द्वितियतंत्र मित्रसंप्राप्ति
दक्षिण देश के एक
प्रान्त में महिलारोप्य नाम का एक नगर था । वहाँ एक विशाल वटवृक्ष की शाखाओं पर
लघुपतनक नाम का कौवा रहता था । एक दिन वह अपने आहार की चिन्ता में शहर की ओर चला
ही था कि उसने देखा कि एक काले रंग, फटे पाँव और बिखरे बालों वाला
यमदूत की तरह भयंकर व्याध उधर ही चला आ रहा है । कौवे को वृक्ष पर रहने वाले अन्य
पक्षियों की भी चिन्ता थी । उन्हें व्याध के चंगुल से बचाने के लिए वह पीछे लौट
पड़ा और वहाँ सब पक्षियों को सावधान कर दिया कि जब यह व्याध वृक्ष के पास भूमि पर
अनाज के दाने बखेरे, तब कोई भी पक्षी उन्हें चुगने के लालच
से न जाय, उन दोनों को कालकूट की तरह जहरीला समझे ।
कौवा अभी यह कह ही
रहा था कि व्याध ने वटवृक्ष के नीचे आकर दाने बखेर दिये और स्वयं दूर जाकर झाड़ी के
पीछे छिप गया । पक्षियों ने भी लघुपतनक का उपदेश मानकर दाने नहीं चुगे । वे उन
दोनों को हलाहल विष की तरह मानते रहे ।
किन्तु, इसी
बीच में व्याध के सौभाग्य से कबूतरों का एक दल परदेश से उड़ता हुआ वहाँ आया । इसका
मुखिया चित्रग्रीव नाम का कबूतर था । लघुपतनक के बहुत समझाने पर भी वह भूमि पर
बिखरे हुए उन दानों ओ चुगने के लालच को न रोक सका । परिणाम यह हुआ कि वह अपने
परिवार के साथियों समेत जाल में फँस गया । लोभ का यही परिणाम होता है । लोभ से
विवेकशक्ति नष्ट हो जाती है । स्वर्णमय हिरण के लोभ से श्रीराम यह न सोच सके कि
कोई भी हिरण सोने का नहीं हो सकता ।
जाल में फँसने के बाद
चित्रग्रीव ने अपने साथी कबूतरों को समझा दिया कि वे अब अधिक फड़फड़ाने या उड़ने की
कोशिश न करें,
नहीं तो व्याध उन्हें मार देगा । इसीलिये वे सब अधमरे से हुए जाल
में बैठ गए । व्याध ने भी उन्हें शान्त देखकर मारा नहीं । जाल समेट कर वह आगे चल पड़ा
। चित्रग्रीव ने जब देखा कि अब व्याध निश्चिन्त हो गया है और उसका ध्यान दूसरी ओर
गया है, तभी उसने अपने साथियों को जाल समेत उड़ जाने का संकेत
दिया । संकेत पाते ही सब कबूतर जाल लेकर उड़ गये । व्याध को बहुत दुःख हुआ ।
पक्षियों के साथ उसका जाल भी हाथ से निकल गया था । लघुपतनक भी उन उड़ते हुए कबूतरों
के साथ उड़ने लगा ।
चित्रग्रीव ने जब
देखा कि अब व्याध का डर नहीं है तो उसने अपने साथियों को कहा ----"व्याध तो
लौट गया । अब चिन्ता की कोई बात नहीं । चलो, हम महिलारोप्य शहर के
पूर्वोत्तर भाग की ओर चलें । वहाँ मेरा घनिष्ट मित्र हिरण्यक नाम का चूहा रहता है
। उससे हम अपने जाल को कटवा लेंगे । तभी हम आकाश में स्वच्छन्द घूम सकेंगे ।
वहाँ हिरण्यक नाम का
चूहा अपनी १०० बिलों वाले दुर्ग में रहता था । इसीलिये उसे डर नहीं लगता था ।
चित्रग्रीव ने उसके द्वार पर पहुंच कर आवाज लगाई । वह बोला----"मित्र हिरण्यक
! शीघ्र आओ । मुझ पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है ।"
उसकी आवाज सुनकर
हिरण्यक ने अपने ही बिल में छिपेछिपे प्रश्न किया---"तुम कौन हो ? कहाँ
से आये हो ? क्या प्रयोजन है ?......"
चित्रग्रीव ने
कहा----"मैं चित्रग्रीव नाम का कपोतराज हूँ । तुम्हारा मित्र हूँ । तुम जल्दी
बाहर आओ;
मुझे तुम से विशेष काम है ।"
यह सुनकर हिरण्यक
चूहा अपने बिले से बाहिर आया । वहाँ अपने परममित्र चित्रग्रीव को देखकर वह बड़ा
प्रसन्न हुआ । किन्तु चित्रग्रीव को अपने साथियों समेत जाल में फँसा देखकर वह
चिन्तित भी हो गया । उसने पूछा----
"मित्र ! यह
क्या होगया तुम्हें ?" चित्रग्रीव ने कहा----"जीभ के
लालच से हम जाल में फँस गये । तुम हमें जाल से मुक्त कर दो ।"
हिरण्यक जब
चित्रग्रीव के जाल का धागा काटने लगा तब उसने कहा----"पहले मेरे साथियों के
बन्धन काट दो,
बाद में मेरे काटना ।"
हिरण्यक---"तुम
सब के सरदार हो,
पहले अपने बन्धन कटवा लो, साथियों के पीछे
कटवाना ।"
चित्रग्रीव----"वे
मेरे आश्रित हैं,
अपने घरबार को छोड़कर मेरे साथ आये हैं । मेरा धर्म है कि पहले इनकी
सुखसुविधा को दृष्टि में रखूँ । अपने अनुचरों में किया हुआ विश्वास बड़े से बड़े
संकट से रक्षा करता है ।"
हिरण्यक चित्रग्रीव
की यह बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने सब के बन्धन काटकर चित्रग्रीव से
कहा---"मित्र ! अब अपने घर जाओ । विपत्ति के समय फिर मुझे याद करना ।"
उन्हें भेजकर हिरण्यक चूहा अपने बिल में घुस
गया । चित्रग्रीव भी
परिवारसहित अपने घर चला गया ।
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लघुपतनक कौवा यह सब
दूर से देख रहा था । वह हिरण्यक के कौशल और उसकी सज्जनता पर मुग्ध हो गया । उसने
मन ही मन सोचा----"यद्यपि मेरा स्वभाव है कि मैं किसी का विश्वास नहीं करता, किसी
को अपना हितैषी नहीं मानता, तथापि इस चूहे के गुणों से
प्रभावित होकर मैं इसे अपना मित्र बनाना चाहता हूँ ।"
यह सोचकर वह हिरण्यक
के बिल के दरवाजे पर जाकर चित्रग्रीव के समान ही आवाज बनाकर हिरण्यक को पुकारने
लगा । उसकी आवाज सुनकर हिरण्यक ने सोचा, यह कौन सा कबूतर है ? क्या इसके बन्धन कटने शेष रह गये हैं ?
हिरण्यक ने
पूछा----"तुम कौन हो ?"
लघुपतनक-----"मैं
लघुपतनक नाम का कौवा हूँ ।"
हिरण्यक----"मैं
तुम्हें नहीं जानता,
तुम अपने घर चले जाओ ।"
लघुपतनक---"मुझे
तुम से बहुत जरुरी काम है; एक बार दर्शन तो दे दो ।"
हिरण्यक----"मुझे
तुम्हें दर्शन देने का कोई प्रयोजन दिखाई नहीं देता ।"
लघुपतनक---"चित्रग्रीव
के बन्धन काटते देखकर मुझे तुमसे बहुत प्रेम हो गया है । कभी मैं भी बन्धन में पड़
जाऊँगा तो तुम्हारी सेवा में आना पडे़गा ।"
हिरण्यक----"तुम
झोका हो,
मैं तुम्हारा भोजन हूँ; हम में प्रेम कैसा ?
जाओ, दो प्रकृति से विरोधी जीवों में मैत्री
नहीं हो सकती ।"
लघुपतनक----"हिरण्यक
! मैं तुम्हारे द्वार पर मित्रता की भीख लेकर आया हूँ । तुम मैत्री नहीं करोगे तो
यहीं प्राण दे दूंगा ।"
हिरण्यक----"हम
सहज-वैरी हैं,
हममें मैत्री नहीं हो सकती ।"
लघुपतनक
-----"मैंने तो कभी तुम्हारे दर्शन भी नहीं किए । हम में वैर कैसा ?"
हिरण्यक----"वैर
दो तरह का होता है : सहज और कृत्रिम । तुम मेरे सहज-वैरी हो ।"
लघुपतनक
-----"मैं दो तरह के वैरों का लक्षण सुनना चाहता हूँ ।"
हिरण्यक----"जो
वैर कारण से हो वह कृत्रिम होता है, कारणों से ही उस वैर का अन्त
भी हो सकता है । स्वाभाविक वैर निष्कारण होता है, उसका अन्त
हो ही नहीं सकता ।"
लघुपतनक ने बहुत
अनुरोध किया,
किन्तु हिरण्यक ने मैत्री के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया । तब
लघुपतनक ने कहा----"यदि तुम्हें मुझ पर विश्वास न हो तो तुम अपेन बिल में
छिपे रहो; मैं बिल के बाहर बैठा-बैठा ही तुम से बातें कर
लिया करुँगा ।"
हिरण्यक ने लघुपतनक
की यह बात मान ली । किन्तु लघुपतनक को सावधान करते हुए कहा----"कभी मेरे बिल
में प्रवेश करने की चेष्टा मत करना ।" कौवा इस बात को मान गया । उसने शपथ ली
कि कभी वह ऐसा नहीं करेगा ।
तब से वे दोनों मित्र
बना गये । नित्यप्रति परस्पर बातचीत करते थे । दोनों के दिन बड़े सुख से कटते थे ।
कौवा कभी-कभी इधर-उधर से अन्न संग्रह करके चूहे को भेंट में भी देता था । मित्रता
में यह आदान-प्रदान स्वाभाविक था । धीरे-धीरे दोनों की मैत्री घनिष्ट होती गई ।
दोनों एक क्षण भी एक दूसरे से अलग नहीं रह सकते थे ।
बहुत दिन बाद एक दिन
आँखों में आँसू भर कर लघुपतनक ने हिरण्यक से कहा----"मित्र ! अब मुझे इस देश
से विरक्ति हो गई है, इसलिये दूसरे देश में चला जाऊँगा ।"
कारण पूछने पर उसने
कहा----"इस देश में अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष पड़ गया है । लोग स्वयं भूखे
मर रहे हैं ,
एक दाना भी नहीं रहा । घर-घर में पक्षियों के पकड़ने के लिए जाल बिछ
गए हैं । मैं तो भाग्य से ही बच गया । ऐसे देश में रहना ठीक नहीं है ।"
हिरण्यक
----"कहाँ जाओगे ?"
लघुपतनक----"दक्षिण
दिशा की ओर एक तालाब है । वहाँ मन्थरक नाम का एक कछुआ रहता है । वह भी मेरा वैसा
ही घनिष्ट मित्र है जैसे तुम हो । उसकी सहायता से मुझे पेट भरने योग्य अन्न-मांस
आदि अवश्य मिल जाएगा ।"
हिरण्यक---"यही
बात है तो मैं भी तुम्हारे साथ जाऊँगा । मुझे भी यहाँ बड़ा दुःख है ।"
लघुपतनक----"तुम्हें
किस बात का दुःख है ?"
हिरण्यक----"यह
मैं वहीं पहुँचकर तुम्हें बताऊँगा ।"
लघुपतनक---"किन्तु, मैं
तो आकाश में उड़ने वाला हूँ । मेरे साथ तुम कैसे जाओगे ?"
हिरण्यक----"मुझे
अपने पंखों पर बिठा कर वहाँ ले चलो ।"
लघुपतनक यह बात सुनकर
प्रसन्न हुआ । उसने कहा कि वह संपात, आदि आठों प्रकार की उड़ने की
गतियों से परिचित है । वह उसे सुरक्षित निर्दिष्ट स्थान पर पहुँचा देगा । यह सुनकर
हिरण्यक चूहा लघुपतनक कौवे की पीठ पर बैठ गया । दोनों आकाश में उड़ते हुए तालाब के
किनारे पहुँचे ।
मन्थरक ने जब देखा कि
कोई कौवा चूहे को पीठ पर बिठा कर आरहा है तो वह डर के मारे पानी में घुस गया ।
लघुपतनक को उसने पहचाना नहीं ।
तब लघुपतनक हिरण्यक
को थोड़ी दूर छोड़कर पानी में लटकती हुई शाखा पर बैठ कर जोर-जोर से पुकारने
लगा----"मन्थरक ! मन्थरक !! मैं तेरा मित्र लघुपतनक आया हूँ । आकर मुझ से मिल
।"
लघुपतनक की आवाज
सुनकर मन्थरक खुशी से नाचता हुआ बाहिर आया । दोनों ने एक दूसरे का आलिंगन किया ।
हिरण्यक भी तब वहां आगया और मन्थरक को प्रणाम करके वहीं बैठ गया ।
मन्थरक ने लघुपतनक से
पूछा----"यह चूहा कौन है ? भक्ष्य होते हुए भी तू इसे अपनी
पीठ पर कैसे लाया ?"
लघुपतनक----"यह
हिरण्यक नाम का चूहा मेरा अभिन्न मित्र है । बड़ा गुणी है यह; फिर
भी किसी दुःख से दुःखी होकर मेरे साथ यहाँ आ गया है । इसे अपने देश से वैराग्य हो
गया है ।"
मन्थरक----"वैराग्य
का कारण ?
लघुपतनक---"यह
बात मैंने भी पूछी थी । इसने कहा था, वहीं चलकर बतलाऊँगा । मित्र
हिरण्यक ! अब तुम अपने वैराग्य का कारण बतलाओ ।"
हिरन्यक ने तब यह
कहानी सुनाई---
दक्षिण देश के एक
प्रान्त में महिलारोप्य नामक नगर से थोड़ी दूर महादेवजी का एक मन्दिर था । वहाँ
ताम्रचूड़ नाम का भिक्षु रहता था । वह नगर से भिक्षा माँगकर भोजन कर लेता था और
भिक्षा-शेष को भिक्षा-पात्र में रखकर खूंटी पर टांग देता था । सुबह उसी भिक्षा-शेष
में से थोड़ा २ अन्न वह अपने नौकरों को बांट देता था और उन नौकरों से मन्दिर की
लिपाई-पुताई और सफाई कराता था ।
एक दिन मेरे कई
जाति-भाई चूहों ने मेरे पास आकर कहा----"स्वामी ! वह ब्राह्मण खूंटी पर
भिक्षा-शेष वाला पात्र टांग देता है, जिससे हम उस पात्र तक नहीं
पहुँच सकते । आप चाहें तो खूंटी पर टंगे पात्र तक पहुँच सकते हैं । आपकी कृपा से
हमें भी प्रतिदिन उस में से अन्न-भोजन मिल सकता है ।
उनकी प्रार्थना सुनकर
मैं उन्हें साथ लेकर उसी रात वहाँ पहुँचा । उछलकर मैं खूंटी पर टंगे पात्र तक
पहुँच गया । वहाँ से अपने साथियों को भी मैंने भरपेट अन्न दिया और स्वयं भी खुब
खाया । प्रतिदिन इसी तरह मैं अपना और अपने साथियों का पेट पालता रहा ।
ताम्रचूड़ ब्राह्मण ने
इस चोरी का एक उपाय किया । वह कही से बांस का डंडा ले आया और उससे रात भर खूंटी पर
टंगे पात्र को खटखटाता रहता । मैं भी बांस से पिटने के डर से पात्र में नहीं जाता
था । सारी रात यही संघर्ष चलता रहता ।
कुछ दिन बाद उस
मन्दिर में बृहत्स्फिक नाम का एक संन्यासी अतिथि बनकर आया । ताम्रचूड़ ने उसका बहुत
सत्कार किया । रात के समय दोनों में देर तक धर्म-चर्चा भी होती रही । किन्तु
ताम्रचूड़ ने उस चर्चा के बीच भी फटे बांस से भिक्षापात्र को खटकाने का कार्यक्रम
चालू रखा । आगन्तुक संन्यासी को यह बात बहुत बुरी लगी । उसने समझा कि ताम्रचूड़
उसकी बात को पूरे ध्यान से नहीं सुन रहा । इसे उसने अपना अपमान भी समझा । इसीलिये
अत्यन्त क्रोधाविष्ट होकर उसने कहा --- "ताम्रचूड़ ! तू मेरे साथ मैत्री नहीं
निभा रहा । मुझ से पूरे मन से बात भी नहीं करता । मैं भी इसी समय तेरा मन्दिर
छोड़कर दूसरी जगह चला जाता हूँ ।
ताम्रचूड़ ने डरते हुए
उत्तर दिया----"मित्र, तु मेरा अनन्य मित्र है ।
मेरी व्यग्रता का कारण दूसरा है; वह यह कि यह दुष्ट चूहा
खूंटी पर टंगे भिक्षापात्र में से भी भोज्य वस्तुओं को चुराकर खा जाता है । चूहे
को डराने के लिये ही मैं भिक्षापात्र को खटका रहा हूँ । इस चूहे ने तो उछलने में
बिल्ली और बन्दर को भी मात कर दिया है ।"
बृहत्स्फिक
---"उस चूहे का बिल तुझे मालूम है ?"
ताम्रचूड़----"नहीं, मैं
नहीं जानता ।"
बृहत्स्फिक----"हो
न हो इसका बिल भूमि में गड़े किसी खजाने के ऊपर है; तभी,
उसकी गर्मी से यह इतना उछलता
है । कोई भी काम
अकारण नहीं होता । कूटे हुए तिलों को यदि कोई बिना कूटे तिलों के भाव बेचने लगे तो
भी उसका कारण होता है ।
ताम्रचूड़ ने पूछा कि, "कूटे हुए तिलों का उदाहरण आप ने कैसे दिया ?"
बृहत्स्फिक ने तब
कूटे हुए तिलों की विक्री की यह कहानी सुनाई---
एक बार मैं चौमासे
में एक ब्राह्मण के घर गया था । वहाँ रहते हुए एक दिन मैंने सुना कि ब्राह्मण और
ब्राह्मण-पत्नी में यह बातचीत हो रही थी---
ब्राह्मण----"कल
सुबह कर्क-संक्रान्ति है, भिक्षा के लिये मैं दूसरे गाँव जाऊँगा ।
वहाँ एक ब्राह्मण सूर्यदेव की तृप्ति के लिए कुछ दान करना चाहता है ।"
पत्नी---"तुझे
तो भोजन योग्य अन्न कमाना भी नहीं आता । तेरी पत्नी होकर मैंने कभी सुख नहीं
भोगा,
मिष्टान्न नहीं खाये, वस्त्र और आभूषणों को तो
बात ही क्या कहनी ?"
ब्राह्मण----"देवी
! तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए । अपनी इच्छा के अनुरुप धन किसी को नहीं मिलता ।
पेट भरने योग्य अन्न तो मैं भी ले ही आता हूँ । इससे अधिक की तृष्णा का त्याग कर
दो । अति तृष्णा के चक्कर में मनुष्य के माथे पर शिखा हो जाती है ।"
ब्राह्मणी ने
पूछा----"यह कैसे ?"
तब ब्राह्मण ने
सूअर---शिकारी और गीदड़ की यह कथा सुनाई----
एक दिन एक शिकारी
शिकार की खोज में जंगल की ओर गया । जाते-जाते उसे वन में काले अंजन के पहाड़ जैसा
काला बड़ा सूअर दिखाई दिया । उसे देखकर उसने अपने धनुष की प्रत्यंचा को कानों तक
खींचकर निशाना मारा । निशाना ठीक स्थान पर लगा । सूअर घायल होकर शिकारी की ओर दौड़ा
। शिकारी भी तीखे दाँतों वाले सूअर के हमले से गिरकर घायल होगया । उसका पेट फट गया
। शिकारी और शिकार दोनों का अन्त हो गया ।
इस बीच एक भटकता और
भूख से तड़पता गीदड़ वहाँ आ निकला । वहाँ सूअर और शिकारी, दोनों
को मरा देखकर वह सोचने लगा, "आज दैववश बड़ा अच्छा भोजन
मिला है । कई बार बिना विशेष उद्यम के ही अच्छा भोजन मिल जाता है । इसे
पूर्वजन्मों का फल ही कहना चाहिए ।"
यह सोचकर वह मृत
लाशों के पास जाकर पहले छोटी चीजें खाने लगा । उसे याद आगया कि अपने धन का उपयोग
मनुष्य को धीरे-धीरे ही करना चाहिये; इसका प्रयोग रसायन के प्रयोग
की तरह करना उचित है । इस तरह अल्प से अल्प धन भी बहुत काल तक काम देता है । अतः
इनका भोग मैं इस रीतिसे करुँगा कि बहुत दिन तक इनके उपभोग से ही मेरी प्राणयात्रा
चलती रहे ।
यह सोचकर उसने निश्चय
किया कि वह पहले धनुष की डोरी को खायगा । उस समय धनुष की प्रत्यंचा चढ़ी हुई थी; उसकी
डोरी कमान के दोनों सिरों पर कसकर बँधी हुई थी । गीदड़ ने डोरी को मुख में लेकर
चबाया । चबाते ही वह डोरी बहुत वेग से टूट गई; और धनुष के
कोने का एक सिरा उसके माथे को भेद कर ऊपर निकला आया, मानो
माथे पर शिखा निकल आई हो । इस प्रकार घायल होकर वह गीदड़ भी वहीं मर गया ।
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ब्राह्मण ने
कहा---"इसीलिये मैं कहता हूँ कि अतिशय लोभ से माथे पर शिखा हो जाती है
।"
ब्राह्मणी ने
ब्राह्मण की यह कहानी सुनने के बाद कहा----"यदि यही बात है तो मेरे घर में
थोड़े से तिल पड़े हैं । उनका शोधन करके कूट छाँटकर अतिथि को खिला देती हूँ ।"
ब्राह्मण उसकी बात से
सन्तुष्ट होकर भिक्षा के लिये दूसरे गाँव की ओर चल दिया । ब्राह्मणी ने भी अपने
वचनानुसार घर में पड़े तिलों को छाँटना शुरु कर दिया । छाँट-पछोड़ कर जब उसने तिलों
को सुखाने के लिये धूप में फैलाया तो एक कुत्ते ने उन तिलों को मूत्र-विष्ठा से
खराब कर दिया । ब्राह्मणी बड़ी चिन्ता में पड़ गई । यही तिल थे, जिन्हें
पकाकर उसने अतिथि को भोजन देना था । बहुत विचार के बाद उसने सोचा कि अगर वह इन
शोधित तिलों के बदले अशोधित तिल माँगेगी तो कोई भी दे देगा । इनके उच्छिष्ट होने
का किसी को पता ही नहीं लगेगा । यह सोचकर वह उन तिलों को छाज में रखकर घर-घर घूमने
लगी और कहने लगी----"कोई इन छँटे हुए तिलों के स्थान पर बिना छँटे तिल देदे
।"
अचानक यह हुआ कि जिस
घर में मैं भिक्षा के लिये गया था उसी घर में वह भी तिलों को बेचने पहुँच गई, और कहने
लगी कि---"बिना छँटे हुए तिलों के स्थान पर छँटे हुए तिलों को ले लो ।"
उस घर की गृहपत्नी जब यह सौदा करने जा रही थी तब उसके लड़के ने, जो अर्थशास्त्र पढ़ा हुआ था, कहा----
"माता ! इन
तिलों को मत लो । कौन पागल होगा जो बिना छँटे तिलों को लेकर छँटे हुए तिल देगा ।
यह बात निष्कारण नहीं हो सकती । अवश्यमेव इन छँटे तिलों में कोई दोष होगा ।"
पुत्र के कहने से
माता ने यह सौदा नहीं किया ।
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यह कहानी सुनाने के
बाद बृहत्स्फिक ने ताम्रचूड़ से पूछा----
"क्या तुम्हें
उसके आने-जाने का मार्ग मालूम है ?"
ताम्रचूड़----"भगवन्
! वह तो मालूम नहीं । वह अकेला नहीं आता, दलबल समेत आता है ।
उनके साथ ही वह आता है और साथ ही जाता है ।"
बृहत्स्फिक
----"तुम्हारे पास कोई फावड़ा है ?"
ताम्रचूड़ ने कहा
----"हा,
फावड़ा तो है ।"
दोनों ने दूसरे दिन
फावड़ा लेकर हमारे (चूहों के) पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए मेरे बिल तक आने का
निश्चय
किया । मैं उनकी
बातें सुनकर बड़ा चिन्तित हुआ । मुझे निश्चय हो गया कि वे इस तरह मेरे दुर्ग तक
पहुँच कर फावड़े से उसे नष्ट कर देंगे । इसलिये मैंने सोचा कि मैं अपने दुर्ग की ओर
न जाकर किसी अन्य स्थान की ओर चल देता हूँ । इस तरह सीधा रास्ता छोड़कर दूसरे
रास्ते से जब मैं सदलबल जा रहा था तो मैंने देखा कि एक मोटा बिल्ला आ रहा है । वह
बिल्ला चूहों की मंडली देखकर उस पर टूट पड़ा । बहुत से चूहे मारे गए, बहुत
से घायल
हुए । एक भी चूहा ऐसा
न था जो लहूलुहान न हुआ हो । उन सब ने इस विपत्ति का कारण मुझे ही माना । मैं ही
उन्हें असली रास्ते के स्थान पर दूसरे रास्ते से ले जा रहा था । बाद में उन्होंने
मेरा साथ छोड़ दिया । वे सब पुराने दुर्ग में चले गये ।
इस बीच बृहत्स्फिक और
ताम्रचूड़ भी फावड़ा समेत दुर्ग तक पहुँच गये । वहाँ पहुँच कर उन्होंने दुर्ग को
खोदना शुरु कर दिया । खोदते-खोदते उनके हाथ वह खजाना लग गया, जिसकी
गर्मी से मैं बन्दर और बिल्ली से भी अधिक उछल सकता था । खजाना लेकर दोनों ब्राह्मण
मन्दिर को लौट गए । मैं जब अपने दुर्ग में गया तो उसे उजड़ा देखकर मेरा दिल बैठ गया
। उसकी वह अवस्था देखी नहीं जाती थी । सोचने लगा, क्या करुँ ?
कहाँ जाऊँ ? मेरे मन को कहाँ शान्ति मिलेगी ?
बहुत सोचने के बाद
मैं फिर निराशा में डूबा हुआ उसी मन्दिर में चला गया जहां ताम्रचूड़ रहता था । मेरे
पैरों की आहट सुनकर ताम्रचूड़ ने फिर खूंटी पर टंगे भिक्षापात्र को फटे बाँस से
पीटना शुरु कर दिया । बृहत्स्फिक ने उससे पूछा----
"मित्र ! अब भी
तू निःशंक होकर नहीं सोता । क्या बात है ?"
ताम्रचूड़----"भगवन्
! वह चूहा फिर यहाँ आ गया है । मुझे डर है, मेरे भिक्षा शेष को वह
फिर न कहीं खा जाय ।"
बृहत्स्फिक
----"मित्र ! अब डरने की कोई बात नहीं । धन के खजाने के साथ उसके उछलने का
उत्साह भी नष्ट
होगया । सभी जीवों के
साथ ऐसा होता है । धन-बल से ही मनुष्य उत्साही होता है, वीर
होता है और दूसरों को पराजित करता है ।"
यह सुनकर मैंने पूरे
बल से छलाँग मारी,
किन्तु खूंटी पर टंगे पात्र तक न पहुँच सका, और
मुख के बल जमीन पर गिर पड़ा । मेरे गिरने की आवाज सुनकर मेरा शत्रु बृहत्स्फिक
ताम्रचूड़ से हँसकर बोला----
"देख, ताम्रचूड़
! इस चूहे को देख । खजाना छिन जाने के बाद वह फिर मामूली चूहा ही रह गया है । इसकी
छलाँग में अब वह वेग नहीं रहा, जो पहले था । धन में बड़ा चमत्कार
है । धन से ही सब बली होते हैं, पण्डित होते हैं । धन के
बिना मनुष्य की अवस्था दन्त-हीन सांप की तरह हो जाती है ।"
धनाभाव से मेरी भी
बड़ी दुर्गति हो गई । मेरे ही नौकर मुझे उलाहना देने लगे कि यह चूहा हमारा पेट
पालने योग्य तो है नहीं; हाँ, हमें बिल्ली को
खिलाने योग्य अवश्य है । यह कहकर उन्होंने मेरा साथा छोड़ दिया । मेरे साथी मेरे
शत्रुओं के साथ मिल गये ।
मैंने भी एक दिन सोचा
कि मैं फिर मन्दिर में जाकर खजाना पाने का यत्न करुँगा । इस यत्न में मेरी
मृत्यु भी हो जाय तो भी चिन्ता नहीं ।
यह सोचकर मैं फिर मन्दिर
में गया । मैंने देखा कि ब्राह्मण खजाने की पेटी को सिर के नीचे रखकर सो रहे हैं ।
मैं पेटी में छिद्र करके जब धन चुराने लगा तो वे जाग गये । लाठी लेकर वे मेरे पीछे
दौडे़ । एक लाठी मेरे सिर पर लगी । आयु शेष थी इस लिये मृत्यु नहीं हुई---किन्तु, घायल
बहुत हो गया । सच तो यह है कि जो धन भाग्य में लिखा होता है वह तो मिल ही जाता है
। संसार की कोई शक्ति उसे हस्तगत होने में बाधा नहीं डाल सकती । इसीलिये मुझे कोई
शोक नहीं है । जो हमारे हिस्से का है, वह हमारा अवश्य होगा ।
इतनी कथा कहने के बाद
हिरण्यक ने कहा----"इसीलिये मुझे वैराग्य हो गया है । और इसीलिये मैं लघुपतनक
की पीठ पर चढ़कर यहाँ आ गया हूँ ।"
मन्थरक ने उसे
आश्वासन देते हुए कहा ----
"मित्र ! नष्ट
हुए धन की चिन्ता न करो । जवानी और धन का उपभोग क्षणिक ही होता है । पहले धन के
अर्जन में दुःख है;
फिर उसके संरक्षण में दुःख । जितने कष्टों से मनुष्य धन का संचय
करता है उसके शतांश कष्टों से भी यदि वह धर्म का संचय करे तो उसे मोक्ष मिल जाय ।
विदेश-प्रवास का भी दुःख मत करो । व्यवसायी के लिये कोई स्थान दूर नहीं, विद्वान् के लिये कोई विदेश नहीं और प्रियवादी के लिये कोई पराया नहीं ।
"इसके अतिरिक्त
धन कमाना तो भाग्य की बात है । भाग्य न हो तो संचित धन भी नष्ट हो जाता है । अभागा
आदमी अर्थोपार्जन करके भी उसका भोग नहीं कर पाता; जैसे
मूर्ख सोमिलक नहीं कर पाया था ।"
हिरण्यक ने
पूछा----"कैसे ?"
मन्थरक ने तब सोमिलक
की यह कथा सुनाई ----
एक नगर में सोमिलक
नाम का जुलाहा रहता था । विविध प्रकार के रंगीन और सुन्दर वस्त्र बनाने के बाद भी
उसे भोजन-वस्त्र मात्र से अधिक धन कभी प्राप्त नहीं होता था । अन्य जुलाहे
मोटा-सादा कपड़ा बुनते हुए धनी हो गये थे । उन्हें देखकर एक दिन सोमलिक ने अपनी पत्नी
से कहा---"प्रिये ! देखो, मामूली कपड़ा बुनने वाले
जुलाहों ने भी कितना धन-वैभव संचित कर लिया है और मैं इतन सुन्दर, उत्कृष्ट वस्त्र बनाते हुए भी आज तक निर्धन ही हूँ । प्रतीत होता है यह
स्थान मेरे लिये भाग्यशाली नहीं है; अतः विदेश जाकर
धनोपार्जन करुँगा ।"
सोमिलक-पत्नी ने
कहा---"प्रियतम ! विदेश में धनोपार्जन की कल्पना मिथ्या स्वप्न से अधिक नहीं
। धन की प्राप्ति होनी हो तो स्वदेश में ही हो जाती है । न होनी हो तो हथेली में
आया धन भी नष्ट हो जाता है । अतः यहीं रहकर व्यवसाय करते रहो, भाग्य
में लिखा होगा तो यहीं धन की वर्षा हो जायगी ।"
सोमिलक---"भाग्य-अभाग्य
की बातें तो कायर लोग करते हैं । लक्ष्मी उद्योगी और पुरुषार्थी शेर-नर को ही
प्राप्त होती है । शेर को भी अपने भोजन के लिये उद्यम करना पड़ता है । मैं भी
उद्यम करुँगा;
विदेश जाकर धन-संचय का यत्न करुँगा ।"
यह कहकर सोमिलक
वर्धमानपुर चला गया । वहाँ तीन वर्षों में अपने कौशल से ३०० सोने की मुहरें लेकर
वह घर की ओर चल दिया । रास्ता लम्बा था । आधे रास्ते में ही दिन ढल गया, शाम
हो गई । आस-पास कोई घर नहीं था । एक मोटे वृक्ष की शाखा के ऊपर चढ़कर रात बिताई ।
सोते-सोते स्वप्न आया कि दो भयंकर आकृति के पुरुष आपस में बात कर रहे हैं । एक ने
कहा ----"हे पौरुष ! तुझे क्या मालूम नहीं है कि सोमिलक के पास भोजन-वस्त्र
से अधिक धन नहीं रह सकता; तब तूने इसे ३०० मुहरें क्यों दीं ?"
दूसरा बोला----"हे भाग्य ! मैं तो प्रत्येक पुरुषार्थी को एक बार
उसका फल दूंगा ही । उसे उसके पास रहने देना या नहीं रहने देना तेरे अधीन है
।"
स्वप्न के बाद सोमिलक
की नींद खुली तो देखा कि मुहरों का पात्र खाली था । इतने कष्टों से संचित धन के इस
तरह लुप्त हो जाने से सोमिलक बड़ा दुःखी हुआ, और सोचने
लगा---"अपनी पत्नी को कौनसा मुख दिखाऊँगा, मित्र क्या
कहेंगे ?" यह सोचकर वह फिर वर्धमानपुर को ही वापिस आ
गया । वहाँ दित-रात घोर परिश्रम करके उसने वर्ष भर में ही ५०० मुहरें जमा करलीं ।
उन्हें लेकर वह घर की ओर जा रहा था कि फिर आधे रास्ते में रात पड़ गई । इस बार वह
सोने के लिये ठहरा नहीं; चलता ही गया । किन्तु चलते-चलते ही
उसने फिर उन दोनों---पौरुष और भाग्य---को पहले की तरह बात-चीत करते सुना । भाग्य
ने फिर वही बात कही कि----"हे पौरुष ! क्या तुझे मालूम नहीं कि सोमिलक के पास
भोजन वस्त्र से अधिक धन नहीं रह सकता । तब, उसे तूने ५००
मुहरें क्यों दीं ?" पौरुष ने वही
उत्तर दिया
----"हे भाग्य ! मैं तो प्रत्येक व्यवसायी को एक बार उसका फल दूंगा ही, इससे
आगे तेरे अधीन है कि उसके पास रहने दे या छीन ले ।" इस बात-चीत के बाद सोमिलक
ने जब अपनी मुहरों वाली गठरी देखी तो वह मुहरों से खाली थी ।
इस तरह दो बार खाली
हाथ होकर सोमिलक का मन बहुत दुःखी हुआ । उसने सोचा----"इस धन-हीन जीवन से तो
मृत्यु ही अच्छी है । आज इस वृक्ष की टहनी से रस्सी बाँधकर उस पर लटक जाता हूँ और
यहीं प्राण दे देता हूँ ।"
गले में फन्दा लगा, उसे
टहनी से बाँध कर जब वह लटकने ही वाला था कि उसे आकाश-वाणी हुई---"सौमिलक !
ऐसा दुःसाहस मत कर । मैंने ही तेरा धन चुराया है । तेरे भाग्य में भोजन-वस्त्र
मात्र से अधिक धन का उपभोग नहीं लिखा । व्यर्थ के धन-संचय में अपनी शक्तियाँ नष्ट
मत कर । घर जाकर सुख से रह । तेरे साहस से तो मैं प्रसन्न हूँ ; तू चाहे तो एक वरदान माँग ले । मैं तेरी इच्छा पूरी करुँगा ।"
सोमिलक ने कहा
----"मुझे वरदान में प्रचुर धन दे दो ।"
अदृष्ट देवता ने
उत्तर दिया----"धन का क्या उपयोग ? तेरे भाग्य में उसका उपभोग
नहीं है । भोग-रहित धन को लेकर क्या करेगा ?"
सोमिलक तो धन का भूखा
था,
बोला----"भोग हो या न हो, मुझे धन ही
चाहिये । बिना उपयोग या उपभोग के भी धन कि बड़ी महिमा है । संसार में वही पूज्य
माना जाता है, जिसके पास धन का संचय हो । कृपण और अकुलीन भी
समाज में आदर पाते हैं । संसार उनकी ओर आशा लगाये बैठा रहता है; जिस तरह वह गीदड़ बैल से आशा रखकर उसके पीछे १५ वर्ष तक घूमता रहा ।"
भाग्य ने
पूछा---"किस तरह ?"
सोमिलक ने फिर बैल और
गीदड़ की यह कहानी सुनाई -----
एक स्थान पर
तीक्ष्णविषाण नाम का बैल रहता था । बहुत उन्मत्त होने के कारण उसे किसान ने छोड़ दिया
था । अपने साथी बैलों से भी छूटकर वह जंगल में ही मतवाले हाथी की तरह वे रोक-टोक
घूमा करता है ।
उसी जंगल में प्रलोभक
नाम का एक गीदड़ भी था । एक दिन वह अपनी पत्नी समेत नदी के किनारे बैठा था कि वह
बैल वहीं पानी पीने आ गया । बैल के मांसल कन्धों पर लटकते हुए मांस को देखकर गीदड़ी
ने गीदड़ से कहा---"स्वामी ! इस बैल की लटकती हुई लोथ को देखो । न जाने किस
दिन यह जमीन पर गिर जाय । तुम इसके पीछे-पीछे जाओ----जब यह जमीन पर गिरे, ले
आना ।"
गीदड़ ने उत्तर
दिया----"प्रिये ! न जाने यह लोथ गिरे या न गिरे । कब तक इसका पीछा करुँगा ? इस
व्यर्थ के काम में मुझे मत लगाओ । हम यहाँ चैन से बैठे हैं । जो चूहे इस रास्ते से
जायेंगे उन्हें मारकर ही हम भोजन कर लेंगे । तुझे यहाँ अकेली छोड़कर जाऊँगा तो शायद
कोई दूसरा गीदड़ ही इस घर को अपना बना ले । अनिश्चित लाभ की आशा में निश्चित वस्तु
का परित्याग कभी अच्छा नहीं होता ।"
गीदड़ी बोली
----"मैं नहीं जानती थी कि तू इतना कायर और आलसी है । तुझ में इतना भी उत्साह
नहीं है । जो थोडे़ से धन से सन्तुष्ट हो जाता है वह थोड़े से धन को भी गंवा बैठता
है । इसके अतिरिक्त अब मैं चूहे के मांस से ऊब गई हूँ । बैल के ये मांसपिण्ड अब
गिरने ही वाले दिखाई देते हैं । इसलिए अब इसका पीछा करना ही चाहिए ।"
गीदड़ी के आग्रह पर
गीदड़ को बैल के पीछे जाना पड़ा । सच तो यह है कि पुरुष तभी तक प्रभु होता है जब तक
उस पर स्त्री का अंकुश नहीं पड़ता । स्त्री का हठ पुरुष से सब कुछ करा देता है ।
तब से गीदड़-गीदड़ी
दोनों बैल के पीछे-पीछे घूमने लगे । उनकी आंखें उसके लटकते मांस-पिण्ड पर लगी थीं, लेकिन
वह मांस-पिण्ड ’अब गिरा’, ’तब गिरा’
लगते हुए भी गिरता नहीं था । अन्त में १०-१५ वर्ष इसी तरह बैल का
पीछा करने के बाद एक दिन गीदड़ ने कहा---"प्रिये ! न मालूम यह गिरे भी या नहीं
गिरे, इसलिए अब इसकी आशा छोड़कर अपनी राह लो ।"
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कहानी सुनने के बाद
पौरुष ने कहा ----"यदि यही बात है, धन की इच्छा इतनी ही प्रबल है
तो तू फिर वर्धमानपुर चला जा । वहां दो बनियों के पुत्र हैं; एक गुप्तधन, दूसरा उपभुक्त धन । इन दोनों प्रकार के
धनों का स्वरुप जानकर तू किसी एक का वरदान मांगना । यदि तू उपभोग की योग्यता के
बिना धन चाहेगा तो तुझे गुप्त धन दे दूंगा और यदि खर्च के लिये धन चाहेगा तो
उपभुक्त धन दे दूंगा ।"
यह कहकर वह देवता
लुप्त हो गया । सोमिलक उसके आदेशानुसार फिर वर्धमानपुर पहुँचा । शाम हो गई थी ।
पूछता-पूछता वह गुप्तधन के घर पर चला गया । घर पर उसका किसी ने सत्कार नहीं किया ।
इसके विपरीत उसे भला-बुरा कहकर गुप्तधन और उसकी पत्नी ने घर से बाहिर धकेलना चाहा
। किन्तु,
सोमिलक भी अपने संकल्पा का पक्का था । सब के विरुद्ध होते हुए भी वह
घर में घुसकर जा बैठा । भोजन के समय उसे गुप्तधन ने रुखीसूखी रोटी दे दी । उसे
खाकर वह वहीं सो गया । स्वप्न में उसने फिर वही दोनों देव देखे । वे बातें कर रहे
थे । एक कह रहा था --- "हे पौरुष ! तूने गुप्तधन को भोग्य से इतना अधिक धन
क्यों दे दिया कि उसने सोमिलक को भी रोटी देदी ।" पौरुष ने उत्तर
दिया----"मेरा इसमें दोष नहीं । मुझे पुरुष के हाथों धर्म-पालन करवाना ही है,
उसका फल देना तेरे अधीन है ।"
दूसरे दिन गुप्तधन
पेचिश से बीमार हो गया और उसे उपवास करना पड़ा । इस तरह उसकी क्षतिपूर्त्ति हो गई ।
सोमिलक अगले दिन सुबह
उपभुक्त धन के घर गया । वहां उसने भोजनादि द्वारा उसका सत्कार किया । सोने के लिये
सुन्दर शय्या भी दी । सोते-सोते उसने फिर सुना; वही
दोनों देव बातें कर रहे थे । एक कह रहा था ---"हे पौरुष ! इसने सोमिलक का
सत्कार करते हुए बहुत धन व्यय कर दिया है । अब इसकी क्षतिपूर्त्ति कैसे होगी ?"
दूसरे ने कहा ---"हे भाग्य ! सत्कार के लिये धन व्यय करवाना
मेरा धर्म था, इसका फल देना तेरे अधीन है ।"
सुबह होने पर सोमिलक
ने देखा कि राज-दरबार से एक राज-पुरुष राज-प्रसाद के रुप में धन की भेंट लाकर
उपभुक्त धन को दे रहा था । यह देखकर सोमिलक ने विचार किया कि "यह संचय-रहित
उपभुक्त धन ही गुप्तधन से श्रेष्ठ है । जिस धन का दान कर दिया जाय या सत्कार्यों
में व्यय कर दिया जाय वह धन संचित धन की अपेक्षा बहुत अच्छा होता है ।"
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मन्थरक ने ये
कहानियाँ सुनाकर हिरण्यक से कहा कि इस कारण तुझे भी धन-विषयक चिन्ता नहीं करनी
चाहिये । तेरा जमीन में गड़ा हुआ खजाना चला गया तो जाने दे । भोग के बिना उसका तेरे
लिये उपयोग भी क्या था ? उपार्जित धन का सबसे अच्छा संरक्षण यही है
कि उसका दान कर दिया जाय । शहद की मक्खियाँ इतना मधु-सन्चय करती हैं, किन्तु उपभोग नहीं कर सकतीं । इस सन्चय से क्या लाभ ?
मन्थरक कछुआ, लघुपतनक
कौवा और हिरण्यक चूहा वहां बैठे-बैठे यही बातें कर रहे थे कि वहां चित्रांग नाम का
हिरण कहीं से दौड़ता-हांफता आ गया । एक व्याध उसका पीछा कर रहा था । उसे आता देखकर
कौवा उड़कर वृक्ष की शाखा पर बैठ गया । हिरण्यक पास के बिल में घुस गया और मन्थरक
तालाव के पानी में जा छिपा ।
कौवे ने हिरण को
अच्छी तरह देखने के बाद मन्थरक से कहा----"मित्र मन्थरक ! यह तो हिरण के आने
की आवाज है । एक प्यासा हिरण पानी पीने के लिये तालाब पर आया है । उसी का यह शब्द
है,
मनुष्य का नहीं ।"
मन्थरक----"यह
हिरण बार-बार पीछे मुड़कर देख रहा है और डरा हुआ सा है । इसलिये यह प्यासा नहीं, बल्कि
व्याध के डर से भागा हुआ है । देख तो सही, इसके पीछे व्याध आ
रहा है या नहीं ?"
दोनों की बात सुनकर
चित्रांग हिरण बोला----"मन्थरक ! मेरे भय का कारण तुम जान गये हो । मैं व्याध
के बाणों से डरकर बड़ी कठिनाई से यहाँ पहुँच पाया हूँ । तुम मेरी रक्षा करो । अब
तुम्हारी शरण में हूँ । मुझे कोई ऐसी जगह बतलाओ जहाँ व्याध न पहुँच सके ।"
मन्थरक ने हिरण को
घने जङगलों में भाग जाने की सलाह दी । किन्तु लघुपतनक ने ऊपर से देखकर बतलाया कि
व्याध दूसरी दिशा में चले गये हैं, इसलिये अब डर की कोई बात नहीं
है । इसके बाद चारों मित्र तालाब के किनारे वृक्षों की छाया में मिलकर देर तक
बातें करते रहे ।
कुछ समय बाद एक दिन
जब कछुआ,
कौवा और चूहा बातें कर रहे थे, शाम हो गई ।
बहुत देर बाद भी हिरण नहीं आया । तीनों को सन्देह होने लगा कि कहीं फिर वह व्याध
के जाल में न फँस गया हो; अथवा शेर, बाघ
आदि ने उस पर हमला न कर दिया हो । घर में बैठे स्वजन अपने प्रवासी प्रियजनों के
सम्बन्ध में सदा शंकित रहते हैं ।
बहुत देर तक भी
चित्राँग हिरण नहीं आया तो मन्थरक कछुए ने लघुपतनक कौवे को जङगल में जाकर हिरण के
खोजने की सलाह दी । लघुपतनक ने कुछ दूर जाकर ही देखा कि वहाँ चित्राँग एक जाल में
बँधा हुआ है । लघुपतनक उसके पास गया । उसे देखकर चित्राँग की आँखों में आँसू आ गये
। वह बोला ----"अब मेरी मृत्यु निश्चित है । अन्तिम समय में तुम्हारे दर्शन
कर के मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । प्राण विसर्जन के समय मित्र-दर्शन बड़ा सुखद होता
है । मेरे अपराध क्षमा करना ।"
लघुपतनक ने धीरज
बँधाते हुए कहा----"घबराओ मत । मैं अभी हिरण्यक चूहे को बुला लाता हूँ । वह
तुम्हारे जाल काट देगा ।"
यह कहकर वह हिरण्यक
के पास चला गया और शीघ्र ही उसे पीठ पर बिठाकर ले आया । हिरण्यक अभी जाल काटने की
विधि सोच ही रहा था कि लघुपतनक ने वृक्ष के ऊपर से दूर पर किसी को देखकर
कहा----"यह तो बहुत बुरा हुआ ।"
हिरण्यक ने
पूछा---"क्या कोई व्याध आ रहा है ?"
लघुपतनक----"नहीं, व्याध
तो नहीं, किन्तु मन्थरक कछुआ इधर चला आ रहा है ।"
हिरण्यक----"तब
तो खुशी की बात है । दुःखी क्यों होता है ?"
लघुपतनक
----"दुःखी इसलिये होता हूँ कि व्याध के आने पर मैं ऊपर उड़ जाऊँगा, हिरण्यक
बिल में घुस जायगा, चित्राँग भी छलागें मारकर घने जङगल में
घुस जायगा; लेकिन यह मन्थरक कैसे अपनी जान बचायगा ? यही सोचकर चिन्तित हो रहा हूँ ।"
मन्थरक के वहाँ आने
पर हिरण्यक ने मन्थरक से कहा----"मित्र ! तुमने यहाँ आकर अच्छा नहीं किया ।
अब भी वापिस लौट जाओ, कहीं व्याध न आ जाय ।"
मन्थरक ने
कहा---"मित्र ! मैं अपने मित्र को आपत्ति में जानकर वहाँ नहीं रह सका । सोचा, उसकी
आपत्ति में हाथ बटाऊँगा, तभी चला आया ।"
ये बातें हो ही रही
थीं कि उन्होंने व्याध को उसी ओर आते देखा । उसे देखकर चूहे ने उसी क्षण चित्राँग
के बन्धन काट दिये । चित्राँग भी उठकर घूम-घूमकर पीछे देखता हुआ आगे भाग खड़ा हुआ ।
लघुपतनक वृक्ष पर उड़ गया । हिरण्यक पास के बिल में घुस गया ।
व्याध अपने जाल में
किसी को न पाकर बड़ा दुःखी हुआ । वहाँ से वापिस जाने को मुड़ा ही था कि उसकी दृष्टि
धीरे-धीरे जाने वाले मन्थरक पर पड़ गई । उसने सोचा, "आज हिरण तो हाथ आया नहीं , कछुए को ही ले चलता हूँ ।
कछुए को ही आज भोजन बनाऊँगा । उससे ही पेट भरुँगा ।" यह सोचकर वह कछुए को
कन्धे पर डालकर चल दिया । उसे ले जाते देख हिरण्यक और लघुपतनक को बड़ा दुःख हुआ ।
दोनों मित्र मन्थरक को बड़े प्रेम और आदर से देखते थे । चित्राँग ने भी मन्थरक को व्याध
के कन्धों पर देखा तो व्याकुल हो गया । तीनों मित्र मन्थरक की मुक्ति का उपाय
सोचने लगे ।
कौए ने तब एक उपाय
ढूंढ निकाला । वह यह कि ----"चित्रांग व्याध के मार्ग में, तालाब
के किनारे जाकर लेट जाय । मैं तब उसे चोंच मारने लगूंगा । व्याध समझेगा कि हिरण
मरा हुआ है । वह मन्थरक को जमीन पर रखकर इसे लेने के लिये जब आयगा तो हिरण्यक
जल्दी-जल्दी मन्थरक के बन्धन काट दे । मन्थरक तालाब में घुस जाय, और चित्रांग छलांगें मारकर घने जंगल में चला जाय । मैं उड़कर वृक्ष पर चला
ही जाऊँगा । सभी बच जायंगे, मन्थरक भी छूट जायगा ।"
तीनों मित्रों ने यही
उपाय किया । चित्रांग तालाब के किनारे मृतवत जा लेटा । कौवा उसकी गरदन पर सवार
होकर चोंच चलाने लगा । व्याध ने देखा तो समझा कि हिरण जाल से छूट कर दौड़ता-दौड़ता
यहाँ मर गया है । उसे लेने के लिये वह जालबद्ध कछुए को जमीन पर छोड़कर आगे बढ़ा तो हिरण्यक
ने अपने वज्र समान तीखे दांतों से जाल के बन्धन काट दिये । मन्थरक पानी में घुस
गया । चित्रांग भी दौड़ गया ।
व्याध ने चित्रांग को
हाथ से निकलकर जाते देखा तो आश्चर्य में डूब गया । वापिस जाकर जब उसने देखा कि
कछुआ भी जाल से निकलकर भाग गया है, तब उसके दुःख की सीमा न रही ।
वहीं एक शिला पर बैठकर वह विलाप करने लगा ।
दूसरी ओर चारों मित्र
लघुपतनक,
मन्थरक, हिरण्यक और चित्रांग प्रसन्नता से
फूले नहीं समाते थे । मित्रता के बल पर ही चारों ने व्याध से मुक्ति पाई थी ।
मित्रता में बड़ी
शक्ति है । मित्र-संग्रह करना जीवन की सफलता में बड़ा सहायक है । विवेकी व्यक्ति को
सदा मित्र-प्राप्ति में यत्नशील रहना चाहिये ।
॥द्वितीय तन्त्र
समाप्त॥
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