2 यजुर्वेद भाष्य प्रथम अध्याय का द्वितिय मंत्रः-
यजुर्वेद के द्वितिय मंत्र में मानव जीवन का सबसे पवित्र कार्य यज्ञ किस प्रकार के क्रिया से होता इस विषय का उपदेश किया गया है।
ओ३म् वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनो धर्मोऽसि विश्वाधाऽअसि परमेण धाम्ना दृँहस्व मा ह्वार्मा यज्ञपतिह्वार्षित्।।2।।
महर्षि स्वामिदयान्नद भाष्यः-
पदार्थः- हे विद्यायुक्त मनुष्य! तू जो (वसौः) यज्ञ (पवित्रम्) शुद्धि का हेतु (असि) है। (द्यौः) जो विज्ञान के प्रकाश हेतु और सूर्य की किरणों में स्थिर होने वाला (असि) है। जो (पृथिवी) वायु के साथ देश देशान्तर में फैलने वाला (असि) है। जो (मातरश्विनः) वायु को (धर्मः) शुद्ध करने वाला (असि) है। जो (विश्वधाः) संसार का धारण करने वाला (असि) है। तथा जो (परमेण) उत्तम (धाम्ना) स्थान से (दृँह्स्व) सुख को बढ़ानेवाला है। इस यज्ञ का (मा) मत (ह्वाः) त्याग कर। तथा (ते) तेरा (यज्ञपतिः) यज्ञ की रक्षा करने वाला यज्ञमान भी उस पवित्र कार्य यज्ञ का (मा) ना (ह्वार्षित) त्याग करें। धात्वर्थ के अभिप्राय से यज्ञ शब्द का अर्थ तिन प्रकार का होता है अर्थात एक जो इस लोक परलोक के सुख के लिए विद्या,
ज्ञान और धर्म के सेवन से बृद्ध अर्थात बड़े-बड़े विद्वान है उनका सत्कार करना। दूसरा अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों का मेल और विरोध के ज्ञान से शिल्पविद्या का प्रत्यक्ष करना और तीसरा नित्य विद्वानों का समागम अथवा शुभ गुण विद्या सुख धर्म और सत्य का नित्य दान करना।
भावार्थः- मनुष्य लोग अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ का सेवन करते हैं उससे पवित्रता का प्रकाश, पृथिवी का राज्य, वायु रूपी प्राण के तुल्य राजनिती, प्रताप, सबकी रक्षा, इस लोक और परलोक में सुख की बृद्धि, परस्पर कोमलता से वर्त्तना और कुटिलता का त्याग इत्यादि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते है इसलिये सब मनुष्यों को परोपकार तथा अपने सुख के लिए विद्धा और पुरुषार्थ के साथ प्रिती पुर्वक यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये।
जैसा कि स्वामी जी कह रहे है इस मंत्र का अर्थ बहुत ही सरल है यज्ञ अर्थात वह सभी कार्य जिससे सम्पूर्ण मानव,
जीव, जन्तु, पृथिवी, ब्रह्माण्ड के कल्याण के लिये जो कार्य किया जाता वह यज्ञ की श्रेणी में आता है। वसो पवित्र मसी अर्थात वह पर्मेश्वर जो हम सब में शुद्ध निर्मल पवित्र भाव से वसा हुआ है और यह श्रृष्टी का सबसे श्रेष्ठ कार्य यज्ञ रूप कर रहा है और वह उपदेश देते हुए कह रहा है कि तुम सब भी इस पवित्र कार्य का कभी त्याग मत करो। क्योंकि यह यज्ञ रूपी कार्य जो पर्मेश्वर के द्वारा निरंतर हो रहा है यही मुल कारण है पवित्रता और शुद्धता के लिए मानव के साथ सभी प्रकार के जीव, जन्तु पृथिवी अंतरिक्ष और ब्रह्माण्ड के लिए है। यह यज्ञ ही सबसे श्रेष्ठ कार्य है। यहां कहा जा रहा है कि यह यज्ञ रूपी कार्य बहुत ही वैज्ञानिक ढंग से संपादित पर्मेश्वर के द्वारा निरंतर किया जा रहा है। उदाहरण के लिए सूर्य कि किरणों में यह व्याप्त हो कर जीवन का संचार इस पृथिवी पर कर रहा है। यहां अलंकार का उपयोग हो रहा है। लौकिक रूप से सूर्य ही सबसे बड़ा जीवन का श्रोत इस पृथिवी पर है। और उसकी किरणें इस पृथिवी पर भौतिक रूप से अंधकार को दूर करने वाली है। और प्रकाश का विस्तार करके जीवन को शक्तिवान बना रहा है। जो उर्जा का प्रमुख श्रोत है इस पृथिवी के साथ इस पर रहने वाले सभी जल ,थल, वायु में रहने वाले प्राणियों के लिए यह एक वैज्ञानिक रूप से सिद्ध सत्य है। आगे मंत्र कहता है कि वह शुद्ध पवित्र कार्य रूप यज्ञ करने वाला पर्मेश्वर इस सूर्य कि किरणों में व्याप्त है अर्थात सूर्य और उसकी किरणों को सामर्थ उस परमेश्वर के द्वारा मिल रहा है। यह तो एक पक्ष हो गया जो भौतिक वैज्ञानिक पक्ष है। इसका एक दैविक और एक आध्यत्मिक पक्ष भी है। दैविक पक्ष यह है कि कुल वैदिक तैतीस देवता माने गये है ग्यारह रुद्र बारह आदित्य आठ वसु दो अश्वनी कुमार माने गये है। यह अश्वनी कुमार सूर्य की दो मुख्य किरणें ही है जिन्हें मित्र और वरुण के रूप में जाना जाता है। एक ठण्डी विद्युत एक गर्म विद्युत या एक सुखी विद्युत प्रणालि जिसका उपयोग बैटरी के रूप में किया जाता है दूसरा गिली विद्युत जिसका उपयोग टारबाईन को चलाने के लिये किया जाता है। इस मंत्र में जो आध्यत्मिक पहलु है वह जैसे बाहर जगत में सूर्य कार्य करता है जो ज्वलनसिल है गर्म है। एक ए.सी. विद्युत रूप ही है जिससे सम्पूर्ण पृथिवी समेत सभी प्राणियों का इस जगत में कार्य होता है। जिससे हर प्रकार का अज्ञान अन्धकार दूर होता है। इसी प्रकार से आन्तरिक जगत का कार्य आत्मा द्वारा सूर्य के हो रहा है। और आन्तरिक जगत का सूर्य रूप जीवात्मा है जिसकी किरणें सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो कर समग्र शरीर में जीवन का संचार करती है और आनंतरिक रुप से शरीर को शक्ती देकर शरीर रूप मसीन को स्वचालित रखती है। यह भी एक प्रकार कि विद्युत उर्जा रुप ही है। जो ठंडी है डि.सी. रुप है जिसकी क्षमता सिमीत है। हर प्राणी के लिए निश्चित प्राण दिया गया है और उसको उतने ही प्राण उर्जा में अपने जीवन के परम लक्ष्य को उपलब्ध कर लेना है। और वह परम लक्ष्य है परम सत्य पर्मेंश्वर रूपी उर्जा का साक्षात्कार करना है। यह जो बाहरी उर्जा है सूर्य कि वह भले हि बहुत अधिक लगती है लेकिन यह भी एक मायने में सिमित ही है। सूर्य का भी अन्त होना है। क्योंकि यह दोनो दो किनारे उस पर्मेश्वर रूप उर्जा के जबकि पर्मेश्वर इन दोनो के मध्य में तटस्थ है स्थित एक चित सत्तचित्तानन्द रूप है। इस तरह से यह यज्ञ रूप परम उर्जा का प्रमुख श्रोत पर्मेश्वर सबके मध्य में विद्यमान है।
आगे मंत्र कहता है कि वह वायु को शुद्ध करता है , वायु शरीर के अन्दर भी है और शरीर के बाहर भी है और वायु अन्दर बाहर समान रूप से गति करती है। वायु सूर्य के प्रकाश से शुद्ध होती है, क्योकि वायु जब ठण्डी होती है तो भारी होती है। और पृथिवी के सतह पर स्थित हो कर बहती है जब वह गर्म होती है, तो वह आकाश में अधिक बिचरण करनें सक्षम होती है। इस तरह से वायु जब सुर्य के प्रकाश के सम्पर्क में आती है तो शुद्ध और हल्की होती है। ठीक इसी प्रकार से अपने अन्दर जब शरीर में मन उर्जावान रहता है विर्य को धारण करता है और वुद्धी को विकसित करता है तो उसको अन्दर प्राण रूप वायु हल्के होते और उची उड़ान भरने में सक्षम होती है। लेकिन जब शरीर में उर्जा की कमी रहती है तो शरीर के अन्दर रहने वाला मन कमजोर रहता है प्राण कमजोर रहते है। वह शरीर रूपी पृथिवी से ही चिपके रहते जिकसे कारण वह दुःख ही अनुभव करने मे समर्थ होते है। इसके विपरीत जब उर्जा का भंडार शरीर के अन्दर रहता है तब अन्तर जगत में व्याप्त सूर्य रूप आत्मा का साक्षात्कार करने में मानव सफल होते है। और हमेशा मानव उसके सानिध्य में रहता है। जिससे उसे सत्य का ज्ञान होता है और वह सत्य को व्यक्त करने में भी सफल होता है और लोगों के लिए वह एक सूर्य के समान होता है। जो लोगों के जीवन में से अज्ञान अंधकार दूर करके हर प्रकार से लोगों को शुद्ध और पवित्र करता है। वह सत्य धर्म क्या है? यह जानता है और वह यह भी जानता है जो विश्वधा है अर्थात जो विश्व को धारण करने वाला है। और उसका परम स्थान भी उसे ज्ञान होता है, कि वह उसकी आत्मा में विद्यमान आत्मा का ही शुद्ध रूप है। और वह ही सभी प्रकार के सुख को बढ़ाने का मुल कारण है। इस सत्य ज्ञान रूपी धर्म यज्ञ का जो निरंतर हो रहा है इसका कभी भी त्याग मत किजीये। इसके साथ जो इस शुद्ध और पवित्र कार्य करने वाला तुम्हारा यज्ञमान है अर्थात इस पवित्र यज्ञ को कर के यज्ञ की रक्षा करता है वह भी इसका कभी त्याग ना करें।
वेद का प्रत्येक मंत्र एक दूसरे से जुणे है जैसा कि पहला मंत्र पर्मेश्वर की भक्ति और श्रद्धा के साथ ज्ञान का अर्जन और यह जानना की हर वस्तु उर्जा से बनी है। और उर्जा ही है और इस सब का मुल पर्मेश्वर है यह एक विशेष और सर्व श्रेष्ठ ज्ञान है। इसका अनुभव वैज्ञानिक प्रयोग और उपयोग कर के साक्षात्कार कर के सिद्ध करें,
सब से पहले स्वयं का कल्याण फिर अपने परिवार,
समाज, गांव, देश, पशु, पक्षी, संसार को लाभ पहुचाने कि बात की है। यह हमारी वुद्धि पर निर्भर करता है कि हम किस प्रकार से उर्जा का प्रयोग करते है। एक भौतिक उर्जा, दूसरा दैविक उर्जा, तीसरा आध्यत्मिक उर्जा इन्ही उर्जाओं के शंश्लेषण से ही समग्र श्रृष्टि का निर्वाण हो रहा है। जैसा कि कहा गया है कि वुद्धि यश्य बलम्तस्य। वुद्धि का प्रयोग करके स्वयं को ताकत वर बना कर और लोगों को भी हर प्रकार से समृद्ध करने में सहायक बनने की बात कि जा रही है। अपने जीवन में मत्रों को अस्थान दिजीये जैसा कि कहा जारहा है। इस दूसरे मंत्र में यज्ञ के रुप में पर्मेश्वर के कृत्य को करने के लिये इस जगत में सब कुछ जो भी शुद्ध और पवित्र कार्य है वह यज्ञ ही है। स्वयं को समृद्ध करना भी एक यज्ञ है। परिवार को सुन्दर संस्कार देना उनको अच्छी शिक्षा देना सत्य ज्ञान देना भी यज्ञ है। समाज में सत्य का प्रचार करना ज्ञान का दान देना भी एक यज्ञ ही है। यह सत्य ज्ञान कहां है ईश्वर के सानिदध्य से वेद मंत्रों के स्वाध्याय चिन्तन से प्राप्त होगा। इसमें बतायें गये पर्मेंश्वर के विविध प्रकार के शिक्षाओं को ग्रहण करने से सिद्ध होगा। हमारे समाज में बहुत प्रकार के अज्ञान का प्रचार करके बहुत मजबुत दिवारे बना दी गइ है।आदमी-आदमी के मध्य में, जबकी यह सब झुठ असत्य के आधार पर बनाया गया है। सत्य के नाम पर धर्म के नाम पर और बहुत प्रकार के आडम्बर पूर्ण ऋति, ऋवाज सम्पूर्ण मानवता की हत्या के लिये यह सब किया जा रहा है। क्योंकि सत्य ज्ञान की कमी पहला कारण है, दूसरा कारण लोगों का क्षुद्र स्वार्थ हर कृत्य के पिछे छुपा है। तिसरा कारण है कि लोग अत्यधिक कमजोर किस्म के मानसिक गुलाम प्रकृति है जो बंधे- बधांये मार्ग का अनुसरण करने में ज्यादा सहज स्वयं पाते है। यह जानते हुए भी कि जो कृत्य वह कर रहें है वह असत्य है। फिर भी अज्ञान पूर्ण कृत्य को निरन्तर बढ़ावा दे रहे है। चौथा कारण आडम्बर पूर्ण दिखावा करके लोकेष्णा,
वित्तएषणा, जीजिवेषणा, पुत्रएषणा आदि इच्छाओं की पुर्ति के लिए एन केन प्रकारेण स्वयं को आर्थिक रूप से समृद्ध करना ही सत्य,
ज्ञान ,धर्म का मुल मानते है। पांचावा मुल कारण है कि बड़े-बड़े देश बहुत अधिक धन को खर्च करके अज्ञान,
असत्य, अधर्म को ही सत्य सिद्ध करने के लिए समय शक्ति सामर्थ अपनी जनता का सोशण करने में रुची ले रहे है। जिसके कारण ही यह संसार साक्षात नरक रूप शिवाय दुःख के और कुछ दिखाई ही नहीं देता है। यहां पर विद्वानों को तभी तो कहते है कि सर्वे विवेकिनः संसार दुःखः।
1 मंत्र में पहला वाक्य हो वसोः पवित्रमसीः-
अर्थात जो सभी जीव जन्तु को वसाने
वाले वसु के समान पृथ्वी और सूर्य आदी मुल जीवन के कारक है। जिनके द्वारा ही यह जीवन
शुद्ध और पवित्र होता है, जो शुद्ध, निर्मल और पवित्र करने के मुख्य कारक है। वृहदारण्यक
उपनिषद् (3.9) में याज्ञवल्क्य ने शाकल्य को बताया कि "मन्त्रों के अनुसार देवता
33 हैं।" शाकल्य ने कहा ठीक है लेकिन देवों की संख्या बताओ। याज्ञवल्क्य ने
कहा, 33।
फिर 33 देवों को "महिमा" की संज्ञा देते हुए कहा "महिमान
एवैषामेते" फिर 33 देवों की वही नामावली भी दोहराई। शाकल्य ने पूछा, "8 वसु कौन
हैं?"।
याज्ञवल्क्य ने कहा "अग्नि,
पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य द्युलोक, चन्द्रमा और
नक्षत्र ये वसु हैं।" सो क्यों?
ऐसा इसलिए कि "सर्वं हितमिति तस्माद वसव इति - समूचा विश्व इन्हीं के
भीतर (बसता) है।" इस पर शंकराचार्य का प्रीतिकर भाष्य है "जगदिदं सर्वं
वासयन्ति वसन्ति च, ते
यस्माद वासयन्ति- वे यह सम्पूर्ण जगत् अपने अन्तस में बसाए हुए हैं, स्वयं भी इसी
में बसते हैं इसीलिए वसु हैं।" शाकल्य ने पूछा रुद्र कौन हैं? याज्ञवल्क्य
ने बताया "पुरुष के 10 प्राण-इन्द्रियां और 11वां आत्मा - मन। ये शरीर छोड़ते
समय सम्बंधियों को रूलाते हैं। शंकराचार्य के भाष्य में "रोदन के निमित्त होने
से रुद्र कहलाते हैं।" तब 12 आदित्य कौन हैं? याज्ञवल्क्य ने बताया "संवत्सर के घटक 12 माह आदित्य
हैं, ये
सबका "आदान" (ग्रहण) करते हुए चलते हैं। सो आदित्य हैं। शंकराचार्य की
खूबसूरत टिप्पणी है,
"यद् यस्मादेवमिदं सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति - इस
सबका आदान इस सबकी आयु का आदान करते चलते हैं इसलिए आदित्य हैं।" तब इन्द्र
और प्रजापति कौन हैं? शाकल्य ने पूछा। स्तनपित्नु (सम्पूर्ण सृष्टि की आंतरिक ऊर्जा) ही इन्द्र
है और यज्ञ प्रजापति है।" यह स्तनपित्नु क्या है, और यज्ञ क्या
है? उसने
स्पष्टीकरण मांगा। याज्ञवल्क्य ने कहा - अशनि ही इन्द्र है। यज्ञ पशु हैं।
शंकराचार्य ने बताया अशनि वज्रवीर्य अर्थात् बल है।" वसु सांसारिक यज्ञ चक्र
के संचालक हैं।
2 मंत्र
में दूसरा वाक्य हैः-द्यौरसिः- अर्थात इस यर्स यज्ञ से ही तेरा द्यौ के समान है प्रकाशमय
जीवन वाला है। तेरा मस्तिष्क रूप द्यौलोक ज्ञान सूर्य के समान चमकता है। यज्ञ में प्रथम
स्थान देव पुजा का है यह देव पुजा मानव मस्तिष्क को निरंतर और अधिक ज्योतिर्मय प्रकाश
मय करती चलती है। हिन्दू देवता कोरी आस्था
नहीं हैं। वे वैदिक काल के ऋषि चित्त की प्रगाढ़ अनुभूतियां हैं। ऋग्वेद में
देवताओं के लिए "देव" शब्द का प्रयोग हुआ है। वैदिक साहित्य में देव का
अर्थ प्रकाशमान है। सृष्टि विराट है,
यहां अनंत रहस्य हैं। ऋग्वेद और उसके पूर्ववर्ती ऋषियों ने प्रकृति की विराट
शक्तियों में दिव्य तत्व देखा। वे स्वाभाविक ही आनंदमग्न हुए। जो दिव्यता प्रकृति
में थी, वही
उनके ह्मदय में दीपित हुई। दिव्य दीप्ति से प्रकाशमान चित्त की प्रगाढ़ भाव दशा
में काव्य फूटा। जहां-जहां दिव्यता,
वहां-वहां देवता। समूचा ऋग्वेद ऐसी ही दिव्यशक्तियों की असाधारण काव्य
स्तुतियां है। पश्चिमी विद्वानों को शिकायत है कि ऋग्वेद का देवतंत्र अविकसित और
अधूरा है। वे यूनानी देवताओं की तर्ज पर सुनिश्चित आकृति और आकार वाले नहीं हैं।
अनेक विद्वान इसी आधार पर वैदिक सभ्यता और हिन्दू धर्म व संस्कृति पर पिछड़ेपन का
आरोप लगाते हैं। उनका आरोप सही नहीं है। ऋग्वेद के देवतंत्र में दार्शनिक चिन्तन
है। इनका मानवीकरण भी है,
लेकिन दर्शन के तल पर समूचा अस्तित्व एक ही रहता है इसलिए देवों के पृथक
अस्तित्व भी हैं। साथ में अद्वैत भी है। ऋग्वेद के देवता पहले से हैं। वे ऋग्वेद
के रचनाकाल में भी स्तुतियां पाते हैं लेकिन तब तक उच्च स्तर के दार्शनिक चिन्तन
का भी विकास हो चुका है। दर्शन और विज्ञान का विकास देवताओं की प्रतिमाएं ढहाता है, उन्हें मजबूत
नहीं करता। यूनान में सुकरात ने देवताओं की खोज का ही दार्शनिक काम शुरू किया था
कि उन्हें प्राणदण्ड भोगना पड़ा। भारत में दर्शन का विकास ऋग्वेद के पहले ही
प्रारम्भ हो चुका था। उपनिषद इसी दर्शन का विस्तार हैं।
ऋग्वेद के ऋषि पूर्व स्थापित देवतंत्र के
द्रष्टा दार्शनिक हैं। ऋग्वेद का देवतंत्र ऋग्वेद के पहले का है। उसका विकास भारत
में हुआ है। ऋग्वेद में देवों का मानवीकरण है। देवों की चरित्रगत विशेषताओं के
अनुरूप उनका पृथक्करण है। दर्शन इस मानवीकरण को मिटा भी रहा है। ऋग्वेद के ऋषि
तत्वबोध से युक्त हैं। दुनिया की अन्य देव-आस्थाओं की तरह वे देवताओं को सृष्टि का
रचनाकार नहीं मानते। वे यथार्थवादी हैं,
वे पूर्वकाल को भी कई खण्डों में बांटते हैं। एक समय देवताओं से भी पहले का है, जब असत् से
सत् उत्पन्न हुआ (ऋ0 10.72.3) देवता इसी समय के बाद स्वीकृत हुए। ऋषि देवताओं की
खोज और वर्णन का संकल्प लेते हैं- देवानां नु वयं जाना प्र वोचाम विपन्यया - हम
देवों के प्रादुर्भाव का वर्णन उत्तम वाणी से करते हैं। ऋषि कहते हैं "असत्
से सत् आया। ऊर्जा प्रवाह ऊध्र्वगामी हुआ। अदिति (सम्पूर्णता) से दक्ष आये। दक्ष
से अदिति आई। (यहां सृष्टि के सतत् प्रवाह का वर्णन है) ब्राह्मणस्पति (अदिति ने
लोहार की तरह इन्हें पकाया,
गढ़ा - कमरि इवाधमत्) अदिति क्षमता से अमृत बंधु देवों का जन्म हुआ - तां देवा
अन्वजायन्त भद्रा अमृत बन्धव:। ऋषि इसके बाद देवों को सम्बोधित करते हैं "हे
देवो! जब आप इस विस्तृत सलिल (मूल तत्व जल) में प्रतिष्ठित हुए तब आपके नृत्य से
तीव्र रेणु प्रकट हुए-अत्रा वो नृत्यतामिव तीव्रो रेणुरपायत"। देवता प्रकृति
की शक्तियां हैं। सृष्टि रचना के पूर्व अव्यक्त अवस्था में वे पृथक नहीं हैं।
इसीलिए देवों से पहले के युग की बात कही गई है। उस युग में असत् में सत् उत्पन्न
हुआ। जब सृष्टि का सृजन हुआ तब देव भी जन्मे। ऋग्वेद में सम्पूर्ण व्यक्त जगत् का
एक नाम है अदिति। अदिति द्युलोक है,
अंतरिक्ष है, माता-पिता
और पुत्र है, पांचों
जन है, जो
उत्पन्न हो चुका है और होगा,
वह सब अदिति है। आदित्य - सूर्य भी उसी से उत्पन्न हुए हैं।
यास्क ने "निरुक्तं" (7.1) में देवता
की परिभाषा की है, तद्यानि
नामानि प्राधान्य स्तुतीनां तद्देवतम् - ऋषियों ने प्रमुखता से जिनकी स्तुति की, वे देवता है।
इस तरह ऋग्वेद में सैकड़ों देवता हैं,
भारतीय लोकजीवन में भी कण-कण में देवता हैं। लेकिन ऋग्वेद से लेकर उत्तरवैदिक
काल तक मुख्य देवता 33 ही हैं। विश्वामित्र अग्नि से प्रार्थना (ऋ0 3.6.9) करते
हैं "हे अग्निदेव! हमारे यज्ञ में आप 33 देवों को पत्नियों सहित लायें।"
इससे यह भी पता चलता है कि सभी प्रमुख देवता विवाहित हैं। लेकिन देवता और भी थे।
विश्वामित्र एक मंत्र (3.9.9) में कहते हैं,
"तीन हजार तीन सौ उनतालीस (त्रीण शता त्री सहस्त्राणि तिंरशच्च
देवा) देवों ने अग्नि की पूजा की है।" भारतीय लोकमानस ने 33 कोटि (प्रकार)
देवताओं को कहीं-कहीं 33 करोड़ भी मान लिया है। लेकिन शतपथ ब्राह्मण (11.6.3.5)
में 33 देवताओं की सूची है "आठ वसु हैं। 11 रुद्र है। 12 आदित्य तथा इन्द्र
और प्रजापति सहित कुल 33 देवता हैं।"
यास्क ने निरुक्त (7.14-9.43) में देवताओं के 3
विभाग किये हैं - (1) पृथ्वी स्थानीय (2) अंतरिक्ष स्थानीय और (3) द्युलोक
स्थानीय। पृथ्वी स्थानीय देवों में अग्नि,
बृहस्पति, सोम, नदियां और
अन्य पृथ्वी क्षेत्रीय प्राकृतिक रूप हैं। द्यु (आकाश) स्थानीय देवताओं में द्यौ, वरुण, मित्र, सूर्य, सविता पूषन, विष्णु, आदित्य
विवस्वान, अश्विनी
देव और ऊषा आदि हैं। अंतरिक्ष स्थानीय देवताओं में इन्द्र, मित्र, रुद्र, मरुद्गण, अज आदित्य
आदि आते हैं। सभी देवों की स्तुतियों में रूप, गुण के साथ-साथ मानवीकरण उभरते हैं, प्रकृति की
शक्तियां और उनकी दिव्यता अलग-अलग देखी जा सकती है लेकिन दार्शनिक बोध में वे सब
एक ही हैं। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों में एक शक्ति की धारणा है। प्रकृति की सारी
शक्तियां इसी शक्ति के अंतर्गत हैं। इसी सर्वव्यापी शक्ति को कोई भी नाम दे सकते
हैं। दूसरे मंडल के पहले सूक्त में अग्नि,
इंद्र, विष्णु, ब्राहृणस्पति, वरुण, अंश (सूर्य), रुद्र, भग, ऋभु आदि के
अतिरिक्त अदिति, इला, सरस्वती भी
हैं। यही बात संक्षेप में एकं सद् वाले प्रसिद्ध मंत्र में कही गई है। उसे लोग
इंद्र, मित्र, वरुण, सुपर्ण, गरुत्मान, अग्नि, यम, मातरिश्वा
कहते हैं, वह
एक हैं, ज्ञानी
उसे अनेक नामों से पुकारते हैं। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। (1.164.46) नाम अनेक
हैं, परम
सत्य एक है। उसे ऊँ कहें,
अदिति, पुरुष, अज, परमात्मा, राम, कृष्ण, शिव किसी भी
नाम से पुकारें, वही
एक सम्पूर्ण और अविभाज्य अखण्ड सत्ता है।है।
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