Ad Code

चतुर्थतंत्र लब्धप्रणासम पंचतंत्र भाग-4

 


चतुर्थ तंत्र लब्धप्रणासम

 

एक बड़ी झील के तट पर सब ऋतुओं में मीठे फल देने वाला जामुन का वृक्ष था । उस वृक्ष पर रक्तमुख नाम का बन्दर रहता था । एक दिन झील से निकल कर एक मगरमच्छ उस वृक्ष के नीचे आ गया । बन्दर ने उसे जामुन के वृक्ष से फल तोड़कर खिलाये । दोनों में मैत्री हो गई । मगरमच्छ जब भी वहाँ आता, बन्दर उसे अतिथि मानकर उसका सत्कार करता था । मगरमच्छ भी जामुन खाकर बन्दर से मीठी-मीठी बातें करता । इसी तरह दोनों की मैत्री गहरी होती गई । मगरमच्छ़ कुछ जामुनें वहीं खा लेता था, कुछ अपनी पत्‍नी के लिये अपने साथ घर ले जाता था ।

 

एक दिन मगर-पत्‍नी ने पूछा----"नाथ ! इतने मीठे फल तुम कहाँ से और कैसे ले आते हो ?"

मगर ने उत्तर दिया----"झील के किनारे मेरा एक मित्र बन्दर रहता है । वही मुझे ये फल देता है ।"

 

मगर-पत्‍नी बोली ----"जो बन्दर इतने मीठे फल रोज खाता है उसका दिल भी कितना मीठा होगा ! मैं चाहती हूँ कि तू उसका दिल मुझे ला दे । मैं उसे खाकर सदा के लिये तेरी बन जाऊँगी, और हम दोनों अनन्त काल तक यौवन का सुख भोगेंगे ।"

 

मगर ने कहा----"ऐसा न कह प्रिये ! अब तो वह मेरा धर्मभाई बन चुका है । अब मैं उसकी हत्या नहीं कर सकता ।"

 

मगर-पत्‍नी----"तुमने आज तक मेरा कहा नहीं मोड़ा था । आज यह नई बात कर रहे हो । मुझे सन्देह होता है कि वह बन्दर नहीं, बन्दरी होगी; तुम्हारा उससे लगाव हो गया होगा । तभी, तुम प्रतिदिन वहाँ जाते हो । मुझे यह बात पहले मालूम नहीं थी । अब मुझे पता लगा कि तुम किसी और के लिये लम्बे सांस लेते हो, कोई और ही तुम्हारे दिल की रानी बन चुकी है ।"

 

मगरमच्छ ने पत्‍नी के पैर पकड़ लिये । उसे गोदी में उठा लिया और कहा----"मानिनि ! मैं तेरा दास हूँ, तू मुझे प्राणों से भी प्रिय है, क्रोध न कर, तुझे अप्रसन्न करके मैं जीवित नहीं रहूँगा ।"

मगर-पत्‍नी ने आँखों में आँसू भरकर कहा----"धूर्त ! दिल में तो तेरे दूसरी ही बसी हुई है, और मुझे झूठी प्रेमलीला से ठगना चाहता है । तेरे दिल में अब मेरे लिये जगह ही कहाँ है ? मुझ से प्रेम होता तो तू मेरे कथन को यों न ठुकरा देता । मैंने भी निश्चय कर लिया है कि जब तक तुम उस बन्दर का दिल लेकर मुझे नहीं खिलाओगे तब तक अनशन करुँगी, भूखी रहूँगी ।"

 

पत्‍नी के आमरण अनशन की प्रतिज्ञा ने मगरमच्छ को दुविदहा में डाल दिया । दूसरे दिन वह बहुत दुःखी दिल से बन्दर कें पास गया । बन्दर ने पूछा----"मित्र ! आज हँसकर बात नहीं करते, चेहरा कुम्हलाया हुआ है, क्या कारण है इसका ?"

 

मगरमच्छ ने कहा---"मित्रवर ! आज तेरी भाबी ने मुझे बहुत बुरा-भला कहा । वह कहने लगी कि तुम बडे़ निर्मोही हो, अपने मित्र को घर लाकर उसका सत्कार भी नहीं करते; इस कृतघ्नता के पाप से तुम्हारा परलोक में भी छुटकारा नहीं होगा ।"

 

बन्दर बड़े ध्यान से मगरमच्छ की बात सुनता रहा ।

 

मगरमच्छ कहता गया----"मित्र ! मेरी पत्‍नी ने आज आग्रह किया है कि मैं उसके देवर को लेकर जाऊँ । तुम्हारी भाबी ने तुम्हारे सत्कार के लिये अपने घर को रत्‍नों की बन्दनवार से सजाय है । वह तुमहारी प्रतीक्षा कर रही है ।"

 

बन्दर ने कहा ----"मित्रवर ! मैं तो जाने को तैयार हूँ, किन्तु मैं तो भूमि पर ही चलना जानता हूँ, जल पर नहीं; कैसे जाऊँगा ?"

मगरमच्छ---"तुम मेरी पीठ पर चढ़ जाओ, मैं तुम्हें सकुशल घर पहुँचा दूंगा ।"

 

बन्दर मगरमच्छ की पीठ पर चढ़ गया । दोनों जब झील के बीचोंबीच अगाध पानी में पहुँचे तो बन्दर ने कहा ---"जर धीमे चलो मित्र ! मैं तो पानी की लहरों से बिल्कुल भीग गया हूँ । मुझे सर्दी लगती है ।"

 

मगरमच्छ ने सोचा, ’अब यह बन्दर मुझ से बचकर नहीं जा सकता, इसे अपने मन की बात कह देने में कोई हानि नहीं है । मृत्यु से पहले इसे अपने देवता के स्मरण का समय भी मिल जायगा ।

 

यह सोचकर मगरमच्छ ने अपने दिल का भेद खोल दिया---"मित्र ! मैं तुझे अपनी पत्‍नी के आग्रह पर मारने के लिये यहाँ लाया हूँ । अब तेरा काल आ पहुँचा है । भगवान्‌ का स्मरण कर, तेरे जीवन की घड़ियां अधिक नहीं हैं ।"

 

बन्दर ने कहा----"भाई ! मैंने तेरे साथ कौन सी बुराई की है, जिसका बदला तू मेरी मौत से लेना चाहता है ? किस अभिप्राय से तू मुझे मारना चाहता है, बतला तो दे ।"

मगरमच्छ---"अभिप्राय तो एक ही है, वह यह कि मेरी पत्‍नी तेरे मीठे दिल का रसास्वाद करना चाहती है ।"

यह सुनकर नीति-कुशल बन्दर ने बड़े धीरज से कहा----"यदि यही बात थी तो तुमने मुझे वहीं क्यों नहीं कह दिया । मेरा दिल तो वहाँ वृक्ष के एक बिल में सदा सुरक्षित पड़ा रहता है; तेरे कहने पर मैं वहीं तुझे अपनी भाबी के लिये भेंट दे देता । अब तो मेरे पास दिल है ही नहीं । भाबी भूखी रह जायगी । मुझे तू अब दिल के बिना ही लिये जा रहा है ।"

 

मगरमच्छ बन्दर की बात सुनकर प्रसन्न हो गया और बोला----"यदि ऐसा ही है तो चल ! मैं तुझे फिर जामुन के वृक्ष तक पहुँचा देता हूँ । तू मुझे अपना दिल दे देना; मेरी दुष्ट पत्‍नी उसे खाकर प्रसन्न हो जायगी ।" यह कहकर वह बन्दर को वापिस ले आया ।

 

बन्दर किनारे पर पहुँचकर जल्दी से वृक्ष पर चढ़ गया । उसे, मानो नया जन्म मिला था । नीचे से मगरमच्छ ने कहा----"मित्र ! अब वह अपना दिल मुझे दे दो । तेरी भाबी प्रतीक्षा कर रही होगी ।"

बन्दर ने हँसते हुए उत्तर दिया----"मूर्ख ! विश्‍वासघातक ! तुझे इतना भी पता नहीं कि किसी के शरीर में दो दिल नहीं होते । कुशल चाहता है तो यहाँ से भाग जा , और आगे कभी यहाँ मत आना ।"

 

मगरमच्छ बहुत लज्जित होकर सोचने लगा, "मैंने अपने दिल का भेद कहकर अच्छा नहीं किया। फिर से उसका विश्‍वास पाने के लिये बोला----"मित्र ! मैंने तो हँसी-हँसी में वह बात कही थी । उसे दिल पर न लगा । अतिथि बनकर हमारे घर पर चल । तेरी भाबी बड़ी उत्कंठा से तेरी प्रतीक्षा कर रही है ।"

 

बन्दर बोला----"दुष्ट ! अब मुझे धोखा देने की कोशिश मत कर । मैं तेरे अभिप्राय को जान चुका हूँ । भूखे आदमी का कोई भरोसा नहीं । ओछे लोगों के दिल में दया नहीं होती । एक बार विश्‍वास-घात होने के बाद मैं अब उसी तरह तेरा विश्‍वास नहीं करुँगा, जिस तरह गंगदत्त ने नहीं किया था ।"

 

मगरमच्छ ने पूछा----"किस तरह ?"

बन्दर ने तब गंगदत्त की कथा सुनाई---

 

एक कूएँ में गंगदत्त नाम का मेंढक रहता था । वह अपने मेंढक-दल का सरदार था । अपने बन्धू-बान्धवों के व्यवहार से खिन्न होकर वह एक दिन कुएँ से बाहर निकल आया । बाहर आकर वह सोचने लगा कि किस तरह उनके बुरे व्यवहार का बदला ले ।

 

यह सोचते-सोचते वह एक सर्प के बिल के द्वार तक पहुँचा । उस बिल में एक काला नाग था । उसे देखकर उसके मन में यह विचार उठा कि इस नाग द्वारा अपनी बिरादरी के मेंढकों का नाश करवा दे । शत्रु से शत्रु का वध करवाना ही नीति है । कांटे से ही कांटा निकाला जाता है । यह सोचकर वह बिल में घुस गया । बिल में रहने वाले नाग का नाम था प्रियदर्शन। गंगदत्त उसे पुकारने लगा । प्रियदर्शन ने सोचा, ’यह साँप की आवाज नहीं है; तब कौन मुझे बुला रहा है ? किसी के कुल-शील से परिचिति पाये बिना उसके संग नहीं जाना चाहिये । कहीं कोई सपेरा ही उसे बुलाकर पकड़ने के लिये न आया हो ।अतः अपने बिल के अन्दर से ही उसने आवाज दी----"कौन है, जो मुझे बुला रहा है ?"

 

गंगदत्त ने कहा----"मैं गंगदत्त मेंढक हूँ । तेरे द्वार पर तुझ से मैत्री करने आया हूँ ।"

 

यह सुनकर साँप ने कहा ----"यह बात विश्वास योग्य नहीं हो सकती । आग और घास में मैत्री नहीं हो सकती । भोजन-भोज्य में प्रेम कैसा ? वधिक और वध्य में स्वप्न में भी मित्रता असंभव है ।"

 

गंगदत्त ने उत्तर दिया----"तेरा कहना सच है । हम परस्पर स्वभाव से वैरी हैं, किन्तु मैं अपने स्वजनों से अपमानित होकर प्रतिकार की भावना से तेरे पास आया हूँ ।"

प्रियदर्शन----"तू कहाँ रहता है ?"

गंगदत्त----"कुएँ में ।"

 

प्रियदर्शन----"पत्‍थर से चिने कूएँ में मेरा प्रवेश कैसे होगा ? प्रवेश होने के बाद मैं वहाँ बिल कैसे बनाऊँगा ?"

गंगदत्त----"इसका प्रबन्ध मैं कर दूंगा । वहाँ पहले ही बिल बना हुआ है । वहाँ बैठकर तू बिना कष्ट सब मेंढकों का नाश कर सकता है ।"

 

प्रियदर्शन बूढ़ा साँप था । उसने सोचा---बुढ़ापे में बिना कष्ट भोजन मिलने का अवसर नहीं छोड़ना चाहिये । गंगदत्त के पीछे-पीछे वह कुएँ में उतर गया । वहाँ उसने धीरे-धीरे गंगदत्त के वे सब भाई-बन्धु खा डाले, जिनसे गंगदत्त का वैर था । जब सब ऐसे मेंढक समाप्त हो गये तो वह बोला---

 

"मित्र ! तेरे शत्रुओं का तो मैंने नाश कर दिया । अब कोई भी ऐसा मेंढक शेष नहीं रहा जो तेरा शत्रु हो ।" मेरा पेट अब कैसे भरेगा ? तू ही मुझे यहाँ लाया था; तू ही मेरे भोजन की व्यवस्था कर ।"

 

गंगदत्त ने उत्तर दिया----"प्रियदर्शन ! अब मैं तुझे तेरे बिल तक पहुँचा देता हूँ ।" जिस मार्ग से हम यहाँ आये थे, उसी मार्ग से बाहर निकल चलते हैं ।"

 

प्रियदर्शन---"यह कैसे संभव है । उस बिल पर तो अब दूसरे साँप का अधिकार हो चुका होगा ।"

गंगदत्त----"फिर क्या किया जाय ?"

 

प्रियदर्शन----"अभी तक तूने मुझे अपने शत्रु मेंढकों को भोजन के लिये दिया है । अब दूसरे मेंढकों में से एक-एक करके मुझे देता जा; अन्यथा मैं सब को एक ही बार खाजाऊँगा ।"

 

गंगदत्त अब अपने किये पर पछताने लगा । जो अपने से अधिक बलशाली शत्रु को मित्र बनाता है, उसकी यही दशा होती है । बहुत सोचने के बाद उसने निश्चय किया कि वह शेष रह गये मेंढकों में से एक-एक को सांप का भोजन बनाता रहेगा । सर्वनाश के अवसर पर आधे को बचा लेने में ही बुद्धिमानी है । सर्वस्व हरण के समय अल्पदान करना ही दूरदर्शिता है ।

 

दूसरे दिन से साँप ने दूसरे मेंढकों को भी खाना शुरु कर दिया । वे भी शीघ्र ही समाप्त हो गये । अन्त में एक दिन सांप ने गंगदत्त के पुत्र यमुनादत्त को भी खा लिया । गंगदत्त अपने पुत्र की हत्या पर रो उठा । उसे रोता देखकर उसकी पत्‍नी ने कहा--- "अब रोने से क्या होगा ? अपने जातीय भाइयों का नाश करने वाला स्वयं भी नष्ट हो जाता

 

है । अपने ही जब नहीं रहेंगे, तो कौन हमारी रक्षा करेगा ?"

 

अगले दिन प्रियदर्शन ने गंगदत्त को बुलाकर फिर कहा कि "मैं भूखा हूँ, मेंढक तो सभी समाप्त हो गये । अब तू मेरे भोजन का कोई और प्रबन्ध कर ।"

 

गंगदत्त को एक उपाय सूझ गया । उसने कुछ देर विचार करने के बाद कहा----"प्रियदर्शन ! यहाँ के मेंढक तो समाप्त हो गये; अब मैं दूसरे कूओं से मेंढकों को बुलाकर तेरे पास लाता हूँ , तू मेरी प्रतीक्षा करना ।"

 

प्रियदर्शन को यह युक्ति समझ आगई । उसने गंगदत्त को कहा---"तू मेरा भाई है, इसलिये मैं तुझे नहीं खाता । यदि तू दूसरे मेंढकों को बुला लायगा तो तू मेरे पिता समान पूज्य हो जायगा ।"

 

गंगदत्त अवसर पाकर कूएँ से निकल गया । प्रियदर्शन प्रतिक्षण उसकी प्रतीक्षा में बैठा रहा । बहुत दिन तक भी जब गंगदत्त वापिस नहीं आया तो सांप ने अपने पड़ोस के बिल में रहने वाली गोह से कहा कि---"तू मेरी सहायता कर । बाहिर जाकर गंगदत्त को खोजना और उसे कहना कि यदि दूसरे मेंढक नहीं आते तो भी वह आजाय । उसके बिना मेरा मन नहीं लगता ।"

 

गोह ने बाहर निकलकर गंगदत्त को खोज लिया । उससे भेंट होने पर वह बोली---"गंगदत्त ! तेरा मित्र प्रियदर्शन तेरी राह देख रहा है । चल, उसके मन को धीरज बँधा । वह तेरे बिना बहुत दुःखी है ।"

 

गंगदत्त ने गोह से कहा----"नहीं, मैं अब नहीं जाऊँगा । संसार में भूखे का कोई भरोसा नहीं, ओछे आदमी प्रायः निर्दय हो जाते हैं । प्रियदर्शन को कहना कि गंगदत्त अब वापिस नहीं आयगा ।"

 

गोह वापिस चली गई ।

 

x x x

 

यह कहानी सुनाने के बाद बन्दर ने मगरमच्छ से कहा कि मैं भी गंगदत्त की तरह वापिस नहीं जाऊँगा ।

मगरमच्छ बोला ----"मित्र ! यह उचित नहीं है, मैं तेरा सत्कार करके कृतघ्नता का प्रायश्चित्त करना चाहता हूँ । यदि तू मेरे साथ नहीं जायगा तो मैं यहीं भूख से प्राण दे दूंगा ।"

बन्दर बोला---"मूर्ख ! क्या मैं लम्बकर्ण जैसा मूर्ख हूँ, जो स्वयं मौत के मुख में जा पडूंगा । वह गधा शेर को देखकर वापिस चला गया था, लेकिन फिर उसके पास आगया । मैं ऐसा अन्धा नहीं हूँ ।"

 

मगर ने पूछा----"लम्बकर्ण कौन था ?"

तब बन्दर ने यह कहानी सुनाई----

 

एक घने जङगल में करालकेसर नाम का शेर रहता था । उसके साथ धूसरक नाम का गीदड़ भी सदा सेवाकार्य के लिए रहा करता था । शेर को एक बार एक मत्त हाथी से लड़ना पड़ा था, तब से उसके शरीर पर कई घाव हो गये थे । एक टाँग भी इस लड़ाई में टूट गई थी । उसके लिये एक क़दम चलना भी कठिन हो गया था । जङगल में पशुओं का शिकार करना उसकी शक्ति से बाहर था । शिकार के बिना पेट नहीं भरता था । शेर और गीदड़ दोनों भूख से व्याकुल थे । एक दिन शेर ने गीदड़ से कहा---"तू किसी शिकार की खोज कर के यहाँ ले आ; मैं पास में आए पशु की मार डालूँगा, फिर हम दोनों भर-पेट खाना खायेंगे ।"

 

गीदड़ शिकार की खोज में पास के गाँव में गया । वहाँ उसने तालाब के किनारे लम्बकर्ण नाम के गधे को हरी-हरी घास की कोमल कोंपलें खाते देखा । उसके पास जाकर बोला----"मामा ! नमस्कार । बड़े दिनों बाद दिखाई दिये हो । इतने दुबले कैसे हो गये ?"

 

गधे ने उत्तर दिया ----"भगिनीपुत्र ! क्या कहूँ ? धोबी बड़ी निर्दयता से मेरी पीठ पर बोझा रख देता है और एक कदम भी ढीला पड़ने पर लाठियों से मारता है । घास मुठ्ठीभर भी नहीं देता । स्वयं मुझे यहाँ आकर मिट्टी-मिली घास के तिनके खाने पड़ते हैं । इसीलिये दुबला होता जा रहा हूँ ।"

 

गीदड़ बोला----"मामा ! यही बात है तो मैं तुझे एक जगह ऐसी बतलाता हूँ, जहां मरकत-मणि के समान स्वच्छ हरी घास के मैदान हैं, निर्मल जल का जलाशय भी पास ही है । वहां आओ और हँसते-गाते जीवन व्यतीत करो ।"

 

लम्बकर्ण ने कहा----"बात तो ठीक है भगिनीपुत्र ! किन्तु हम देहाती पशु हैं, वन में जङगली जानवर मार कर खा जायेंगे । इसीलिये हम वन के हरे मैदानों का उपभोग नहीं कर सकते ।"

गीदड़ ----"मामा ! ऐसा न कहो । वहाँ मेरा शासन है । मेरे रहते कोई तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता । तुम्हारी तरह कई गधों को मैंने धोबियों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई है । इस समय भी वहाँ तीन गर्दभ-कन्यायें रहती हैं, जो अब जवान हो चुकी हैं । उन्होंने आते हुए मुझे कहा था कि तुम हमारी सच्ची माँ हो तो गाँव में जाकर हमारे लिये किसी गर्दभपति को लाओ । इसीलिए तो मैं तुम्हारे पास आया हूँ ।"

 

गीदड़ की बात सुनकर लम्बकर्ण ने गीदड़ के साथ चलने का निश्चय कर लिया । गीदड़ के पीछे-पीछे चलता हुआ वहु उसी वनप्रदेश में आ पहुँचा जहाँ कई दिनों का भूखा शेर भोजन की प्रतीक्षा मैं बैठा था । शेर के उठते ही लम्बकर्ण ने भागना शुरु कर दिया । उसके भागते-भागते भी शेर ने पंजा लगा दिया । लेकिन लम्बकर्ण शेर के पंजे में नहीं फँसा, भाग ही गया । तब, गीदड़ ने शेर से कहा---

 

"तुम्हारा पंजा बिल्कुल बेकार हो गया है । गधा भी उसके फन्दे से बच भागता है । क्या इसी बल पर तुम हाथी से लड़ते हो ?"

शेर ने जरा लज्जित होते हुए उत्तर दिया----" अभी मैंने अपना पंजा तैयार भी नहीं किया था । वह अचानक ही भाग गया । अन्यथा हाथी भी इस पंजे की मार से घायल हुए बिना भाग नहीं सकता ।"

 

गीदड़ बोला----"अच्छा ! तो अब एक बार और यत्‍न करके उसे तुम्हारे पास लाता हूँ । यह प्रहार खाली न जाये ।"

शेर ----"जो गधा मुझे अपनी आँखों देख कर भागा है, वह अब कैसे आयगा ? किसी और पर घात लगाओ ।"

गीदड़----"इन बातों में तुम दखल मत दो । तुम तो केवल तैयार होकर बैठ रहो ।"

 

गीदड़ ने देखा कि गधा उसी स्थान पर फिर घास चर रहा है ।

 

गीदड़ को देखकर गधे ने कहा---"भगिनीसुत ! तू भी मुझे खूब अच्छी़ जगह ले गया । एक क्षण और हो जाता तो जीवन से हाथ धोना पड़ता । भला, वह कौन सा जानवर था जो मुझे देख कर उठा था, और जिसका वज्रसमान हाथ मेरी पीठ पर पड़ा था ?"

तब हँसते हुए गीदड़ ने कहा----"मामा ! तुम भी विचित्र हो, गर्दभी तुम्हें देख कर आलिङगन करने उठी और तुम वहाँ से भाग आये । उसने तो तुम से प्रेम करने को हाथ उठाया था । वह तुम्हारे बिना जीवित नहीं रहेगी । भूखी-प्यासी मर जायगी । वह कहती है, यदि लम्बकर्ण मेरा पति नहीं होगा तो मैं आग में कूद पडूंगी ।

 

इसलिए अब उसे अधिक मत सताओ । अन्यथा स्त्री-हत्या का पाप तुम्हारे सिर लगेगा । चलो, मेरे साथ चलो ।"

गीदड़ की बात सुन कर गधा उसके साथ फिर जङगल की ओर चल दिया । वहाँ पहुँचते ही शेर उस पर टूट पडा़ । उसे मार कर शेर तालाब में स्नान करने गया । गीदड़ रखवाली करता रहा । शेर को जरा देर हो गई । भूख से व्याकुल गीदड़ ने गधे के कान और दिल के हिस्से काट कर खा लिये ।

 

शेर जब भजन-पूजन से वापस आया तो उसने देखा कि गधे के कान नहीं थे, और दिल भी निकला हुआ था । क्रोधित होकर उसने गीदड़ से कहा----"पापी ! तूने इसके कान और दिल खा कर इसे जूठा क्यों किया ?"

गीदड़ बोला----"स्वामी ! ऐसा न कहो । इसके कान और दिल थे ही नहीं, तभी तो यह एक बार जाकर भी वापस आ गया था ।"

शेर को गीदड़ की बात पर विश्‍वास हो गया । दोनों ने बाँट कर गधे का भोजन किया ।

 

x x x

 

कहानी कहने के बाद बन्दर ने मगर से कहा कि ----"मूर्ख ! तू ने भी मेरे साथ छ़ल किया था । किन्तु दंभ के कारण तेरे मुख से सच्ची बात निकल गई । दंभ से प्रेरित होकर जो सच बोलता है, वह उसी तरह पदच्युत हो जाता है जिस तरह युधिष्ठिर नाम के कुम्हार को राजा ने पदच्युत कर दिया था ।"

मगर ने पूछा ----"युधिष्ठिर कौन था ?"

तब बन्दर ने युधिष्ठिर की कहानी इस प्रकार सुनाई ----

 

युधिष्ठिर नाम का कुम्हार एक बार टूटे हुए घड़े के नुकीले ठीकरे से टकरा कर गिर गया । गिरते ही वह ठीकरा उसके माथे में घुस गया । खून बहने लगा । घाव गहरा था, दवा-दारु से भी ठीक न हुआ । घाव बढ़ता ही गया । कई महीने ठीक होने में लग गये । ठीक होने पर भी उसका निशान माथे पर रह गया ।

 

कुछ दिन बाद अपने देश में दुर्भिक्ष पड़ने पर वह एक दूसरे देश में चला गया । वहाँ वह राजा के सेवकों में भर्ती हो गया । राजा ने एक दिन उसके माथे पर घाव के निशान देखे तो समझा कि यह अवश्‍य कोई वीर पुरुष होगा , जो लड़ाई में शत्रु का सामने से मुक़ाबिला करते हुए घायल हो गया होगा । यह समझ उसने उसे अपनी सेना में ऊँचा पद दे दिया । राजा के पुत्र व अन्य सेनापति इस सम्मान को देखकर जलते थे, लेकिन राजभय से कुछ कह नहीं सकते थे ।

 

कुछ दिन बाद उस राजा को युद्ध-भूमि में जाना पड़ा । वहाँ जब लड़ाई की तैयारियाँ हो रही थीं, हाथियों पर हौदे डाले जा रहे थे, घोड़ों पर काठियां चढा़ई जा रही थीं, युद्ध का बिगुल सैनिकों को युद्ध-भूमि के लिये तैयार होने का संदेश दे रहा था -- राजा ने प्रसंगवश युधिष्ठिर कुंभकार से पूछा----"वीर ! तेरे माथे पर यह गहरा घाव किस संग्राम में कौन से शत्रु का सामना करते हुए लगा था ?"

कुंभकार ने सोचा कि अब राजा और उसमें इतनी निकटता हो चुकी है कि राजा सचाई जानने के बाद भी उसे मानता रहेगा । यह सोच उसने सच बात कह दी कि---"यह घाव हथियार का घाव नहीं है । मैं तो कुंभकार हूं । एक दिन शराब पीकर लड़खड़ाता हुआ जब मैं घर से निकला तो घर में बिखरे पड़े घड़ों के ठीकरों से टकरा कर गिर पड़ा । एक नुकीला ठीकरा माथे में गड़ गया । यह निशान उसका ही है ।"

राजा यह बात सुनकर बहुत लज्जित हुआ, और क्रोध से कांपते हुए बोला----"तूने मुझे ठगकर इतना ऊँचा पद

 

पालिया । अभी मेरे राज्य से निकल जा ।" कुंभकार ने बहुत अनुनय विनय की कि----"मैं युद्ध के मैदान में तुम्हारे लिये प्राण दे दूंगा, मेरा युद्ध-कौशल तो देख लो ।" किन्तु, राजा ने एक बात न सुनी । उसने कहा कि भले ही तुम सर्वगुणसम्पन्न हो, शूर हो, पराक्रमी हो, किन्तु हो तो कुंभकार ही । जिस कुल में तेरा जन्म हुआ है वह शूरवीरों का नहीं है । तेरी अवस्था उस गीदड़ की तरह है, जो शेरों के बच्चों में पलकर भी हाथी से लड़ने को तैयार न हुआ था" ।

 

युधिष्ठिर कुंभकार ने पूछा़----"यह किस तरह ?"

 

तब राजा ने सिंह-श्रृंगालपुत्र की कहानी इस प्रकार सुनाई----

 

एक जंगल में शेर-शेरनी का युगल रहता था । शेरनी के दो बच्चे हुए । शेर प्रतिदिन हिरणों को मारकर शेरनी के लिये लाता था । दोनों मिलकर पेट भरते थे । एक दिन जंगल में बहुत घूमने के बाद भी शाम होने तक शेर के हाथ कोई शिकार न आया । खाली हाथ घर वापिस आ रहा था तो उसे रास्ते में गीदड़ का बच्चा मिला । बच्चे को देखकर उसके मन में दया आ गई; उसे जीधित ही अपने मुख में सुरक्षा-पूर्वक लेकर वह घर आ गया और शेरनी के सामने उसे रखते हुए बोला----"प्रिये ! आज भोजन तो कुछ़ मिला नहीं । रास्ते में गीदड़ का यह बच्चा खेल रहा था । उसे जीवित ही ले आया हूँ । तुझे भूख लगी है तो इसे खाकर पेट भरले । कल दूसरा शिकार लाऊँगा ।"

 

शेरनी बोली----"प्रिय ! जिसे तुमने बालक जानकर नहीं मारा, उसे मारकर मैं कैसे पेट भर सकती हूँ ! मैं भी इसे बालक मानकर ही पाल लूँगी । समझ लूँगी कि यह मेरा तीसरा बच्चा है ।" गीदड़ का बच्चा भी शेरनी का दूध पीकर खूब पुष्ट हो गया । और शेर के अन्य दो बच्चों के साथ खेलने लगा । शेर-शेरनी तीनों को प्रेम से एक समान रखते थे ।

 

कुछ दिन बाद उस वन में एक मत्त हाथी आ गया । उसे देख कर शेर के दोनों बच्चे हाथी पर गुर्राते हुए उसकी ओर लपके । गीदड़ के बच्चे ने दोनों को ऐसा करने से मना करते हुए कहा---- "यह हमारा कुलशत्रु है । उसके सामने नहीं जाना चाहिये । शत्रु से दूर रहना ही ठीक है ।" यह कहकर वह घर की ओर भागा । शेर के बच्चे भी निरुत्साहित होकर पीछे़ लौट आये ।

 

घर पहुँच कर शेर के दोनों बच्चों ने माँ-बाप से गीदड़ के बच्चे के भागने की शिकायत करते हुए उसकी कायरता का उपहास किया । गीदड़ का बच्चा इस उपहास से बहुत क्रोधित हो गया । लाल-लाल आंखें करके और होठों को फड़फड़ाते हुए वह उन दोनों को जली-कटी सुनाने लगा । तब, शेरनी ने उसे एकान्त में बुलाकर कहा कि----"इतना प्रलाप करना ठीक नहीं, वे तो तेरे छो़टे भाई हैं, उनकी बात को टाल देना ही अच्छा़ है ।"

 

गीदड़ का बच्चा शेरनी के समझाने-बुझाने पर और भी भड़क उठा और बोला ---"मैं बहादुरी में, विद्या में या कौशल में उनसे किस बात में कम हूँ, जो वे मेरी हँसी उड़ाते हैं; मैं उन्हें इसका मजा़ चखाऊँगा, उन्हें मार डालूँगा ।"

 

यह सुनकर शेरनी ने हँसते-हँसते कहा----"तू बहादुर भी है, विद्वान् भी है, सुन्दर भी है, लेकिन जिस कुल में तेरा जन्म हुआ है उसमें हाथी नहीं मारे जाते । समय आ गया है कि तुझ से सच बात कह दी देनी चाहिये । तू वास्तव में गीदड़ का बच्चा है । मैंने तुझे अपना दूध देकर पाला है । अब इससे पहले कि तेरे भाई इस सचाई को जानें, तू यहाँ से भागकर अपने स्वजातियों से मिल जा । अन्यथा वह तुझे जीता नहीं छो़डेंगे ।"

 

यह सुनकर वह डर से काँपता हुआ अपने गीदड़ दल में आ मिला ।

 

x x x

 

इसी तरह राजा ने कुम्भकार से कहा कि----तू भी, इससे पहले कि अन्य राजपुत्र तेरे कुम्हार होने का भेद जानें, और तुझे मार डालें, तू यहाँ से भागकर कुम्हारों में मिल जा ।"

 

x x x

 

कहानी सुनाने के बाद ने मगरमच्छ़ से कहा----"धूर्त ! तूने स्त्री के कहने पर मेरे साथ विश्वासघात किया । स्त्रियों का विश्वास नहीं करना चाहिये । उनके लिये जिसने सब कुछ परित्याग दिया था उसे भी वह छो़ड गई थी ।"

मगर ने पूछा़----"कैसे ?"

 

बन्दर ने इसकी पुष्टि में लंगड़े और ब्राह्मणी की यह प्रेम-कथा सुनाई----

 

एक स्थान पर एक ब्राह्मण और उसकी पत्‍नी बड़े प्रेम से रहते थे । किन्तु ब्राह्मणी का व्यवहार ब्राह्मण के कुटुम्बियों से अच्छा़ नहीं था । परिवार में कलह रहता था । प्रतिदिन के कलह से मुक्ति पाने के लिये ब्राह्मण ने मां-बाप, भाई-बहिन का साथ छो़ड़कर पत्‍नी को लेकर दूर देश में जाकर अकेले घर बसाकर रहने का निश्चय किया ।

यात्रा लंबी थी । जंगल में पहुँचने पर ब्राह्मणी को बहुत प्यास लगी । ब्राह्मण पानी लेने गया । पानी दूर था, देर लग गई । पानी लेकर वापिस आया तो ब्राह्मणी को मरी पाया । ब्राह्मण बहुत व्याकुल होकर भगवान से प्रार्थना करने लगा । उसी समय आकाशवाणी हुई कि---"ब्राह्मण ! यदि तू अपने प्राणों का आधा भाग इसे देना स्वीकार करे तो ब्राह्मनी जीवित हो जायगी ।" ब्राह्मण ने यह स्वीकार कर लिया । ब्राह्मणी फिर जीवित हो गई । दोनों ने यात्रा शुरु करदी ।

 

वहाँ से बहुत दूर एक नगर था । नगर के बारा में पहुँचकर ब्राह्मण ने कहा ----"प्रिये ! तुम यहीं ठहरो, मैं अभी भोजन लेकर आता हूँ ।" ब्राह्मण के जाने के बाद ब्राह्मणी अकेली रह गई । उसी समय बारा के कूएं पर एक लंगड़ा, किन्तु सुन्दर जवान रहट चला रहा था । ब्राह्मणी उससे हँसकर बोली । वह भी हँसकर बोला । दोनों एक दूसरे को चाहने लगे । दोनों ने जीवन भर एक साथ रहने का प्रण कर लिया ।

 

ब्राह्मण जब भोजन लेकर नगर से लौटा तो ब्राह्मणी ने कहा---"यह लँगड़ा व्यक्ति भी भूखा है, इसे भी अपने हिस्से में से दे दो ।" जब वहां से आगे प्रस्थान करने लगे तो ब्राह्मणी ने ब्राह्मण से अनुरोध किया कि----"इस लँगड़े व्यक्ति को भी साथ ले लो । रास्ता अच्छा़ कट जायगा । तुम जब कहीं जाते हो तो मैं अकेली रह जाती हूँ । बात करने को भी कोई नहीं होता । इसके साथ रहने से कोई बात करने वाला तो रहेगा ।"

 

ब्राह्मण ने कहा----"हमें अपना भार उठाना ही कठिन हो रहा है, इस लँगड़े का भार कैसे उठायेंगे ?"

 

ब्राह्मणी ने कहा ----"हम इसे पिटारी में रख लेंगे ।"

ब्राह्मण को पत्‍नी की बात माननी पड़ी ।

 

कुछ़ दूर जाकर ब्राह्मणी और लँगडे़ ने मिलकर ब्राह्मण को धोखे से कूएँ में धकेल दिया । उसे मरा समझ कर वे दोनों आगे बढ़े ।

 

नगर की सीमा पर राज्य-कर वसूल करने की चौकी थी । राजपुरुषों ने ब्राह्मणी की पटारी को जबर्दस्ती उसके हाथ से छी़न कर खोला तो उस में वह लँगड़ा छिपा था । यह बात राज-दरबार तक पहुँची । राजा के पूछ़ने पर ब्राह्मणी ने कहा ----"यह मेरा पति है । अपने बन्धु-बान्धवों से परेशान होकर हमने देसह छो़ड़ दिया है ।" राजा ने उसे अपने देश में बसने की आज्ञा दे दी ।

 

कुछ़ दिन बाद, किसी साधु के हाथों कूएँ से निकाले जाने के उपरान्त ब्राह्मण भी उसी राज्य में पहुँच गया । ब्राह्मणी ने जब उसे वहाँ देखा तो राजा से कहा कि यह मेरे पति का पुराना वैरी है, इसे यहाँ से निकाल दिया जाये, या मरवा दिया जाये । राजा ने उसके वध की आज्ञा दे दी ।

 

ब्राह्मण ने आज्ञा सुनकर कहा ---"देव ! इस स्त्री ने मेरा कुछ लिया हुआ है । वह मुझे दिलवा दिया जाये ।" राजा ने ब्राह्मणी को कहा----"देवी ! तूने इसका जो कुछ लिया हुआ है, सब दे दे ।" ब्राह्मणी बोली----"मैंने कुछ भी नहीं लिया ।" ब्राह्मण ने याद दिलाया कि ----"तूने मेरे प्राणों का आधा भाग लिया हुआ है । सभी देवता इसके साक्षी हैं ।" ब्राह्मणी ने देवताओं के भय से वह भाग वापिस करने का वचन दे दिया । किन्तु वचन देने के साथ ही वह मर गई । ब्राह्मण ने सारा वृत्तान्त राजा को सुना दिया ।

 

x x x

 

बन्दर ने फिर मगर से कहा ---"तू भी स्त्री का उसी तरह दास बन गया है जिस तरह वररुचि था ।"

 

मगर के पूछ़ने पर बन्दर ने वररुचि की कहानी सुनाई----

 

एक राज्य में अतुलबल पराक्रमी राजा नन्द राज्य करता था । उसकी वीरता चारों दिशाओं में प्रसिद्ध थी । आसपास के सब राजा उसकी वन्दना करते थे । उसका राज्य समुद्र-तट तक फैला हुआ था । उसका मन्त्री वररुचि भी बड़ा विद्वान् और सब शास्त्रों में पारंगत था । उसकी पत्‍नी का स्वभाव बड़ा तीखा था । एक दिन वह प्रणय-कलह में ही ऐसी रुठ गई कि अनेक प्रकार से मनाने पर भी न मानी । तब, वररुचि ने उससे पूछा़ ----"प्रिये ! तेरी प्रसन्नता के लिये मैं सब कुछ़ करने को तैयार हूँ । जो तू आदेश करेगी, वही करुँगा ।" पत्‍नी ने कहा ----"अच्छी़ बात है । मेरा आदेश है कि तू अपना सिर मुंडाकर मेरे पैरों पर गिरकर मुझे मना, तब मैं मानूंगी ।" वररुचि ने वैसा ही किया । तब वह प्रसन्न हो गई ।

 

उसी दिन राजा नन्द की स्त्री भी रुठ गई । नन्द ने भी कहा----"प्रिये ! तेरी अप्रसन्नता मेरी मृत्यु है । तेरी प्रसन्नता के लिये मैं सब कुछ़ करने के लिये तैयार हूँ । तू आदेश कर, मैं उसका पालन करुंगा ।" नन्दपत्‍नी बोली----"मैं चाहती हूँ कि तेरे मुख में लगाम डालकर तुझपर सवार हो जाऊँ, और तू घोड़े की तरह हिनहिनाता हुआ दौडे़ । अपनी इस इच्छा़ के पूरी होने पर ही मैं प्रसन्न होऊँगी ।" राजा ने भी उसकी इच्छा़ पूरी करदी ।

 

दूसरे दिन सुबह राज-दरबार में जब वररुचि आया तो राजा ने पूछा----"मन्त्री ! किस पुण्यकाल में तूने अपना सिर मुंडाया है ?"

वररुचि ने उत्तर दिया----"राजन् ! मैंने उस पुण्य काल में सिर मुँडाया है, जिस काल में पुरुष मुख में लगाम डालकर हिनहिनाते हुए दौड़ते हैं ।"

 

राजा यह सुनकर बड़ा लज्जित हुआ ।

 

x x x

 

बन्दर ने यह कथा सुनाकर मगर से कहा----"मगर-राज ! तुम भी स्त्री के दास बनकर वररुचि के समान अन्धे बन गये हो । उसके कहने पर ही तुम मुझे मारने चले थे, लेकिन वाचाल होने से तुमने अपने मन की बात कहदी । वाचाल होने से सारस मारे जाते हैं । बगुला वाचाल नहीं है, मौन रहता है, इसीलिये बच जाता है । मौन से सभी काम सिद्ध होते हैं । वाणी का असंयम जीव-मात्र के लिये घातक है । इसी दोष के कारण शेर की खाल पहनने के बाद भी गधा अपनी जान न बचा सका, मारा गया ।

 

मगर ने पूछा़---"किस तरह ?"

 

बन्दर ने तब वाचाल गधे की यह कहानी सुनाई----

 

एक शहर में शुद्धपट नाम का धोबी रहता था । उसके पास एक गधा भी था । घास न मिलने से वह बहुत दुबला हो गया । धोबी ने तब एक उपाय सोचा । कुछ दिन पहले जंगल में घूमते-घूमते उसे एक मरा हुआ शेर मिला था, उसकी खाल उसके पास थी । उसने सोचा यह खाल गधे को ओढ़ा कर खेत में भेज दूंगा, जिससे खेत के रखवाले इसे शेर समझकर डरेंगे और इसे मार कर भगाने की कोशिश नहीं करेंगे ।

 

धोबी की चाल चल गई । हर रात वह गधे को शेर की खाल पहना कर खेत में भेज देता था । गधा भी रात भर खाने के बाद घर आ जाता था ।

 

लेकिन एक दिन यह पोल खुल गई । गधे ने एक गधी की आवाज सुन कर खुद भी अरड़ाना शुरु कर दिया । रखवाले शेर की खाल ओढ़े गधे पर टूट पड़े, और उसे इतना मारा कि बिचारा मर ही गया । उसकी वाचालता ने उसकी जान लेली ।

 

x x x

 

बन्दर मगर को यह कहानी कह ही रहा था कि मगर के एक पड़ोसी ने वहाँ आकर मगर को यह खबर दी कि उसकी स्त्री भूखी-प्यासी बैठी उसके आने की राह देखती-देखती मर गई । मगरमच्छ़ यह सुन कर व्याकुल हो गया और बन्दर से बोला----"मित्र क्षमा करना, मैं तो अब स्त्री-वियोग से भी दुःखी हूं ।"

 

बन्दर ने हँसते हुए कहा----"यह तो मैं पहले ही जानता था कि तू स्त्री का दास है । अब उसका प्रमाण भी मिल

 

गया । मूर्ख ! ऐसी दुष्ट स्त्री की मृत्यु पर तो उत्सव मनाना चाहिये, दुःख नहीं । ऐसी स्त्रियाँ पुरुष के लिये विष समान होती हैं । बाहिर से वह जितनी अमृत समान मीठी लगती हैं, अन्दर से उतनी ही विष समान कड़वी होती हैं ।"

 

मगर ने कहा----"मित्र ! ऐसा ही होगा, किन्तु अब क्या करुँ ? मैं तो दोनों ओर से जाता रहा । उधर पत्‍नी का वियोग हुआ, घर उजड़ गया; इधर तेरे जैसा मित्र छूट गया । यह भी दैवसंयोग की बात है । मेरी अवस्था उस किसान-पत्‍नी की तरह हो गई है जो पति से भी छूटी और धन से भी वंचित कर दी गई थी ।"

 

बन्दर ने पूछा़----"वह कैसे ?"

 

तब मगर ने गीदड़ी और किसान-पत्‍नी की यह कथा सुनाई----

 

एक स्थान पर किसान पति-पत्‍नी रहते थे । किसान वृद्ध था, पत्‍नी जवान । अवस्था भेद से पत्‍नी का चरित्र दूषित हो गया था । उसके चरित्रहीन होने की बात गाँव भर में फैल गई थी ।

 

एक दिन उसे एकान्त में पाकर एक जवान ठग ने कहा---"सुन्दरी ! मैं भी विधुर हूँ, और वृद्ध की पत्‍नी होने के कारण तू भी विधवा समान है । चलो, हम यहाँ से दूर भाग कर प्रेम से रहें ।" किसान-पत्‍नी को यह बात पसन्द आई । वह दूसरे ही दिन घर से सारा धन-आभूषण लेकर आ गई और दोनों दक्षिण दिशा की ओर वेग से चल पड़े । अभीदो कोस ही गये थे कि नदी आ गई ।

 

वहाँ दोनों ठहर गये । जवान ठग के मन में पाप था । वह किसान-पत्‍नी के धन पर हाथ साफ़ करना चाहता था । उसने नदी को पार करने के लिये यह सुझाव रखा कि पहले वह सम्पूर्ण धन-जे़वर की गठरी बाँध कर दूसरे किनारे रख आयेगा, फिर आकर सुन्दरी को सहारा देते हुए पार पहुँचा देगा ।" किसान-पत्‍नी मूर्ख थी, वह यह बात मान गई । धन-आभूषणों के साथ वह पत्‍नी के क़ीमती कपड़े भी ले गया । किसान-पत्‍नी निपट नग्‍न रह गई ।

 

इतने में वहाँ एक गीदड़ी आई । उसके मुख में माँस का टुकड़ा था । वहाँ आकर उसने देखा कि नदी के किनारे एक मछली बैठी है । उसे देखकर वह मांस के टुकडों को वहीं छोड़ मछ़ली मारने किनारे तक गई । इसी बीच एक गृद्ध आकाश से उतरा और अपट कर मांस का टुकड़ा दबोच कर ले गया । उधर मछ़ली भी गीदड़ी को आता देख नदी में कूद पड़ी । गीदड़ी दोनों ओर से खाली हाथ हो गई । मांस का टुकड़ा भी गया और मछ़ली भी गई । उसे देख नग्‍न बैठी किसानकन्या ने कहा----"गीदड़ी ! ग्रुद्ध तेरा मांस ले गया और मछ़ली पानी में कूद गई, अब आकाश की ओर क्या देख रही है ?" गीदड़ी ने भी प्रत्युत्तर देने में शीघ्रता की । वह बोली----"तेरा भी तो यही हाल है । न तेरा पति तेरा अपना रहा और न ही वह सुन्दर युवक तेरा बना । वह तेरा धन लेकर चला जा रहा है ।"

 

x x x

 

मगर यह कहानी सुना ही रहा था कि एक दूसरे मगर ने आकर सूचना दी कि "मित्र ! तेरे घर पर भी दूसरे मगरमच्छ़ ने अधिकार कर लिया है ।" यह सुनकर मगर और भी चिन्तित हो गया । उसके चारों ओर विपत्तियों के बादल उमड़ रहे थे । उन्हें दूर करने का उपाय पूछ़ने के लिये वह बन्दर से बोला---"मित्र ! मुझे बता कि साम-दाम-भेद आदि में से किस उपाय से अपने घर पर फिर अधिकार करुँ ।"

 

बन्दर ----"कृतघ्न ! मैं तुझे कोई उपाय नहीं बतलाऊँगा । अब मुझे मित्र भी मत कह । तेरा विनाश काल आ गया है । सज्जनों के वचन पर जो नहीं चलता, उसका विनाश अवश्य होता है, जैसे घंटोष्ट्र का हुआ था ।"

 

मगर ने पूछा़----"कैसे ?"

 

तब बन्दर ने यह कहानी सुनाई----

 

एक गांव में उज्वलक नाम का बढ़ई रहता था । वह बहुत गरीब था । ग़रीबी से तंग आकर वह गांव छो़ड़कर दूसरे गांव के लिये चल पड़ा । रास्ते में घना जंगल पड़ता था । वहां उसने देखा कि एक ऊंटनी प्रसवपीड़ा से तड़फड़ा रही है । ऊँटनी ने जब बच्चा दिया तो वह उँट के बच्चे और ऊँटनी को लेकर अपने घर आ गया । वहां घर के बाहर ऊँटनी को खूंटी से बांधकर वह उसके खाने के लिये पत्तों-भरी शाखायें काटने वन में गया । ऊँटनी ने हरी-हरी कोमल कोंपलें खाईं । बहुत दिन इसी तरह हरे-हरे पत्ते खाकर ऊंटनी स्वस्थ और पुष्ट हो गई । ऊँट का बच्चा भी बढ़कर जवान हो गया । बढ़ई ने उसके गले में एक घंटा बांध दिया, जिससे वह कहीं खोया न जाय । दुर से ही उसकी आवाज सुनकर बढ़ई उसे घर लिवा लाता था । ऊँटनी के दूध से बढ़ई के बाल-बच्चे भी पलते थे । ऊँट भार ढोने के भी काम आने लगा ।

 

उस ऊँट-ऊँटनी से ही उसका व्यापर चलता था । यह देख उसने एक धनिक से कुछ रुपया उधार लिया और गुर्जर देश में जाकर वहां से एक और ऊँटनी ले आया । कुछ दिनों में उसके पास अनेक ऊँट-ऊँटनियां हो गईं । उनके लिये रखवाला भी रख लिया गया । बढ़ई का व्यापार चमक उठा । घर में दुधकी नदियाँ बहने लगीं ।

 

शेष सब तो ठीक था----किन्तु जिस ऊँट के गले में घंटा बंधा था, वह बहुत गर्वित हो गया था । वह अपने को दूसरों से विशेष समझता था । सब ऊँट वन में पत्ते खाने को जाते तो वह सबको छो़ड़कर अकेला ही जंगल में घूमा करता था ।

 

उसके घंटे की आवाज़ से शेर को यह पता लग जाता था कि ऊँट किधर है । सबने उसे मना किया कि वह गले से घंटा उतार दे, लेकिन वह नहीं माना ।

 

एक दिन जब सब ऊँट वन में पत्ते खाकर तालाब से पानी पीने के बाद गांव की ओर वापिस आ रहे थे, तब वह सब को छो़ड़कर जंगल की सैर करने अकेला चल दिया । शेर ने भी घंटे की आवाज सुनकर उसका पीछा़ किया । और जब वह पास आया तो उस पर झपट कर उसे मार दिया ।

 

x x x

 

बन्दर ने कहा, "तभी मैंने कहा था कि सज्जनों की बात अनसुनी करके जो अपनी ही करता है वह विनाश को निमंत्रण देता है ।"

 

मगरमच्छ बोला----"तभी तो मैं तुझसे पूछ़ता हूँ । तू सज्जन है, साधु है; किन्तु सच्चा साधु तो वही है जो अपकार करने वालों के साथ भी साधुता करे, कृतघ्नों को भी सच्ची राह दिखलाये । उपकारियों के साथ तो सभी साधु होते

 

हैं ।"

 

यह सुनकर बन्दर ने कहा ----"तब मैं तुझे यही उपदेश देता हूँ कि तू जाकर उस मगर से, जिसने तेरे घर पर अनुचित अधिकार कर लिया है, युद्ध कर । नीति कहती है कि शत्रु बली है तो भेद-नीति से, नीच है तो दाम से, और समशक्ति है तो पराक्रम से उस पर विजय पाये ।"

 

मगर ने पूछा़---"यह कैसे ?"

 

तब, बन्दर ने गीदड़-शेर और बाघ की यह कहानी सुनाई----

 

एक जङगल में महाचतुर नाम का गीदड़ रहता था । उसकी दृष्टि में एक दिन अपनी मौत आप मरा हुआ हाथी पड़ गया । गीदड़ ने उसकी खाल में दाँत गड़ाने की बहुत कोशिश की, लेकिन कहीं से भी उसकी खाल उघेड़ने में उसे सफलता नहीं मिली । उसी समय वहाँ एक शेर आया । शेर को आता देखकर वह साष्टांग प्रणाम करने के बाद हाथ जोड़कर बोला----"स्वामी ! मैं आपका दास हूँ । आपके लिये ही इस मृत हाथी की रखवाली कर रहा हूँ । आप अब इसका यथेष्ट भोजन कीजिये ।"

 

शेर ने कहा----"गीदड़ ! मैं किसी और के हाथों मरे जीव का भोजन नहीं करता । भूखे रह कर भी मैं अपने इस धर्म का पालन करता हूँ । अतः तू ही इसका आस्वादन कर । मैंने तुझे भेंट में दे दिया ।"

 

शेर के जाने के बाद वहाँ एक बाघ आया । गीदड़ ने सोचा : एक मुसीबत कोतो हाथ जोड़ कर टाला था, इसे कैसे टालूँ ? इसके साथ भेद-नीति का ही प्रयोग करना चाहिए । जहाँ सामदाम की नीति न चले वहाँ भेद-नीति ही अपना काम करती है । भेद-नीति ही ऐसी प्रबल है कि मोतियों को भी माला में बाँध देती है ।यह सोचकर वह बाघ के सामने ऊँची गर्दन करके गया और बोला----

 

"मामा ! इस हाथी पर दाँत न गड़ाना । इसे शेर ने मारा है । वह अभी नदी पर स्नान करने गया है और मुझे रखवाली के लिये छो़ड़ गया है । वह यह भी कह गया है कि यदि कोई बाघ आए तो उसे बता दूँ, जिससे वह सारा जङगल बाघों से खाली कर दे ।"

 

गीदड़ की बात सुनकर बाघ ने कहा----"मित्र ! मेरी जीवनरक्षा कर, प्राणों की भिक्षा दे । शेर से मेरे आने की चर्चा न करना ।" यह कह कर वह बाघ वहाँ से भाग गया ।

 

बाघ के जाने के बाद वहाँ एक चीता आया । गीदड़ ने सोचा----चीते के दाँत तीखे होते हैं, इससे हाथी की खाल उघड़वा लेता हूँ ।यह सोच वह उसके पास जाकर बोला----"भगिनीसुत ! क्या बात है, बहुत दिनों में दिखाई दिये हो । कुछ भूख से सताए मालूम होते हो । आओ, मेरा आतिथ्य स्वीकार करो । देखो, यह हाथी शेर ने मारा है, मैं इसका रखवाला हूँ । जब तक शेर नहीं आता, तब तक इसका माँस खाकर जल्दी से भाग जाओ । मैं उसके आने की खबर दूर से ही दे दूँगा ।"

 

गीदड़ थोड़ी दूर पर खड़ा हो गया और चीता हाथी की खाल उघेड़ने में लग गया । जैसे ही चीते ने एक दो जगहों से खाल उघेड़ी, वैसे ही गीदड़ चिल्ला पड़ा : "शेर आ रहा है, भाग जा ।" चीता यह सुनकर भाग खड़ा हुआ ।

 

उसके जाने के बाद गीदड़ ने उघड़ी जगहों से माँस खाना शुरु कर दिया । लेकिन अभी एक दो ग्रास ही खाए थे कि एक गीदड़ आ गया । गीदड़ तो उसका समशक्ति ही था । इसलिये वह उस पर टूट पडा़ और उसे दूर तक भगा आया । इसके बाद बहुत दिनों तक वह उस हाथी का मांस खाता रहा ।

 

x x x

 

यह कहानी सुनाकर बन्दर ने कहा----"तभी तुझे भी कहता हूँ कि स्वजातीय से युद्ध करके अभी निपट ले, नहीं तो उसकी जड़ जम जाएगी । वही तुझे नष्ट कर देगा । स्वजातियों का यही दोष है कि वही विरोध करते हैं, जैसे कुत्तों ने किया था ।"

 

मगर ने कहा---"कैसे ?"

 

बन्दर ने तब कुत्ते की यह कहानी सुनाई ----

 

एक गाँव में चित्रांग नाम का कुत्ता रहता था । वहां दुर्भिक्ष पड़ गया । अन्न के अभाव में कई कुत्तों का वंशनाश हो गया । अन्न के अभाव में कई कुत्तों का वंशनाश हो गया । चित्रांग ने भी दुर्भिक्ष से बचने के लिये दूसरे गाँव की राह ली । वहाँ पहुँच कर उसने एक घर में चोरी से जाकर भरपेट खाना खा लिया । जिसके घर खाना खाया था उसने तो कुछ़ नहीं कहा, लेकिन घर से बाहर निकला तो आसपास के सब कुत्तों ने उसे घेर लिया । भयङकर लड़ाई हुई । चित्रांग के शरीर पर कई घाव लग गये । चित्रांग ने सोचा---इससे तो अपना गाँव ही अच्छा है, जहाँ केवल दुर्भिक्ष है, जान के दुश्मन कुत्ते तो नहीं हैं ।

 

यह सोच कर वह वापिस आ गया । अपने गाँव आने पर उससे सब कुत्तों ने पूछा---"चित्रांग ! दूसरे गाँव की बात

 

सुना । वह गाँव कैसा है ? वहाँ के लोग कैसे हैं ? वहाँ खाने-पीने की चीजें कैसी हैं ?"

 

चित्रांग ने उत्तर दिया ----"मित्रो, उस गाँव में खाने-पीने की चीजें तो बहुत अच्छी़ हैं, और गृह-पत्‍नियाँ भी नरम स्वभाव की हैं; किन्तु दूसरे गाँव में एक ही दोष है, अपनी जाति के ही कुत्ते बड़े खूंखार हैं ।"

 

x x x

 

बन्दर का उपदेश सुनकर मगरमच्छ ने मन ही मन निश्चय किया कि वह अपने घर पर स्वामित्व जमाने वाले मगरमच्छ से युद्ध करेगा । अन्त में यही हुआ । युद्ध में मगरमच्छ ने उसे मार दिया और देर तक सुखपूर्वक उस घर में रहता रहा ।

 

॥चतुर्थ तंत्र समाप्त॥

Post a Comment

0 Comments

Ad Code