त्रितियतंत्र
काकोलुकियम
दक्षिण देश में
महिलारोप्य नाम का एक नगर था । नगर के पास एक बड़ा पीपल का वृक्ष था । उसकी घने
पत्तों से ढकी शाखाओं पर पक्षियों के घोंसले बने हुए थे । उन्हीं में से कुछ
घोंसलों में कौवों के बहुत से परिवार रहते थे । कौवों का राजा वायसराज मेघवर्ण भी
वहीं रहता था । वहाँ उसने अपने दल के लिये एक व्यूह सा बना लिया था ।
उससे कुछ दूर पर्वत
की गुफा में उल्लओं का दल रहता था । इनका राजा अरिमर्दन था ।
दोनों में स्वाभाविक
वैर था । अरिमर्दन हर रात पीपल के वृक्ष के चारों ओर चक्कर लगाता था । वहाँ कोई
इकला-दुकेला कौवा मिल जाता तो उसे मार देता था । इसी तरह एक-एक करके उसने सैंकड़ों
कौवे मार दिये ।
तब, मेघवर्ण
ने अपने मन्त्रियों को बुलाकर उनसे उलूकराज के प्रहारों से बचने का उपाय पूछा ।
उसने कहा, "कठिनाई यह है कि हम रात को देख नहीं सकते और
दिन को उल्लू न जाने कहाँ जा छिपते हैं । हमें उनके स्थान के सम्बन्ध में कुछ भी
पता नहीं । समझ नहीं आता कि इस समय सन्धि, युद्ध, यान, आसन, संश्रय, द्वैधीभाव आदि उपायों में से किसका प्रयोग किया जाय ?"
पहले मेघवर्ण ने ’उज्जीवी’
नाम के प्रथम सचिव से प्रश्न किया । उसने उत्तर
दिया----"महाराज ! बलवान् शत्रु से युद्ध नहीं करना चाहिये । उससे तो सन्धि
करना ही ठीक है । युद्ध से हानि ही हानि है । समान बल वाले शत्रु से भी पहले सन्धि
करके, कछुए की तरह सिमटकर, शक्ति-संग्रह
करने के बाद ही युद्ध करना उचित है ।"
उसके बाद ’संजीवी’
नाम के द्वितीय सचिव से प्रश्न किया गया । उसने कहा----"महाराज
! शत्रु के साथ सन्धि नहीं करनी चाहिये । शत्रु सन्धि के बाद भी नाश ही करता है ।
पानी अग्नि द्वारा गरम होने के बाद भी अग्नि को बुझा ही देता है । विशेषतः क्रूर,
अत्यन्त लोभी और धर्म रहित शत्रु से तो कभी भी सन्धि न करे । शत्रु
के प्रति शान्ति-भाव दिखलाने से उसकी शत्रुता की आग और भी भड़क जाती है । वह और भी
क्रूर हो जाता है । जिस शत्रु से हम आमने-सामने की लड़ाई न लड़ सकें उसे छलबल
द्वारा हराना चाहिये, किन्तु सन्धि नहीं करनी चाहिये । सच तो
यह है कि जिस राजा की भूमि शत्रुओं के खून से और उनकी विधवा स्त्रियों के आँसुओं
से नहीं सींची गई, वह राजा होने योग्य ही नहीं ।"
तब मेघवर्ण ने तृतीय
सचिव अनुजीवी से प्रश्न किया । उसने कहा----"महाराज ! हमारा शत्रु दुष्ट है, बल
में भी अधिक है । इसलिये उसके साथ सन्धि और युद्ध दोनों के करने में हानि है ।
उसके लिये तो शास्त्रों में यान नीति का ही विधान है । हमें यहाँ से किसी दूसरे
देश में चला जाना चाहिये । इस तरह पीछे हटने में कायरता-दोष नहीं होता । शेर भी तो
हमला करने से पहले पीछे हटता है । वीरता का अभिमान करके जो हठपूर्वक युद्ध करता है
वह शत्रु की ही इच्छा पूरी करता है और अपने व अपने वंश का नाश कर लेता है ।"
इसके बाद मेघवर्ण ने
चतुर्थ सचिव ’प्रजीवी’ से प्रश्न किया । उसने कहा----"महाराज
! मेरी सम्मति में तो सन्धि, विग्रह और यान, तीनों में दोष है । हमारे लिये आसन-नीति का आश्रय लेना ही ठीक है । अपने
स्थान पर दृढ़ता से बैठना सब से अच्छा उपाय है । मगरमच्छ अपने स्थान पर बैठकर शेर
को भी हरा देता है , हाथी को भी पानी में खींच लेता है । वही
यदि अपना स्थान छोड़ दे तो चूहे से भी हार जाय । अपने दुर्ग में बैठकर हम बड़े से
बड़े शत्रु का सामना कर सकते हैं । अपने दुर्ग में बैठकर हमारा एक सिपाही शत-शत
शत्रुओं का नाश कर सकता है । हमें अपने दुर्ग को दृढ़ बनाना चाहिये । अपने स्थान
पर दृढता से खडे़ छोटे-छोटे वृक्षों को आँधी-तूफान के प्रबल झोंके भी उखाड़ नहीं
सकते ।"
तब मेघवर्ण ने
चिरंजीवी नाम के पंचम सचिव से प्रश्न किया । उसने कहा----"महाराज ! मुझे तो
इस समय संश्रय नीति ही उचित प्रतीत होती है । किसी बलशाली सहायक मित्र को अपने
पक्ष में करके ही हम शत्रु को हरा सकते हैं । अतः हमें यहीं ठहर कर किसी समर्थ
मित्र की सहायता ढूंढ़नी चाहिये । यदि एक समर्थ मित्र न मिले तो अनेक छोटे २
मित्रों की सहायता भी हमारे पक्ष को सबल बना सकती है । छोटे २ तिनकों से गुथी हुई
रस्सी भी इतनी मजबूत बन जाती है कि हाथी को जकड़कर बाँध लेती है ।
पांचों मन्त्रियों से
सलाह लेने के बाद वायसराज मेघवर्ण अपने वंशागत सचिव स्थिरजीवी के पास गया । उसे
प्रणाम करके वह बोला----"श्रीमान् ! मेरे सभी मन्त्री मुझे जुदा-जुदा राय दे
रहे हैं । आप उनकी सलाहें सुनकर अपना निश्चय दीजिये ।"
स्थिरजीवी ने उत्तर
दिया---"वत्स ! सभी मन्त्रियों ने अपनी बुद्धि के अनुसार ठीक ही मन्त्रणा दी
है,
अपने-अपने समय सभी नीतियाँ अच्छी होती हैं । किन्तु, मेरी सम्मति में तो तुम्हें द्वैधीभाव, या भेदनीति
का ही आश्रय लेना चाहिये । उचित यह है कि पहले हम सन्धि द्वारा शत्रु में अपने लिये
विश्वास पैदा कर लें, किन्तु शत्रु पर विश्वास न करें ।
सन्धि करके युद्ध की तैयारी करते रहें; तैयारी पूरी होने पर
युद्ध कर दें । सन्धिकाल में हमें शत्रु के निर्बल स्थलों का पता लगाते रहना
चाहिये । उनसे परिचित होने के बाद वहीं आक्रमण कर देना उचित है ।"
मेघवर्ण ने
कहा---"आपका कहना निस्संदेह सत्य है, किन्तु शत्रु का
निर्बल स्थल किस तरह देखा जाए ?"
स्थिरजीवी----"गुप्तचरों
द्वारा ही हम शत्रु के निर्बल स्थल की खोज कर सकते हैं । गुप्तचर ही राजा की आँख
का काम देता है ।"
स्थिरजीवी की बात
सुनने के बाद मेघवर्ण ने पूछा----"श्रीमान् ! यह तो बतलाइये कि कौवों और
उल्लुओं का यह स्वाभाविक वैर किस कारण से है ?"
तब स्थिरजीवी ने अगली
कथा सुनाई----
एक बार हंस, तोता,
बगुला, कोयल, चातक,
कबूतर, उल्लू आदि सब पक्षियों ने सभा करके यह
सलाह की कि उनका राजा वैनतेय केवल वासुदेव की भक्ति में लगा रहता है; व्याधों से उनकी रक्षा का कोई उपाय नहीं करता; इसलिये
पक्षियों का कोई अन्य राजा चुन लिया जाय । कई दिनों की बैठक के बाद सब ने एक
सम्मति से सर्वाङग सुन्दर उल्लू को राजा चुना ।
अभिषेक की तैयारियाँ
होने लगीं,
विविध तीर्थों से पवित्र जल मँगाया गया, सिंहासन
पर रत्न जड़े गए, स्वर्णघट भरे गए, मङगल
पाठ शुरु हो गया, ब्राह्मणों ने वेद पाठ शुरु कर दिया,
नर्तकियों ने नृत्य की तैयारी कर लीं; उलूकराज
राज्यसिंहासन पर बैठने ही वाले थे कि कहीं से एक कौवा आ गया ।
कौवे ने सोचा यह
समारोह कैसा ?
यह उत्सव किस लिए ? पक्षियों ने भी कौवे को
देखा तो आश्चर्य में पड़ गए । उसे तो किसी ने बुलाया ही नहीं था । भिर भी, उन्होंने सुन रखा था कि कौआ सब से चतुर कूटराजनीतिज्ञ पक्षी है; इसलिये उस से मन्त्रणा करने के लिये सब पक्षी उसके चारों ओर इकट्ठे हो गए
।
उलूक राज के
राज्याभिषेक की बात सुन कर कौवे ने हँसते हुए कहा----"यह चुनाव ठीक नहीं हुआ
। मोर,
हंस, कोयल, सारस,
चक्रवाक, शुक आदि सुन्दर पक्षियों के रहते
दिवान्ध उल्लू ओर टेढ़ी नाक वाले अप्रियदर्शी पक्षी को राजा बनाना उचित नहीं है ।
वह स्वभाव से ही रौद्र है और कटुभाषी है । फिर अभी तो वैनतेय राजा बैठा है । एक
राजा के रहते दूसरे को राज्यासन देना विनाशक है । पृथ्वी पर एक ही सूर्य होता है;
वही अपनी आभा से सारे संसार को प्रकाशित कर देता है । एक से अधिक
सूर्य होने पर प्रलय हो जाती है । प्रलय में बहुत से सूर्य निकल जाते हैं; उन से संसार में विपत्ति ही आती है, कल्याण नहीं
होता ।
राजा एक ही होता है ।
उसके नाम-कीर्तन से ही काम बन जाते हैं । चन्द्रमा के नाम से ही खरगोशों ने
हाथियों से छुटकारा पाया था ।
पक्षियों ने
पूछा----"कैसे ?"
कौवे ने तब खरगोश और
हाथी की यह कहानी सुनाई ---
एक वन में ’चतुर्दन्त’
नाम का महाकाय हाथी रहता था । वह अपने हाथीदल का मुखिया था । बरसों
तक सूखा पड़ने के कारण वहा के सब झील, तलैया, ताल सूख गये, और वृक्ष मुरझा गए । सब हाथियों ने
मिलकर अपने गजराज चतुर्दन्त को कहा कि हमारे बच्चे भूख-प्यास से मर गए, जो शेष हैं मरने वाले हैं । इसलिये जल्दी ही किसी बड़े तालाब की खोज की जाय
।
बहुत देर सोचने के
बाद चतुर्दन्त ने कहा----"मुझे एक तालाब याद आया है । वह पातालगङगा के जल से
सदा भरा रहता है । चलो, वहीं चलें ।" पाँच रात की लम्बी
यात्रा के बाद सब हाथी वहाँ पहुँचे । तालाब में पानी था । दिन भर पानी में खेलने
के बाद हाथियों का दल शाम को बाहर निकला । तालाब के चारों ओर खरगोशों के अनगिनत
बिल
थे । उन बिलों से
जमीन पोली हो गई थी । हाथियों के पैरों से वे सब बिल टूट-फूट गए । बहुत से खरगोश
भी हाथियों के पैरों से कुचले गये । किसी की गर्दन टूट गई, किसी
का पैर टूट गया । बहुत से मर भी गये ।
हाथियों के वापस चले
जाने के बाद उन बिलों में रहने वाले क्षत-विक्षत, लहू-लुहान
खरगोशों ने मिल कर एक बैठक की । उस में स्वर्गवासी खरगोशों की स्मृति में दुःख
प्रगट किया गया तथा भविष्य के संकट का उपाय सोचा गया । उन्होंने सोचा----आस-पास
अन्यत्र कहीं जल न होने के कारण ये हाथी अब हर रोज इसी तालाब में आया करेंगे और
उनके बिलों को अपने पैरों से रौंदा करेंगे । इस प्रकार दो चार दिनों में ही सब
खरगोशों का वंशनाश हो जायगा । हाथी का स्पर्श ही इतना भयङकर है जितना साँप का
सूँघना, राजा का हँसना और मानिनी का मान ।
इस संकट से बचाने का
उपाय सोचते-सोचते एक ने सुझाव रखा----"हमें अब इस स्थान को छोड़ कर अन्य देश
में चले जाना चाहिए । यह परित्याग ही सर्वश्रेष्ठ नीति है । एक का परित्याग परिवार
के लिये,
परिवार का गाँव के लिये, गाँव का शहर के लिये
और सम्पूर्ण पृथ्वी का परित्याग अपनी रक्षा के लिए करना पड़े तो भी कर देना चाहिये
।"
किन्तु, दूसरे
खरगोशों ने कहा----"हम तो अपने पिता-पितामह की भूमि को न छोड़ेंगे ।"
कुछ ने उपाय सुझाया
कि खरगोशों की ओर से एक चतुर दूत हाथियों के दलपति के पास भेजा जाय । वह उससे यह
कहे कि चन्द्रमा में जो खरगोश बैठा है उसने हाथियों को इस तालाब में आने से मना
किया है । संभव है चन्द्रमास्थित खरगोश की बात को वह मान जाय ।"
बहुत विचार के बाद
लम्बकर्ण नाम के खरगोश को दूत बना कर हाथियों के पास भेजा गया । लम्बकर्ण भी तालाब
के रास्ते में एक ऊँचे टीले पर बैठ गया; और जब हाथियों का झुण्ड वहाँ
आया तो वह बोला----"यह तालाब चाँद का अपना तालाब है । यह मत आया करो ।"
गजराज----"तू
कौन है ?"
लम्बकर्ण----"मैं
चाँद में रहने वाला खरगोश हूँ । भगवान् चन्द्र ने मुझे तुम्हारे पास यह कहने के
लिये भेजा है कि इस तालाब में तुम मत आया करो ।"
गजराज ने
कहा----"जिस भगवान् चन्द्र का तुम सन्देश लाए हो वह इस समय कहाँ है ?"
लम्बकर्ण---"इस
समय वह तालाब में हैं । कल तुम ने खरगोशों के बिलों का नाश कर दिया था । आज वे
खरगोशों की विनति सुनकर यहाँ आये हैं । उन्हीं ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है
।"
गजराज----"ऐसा
ही है तो मुझे उनके दर्शन करा दो । मैं उन्हें प्रणाम करके वापस चला जाऊँगा
।"
लम्बकर्ण अकेले गजराज
को लेकर तालाब के किनारे पर ले गया । तालाब में चाँद की छाया पड़ रही थी । गजराज ने
उसे ही चाँद समझ कर प्रणाम किया और लौट पड़ा । उस दिन के बाद कभी हाथियों का दल
तालाब के किनारे नहीं आया ।
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कहानी समाप्त होने के
बाद कौवे ने फिर कहा----"यदि तुम उल्लू जैसे नीच, आलसी,
कायर, व्यसनी और पीठ पीछे कटुभाषी पक्षी को
राजा बनाओगे तो शश कपिंजल की तरह नष्ट हो जाओगे ।
पक्षियों ने
पूछा----"कैसे ?"
कौवे ने
कहा----"सुनो----
एक जंगल के जिस वृक्ष
की शाखा पर मैं रहता था, उसके नीचे के तने में एक खोल के अन्दर
कपिंजल नाम का तीतर भी रहता था । शाम को हम दोनों में खूब बातें होती थीं । हम
एक-दूसरे को दिन भर के अनुभव सुनाते थे और पुराणों की कथायें कहते थे ।
एक दिन वह तीतर अपने
साथियों के साथ बहुत दूर के खेत में धान की नई-नई कोंपलें खाने चला गया । बहुत रात
बीते भी जब वह नहीं आया तो मैं बहुत चिन्तित होने लगा । मैंने सोचा किसी बधिक ने
जाल में न बाँध लिया हो, या किसी जंगली बिल्ली ने न खा लिया हो ।
बहुत रात बीतने के बाद उस वृक्ष के खाली पडे़ खोल में ’शीघ्रगो’
नाम का खरगोश घुस आया । मैं भी तीतर के वियोग में इतना दुःखी था कि
उसे रोका नहीं ।
दूसरे दिन कपिंजल
अचानक ही आ गया । धान की नई-नई कोंपले खाने के बाद वह खूब मोटा-ताजा हो गया था ।
अपनी खोल में आने पर उसने देखा कि वहाँ एक खरगोश बैठा है । उसने खरगोश को अपनी जगह
खाली करने को कहा । खरगोश भी तीखे स्वभाव का था; बोला
----"यह घर अब तेरा नहीं है । वापी, कूप, तालाब और वृक्ष के घरों का यही नियम है कि जो भी उनमें बसेरा करले उसका ही
वह घर हो जाता है । घर का स्वामित्व केवल मनुष्यों के लिये होता है , पक्षियों के लिये गृहस्वामित्व का कोई विधान नहीं है ।"
झगड़ा बढ़ता गया । अन्त
में,
कर्पिजल ने किसी भी तीसरे पंच से इसका निर्णय करने की बात कही ।
उनकी लड़ाई और समझौते की बातचीत को एक जंगली बिल्ली सुन रही थी । उसने सोचा,
मैं ही पंच बन जाऊँ तो कितना अच्छा है; दोनों
को मार कर खाने का अवसर मिल जायगा ।
यह सोच हाथ में माला
लेकर सूर्य की ओर मुख कर के नदी के किनारे कुशासन बिछाकर वह आँखें मूंद बैठ गयी और
धर्म का उपदेश करने लगी । उसके धर्मोपदेश को सुनकर खरगोश ने कहा---"यह देखो !
कोई तपस्वी बैठा है,
इसी को पंच बनाकर पूछ लें ।" तीतर बिल्ली को देखकर डर गया;
दूर से बोला----"मुनिवर ! तुम हमारे झगड़े का निपटारा कर दो ।
जिसका पक्ष धर्म-विरुद्ध होगा उसे तुम खा लेना ।" यह सुन बिल्ली ने आँख खोली
और कहा--- "राम-राम ! ऐसा न कहो । मैंने हिंसा का नारकीय मार्ग छोड़ दिया है ।
अतः मैं धर्म-विरोधी पक्ष की भी हिंसा नहीं करुँगी । हाँ, तुम्हारा
निर्णय करना मुझे स्वीकार है । किन्तु, मैं वृद्ध हूँ;
दूर से तुम्हारी बात नहीं सुन सकती, पास आकर
अपनी बात कहो ।" बिल्ली की बात पर दोनों को विश्वास हो गया; दोनों ने उसे पंच मान लिया, और उसके पास आगये । उसने
भी झपट्टा मारकर दोनों को एक साथ ही पंजों में दबोच लिया ।
इसी कारण, मैं
कहता हूँ कि नीच और व्यसनी को राजा बनाओगे तो तुम सब नष्ट हो जाओगे । इस दिवान्ध
उल्लू को राजा बनाओगे तो वह भी रात के अंधेरे में तुम्हारा नाश कर देगा ।"
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कौवे की बात सुनकर सब
पक्षी उल्लू को राज-मुकुट पहनाये बिना चले गये । केवल अभिषेक की प्रतीक्षा करता
हुआ उल्लू उसकी मित्र कृकालिका और कौवा रह गये । उल्लू ने पूछा----"मेरा
अभिषेक क्यों नहीं हुआ ?"
कृकालिका ने
कहा----"मित्र ! एक कौवे ने आकर रंग में भंग कर दिया । शेष सब पक्षी उड़कर
चले गये हैं,
केवल वह कौवा ही यहाँ बैठा है ।"
तब, उल्लू
ने कौवे से कहा----"दुष्ट कौवे ! मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था जो तूने मेरे
कार्य में विघ्न डाल दिया । आज से मेरा तेरा वंशपरंपरागत वैर रहेगा ।"
यह कहकर उल्लू वहाँ
से चला गया । कौवा बहुत चिन्तित हुआ वहीं बैठा रहा । उसने सोचा----"मैंने
अकारण ही उल्लू से वैर मोल ले लिया । दुसरे के मामलों में हस्तक्षेप करना और कटु
सत्य कहना भी दुःखप्रद होता है ।"
यही सोचता-सोचता वह
कौवा वहाँ से आ गया । तभी से कौओं और उल्लुओं में स्वाभाविक वैर चला आता है ।
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कहानी सुनने के बाद
मेघवर्ण ने पूछा----"अब हमें क्या करना चाहिये ?"
स्थिरजीवी ने धीरज
बँधाते हुए कहा----"हमें छल द्वारा शत्रु पर विजय पानी चाहिये । छल से
अत्यन्त बुद्धिमान् ब्राह्मण को भी मूर्ख बनाकर धूर्तों ने जीत लिया था ।"
मेघवर्ण ने
पूछा----"कैसे ?"
स्थिरजीवी ने तब
धूर्तों और ब्राह्मण की यह कथा सुनाई----
एक स्थान पर
मित्रशर्मा नाम का धार्मिक ब्राह्मण रहता था । एक दिन माघ महीने में, जब
आकाश पर थोडे़-थोडे़ बादल मंडरा रहे थे, वह अपने गाँव से चला
और दूर के गाँव में जाकर अपने यजमान से बोला----"यजमाज जी ! मैं अगली अमावस
के दिन यज्ञ कर रहा हूँ । उसके लिये एक पशु दे दो ।"
यजमान ने एक
हृष्ट-पुष्ट उसे दान दे दिया । ब्राह्मण ने भी पशु को अपने कन्धों पर उठाकर
जल्दी-जल्दी अपने घर की राह ली । ब्राह्मण के पास मोटा-ताजा पशु देखकर तीन ठगों के
मुख में लोभवश पानी आ गया । वे कई दिनों से भूखे थे । उन्होंने उस पशु को हस्तगत
करने की एक योजना बनाई । उसके अनुसार उनमें से एक वेष बदलकर ब्राह्मण के सामने आ
गया और बोला---
"ब्राह्मण !
तुम्हारी बुद्धि को क्या हो गया है ? इस अस्पृश्य अपवित्र कुत्ते
को कन्धों पर उठाकर क्यों लेजा रहे हो ? लोग तुम पर हँसेंगे
।"
ब्राह्मण ने क्रोध
में आकर उसका उत्तर दिया----"मूर्ख ! कहीं तू अन्धा तो नहीं है, जो
इस पशु को कुत्ता कहता है ।"
कुछ रास्ता पार करने
के बाद दूसरा धूर्त्त भी वेष बदलकर ब्राह्मण के सामने आकर कहने लगा----
"ब्राह्मण ! यह
क्या अनर्थ कर रहे हो ? इस मरे पशु को कन्धों पर उठाकर क्यों ले
जा रहे हो ?"
उसे भी ब्राह्मण ने
क्रोध से फटकारते हुए कहा----"अन्धा तो नहीं हो गया तू, जो
इसे मृत पशु बतला रहा है !"
ब्राह्मण थोड़ी दूर ही
और गया होगा कि तीसरा धूर्त्त भी वेष बदलकर सामने से आ गया । ब्राह्मण को देखकर वह
भी कहने लगा---"छिः-छिः ब्राह्मण ! यह क्या कर रहे हो ? गधे
को कन्धों पर उठाकर ले जाते हो । गधे को तो छूकर भी स्नान करना पड़ता है । इसे छोड़
दो । कहीं कोई देख लेगा तो गाँव भर में तुम्हारा अपयश हो जायगा ।"
यह सुनकर ब्राह्मण ने
उस पशु को भी गधा मानकर रास्ते में छोड़ दिया । वह पशु छूटकर घर की ओर भागा, लेकिन
ठगों ने मिलकर उसे पकड़ लिया और खा डाला ।
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इसीलिये मैं कहता हूँ
कि बुद्धिमान् व्यक्ति भी छल-बल से पराजित हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त बहुत से
दुर्बलों के साथ भी विरोध करना अच्छा नहीं होता । सांप ने चींटियों से विरोध किया
था;
बहुत होने से चींटियों ने सांप को मार डाला ।
मेघवर्ण ने
पूछा---"यह कैसे ?"
स्थिरजीवी ने तब
सांप-चींटियों की यह कथा सुनाई---
एक वल्मीक में बहुत
बड़ा काला नाग रहता था । अभिमानी होने के कारण उसका नाम था ’अतिदर्प’
। एक दिन वह अपने बिल को छोड़कर एक और संकीर्ण बिल से बाहर जाने का
यत्न करने लगा । इससे उसका शरीर कई स्थानों से छिल गया । जगह-जगह घाव हो गए,
खून निकलने लगा । खून की गन्ध पाकर चींटियां आ गईं और उसे घेरकर तंग
करने लगीं । सांप ने कई चींटियों को मारा, किन्तु कहाँ तक
मारता ? अन्त में चींटियों ने ही उसे काट-काट कर मार दिया ।
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स्थिरजीवि ने कहा
---"इसीलिए मैं कहता हूँ कि बहुतों के साथ विरोध न करो ।"
मेघवर्ण----"आप
जैसा आदेश करेंगे,
वैसा ही मैं करुँगा ।"
स्थिरजीवी----"अच्छी
बात है । मैं स्वयं गुप्तचर का काम करुंगा । तुम मुझ से लड़कर, मुझे
लहू-लुहान करने के बाद इसी वृक्ष के नीचे फेंककर स्वयं सपरिवार ऋष्यमूक पर्वत पर
चले जाओ । मैं तुम्हारे शत्रु उल्लुओं का विश्वासपात्र बनकर उन्हें इस वृक्ष पर
बने अपने दुर्ग में बसा लूंगा और अवसर पाकर उन सब का नाश कर दूंगा । तब तुम फिर
यहाँ आ जाना ।"
मेघवर्ण ने ऐसा ही
किया । थोड़ी देर में दोनों की लड़ाई शुरु हो गई । दूसरे कौवे जब उसकी सहायता को आए
तो उसने उन्हें दूर करके कहा----"इसका दण्ड मैं स्वयं दे लूंगा ।" अपनी
चोंचों के प्रहार से घायल करके वह स्थिरजीवी को वहीं फैंकने के बाद अपने आप
परिवारसहित ऋष्यमूक पर्वत पर चला गया ।
तब उल्लू की मित्र
कृकालिका ने मेघवर्ण के भागने और अमात्य स्थिरजीवी से लडा़ई होने की बात उलूकराज
से कह दी । उलूकराज ने भी रात आने पर दलबल समेत पीपल के वृक्ष पर आक्रमण कर दिया ।
उसने सोचा ---भागते हुए शत्रु को नष्ट करना अधिक सहज होता है । पीपल के वृक्ष को
घेरकर उसने शेष रह गए सभी कौवों को मार दिया ।
अभी उलूकराज की सेना
भागे हुए कौवों का पीछा करने की सोच रही थी कि आहत स्थिरजीवी ने कराहना शुरु कर
दिया । उसे सुनकर सब का ध्यान उसकी ओर गया । सब उल्लू उसे मारने को झपटे । तब
स्थिरजीवी ने कहा----
"इससे पूर्व कि
तुम मुझे जान से मार डालो, मेरी एक बात सुन लो । मैं मेघवर्ण का
मन्त्री हूँ । मेघवर्ण ने ही मुझे घायल करके इस तरह फैंक दिया था । मैं तुम्हारे
राजा से बहुत सी बातें कहना चाहता हूँ । उससे मेरी भेंट करवा
दो ।" सब
उल्लुओं ने उलूकराज से यह बात कही । उलूकराज स्वयं वहाँ आया । स्थिरजीवी को देखकर
वह आश्चर्य से बोला----"तेरी यह दशा किसने कर दी ?"
स्थिरजीवी----"देव
! बात यह हुई कि दुष्ट मेघवर्ण आपके ऊपर सेना सहित आक्रमण करना चाहता था । मैंने उसे
रोकते हुए कहा कि वे बहुत बलशाली हैं, उनसे युद्ध मत करो, उनसे सुलह कर लो । बलशाली शत्रु से सन्धि करना ही उचित है; उसे सब कुछ देकर भी वह अपने प्राणों की रक्षा तो कर ही लेता है । मेरी बात
सुनकर उस दुष्ट मेघवर्ण ने समझा कि मैं आपका हितचिन्तक हूँ । इसीलिए वह मुझ पर झपट
पड़ा । अब आप ही मेरे स्वामी हैं । मैं आपकी शरण आया हूँ । जब मेरे घाव भर जायंगे
तो मैं स्वयं आपके साथ जाकर मेघवर्ण को खोज निकालूंगा और उसके सर्वनाश में आपका
सहायक बनूंगा ।"
स्थिरजीवी की बात
सुनकर उलूकराज ने अपने सभी पुराने मंत्रियों से सलाह ली । उसके पास भी पांच
मन्त्री थे " रक्ताक्ष, क्रूराक्ष, दीप्ताक्ष, वक्रनास, प्राकारकर्ण
।
पहले उसने रक्ताक्ष
से पूछा---"इस शरणागत शत्रु मन्त्री के साथ कौनसा व्यवहार किया जाय ?" रक्ताक्ष ने कहा कि इसे
अविलम्ब मार दिया जाय
। शत्रु को निर्बल अवस्था में ही मर देना चाहिए, अन्यथा
बली होने के बाद वही दुर्जय हो जाता है । इसके अतिरिक्त एक और बात है; एक बार टूट कर जुड़ी हुई प्रीति स्नेह के अतिशय प्रदर्शन से भी बढ़ नहीं
सकती ।"
उलूकराज ने
पूछा---"वह कैसे ?"
रक्ताक्ष ने तब
ब्राह्मण और साँप की यह कथा सुनाई----
एक स्थान पर हरिदत्त
नाम का ब्राह्मण रहता था । पर्याप्त भिक्षा न मिलने से उसने खेती करना शुरु कर
दिया था । किन्तु खेती कभी ठीक नहीं हुई । किसी न किसी कारण फसल खराब हो जाती थी ।
गर्मियों के दिनों
में एक दिन वह अपने खेत में वृक्ष की छाया के नीचे लेटा हुआ था कि उसने पास ही एक
बिल पर फन फैलाकर बैठे हुए भयंकर सांप को देखा । सांप को देखकर सोचने लगा, अवश्यमेव
यही मेरा क्षेत्र-देवता है; मैंने इसकी कभी पूजा नहीं की,
तभी मेरी खेती सूख जाती है, अब इसकी पूजा किया
करुंगा । यह सोचकर वह कहीं से दूध मांग कर पात्र में डाल लाया और बिल के पास जाकर
बोला---’क्षेत्रपाल ! मैंने अज्ञानवश आजतक तेरी पूजा नहीं की
। आज मुझे ज्ञान हुआ है । पूजा की यह भेंट स्वीकार करो और मेरे पिछले अपराधों को
क्षमा कर दें ।’ यह कह कर वह दूध का पात्र वहीं रखकर वापिस आ
गया ।
अगले दिन सुबह जब वह
बिल के पास गया तो देखता क्या है कि सांप ने दूध पी लिया है और पात्र में एक सोने
की मुहर पड़ी है । दूसरे दिन भी ब्राह्मण ने जिस पात्र में दूध रखा था उस में सोने
की मुहर पड़ी मिली । इसके बाद प्रतिदिन उसे दूध के बदले सोने की मुहर मिलने लगी ।
वह भी नियम से प्रतिदिन दूध देने लगा ।
एक दिन हरिदत्त को
गाँव से बाहर जाना था । इसलिए उसने अपने पुत्र को पूजा का दूध ले जाने के लिए आदेश
दिया । पुत्र ने भी पात्र में दूध रख दिया । दूसरे दिन उसे भी मुहर मिल गई । तब, वह
सोचने लगा : ’इस वल्मीक में सोने की मुहरों का खजाना छिपा
हुआ है, क्यों न इसे तोड़कर पूरा खजाना एक बार ही हस्तगत कर
लिया जाय ।’ यह सोचकर उसने अगले दिन जब दूध का पात्र रखा और
सांप दूध पीने आया तो लाठी से सांप पर प्रहार किया । लाठी का निशाना चूक गया ।
सांप ने क्रोध में आकर हरिदत्त के पुत्र को काट लिया, जिससे
वह वहीं मर गया ।
दूसरे दिन जब हरिदत्त
वापिस आया तो स्वजनों से पुत्रमृत्यु का सब वृत्तान्त सुनकर बोला---"पुत्र ने
अपने किये का फल पाया है । जो व्यक्ति अपनी शरण आये जीवों पर दया नहीं करता, उसके
बने-बनाए काम भी बिगड़ जाते हैं, जैसे पद्मसर में हंसों का
काम बिगड़ गया ।"
स्वजनों ने पूछा----"कैसे
?"
हरिदत्त ने तब हंसों
की अगली कथा सुनाई----
एक नगर में चित्ररथ
नाम का राजा रहता था । उसके पास एक पद्मसर नाम का तालाब था । राजा के सिपाही उसकी
रखवाली करते थे । तालाब में बहुत से स्वर्णमय हंस रहते थे । प्रति छः महीने बाद
अनेक सोने के पंख मिल जाते थे ।
कुछ दिन बाद वहाँ एक
बहुत बड़ा स्वर्णपक्षी आ गया । हंसों ने उस पक्षी से कहा कि तुम इस तालाब में मत
रहो । हम इस तालाब में प्रति छः मास बाद सोने का पंख देकर रहते हैं । मूल्य देकर
हम ने यह तालाब किराये पर ले रखा है ।" पक्षी ने हंसों की बात पर कान नहीं दिये
। दोनों में संघर्ष चलता रहा ।
एक दिन वह पक्षी राजा
के पास जाकर बोला---"महाराज ! ये हंस कहते हैं कि यह तालाब उनका है, राजा
का नहीं; राजा उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता । मैंने उस से कहा
था कि तुम राजा के प्रति अपमानभरे शब्द मत कहो, किन्तु वे न
माने ।"
राजा कानों का कच्चा
था । उसने पक्षी के कथन को सत्य मानकर तालाब के स्वर्णमय हंसों को मारने के लिए
अपने सिपाहियों को भेज दिया । हंसों ने जब सिपाहियों को लाठियाँ लेकर तालाब की ओर
आते देखा तो वे समझ गए कि अब इस स्थान पर रहना उचित नहीं । अपने वृद्ध नेता की
सलाह से वे उसी समय वहाँ से उड़ गये ।
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स्वजनों को यह कहानी
कहने के बाद हरिदत्त शर्मा ने फिर क्षेत्रपाल सांप की पूजा का विचार किया । दूसरे
दिन वह पहले की तरह दूध लेकर वल्मीक पर पहुँचा, और
साँप की स्तुति प्रारम्भ की । सांप बहुत देर बाद वल्मीक से थोड़ा बाहर निकल कर ब्राह्मण
से बोला ----
"ब्राह्मण ! अब
तू पूजा भाव से नहीं, बल्कि लोभ से यहाँ आया है । अब तेरा मेरा
प्रेम नहीं हो सकता । तेरे पुत्र ने जवानी के जोश में मुझ पर लाठी का प्रहार किया
। मैंने उसे डस लिया । अब न तो तू ही पुत्र-वियोग के दुःख को भूल सकता है और न ही
मैं लाठी-प्रहार के कष्ट को भुला सकता हूँ ।"
यह कहकर वह एक बहुत
बड़ा हीरा देकर अपने बिल में घुस गया, और जाते हुए कह गया कि
"आगे कभी इधर आने का कष्ट न करना ।"
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यह कहानी कहने के बाद
रक्ताक्ष ने कहा,
"इसीलिए मैं कहता था कि एक बार टूटकर जुड़ी हुई प्रीति कभी
स्थिर नहीं रहती ।"
रक्ताक्ष से सलाह
लेने के बाद उलूकराज ने दूसरे मन्त्री क्रूराक्ष से सलाह ली कि स्थिरजीवी का क्या
किया जाय ?
क्रूराक्ष ने
कहा----"महाराज ! मेरी राय में तो शरणागत की हत्या पाप है । शरणागत का सत्कार
हमें उसी तरह करना चाहिए जिस तरह कबूतर ने अपना माँस देकर किया था ।
राजा ने
पूछा---"किस तरह ?"
तब क्रराक्ष ने
कपोत-व्याध की यह कहानी सुनाई----
एक जगह एक लोभी और
निर्दय व्याध रहता था । पक्षियों को मारकर खाना ही उसका काम था । इस भयङकर काम के
कारण उसके प्रियजनों ने भी उसका त्याग कर दिया था । तब से वह अकेला ही, हाथ
में जाल और लाठी लेकर जङगलों में पक्षियों के शिकार के लिये घूमा करता था ।
एक दिन उसके जाल में
एक कबूतरी फँस गई । उसे लेकर जब वह अपनी कुटिया की ओर चला तो आकाश बादलों से घिर
गया । मूसलधार वर्षा होने लगी । सर्दी से ठिठुर कर व्याध आश्रय की खोज करने लगा ।
थोड़ी दूरी पर एक पीपल का वृक्ष था । उसके खोल में घुसते हुए उसने
कहा----"यहाँ जो भी रहता है, मैं उसकी शरण जाता हूँ । इस
समय जो मेरी सहायता करेगा उसका जन्मभर ऋणी रहूँगा ।"
उस खोल में वही कबूतर
रहता था जिसकी पत्नी को व्याध ने जाल में फँसाया था । कबूतर उस समय पत्नी के
वियोग से दुःखी होकर विलाप कर रहा था । पति को प्रेमातुर पाकर कबूतरी का मन आनन्द
से नाच उठा । उसने मन ही मन सोचा----’मेरे धन्य भाग्य हैं जो ऐसा
प्रेमी पति मिला है । पति का प्रेम ही पत्नी का जीवन है । पति की प्रसन्नता से ही
स्त्री-जीवन सफल होता है । मेरा जीवन सफल हुआ ।’ यह विचार कर
वह पति से बोली---
"पतिदेव ! मैं
तुम्हारे सामने हूँ । इस व्याध ने मुझे बाँध लिया है । यह मेरे पुराने कर्मों का
फल है । हम अपने कर्मफल से ही दुःख भोगते हैं । मेरे बन्धन की चिन्ता छोड़कर तुम इस
समय अपने शरणागत अतिथि की सेवा करो । जो जीव अपने अतिथि का सत्कार नहीं करता उसके
सब पुण्य छूटकर अतिथि के साथ चले जाते हैं और सब पाप वहीं रह जाते हैं ।"
पत्नी की बात सुन कर
कबूतर ने व्याध से कहा---"चिन्ता न करो वधिक ! इस घर को भी अपना ही जानो ।
कहो,मैं तुम्हारी कौन सी सेवा कर सकता हूँ ?"
व्याध----"मुझे
सर्दी सता रही है,
इसका उपाय कर दो ।"
कबूतर ने लकड़ियाँ
इकठ्ठी करके जला दीं । और कहा----"तुम आग सेक कर सर्दी दूर कर लो ।"
कबूतर को अब
अतिथि-सेवा के लिये भोजन की चिन्ता हुई । किन्तु, उसके
घोंसले में तो अन्न का एक दाना भी नहीं था । बहुत सोचने के बाद उसने अपने शरीर से
ही व्याध की भूख मिटाने का विचार किया । यह सोच कर वह महात्मा कबूतर स्वयं जलती आग
में कूद पड़ा । अपने शरीर का बलिदान करके भी उसने व्याध के तर्पण करने का प्रण पूरा
किया ।
व्याध ने जब कबूतर का
यह अद्भुत बलिदान देखा तो आश्चर्य में डूब गया । उसकी आत्मा उसे धिक्कारने लगी ।
उसी क्षण उसने कबूतरी को जाल से निकाल कर मुक्त कर दिया और पक्षियों को फँसाने के
जाल व अन्य उपकरणों को तोड़-फोड़ कर फैंक दिया ।
कबूतरी अपने पति को
आग में जलता देखकर विलाप करने लगी । उसने सोचा----"अपने पति के बिना अब मेरे
जीवन का प्रयोजन ही क्या है ? मेरा संसार उजड़ गया, अब किसके लिये प्राण धारण करुँ ?" यह सोच कर वह
पतिव्रत भी आग में कूद पड़ी । इन दोंनों के बलिदान पर आकाश से पुष्पवर्षा हुई ।
व्याध ने भी उस दिन से प्राणी-हिंसा छोड़ दी ।
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क्रूराक्ष के बाद
अरिमर्दन ने दीप्ताक्ष से प्रश्न किया ।
दीप्ताक्ष ने भी यही
सम्मति दी ।
इसके बाद अरिमर्दन ने
वक्रनास से प्रश्न किया । वक्रनास ने भी कहा----"देव ! हमें इस शरणागत शत्रु
की हत्या नहीं करनी चाहिये । कई बार शत्रु भी हित का कार्य कर देते हैं । आपस में
ही जब उनका विवाद हो जाए तो एक शत्रु दूसरे शत्रु को स्वयं नष्ट कर देता है । इसी
तरह एक बार चोर ने ब्राह्मण के प्राण बचाये थे, और
राक्षस ने चोर के हाथों ब्राह्मण के बैलों की चोरी को बचाया था ।"
अरिमर्दन ने
पूछा---"किस तरह ?"
वक्रनास ने तब चोर और
राक्षस की यह कहानी सुनाई----
एक गाँव में द्रोण
नाम का ब्राह्मण रहता था । भिक्षा माँग कर उसकी जीविका चलती थी । सर्दी-गर्मी
रोकने के लिये उसके पास पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे । एक बार किसी यजमान ने
ब्राह्मण पर दया करके उसे बैलों की जोड़ी दे दी । ब्राह्मण ने उनका भरन-पोषण बड़े
यत्न से किया । आस-पास से घी-तेल-अनाज माँगकर भी उन बैलों को भरपेट खिलाता रहा ।
इससे दोनों बैल खूब मोटे-ताजे हो गये । उन्हें देखकर एक चोर के मन में लालच आ गया
। उसने चोरी करके दोनों बैलों को भगा लेजाने का निश्चय कर लिया । इस निश्चय के साथ
जब वह अपने गाँव से चला तो रास्ते में उसे लंबे-लंबे दांतों, लाल
आँखों, सूखे बालों और उभरी हुई नाक वाला एक भयङकर आदमी मिला
।
उसे देखकर चोर ने
डरते-डरते पूछा----"तुम कौन हो ?"
उस भयङकर आकृति वाले
आदमी ने कहा----"मैं ब्रह्मराक्षस हूँ, पास वाले ब्राह्मण के
घर से बैलों की जोड़ी चुराने जा रहा हूँ ।"
राक्षस ने कहा
----"मित्र ! पिछले छः दिन से मैंने कुछ भी नहीं खाया । चलो, आज
उस ब्राह्मण को मारकर ही भूख मिटाऊँगा । हम दोनों एक ही मार्ग के यात्री हैं । चलो,
साथ-साथ चलें ।"
शाम को दोनों छिपकर
ब्राह्मण के घर में घुस गये । ब्राह्मण के शैयाशायी होने के बाद राक्षस जब उसे
खाने के लिये आगे बढ़ने लगा तो चोर ने कहा----"मित्र ! यह बात न्यायानुकूल
नहीं है । पहले मैं बैलों की जोड़ी चुरा लूँ, तब तू अपना काम करना
।"
राक्षस ने
कहा----"कभी बैलों को चुराते हुए खटका हो गया और ब्राह्मण जाग पड़ा तो अनर्थ
हो जायगा,
मैं भूखा ही रह जाऊँगा । इसलिये पहले मुझे ब्राह्मण को खा लेने दे,
बाद में तुम चोरी कर लेना ।"
चोर ने उत्तर दिया
----"ब्राह्मण की हत्या करते हुए यदि ब्राह्मण बच गया और जागकर उसने रखवाली
शुरु कर दी तो मैं चोरी नहीं कर सकूंगा । इसलिये पहले मुझे अपना काम कर लेने दे
।"
दोनों में इस तरह की
कहा-सुनी हो ही रही थी कि शोर सुनकर ब्राह्मण जाग उठा । उसे जागा हुआ देख चोर ने
ब्राह्मण से कहा----"ब्राह्मण ! यह राक्षस तेरी जान लेने लगा था, मैंने
इसके हाथ से तेरी रक्षा कर दी ।"
राक्षस
बोला----"ब्राह्मण ! यह चोर तेरे बैलों को चुराने आया था, मैंने
तुझे बचा लिया ।"
इस बातचीत में
ब्राह्मण सावधान हो गया । लाठी उठाकर वह अपनी रक्षा के लिये तैयार हो गया । उसे
तैयार देखकर दोनों भाग गये ।
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उसकी बात सुनने के
बाद अरिमर्दन ने फिर दुसरे मन्त्री ’प्राकारकर्ण’ से पूछा----"सचिव ! तुम्हारी क्या सम्मति है ?"
प्राकारकर्ण ने कहा
----"देव ! यह शरणागत व्यक्ति अवध्य ही है । हमें अपने परस्पर के मर्मों की
रक्षा करनी चाहिये । जो ऐसा नहीं करते वे वल्मीक में बैठे साँप की तरह नष्ट हो
जाते हैं ।"
अरिमर्दन ने
पूछा----"किस तरह ?"
प्राकारकर्ण ने तब
वल्मीक और साँप की यह कहानी सुनाई---
एक नगर में देवशक्ति
नाम का राजा रहता था । उसके पुत्र के पेट में एक साँप चला गया था । उस साँप ने
वहीं अपना बिल बना लिया था । पेट में बैठे साँप के कारण उसके शरीर का प्रति-दिन
क्षय होता जा रहा था । बहुत उपचार करने के बाद भी जब स्वास्थ्य में कोई सुधार न
हुआ तो अत्यन्त निराश होकर राजपुत्र अपने राज्य से बहुत दूर दूसरे प्रदेश में चला
गया । और वहाँ सामान्य भिखारी की तरह मन्दिर में रहने लगा ।
उस प्रदेश के राजा
बलि की दो नौजवान लड़कियाँ थीं । वह दोनों प्रति-दिन सुबह अपने पिता को प्रणाम करने
आती थीं । उनमें से एक राजा को नमस्कार करती हुई कहती थी---
"महाराज ! जय हो
। आप की कृपा से ही संसार के सब सुख हैं ।" दूसरी कहती थी----"महाराज !
ईश्वर आप के कर्मों का फल दे ।" दूसरी के वचन को सुनकर महाराज क्रोधित हो
जाता था । एक दिन इसी क्रोधावेश में उसने मन्त्रि को बुलाकर आज्ञा
दी----"मन्त्रि ! इस कटु बोलने वाली लड़की को किसी गरीब परदेसी के हाथों में
दे दो,
जिससे यह अपने कर्मों का फल स्वयं चखे ।"
मन्त्रियों ने
राजाज्ञा से उस लड़की का विवाह मन्दिर में सामान्य भिखारी की तरह ठहरे परदेसी
राजपुत्र के साथ कर दिया । राजकुमारी ने उसे ही अपना पति मानकर सेवा की । दोनों ने
उस देश को छोड़ दिया ।
थोड़ी दूर जाने पर वे
एक तालाब के किनारे ठहरे । वहाँ राजपुत्र को छोड़कर उसकी पत्नी पास के गाँव से
घी-तेल-अन्न आदि सौदा लेने गई । सौदा लेकर जब वह वापिस आ रही थी , तब
उसने देखा कि उसका पति तालाब से कुछ दूरी पर एक साँप के बिल के पास सो रहा है ।
उसके मुख से एक फनियल साँप बाहर निकलकर हवा खा रहा था । एक दूसरा साँप भी अपने बिल
से निकल कर फन फैलाये वहीं बैठा था । दोनों में बातचीत हो रही थी ।
बिल वाला साँप पेट
वाले साँप से कह रहा था----"दुष्ट ! तू इतने सर्वांग सुन्दर राजकुमार का जीवन
क्यों नष्ट कर रहा है ?"
पेट वाला साँप
बोला----"तू भी तो इस बिल में पड़े स्वर्णकलश को दूषित कर रहा है ।"
बिल वाला साँप
बोला----"तो क्या तू समझता है कि तुझे पेट से निकालने की दवा किसी को भी
मालूम नहीं । कोई भी व्यक्ति राजकुमार को उकाली हुई कांजी की राई पिलाकर तुझे मार
सकता है ।"
इस तरह दोनों ने एक
दूसरे का भेद खोल दिया । राजकन्या ने दोनों की बातें सुन ली थीं । उसने उनकी बताई
विधियों से ही दोनों का नाश कर दिया । उसका पति भी नीरोग होगया; और
बिल में से स्वर्ण-भरा कलश पाकर गरीबी भी दूर होगई । तब, दोनों
अपने देश को चल दिये । राजपुत्र के माता-पिता दोनों ने उनका स्वागत किया ।
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अरिमर्दन ने भी
प्राकारकर्ण की बात का समर्थन करते हुए यही निश्चय किया कि स्थिरजीवी की हत्या न
की जाय । रक्ताक्ष का उलूकराज के इस निश्चय से गहरा मतभेद था । वह स्थिरजीवी की
मृत्यु में ही उल्लुओं का हित देखता
था । अतः उसने अपनी
सम्मति प्रकट करते हुए अन्य मन्त्रियों से कहा कि तुम अपनी मूर्खता से उलूकवंश का
नाश कर दोगे । किन्तु रक्ताक्ष की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया ।
उलूकराज के सैनिकों
ने स्थिरजीवी कौवे को शैया पर लिटाकर अपने पर्वतीय दुर्ग की ओर कूच कर दिया ।
दुर्ग के पास पहुँच कर स्थिरजीवी ने उलूकराज से निवेदन किया----"महाराज ! मुझ
पर इतनी कृपा क्यों करते हो ? मैं इस योग्य नहीं हूँ ।
अच्छा हो, आप मुझे जलती हुई आग मेम डाल दें ।"
उलूकराज ने
कहा----"ऐसा क्यों कहते हो ?"
स्थिरजीवी----"स्वामी
! आग में जलकर मेरे पापों का प्रायश्चित्त हो जायगा । मैं चाहता हूँ कि मेरा
वायसत्व आग में नष्ट हो जाय और मुझ में उलूकत्व आ जाय, तभी
मैं उस पापी मेघवर्ण से बदला ले सकूंगा ।"
रक्ताक्ष स्थिरजीवी
की इस पाखंडभरी चालों को खूब समझ रहा था । उसने कहा---"स्थिरजीवी ! तू बड़ा
चतुर और कुटिल है । मैं जानता हूँ कि उल्लू बनकर भी तू कौवों का ही हित सोचेगा ।
तुझे भी उसी चुहिया के तरह अपने वंश से प्रेम है, जिसने
सूर्य, चन्द्र, वायु, पर्वत आदि वरों को छोड़कर एक चूहे का ही वरण किया था ।
मन्त्रियों ने
रक्ताक्ष से पूछा----"वह किस तरह ?"
रक्ताक्ष ने तब
चुहिया के स्वयंवर की यह कथा सुनाई----
गंगा नदी के किनारे
एक तपस्वियों का आश्रम था । वहाँ याज्ञवल्क्य नाम के मुनि रहते थे । मुनिवर एक नदी
के किनारे जल लेकर आचमन कर रहे थे कि पानी से भरी हथेली में ऊपर से एक चुहिया गिर
गई । उस चुहिया को आकाश मेम बाज लिये जा रहा था । उसके पंजे से छूटकर वह नीचे गिर
गई । मुनि ने उसे पीपल के पत्ते पर रखा और फिर से गंगाजल में स्नान किया । चुहिया
में अभी प्राण शेष थे । उसे मुनि ने अपने प्रताप से कन्या का रुप दे दिया, और
अपने आश्रम में ले आये । मुनि-पत्नी को कन्या अर्पित करते हुए मुनि ने कहा कि इसे
अपनी ही लड़की की तरह पालना । उनके अपनी कोई सन्तान नहीं थी , इसलिये मुनिपत्नी ने उसका लालन-पालन बड़े प्रेम से किया । १२ वर्ष तक वह
उनके आश्रम में पलती रही ।
जब वह विवाह योग्य
अवस्था की हो गई तो पत्नी ने मुनि से कहा----"नाथ ! अपनी कन्या अब विवाह
योग्य हो गई है । इसके विवाह का प्रबन्ध कीजिये ।" मुनि ने कहा----"मैं
अभी आदित्य को बुलाकर इसे उसके हाथ सौंप देता हूँ । यदि इसे स्वीकार होगा तो उसके
साथ विवाह कर लेगी,
अन्यथा नहीं ।" मुनि ने यह त्रिलोक का प्रकाश देने वाला सूर्य
पतिरुप से स्वीकार है ?"
पुत्री ने उत्तर
दिया----"तात ! यह तो आग जैसा गरम है, मुझे स्वीकार नहीं ।
इससे अच्छा कोई वर बुलाइये ।" मुनि ने सूर्य से पूछा कि वह अपने से अच्छा कोई
वर बतलाये । सूर्य ने कहा----"मुझ से अच्छे मेघ हैं, जो
मुझे ढककर छिपा लेते हैं ।" मुनि ने मेघ को बुलाकर पूछा----"क्या यह
तुझे स्वीकार है ?" कन्या ने कहा----"यह तो बहुत
काला
है । इससे भी अच्छे
किसी वर को बुलाओ ।" मुनि ने मेघ से भी पूछा कि उससे अच्छा कौन है । मेघ ने
कहा,
"हम से अच्छी वायु हिअ, जो हमें उड़ाकर
दिशा-दिशाओं में ले जाती है" । मुनि ने वायु को बुलाया और कन्या से स्वीकृति
पूछी । कन्या ने कहा ----"तात ! यह तो बड़ी चंचल है । इससे भी किसी अच्छे वर
को बुलाओ ।" मुनि ने वायु से भी पूछा कि उस से अच्छा कौन है । वायु ने कहा,
"मुझ से अच्छा पर्वत है, जो बड़ी से बड़ी
आँधी में भी स्थिर रहता है ।" मुनि ने पर्वत को बुलाया तो कन्या ने
कहा---"तात ! यह तो बड़ा कठोर और गंभीर है, इससे अधिक
अच्छा कोई वर बुलाओ ।" मुनि ने पर्वत से कहा कि वह अपने से अच्छा कोई वर
सुझाये । तब पर्वत ने कहा----"मुझ से अच्छा चूहा है, जो
मुझे तोड़कर अपना बिल बना लेता है ।" मुनि ने तब चूहे को बुलाया और कन्या से
कहा---- "पुत्री ! यह मूषकराज तुझे स्वीकार हो तो इससे विवाह कर ले ।"
मुनिकन्या ने मूषकराज को बड़े ध्यान से देखा । उसके साथ उसे विलक्षण अपनापन अनुभव
हो रहा था । प्रथम दृष्टि में ही वह उस पर मुग्ध होगई और बोली----"मुझे
मूषिका बनाकर मूषकराज के हाथ सौंप दीजिये ।"
मुनि ने अपने तपोबल
से उसे फिर चुहिया बना दिया और चूहे के साथ उसका विवाह कर दिया ।
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राक्ताक्ष द्वारा यह
कहानी सुनने के बाद भी उलूकराज के सैनिक स्थिरजीवी को अपने दुर्ग में ले गये ।
दुर्ग के द्वार पर पहुँच कर उलूकराज अरिमर्दन ने अपने साथियों से कहा कि स्थिरजीवी
को वही स्थान दिया जाय जहाँ वह रहना
चाहे । स्थिरजीवी ने
सोचा कि उसे दुर्ग के द्वार पर ही रहना चाहिये, जिससे
दुर्ग से बाहर जाने का अवसर मिलता रहे । यही सोच उसने उलूकराज से कहा----"देव
! आपने मुझे यह आदर देकर बहुत लज्जित किया है । मैं तो आप का सेवक ही हूँ, और सेवक के स्थान पर ही रहना चाहता हूँ । मेरा स्थान दुर्ग के द्वार पर ही
रखिये । द्वार की जो धूलि आप के पद-कमलों से पवित्र होगी उसे अपने मस्तक पर रखकर
ही मैं अपने को सौभाग्यवान मानूंगा ।"
उलूकराज इन मीठे
वचनों को सुनकर फूले न समाये । उन्होंने अपने साथियों को कहा कि स्थिरजीवी को
यथेष्ट भोजन दिया जाय ।
प्रतिदिन स्वादु और
पुष्ट भोजन खाते-खाते स्थिरजीवी थोड़े ही दिनों में पहले जैसा मोटा और बलवान हो गया
। रक्ताक्ष ने जब स्थिरजीवी को हृष्टपुष्ट होते देखा तो वह मन्त्रियों से
बोला----"यहाँ सभी मूर्ख हैं । जिस तरह उस सोने की बीठ देने वाले पक्षी ने
कहा था कि यहाँ सब मूर्ख हैं, उसी तरह मैं कहता हूँ
"यहाँ सभी मूर्खमंडल है" ।
मन्त्रियों ने
पूछा----"किस पक्षी की तरह ?"
तब रक्ताक्ष ने
स्वर्णपक्षी की यह कहानी सुनाई-----
एक पर्वतीय प्रदेश के
महाकाय वृक्ष पर सिन्धुक नाम का एक पक्षी रहता था । उसकी विष्ठा में स्वर्ण-कण
होते थे । एक दिन एक व्याध उधर से गुजर रहा था । व्याध को उसकी विष्ठा के
स्वर्णमयी होने का ज्ञान नहीं था । इससे सम्भव था कि व्याध उसकी उपेक्षा करके आगे
निकल जाता । किन्तु मूर्ख सिन्धुक पक्षी ने वृक्ष के ऊपर से व्याध के सामने ही
स्वर्ण-कण-पूर्ण विष्ठा कर दी । उसे देख व्याध ने वृक्ष पर जाल फैला दिया और
स्वर्ण के लोभ से उसे पकड़ लिया ।
उसे पकड़कर व्याध अपने
घर ले आया । वहाँ उसे पिंजरे में रख लिया । लेकिन, दूसरे
ही दिन उसे यह डर सताने लगा कि कहीं कोई आदमी पक्षी की विष्ठा के स्वर्णमय होने की
बात राजा को बता देगा तो उसे राजा के सम्मुख दरबार में पेश होना पड़ेगा । संभव है
राजा उसे दण्ड भी दे । इस भय से उसने स्वयं राजा के सामने पक्षी को पेश कर दिया ।
राजा ने पक्षी को
पूरी सावधानी के साथ रखने की आज्ञा निकाल दी । किन्तु राजा के मन्त्री ने राजा को
सलाह दी कि,
"इस व्याध की मूर्खतापूर्ण बात पर विश्वास करके उपहास का
पात्र न बनो । कभी कोई पक्षी भी स्वर्ण-मयी विष्ठा दे सकता है ? इसे छोड़ दीजिये ।" राजा ने मन्त्री की सलाह मानकर उसे छोड़ दिया ।
जाते हुए वह राज्य के प्रवेश-द्वार पर बैठकर फिर स्वर्णमयी विष्ठा कर गया; और जाते-जाते कहता गया :-
"पूर्वं तावदहं
मूर्खो द्वितीयः पाशबन्धकः ।
ततो राजा च मन्त्रि च
सर्वं वै मूर्खमण्डलम् ॥
अर्थात्, पहले
तो मैं ही मूर्ख था, जिसने व्याध के सामने विष्ठा की;
फिर व्याध ने मूर्खता दिखलाई जो व्यर्थ ही मुझे राजा के सामने ले
गया; उसके बाद राजा और मन्त्री भी मूर्खों के सरताज निकले ।
इस राज्य में सब मूर्ख-मंडल ही एकत्र हुआ है ।
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रक्ताक्ष द्वारा
कहानी सुनने के बाद भी मन्त्रियों ने अपने मूर्खताभरे व्यवहार में परिवर्तन नहीं
किया । पहले की तरह ही वे स्थिरजीवी को अन्न-मांस खिला-पिला कर मोटा करते रहे ।
रक्ताक्ष ने यह देख
कर अपने पक्ष के साथियों से कहा कि अब यहाँ हमें नहीं ठहरना चाहिये । हम किसी
दूसरे पर्वत की कन्दरा में अपना दुर्ग बना लेंगे । हमें उस बुद्धिमान् गीदड़ की
तरह आने वाले संकट को देख लेना चाहिए, और देख कर अपनी गुफा को छोड़
देना चाहिए जिसने शेर के डर से अपना घर छोड़ दिया था ।
उसके साथियों ने
पूछा---"किस गीदड़ की तरह ?"
रक्ताक्ष ने तब शेर
और गीदड़ की वह कहानी सुनाई जिसमें गुफा बोली थी ।
एक जंगल में खर-नखर
नाम का शेर रहता था । एक बार इधर-उधर बहुत दौड़-धूप करने के बाद उसके हाथ कोई शिकार
नहीं आया । भूख-प्यास से उसका गला सूख रहा था । शाम होने पर उसे एक गुफा दिखाई दी
। वह उस गुफा के अन्दर घुस गया और सोचने लगा----"रात के समय रहने के लिये इस
गुफा में कोई जानवर अवश्य आयगा, उसे मारकर भूख मिटाउँगा । तब
तक इस गुफा में ही छिपकर बैठता हूँ ।
इस बीच उस गुफा का
अधिवासी दधिपुच्छ नाम का गीदड़ वहां आ गया । उसने देखा, गुफा
के बाहिर शेर के पद-चिन्हों की पंक्ती है । पद-चिन्ह गुफा के अन्दर तो गये थे,
लेकिन बाहिर नहीं आये थे । गीदड़ ने सोचा----"मेरी गुफा में कोई
शेर गया अवश्य है, लेकिन वह बाहिर आया या नहीं, इसका पता कैसे लगाया जाय ।" अन्त में उसे एक उपाय सूझ गया । गुफा के
द्वार पर बैठकर वह किसी को संबोधन करके पुकारने लगा----"मित्र मैं आ गया हूँ
। तूने मुझे वचन दिया था कि मैं आऊँगा तो तू मुझसे बात करेगा । अब चुप क्यों है ?"
गीदड़ की पुकार सुनकर
शेर ने सोचा,
’शायद यह गुफा गीदड़ के आने पर खुद बोलती है और गीदड़ से बात करती है;
जो आज मेरे डर से चुप है । इसकी चुप्पी से गीदड़ को मेरे यहा होने का
सन्देह हो जायगा । इसलिये मैं स्वयं बोलकर गीदड़ को जबाब देता हूँ ।’ यह सोचकर शेर स्वयं गर्ज उठा ।
शेर की गर्जना सुनकर
गुफा भयङकर आवाज से गूंज उठी । गुफा से दूर के जानवर भी डर से इधर-उधर भागने लगे ।
गीदड़ भी गुफा के अन्दर से आती शेर की आवाज सुनकर वहां से भाग गया । अपनी मूर्खता
से शेर ने स्वयं ही उस गीदड़ को भगा दिया जिसे पास लाकर वह खाना चाहता था । उसने यह
न सोचा कि गुफा कभी बोल नहीं सकती । और गुफा का बोल सुनकर गीदड़ का संदेह पक्का हो
जायगा ।
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रक्ताक्ष ने उक्त
कहानी कहने के बाद अपने साथियों से कहा कि ऐसे मूर्ख समुदाय में रहना विपत्ति को
पास बुलाना है । उसी दिन परिवारसमेत रक्ताक्ष वहाँ से दूर किसी पर्वत-कन्दरा में
चला गया ।
रक्ताक्ष के विदा
होने पर स्थिरजीवी बहुत प्रसन्न होकर सोचने लगा---"यह अच्छा ही हुआ कि
रक्ताक्ष चला गया । इन मूर्ख मन्त्रियों में अकेला वही चतुर और दूरदर्शी था
।"
रक्ताक्ष के जाने के
बाद स्थिरजीवी ने उल्लुओं के नाश की तैयारी पूरे जोर से शुरु करदी । छोटी-छोटी
लकड़ियाँ चुनकर वह पर्वत की गुफा के चारों ओर रखने लगा । जब पर्याप्त लकड़ियाँ एकत्र
हो गई तो वह एक दिन सूर्य के प्रकाश में उल्लुओं के अन्धे होने के बाद अपने पहले
मित्र राजा मेघवर्ण के पास गया, और बोला---"मित्र !
मैंने शत्रु को जलाकर भस्म कर देने की पूरी योजन तैयार करली है । तुम भी अपनी
चोंचों में एक-एक जलती लकड़ी लेकर उलूकराज के दुर्ग के चारों ओर फैला दो । दुर्ग
जलकर राख हो जायगा । शत्रुदल अपने ही घर में जलकर नष्ट हो जायगा ।"
यह बात सुनकर मेघवर्ण
बहुत प्रसन्न हुआ । उसने स्थिरजीवी से कहा---"महाराज, कुशल-क्षेम
से तो रहे, बहुत दिनों के बाद आपके दर्शन हुए हैं ।"
स्थिरजीवी ने कहा
----"वत्स ! यह समय बातें करने का नहीं, यदि किसी शत्रु ने
वहाँ जाकर मेरे यहाँ आने की सूचना दे दी तो बना-बनाया खेल बिगड़ जाएगा । शत्रु कहीं
दूसरी जगह भाग जाएगा । जो काम शीघ्रता से करने योग्य हो, उसमें
विलम्ब नहीं करना चाहिए । शत्रुकुल का नाश करके फिर शांति से बैठ कर बातें करेंगे
।
मेघवर्ण ने भी यह बात
मान ली । कौवे सब अपनी चोंचों में एक-एक जलती हुई लकड़ी लेकर शत्रु-दुर्ग की ओर चल
पड़े और वहाँ जाकर लकड़ियाँ दुर्ग के चारों ओर फैला दीं । उल्लुओं के घर जलकर राख हो
गए और सारे उल्लू अन्दर ही अन्दर तड़प कर मर गए ।
इस प्रकार उल्लुओं का
वंशनाश करके मेघवर्ण वायसराज फिर अपने पुराने पीपल के वृक्ष पर आ गया । विजय के
उपलक्ष में सभा बुलाई गई । स्थिरजीवी को बहुत सा पुरस्कार देकर मेघवर्ण ने उस से
पूछा ----"महाराज ! आपने इतने दिन शत्रु के दुर्ग में किस प्रकार व्यतीत किये
?
शत्रु के बीच रहना तो बड़ा संकटापन्न है । हर समय प्राण गले में अटके
रहते हैं ।"
स्थिरजीवी ने उत्तर
दिया----"तुम्हारी बात ठीक है, किन्तु मैं तो आपका सेवक हूँ
। सेवक को अपनी तपश्चर्या के अंतिम फल का इतना विश्वास होता है कि वह क्षणिक
कष्टों की चिन्ता नहीं करता । इसके अतिरिक्त, मैंने यह देखा
कि तुम्हारे प्रतिपक्षी उलूकराज के मन्त्री महामूर्ख हैं । एक रक्ताक्ष ही
बुद्धिमान था, वह भी उन्हें छोड़ गया । मैंने सोचा, यही समय बदला लेने का है । शत्रु के बीच विचरने वाले गुप्तचर को मान-अपमान
की चिन्ता छोड़नी ही पड़ती है । वह केवल अपने राजा का स्वार्थ सोचता है । मान-मर्यादा
की चिन्ता का त्याग करके वह स्वार्थ-साधन के लिये चिन्ताशील रहता है । अवसर देखकर
उसे शत्रु को भी पीठ पर उठाकर चलना चाहिए, जैसे काले नाग ने
मेंढकों को पीठ पर उठाया था, और सैर कराई थी ।"
मेघवर्ण ने
पूछा----"वह कैसे ?"
स्थिरजीवी ने तब सांप
और मेंढकों की यह कहानी सुनाई----
स्वार्थसिद्धि परम
लक्ष्य !
वरुण पर्वत के पास एक
जङगल में मन्दविष नाम का बूढ़ा साँप रहता था । उसे बहुत दिनों से कुछ खाने को नहीं
मिला था । बहुत भाग-दौड़ किये बिना खाने का उसने यह उपाय किया कि वह एक तालाब के
पास चला गया । उसमें सैंकड़ों मेंढक रहते थे । तालाब के किनारे जाकर वह बहुत उदास और
विरक्त-सा मुख बना कर बैठ गया । कुछ देर बाद एक मेंढक ने तालाब से निकल कर
पूछा----"मामा ! क्या बात है, आज कुछ खाते-पीते नहीं हो ।
इतने उदास से क्यों हो ?"
साँप ने उत्तर
दिया----"मित्र ! मेरे उदास होने का विशेष कारण है । मेरे यहाँ आने का भी वही
कारण है ।"
मेंढक ने जब कारण
पूछा तो साँप ने झूठमूठ एक कहानी बना ली । वह बोला----"बात यह है कि आज सुबह
मैं एक मेंढक को मारने के लिए जब आगे बढ़ा तो मेंढक वहाँ से उछल कर कुछ ब्राह्मणों
के बीच में चला गया । मैं भी उसके पीछे-पीछे वहाँ गया । वहाँ जाकर एक ब्राह्मण-पुत्र
का पैर मेरे शरीर पर पड़ गया । तब मैंने उसे डस लिया । वह ब्राह्मण-पुत्र वहीं मर
गया । उसके पिता ब्राह्मण ने मुझे क्रोध से जलते हुए यह शाप दिया कि तुझे मेंढकों
का वाहक बन कर उन्हें सैर कराना होगा । तेरी सेवा से प्रसन्न होकर जो कुछ वे तुझे
देंगे,
वही तेरा आहार होगा । स्वतन्त्र रुप से तू कुछ भी खा नहीं सकेगा ।
यहाँ पर मैं तुम्हारा वाहक बनकर ही आया हूँ ।"
उस मेंढक ने यह बात
अपने साथी मेंढकों को भी कह दी । सब मेंढक बड़े खुश हुए । उन्होंने इसका वृत्तान्त
अपने राजा ’जलपाद’ को भी सुनाया । जलपाद ने अपने मन्त्रियों से
सलाह करके यही निश्चय किया कि साँप को वाहक बनाकर उसकी सेवा से लाभ उठाया जाय ।
जलपाद के साथ सभी मेंढक साँप की पीठ पर सवार हो गए । जिनको उसकी पीठ पर स्थान नहीं
मिला उन्होंने साँप के पीछे गाड़ी लगा कर उसकी सवारी की ।
सांप पहले तो बड़ी
तेजी से दौड़ा,
बाद में उसकी चाल धीमी पड़ गई । जलपाद के पूछने पर इसका कारण यह
बतलाया "आज भोजन न मिलने से मेरी शक्ति क्षीन हो गई है, कदम नहीं उठते ।" यह सुन कर जलपाद ने उसे छोटे-छोटे मेंढकों को खाने
की आज्ञा दे दी ।
सांप ने
कहा----"मेंढक महाराज ! आपकी सेवा से पाये पुरस्कार को भोग कर ही मेरी तृप्ति
होगी,
यही ब्राह्मण का अभिशाप है । इसलिये आपकी आज्ञा से मैं बहुत उपकृत
हुआ हूँ ।" जलपाद सांप की बात से बहुत प्रसन्न हुआ ।
थोड़ी देर बाद एक और
काला सांप उधर से गुजरा । उसने मेंढकों को सांप की सवारी करते देखा तो आश्चर्य में
डूब गया । आश्चर्यान्वित होकर वह मन्दविष से बोला----"भाई ! जो हमारा भोजन है, उसे
ही तुम पीठ पर सवारी कर रहे हो । यह तो स्वभाव-विरुद्ध है । मन्दविष ने उत्तर
दिया----"मित्र ! यह बात मैं भी जानता हूँ, किन्तु समय
की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।"
मन्दविष ने अनुकूल
अवसर पाकर धीरे-धीरे सब मेंढकों को खा लिया । मेंढकों का वंशनाश ही हो गया ।
x x x
वायसराज मेघवर्ण ने
स्थिरजीवी को धन्यवाद देते हुए कहा----"मित्र, आप
बड़े पुरुषार्थी और दूरदर्शी हैं । एक कार्य को प्रारंभ करके उसे अन्त तक निभाने की
आपकी क्षमता अनुपम है । संसारे में कई तरह के लोग हैं । नीचतम प्रवृत्ति के वे हैं
जो विघ्न-भय से किसी भी कार्य का आरंभ नहीं करते, मध्यम वे
हैं जो विघ्न-भय से हर काम को बीच में छोड़ देते हैं, किन्तु
उत्कृष्ट वही हैं जो सैंकड़ों विघ्नों के होते हुए भी आरंभ किये गये काम को बीच में
नहीं छोड़ते । आपने मेरे शत्रुओं का समूल नाश करके उत्तम कार्य किया है ।"
स्थिरजीवी ने उत्तर
दिया----"महाराज ! मैंने अपना धर्म पालन किया । दैव ने आपका साथ दिया ।
पुरुषार्थ बहुत बड़ी वस्तु है, किन्तु दैव अनुकूल न हो तो
पुरुषार्थ भी फलित नहीं होता । आपको अपना राज्य मिल गया । किन्तु स्मरण रखिये,
राज्य क्षणस्थायी होते हैं । बड़े-बड़े विशाल राज्य क्षणों में बनते
और मिटते रहते हैं । शाम के रंगीन बादलों की तरह उनकी आभा भी क्षणजीवी होती है ।
इसलिये राज्य के मद में आकर अन्याय नहीं करना, और न्याय से
प्रजा का पालन करना । राजा प्रजा का स्वामी नहीं, सेवक होता
है ।"
इसके बाद स्थिरजीवी
की सहायता से मेघवर्ण बहुत वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य करता रहा ।
॥तृतीय तन्त्र
समाप्त॥
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