमान प्रमाण से संसार को
जानने की इच्छा पूर्ण हो जाती है।
पदार्थ अपना
स्वभाव छोड़ता नहीं। कोई वस्तु आकस्मिक (ओटोमैटिक) है ही नहीं। जो वस्तु संघातरूप
(अवयववाली) है, जोड़कर बनी है वह अवश्य कभी बनी है, जैसे कपड़ा, घड़ा संघात से बना हुआ है। बनी हुई वस्तु
नष्ट भी हो जायेगी। पृथ्वी संघात से बनी है तो वह जरूर टूटेगी। जिसने बनाई है वह
तोड़ेगा। ये सब नाशवान् चीजें हैं।
पदार्थ
ईश्वर-जीव-प्रकृति
स्वरूप से अनादि पदार्थ हैं। यह संसार और जीवों के कर्म प्रवाह से अनादि हैं। ये कभी
समाप्त नहीं होते। यह जगत व जगत के पदार्थ रचना से आदि-अन्तवाले हैं, बनते-बिगड़ते रहते हैं। पाप-पुण्य तुल्य होने पर मनुष्य जन्म मिलता है।
संस्कारों के नष्ट (दग्धबीज) कर देने पर आत्मा शुद्ध होकर मुक्ति में जाता है।
शुद्धज्ञान-शुद्धकर्म-शुद्ध उपासना से मुक्ति मिलती है। सृष्टि का अत्यन्त उच्छेद
कभी नहीं होता। बद्धजीव प्रलय में बेहोश (मूर्चछित) दशा में रहते हैं; मुक्तजीव ईश्वर के सान्निध्य से ज्ञानानन्द में रहते हैं।
भोग
संसार के भोगने
पर निर्णय होगा कि इसमें पूर्ण सुख नहीं है। संसार को कम से कम (अति आवश्यक ही)
भोगें संसार सत् है इसे भोगें, परन्तु इसमें डूबना नहीं, तैरना है। सब कुछ ईश्वर का मानकर कर्त्तव्य पालन करते हुए त्याग भावना से
उपयोग में लेना है। अपना नहीं मानेंगे तो केवल पालन, पोषण,
रक्षा करना अपना कर्त्तव्य मानकर चलेंगे। जैसे दूसरे की
छोड़ी हुई गाय का दूध पीते हैं तो उसे चारा पानी भी दे देते हैं।
पञ्च क्लेश
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः
पञ्च क्लेशाः। (यो. २/३) चित्त की पांच वृत्तियों (प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति) को यथावत् रोकने और योगसाधना में सब दिन प्रवृत्त रहने से
ये पांच क्लेश नष्ट हो जाते हैं। जब इन क्लेशों का प्रवाह चालू रहता है तो प्राणी
इनसे पीड़ित रहते हैं। ये क्लेश सत्त्वादि गुणों के सहयोग से चित्त को भोगोन्मुख
करते हैं। ये क्लेश, कर्मों, के और कर्म क्लेशों के परस्पर सहायक होकर प्राणियों के कर्म विपाक-कर्मफलों
अर्थात् जाति, आयु और भोगों को प्रकट करते हैं ।
(१) अविद्या - विद्या से
अन्य अयथार्थ ज्ञान ही अविद्या है। अविद्या का क्षेत्र बहुत विस्तृत तथा महान् है
तो भी इन चार विभागों के अन्तर्गत अविद्या का समावेश हो जाता है। 'अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या'। (यो. द. २/५)
१. अनित्य -
अर्थात् कार्य जो शरीरादि स्थूल पदार्थ व लोकलोकान्तर में नित्य बुद्धि तथा जो
नित्य पदार्थ अर्थात् ईश्वर, जीव व जगत का कारण, इनमें अनित्य बुद्धि होना।
२. अशुचि -
मलमूत्रादि के समुदाय, दुर्गन्धरूप मल से परिपूर्ण शरीर में
पवित्र बुद्धि का करना तथा तालाब, बावड़ी, कुण्ड, कुंआ और नदी में तीर्थ और पाप छुड़ाने की
बुद्धि करना और उनका चरणामृत पीना, एकादशी
आदि मिथ्या
व्रतों में भूख प्यास आदि दु:खों को सहना। स्पर्श इन्द्रिय के भोग में अत्यन्त
प्रीति करना इत्यादि अशुद्ध पदार्थों को शुद्ध मानना और सत्य विद्या, सत्यभाषण, धर्म, सत्संग, परमेश्वर की उपासना, जितेन्द्रियता,
सर्वोपकार, सब में प्रेम भाव से वर्तना आदि शुद्ध व्यवहार और पदार्थों में अपवित्र बुद्धि
करना।
३. दुःख में सुख
बुद्धि अर्थात् विषय तृष्णा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक,
ईष्ष्या, द्वेषादि दुःख स्वरूप
व्यवहारों से सुख मिलने की आशा करना; जितेन्द्रियता, निष्कामता, शम, सन्तोष, विवेक, प्रसन्नता, प्रेम, मित्रता आदि सुखरूप व्यवहारों में दु:ख
बुद्धि करना।
४. अनात्मा में
आत्म बुद्धि अर्थात् जड़ में चेतन और चेतन में जड़ भावना करना अविद्या का चतुर्थ
भाग है। अविद्या से विपरीत जो पदार्थ जैसा है उसमें वैसी बुद्धि रखना 'विद्या' है इससे जीव बन्धन से छूट कर मुक्ति के
आनन्द को प्राप्त करता है।
(२) अस्मिता - बुद्धि
(मन-चित्त) को आत्मा से भिन्न न समझना ।
(३) राग - सुख में प्रीति
यह राग है।
(४) द्वेष - दुःख में
अप्रीति द्वेष है ।
(५) अभिनिवेश - सब प्राणी
मात्र की यह इच्छा सदा रहती है कि मैं सदा शरीरस्थ रहूँ, मरू नहीं । मृत्यु दु:ख से त्रास अभिनिवेश कहाता है ।
इन पांच क्लेशों
को योगाभ्यास विज्ञान से छुड़ा के, ब्रह्म को
प्राप्त होके, मुक्ति के परमानन्द को भोगना चाहिये।
क्लेशों की
अवस्थायें पांच हैं -
(१) प्रसुप्त -
जन्मजन्मान्तर में भोगे हुए भोगों के संस्कार जो सोये पड़े हैं।
(२) तनु - सतत् सत्संग, उपदेश आदि से जो कमजोर बन गये हैं वे
(३) विच्छिन्न - एक
संस्कार उभरता, तो उससे विपरीत दबा रहता है। जैसे द्वेष की
स्थिति में प्रेम का न उभरना।
(४) उदार - प्रकट या उभार
की स्थिति। जैसे जवानी में प्रेम।
(५) दग्धबीजभाव - योग में
विशिष्ट सिद्धि होने पर जले हुए दाने के समान।
संसार में स्थायी सुख नहीं
जब तक संसार में
दु:ख की अनुभूति नहीं करोगे, उस से नहीं ऊबोगे तब तक
ईश्वर के सुख, ज्ञान, बल, आनन्द के प्रति रुचि नहीं होगी। संसार में सुख तो है पर पूर्ण सुख नहीं है।
कोई न कोई दुःख लगा हुआ है। जो थोड़ा सुख है वह भी दु:ख मिश्रित है। अतः
बुद्धिमान् ऋषि लोग उसे भी दुःख मानकर छोड़ देते हैं व पूर्ण सुख (=मुक्ति, ब्रह्मानन्द, ईश्वर प्राप्ति) चाहते हैं ।
(१) कुत्रापि कोऽपि सुखी
न। (सांख्य ६/७) अर्थात् संसार में कहीं भी कोई भी पूर्ण सुखी नहीं है ।
(२) विविधबाधनायोगाद्
दुःखमेव जन्मोत्पत्तिः। (न्याय ४/१/५५) अनेक प्रकार के दु:खों के साथ सम्बन्ध होने
से शरीर में आना (जन्म लेना) दु:ख ही है।
(३) अथाऽतो ब्रह्म
जिज्ञासा। (वेदान्त १/१/१) संसार को भोग कर देख लिया, दु:ख ही दुःख है। अब ब्रह्म के जानने की इच्छा करनी चाहिये।
(४)
आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसन्निकर्षात् सुखदुःखे। (वैशे. द. ५/२/१५) आत्मा जब मन, इन्द्रिय व विषय के साथ सम्बद्ध होता है तब सुख-दुःख की उत्पत्ति होती है।
(५)
परिणामतापसंस्कारदुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिन:॥ (यो. २/१५) इस
संसार के जो भी पदार्थ हैं उनमें विवेकी व्यक्ति के लिये चार प्रकार का दुःख मिला
हुआ है। यह भावना कि भोगों को भोगने से मैं तृप्त हो जाऊँगा, मिथ्या है। इन्द्रियों का सामर्थ्य शिथिल या समाप्त हो जाने पर भी मन की तो
भोगने की इच्छा बनी ही रहती है यह 'परिणाम दु:ख' है। भोगने के लिये तैयार, परन्तु उसमें कोई बाधा
आये, कोई बाधक बने तो यह 'ताप दु:ख ' अच्छा पुत्र बिगड़ न जाये, कुकर्मी न हो जाये यह 'ताप दु:ख'। मिलने में बिछुड़ने का यह 'ताप दु:ख' है।
भोगने में हम सुख
दुःख की अनुभूति करते हैं, उसकी छाप चित्त पर पड़ती है, तो उन्हें फिर भोगने की इच्छा होती है। वही भोग यदि न मिले अथवा कम, घटिया, महंगा या समय पर न मिले तो दुःख होगा, यह 'संस्कार दु:ख' है। और 'गुणवृत्तिविरोधदुःख' - सत्त्व, रज,
तम गुणों का एक दूसरे से परस्पर विरोध होने से कभी कुछ
विचार तो कभी कुछ विचार, करूँ कि न करूँ, पाप-पुण्य करने का वृत्तिविरोधरूपी घर्षण-दुःख होना।
(६) न वै सशरीरस्य सतः
प्रियाऽप्रियोरपहतिरस्ति। (छां. उप. ८/१२/१) शरीर के रहते सांसारिक सुख-दुःख हुए
बिना नहीं रहते। निष्काम भाव से प्रयोग करते यदि सुख-दुःख की अनुभूति नहीं करेंगे
तो ये दुःख नहीं सतायेंगे, जैसे ऋषि लोगों को। विपरीत दु:ख की
अनुभूति योगावस्था में नहीं होगी।
उपसंहार
मैं-मेरा का सम्बन्ध
इतना गहरा है कि व्यक्ति एक क्षण भी इस से अलग नहीं हो पाता। यह स्वस्वामी सम्बन्ध
छूटने पर ही ईश्वर प्राप्ति की अधिक रुचि होती है। यह शरीर भी अपना नहीं, हम तो केवल इसके प्रयोक्ता हैं स्वामी नहीं हैं। जहाँ ममत्त्व वहाँ अविद्या, और जहाँ अविद्या है वहाँ दु:ख है। इस सम्पूर्ण पिण्ड और ब्रह्माण्ड का बनाने
वाला स्वामी तो ईश्वर है। इराक में लाखों मर गये कोई नहीं रोया। पञ्जाब-काश्मीर
में रोज मारे जाते हैं कोई नहीं रोता परन्तु घर से तार आ जाये तो क्या हाल होगा? यह स्व-स्वामी सम्बन्ध है।
ईश्वर-जीव-प्रकृति
का ठीक- ठीक ज्ञान (विवेक) होने पर व व्यावहारिक अनुभूतियाँ होने पर अन्य कुछ
जानना शेष नहीं रहता। उपनिषद् में आया है 'किसके जान लेने पर अन्य
किसी का जानना शेष नहीं रहता ? ब्रह्म पदार्थ के जानने
के बाद अन्य के जानने की इच्छा नहीं रहती।' जीव ज्ञान, बल,
आनन्द चाहता है। ईश्वर के जानने के पश्चात् उसे सब कुछ मिल
जाता है।
प्रकृति को जाना, विकृति को जाना, स्वयं आत्मा को भी जाना परन्तु जब
व्यक्ति ब्रह्म को जान लेता है तो कृतकृत्य हो जाता है उसे पूर्ण तृप्ति हो जाती
है। ब्रह्म की प्राप्ति के पश्चात् कुछ भी प्रापणीय शेष नहीं रहता।
भिद्यते
हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य
कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ।
(मु.उप.२/२/८)
दूर से दूर और
समीप से समीप विद्यमान ईश्वर का साक्षात्कार कर लेने पर आत्मा की अविद्या नष्ट हो
जाती है। सारे संशय नष्ट हो जाते है और सारे कुसंस्कारों का नाश हो जाता है।
कर्म
कर्म की परिभाषा व लक्षण : - सुख की प्राप्ति करने और दुःख से छूटने के लिये जीवात्मा मन, इन्द्रिय, शरीर से जो चेष्टा विशेष करता है : 'कर्म' है
कर्म के भेद -
कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्। (यो.द.४/७) योगी का अशुक्लाकृष्ण
(निष्काम) कर्म होता है। तथा अन्य संसारी मनुष्यों का तीन प्रकार का (१)
शुक्ल=सकाम शुभकर्म, (२) कृष्ण अशुभ कर्म (३) शुक्ल
कृष्ण=मिश्रित कर्म होता है। कर्म कोई भी
निष्फल नहीं जाता। कर्म फल कत्ता ही भोगता है अन्य नहीं। सिद्धान्त की तात्त्विक
समझ से पवित्र मनुष्य ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ब्रह्मज्ञानी संसार का उपकार
करने में जीवनभर रत रहता है।
योगी राग-द्वेष
से रहित होकर कर्म करता है वह निष्काम। जो भी शुभ कर्म, कर्त्तव्य भावना से, ईश्वर की आज्ञा के अनुरूप और ईश्वर प्राप्ति
को लक्ष्य बनाकर करे वह निष्काम। परोपकार आदि शुभ कर्मों के साथ-साथ ईश्वर उपासना
भी आवश्यक है। केवल परोपकार आदि कर्मों से ही मुक्ति नहीं होती पर ये मुक्ति में
सहायक जरूर हैं।
फल की दृष्टि से
भेद - (१) क्रियमाण - जिन कर्मों को कर रहे हैं। (२) संचित - जिन कम्मों को कर
चुके, (३) प्रारब्ध - जिन किये हुए कर्मों का फल मिलने लगे।
साधनों के आधार
पर भेद - (१) शारीरिक (२) वाचनिक (३) मानसिक कत्त्ता की परिभाषा - कर्त्तुम्, अकर्त्तुम् अन्यथा कर्त्तुम् यःस्वतंत्रः स कत्त्ता। अर्थात् जो किसी कार्य को
करने, न करने या उल्टा करने में स्वतंत्र है, वह कर्त्ता
कहलाता है।
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