पंचतंत्र
आमुख
दक्षिण देश के एक
प्रान्त में महोलारोप्य नाम का नगर था । वहां एक महादानी, प्रतापी
राजा अमरशक्ति रहता था । उसके अनन्त धन था; रत्नों की अपार
राशि थी; किन्तु उसके पुत्र बिल्कुल जड़्बुद्धि थे । तीनों
पुत्रों----बहुशक्ति, उग्रशक्ति, अनन्तशक्ति---के
होते हुए भी वह सुखी न था । तीनों अविनीत, उच्छृङखल और मूर्ख
थे ।
राजा ने अपने
मन्त्रियों को बुलाकर पुत्रों की शिक्षा के संबंध में अपनी चिन्ता प्रकट की । राजा
के राज्य में उस समय ५०० वृत्ति-भोगी शिक्षक थे । उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो
राजपुत्रों को उचित शिक्षा दे सकता । अन्त में राजा की चिन्ता को दूर करने के लिए
सुमति नाम के मन्त्री ने सकलशास्त्र-पारंगत आचार्य विष्णुशर्मा को बुलाकर
राजपुत्रों का शिक्षक नियुक्त करने की सलाह दी ।
राजा ने विष्णुशर्मा
को बुलाकर कहा कि यदि आप इन पुत्रों को शीघ्र ही राजनीतिज्ञ बनादेंगे तो मैं आपको
१०० गांव इनाम में दूँगा । विष्णुशर्मा ने हँसकर उत्तर दिया----"महाराज ! मैं
अपनी विद्या को बेचता नहीं हूँ । इनाम की मुझे इच्छा नहीं है । आपने आदर से बुलाकर
आदेश दिया है इसलिये ६ महीने में ही मैं आपके पुत्रों को राजनीतिज्ञ बनादूंगा ।
यदि मैं इसमें सफल न हुआ तो अपना नाम बदल डालूंगा ।"
आचार्य का आश्वासन
पाकर राजा ने अपने पुत्रों का शिक्षण भार उनपर डाल दिया और निश्चिन्त हो गया ।
विष्णुशर्मा ने उनकी शिक्षा के लिये अनेक कथायें बनाईं । उन कथाओं द्वारा ही
उन्हें राजनीति और व्यवहार-नीति की शिक्षा दी । उन कथाओं के संग्रह का नाम ही ’पंचतंन्त्र’
है । पांच प्रकरणों में उनका विभाग होने से उसे ’पंचतंन्त्र’ नाम दिया गया ।
राजपुत्र इन कथाओं को
सुनकर ६ महीने में ही पूरे राजनीतिज्ञ बन गये । उन पांच प्रकरणों के नाम हैं :
१---मित्रभेद,
२--मित्रसम्प्राप्ति, ३---काकोलूकीयम, ४--लब्धप्रशाशम् और ५---अपरीक्षितकारकम्। प्रस्तुत में पांचों प्रकरण दिये
गये हैं ।
महिलारोप्य नाम के
नगर में वर्धमान नाम का एक वणिक्-पुत्र रहता था । उसने धर्मयुक्त रीति से व्यापार
में पर्याप्त धन पैदा किया था; किन्तु उतने से सन्तोष नहीं
होता था; और भी अधिक धन कमाने की इच्छा थी । छः उपायों से ही
धनोपार्जन किया जाता है---भिक्षा, राजसेवा, खेती, विद्या, सूद और व्यापार
से । इनमें से व्यापार का साधन ही सर्वश्रेष्ठ है । व्यापार के भी अनेक प्रकार हैं
। उनमें से सबसे अच्छा यही है कि परदेस से उत्तम वस्तुओं का संग्रह करके स्वदेश
में उन्हें बेचा जाय । यही सोचकर वर्धमान ने अपने नगर से बाहिर जाने का संकल्प
किया । मथुरा जाने वाले मार्ग के लिए उसने अपना रथ तैयार करवाया । रथ में दो
सुन्दर, सुदृढ़ बैल लगवाए । उनके नाम थे ---संजीवक और नन्दक ।
वर्धमान का रथ जब
यमुना के किनारे पहुँचा तो संजीवक नाम का बैल नदी-तट की दलदल में फँस गया । वहाँ
से निकलने की चेष्टा में उसका एक पैर भी टूट गया । वर्धमान को यह देख कर बड़ा दुःख
हुआ । तीन रात उसने बैल के स्वस्थ होने की प्रतीक्षा की । बाद में उसके सारथि ने
कहा कि "इस वन में अनेक हिंसक जन्तु रहते हैं । यहाँ उनसे बचाव का कोई उपाय
नहीं है । संजीवक के अच्छा होने में बहुत दिन लग जायंगे । इतने दिन यहाँ रहकर
प्राणों का संकट नहीं उठाया जा सकता । इस बैल के लिये अपने जीवन को मृत्यु के मुख
में क्यों डालते हैं ?"
तब वर्धमान ने संजीवक
की रखवाली के लिए रक्षक रखकर आगे प्रस्थान किया । रक्षकों ने भी जब देखा कि जंगल
अनेक शेर-बाघ-चीतों से भरा पड़ा है तो वे भी दो-एक दिन बाद ही वहाँ से प्राण बचाकर
भागे और वर्धमान के सामने यह झूठ बोल दिया "स्वामी ! संजीवक तो मर गया । हमने
उसका दाह-संस्कार कर दिया ।" वर्धमान यह सुनकर बड़ा दुःखी हुआ, किन्तु
अब कोई उपाय न था ।
इधर, संजीवक
यमुना-तट की शीतल वायु के सेवन से कुछ स्वस्थ हो गया था । किनारे की दूब का
अग्रभाग पशुओं के लिये बहुत बलदायी होता है । उसे निरन्तर खाने के बाद वह खूब
मांसल और हृष्ट-पुष्ट भी हो गया । दिन भर नदी के किनारों को सींगों से पाटना और
मदमत्त होकर गरजते हुए किनारों की झाड़ियों में सींग उलझाकर खेलना ही उसका काम था ।
एक दिन उसी यमुना-तट
पर पिंगलक नाम का शेर पानी पीने आया । वहाँ उसने दूर से ही संजीवक की गम्भीर
हुंकार सुनी । उसे सुनकर वह भयभीत-सा हो सिमट कर झाड़ियों में जा छिपा ।
शेर के साथ दो गीदड़
भी थे -- करटक और दमनक । ये दोनों सदा शेर के पीछे़ पीछे़ रहते थे । उन्होंने जब
अपने स्वामी को भयभीत देखा तो आश्चर्य में डूब गए । वन के स्वामी का इस तरह
भयातुर होना सचमुच बडे़ अचम्भे की बात थी । आज तक पिंगलक कभी इस तरह भयभीत नहीं
हुआ था । दमनक ने अपने साथी गीदड़ को कहा ---’करटक ! हमारा स्वामी वन
का राजा है । सब पशु उससे डरते हैं । आज वही इस तरह सिमटकर डरा-सा बैठा है ।
प्यासा होकर भी वह पानी पीने के लिए यमुना-तट तक जाकर लौट आया; इस डर का कारण क्या है ?"
करटक ने उत्तर दिया
---"दमनक ! कारण कुछ भी हो, हमें क्या ? दूसरों के काम में हस्तक्षेप करना ठीक नहीं । जो ऐसा करता है वह उसी बन्दर
की तरह तड़प-तड़प कर मरता है, जिसने दूसरे के काम में कौतूहलवश
व्यर्थ ही हस्तक्षेप किया था ।"
दमनक ने
पूछा---"यह क्या बात कही तुमने ?"
करटक ने
कहा----"सुनो---
एक गांव के पास, जंगल
की सीमा पर, मन्दिर बन रहा था । वहाँ के कारीगर दोपहर के समय
भोजन के लिये गांव में आ जाते थे ।
एक दिन जब वे गांव
में आये हुए थे तो बन्दरों का एक दल इधर-उधर घूमता हुआ वहीं आ गया जहाँ कारीगरों
का काम चल रहा था । कारीगर उस समय वहाँ नहीं थे । बन्दरों ने इधर-उधर उछलना और
खेलना शुरु कर दिया ।
वहीं एक कारीगर शहतीर
को आधा चीरने के बाद उसमें कील फंसा कर गया था । एक बन्दर को यह कौतूहल हुआ कि यह
कील यहां क्यों फंसी है । तब आघे चिरे हुए शहतीर पर बैठकर वह अपने दोनों हाथों से
कील को बाहिर खींचने लगा । कील बहुत मजबूती से वहाम गड़ी थी---इसलिये बाहिर नहीं
निकली । लेकिन बन्दर भी हठी था, वह पूरे बल से कील निकालने
में जूझ गया ।
अन्त में भारी भटके
के साथ वह कील निकल आई---किन्तु उसके निकलते ही बन्दर का पिछ़ला भाग शहतीर के चिरे
हुए दो भागों के बीच में आकर पिचक गया । अभागा बन्दर वहीं तड़प-तड़प कर मर गया ।
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इसीलिए मैं कहता हूँ
कि हमें दूसरों के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये । हमें शेर के भोजन का
अवशेष तो मिल ही चाता है, अन्य बातों की चिन्ता क्यों करें ?"
दमनक ने
कहा---"करटक ! तुझे तो बस अपने अवशिष्ट आहार की ही चिन्ता रहती है । स्वामी
के हित की तो तुझे परवाह ही नहीं ।"
करटक----"हमारी
हित-चिन्ता से क्या होता है ? हमारी गिनती उसके प्रधान
सहायकों में तो है ही नहीं । बिना पूछे सम्मति देना मूर्खता है । इससे अपमान के
अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता ।"
दमनक---"प्रधान-अप्रधान
की बात रहने दे । जो भी स्वामी की अच्छी सेवा करेगा वह प्रधान बन जायगा । जो सेवा
नहीं करेगा,
वह प्रधान-पद से भी गिर जायगा । राजा, स्त्री
और लता का यही नियम है कि वे पास रहने वाले को ही अपनाते हैं ?"
करटक---"तब क्या
किया जाय ?
अपना अभिप्राय स्पष्ट-स्पष्ट कह दे ।"
दमनक---"आज
हमारा स्वामी बहुत भयभीत है । उसे भय का कारण बताकर
सन्धि-विग्रह-आसन-संश्रय-द्वैधीभाव आदि उपायों से हम भय-निवारण की सलाह देंगे
।"
करटक--- "तुझे
कैसे मालूम कि स्वामी भयभीत है ?"
दमनक---"यह
जानना कोई कठिन काम नहीं है । मन के भाव छिपे नहीं रहते । चेहरे से, इशारों
से, चेष्टा से, भाषण -शैली से, आंखों की भ्रूभंगी से वे सबके सामने आ जाते हैं । आज हमारा स्वामी भयभीत
है । उसके भय को दूर करके हम उसे अपने वश में कर सकते हैं । तब वह हमें
अपना-प्रधान सचिव बना लेगा ।"
करटक---"तू
राज-सेवा के नियमों से अनभिज्ञ है; स्वामी को वश में कैसे करेगा ?"
दमनक---"मैंने
तो बचपन में अपने पिता के संग खेलते २ राज-सेवा का पाठ पढ़ लिया था । राजसेवा स्वयं
एक कला है । मैं उस कला में प्रवीण हूँ ।"
यह कह कर दमनक ने
राज-सेवा के नियमों का निर्देश किया । राजा न्को सन्तुष्ट करने और उसकी दृष्टि में
सम्मान पाने के अनेक उपाय भी बतलाये । करटक दमनक की चतुराई देखकर दंग रह गया ।
उसने भी उसकी बात मान ली, और दोनों शेर की राजसभा की ओर चल दिये ।
दमनक को आता देखकर पिंगलक
द्वारपाल से बोला----"हमारे भूतपूर्व मन्त्री का पुत्र दमनक आ रहा है, उसे
हमारे पास बेरोक आने दो ।"
दमनक राजसभा में आकर
पिंगलक को प्रणाम करके अपने निर्दिष्ट स्थान पर बैठ गया । पिंगलक ने अपना दाहिना
हाथ ऊपर उठा कर दमनक से कुशल-क्षेम पूछते हुए कहा---"कहो दमनक ! सब कुशल तो
है ?
बहुत दिनों बाद आए ? क्या कोई विशेष प्रयोजन
है ?"
दमनक---"विशेष
प्रयोजन तो कोई भी नहीं । फिर भी सेवक को स्वामी के हित की बात कहने के लिये स्वयं
आना चाहिये । राजा के पास उत्तम, मध्यम, अधम
सभी प्रकार के सेवक हैं । राजा के लिये सभी का प्रयोजन है । समय पर तिनके का भी
सहारा लेना पड़ता है, सेवक की तो बात ही क्या है ?
"आपने बहुत दिन
बाद आने का उपालंभ दिया है । उसका भी कारण है । जहाँ कांच की जगह मणि और मणि के
स्थान पर कांच जड़ा जाय वहां अच्छे सेवक नहीं ठहरते । जहाँ पारखी नहीं, वहां
रत्नों का मूल्य नहीं लगता । स्वामी और सेवक परस्पराश्रयी होते हैं । उन्हें एक
दूसरे का सम्मान करना चाहिये । राजा तो सन्तुष्ट होकर सेवक को केवल सम्मान देते
हैं --- किन्तु सेवक सन्तुष्ट होकर राजा के लिये प्राणों की बलि दे देता है
।"
पिंगलक दमनक की बातों
से प्रसन्न हो कर बोला --- "तू तो हमारे भूतपूर्व मन्त्री का पुत्र है, इसलिये
तुझे जो कहना है निश्चिन्त होकर कह दे ।"
दमनक----"मैं
स्वामी से कुछ एकान्त में कहना चाहता हूँ । चार कानों में ही भेद की बात सुरक्षित
रह सकती है,
छः कानों में वह भेद गुप्त नहीं रह सकता ।"
तब पिंगलक ने इशारे
से बाघ,
रीछ, चीते आदि सब जानवरों को सभा से बाहिर भेज
दिया ।
सभा में एकान्त होने
के बाद दमनक ने शेर के कानों के पास जाकर प्रश्न किया---
दमनक---"स्वामी
! जब आप पानी पीने गये थे तब पानी पिये बिना लौट क्यों आये थे ? इसका
कारण क्या था ?"
पिंगलक ने जरा सूखी
हँसी हंसते हुए उत्तर दिया ---"कुछ भी नहीं ।"
दमनक ---"देव !
यदि वह बात कहने योग्य नहीं है तो मत कहिये । सभी बातें कहने योग्य नहीं होतीं ।
कुछ बातें अपनी स्त्री से भी छिपाने योग्य होती हैं; कुछ
पुत्रों से भी छिपा ली जाती हैं । बहुत अनुरोध पर भी ये बातें नहीं कही जातीं
।"
पिंगलक ने सोचा---’यह
दमनक बुद्धिमान दिखता है; क्यों न इस से अपने मन की बात कह
दी जाय ।’ यह सोच वह कहने लगा---
पिंगलक---"दमनक
! दूर से जो यह हुंकार की आवाज आ रही है, उसे तुम सुनते हो ?"
दमनक----"सुनता
हूँ स्वामी ! उस से क्या हुआ ?"
पिंगलक---"दमनक
! मैं इस वन से चले जाने की बात सोच रहा हूँ ।"
दमनक----"किस
लिये भगवन् !"
पिंगलक---"इसलिये
कि इस वन में यह कोई दूसरा बलशाली जानवर आ गया है; उसी
का यह भयंकर घोर गर्जन है । अपनी आवाज की तरह वह स्वयं भी इतना ही भयंकर होगा ।
उसका पराक्रम भी इतना ही भयानक होगा ।"
दमनक----"स्वामी
! ऊँचे शब्द मात्र से भय करना युक्तियुक्त नहीं है । ऊँचे शब्द तो अनेक प्रकार के
होते हैं । मेरी,
मृदंग, पटह, शंख,
काहल आदि अनेक वाद्य हैं जिनकी आवाज बहुत ऊँची होती है । उनसे कौन
डरता है ? यह जंगल आपके पूर्वजों के समय का है । वह यहीं
राज्य करते रहे हैं । उसे इस तरह छोड़कर जाना ठीक नहीं । ढोल भी कितनी जोर से बजता
है । गोमायु को उसके अन्दर जाकर ही पता लगा कि वह अन्दर से खाली था ।"
पिंगलक ने
कहा----"गोमायु की कहानी कैसे है ?"
दमनक ने तब
कहा----"ध्यान देकर सुनिए---
गोमायु नाम का गीदड़
एक बार भूखा-प्यासा जङगल में घूम रहा था । घूमते-घूमते वह एक युद्ध-भूमि में पहुँच
गया । वहाँ दो सेनाओं में युद्ध होकर शान्त हो गया था । किन्तु, एक
ढोल अभी तक वहीं पड़ा था । उस ढोल पर इधर-उधर लगी बेलों की शाखायें हवा से हिलती
हुई प्रहार करती थीं । उस प्रहार से ढोल में बड़ी जोर की आवाज होती थी ।
आवाज सुनकर गोमायु
बहुत डर गया । उसने सोचा ’इससे पूर्व कि यह भयानक शब्द वाला जानवर
मुझे देखे, मैं यहाँ से भाग जाता हूँ ।’ किन्तु, दूसरे ही क्षण उसे याद आया कि भय या आनन्द
के उद्वेग में हमें सहसा कोई काम नहीं करना चाहिये । पहिले भय के कारण की खोज करनी
चाहिये । यह सोचकर वह धीरे-धीरे उधर चल पड़ा, जिधर से शब्द आ
रहा था । शब्द के बहुत निकट पहुँचा तो ढोल को देखा । ढोल पर बेलों की शाखायें चोट
कर रही थीं । गोमायु ने स्वयं भी उसपर हाथ मारने शुरु कर दिये । ढोल और भी जोर से
बज उठा ।
गीदड़ ने सोचा : ’यह
जानवर तो बहुत सीधा-सादा मालूम होता है । इसका शरीर भी बहुत बड़ा है । मांसल भी है
। इसे खाने से कई दिनों की भूख मिट जायगी । इसमें चर्बी, मांस,
रक्त खूब होगा ।’ यह सोचकर उसने ढोल के ऊपर
लगे हुए चमडे़ में दांत गड़ा दिये । चमड़ा बहुत कठोर था, गीदड़
के दो दांत टूट गये । बड़ी कठिनाई से ढोल में एक छिद्र हुआ । उस छिद्र को चौड़ा करके
गोमायु गीदड़ जब नगाडे़ में घुसा तो यह देखकर बड़ा निराश हुआ कि वह तो अन्दर से
बिल्कुल खाली है; उसमें रक्त, मांस,
मज्जा थे ही नहीं ।
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इसीलिये मैं कहता हूँ
कि शब्द-मात्र से डरना उचित नहीं है ।"
पिंगलक ने
कहा----"मेरे सभी साथी उस आवाज से डर कर जंगल से भागने की योजना बना रहे हैं
। इन्हें किस तरह धीरज बंधाऊँ ?"
दमनक----"इसमें
इनका क्या दोष ?
सेवक तो स्वामी का ही अनुकरण करते हैं । जैसा स्वामी होगा, वैसे ही उसके सेवक होंगे । यही संसार की रीति है । आप कुछ काल धीरज रखें,
साहस से काम लेम । मैं शीघ्र ही इस शब्द का स्वरुप देखकर आऊँगा
।"
पिंगलक ---- "तू
वहां जाने का साहस कैसे करेगा ?"
दमनक
----"स्वामी के आदेश का पालन करना ही सेवक का काम है । स्वामी की आज्ञा हो तो
आग मे कूद पडूँ,
समुद्र में छलांग मार दूं ।"
पिंगलक----"दम्नक
! जाओ,
इस शब्द का पता लगाओ । तुम्हारा मार्ग कल्याणकारी हो, यही मेरा आशीर्वाद है ।"
तब दमनक पिंगलक को
प्रणाम करके संजीवक के शब्द की ध्वनि का लक्ष्य बांध कर उसी दिशा में चल दिया ।
दमनक के जाने के बाद
पिंगलक ने सोचा ----’यह बात अच्छी नहीं हुई कि मैंने दमनक का
विश्वास करके उसके सामने अपने मन का भेद खोल दिया । कहीं वह उसका लाभ उठाकर दूसरे
पक्ष से मिल जाय और उसे मुझ पर आक्रमण करने के लिये उकसा दे तो बुरा होगा । मुझे
दमनक का भरोसा नहीं करना चाहिये था । वह पद्च्युत है, उसका
पिता मेरा प्रधानमन्त्री था । एक बार सम्मानित होकर अपमानित हुए सेवक विश्वासपात्र
नहीं होते । वे इस अपमान का बदला लेने का अवसर खोजते रहते हैं । इसलिये किसी दूसरे
स्थान पर जाकर ही दमनक की प्रतीज्ञा करता हूँ ।’
यह सोचकर वह दमनक की
राह देखता हुआ दूसरे स्थान पर अकेला ही चला गया ।
दमनक जब संजीवक के
शब्द का अनुकरण करता हुआ उसके पास पहुँचा तो यह देखकर उसे प्रसन्नता हुई कि वह कोई
भयंकर जानवर नहीं,
बल्कि सीधा-सादा बैल है । उसने सोचा---- ’अब
मैं सन्धि-विग्रह की कूटनीति से पिंगलक को अवश्य अपने वश में कर लूँगा ।
आपत्तिग्रस्त राजा ही मन्त्रियों के वश में होते हैं ।’
यह सोचकर वह पिंगलक
से मिलने के लिये वापिस चल दिया । पिंगलक ने उसे अकेले आता देखा तो उसके दिल में
धीरज बँधा । उसने कहा---"दमनक ! वह जानवर देखा तुमने ?"
दमनक---"आप की
दया से देख लिअय,
स्वामी !"
पिंगलक---"सचमुच
!"
दमनक----"स्वामी
के सामने असत्य नहीं बोल सकता मैं । आप की तो मैं देवता की तरह पूजा करता हूँ, आप
से झूठ कैसे बोल सकूँगा ?"
पिंगलक---"संभव
है तूने देखा हो,
इसमें विस्मय क्या ? और इसमें भी आश्चर्य नहीं
कि उसने तुझे नहीं मारा । महान् व्यक्ति महान् शत्रु पर ही अपना पराक्रम दिखाते
हैं; दीन और तुच्छ जन पर नहीं । आंधी का झोंका बड़े वृक्षों
को ही गिराता है, घासपात को नहीं ।"
दमनक----"मैं
दीन ही सही;
किन्तु आप की आज्ञा हो तो मैं उस महान् पशु को भी आप का दीन सेवक
बना दूँ ।"
पिंगलक ने लम्बी सांस
खींचते हुए कहा ---"यह कैसे होगा दमनक ?"
दमनक----"बुद्धि
के बल से सब कुछ हो सकता है स्वामी ! जो काम बड़े-बड़े हथियार नहीं कर सकते, वह
छोटी-सी बुद्धि कर देती है ।"
पिंगलक---"यदि
यही बात है तो मैं तुझे आज से अपना प्रधान-मन्त्री बनाता हूँ । आज से मेरे राज्य
के इनाम बाँटने या दगड देने के काम तेरे ही अधीन होंगे ।"
पिंगलक से यह आश्वासन
पाने के बाद दमनक संजीवक के पास जाकर अकड़ता हुआ बोला---’अरे
दुष्ट बैल ! मेरा स्वामी पिंगलक तुझे बुला रहा है । तू यहाँ नदी के किनारे व्यर्थ
ही हुंकार क्यों करता रहता है ?"
संजीवक---"यह
पिंगलक कौन है ?"
दमनक----"अरे !
पिंगलक को नहीं जानता ? थोड़ी देर ठहर तो उसकी शक्ति को जान जायगा
। जंगल के सब जानवरों का स्वामी पिंगलक शेर वहाँ वृक्ष की छा़या में बैठा है
।"
यह सुनकर संजीवक के
प्राण सूख गये । दमनक के सामने गिड़गिड़ाता हुआ वह बोला---"मित्र ! तू सज्जन
प्रतीत होता है । यदि तू मुझे वहाँ ले जाना चाहता है तो पहले स्वामी से मेरे लिये
अभय वचन ले ले । तभी मैं तेरे साथ चलूँगा ।"
दमनक----"तेरा
कहना सच है मित्र ! तू यहीं बैठ, मैं अभय वचन लेकर अभी आता हूँ
।"
तब, दमनक
पिंगलक के पास जाकर बोला---"स्वामी ! वह कोई साधारण जीव नहीं है । वह तो
भगवान का वाहन बैल है । मेरे पूछने पर उसने मुझे बतलाया कि उसे भगवान ने प्रसन्न
होकर यमुना-तट की हरी-हरी घास खाने को यहाँ भेजा है । वह तो कहता है कि भगवान ने
उसे यह सारा वन खेलने और चरने को सौंप दिया है ।"
पिंगलक---"सच
कहते हो दमनक ! भगवान के आशीर्वाद के बिना कौन बैल है जो यहाँ इस वन में इतनी
निःशंकता से घूम सके । फिर तूने क्या उत्तर दिया, दमनक
!"
दमनक----"मैंने
उसे कहा कि इस वन में तो चंडिकावाहन रुप शेर पिंगलक पहले ही रहता है । तुम भी उसके
अतिथि बन कर रहो । उसके साथ आनन्द से विचरण करो । वह तुम्हारा स्वागत करेगा
।"
पिंगलक----"फिर, उसने
क्या कहा ?"
दमनक---"उसने यह
बात मान ली । और कहा कि अपने स्वामी से अभय वचन ले आओ, मैं
तुम्हारे साथ चलूँगा । अब स्वामी जैसा चाहें वैसा करुँगा ।"
दमनक की बात सुनकर
पिंगलक बहुत प्रसन्न हुआ, बोला----"बहुत अच्छा कहा दमनक,
तूने बहुत अच्छा कहा । मेरे दिल की बात कहदी । अब, उसे अभय वचन देकर शीघ्र मेरे पास ले आओ ।"
दमनक संजीवक के पास
जाते-जाते सोचने लगा----"स्वामी आज बहुत प्रसन्न हैं । बातों ही बातों में
मैंने उन्हें प्रसन्न कर लिया । आज मुझ से अधिक धन्यभाग्य कोई नहीं ।’
संजीवक के पास जाकर
दमनक सविनय बोला ---"मित्र ! मेरे स्वामी ने तुम्हें अभय वचन दे दिया है । अब
मेरे साथ आ जाओ । किन्तु, राजप्रासाद में जाकर कहीं अभिमानी न हो
जाना । मेरे साथ मित्रता का सम्बन्ध निभाना । मैं भी तुम्हारे संकेत से राज्य
चलाऊँगा । हम दोनों मिलकर राज्यलक्ष्मी का भोग करेंगे ।"
दोनों मिलकर पिंगलक
के पास गए । पिंगलक ने नखविभूषित दक्षिण ओर का हाथ उठाकर पिंगलक का स्वागत किया और
कहा---"कल्याण हो आप का ! आप इस निर्जन वन में कैसे आ गये !"
संजीवक ने सब
वृत्तान्त कह सुनाया । पिंगलक ने सब सुनकर कहा - "मित्र ! डरो मत । इस वन में
मेरा ही राज्य है । मेरी भुजाओं से रक्षित वन में तुम्हारा कोई बाल भी बांका नही
कर सकता । फिर भी,
अच्छा यही है कि तुम हर समय मेरे साथ रहो । वन में अनेक भयंकर पशू
रहते हैं । बड़े-बड़े हिंसक वनचरों को भी डरकर रहना पड़ता है; तुम
तो फिर हो ही निरामिष-भोजी ।"
शेर और बैल की इस
मैत्री के बाद कुछ दिन तो वन का शासन करटक-दमनक ही करते रहे; किन्तु
बाद में संजीवक के संपर्क से पिंगलक भी नगर की सभ्यता से परिचित होता गया । संजीवक
को सभ्य जीव मान कर वह उसका सम्मान करने लगा और स्वयं भी संजीवक की तरह सुसभ्य
होने का यत्न करने लगा । थोड़े दिन बाद संजीवक का प्रभाव पिंगलक पर इतना बढ़ गया कि
पिंगलक ने अन्य सब वनचारी पशुओं की उपेक्षा शुरु कर दी । प्रत्येक प्रश्न पर
पिंगलक संजीवक के साथ ही एकान्त में मन्त्रणा किया करता । करटक-दमनक बीच में दखल
नहीं दे पाते थे । संजीवक की इस मानवृद्धि से दमनक के मन में आग लग गई । वह संजीवक
की इस वृद्धि को सहन नहीं कर सका ।
शेर व बैल की इस
मैत्री का एक दुष्परिणाम यह भी हुआ कि शेर ने शिकार के काम में ढील कर दी ।
करटक-दमनक शेर का उच्छिष्ट मांस खाकर ही जीते थे । अब वह उच्छिष्ट मांस बहुत कम हो
गया था । करटक-दमनक इससे भूखे रहने लगे । तब वे दोनों इसका उपाय सोचने लगे ।
दमनक बोला
---"करटक भाई ! यह तो अनर्थ हो गया । शेर की दृष्टि में महत्त्व पाने के लिये
ही तो मैंने यह प्रपंच रचा था । इसी लक्ष्य से मैंने संजीवक को शेर से मिलाया था ।
अब उसका परिणाम सर्वथा विपरीत ही हो रहा है । संजीवक को पाकर स्वामी ने हमें
बिल्कुल भुला दिया है । हम ही क्या, सारे वनचरों को उसने भुला
दिया है । यहाँ तक कि अपना काम भी वह भूल गया है ।
करटक ने कहा ---
"किन्तु,
इसमें भूल किस की है ? तूने ही दोनों की भेंट
कराई थी । अब तू ही कोई उपाय कर, जिससे इन दोनों में बैर हो
जाय ।"
दमनक ----"जिसने
मेल करा है,
वह फूट भी डाल सकता है ।"
करटक ---- "यदि
इनमें से किसी को भी यह ज्ञान हो गया कि तू फूट कराना चाहता है तो तेरा कल्याण
नहीं ।"
दमनक ---- "मैं
इतना कच्चा खिलाड़ी नहीं हूँ । सब दाव-पेच जानता हूँ ।"
करटक----"मुझे
तो फिर भी भय लगता है । संजीवक बुद्धिमान है, वह ऐसा नहीं होने देगा
।"
दमनक ---- "भाई
! मेरा बुद्धि-कौशल सब करा देगा । बुद्धि के बल से असंभव भी संभव हो जाता है । जो
काम शस्त्रास्त्र से नहीं हो पाता, वह बुद्धि से हो जाता है :
जैसे सोने की माला से काकपत्नी ने काले सांप का वध किया
था ।
करटक ने पूछा
---"वह कैसे ?"
दमनक ने तब ’साँप
और कौवे की कहानी’ सुनाई ।
एक स्थान पर वटवृक्ष
की एक बड़ी खोल में कौवा-कौवी रहते थे । उसी खोल के पास एक काला सांप भी रहता था ।
वह सांप कौवी के नन्हे-नन्हे बच्चों को उनके पंख निकलने से पहिले ही खा जाता था ।
दोनों इससे बहुत दुःखी थे । अन्त में दोनों ने अपनी दुःखभरी कथा उस वृक्ष के नीचे
रहेन वाले एक गीदड़ को सुनाई, और उससे यह भी पूछा कि अब
क्या किया जाय । सांप वाले घर में रहना प्राण-घातक है ।
गीदड़ ने कहा ---
"इसका उपाय चतुराई से ही हो सकता है । शत्रु पर उपाय द्वारा विजय पाना अधिक
आसान है । एक बार एक बगुला बहुत-सी उत्तम-मध्यम-अधम मच्छलियों को खाकर प्रलोभ-वश
एक कर्कट के हाथों उपाय से ही मारा गया था ।"
दोनों ने
पूछा----"कैसे ?"
तब गीदड़ ने कहा
----"सुनो----
एक जंगल में बहुत-सी
मछ्लियों से भरा एक तालाब था । एक बगुला वहाँ प्रति-दिन मछलियों को खाने के लिये
आता था,
किन्तु वृद्ध होने के कारण मछलियों को पकड़ नहीं पाता था । इस तरह भूख
से व्याकुल हुआ-हुआ वह एक दिन अपने बुढ़ापे पर रो रहा था कि एक केकड़ा उधर आया ।
उसने बगुले को निरन्तर आँसू बहाते देखा तो कहा---"मामा ! आज तुम पहिले की तरह
आनन्द से भोजन नहीं कर रहे, और आँखों से आँसू बहाते हुए बैठे
हो; इसका क्या कारण है ?"
बगुले ने
कहा-----"मित्र ! तुम ठीक कहते हो । मुझे मछलियों को भोजन बनाने से विरक्ति
हो चुकी है । आज कल अनशन कर रहा हूँ । इसी से मैं पास में आई मछलियों को भी नहीं
पकड़ता ।"
केकडे़ ने यह सुनकर
पूछा----"मामा ! इस वैराग्य का कारण क्या है ?"
बगुला
----"मित्र ! बात यह है कि मैंने इस तालाब में जन्म लिया, बचपन
से यहीं रहा हूँ और यहीं मेरी उम्र गुजरी है । इस तालाब और तालाब-वासियों से मेरा
प्रेम है । किन्तु मैंने सुना है कि अब बड़ा भारी अकाल पड़ने वाला है । १२ वर्षों तक
वृष्टि नहीं होगी ।"
केकड़ा----"किससे
सुना है ?"
बगुला ----"एक
ज्योतिषी से सुना है । यह शनिश्वर जब शकटाकार रोहिणी तारकमण्डल को खंडित करके शुक
के साथ एक राशि में जायगा, तब १२ वर्ष तक वर्षा नहीं होगी । पृथ्वी
पर पाप फैल जायगा । माता-पिता अपनी सन्तान का भक्षण करने लगेंगे । इस तालाब में
पहले ही पानी कम है । यह बहुत जल्दी सूख जायगा ॥ इसके सूखने पर मेरे सब बचपन के
साथी, जिनके बीच मैं इतना बड़ा हुआ हूँ , मर जायंगे । उनके वियोग-दुःख की कल्पना से ही मैं इतना रो रहा हूँ । और
इसीलिए मैंने अनशन किया है । दुसरे जलाशयों के सभी जलचर अपने छोटे-छोटे तालाब
छोड़कर बड़ी-बड़ी झीलों में चले जा रहे हैं । बड़े-बड़े जलचर तो स्वयं ही चले जाते हैं,
छोटों के लिए ही कठिनाई है । दुर्भाग्य से इस जलाशय के जलचर बिल्कुल
निश्चिन्त बैठे हैं---मानो, कुछ होने वाला ही नहीं है । उनके
लिए ही मैं रो रहा हूँ; उनका वंशनाश हो जायगा ।"
केकड़े ने बगुले के
मुख से यह बात सुनकर अन्य सब मछलियों को भी भावी दुर्घटना की सूचना दे दी । सूचना
पाकर जलाशय के सभी जलचरों----मछलियों, कछुए आदि ने बगुले को घेरकर
पूछना शुरु कर दिया ----"मामा ! क्या किसी उपाय से हमारी रक्षा हो सकती है ?"
बगुला बोला
----"यहाँ से थोड़ी दूर पर एक प्रचुर जल से भरा जलाशय है । वह इतना बड़ा है कि
२४ वर्ष सूखा पड़ने पर भी न सूखे । तुम यदि मेरी पीठ पर चढ़ जाओगे तो तुम्हें वहाँ
ले चलूंगा ।"
यह सुनकर सभी मछलियों, कछुओं
और अन्य जलजीवों ने बगुले को ’भाई’, ’चाचा’
पुकारते हुए चारों ओर से घेर लिया और चिल्लाना शुरु कर दिया----’पहले मुझे’, ’पहले मुझे’।
वह दुष्ट भी सब को
बारी-बारी अपनी पीठ पर बिठाकर जलाशय से कुछ दूर ले जाता और वहाँ एक शिला पर उन्हें
पटक-पटक कर मार देता था । दूसरे दिन उन्हें खाकर वह फिर जलाशय में आ जाता और नये
शिकार ले जाता । कुछ दिन बाद केकड़े ने बगुले से कहा ---
"मामा ! मेरी
तुम से पहले-पहल भेंट हुई थी, फिर भी आज तक मुझे नहीं ले
गये । अब प्रायः सभी नये जलाशय तक पहुँच चुके हैं; आज मेरा
भी उद्धार कर दो ।"
केकड़े की बात सुनकर
बगुले ने सोचा,
’मछलियाँ खाते-खाते मेरा मन भी अब ऊब गया है । केकडे़ का मांस चटनी
का काम देगा । आज इसका ही आहार करुँगा ।’
यह सोचकर उसने केकड़े
को गर्दन पर बिठा लिया और वध-स्थान की ओर ले चला ।
केकड़े ने दूर से ही
जब एक शिला पर मछलियों की हड्डियों का पहाड़ सा लगा देखा तो वह समझ गया कि यह बगुला
किस अभिप्राय से मछलियों को यहाँ लाता था । फिर भी वह असली बात को छिपाकर प्रगट
में बोला--"मामा ! वह जलाशय अब कितनी दूर रह गया है ? मेरे
भार से तुम इतना थक गये होगे, इसीलिए पूछ रहा हूँ ।"
बगुले ने सोचा, अब
इसे सच्ची बात कह देने में भी कोई हानि नहीं है; इसलिए वह
बोला---"केकडे़ साहब ! दूसरे जलाशय की बात अब भूल जाओ । यह तो मेरी
प्राणयात्रा चल रही थी । अब तेरा भी काल आ गया है । अन्तिम समय में देवता का स्मरण
कर ले । इसी शिला पर पटक कर तुझे भी मार डालूंगा और खा जाऊँगा ।"
बगुला अभी यह बात कह
ही रहा था कि केकड़े ने अपने तीखे दांत बगुला की नरम, मुलायम
गरदन पर गाड़ दिये । बगुला वहीं मर गया । उसकी गरदन कट गई ।
केकड़ा मृत-बगुले की
गरदन लेकर धीरे-धीरे अपने पुराने जलाशय पर ही आ गया । उसे देखकर उसके भाई-बन्दों
ने उसे घेर लिया और पूछने लगे ----"क्या बात है ? आज
मामा नहीं आए ? हम सब उनके साथ नए जलाशय पर जाने को तैयार
बैठे हैं ।"
केकडे़ ने हँसकर
उत्तर दिया ---"मूर्खो ! उस बगुले ने सभी मछलियों को यहाँ से ले जाकर एक शिला
पर पटक कर मार दिया है ।" यह कहकर उसने अपने पास से बगुले की कटी हुई गरदन
दिखाई और कहा----"अब चिन्ता की कोई बात नहीं है, तुम
सब यहाँ आनन्द से रहोगे ।"
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गीदड़ ने जब यह कथा
सुनाई तो कौवे ने पूछा---"मित्र ! उस बगुले की तरह यह साँप भी किसी तरह मर
सकता है ?"
गीदड़ ----"एक
काम करो । तुम नगर के राजमहल में चले जाओ । वहाँ से रानी का कंठहार उठाकर साँप के
बिल के पास रख दो । राजा के सैनिक कण्ठहार की खोज में आयेंगे और साँप को मार देंगे
।"
दूसरे ही दिन कौवी
राजमहल के अन्तःपुर में जाकर एक कण्ठहार उठा लाई । राजा ने सिपाहियों को उस कौवी
का पीछा करने का आदेश दिया । कौवी ने वह कण्ठहार साँप के बिल के पास रख दिया ।
साँप ने उस हार को देखकर उस पर अपना फन फैल दिया था । सिपाहियों ने साँप को लाठियों
से मार दिया और कण्ठहार ले लिया ।
उस दिन के बाद
कौवा-कौवी की सन्तान को किसी साँप ने नहीं खाया । तभी मैं कहता हूँ कि उपाय से ही
शत्रु को वश में करना चाहिये ।
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दमनक ने फिर
कहाअ---"सच तो यह है कि बुद्धि का स्थान बल से बहुत ऊँचा है । जिसके पास बुद्धि
है,
वही बली है । बुद्धिहीन का बल भी व्यर्थ है । बुद्धिमान निर्बुद्धि
को उसी तरह हरा देते हैं जैसे खरगोश ने शेर को हरा दिया था ।
करटक ने पूछा
----"कैसे ?"
दमनक ने तब ’शेर-खरगोश
की कथा’ सुनाई---
एक जंगल में भासुरक
नाम का शेर रहता था । बहुत बलशाली होने के कारण वह प्रतिदिन जंगल के अनेक
मृग-खरगोश-हिरण-रीछ-चीता आदि पशुओं को मारा करता था ।
एक दिन जंगल के सभी
जानवरों ने मिलकर सभा की और निश्चय किया कि भासुरक शेर से प्रार्थना की जाय कि वह
अपने भोजन के लिये प्रतिदिन एक पशु से अधिक की हत्या न किया करे । इस निश्चय को
शेर तक पहुँचाने के लिये पशुओं के प्रतिनिधि शेर से मिले । उन्होंने शेर से निवेदन
किया कि उसे रोज एक पशु बिना शिकार के मिल जाया करेगा, इसलिए
वह अनगिनत पशुओं का शिकार न किया करे । शेर यह बात मान गया । दोनों ने प्रतिज्ञा
की कि वे अपने वचनों का पालन करेंगे ।
उस दिन के बाद से वन
के अन्य पशु वन में निर्भय घूमने लगे । उन्हें शेर का भय नहीं रहा । शेर को भी घर
बैठे एक पशु मिलता रहा । शेर ने यह धमकी दे दी थी कि जिस दिन उसे कोई पशु नहीं
मिलेगा उस दिन वह फिर अपने शिकार पर निकल जायगा और मनमाने पशुओं की हत्या कर देगा
। इस डर से भी सब पशु यथाक्रम एक-एक पशु को शेर के पास भेजते रहे ।
इसी क्रम से एक दिन
खरगोश की बारी आगई । खरगोश शेर की मांद की ओर चल पड़ा । किन्तु, मृत्यु
के भय से, उसके पैर नहीं उठते थे । मौत की घड़ियों को कुछ देर
और टालने के लिये वह जंगल में इधर-उधर भटकता रहा । एक स्थान पर उसे एक कुआँ दिखाई
दिया । कुएँ में झांक कर देखा तो उसे अपनी परछांई दिखाई दी । उसे देखकर उसके मन
में एक विचार उठा---- "क्यों न भासुरक को उसके वन में दूसरे शेर के नाम से
उसकी परछांई दिखाकर इस कुएँ में गिरा दिया जाय ?"
यही उपाय सोचता-सोचता
वह भासुरक शेर के पास बहुत समय बीते पहुँचा । शेर उस समय तक भूखा-प्यासा होंठ
चाटता बैठा था । उसके भोजन की घड़ियां बीत रही थीं । वह सोच ही रहा था कि कुछ देर
और कोई पशु न आया तो वह अपने शिकार पर चल पड़ेगा और पशुओं के खून से सारे जंगल को
सींच देगा । इसी बीच वह खरगोश उसके पास पहुँच गया और प्रणाम करके बैठ गया ।
खरगोश को देखकर शेर
ने कोध से लाल-लाल आंखे करते हुए गरजकर कहा---"नीच खरगोश ! एक तो तू इतना
छोटा है,
और फिर इतनी देर लगाकर आया है; आज तुझे मार कर
कल मैं जंगल के सारे पशुओं की जान ले लूंगा, वंश नाश कर दूंगा
।"
खरगोश ने विनय से सिर
झुकाकर उत्तर दिया ---
"स्वामी ! आप
व्यर्थ क्रोध करते हैं । इसमें न मेरा अपराध है, और न
ही अन्य पशुओं का । कुछ भी फैसला करने से पहले देरी का कारण तो सुन लीजिये ।"
शेर---"जो कुछ
कहना है,
जल्दी कह । मैं बहुत भूखा हूँ, कहीं तेरे कुछ
कहने से पहले ही तुझे अपनी दाढ़ों में न चबा जाऊँ ।"
खरगोश---"स्वामी
! बात यह है कि सभी पशुओं ने आज सभा करके और यह सोचकर कि मैं बहुत छोटा हूँ, मुझे
तथा अन्य चार खरगोशों को आपके भोजन के लिए भेजा था । हम पाँचों आपके पास आ रहे थे
कि मार्ग में कोई दूसरा शेर अपनी गुफा से निकल कर आया और बोला ---"अरे ! किधर
जा रहे हो तुम सब ? अपने देवता का अन्तिम स्मरण कर को,
मैं तुम्हें मारने आया हूँ ।" मैंने उसे कहा कि "हम सब
अपने स्वामी भासुरक शेर के अपस आहार के लिए जा रहे हैं ।" तब वह बोला,
"भासुरक कौन होता है ? यह जंगल तो मेरा
है । मैं ही तुम्हारा राजा हूँ । तुम्हें जो बात कहनी हो मुझ से कहो । भासुरक चोर
है । तुम में से चार खरगोश यहीं रह जायें, एक खरगोश भासुरक
के पास जाकर उसे बुला लाए । मैं उससे स्वयं निपट लूंगा । हममें जो शेर अधिक बली
होगा वही इस जंगल का राजा होगा ।" अब मैं किसी तरह उससे जान छुड़कार आप के
पास आया हूँ । इसीलिये मुझे देर हो गई । आगे स्वामी की जो इच्छा हो, करें ।"
यह सुनकर भासुरक
बोला--"ऐसा ही है तो जल्दी से मुझे उस दूसरे शेर के पास ले चल । आज मैं उसका
रक्त पीकर ही अपनी भूख मिटाऊँगा । इस जंगल में मैं किसी दूसरे का हस्तक्षेप पसन्द
नहीं करता ।"
खरगोश----"स्वामी
! यह तो सच है कि अपने स्वत्व के लिये युद्ध करना आप जैसे शूरवीरों का धर्म है, किन्तु
दूसरा शेर अपने दुर्ग में बैठा है । दुर्ग से बाहिर आकर ही उसने हमारा रास्ता रोका
था । दुर्ग में रहने वाले शत्रु पर विजय पाना बड़ा कठिन होता है । दुर्ग में बैठा
एक शत्रु सौ शत्रु के बराबर माना जाता है । दुर्गहीन राजा दन्तहीन साँप और मदहीन
हाथी की तरह कमजोर हो जाता है ।"
भासुरक----"तेरी
बात ठीक है,
किन्तु मैं उस दुर्गस्थ शेर को भी मार डालूँगा । शत्रु को जितनी
जल्दी हो नष्ट कर देना चाहिये । मुझे अपने बल पर पूरा भरोसा है । शीघ्र ही उसका
नाश न किया गया तो वह बाद में असाध्य रोग की तरह प्रबल हो जायगा ।"
खरगोश----"यदि
स्वामी का यही निर्णय है तो आप मेरे साथ चलिये ।"
यह कहकर खरगोश भासुरक
शेर को उसी कुएँ के पास ले गया, जहाँ झुककर उसने अपनी परछाई
देखी थी । वहाँ जाकर वह बोला---
"स्वामी ! मैंने
जो कहा था वही हुआ । आप को दूर से ही देखकर वह अपने दुर्ग में घुस गया है । आप
आइये,
मैं आप को उसकी सूरत तो दिखा दूं ।"
भासुरक---"जरुर
! उस नीच को देखकर मैं उसके दुर्ग में ही उससे लडूगाँ ।"
खरगोश शेर को कुएँ की
मेढ़ पर ले गया । भासुरक ने झुककर कुएँ में अपनी परछाईं देखी तो समझा कि यही दूसरा
शेर है । तब,
वह जोर से गरज । उसकी गर्ज के उत्तर मेम कुएँ से दुगनी गूंज पैदा
हुई । उस गूंज को प्रतिपक्षी शेर की ललकार समझ कर भासुरक उसी क्षण कुएँ में कूद
पड़ा, और वहीं पानी में डूबकर प्राण दे दिये ।
खरगोश ने अपनी
बुद्धिमत्ता से शेर को हरा दिया । वहाँ से लौटकर वह पशुओं की सभा में गया । उसकी
चतुराई सुनकर और शेर की मौत का समाचार सुनकर सब जानवर खुशी से नाच उठे ।
इसीलिये मैं कहता हूँ
कि "बली वही है जिसके पास बुद्धि का बल है ।"
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दमनक ने कहानी सुनाने
के बाद करटक से कहा कि---"तेरी सलाह हो तो मैं भी अपनी बुद्धि से उनमें फूट
डलवा दूं । अपनी प्रभुता बनाने का यही एक मार्ग है । मैत्री भेद किये बिना काम
नहीं चलेगा ।"
करटक----"मेरि
भी यही राय है । तू उनमें भेद कराने का यत्न कर । ईश्वर कर तुझे सफलता मिले
।"
वहाँ से चलकर दमनक
पिंगलक के पास गया । उस समय पिंगलक के पास संजीवक नहीं बैठा था । पिंगलक ने दमनक
को बैठने का इशारा करते हुए कहा----"कहो दमनक ! बहुत दिन बाद दर्शन दिये
।"
दमनक----"स्वामी
! आप को अब हम से कुछ प्रयोजन ही नहीं रहा तो आने का क्या लाभ ? फिर
भी आप के हित की बात कहने को आप के पास आ जाता हूँ । हित की बात बिना पूछे भी कह
देनी चाहिये ।"
पिंगलक----"जो
कहना हो,
निर्भय होकर कहो । मैं अभय वचन देता हूँ ।"
दमनक
----"स्वामी ! संजीवक आप का मित्र नहीं, वैरी है । एक दिन उसने
मुझे एकान्त में कहा था कि, "पिंगलक का बल मैंने देख
लिया; उसमें विशेष सार नहीं है, उसको
मारकर मैं तुझे मन्त्री बनाकर सब पशुओं पर राज्य करुँगा ।"
दमनक के मुख से इन
वज्र की तरह कठोर शब्दों को सुनकर पिङगलक ऐसा चुप रहा गया मानो मूर्छना आ गई
हो । दमनक ने जब
पिङगलक की यह अवस्था देखी तो सोचा---’पिङगलक का संजीवक से प्रगाढ़
स्नेह है, संजीवक ने इसे वश में कर रखा है, जो राजा इस तरह मन्त्री के वश में हो जाता है वह नष्ट हो जाता है ।’
यह सोचकर उसने पिङगलक के मन से संजीवक का जादू मिटाने का निश्चय और
भी पक्का कर लिया ।
पिङगलक ने थोड़ा होश
में आकर किसी तरह धैर्य धारण करते हुए कहा----"दमनक ! संजीवक तो हमारा बहुत
ही विश्वासपात्र नौकर है । उसके मन में मेरे लिये वैर भावना नहीं हो सकती ।"
दमनक----"स्वामी
! आज जो विश्वास-पात्र है, वही कल विश्वास-घातक बन जाता है । राज्य
का लोभ किसी के भी मन को चंचल बना सकता है । इसमें अनहोनी कोई बात नहीं ।"
पिङगलक
----"दमनक ! फिर भी मेरे मन में संजीवक के लिये द्वेष-भावना नहीं उठती । अनेक
दोष होने पर भी प्रियजनों को छोड़ा नहीं जाता । जो प्रिय है, वह
प्रिय ही रहता है ।"
दमनक--- तो
राज्य-संचालन के लिए बुरा है । जिसे भी आप स्नेह का पात्र बनायेंगे वही आपका प्रिय
हो जाएगा । इसमें संजीवक की कोई विशेषता नहीं । विशेषता तो आपकी है । आपने उसे
अपना प्रिय बना लिया तो वह बन गया । अन्यथा उसमें गुण ही कौन-सा है ? यदि
आप यह समझते हैं कि उसका शरीर बहुत भारी है, और वह
शत्रु-संहार में सहायक होगा, तो यह आपकी भूल है । वह तो
घास-पात खाने वाला जीव है । आपके शत्रु तो सभी मांसाहारी हैं । अतः उसकी सहायता से
शत्रु-नाश नहीं हो सकता । आज वह आपको धोखे से मारकर राज्य करना चाहता है । अच्छा
है कि उसका षड्यन्त्र पकने से पहले ही उसको मार दिया जाए ।"
पिङगलकः---"दमनक
! जिसे हम ने पहले गुणी मानकर अपनाया है उसे राज-सभा में आज निर्गुण कैसे कह सकते
हैं ? फिर
तेरे कहने से ही तो मैंने उसे अभयवचन दिया था । मेरा मन कहता है कि संजीवक मेरा
मित्र है, मुझे उसके प्रति कोई क्रोध नहीं है । यदि उसके मन
में वैर आ गया हिअ तो भी मैं उसके प्रति वैर-भावना नहीं रखता । अपने हाथों लगाया
विष-वृक्ष भी अपने हाथों नहीं काटा जाता ।"
दमनक----"स्वामी
! यह आपकी भावुकता है । राज-धर्म इसका आदेश नहीं देता । वैर बुद्धि रखने वाले को
क्षमा करना राजनीति की दृष्टि से मूर्खता है । आपने उसकी मित्रता के वश में आकर
सारा राज-धर्म भुला दिया है । आपके राज-धर्म से च्युत होने के कारण ही जङगल के
अन्य पशु आपसे विरक्त हो गए हैं । सच तो यह है कि आप में और संजीवक में मैत्री
होना स्वाभाविक ही नहीं है । आप मांसाहारी हैं, वह
निरामिषभोजी । यदि आप उस घासपात खाने वाले को अपना मित्र बनायेंगे तो अन्य पशु आप
से सहयोग करना बन्द कर देंगे । यह भी आपके राज्य के लिए बुरा होगा । उसके संग से
आपकी प्रकृति में भी वे दुर्गुण आ जायेंगे जो शाकाहारियों में होते हैं । शिकार से
आपको अरुचि हो जाएगी । आपका सहवास अपनी प्रकृति के पशुओं से ही होना चाहिए ।
इसीलिए साधु लोग नीच
का संग छोड़ देते हैं । संग-दोष से ही खटमल की मन्दगति के कारण वेगवती जू को भी
मरना पड़ा था ।"
पिङगलक ने पूछा
----"यह कथा कैसे है ?"
दमनक ने
कहा---"सुनिये---
एक राजा के शयन-गृह
में शैया पर बिछी सफेद चादरों के बीच एक मन्दविसर्पिणी सफेद जूं रहती थी । एक दिन
इधर-उधर घूमता हुआ एक खटमल भी वहाँ आ गया । उस खटमल का नाम था ’अन्गिमुख’
।
अग्निमुख को देखकर
दुःखी जूं ने कहा ----"हे अग्निमुख ! तू यहाँ अनुचित स्थान पर आ गया है । इस
से पूर्व कि कोई आकर तुझे देखे, यहां से भाग जा ।"
खटमल
बोला----"भगवती ! घर आये दुष्ट व्यक्ति का भी इतना अनादर नहीं किया जाता, जितना
तू मेरा कर रही है । उससे भी कुशल-क्षेम पूछा जाता है । घर बनाकर बैठने वालों का
यही धर्म है । मैंने आज तक अनेक प्रकार का कटु -तिक्त-कषाय-अम्ल रस का खून पिया है;
केवल मीठा खून नहीं पिया । आज इस राजा के मीठे खून का स्वाद लेना
चाहता हूँ । तू तो रोज ही मीठा खून पीती है । एक दिन मुझे भी उसका स्वाद लेने दे
।"
जूं
बोली----"अग्निमुख ! मैं राजा के सो जाने के बाद उस का खून पीती हूँ । तू बड़ा
चंचल है,
कहीं मुझ से पहले ही तूने खून पीना शुरु कर दिया तो दोनों मारे
जायँगे । हाँ, मेरे पीछे रक्तपान करने की प्रतिज्ञा करे तो
एक रात भले ही ठहर जा ।"
खटमल
बोला---"भगवती ! मुझे स्वीकार है । मैं तब तक रक्त नहीं पीऊँगा जब तक तू नहीं
पीलेगी । वचन भंग करुँ तो मुझे देव-गुरु का शाप लगे ।"
इतने में राजा ने
चादर ओढ़ ली । दीपक बुझा दिया । खटमल बड़ा चंचल था । उसकी जीभ से पानी निकल रहा था ।
मीठे खून के लालच से उसने जूं के रक्तपान से पहले ही राजा को काट लिया । जिसका जो
स्वभाव हो,
वह उपदेशों से नहीं छूटता । अग्नि अपनी जलन और पानी अपनी शीतलता के
स्वभाव को कहां छोड़ सकती है ? मर्त्य जीव भी अपने स्वभाव के
विरुद्ध नहीं जा सकते ।
अग्निमुख के पैने
दांतों ने राजा को तड़पा कर उठा दिया । पलंग से नीचे कूद कर राजा ने सन्तरी से
कहा---"देखो,
इस शैया में खटमल या जूं अवश्य है । इन्हीं में से किसी ने मुझे
काटा है ।" सन्तरियों ने दीपक जला कर चादर की तहें देखनी शुरु कर दीं । इस
बीच खटमल जल्दी से भागकर पलंग के पावों के जोड़ में जा छिपा । मन्दविसर्पिणी जूं
चादर की तह में ही छिपी थी । सन्तरियों ने उसे देखकर पकड़ लिया और मसल डाला ।"
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दमनक शेर से बोला ----"इसलिये
मैं कहता हूँ कि संजीवक को मार दो, अन्यथा वह आपको मार देगा,
अथवा उसकी संगति से आप जब स्वभाव-विरुद्ध काम करेंगे, अपनों को छोड़कर परायों को अपनायेंगे, तो आप पर वही
आपत्ति आजायगी जो ’चंडरव’ पर आई थी ।
पिंगलक ने
पूछा----"कैसे ?"
दमनक ने कहा----"सुनो---
एक दिन जंगल में रहने
वाला चंडरव नाम का गीदड़ भूख से तड़पता हुआ लोभवश नगर में भूख मिटाने के लिये आ
पहुँचा ।
उसके नगर में प्रवेश
करते ही नगर के कुत्तों ने भौंकते-भौंकते उसे घेर लिया और नोचकर खाने लगे ।
कुत्तों के डर से चंडरव भी जान बचाकर भागा । भागते-भागते जो भी दरवाजा पहले मिला
उसमें घुस गया । वह एक धोबी के मकान का दरवाजा था । मकान के अन्दर एक बड़ी कड़ाही
में धोबी ने नील घोलकर नीला पानी बनाया हुआ था । कड़ाही नीले पानी से भरी थी । गीदड़
जब डरा हुआ अन्दर घुसा तो अचानक उस कडा़ही में जा गिरा । वहाँ से निकला तो उसका
रंग ही बदला हुआ था । अब वह बिल्कुल नीले रंग का हो गया । नीले रंग में रंगा हुआ
चंडरव जब वन में पहुँचा तो सभी पशु उसे देखकर चकित रह गये । वैसे रंग का जानवर
उन्होंने आज तक नहीं देखा था ।
उसे विचित्र जीव
समझकर शेर,
बाघ, चीते भी डर-डर कर जंगल से भागने लगे ।
सबने सोचा, " न जाने इस विचित्र पशु में कितना सामर्थ्य
हो । इससे डरना ही अच्छा है....।"
चंडरव ने जब सब पशुओं
को डरकर भागते देखा तो बुलाकर बोला----"पशुओ ! मुझसे डरते क्यों हो ? मैं
तुम्हारि रक्षा के लिये यहाँ आया हूँ । त्रिलोक के राजा ब्रह्मा ने मुझे आज ही
बुलाकर कहा था कि----"आजकल चौपायों का कोई राजा नहीं है । सिंहमृगादि सब
राजाहीन हैं । आज मैं तुझे उन सब का राजा बनाकर भेजता हूँ । तू वहाँ जाकर सबकी
रक्षा कर ।’ इसीलिये मैं यहाँ आ गया हूँ । मेरी छत्रछाया मैं
सब पशु आनन्द से रहेंगे । मेरा नाम ककुद्द्रुम राजा है ।"
यह सुनकर शेर-बाघ आदि
पशुओं ने चंडरव को राजा मान लिया; और बोले, "स्वामी ! हम आपके दास हैं, आज्ञा-पालक हैं । आगे से
आप की आज्ञा का ही हम पालन करेंगे ।"
चंडरव ने राजा बनने
के बाद शेर को अपना प्रधान मंत्री बनाया, बाघ को नगर-रक्षक और
भेड़िये को सन्तरी बनाया । अपने आत्मीय गीदड़ों को जंगल से बाहर निकाल दिया । उनसे
बात भी नहीं की ।
उसके राज्य में शेर
आदि जीव छोटे-छोटे जानवरों को मारकर चंडरव कीं भेंट करते थे; चंडरव
उनमें से कुछ भाग खाकर शेष अपने नौकरों-चाकरों में बाँट देता था ।
कुछ दिन तो उसका राज्य
बड़ी शान्ति से चलता रहा । किन्तु एक दिन बड़ा अनर्थ हो गया ।
उस दिन चंडरव को दूर
से गीदड़ों की किलकारियाँ सुनाई दीं । उन्हें सुनकर चंडरव का रोम-रोम खिल उठा ।
खुशी में पागल होकार वह भी किल्करियाँ मारने लगा ।
शेर-बाघ आदि पशुओं ने
जब उसकी किलकारियाँ सुनीं तो वे समझ गये कि यह चंडरव ब्रह्मा का दूत नहीं, बल्कि
मामूली गीदड़ है । अपनी मूर्खता पर लज्जा से सिर झुकाकर वे आपस में सलाह करने
लगे---"स गीदड़ ने तो हमें खूब मूर्ख बनाया, इसे इसका
दंड दो, इसे मार डालो ।"
चंडरव ने शेर-बाघ आदि
की बात सुन ली । वह भी समझ गया कि अब उसकी पोल खुल गई है । अब जान बचानी कठिन है ।
इसलिये वह वहाँ से भागा । किन्तु, शेर के पंजे से भागकर कहाँ
जाता ? एक ही छलांग में शेर ने उसे दबोच कर खंड-खंड कर दिया
।
इसीलिये मैं कहता हूँ
कि जो आत्मीयों को दुत्कार कर परायों को अपनाता है उसका नाश हो जाता है ।"
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दमनक की बात सुनकर
पिंगलक ने कहा---"दमनक ! अपनी बात को तुम्हें प्रमाणित करना होगा । इसका क्या
प्रमाण है कि संजीवक मुझे द्वेषभाव से देखता है ।"
दमनक----"इसका
प्रमाण आप स्वयं अपनी आँखों से देख लेना । आज सुबह ही उसने मुझ से यह भेद प्रगट
किया है कि कल वह आपका वध करेगा । कल यदि आप उसे अपने दरबार में लड़ाई के लिये
तैयार देखें,
उसकी आँखें लाल हों, होंठ फड़कते हों, एक ओर बैठकर आप को क्रूर वक्रदृष्टि से देख रहा हो, तब
आप को मेरी बात पर स्वयं विश्वास हो जायगा ।"
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शेर पिंगलक को संजीवक
बैल के विरुद्ध उकसाने के बाद दमनक संजीवक के पास गया । संजीवक ने जब उसे घबड़ाये
हुए आते देखा तो पूछा---"मित्र ! स्वागत हो । क्या बात है ? बहुत
दिन बाद आए ? कुशल तो है ?"
दमनक---"राज-सेवकों
के कुशल का क्या पूछना ? उनका चित्त सदा अशान्त रहता है । स्वेच्छा
से वे कुछ भी नहीं कर सकते । निःशंक होकर एक शब्द भी नहीं बोल सकते । इसीलिये
सेवावृत्ति को सब वृत्तियों से अधम कहा जाता है ।"
संजीवक----"मित्र
! आज तुम्हारे मन में कोई विशेष बात कहने को है, वह
निश्चिन्त होकर कहो । साधारणतया राजसचिवों को सब कुछ गुप्त रखाना चाहिये, किन्तु मेरे-तुम्हारे बीच कोई परदा नहीं है । तुम बेखटके अपने दिल की बात
मुझ से कह सकते हो ।"
दमनक----"आपने
अभय वचन दिया है,
इसलिये मैं कह देता हूँ । बात यह है कि पिंगलक के मन में आप के
प्रति पापभावना आगई है । आज उसने मुझे बिल्कुल एकान्त में बुलाकर कहा है कि कल
सुबह ही वह आप को मारकर अन्य मांसाहारी जीवों की भूख मिटायेगा ।"
दमनक की बात सुनकर
संजीवक देर तक हतप्रभ-सा रहा; मूर्छना सी छा गई उसके शरीर
में । कुछ चेतना आने के बाद तीव्र वैराग्य-भरे शब्दों में बोला---"राजसेवा
सचमुच बड़ा धोखे का काम है । राजाओं के दिल होता ही नहीं । मैंने भी शेर से मैत्री
करके मूर्खता की । समान बल-शील वालों से मैत्री होती है; समान
शील-व्यसन वाले ही सखा बना सकते हैं । अब, यदि मैं उसे
प्रसन्न करने की चेष्टा करुँगा तो भी व्यर्थ है, क्योंकि जो
किसी कारण-वश क्रोध करे उसका क्रोध उस कारण के दूर होने पर दूर किया जा सकता है,
लेकिन जो अकारण ही कुपित हो उसका कोई उपाय नहीं है । निश्चय ही,
पिंगलक के पास रहने वाले जीवों ने ईर्ष्यावश उसे मेरे विरुद्ध उकसा
दिया है । सेवकों में प्रभु की प्रसन्नता पाने की होड़ लगी ही रहती है । वे एक
दूसरे की वृद्धि सहन नहीं करते ।"
दमनक----"मित्रवर
! यदि यही बात है तो मीठी बातों से अब राजा पिंगलक को प्रसन्न किया जा सकता है ।
वही उपाय करो ।"
संजीवक---"नहीं, दमनक
! यह उपाय सच्चा उपाय नहीं है । एक बार तो मैं राजा को प्रसन्न कर लूँगा किन्तु,
उसके पास वाले कूट-कपटी लोग फिर किन्हीं दूसरे झूठे बहानों से उसके
मन में मेरे लिये जहर भर देंगे और मेरे वध का उपाय करेंगे, जिस
तरह गीदड़ और कौवे ने मिलकर ऊँट को शेर के हाथों मरवा दिया था ।
दमनक ने पूछा---
"किस तरह ?"
संजीवक ने तव ऊँट, कौवों
और शेर की यह कहानी सुनाई----
एक जङगल में मदोत्कट
नाम का शेर रहता था । उसके नौकर-चाकरों में कौवा, गीदड़,
बाघ, चीता आदि अनेक पशु
थे । एक दिन वन में
घूमते-घूमते एक ऊँट वहाम आ गया । शेर ने ऊँट को देखकर अपने नौकरों से
पूछा---"यह कौनसा पशु है ? जङगली है या ग्राम्य ?"
कौवे ने शेर के
प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा----"स्वामी ! यह पशु ग्राम्य है और आपका भोज्य
है । आप इसे खाकर भूख मिटा सकते हैं ।"
शेर ने
कहा----"नहीं,
यह हमारा अतिथि है, घर आये को मारना उचित नहीं
। शत्रु भी अगर घर आये तो उसे नहीं मारना चाहिये । फिर, यह
तो हम पर विश्वास करके हमारे घर आया है । इसे मारना पाप है । इसे अभय दान देकर
मेरे पास लाओ । मैं इससे वन में आने का प्रयोजन पूछूँगा ।"
शेर की आज्ञा सुनकर
अन्य पशु ऊँट को ---जिसका नाम ’क्रथनक’ था,
शेर के दरबार में लाये । ऊँट ने अपनी दुःखभरी कहानी सुनाते हुए
बतलाया कि वह अपने साथियों से बिछुड़ कर जङगल में अकेला रह गया है । शेर ने उसे
धीरज बंधाते हुए कहा---"अब तुझे ग्राम में जाकर भार ढोने की कोई आवश्यकता
नहीं है । जङगल में रहकर हरी-हरी घास से सानन्द पेट भरो और स्वतन्त्रतापूर्वक
खेलो-कूदो ।"
शेर का आश्वासन मिलने
के बाद ऊँट उस जंगल में आनन्द से रहने लगा ।
कुछ दिन बाद उस वन
में एक मतवाला हाथी आ गया । मतवाले हाथी से अपने अनुचर पशुओं की रक्षा करने के लिए
शेर को हाथी से युद्ध करना पड़ा । युद्ध में जीत तो शेर की ही हुई, किन्तु
हाथी ने भी जब एक बार शेर को सूंड में लपेट कर घुमाया तो उसके अस्थि-पिंजर हिल गये
। हाथी का एक दांत भी शेर की पीठ में खुभ गया था । इस युद्ध के बाद शेर बहुत घायल
हो गया था, और नए शिकार के योग्य नहीं रहा था । शिकार के
अभाव में उसे बहुत दिन से भोजन नहीं मिल था । उसके अनुचर भी, जो शेर के अवशिष्ट भोजन से ही पेट पालते थे, कई
दिनों से भूखे थे ।
एक दिन उन सब को
बुलाकर शेर ने कहा---"मित्रो ! मैं बहुत घायल हो गया हूँ । फिर भी यदि कोई
शिकार तुम मेरे पास तक ले आओ, तो मैं उसको मारकर तुम्हारे
पेट भरने योग्य मांस अवश्य तुम्हें दे दूंगा ।"
शेर की बात सुनकर
चारों अनुचर ऐसे शिकार की खोज में लग गये । किन्तु कोई फल न निकला । तब कौवे और
गीदड़ में मन्त्रणा हुई । गीदड़ बोला----"काकराज ! अब इधर-उधर भटकने का क्या
लाभ ?
क्यों न इस ऊँट ’क्रथनक’ को मार कर ही भूख मिटायें ?"
कौवा
बोला---"तुम्हारी बात तो ठीक है, किन्तु स्वामी ने उसे अभय वचन
दिया हुआ है ।"
गीदड़----"मैं
ऐसा उपाय करुँगा,
जिससे स्वामी उसे मारने को तैयार हो जायँ । आप यहीं रहें, मैं स्वयं जाकर स्वामी से निवेदन करता हूँ ।"
गीदड़ ने तब शेर के
पास जाकर कहा---"स्वामी ! हमने सारा जङगल छान मारा है । किन्तु कोई भी पशु
हाथ नहीं आया । अब तो हम सभी इतने भूखे-प्यासे हो गये हैं कि एक कदम आगे नहीं चला
जाता । आपकी दशा भी ऐसी ही है । आज्ञा दें तो ’क्रथनक’
को ही मार कर उससे भूख शान्त की जाय ।"
गीदड़ की बात सुनकर
शेर ने क्रोध से कहा ----"पापी ! आगे कभी यह बात मुख से निकाली तो उसी क्षण
तेरे प्राण ले लूँगा । जानता नहीं कि उसे मैंने अभय वचन दिया है ?"
गीदड़----"स्वामी
! मैं आपको वचन-भंग के लिए नहीं कह रहा । आप उसका स्वयं वध न कीजिये, किन्तु
यदि वही स्वयं आपकी सेवा में प्राणों की भेंट लेकर आए, तब तो
उसके वध में कोई दोष नहीं है । यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो हम में से सभी आपकी सेवा
में अपने शरीर की भेंट लेकर आपकी भूख शान्त करने के लिए आयेंगे । जो प्राण स्वामी
के काम न आयें, उनका क्या उपयोग ? स्वामी
के नष्ट होने पर अनुचर स्वयं नष्ट हो जाते हैं । स्वामी की रक्षा करना उनका धर्म
है ।"
मदोत्कट
----"यदि तुम्हारा यही विश्वास है तो मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं ।"
शेर से आश्वासन पाकर
गीदड़ अपने अन्य अनुचर साथियों के पास आया और उन्हें लेकर फिर शेर के सामने उपस्थित
हो गया । वे सब अपने शरीर के दान से स्वामी की भूख शान्त करने आए थे । गीदड़ उन्हें
यह वचन देकर लाया था कि शेर शेष सब पशुओं को छोड़कर ऊँट को ही मारेगा ।
सब से पहले कौवे ने
शेर के सामने जाकर कहा ----"स्वामी ! मुझे खाकर अपनी जान बचाइये, जिससे
मुझे स्वर्ग मिले । स्वामी के लिए प्राण देने वाला स्वर्ग जाता है, वह अमर हो जाता है ।"
गीदड़ ने कौवे को
कहा---"अरे कौवे, तू इतना छोटा है कि तेरे खाने से स्वामी
की भूख बिल्कुल शान्त नहीं होगी । तेरे शरीर में माँस ही कितना है जो कोई खाएगा ?
मैं अपना शरीर स्वामी को अर्पण करता हूँ ।"
गीदड़ ने जब अपना शरीर
भेंट किया तो बाघ ने उसे हटाते हुए कहा ----"तू भी बहुत छोटा है । तेरे नख इतने
बड़े और विषैले हैं कि जो खायगा उसे जहर चढ़ जायगा । इसलिए तू अभक्ष्य है । मैं अपने
को स्वामी के अर्पण करुँगा । मुझे खाकर वे अपनी भूख शान्त करें ।"
उसे देखकर कथनक ने
सोचा कि वह भी अपने शरीर को अर्पण कर दे । जिन्होंने ऐसा किया था उन में से किसी
को भी शेर ने नहीं मारा था, इसलिए उसे भी मरने का डर नहीं
रहा था । यही सोचकर कथनक ने भी आगे बढ़कर बाघ को एक ओर हटा दिया और अपने शरीर को
शेर के अर्पण किया ।
तब शेर का इशारा पाकर
गीदड़,
चीता, बाघ आदि पशु ऊँट पर टूट पडे़ और उसका
पेट फाड़ डाला । सब ने उसके माँस से अपनी भूख शान्त की ।
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संजीवक ने दमनक से
कहा ---"तभी मैं कहता हूँ कि छल-कपट से भरे वचन सुन कर किसी को उन पर विश्वास
नहीं करना चाहिए और यह कि राजा के अनुचर जिसे मरवाना चाहें उसे किसी न किसी उपाय
से मरवा ही देते हैं । निःसन्देह किसी नीच ने मेरे विरुद्ध राजा पिंगलक को उकसा
दिया है । अब दमनक भाई ! मैं एक मित्र के नाते तुझ से पूछता हूँ कि मुझे क्या करना
चाहिए ?"
दमनक---"मैं तो
समझता हूँ कि ऐसे स्वामी की सेवा का कोई लाभ नहीं है । अच्छा है कि तुम यहाँ से
जाकर किसी दुसरे देश में घर बनाओ । ऐसी उल्टी राह पर चलने वाले स्वामि का परित्याग
करना ही अच्छा है ।"
संजीवक---"दूर
जाकर भी अब छुटकारा नहीं है । बड़े लोगों से शत्रुता लेकर कोई कहीं शान्ति से नहीं
बैठ सकता । अब तो युद्ध करना ही ठीक जचता है । युद्ध में एक बार ही मौत मिलती है, किन्तु
शत्रु से डर कर भागने वाला तो प्रतिक्षण चिन्तित रहता है । उस चिन्ता से एक बार की
मृत्यु कहीं अच्छी है ।"
दमनक ने जब संजीवक को
युद्ध के लिये तैयार देखा तो वह सोचने लगा, कहीं ऐसा न हो कि यह
अपने पैने सींगों से स्वामी पिंगलक का पेट फाड़ दे । ऐसा हो गया तो महान् अनर्थ हो
जायगा । इसलिये वह फिर संजीवक को देश छोड़ कर जाने की प्रेरणा करता हुआ
बोला---"मित्र ! तुम्हारा कहना भी सच है । किन्तु, स्वामी
और नौकर के युद्ध से क्या लाभ ? विपत्ती बलवान् हो तो क्रोध
को पी जाना ही बुद्धिमत्ता है । बलवान् से लड़ना अच्छा नहीं । अन्यथा उसकी वही गति
होती है जो समुद्र से लड़ने वाली टिटिहरी की हुई थी ।"
संजीवक ने
पूछाअ----"कैसे ?"
दमनक ने तब मूर्ख
टिटिहरी की यह कथा सुनाई ---
समुद्रतट के एक भाग
में एक टिटिहरी का जोडा़ रहता था । अंडे देने से पहले टिटिहरी ने अपने पति को किसी
सुरक्षित प्रदेश की खोज करने के लिये कहा । टिटिहरे ने कहा---"यहां सभी स्थान
पर्याप्त सुरक्षित हैं, तू चिन्ता न कर ।"
टिटिहरी----"समुद्र
में जब ज्वार आता है तो उसकी लहरें मतवाले हाथी को भी खींच कर ले जाती हैं, इसलिये
हमें इन लहरों से दूर कोई स्थान देख रखना चाहिये ।"
टिटिहरा----"समुद्र
इतना दुःसाहसी नहीं है कि वह मेरी सन्तान को हानि पहुँचाये । वह मुझ से डरता है ।
इसलिये तू निःशंक होकर यहीं तट पर अंडे दे दे ।"
समुद्र ने टिटिहरे की
ये बातें सुनलीं । उसने सोचा----"यह टिटिहरा बहुत अभिमानी है । आकाश की ओर
टांगें करके भी यह इसीलिये सोता है कि इन टांगों पर गिरते हुए आकाश को थाम लेगा ।
इसके अभिमान का भंग होना
चाहिये ।" यह
सोचकर उसने ज्वार आने पर टिटिहरी के अंडों को लहरों में बहा दिया ।
टिटिहरी जब दूसरे दिन
आई तो अंडों को बहता देखकर रोती-बिलखति टिटिहरे से बोली---"मूर्ख ! मैंने
पहिले ही कहा था कि समुद्र की लहरें इन्हें बहा ले जायंगी । किन्तु तूने अभिमानवश
मेरी बात पर ध्यान नहीं दिया । अपने प्रियजनों के कथन पर भी जो कान नहीं देता उसकी
वही दुर्गति होती है जो उस मूर्ख कछुए की हुई थी जिसने रोकते-रोकते भी मुख खोल
दिया था ।"
टिटिहरे ने टिटिहरी
से पूछा----"कैसे ?"
टिटिहरी ने तब मूर्ख
कछुए की यह कहानी सुनाई----
एक तालाब में
कंबुग्रीव नाम का कछुआ रहता था । उसी तालाब में प्रति दिन आने वाले दो हंस, जिनका
नाम संकट और विकट था, उसके मित्र थे । तीनों में इतना स्नेह
था कि रोज शाम होने तक तीनों मिलकर बड़े प्रेम से कथालाप किया करते थे ।
कुछ दिन बाद वर्षा के
अभाव में वह तालाब सूखने लगा । हंसों को यह देखकर कछुए से बड़ी सहानुभूति हुई ।
कछुए ने भी आंखों में आंसू भर कर कहा ----"अब यह जीवन अधिक दिन का नहीं है ।
पानी के बिना इस तालाब में मेरा मरण निश्चित है । तुमसे कोई उपाय बन पाए तो करो ।
विपत्ति में धैर्य ही काम आता है । यत्न से सब काम सिद्ध हो जाते हैं ।
बहुत विचार के बाद यह
निश्चय किया गया कि दोनों हंस जंगल से एक बांस की छड़ी लायेंगे । कछुआ उस छड़ी के
मध्य भाग को मुख से पकड़ लेगा । हंसों का यह काम होगा कि वे दोनों ओर से छड़ी को
मजबूती से पकड़कर दुसरे तालाब के किनारे तक उड़ते हुए पहुँचेंगे ।
यह निश्चय होने के
बाद दोनों हंसों ने कछुए को कहा----"मित्र ! हम तुझे इस प्रकार उड़ते हुए
दूसरे तालाब तक ले जायेंगे । किन्तु एक बात का ध्यान रखना । कहीं बीच में लकड़ी को
मत छोड़ देना । नहीं तो तू गिर जायगा । कुछ भी हो, पूरा
मौन बनाए रखना । प्रलोभनों की ओर ध्यान न देना । यह तेरी परीक्षा का मौका है
।"
हंसों ने लकड़ी को उठा
लिया । कछुए ने उसे मध्य भाग से दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया । इस तरह निश्चित योजना के
अनुसार वे आकाश में उड़े जा रहे थे कि कछुए ने नीचे झुक कर उन शहरियों को देखा, जो
गरदन उठाकर आकाश में हंसों के बीच किसी चक्राकार वस्तु को उड़ता देखकर कौतूहलवश शोर
मचा रहे थे ।
उस शोर को सुनकर
कम्बुग्रीव से नहीं रहा गया । वह बोल उठा----"अरे ! यह शोर कैसा है ?"
यह कहने के लिये मुख
खोलने के साथ ही कछुए के मुख से लकड़ी की छड़ छूट गई । और कछुआ जब नीचे गिरा तो लोभी
मछियारों ने उसकी बोटी-बोटी कर डाली ।
टिटिहरी ने यह कहानी
सुना कर कहा ---"इसी लिये मैं कहती हूँ कि अपने हितचिन्तकों की राय पर न चलने
वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है ।
इसके अतिरिक्त
बुद्धिमानों में भी वही बुद्धिमान सफल होते हैं जो बिना आई विपत्ति का पहले से ही
उपाय सोचते हैं,
और जिनकी बुद्धि तत्काल अपनी रक्षा का उपाय सोच लेती है । ’जो होगा, देखा जायगा’ कहने
वाले शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।"
टिटिहरे ने
पूछा----"यह कैसे ?"
टिटिहरी ने
कहा----"सुनो----
एक तालाब में तीन
मछलियां थीं;
अनागत विधाता, प्रत्युत्पन्न मति और यद्भविष्य
। एक दिन मछियारों ने उन्हें देख लिया और सोचा ---"इस तालाब में खूब मछलियां
हैं । आज तक कभी इसमें जाल भी नहीं डाला है, इसलिये यहां खूब
मछलियां हाथ लगेंगी ।’ उस दिन शाम अधिक हो गई थी, खाने के लिये मछलियाम भी पर्याप्त मिल चुकी थीं, अतः
अगले दिन सुबह ही वहां आने का निश्चय करके वे चले गये ।
’अनागत विधाता’ नाम की मछली ने उनकी बात सुनकर सब मछलियों को बुलाया और कहा
----"आपने उन मछियारों की बात सुन ही ली है, अब
रातों-रात ही हमें यह तालाब छोड़कर दूसरे तालाब में चले जाना चाहिये । एक क्षण की
भी देर करना उचित नहीं ।"
’प्रत्युत्पन्नमति’ ने भी उसकी बात का समर्थन किया । उसने कहा----"परदेस में जाने का डर
प्रायः सबको नपुँसक बना देता है । ’अपने ही कूएँ का जल
पीयेंगे’ ---यह कह कर जो लोग जन्म भर खारा पानी पीते हैं,
वे कायर होते हैं । स्वदेश का यह राग वही गाते हैं, जिनकी कोई और गति नहीं होती ।"
उन दोनों की बातें
सुनकर ’यद्भविष्य’ नाम की मछली हंस पड़ी । उसने
कहा----"किसी राह-जाते आदमी के वचनमात्र से डर कर हम अपने पूर्वजों के देश को
नहीं छोड़ सकते । दैव अनुकूल होगा तो हम यहां भी सुरक्षित रहेंगे, प्रतिकूल होगा तो अन्यत्र जाकर भी किसी के जाल में फँस जायंगे । मैं तो
नहीं जाती, तुम्हें जाना हो तो जाओ ।"
उसका आग्रह देखकर ’अनागत
विधाता’ और ’प्रत्युत्पन्नमति’ दोनों सपरिवार पास के तालाब में चली गई । ’यद्भविष्य’
अपने परिवार के साथ उसी तालाब में रही । अगले दिन सुबह मछियारों ने
उस तालाब में जाल फैला कर सब मछलियों को पकड़ लिया ।
इसीलिये मैं कहती हूँ
कि ’जो होगा, देखा जायगा’ की नीति
विनाश की ओर ले जाती है । हमें प्रत्येक विपत्ति का उचित उपाय करना चाहिये ।"
x x x
यह बात सुनकर टिटिहरे
ने टिटिहरी से कहा----मैं ’यद्भविष्य’ जैसा मूर्ख और निष्कर्म नहीं हूँ । मेरी बुद्धि का चमत्कार देखती जा,
मैं अभी अपनी चोंच से पानी बाहिर निकाल कर समुद्र को सुखा देता हूँ
।"
टिटिहरी----"समुद्र
के साथ तेरा वैर तुझे शोभा नहीं देता । इस पर क्रोध करने से क्या लाभ ? अपनी
शक्ति देखकर हमेम किसी से बैर करना चाहिये । नहीं तो आग में जलने वाले पतंगे जैसी
गति होगी ।"
टिटिहरा फिर भी अपनी
चोंचों से समुद्र को सुखा डालने की डीगें मारता रहा । तब, टिटिहरी
ने फिर उसे मना करते हुए कहा कि जिस समुद्र को गंगा-यमुना जैसि सैंकड़ों नदियां
निरन्तर पानी से भर रही हैं उसे तू अपने बूंद-भर उठाने वाली चोंचों से कैसे खाली
कर देगा ?
टिटिहरा तब भी अपने
हठ पर तुला रहा । तब, टिटिहरी ने कहा----"यदि तूने समुद्र
को सुखाने का हठ ही कर लिया है तो अन्य पक्षियों की भी सलाह लेकर काम कर । कई बार
छोटे २ प्राणी मिलकर अपने से बहुत बड़े जीव को भी हरा देते हैं; जैसे चिड़िया, कठफोड़े और मेंढक ने मिलकर हाथी को मार
दिया था ।
टिटिहरे ने
पूछा----"कैसे ?"
टिटिहरी ने तब चिड़िया
और हाथी की यह कहानी सुनाई ----
जंगल में वृक्ष की एक
शाखा पर चिड़ा-चिड़ी का जोड़ा रहता था । उनके अंडे भी उसी शाखा पर बने घोंसले में थे
। एक दिन एक मतवाला हाथी वृक्ष की छाया में विश्राम करने आया । वहां उसने अपनी
सूंड में पकड़कर वही शाखा तोड़ दी जिस पर चिड़ियों का घोंसला था । अंडे जमीन पर गिर
कर टूट गये ।
चिड़िया अपने अंडों के
टूटने से बहुत दुःखी हो गई । उसका विलाप सुनकर उसका मित्र कठफोड़ा भी वहां आ गया ।
उसने शोकातुर चिड़ा-चिड़ी को धीरज बंधाने का बहुत यत्न किया, किन्तु
उनका विलाप शान्त नहीं हुआ । चिड़िया ने कहा----"यदि तू हमारा सच्चा मित्र है
तो मतवाले हाथी से बदला लेने में हमारी सहायता कर । उसको मार कर ही हमारे मन को
शान्ति मिलेगी ।"
कठफोड़े ने कुछ सोचने
के बाद कहा---"यह काम हम दोनों का ही नहीं है । इसमें दूसरों से भी सहायता
लेनी पड़ेगी । एक मक्खी मेरी मित्र है; उसकी आवाज बड़ी सुरीली है ।
उसे भी बुला लेता हूँ ।"
मक्खी ने भी जब
कठफोड़े और चिड़िया की बात सुनी तो वह मतवाले हाथी के मारने में उनका सहयोग देने को
तैयार हो गई । किन्तु उसने भी कहा कि "यह काम हम तीन का ही नहीं, हमें
औरों की भी सहायता ले लेनी चाहिए । मेरा मित्र एक मेंढक है, उसे
भी बुला लाऊँ ।"
तीनों ने जाकर मेघनाद
नाम के मेंढक को अपनी दुःखभरी कहानी सुनाई । मेंढक उनकी बात सुनकर मतवाले हाथी के
विरुद्ध षड़्यन्त्र में शामिल हो गया । उसने कहा---"जो उपाय मैं बतलाता हूँ, वैसा
ही करो तो हाथी अवश्य मर जायगा । पहले मक्खी हाथी के कान में वीणा सदृश मीठे स्वर
का आलाप करे । हाथी उसे सुनकर इतना मस्त हो जायगा कि आंखें बन्द करलेगा । कठफोड़ा
उसी समय हाथी की आंखों को चोंचें खुभो-खुभो कर फोड़ दे । अन्धा होकर हाथी जब पानी
की खोज में इधर-उधर भागेगा तो मैं एक गहरे गड्ढे के किनारे बैठकर आवाज करुँगा ।
मेरी आवाज से वह वहां तालाब होने का अनुमान करेगा और उधर ही आयेगा । वहां आकर वह
गड्ढे को तालाब समझकर उसमें उतर जायगा। उस गड्ढे से निकलना उसकी शक्ति से बाहिर
होगा । देर तक भूखा-प्यासा रहकर वह वहीं मर जायगा ।"
अनत में, मेंढक
की बात मानकर सब ने मिल-जुल कर हाथी को मार ही डाला ।
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टिटिहरी ने
कहा---"तभी तो मैं कहती हूँ कि छोटे और निर्बल भी मिलजुल कर बड़े-बड़े जानवरों
को मार सकते हैं ।"
टिटिहरा
---"अच्छी बात है । मैं भी दूसरे पक्षियों की सहायता से समुद्र को सुखाने का
यत्न करुँगा ।"
यह कहकर उसने बगुले, सारस,
मोर आदि अनेक पक्षियों को बुलाकर अपनी दुःख-कथा सुनाई । उन्होंने
कहा---"हम तो अशक्त हैं, किन्तु हमारा मित्र गरुड़ अवश्य
इस संबन्ध में हमारी सहायता कर सकता है ।’ तब सब पक्षी मिलकर
गरुड़ के पस जाकर रोने और चिल्लाने लगे ----"गरुड़ महाराज ! आप के रहते हमारे
पक्षिकुल पर समुद्र ने यह अत्याचार कर दिया । हम इसका बदला चाहते हैं । आज उसने
टिटिहरी के अंडे नष्ट किये हैं, कल वह दूसरे पक्षियों के
अंडों को बहा ले जायगा । इस अत्याचार की रोक-थाम होनी चाहिये । अन्यथा संपूर्ण
पक्षिकुल नष्ट हो जायगा ।"
गरुड़ ने पक्षियों का
रोना सुनकर उनकी सहायता करने का निश्चय किया । उसी समय उसके पास भगवान् विष्णु का
दूत आया । उस दूत द्वारा भगवान विष्णु ने उसे सवारी के लिये बुलाया था । गरुड़ ने
दूत से क्रोधपूर्वक कहा कि वह विष्णु भगवान को कह दे कि वह दूसरी सवारी का प्रबन्ध
कर लें । दूत ने गरुड़ के क्रोध का कारण पूछा तो गरुड़ ने समुद्र के अत्याचार की कथा
सुनाई ।
दूत के मुख से गरुड़
के क्रोध की कहानी सुनकर भगवान विष्णु स्वयं गरुड़ के घर गये । वहाँ पहुँचने पर
गरुड़ ने प्रणामपूर्वक विनम्र शब्दों में कहा---
"भगवन् ! आप के
आश्रम का अभिमान करके समुद्र ने मेरे साथी पक्षियों के अंडों का अपहरण कर लिया है
। इस तरह मुझे भी अपमानित किया है । मैं समुद्र से इस अपमान का बदला लेना चाहता
हूँ ।"
भगवान विष्णु बोले
---"गरुड़ ! तुम्हारा क्रोध युक्तियुक्त है । समुद्र को ऐसा काम नहीं करना
चाहिये था । चलो,
मैं अभी समुद्र से उन अंडों को वापिस लेकर टिटिहरी को दिलवा देता
हूँ । उसके बाद हमें अमरावती जाना है ।"
तब भगवान ने अपने
धनुष पर ’आग्नेय" बाण को चढ़ाकर समुद्र से कहा---"दुष्ट ! अभी उन सब अंडों
को वापिस देदे, नहीं तो तुझे क्षण भर में सुखा दूंगा ।"
भगवान विष्णु के भय
से समुद्र ने उसी क्षण अंडे वापिस दे दिये ।
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दमनक ने इन कथाओं को
सुनाने के बाद संजीवक से कहा---"इसीलिये मैं कहता हूँ कि शत्रु-पक्ष का बल
जानकर ही युद्ध के लिये तैयार होना चाहिये ।"
संजीवक---"दमनक
! यह बात तो सच है,
किन्तु मुझे यह कैसे पता लगेगा कि पिंगलक के मन में मेरे लिये हिंसा
के भाव हैं । आज तक वह मुझे सदा स्नेह की दृष्टि से देखता रहा है । उसकी
वक्रदृष्टि का मुझे कोई ज्ञान नहीं है । मुझे उसके लक्षण बतला दो तो मैं उन्हें
जानकर आत्म-रक्षा के लिये तैयार हो जाऊँगा ।"
दमनक---"उन्हें
जानना कुछ भी कठिन नहीं है । यदि उसके मन में तुम्हें मारने का पाप होगा तो उसकी
आँखें लाल हो जायँगी, भवें चढ़ जाएँगी और वह होठों को चाटता हुआ
तुम्हारी ओर क्रूर दृष्टि से देखेगा । अच्छा तो यह है कि तुम रातों-रात चुपके से
चले जाओ । आगे तुम्हारी इच्छा ।"
x x x
यह कहकर दमनक अपने
साथी करटक के पास आया । करटक ने उससे भेंट करते हुए पूछा---"कहो दमनक ! कुछ
सफलता मिली तुम्हें अपनी योजना में ?"
दमनक---"मैनें
तो नीतिपूर्वक जो कुछ भी करना उचित था कर दिया, आगे
सफलता दैव के अधीन है । पुरुषार्थ करने के बाद भी यदि कार्यसिद्धि न हो तो हमारा
दोष नहीं ।"
करटक---"तेरी
क्या योजना है ?
किस तरह नीतियुक्त काम किया है तूने ? मुझे भी
बता ।"
दमनक----"मैंने
झूठ बोलकर दोनों को एक दूसरे का ऐसा बैरी बना दिया है कि वे भविष्य में कभी एक
दूसरे का विश्वास नही करेंगे ।"
करटक---"यह तूने
अच्छा नहीं किया मित्र ! दो स्नेही हृदयों में द्वेष का बीज बोना बुरा काम है
।"
दमनक ---"करटक !
तू नीति की बातें नहीं जानता, तभी ऐसा कहता है । संजीवक ने
हमारे मन्त्री पद को हथिया लिया था । वह हमारा शत्रु था । शत्रु को परास्त करने
में धर्म-अधर्म नहीं देखा जाता । आत्मरक्षा सब से बडा़ धर्म है । स्वार्थसाधन ही
सब से महान् कार्य है । स्वार्थ-साधन करते हुए कपट-नीति से ही काम लेना
चाहिये---जैसे चतुरक ने लिया था ।"
करटक ने
पूछा---"कैसे ?"
दमनक ने तब चतुरक
गीदड़ और शेर की यह कहानी सुनाई---
किसी जंगल में एक
वज्रदंष्ट्र नाम का शेर रहता था । उसके दो अनुचर----चतुरक गीदड़ और क्रव्यमुख
भेड़िया---हर समय उसके साथ रहते थे । एक दिन शेर ने जंगल में बैठी हुई ऊँटनी को
मारा । ऊँटनी के पेट में एक छोटा-सा ऊँट का बच्चा निकला । शेर को उस बच्चे पर दया
आई । घर लाकर उसने बच्चे को कहा----"अब मुझ से डरने की कोई बात नहीं । मैं
तुझे नहीं मारुँगा । तू जंगल में आनन्द से विहार कर ।" ऊँट के बच्चे के कान
शंकु (कील) जैसे थे,
इसलिये उसका नाम शेर ने शंकुकर्ण रख दिया । वह भी शेर के अन्य
अनुचरों के समान सदा शेर के साथ रहता था । जब वह बड़ा हो गया, तो भी वह शेर का मित्र बना रहा । एक क्षण के लिये भी वह शेर को छोड़कर नहीं
जाता था ।
एक दिन उस जंगल में
एक मतवाला हाथी आ गया । उससे शेर की जबर्दस्त लड़ाई हुई । इस लडा़ई में शेर इतना
घायल हो गया कि उसके लिये एक कदम आगे चलना भी भारी हो गया । अपने साथियों से उसने
कहा कि"तुम कोई ऐसा शिकार ले आओ जिसे मैं यहाँ बैठा-बैठा ही मार दूं ।"
तीनों साथी शेर की आज्ञा अनुसार शिकार की तलाश करते रहे---लेकिन बहुत यत्न करने
पर भी कोई शिकार हाथ नहीं आया ।
चतुरक ने सोचा, यदि
शंकुकर्ण को मरवा दिया जाय तो कुछ दिन की निश्चिन्तता हो जाय । किन्तु शेर ने इसे
अभय वचन दिया है; कोई युक्ति ऐसी निकालनी चाहिये कि वह
वचन-भंग किये बिना इसे मारने को तैयार हो जाय ।
अन्त में चतुरक ने एक
युक्ति सोच ली । शंकुकर्ण को वह बोला---"शंकुकर्ण ! मैं तुझे एक बात तेरे लाभ
की ही कहता हूँ । स्वामी का भी इसमें कल्याण हो जायगा । हमारा स्वामी शेर कई दिन
से भूखा है । उसे यदि तू अपना शरीर देदे तो वह कुछ दिन बाद दुगना होकर तुझे मिल
जायगा,
और शेर को भी तृप्ति हो जायगी ।"
शंकुकर्ण---"मित्र
! शेर की तृप्ति में तो मेरी भी प्रसन्नता है । स्वामी को कह दो कि मैं इसके लिये
तैयार हूँ । किन्त,
इस सौदे में धर्म हमारा साक्षी होगा ।"
इतना निश्चित होने
के बाद वे सब शेर के पास गये । चतुरक ने शेर से कहा ----"स्वामी ! शिकार तो
कोई भी हाथ नहीं आया । सूर्य भी त्रस्त हो गया । अब एक ही उपाय है; यदि
आप शंकुकर्ण को इस शरीर के बदले द्विगुण शरीर देना स्वीकार करें तो वह यह शरीर ऋण
रुप में देने को तैयार है ।"
शेर ----’मुझे
यह व्यवहार स्वीकार है । हम धर्म को साक्षी रखकर यह सौदा करेंगे । शंकुकर्ण अपने
शरीर को ऋण रुप में हमें देगा तो हम उसे बाद में द्विगुण शरीर देंगे ।"
तब सौदा होने के बाद
शेर के इशारे पर गीदड़ और भेड़िये ने ऊँट को मार दिया ।
वज्रदंष्ट्र शेर ने
तब चतुरक से कहा----"चतुरक ! मैं नदी में स्नान करके आता हूं, तू
यहाँ इसकी रखवाली करना ।"
शेर के जाने के बाद
चतुरक ने सोचा,
कोई युक्ति ऐसी होनी चाहिए कि वह अकेला ही ऊँट को खा सके । यह सोचकर
वह क्रव्यमुख से बोला---"मित्र ! तू बहुत भूखा है, इसलिए
तू शेर के आने से पहले ही ऊँट को खाना शुरु कर दे । मैं शेर के सामने तेरी
निर्दोषता सिद्ध कर दूंगा, चिन्ता न कर ।"
अभी क्रव्यमुख ने
दाँत गड़ाए ही थे कि चतुरक चिल्ला उठा----"स्वामी आ रहे हैं, दूर
हट जा ।"
शेर ने आकर देखा तो
ऊँट पर भेड़िये के दाँत लगे थे । उसने क्रोध से भवें तानकर पूछा----"किसने ऊँट
को जूठा किया है ?"
क्रव्यमुख चतुरक की ओर देखने लगा । चतुरक बोला---- "दुष्ट !
स्वयं मांस खाकर अब मेरी ओर क्यों देखता है ? अब अपने किये
का दंड भोग ।"
चतुरक की बात सुनकर
भेड़िया शेर के डर से उसी क्षण भाग गया ।
थोड़ी देर में उधर कुछ
दूरी पर ऊँटों का एक काफला आ रहा था । ऊँटों के गले में घंटियाँ बँधी हुई थीं ।
घंटियों के शब्द से जंगल का आकाश गूंज रहा था । शेर ने पूछा----"चतुरक ! यह
कैसा शब्द है ?
मैं तो इसे पहली बार ही सुन रहा हूँ, पता तो
करो ।"
चतुरक
बोला----"स्वामी ! आप देर न करें, जल्दी से चले जायं ।"
शेर----"आखिर
बात क्या है ?
इतना भयभीत क्यों करता है मुझे ?"
चतुरक---स्वामी ! यह
ऊँटों का दल है । धर्मराज आप पर बहुत क्रुद्ध हैं । आपने उनकी आज्ञा के बिना उन्हें
साक्षी बना कर अकाल में ही ऊँट के बच्चे को मार डाला है । अब वह १०० ऊँटों को, जिनमें
शंकुकर्ण के पुरखे भी शामिल हैं, लेकर तुम से बदला लेने आया
है । धर्मराज के विरुद्ध लड़ना युक्तियुक्त नहीं । आप, हो सके
तो तुरन्त भाग जाइये ।"
शेर ने चतुरक के कहने
पर विश्वास कर लिया । धर्मराज से डर कर वह मरे हुए ऊँट को वैसा ही छोड़कर दूर भाग
गया ।
दमनक ने यह कथा
सुनाकर कहा----"इसी लिये मैं तुम्हें कहता हूँ कि स्वार्थसाधन में छल-बल सब
से काम ले दमनक के जाने के बाद संजीवक ने सोचा, "मैंने यह अच्छा नहीं किया जो शाकाहारी होने पर एक मांसाहारी से मैत्री की
। किन्तु अब क्या करुँ ? क्यों न अब फिर पिंगलक की शरण जाकर
उससे मित्रता बढ़ाऊँ ? दूसरी जगह अब मेरी गति भी कहाँ है ?"
यही सोचता हुआ वह
धीरे-धीरे शेर के पास चला । वहाँ जाकर उसने देखा कि पिंगलक शेर के मुख पर वही भाव
अंकित थे जिनका वर्णन दमनक ने कुछ समय पहले किया था । पिंगलक को इतना क्रुद्ध
देखकर संजीवक आज जरा दूर हटकर बिना प्रणाम किये बैठ गया । पिंगलक ने भी आज संजीवक
के चेहरे पर वही भाव अंकित देखे जिनकी सूचना दमनक ने पिंगलक को दी थी । दमनक की
चेतावनी का स्मरन करके पिंगलक संजीवक से कुछ भी पूछे बिना उस पर टूट पड़ा । संजीवक
इस अचानक आक्रमण के लिये तैयार नहीं था । किन्तु जब उसने देखा कि शेर उसे मारने को
तैयार है तो वह भी सींगों को तानकर अपनी रक्षा के लिये तैयार हो गया ।
उन दोनों को एक दूसरे
के विरुद्ध भयंकरता से युद्ध करते देखकर करटक ने दमनक से कहा----
"दमनक ! तूने दो
मित्रों को लड़वा कर अच्छा नहीं किया । तुझे सामनीति से काम लेना चाहिये था । अब
यदि शेर का वध हो गया तो हम क्या करेंगे ? सच तो यह है कि तेरे
जैसा नीच स्वभाव का मन्त्री कभी अपने स्वामी का कल्याण नहीं कर सकता । अब भी कोई
उपाय है तो कर । तेरी सब प्रवृत्तियाँ केवल विनशोन्मुख हैं । जिस राज्य का तू
मन्त्री होगा, वहाँ भद्र और सज्जन व्यक्तियों का प्रवेश ही
नहीं होगा ।
अथवा, अब
तुझे उपदेश देने का क्या लाभ ? उपदेश भी पात्र को दिया जाता
है । तू उसका पात्र नहीं है । तुझे उपदेश देना व्यर्थ है । अन्यथा कहीं मेरी हालत
भी सूचीमुख चिड़िया की तरह न हो जाय !
दमनक ने पूछा----’सूचीमुख
कौन थी ?’
करकट ने तब सूचीमुख
चिड़िया की यह कहानी सुनाई----
किसी पर्वत के एक
भागे में बन्दरों का दल रहता था । एक दिन हेमन्त मास के दिनों में वहां इतनी बर्फ
पड़ी और ऐसी हिमवर्षा हुई कि बन्दर सर्दी के मारे ठिठुर गए ।
कुछ बन्दर लाल फलों
को ही अग्नि-कण समझ कर उन्हें फूकें मार-मारकर सुलगाने की कोशिश करने लगे ।
सूचीमुख पक्षी ने तब
उन्हें वृथा प्रयत्न से रोकते हुए कहा---"ये आग के शोले नहीं, गुज्जाफल
हैं । इन्हें सुलगाने की व्यर्थ चेष्टा क्यों करते हो ? अच्छा
तो यह है कि कहीं गुफा-कन्दरा देखकर उसमें चले जाओ । तभी सर्दी से रक्षा
होगी ।"
बन्दरों में एक बूढा़
बन्दर भी था । उसने कहा----"सूचीमुख ! इनको उपदेश न दे । ये मूर्ख हैं, तेरे
उपदेश को नहीं मानेंगे बल्कि तुझे पकड़कर मार डालेंगे ।"
वह बन्दर यह कह ही
रहा था कि एक बन्दर ने सूचीमुख को उसके पंखों से पकड़ कर झकझोर दिया ।
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इसीलिए मैं कहता हूँ
कि मूर्ख को उपदेश देकर हम उसे शान्त नहीं करते, और
भी भड़काते हैं । जिस-तिस को उपदेश देना स्वयं मुर्खता है । मूर्ख बन्दर ने उपदेश
देने वाली चिड़ियों का घोंसला तोड़ दिया था ।
दमनक ने
पूछा----"कैसे ?"
करटक ने तब बन्दर और
चिड़ियों की यह कहानी सुनाई----
किसी जंगल के एक घने
वृक्ष की शाखाओं पर चिड़ा-चिडी़ का एक जोड़ा रहता था । अपने घोंसले में दोनों बड़े
सुख से रहते थे । सर्दियों का मौसम था । एक दिन हेमन्त की ठंडी हवा चलने लगी और
साथ में बूंदा-बांदी भी शुरु हो गई । उस समय एक बन्दर बर्फीली हवा और बरसात से
ठिठुरता हुआ उस वृक्ष की शाखा पर आ बैठा । जाड़े के मारे उसके दांत कटकटा रहे थे ।
उसे देखकर चिड़िया ने कहा----"अरे ! तुम कौन हो ? देखने
में तो तुम्हारा चेहरा आदमियों का सा है; हाथ-पैर भी हैं
तुम्हारे । फिर भी तुम यहाँ बैठे हो, घर बनाकर क्यों नहीं
रहते ?"
बन्दर बोला
----"अरी ! तुम से चुप नहीं रहा जाता ? तू अपना काम कर । मेरा
उपहास क्यों करती है ?"
चिड़िया फिर भी कुछ
कहती गई । वह चिड़ गया । क्रोध में आकर उसने चिड़िया के उस घोंसले को तोड़-फोड़ डाला
जिसमें चिड़ा-चिड़ी सुख से रहते थे ।
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करटक ने
कहा----"इसीलिये मैं कहता था कि जिस-तिस को उपदेश नहीं देना चाहिये । किन्तु, तुझ
पर इसका कुछ प्रभाव नहीं । तुझे शिक्षा देना भी व्यर्थ है । बुद्धिमान् को दी हुई
शिक्षा का ही फल होता है, मूर्ख को दी हुई शिक्षा का फल कई
बार उल्टा निकल आता है, जिस तरह पापबुद्धि नाम के मूर्ख
पुत्रने विद्वत्ता के जोश में पिता की हत्या करदी थी ।
दमनक ने
पूछा----"कैसे ?"
करटक ने तब
धर्मबुद्धि-पापाबुद्धि नाम के दो मित्रों की यह कथा सुनाई----
किसी स्थान पर
धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे । एक दिन पापबुद्धि ने सोचा कि
धर्मबुद्धि की सहायता से विदेश में जाकर धन पैदा किया जाय । दोनों ने
देश-देशान्तरों में घूमकर प्रचुर धन पैदा किया । जब वे वापिस आ रहे थे तो गाँव में
घूमकर प्रचुर धन पैदा किया । जब वे वापिस आ रहे थे तो गाँव के पास आकर पापबुद्धि
ने सलाह दी कि इतने धन को बन्धु-बान्धवों के बीच नहीं ले जाना चाहिये । इसे देखकर
उन्हें ईर्ष्या होगी, लोभ होगा । किसी न किसी बहाने वे बाँटकर
खाने का यत्न करेंगे । इसलिये इस धन का बड़ा भाग जमीन में गाड़ देते हैं । जब जरुरत
होगी, लेते रहेंगे ।
धर्मबुद्धि यह बात
मान गया । जमीन में गड्ढ़ा खोद कर दोनों ने अपना सन्चित धन वहाँ रख दिया और गाँव
में चले आए ।
कुछ दिन बाद
पापबुद्धि आधी रात को उसी स्थान पर जाकर सारा धन खोद लाया और ऊपर से मिट्टी डालकर
गड्ढा भरकर घर चला आया ।
दूसरे दिन वह
धर्मबुद्धि के पास गया और कहा----"मित्र ! मेरा परिवार बड़ा है । मुझे फिर कुछ
धन की जरुरत पड़ गई है । चलो, चलकर थोड़ा-थोड़ा और ले आवें
।"
धर्मबुद्धि मान गया ।
दोनों ने जाकर जब जमीन खोदी और वह वर्तन निकाला, जिस
में धन रखा था , तो देखा कि वह खाली है । पापबुद्धि सिर
पीटकर रोने लगा----"मैं लुट गया, धर्मबुद्धि ने मेरा धन
चुरा लिया, मैं मर गया, लुट
गया....।"
दोनों अदालत में
धर्माधिकारी के सामने पेश हुए । पापबुद्धि ने कहा ----"मैं गड्ढे के पास
वाले वृक्षों को साक्षी मानने को तैयार हूँ । वे जिसे चोर कहेंगे, वह
चोर माना जाएगा ।"
अदालत ने यह बात मान
ली,
और निश्चय किया कि कल वृक्षों की साक्षी ली जायगी और उस साक्षी पर
ही निर्णय सुनाया जायगा ।
रात को पापबुद्धि ने
अपने पिता से कहा----"तुम अभी गड्ढे के पास वाले वृक्ष की खोखली जड़ में बैठ
जाओ । जब धर्माधिकारी पूछे तो कह देना कि चोर धर्मबुद्धि है ।"
उसके पिता ने यही
किया । वह सुबह होने से पहले ही वहाँ जाकर बैठ गया ।
धर्माधिकारी ने जब
ऊँचे स्वर से पुकारा----"हे वनदेवता ! तुम्ही साक्षी दो कि इन दोनों में चोर
कौन है ?"
तब वृक्ष की जड़ में
बैठे हुए पापबुद्धि के पिता ने कहा----"धर्मबुद्धि चोर है, उसने
ही धन चुराया है ।"
धर्माधिकारी तथा
राजपुरुषों को बड़ा आश्चर्य हुआ । वे अभी अपने धर्मग्रन्थों को देखकर निर्णय देने
की तैयारी ही कर रहे थे कि धर्मबुद्धि ने उस वृक्ष को आग लगा दी, जहाँ
से वह आवाज आई थी ।
थोड़ी देर में
पापबुद्धि का पिता आग से झुलसा हुआ उस वृक्ष की जड़ में से निकला । उसने वनदेवता
की साक्षी का सच्चा भेद प्रकट कर दिया ।
तब राजपुरुषों ने
पापबुद्धि को उसी वृक्ष की शाखाओं पर लटकाते हुए कहा कि मनुष्य का यह धर्म है कि
वह उपाय की चिन्ता के साथ अपाय की भी चिन्ता करे । अन्यथा उसकी वही दशा होती है जो
उन बगलों की हुई थी,
जिन्हें नेवले ने मार दिया था ।
धर्मबुद्धि ने
पूछा----"कैसे ?"
राजपुरुषों ने
कहा----"सुनो----
जंगल के एक बड़े
वट-वृक्ष की खोल में बहुत से बगले रहते थे । उसी वृक्ष की जड़ में एक साँप भी रहता
था । वह बगलों के छोटे-छोटे बच्चों को खा जाता था ।
एक बगला साँप द्वार
बार-बार बच्चों के खाये जाने पर बहुत दुःखी और विरक्त सा होकर नदी के किनारे आ
बैठा । उसकी आँखों में आँसू भरे हुए थे । उसे इस प्रकार दुःखमग्न देखकर एक केकड़े
ने पानी से निकल कर उसे कहा :---"मामा ! क्या बात है, आज
रो क्यों रहे हो ?"
बगले ने कहा
----"भैया ! बात यह है कि मेरे बच्चों को साँप बार-बार खा जाता है । कुछ उपाय
नहीं सूझता,
किस प्रकार साँप का नाश किया जाय । तुम्हीं कोई उपाय बताओ ।"
केकड़े ने मन में सोचा, ’यह
बगला मेरा जन्मवैरी है, इसे ऐसा उपाय बताऊंगा, जिससे साँप के नाश के साथ-साथ इसका भी नाश हो जाय ।’ यह सोचकर वह बोला----
"मामा ! एक काम
करो,
मांस के कुछ टुकडे़ लेकर नेवले के बिल के सामने डाल दो । इसके बाद
बहुत से टुकड़े उस बिल से शुरु करके साँप के बिल तक बखेर दो । नेवला उन टुकड़ों को
खाता-खाता साँप के बिल तक आ जायगा और वहाँ साँप को भी देखकर उसे मार डालेगा
।"
बगले ने ऐसा ही किया
। नेवले ने साँप को तो खा लिया किन्तु साँप के बाद उस वृक्ष पर रहने वाले बगलों को
भी खा डाला ।
बगले ने उपाय तो सोचा, किन्तु
उसके अन्य दुष्परिणाम नहीं सोचे । अपनी मूर्खता का फल उसे मिल गया । पाप-बुद्धि ने
भी उपाय तो सोचा, किन्तु अपाय नहीं सोचा ।"
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करटक ने
कहा----"इसी तरह दमनक ! तू ने भी उपाय तो किया, किन्तु
अपाय की चिन्ता नहीं की । तू भी पाप-बुद्धि के समान ही मूर्ख है । तेरे जैसे
पाप-बुद्धि के साथ रहना भी दोषपूर्ण है । आज से तू मेरे पास मत आना । जिस स्थान पर
ऐसे अनर्थ हों वहाँ से दूर ही रहना चाहिए । जहां चूहे मन भर की तराजू को खा जायं
वहाँ यह भी सम्भव है कि चील बच्चे को उठा कर ले जाय ।"
दमनक ने
पूछा----"कैसे ?"
करटक ने तब लोहे की
तराजू की यह कहानी सुनाई----
एक स्थान पर जीर्णधन
नाम का बनिये का लड़का रहता था । धन की खोज में उसने परदेश जाने का विचार किया ।
उसके घर में विशेष सम्पत्ति तो थी नहीं, केवल एक मन भर भारी लोहे की
तराजू थी । उसे एक महाजन के पास धरोहर रखकर वह विदेश चला गया । विदेश स वापिस आने
के बाद उसने महाजन से अपनी धरोहर वापिस मांगी । महाजन ने कहा----"वह लोहे की
तराजू तो चूहों ने खा ली ।"
बनिये का लड़का समझ
गया कि वह उस तराजू को देना नहीं चाहता । किन्तु अब उपाय कोई नहीं था । कुछ देर
सोचकर उसने कहा---"कोई चिन्ता नहीं । चुहों ने खा डाली तो चूहों का दोष है, तुम्हारा
नहीं । तुम इसकी चिन्ता न करो ।"
थोड़ी देर बाद उसने
महाजन से कहा----"मित्र ! मैं नदी पर स्नान के लिए जा रहा हूँ । तुम अपने
पुत्र धनदेव को मेरे साथ भेज दो, वह भी नहा आयेगा ।"
महाजन बनिये की
सज्जनता से बहुत प्रभावित था, इसलिए उसने तत्काल अपने पुत्र
को उनके साथ नदी-स्नान के लिए भेज दिया ।
बनिये ने महाजन के
पुत्र को वहाँ से कुछ दूर ले जाकर एक गुफा में बन्द कर दिया । गुफा के द्वार पर
बड़ी सी शिला रख दी,
जिससे वह बचकर भाग न पाये । उसे वहाँ बंद करके जब वह महाजन के घर
आया तो महाजन ने पूछा---"मेरा लड़का भी तो तेरे साथ स्नान के लिए गया था,
वह कहाँ है ?"
बनिये ने कहा
----"उसे चील उठा कर ले गई है ।"
महाजन ---"यह
कैसे हो सकता है ?
कभी चील भी इतने बड़े बच्चे को उठा कर ले जा सकती है ?"
बनिया---"भले
आदमी ! यदि चील बच्चे को उठाकर नहीं ले जा सकती तो चूहे भी मन भर भारी तराजू को
नहीं खा सकते । तुझे बच्चा चाहिए तो तराजू निकाल कर दे दे ।"
इसी तरह विवाद करते
हुए दोनों राजमहल में पहुँचे । वहाँ न्यायाधिकारी के सामने महाजन ने अपनी दुःख-कथा
सुनाते हुए कहा कि,
"इस बनिये ने मेरा लड़का चुरा लिया है ।"
धर्माधिकारी ने बनिये
से कहा ---"इसका लड़का इसे दे दो ।
बनिया
बोल----"महाराज ! उसे तो चील उठा ले गई है ।"
धर्माधिकारी
----"क्या कभी चील भी बच्चे को उठा ले जा सकती है ?"
बनिया
----"प्रभु ! यदि मन भर भारी तराजू को चूहे खा सकते हैं तो चील भी बच्चे को
उठाकर ले जा सकती है ।"
धर्माधिकारी के प्रश्न
पर बनिये ने अपनी तराजू का सब वृत्तान्त कह सुनाया ।
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कहानी कहने के बाद
दमनक को करटक ने फिर कहा कि----"तूने भी असम्भव को सम्भव बनाने का यत्न किया
है । तूने स्वामी का हितचिन्तक होते अहित कर दिया है । ऐसे हितचिन्तक मूर्ख
मित्रों की अपेक्षा अहितचिन्तक वैरी अच्छे होते हैं । हितचिन्तक मूर्ख बन्दर ने
हितसंपादन करते-करते राजा का खून ही कर दिया था ।"
दमनक ने
पूछा----"कैसे ?"
करटक ने बत बन्दर और
राजा की यह कहानी सुनाई----
किसी राजा के राजमहल
में एक बन्दर सेवक के रुप में रहता था । वह राजा का बहुत विश्वास-पात्र और भक्त था
। अन्तःपुर में भी वह बेरोक-टोक जा सकता था ।
एक दिन जब राजा सो
रहा था और बन्दर पङखा झल रहा था तो बन्दर ने देखा, एक
मक्खी बार-बार राजा की छाती पर बैठ जाती थी । पंखे से बार-बार हटाने पर भी वह
मानती नहीं थी, उड़कर फिर वहीं बैठी जाती थी ।
बन्दर को क्रोध आ गया
। उसने पंखा छोड़ कर हाथ में तलवार ले ली; और इस बार जब मक्खी
राजा की छाती पर बैठी तो उसने पूरे बल से मक्खी पर तलवार का हाथ छोड़ दिया । मक्खी
तो उड़ गई, किन्तु राजा की छाती तलवार की चोट से दो टुकडे़ हो
गई । राजा मर गया ।
कथा सुना कर करटक ने
कहा----"इसीलिए मैं मूर्ख मित्र की अपेक्षा विद्वान् शत्रु को अच्छा समझता
हूँ ।"
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इधर दमनक करटक
बात-चीत कर रहे थे,
उधर शेर और बैल का संग्राम चल रहा था । शेर ने थोड़ी देर बाद बैल को
इतना घायल कर दिया कि वह जमीन पर गिर कर मर गया ।
मित्र-हत्या के बाद
पिंगलक को बड़ा पश्चात्ताप हुआ, किन्तु दमनक ने आकर पिंगलक को
फिर राजनीति का उपदेश दिया । पिंगलक ने दमनक को फिर अपना प्रधानमन्त्री बना लिया ।
दमनक की इच्छा पूरी हुई । पिंगलक दमनक की सहायता से राज्य-कार्य करने लगा ।
॥प्रथम तन्त्र
समाप्त॥
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