यजुर्वेद 1.3
ओ३म् वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि
सहस्रधारम्।
देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण
शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः।। ३।।
यज्ञ कैसे किया जाता है और कैसे
सुख देता है इस विसय का उपदेश इस मंत्र में दिया गया है।
पदार्थः- जो (वसोः) यज्ञ (शतधारम्) असंख्यात संसार को धारण करने वाला और
(पवित्रम्) शुद्धिकरने वाला कर्म(असि) है
तथा जो (वसोः) यज्ञ (सहस्रधारम्) अनेक प्रकार के ब्रह्माण्ड को धारण करने
(पवित्रम्) शुद्धि का निमित्त सुख को देने वाला (असि) है (त्वा) उस यज्ञ को (देवः)
स्वयं प्रकाशस्वरूप (सबिता) वसु आदि तैतिस देवों कि उत्तपत्ति करने वाला परमेश्वर
(पुनातु) पवित्र करे। हे जगदिश्वर!आप हम लोगों से सेवित (वसोः) यज्ञ है उस
(पवित्रेण) शुद्धि के निमित्त वेद के विज्ञान (शतधारेण) बहुत विद्यायों का धारण
करनेवाले वेद और (सुप्वा) अच्छि प्रकार पवित्र करने वाली यज्ञ से हम लोगों को
पवित्र किजीये। हे विद्वान पुरुष अथवा जानने कि इच्छा वाले मनुष्य ! तू (काम्) वेद
की श्रेष्ठ वाणियों में से कौन- कौन वाणी के अभिप्राय को (अधृक्ष) अपने मन पूरण
करना अथवा चाहता है।
भावार्थः- जो मनुष्य पूर्वोक्त यज्ञ का सेवन
करके पवित्र होते है उन्ही को जगदीश्वर बहुत सा ज्ञान देकर अनेक प्रकार के सुख
देता है। परन्तु जो लोग ऐसी क्रियायों को करने वाले वा परोपकारी होते है वे ही सुख
को प्राप्त करते हैं आलस्य करने वाले कभी नहीं । इन मंत्र में (कामधुक्षः) इन पदों
से वाणी के विषय में प्रश्न है। वही
प्रेरणा देते हुये प्रभु कहते है की इस वसो- यज्ञ से ही तुने अपने आपको पवित्र
बनाया है। जिस यज्ञ द्वारा पवित्रीकरण की क्रिया शतशः वेदवाणियोंका उच्चारण किया
जाता है।सैकड़ो ही क्या सहस्त्रधारम सहस्त्रों वेदवीणियों का उच्चारण हुआ है। ऐसी
वसो यज्ञ प्रक्रिया से पवित्रम् असि तुने अपने को पवित्र बनाया है। वैदिक संस्कृती
में मनुष्य यज्ञमय जीवन बिताता है। इस यज्ञ मय जीवन की प्रेरणा उसे शतशः सहस्त्रहः
उच्चारण की गई वेदवाणियों से प्राप्त होता है। जीन्हें वह अपने इस यज्ञीय जीवन में
समय समय पर प्रयुक्त करता है। सविता देव सबको प्रेरणा करने वाले दिव्य गुणों का
पुंज वह प्रभु त्वा तुझे पुनातु पवित्र करें। जो मनुष्य प्रातः सायं
प्रभु के चरणों में उपस्थित हो कर उसकी उपासना प्रार्थना यज्ञ मंत्रो द्वारा
सत्संघ करता है। उसका जीवन पवित्र और निर्मल ही बनता है। उपासना के समान दूसरा कोई
अन्य तत्व नहीं हो जो मानव को पवित्र करता है और यह सर्व श्रेष्ठ विधी है। (सविता)
देव उदय हो कर सबको कर्मों में प्रेरित करने वाला प्रकाशमय सूर्य (त्वा) तुझको
पुनातु पवित्र करे, रोग क्रिमियों के संहार के
द्वारा सूर्य पवित्रता और निरोगता को
प्रदान करता है। (वसो) यज्ञ से पवित्रेण अपने को पवित्र बनाने वाले (शतधारेण) शतशः
वेद वाणियों का उच्चारण करने वाले पुरुष के साथ अर्थात उसके सम्पर्क में आने के
द्वारा (सुप्वा) तू अपने को उत्तम प्रकार से (सु) पवित्र करने वाला ( पू) हुआ है
मनुष्य यज्ञशील ज्ञानी पुरुष के सम्पर्क से उन जैसा ही बनता हुआ अपने उत्थान को
सिद्ध करता है। सत्संगपापान्निवारयति योजतो हिताय, पाप से
हटा कर हित में जोड़ता है। वेद में कहा है हे प्रभों! ऐसी कृपा किजिये किः- यथा नः
सर्व इज्जनः संगत्या सुमना असत् , हमारे सभी जन सतसंग से
उत्तम मन वाले हो। एवं पवित्र बनने के तीन उपाय है। प्रथम यज्ञमय जीवन बिताना,
यज्ञो में लगे रहना, 2 प्रभु कि उपासना करना,
3 यज्ञशील ज्ञानियों के
सम्पर्क में रहना। इन उपायों को क्रिया
में लाने वाला व्यक्ति से प्रभु कहते है कि वस्तुतः काम उस अवर्णनिय आनन्द देने
वाली वेद वाणी को तूने ही (अधुक्षः) दुहा है इसका दोहन करने के कारण यह अपने जीवन
में उंचा उठता हुआ परमेश्ठी बना है। यह यज्ञशील बन कर सभी का पालन करने से
प्रजापती है। अर्थात हम सब यज्ञ उपासना और सतसंग से अपने जीवन को उंचा और श्रेष्ठ
बनाये।
यह यज्ञ एक गम्भिर विषय है जिसका बहुत
विस्तार है, और यह एक शुद्धि करने वाला कर्म मानव के
लिए अनिवार्य विषय में से एक है। इस यज्ञ के द्वार जो शुद्धि का मुल कारण है जो
मानव के द्वारा किया जाने वाला कर्म है इसके द्वारा असंख्यात संसार को धारण किया
जाता है। अर्थात मानव के संसार से अतिरिक्त भी जितनी योनियों के संसार है वह सब भी
इस यज्ञ के द्वारा धारण किये जाते है। इस यज्ञ को करने वाला मानव है इससे होने
वाले फायदा और नुकसान के लिए मानव जीम्मेदार है। जैसा कि मंत्र कह रहा है, कि यह यज्ञ असंख्य संसार के साथ असंख्य प्रकार के ब्रह्माण्डों को भी धारण
करने वाला है और ब्रह्माण्डों को भी शुद्ध करने का निमित्त कारण के साथ मानव को
बहुत प्रकार के सुखों को देने वाला है। इस यज्ञ को स्वयं प्रकाशस्वरूप तैतीस देवों
की उत्तपत्ति करने वाले परमेश्वर पवित्र करें। मतलब परमेश्वर के निश्वास से निकलने
वाले बहुत प्रकार की विद्यायों को धारण करने वाले वेद के विज्ञान उसके दिशा
निर्देसन में किया जाने वाला यज्ञ ही समग्र संसार और असंख्यात ब्रह्माण्ड के लिये
कल्याण कारक सिद्ध होगा। अर्थात वेद में विदित विधिवत मंत्रों के साथ यह यज्ञ जब
अच्छि तरह से मानव द्वारा संपादित किया जाता है तब संपूर्ण मानवता के साथ और भी
असंख्यात संसार पवित्र होते है। इस मंत्र में ऐसी कामना भी परमेश्वर कि गई है कि
वह हमारी इस यज्ञ रूपी पवित्र कर्म को निर्मल, निर्दोष और
निस्पाप करें। और मंत्र के अंतिम हिस्से से एक प्रश्न भी करता है कि सम्पूर्ण मानव
जाती के विद्वान पुरुषो में जो विद्वान पुरुष ज्ञान को प्राप्त की शुभाकांक्षा
रखते है, उन्हें यह
निश्चित करना होगा कि उन्हें कौन-कौन से विषय का ज्ञान प्राप्त करके उसमें महारत
हासिल करना है। इसके पिछे एक सरल कारण है कि मानव का जीवन छोटा है वह हर विषय का
ज्ञान एक जीवन में नहीं प्राप्त कर सकता है। उसे एक निश्चित लक्ष्य लेकर जीवन में
आगे बढ़ना होगा, क्योकि वेदों में असंख्य विषयों का शुद्ध और
मुल ज्ञान भरा है। और यदि मानव समझदार
वुद्धिमान नहीं होगा तो वह गैर जिम्मेदारना रवैया के कारण इन असंख्यात संसार के
साथ ब्रह्माण्ड के अन्त का भी कारण बन सकता है।
इस मंत्र में कई एक बातों पर एक साथ फ्रकाश
डाला जा रहा है।
1 – यह यज्ञ असंख्यात संसार का
धारण करने वाल, और शुद्धि करने वाला कर्म है।
2 - यज्ञ अनेक प्रकार के
ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला और शुद्धि का निमित्त सुख देने वाला है।
3 – उस यज्ञ को स्वयं
प्रकाशस्वरूप वसु आदि तैतिस देवों की उत्तपत्ति करने वाला परमेंश्वर पवित्र करें।
4 – यह यज्ञ हम लोगों से जो
सेवित है उसका मुख्य आधार वेद के विज्ञान जो शुद्धि के निमित्त बहुत प्रकार कि
विद्यायों को धारण करने वाले और अच्छि प्रकार पवित्र करने वाले यज्ञ हमलोगों को
पवित्र करें।
5 – हे विद्वान पुरुष अथवा जानने
कि इच्छा करने वाले मनुष्य ! तु वेद की वाणी से कौन-कौन वाणी को अपने मन में पुरण
करना अथवा जानना चाहता है।
इस यज्ञ कि महिमा इस मंत्र है।
प्रथम यह यज्ञ असंख्यात संसार को धारण कर
रहा है (जैसा कि कहा गया है कि यज्ञस्य भुवनष्य नाभी) अर्थात इस विश्व ब्रह्माण्ड
का मुल केन्द्र यज्ञ ही है इसका तात्पर्य
कि यज्ञ एक अद्भुत और अद्वितिय कर्म है जो सब जीव जन्तु और प्राणियों के
द्वारा किया जाता है। अर्थात जो प्राणी जिस कारण को ध्यान में रख कर परमात्मा ने
उसका अवतरण उत्पन्न किया है जब वह कार्य उस जीव के द्वारा किया जाता है तो उससे
परमेंश्वर को सामर्थ प्राप्त होता है। ऐसे ही सभी प्राणी जब अपने उत्तपत्ती के मुल
उद्देश्य को पुरा करते है तब इनके द्वारा किये गये हर एक पवित्र कर्म से एक विशेष
प्रकार कि उर्जा उत्पन्न होती है जो श्रृष्टी को और ससक्त सामर्थवान शक्तिशाली और
शुद्ध करता है। इसमें मानव सबसे प्रथम अस्थान पर आता है इसके प्रत्येक कृत्य का
परिणाम ही यह विश्व ब्रह्माण्ड है, जो भी यह
शुभ-अशुभ कर्म करता उसका परिणाम समग्र जगत को प्रभावित करता है क्योंकि परमेंश्वर
भी इस मानव के साथ ही है। और वह कभी मानव को किसी भी कर्म को करने से रोकता नहीं
है। मानव ही एक ऐसा प्राणी हो जो कर्म करने में पूर्णतः स्वतन्त्र है लेकिन उसके
परिणाम को प्राप्त करने में स्वतन्त्र नहीं है। यह मानव परतन्त्र है। जैसा भी यह
मानव कर्म करता है उसका फल उसी के अनुरूप यह प्रकृती उस मानव समुह को प्रदान करती
है। यहां मानव के द्वारा किये जाने वाला कर्म भी अलग-अलग परिणाम को उत्तपन्न करता
है कुछ कर्म व्यक्तिगत फायदे के लिये किये जाते है। कुछ परिवार के फायदे को ध्यान
में रख कर किया जाता है। कुछ कर्म समाज को ध्यान में रख कर किया जाता है, कुछ कर्म देश को ध्यान में रख कर किया जाता है और कुछ कर्म सामुहिक रूप से
संघटनो के द्वारा सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड के लिये किये जाते है। जैसा कर्म होता
है उसके अनुरूप ही उसका फल भी मिलता है। जैसी क्रिया होती है ठीक उसके विपरीत
प्रतिक्रीया भी होती है। उदाहरण के लिये आज सम्पूर्ण विश्व ग्लेबल वार्मिंग के
दुस्परिणामों को भोग रहा है, जिसके कारण कितने महत्त्वपूर्ण
जीव इस श्रृष्टी से हमेशा के लिये लुप्त हो चुके है उन प्राणीयों के ना होने कि
वजह से जो कार्य उनके द्वारा इस श्रृष्टी
में किया जा रहा था वह अब नही हो रहा है। जिसका दुस्परिणाम सम्पूर्ण विश्व
ब्रह्माण्ड को हमेशा को लिये क्षती का कारण बन चुका है। यह मात्र कुछ ही सौ वर्षों
में ही हुआ है। इसके पिछ अंधाधुन प्रकृति का दोहन और अज्ञान पूर्ण कर्म ही है। लोग
कहते है की कार्बन के अत्यधिक उत्सर्जन के कारण यह सम्पूर्ण भुमंडल गर्म हो रहा
है। जीव जंतुओ के अनुकुल नहीं है जिसके कारण ही प्राणी लुप्त हो रहे और कुछ नये
प्राणियों का विकास भी हो रहा है। कुछ कृतिम प्राणियों को वैज्ञानिक भी जन्म दे
रहे है। यह सब मिला कर इन सब का परिणाम नकारात्मक अधिक आ रहा है। शुद्धि के अस्थान
पर इस मानव समुह के द्वारा किया जाने वाला
कर्म जो विश्व ब्रह्माण्ड के लिये हो रहा है वह भयंकर अशुद्धि फैला रहा
है।आज जरुरत है वैदिक यज्ञ के सारगर्भित भाव को समझे वैदिक और यज्ञ का बढ़ावा बृहद
अस्तर पर दिया जाये।
वेद मंत्रो के याज्ञिक वैदिक विज्ञान को
समझने के लिए हमें यज्ञ के वैदिक स्वरूप और उसके विज्ञान को समझना होगा। जिस
प्रकार से सूर्य के प्रकाश से समन्दर का पानी वास्प बन कर आकाश में जाता है और समय
आने पर यही पानी जो वास्प के रूप में आकाश में गया था, वह पुनः पुरी पृथिवी पर बरषता है। कुछ एक स्थानों को छोण कर जहां
रेगिस्तान है वहां बारीश की मात्रा बहुत कम या बिल्कुल बारीश नहीं होती है। यह
पानी कितना बहुमूल्य इसकी कीमत रेगिस्तान में रहने वाले लोग जानते है। इस पानी को
प्राप्त करने के लिये कुछ एक देश समन्दर के पानी को लवण मुक्त करके उसका उपयोग करते
है। जो बहुत महंगा तरीका है यह सब गरिब देशों के लिये बहुत कठिन है। आज पिने के
पानी कि मात्रा तेजी से कम हो रही है पुरे पृथिवी पर यह एक गम्भिर समस्या बन कर
उभर रहा है। नदियां सुख रही है समन्दर में खारे पानी की मात्रा निरंतर बढ़ रहा यह
एक चिंता का विषय है इसके अतिरिक्त जो सबसे बड़ा पृथिवी का एसी उत्तरिय ध्रुव अन्टारिका महाद्विप है। वह
तीब्रता से पिधल कर समन्दर मिल रहा है। जिसकी वजह से सारे उन बड़े शहरों पर घोर
विपत्ती के बादल मडंरा रहें है कुछ सालों में सब समन्दर के अन्दर समा जायेंगे।
इसके पिछे कारण वायुमंडल की गर्मी बताया जारहा है। अत्यधिक भौतिक उर्जा के दहन के
उपरान्त कार्बनडाइआक्साइड की मात्रा वायुमंडल में बढ़ रहा है। जिसके कारण ओजोन की
परत में निरंतर छीद्र बन रहा हो जो हमारे वायु मंडल के लिये बहुत खतरना सिद्ध हो
रहा है। जिसके कारण बारीश की मात्रा भी कम आ रही है। यह एक नकारात्मक इस संसार के
भौतिक विज्ञान का पक्ष है। जैसा कि याज्ञिक भौतिक विज्ञान है वह सकारात्मक कार्य
करता है जब हम यज्ञ करते है उसमें जड़ी बुटियों के साथ शुद्ध देशी घी से और विशेष
प्रकार के समिधाओं से तो उससे जो सुगन्ध निकलती है वह सिधा सूर्य की किरणों के साथ
वायु के साथ वायुमंडल में व्याप्त हो जाती है दुर्गन्ध और प्रदुषण कार्बनडाइआक्साड
की मात्रा को नियंत्रित करती है। जिससे पृथिवी का वायुमंडल ना ज्यादा गर्म होता है
ना ही ठंडा ही होता है, सही समय पर बारीश होती है और कभी ना
पानी की कमी होती है ना ही किसी प्रकार के जीव ही इस भुमंडल पर लुप्त होते है।
जैसा की पहले हुआ करता था।
यह यज्ञ ,हवन,
अग्निहोत्र मनुष्यों के साथ सदा से चला आया है। वैदिक धर्म में
सर्वोच्च स्थान पर विराजमान यह हवन आज प्रायः एक आम आदमी से दूर है। दुर्भाग्य से
इसे केवल कुछ वर्ग, जाति और धर्म तक सीमित कर दिया गया है।
कोई यज्ञ पर प्रश्न कर रहा है तो कोई मजाक। इस लेख का उद्देश्य जनमानस को यह याद
दिलाना है कि हवन क्यों इतना पवित्र है, क्यों यज्ञ करना न
सिर्फ हर इंसान का अधिकार है बल्कि कर्त्तव्य भी है. यह लेख किसी विद्वान का नहीं,
किसी सन्यासी का नहीं, यह लेख १०० करोड़
हिंदुओं ही नहीं बल्कि ८ अरब मनुष्यों के
प्रतिनिधि एक साधारण से इंसान का है जिसमें हर नेक इंसान अपनी छवि देख सकता है। यह
लेख आप ही के जैसे एक इंसान के हृदय की आवाज है जिसे आप भी अपने हृदय में महसूस कर
सकेंगे..संस्कृति द्रोही लोग यज्ञ को
पाखंड और अवैज्ञानिक कहते है | पशु बलि और अशास्त्रीय युक्त
वाममार्गी, आवेदिक यज्ञ अवश्य ही पाखंड है लेकिन वैदिक यज्ञ
जो अहिंसक है पशु हत्या दोष से मुक्त है , वे यज्ञ वैज्ञानिक
है ,और पाखंड से मुक्त है वैदिक यज्ञ के बारे में वैज्ञानिक
दृष्टिकोण जानने के लिए एक उदाहरण को समझते जो एक सच्ची घटना है।
03 दिसंबर 1984 की भोपाल गैस त्रासदी पर एक किताब पढ़ते समय अग्रेंजी समाचार पत्र
"द हिंदू" की एक स्टोरी पर नजर पड़ी...। आपको भी सुनाता
हूं...।....जहरीली गैस मिथाइल आइसोसाइनेट का रिसाव होने के थोड़ी देर बाद अध्यापक
एसएल कुशवाहा ने अपने घर में अग्निहोत्र यज्ञ करना शुरु कर दिया। इसके करीब बीस
मिनट बाद गैस का असर उसके घर पर खत्म हो गया और उनकी जिंदगी बच गई....
यज्ञ- हमार स्वास्थ्य है, एक स्वस्थ जीवन का नेतृत्व करना और बैक्टीरिया से अपने घर को मुक्त करना
चाहते हैं? नियमित अंतराल पर 'हवन'
करें, नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट
(एनबीआरआई) के वैज्ञानिकों की एक टीम ने एक अध्ययन में दावा किया है कि हवन के
दौरान उत्सर्जित धुएं से हवा के बैक्टीरिया को बड़ी मात्रा में कम कर देता है,
संक्रामक रोगों की संभावना को कम कर देता है। एनबीआरआई के वरिष्ठ वैज्ञानिक चंद्रशेखर
नौटियाल ने पीटीआई को बताया, "ज्वलनशील लकड़ी और औषधीय
जड़ी बूटियों, जिसे 'हवन समग्री'
(लकड़ी और सुगंधयुक्त और औषधीय जड़ी बूटियों का मिश्रण) के रूप में
जाना जाता है, प्रभावी रूप से हवा में रोगज़नक़ों को कम कर
सकता है। अध्ययन पहले से ही प्रकाशित किया गया था और साइंस डायरेक्ट ने स्वीकार
किया है, एथनिकफोराकोलॉजी की एक पत्रिका।
आस्था और भक्ति के प्रतीक हवन को करने
के विचार मन में आते ही आत्मा में उमड़ने वाला ईश्वर प्रेम वैसा ही है जैसे एक माँ
के लिए उसके गर्भस्थ अजन्मे बच्चे के प्रति भाव! न जिसको कभी देखा न सुना, तो भी उसके साथ एक कभी न टूटने वाला रिश्ता बन गया है, यही सोच-सोच कर मानसिक आनंद की जो अवस्था एक माँ की होती है वही अवस्था एक
भक्त की होती है। इस हवन के माध्यम से वह अपने अजन्मे अदृश्य ईश्वर के प्रति भाव
पैदा करता है और उस अवस्था में मानसिक आनंद के चरम को पहुँचता है। इस चरम आनंद के
फलस्वरूप मन विकार मुक्त हो जाता है। मस्तिष्क और शरीर में श्रेष्ठ रसों
(होर्मोंस) का स्राव होता है जो पुराने रोगों का निदान करता है और नए रोगों को आने
नहीं देता। हवन करने वाले के मानसिक रोग दस पांच दिनों से ज्यादा नहीं टिक सकते।
हवन में डाली जाने वाली सामग्री
(ध्यान रहे, यह सामग्री आयुर्वेद के अनुसार औषधि आदि
गुणों से युक्त जड़ी बूटियों से बनी हो) अग्नि में पड़कर सर्वत्र व्याप्त हो जाती
है। घर के हर कोने में फ़ैल कर रोग के कीटाणुओं का विनाश करती है। वैज्ञानिक शोध
से पता चला है कि हवन से निकलने वाला धुआँ हवा से फैलने वाली बीमारियों के कारक
इन्फेक्शन करने वाले बैक्टीरिया (विषाणु) को नष्ट कर देता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO)
के अनुसार दुनिया भर में साल भर में होने वाली ५७ मिलियन मौत में से
अकेली १५ मिलियन (२५% से ज्यादा) मौत इन्ही इन्फेक्शन फैलाने वाले विषाणुओं से
होती हैं! हवन करने से केवल ये बीमारियाँ ही नहीं, और भी
बहुत सी बीमारी खत्म होती हैं, जैसे-
१. सर्दी/जुकाम/नजला, २. हर तरह का बुखार ,३. मधुमेह (डायबिटीज/शुगर),
४. टीबी (क्षय रोग), ५. हर तरह का सिर दर्द ,६. कमजोर हड्डियां, ७. निम्न/उच्च रक्तचाप ,८. अवसाद (डिप्रेशन) इन रोगों के साथ साथ विषम रोगों में भी हवन अद्वितीय
है, जैसे ,९. मूत्र संबंधी रोग,
१०. श्वास/खाद्य नली संबंधी रोग ,११. स्प्लेनिक
अब्सेस,१२. यकृत संबंधी रोग, १३. श्वेत
रक्त कोशिका कैंसर ,१४. एंटरोबैक्टर एरोजेन द्वारा संक्रमण
१५.अस्पताल में भर्ती होने के बाद 48 घंटे में सामने आने
वाले संक्रमण, १६. बाहरी एलर्जी संबंधी चेतावनी, १७ . नोसोकोमियल गैर-जीवन धमकी संक्रमण
और यह सूची अंतहीन है! सौ से भी ज्यादा आम
और खास रोग यज्ञ थैरेपी से ठीक होते हैं! सबसे बढ़कर हवन से शरीर, मन, वातावरण, परिस्थितियों और
भाग्य पर अद्भुत प्रभाव होता है. घर परिवार, बच्चे बड़े सबके
उत्तम स्वास्थ्य, आरोग्य और भाग्य के लिए यज्ञ से बढ़कर कुछ
नहीं हो सकता! दिन अगर यज्ञ से शुरू हो तो कुछ अशुभ हो नहीं सकता, कोई रोग नहीं हो सकता।
यज्ञ : सबसे बड़ा विज्ञान
आज यज्ञ को शक्तिवर्धक वस्तुएँ जला देने
वाला एक अन्धविश्वासी कर्मकाण्ड कहा जाता है, किन्तु ऐसा
कहने वाले यह भूल जाते हैं कि वर्तमान विज्ञान उस स्थिति में आ गया है, जब यह बताया जा सके कि यज्ञ के जो भी लाभ वेद, उपनिषद्,
शास्त्रों और पुराणों में बताये गये हैं, वह
यथार्थ लाभों की तुलना में उतने ही छोटे और थोड़े हैं, जैसे
अनन्त ब्रह्माण्ड की तुलना में यह अपनी पृथ्वी। प्रजापति ब्रह्मा के इस कथन को -
“यह यज्ञ तुम्हारी हर कामना को संतुष्ट करेगा।” अब विज्ञान की कसौटी पर सत्य उतारा
जायेगा।
इस विज्ञान को समझने के लिए पृथ्वी और
ब्रह्माण्ड की जिन शक्तियों के अध्ययन की आवश्यकता है, वह है - (1) शब्द सामर्थ्य (मंत्र शक्ति),
(2) अग्नि तत्त्व और उसका प्रकीर्णन, (3) पदार्थ
परिवर्तन के मौलिक सिद्धांत, (4) सूर्य और उसकी सहस्राँशु
शक्ति और अन्तिम, (5) भावना विज्ञान। इनमें से सम्पूर्ण या
कुछ की आँशिक जानकारी से भी यज्ञ सम्बन्धी भारतीय दर्शन को अच्छी प्रकार समझा जा
सकता है। शब्द की सामर्थ्य की माप कैलीफोर्निया विश्व–विद्यालय के एक भूगर्भ
तत्त्ववेत्ता डा. गैरी लेन ने की। उन्होंने स्फटिक के प्राकृतिक क्रिस्टल और
स्फटिक की ही बहुत पतली पट्टिका के माध्यम से एक ऐसा यन्त्र बनाया जो ऐसी ध्वनियों
के माध्यम से जो कानों को सुनाई भी नहीं देती ऐसी शक्ति का निर्माण किया जिसके
द्वारा शल्य-चिकित्सा कीटाणुओं का विनाश, मोटी–मोटी इस्पात
की चादरों को काटना, धुलाई, कटाई आदि
भारी से भारी काम और नाजुक से नाजुक कार्य भी सम्पन्न करने में बड़ी सहायता मिली।
आज पाश्चात्य देशों में औद्योगिक क्षेत्रों में कर्णातीत ध्वनि के उपयोग ने
क्राँति मचा दी है।
शब्द की दूसरी विशेषतः उसकी संवहनीयता है, वह ठोस माध्यम से भी चल सकता है और ईथर में तरंगों के रूप में सारे
ब्रह्माण्ड का भ्रमण भी कर आता है, इन सब बातों का अर्थ होता
है कि शब्द की शक्ति अपरिमेय होती हैं। पृथ्वी पर अनेक हलचलें शब्द के द्वारा ही
होती है फिर भारतीय शब्द शास्त्र तो और भी वैज्ञानिक है। उनसे एक प्रकार की ऐसी
ध्वनि उत्पन्न होती है, जो किसी भी स्थान पर व्यापक हलचल
उत्पन्न कर सकती है।
गायत्री मंत्र की ध्वनि शक्ति इन सबसे
विलक्षण है। गायत्री मंत्रों में जब मंत्रोच्चारण किया जाता है तो वह अपने सामान्य
सिद्धान्त के अनुसार कुण्डलाकार गति से ऊपर की ओर ईथर में तरंगें बनाता हुआ बढ़ता
है। यज्ञों में प्रज्वलित अग्नि के इलेक्ट्रान्स उन तरंगों को वहन कर लेते हैं और
उनकी पहली प्रतिक्रिया तो उस क्षेत्र में ही फैलती है, अर्थात् यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले घृत आदि पदार्थ स्थूल से गैस रूप में
फैलते हैं। आग की गर्मी से उन औषधियों के इलेक्ट्रान्स अपने-अपने पथों पर इतनी
तेजी से दौड़ने लगते हैं कि आपस में लड़खड़ा जाते हैं और छितर कर स्थूल पदार्थों
से अलग होकर वायु मण्डल में फैल जाते हैं, यज्ञ के समय फैलने
वाली धूम्र-सुवास उसी का एक स्थूल रूप है। अग्निहोत्र और मंत्रोच्चारण के उससे भी
सूक्ष्म-विज्ञान को समझने के लिये अयन-मण्डल (आयनोस्फियर) का अध्ययन आवश्यक है।
धरती की सतह से 35 से 45 मील तक की
ऊँचाई के ऊपर वायु मण्डली आग को अयन-मण्डल कहते हैं। अपनी पृथ्वी वायु के समुद्र
में डूबी हुई है, आयनोस्फियर उसका सबसे अधिक ऊँचा और विशाल
क्षेत्र हैं, लेकिन वहाँ हवा की कुल मात्रा वायु-मण्डल की
तुलना में दो-सौवें भाग से भी कम है। यथार्थ में पृथ्वी पर प्राकृतिक परिवर्तनों
और ब्रह्माण्ड के अदृश्य लोकों से संपर्क का मूल अध्याय यहीं से प्रारम्भ होता है।
कुछ दिन तक अयन मण्डल वैज्ञानिकों के लिये एक पहेली थी, किन्तु
छानबीन से पता चला है कि बहुत ऊँचाई पर हवा में ऐसे बहुत से गुण हैं जो धरती की
हवा में नहीं होते।
उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव प्रकाश, प्रचण्ड चुम्बकीय आँधी, बेतार तरंगों के परावर्तन
जैसी घटनायें आयनोस्फियर से ही आरम्भ होती हैं। सूर्य और चन्द्रमा आदि की अनेक
नियमित प्रक्रियाओं के फलस्वरूप पृथ्वी के आकर्षण वृत्त में परिवर्तन होते हैं।
यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि हवा में मिश्रित गैसें छोटे-छोटे अणुओं से बनी
होती हैं। एक घन सेंटीमीटर हवा में नाइट्रोजन, आक्सीजन और
दूसरी गैसों के 27000,000,000,000,000,000 कण होते हैं। यह
अणु भी छोटे कणों में विभक्त होते हैं इन्हें परमाणु कहते हैं, परमाणु भी विभक्त हो सकते हैं। क्योंकि वे भी इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और प्रोटान नामक और भी छोटे कणों से बने हैं, इन्हें शक्ति तरंगें ही कहना चाहिये। परमाणु बहुत स्थायी होता है, क्योंकि इलेक्ट्रान और परमाणु का न्यूक्लियस आपस में आकर्षक विद्युत शक्ति
द्वारा एक दूसरे से जुड़े रहते। नाभिक धन विद्युत आवेशकारी और इलेक्ट्रानिक सेल
ऋण-विद्युत आवेशकारी होता है। इन्हीं विद्युत आवेशकारी अणु या परमाणुओं का नाम अयन
है। इसे एक प्रकार का वैसा ही शक्ति प्रवाह कहना चाहिये, जिस
तरह तालाब के पानी में तरंगें उठतीं और पानी में गति पैदा करती हैं। यह सूक्ष्म
अयन मण्डल भी उसी प्रकार एक ओर तो पृथ्वी की जलवायु पर गैसीय स्थिति के अनुरूप
अच्छे, खराब परिवर्तन करता है, दूसरी
ओर पृथ्वी के शब्द प्रवाह को कालातीत बनाकर आकाश की ओर फेंकता रहता है।
अणुओं और परमाणुओं के साथ इतनी मजबूती से
जुड़े रहने के बाद भी इलेक्ट्रान कभी-कभी उनसे टूटकर अलग हो जाते हैं, पहले वैज्ञानिक इस पर आश्चर्य-चकित थे पर अब वे जान गये हैं कि आयनोस्फियर
में यह क्रिया सूर्य के विकिरण (रेडियेशन) से होती हैं। तात्पर्य यह कि सूर्य इस
अयन को चुप नहीं रहने देता कुछ न कुछ परिवर्तन कराता ही रहता है परिवर्तन की
स्थिति अच्छी-बुरी गैसों के अनुरूप होती हैं, इसलिये यज्ञ से
जो प्राण-प्रवाह उत्पन्न होता है, वह स्थूल दृष्टि से
प्रकृति और जन-स्वास्थ्य पर बड़ा अनुकूल प्रभाव डालता है। आज जो परमाणविक विस्फोट
हो रहें हैं, उनसे तो अयन-मण्डल ऐसी खराब गैसों की धूलि
रेडियो-एक्टीविटी से भर गया है कि आने वाले समय में अनेकों नई बीमारियाँ पैदा होंगी
और अकाल धनावृद्धि के विद्रूप उपस्थित होंगे। इस धूलि की जिन्दगी बड़ी लम्बी होती
है। दूसरी ओर हर जीवित पदार्थ में कार्बन की मात्रा अधिक होती है। जिससे
किरण-सक्रिय धूलि बड़ी आसानी से उस पर अपना प्रभाव प्रारम्भ कर देती है। हर एक
मेगाटन वाले परमाणविक अस्त्र से 20 पौण्ड कार्बन 14 की उपलब्धि होती है।
1961 तक के विस्फोटों का
हिसाब लगाकर ही डा. लाइनस पालिंग ने बताया था कि भविष्य में 4 लाख विकलांग या मृत बच्चे जन्म लेंगे। कार्बन-14 के
अतिरिक्त स्ट्राटियम 90 आयोडीन 131 और
कैसियम 137 जैसी कैन्सर, लूकेमियाँ,
रक्त मंदता और पेचिस पैदा करने वाली गैसें पैदा होती हैं, उन्हें केवल प्राण-संयुक्त या अधिक शक्ति वाला यज्ञीय-विकिरण ही रोक सकता
है और कोई नहीं। यज्ञ से हुई प्राण-वर्षा में ही वह शक्ति है, जो इन दुष्प्रभावों को रोक सके, इसलिये वर्तमान युग
में तो यज्ञों की अनिवार्यता असंदिग्ध ही है।
प्रकृति के रूप में यज्ञ पहुँची गैस और
कर्णातीत ध्वनि से अयन और ब्रह्माण्डीय शक्तियों के भीतर भारी हलचल उत्पन्न होती
है और उस हलचल के फल-स्वरूप ही पृथ्वी पर अनेक नये तत्त्वों का आकर्षण, वर्षा आदि की व्यवस्था होती है, मौसम में सुहावनापन
और वातावरण में शक्तिवर्धक प्राण की बहुलता होती है, यह सब
उसके स्थूल प्रभाव और प्रतिक्रियाएँ ही हैं।
यजुर्वेद में कहा
है-ब्रह्म सूर्य सम ज्योतिः”-23। 42।
वह सूर्य ब्रह्म तत्त्व ही है, उन्हीं की शक्ति और बाहरी महिमा से जीवन का विकास हो रहा है। पृथ्वी में
आँधी तक सूर्य की इच्छा से आती है, इसे सूर्य की तापीय
व्यवस्था कहें या प्राण-प्रक्रिया पर लिखित है कि यज्ञ और मन्त्र की कर्णातीत
शक्ति उन प्राण या ऊष्मा में खलबली मचा कर अधिक मात्रा में जीवन तत्त्वों का
विस्फोट अवश्य कर अधिक मात्रा में जीवन तत्त्वों का विस्फोट अवश्य करा लेती है।
जहाँ भी यज्ञ होते हैं वहाँ प्रकृति बहुत अनुकूल रहती है इसमें किंचित् मात्र भी
सन्देह नहीं। स्मरण रहे पृथ्वी सूर्य से ही सर्वाधिक प्रभावित है। मन्त्र का भावना
विज्ञान उससे भी विलक्षण शक्ति वाला है। गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा है कि संसार
में किसी भी वस्तु का अभाव नहीं है, भले ही हम उसे न जानते
हों। परमात्मा की सृष्टि में वह सब कुछ है, जिसके बारे में
हम जानते भी नहीं हैं, उसे जानने और देखने के लिये अणु-आँखें
सूक्ष्म-दृष्टि को जागृत करना आवश्यक है। अर्थात् जीव छोटे से छोटा होकर ही विश्व
की अनन्तता और उसके भीतर की आणविक हलचलों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यह ज्ञान
इतना संघर्ष है कि संसार के किसी भी भूभाग में विलक्षण हलचल उत्पन्न कर सकता है।
यज्ञों के माध्यम से प्रकट होने वाली
भावना-शक्ति सामान्य भावों की अपेक्षा शब्द-शक्ति और अग्नि-तत्त्व से प्रेरित होने
के कारण तमाम ब्रह्माण्ड में फैलकर अपने अनुरूप शक्तियों को खींच लाती है। हम समझ
नहीं पाते कि अदृश्य सहायता या इच्छा पूर्ति कैसे हुई पर यह नई भावनाओं द्वारा एक
प्रकार के तत्त्वों के अणुओं के आकर्षण की ही वैज्ञानिक पद्धति है, उसमें रहस्य जैसी कोई भी बात नहीं है।
भावना वस्तुतः कर्णातीत ध्वनि की और भी
सूक्ष्म स्वरूप है, क्योंकि हम जो कुछ सोचते हैं,
वह आत्मा या चेतन सत्ता द्वारा एक प्रकार का बोलना ही हैं, इसलिये होना ही चाहिये, यज्ञ तो एक प्रकार से उस
यन्त्र की तरह है, जो अभीष्ट इच्छा के गन्तव्य तक उस शक्ति
को पहुँचाने और वहाँ से आवश्यक परिस्थितियाँ खींच लाने में मदद करता हैं।
हविष्यान्न का प्रतिफल अन्न आदि के उत्पादन, अयन-मण्डल में
शक्ति तत्त्वों के विकास और जलवायु की अनुकूलता के रूप में दिखाई देता है तो यज्ञ
कर्ताओं की श्रद्धा भक्ति भावनात्मक स्तर पर मनोवाँछित सफलतायें प्रदान करने वाली
होती हैं। स्थूल की प्रतिक्रिया स्थूल तो सूक्ष्म की प्रतिक्रिया सूक्ष्म भी
हाथों-हाथ देखने को मिलती है। यद्यपि यह दोनों ही बातें मिली-जुली हैं, इसलिये भावना को विज्ञान और विज्ञान को भावना के माध्यम से जागृत और
प्राप्त किया जा सकता है। एक समय था जब अभीष्ट प्राकृतिक आवश्यकताओं, सामाजिक परिवर्तनों और व्यक्ति की निजी इच्छाओं के लिये प्रयुक्त होने
वाले यज्ञों की बहुतायत से लोगों को जानकारी थी पर उस विद्या का लोप हो गया लगता
है, प्रयोग और परीक्षण के तौर पर ही उन रहस्यों की पुनः
जानकारी की जा सकती हैं। सूर्य की अदृश्य किरणों के और अयन-मण्डल के सम्बन्ध में
और अधिक जानकारियाँ मिलेंगी तब लोग यज्ञ की सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं को और भी अच्छी
तरह समझ सकेंगे। अभी प्राकृतिक परिवर्तन में उसे सहायक के रूप में समझा जा सका तो
इतना ही काफी होगा।
विधि विधान से किए गए यज्ञ हवन व्यक्ति को
प्राणशक्ति से भरपूर कर देते हैं। इस बात का प्रमाण अग्नि के सान्निध्य में होने
वाले सात्विक प्रभाव से समझा देखा जा सकता है। पहला प्रभाव तो यह कि कायदे से किए
गए यज्ञ हवन में जो धुंआ उठता है, उससे किसी को परेशानी
नहीं होती। आमतौर पर धुंए का प्रभाव खांसी होने और दम घुटने के रूप में दिखाई देती
है। बंगलूर के वैदिक रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रयोगों के अनुसार हवन के लिए बैठने
पर न खांसी होती है न दम घुटता है और न ही आंच लगती है। इंस्टीट्यूट की पत्रिका
अग्निधर्मा के अनुसार ऐसा नहीं है कि हवन में प्रयोग की जानी वाली समिधाएं
(लकड़ियां) और हवन सामग्री के कारण ऐसा होता है।
बिना मंत्रों के बेतरतीब ढंग से जलाई गई वही
सामग्री स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती है, जबकि विधि
विधान और मंत्रों से किए गए हवन शुभ परिणाम प्रस्तुत करते हैं। वैदिक वांग्मय का
आरंभ अग्नि शब्द से होता है। ऋग्वेद की पहली ऋचा के पहले मंत्र का पहला शब्द है
अग्नि। योगी अश्विनी के अनुसार यह शब्द और मंत्र ब्रह्मांड की सूक्ष्म शक्तियों और
हवनकर्ता को जोड़ता है। अग्नि में ऊपर उठाने की क्षमता है। यही एक ऐसा तत्व है जो
गुरुत्व शक्ति के नियम का अतिक्रम करते हुए ऊपर की ओर जाता है।
अग्नि व्यक्ति के विचारों को शुद्ध रखती और
उसका आत्मिक उत्थान करती है। इन दिनों होने वाले हवन में तो चारों तरफ धुंआ भर
जाता है। उसमें बैठना भी दूभर हो जाता है। जबकि हवन से वातावरण शांत और निर्मल हो
जाना चाहिए। उसमें किसी भी व्यक्ति को खांसी और बेचैनी नहीं होती। यहां तक कि
आहुतियां दिए जाते समय यज्ञशाला में पशु पक्षी भी निस्संकोच आ कर बैठ जाते हैं और
अच्छा महसूस करते हैं।
हवन गैस से वर्षा -
हवन से वृष्टि सहायता मिलने का उल्लेख पाया
जाता है। इसका आशय यह है कि हवन द्वारा वायु में कुछ ऐसे परिवर्तन होना चाहिये जो
वृष्टि में सहायक सिद्ध हों। भौतिक विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि किसी स्थान पर
वृष्टि हो सकने के लिए अनेक साधनों की आवश्यकता होती है। बादल बनने के लिए निम्नलिखित शर्ते आवश्यक है -
(क) हवा में
नमी का होना | (ख) हवा में रेणु कणों का होना |
(ग) यदि हवा
में रेणु कण न हो तो अल्ट्रा वायोलेट रेज ,एक्सरेज या रेडियम
इमेनेशन गुजार कर कृत्रिम रेणु कण स्वयम बना लिए जाए | जो
रेणु कणों का काम करे | (घ) हवा को इतना ठंडा कर दिया जाए कि
उस में विद्यमान जलवाष्प स्वयम द्रवीकृत हो जाए | (ङ) हवा
में नमी की राशि | (च) वायु मंडल का ताप परिमाण । (छ) वायु
के फेलने की गुंजाइश । (ज) नमी के लिए रेणु कणों के गुण ,आकार
और संख्या का बढ़ जाना।
हवन गैस से वर्षा होने में कारण ज़हा एक
सीमा तक हवन से उत्पन्न वे जले कार्बन के जर्रे है ,वहां
उनसे भी अधिक घी के आद्रता चुसक जर्रे है | घी की परत वाले
छोटे छोटे जर्रे नमी खीच सकते है | और एक बार नमी जमने से उन
पर नमी जमती ही चली जाती है | कोयले के कई जर्रे जो घी की
परत से ढक जाते है ऋणबिद्युतविष्ट देखे गये है ,जो स्वभावतय
पानी को खीचते है | इस तरह साधारणतय छोटे हवन बादल बनाने और
ऋतू के अनुसार वर्षा में साहयक होते है | किसी विशेष समय
वर्षा लाने के लिए हवन को बड़ी मात्रा पर और विशेष विशेष पदार्थो ( जिनसे आद्रता
चूसने वाले गैस या जर्रे बने ) करना आवश्यक है | बहुत बड़े
हवन ही उर्ध्व गति के वायु को पैदा करके वर्षा लाने का काम कर सकते है | हवन में तेल घी जैसे आद्रता चूसने वाले पदार्थ होने के कारण बादल न होने
पर भी नमी को खीच कर ,बादल बना कर वर्षा कर सकते है |
जिनसे वर्षा रुक सके या बादल हट सके | इनमे
ऐसे पदार्थ डाले जा सकते है जिनसे वर्षा रुक सके या बादल हट सके | इनमे ऐसे पदार्थ डाले जा सकते है जिससे बहुत मात्रा में ठोस कण बने और
आद्रता को खीचने के स्थान पर उससे वाष्प बनाने का काम करे | आशा
है उक्त वैज्ञानिक विवेचन से पाठको को यह समझने में कुछ साहयता मिलेगी कि यज्ञ से
वर्षा होने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है ?
हवन की उपयोगिता में हमारे अविश्वास या
सन्देह के दो कारण हैं- एक तो हमारा अति स्थूलदर्शी हो जाना तथा दूसरे विधिवत्
प्रयोग द्वारा हवन की इस उपयोगिता को प्रमाणित करने की कोई योजना न होना। वर्तमान
चिकित्सा पद्धतियों के विकास का इतिहास इस ओर स्पष्ट संकेत कर रहा है कि हमारे
शरीर की रचना इतनी जटिल है कि केवल वैज्ञानिक विधि से ही इसे पूरा नहीं जाना जा
सकता है। हमारे शरीर में ऐसे अनेक सूक्ष्म अंग हैं जिन्हें प्रकृति के अत्यंत
सूक्ष्म पदार्थ प्रभावित कर देते हैं। इसलिए यह कहना भूल है कि हवन द्वारा हमारे
रोगों की निवृत्ति मानना भ्रांति है। यह कहना तो ठीक है कि हवन सम्बंधी हमारा
ज्ञान इस समय इतना अपूर्ण है कि इसके द्वारा सभी विशिष्ठ रोगों की चिकित्सा का
दावा उस समय तय नहीं किया जा सकता जब उसे प्रयोग से सिद्ध न किया जा सके।
प्रसन्नता की बात है कि गायत्री तपोभूमि द्वारा ऐसी खोजें और प्रयोगात्मक
परीक्षाओं की व्यवस्था की जा रही है। हवन निःसंदेह एक लोकोपयोगी कार्य है और इसका
प्रभाव मानव जीवन के लिये हितकर ही होता है।
यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्व
वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा में घूमते
असंख्यों रोग कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं । डी.डी.टी., फिनायल
आदि छिड़कने, बीमारियों से बचाव करने वाली दवाएँ या सुइयाँ
लेने से भी कहीं अधिक कारगर उपाय यज्ञ करना है । साधारण रोगों एवं महामारियों से
बचने का यज्ञ एक सामूहिक उपाय है । दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित व्यक्तियों को
ही बीमारियों से बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो
सर्वत्र ही पहुँचती है और प्रयतन न करनेवाले प्राणियों की भी सुरक्षा करती है ।
मनुष्य की ही नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओं
एवं वृक्ष-वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है।
यज्ञ का धूम्र आकाश में-बादलों में जाकर
खाद बनकर मिल जाता है । वर्षा के जल केसाथ जब वह पृथ्वी पर आता है, तो उससे परिपुष्ट अन्न, घास तथा वनस्पतियाँ उत्पन्न
होती हैं, जिनके सेवन से मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी परिपुष्ट
होते हैं । यज्ञागि्न के माध्यम से शक्तिशाली बने मन्त्रोच्चार के ध्वनि कम्पन,
सुदूर क्षेत्र में बिखरकर लोगों का मानसिक परिष्कार करते हैं,
फलस्वरूप शरीरों की तरह मानसिक स्वास्थ्य भी बढ़ता है ।
हिंदू धर्म में सर्वोपरि पूजनीय वेदों और
ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ/हवन की क्या महिमा है, उसकी
कुछ झलक इन मन्त्रों में मिलती है-
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्.
होतारं रत्नधातमम् [ ऋग्वेद १/१/१/]
समिधाग्निं दुवस्यत घृतैः बोधयतातिथिं.
आस्मिन् हव्या जुहोतन. [यजुर्वेद 3/1]
अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे.
[यजुर्वेद 22/17]
सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः
सौमनस्य दाता. [अथर्ववेद 19/7/3]
प्रातः प्रातः गृहपतिर्नो अग्निः सायं सायं
सौमनस्य दाता. [अथर्ववेद 19/7/4]
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः
[यजुर्वेद 31/9]
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोधि ब्रुवन्तु
तेवन्त्वस्मान [यजुर्वेद 19/58]
यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म [शतपथ ब्राह्मण 1/7/1/5]
यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म [तैत्तिरीय 3/2/1/4]
यज्ञो अपि तस्यै जनतायै कल्पते, यत्रैवं विद्वान होता भवति [ऐतरेय ब्राह्मण १/२/१]
यदैवतः स यज्ञो वा यज्याङ्गं वा.. [निरुक्त
७/४]
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