सोने का हंस-जातक कथा
वाराणसी में कभी एक
कर्त्तव्यनिष्ठ व शीलवान् गृहस्थ रहा करता था । तीन बेटियों और एक पत्नी के साथ
उसका एक छोटा-सा घर संसार था । किन्तु अल्प-आयु में ही उसका निधन हो गया ।
मरणोपरान्त उस गृहस्थ
का पुनर्जन्म एक स्वर्ण हंस के रुप में हुआ । पूर्व जन्म के उपादान और संस्कार
उसमें इतने प्रबल थे कि वह अपने मनुष्य-योनि के घटना-क्रम और उनकी भाषा को विस्मृत
नहीं कर पाया । पूर्व जन्म के परिवार का मोह और उनके प्रति उसका लगाव उसके वर्तमान
को भी प्रभावित कर रहा था । एक दिन वह अपने मोह के आवेश में आकर वाराणसी को उड़ चला
जहाँ उसकी पूर्व-जन्म की पत्नी और तीन बेटियाँ रहा करती थीं ।
घर के मुंडेर पर
पहुँच कर जब उसने अपनी पत्नी और बेटियों को देखा तो उसका मन खिन्न हो उठा क्योंकि
उसके मरणोपरान्त उसके परिवार की आर्थिक दशा दयनीय हो चुकी थी । उसकी पत्नी और
बेटियाँ अब सुंदर वस्रों की जगह चिथड़ों में दिख रही थीं । वैभव के सारे सामान भी
वहाँ से तिरोहित हो चुके थे । फिर भी पूरे उल्लास के साथ उसने अपनी पत्नी और
बेटियों का आलिंगन कर उन्हें अपना परिचय दिया और वापिस लौटने से पूर्व उन्हें अपना
एक सोने का पंख भी देता गया, जिसे बेचकर उसके परिवार वाले
अपने दारिद्र्य को कम कर सकें ।
इस घटना के पश्चात्
हँस समय-समय पर उनसे मिलने वाराणसी आता रहा और हर बार उन्हें सोने का एक पंख दे कर
जाता था।
बेटियाँ तो हंस की
दानशीलता से संतुष्ट थी मगर उसकी पत्नी बड़ी ही लोभी प्रवृत्ति की थी। उसने सोचा
क्यों न वह उस हंस के सारे पंख निकाल कर एक ही पल में धनी बन जाये। बेटियों को भी
उसने अपने मन की बात कही। मगर उसकी बेटियाँ ने उसका कड़ा विरोध किया।
अगली बार जब वह हंस
वहाँ आया तो संयोगवश उसकी बेटियाँ वहाँ नहीं थी। उसकी पत्नी ने तब उसे बड़े प्यार
से पुचकारते हुए अपने करीब बुलाया। नल-प्रपंच के खेल से अनभिज्ञ वह हंस खुशी-खुशी
अपनी पत्नी के पास दौड़ता चला गया। मगर यह क्या। उसकी पत्नी ने बड़ी बेदर्दी से उसकी
गर्दन पकड़ उसके सारे पंख एक ही झटके में नोच डाले और खून से लथपथ उसके शरीर को
लकड़ी के एक पुराने में फेंक दिया। फिर जब वह उन सोने के पंखों को समेटना चाह रही
थी तो उसके हाथों सिर्फ साधारण पंख ही लग सके क्योंकि उस हंस के पंख उसकी इच्छा के
प्रतिकूल नोचे जाने पर साधारण हंस के समान हो जाते थे।
बेटियाँ जब लौट कर घर
आयीं तो उन्होंने अपने पूर्व-जन्म के पिता को खून से सना देखा; उसके
सोने के पंख भी लुप्त थे। उन्होंने सारी बात समझ ली और तत्काल ही हंस की भरपूर
सेवा-शुश्रुषा कर कुछ ही दिनों में उसे स्वस्थ कर दिया।
स्वभावत: उसके पंख
फिर से आने लगे। मगर अब वे सोने के नहीं थे। जब हंस के पंख इतने निकल गये कि वह
उडने के लिए समर्थ हो गया। तब वह उस घर से उड़ गया। और कभी भी वाराणसी में दुबारा
दिखाई नहीं पड़ा।
चाँद पर खरगोश-जातक
कथा
गंगा के किनारे एक वन
में एक खरगोश रहता था। उसके तीन मित्र थे - बंदर, सियार
और ऊदबिलाव। चारों ही मित्र दानवीर बनना चाहते थे। एक दिन बातचीत के क्रम में
उन्होंने उपोसथ के दिन परम-दान का निर्णय लिया क्योंकि उस दिन के दान का संपूर्ण
फल प्राप्त होता है। ऐसी बौद्धों की अवधारणा रही है। (उपोसथ बौद्धों के धार्मिक
महोत्सव का दिन होता है)
जब उपोसथ का दिन आया
तो सुबह-सवेरे सारे ही मित्र भोजन की तलाश में अपने-अपने घरों से बाहर निकले।
घूमते हुए ऊदबिलाव की नज़र जब गंगा तट पर रखी सात लोहित मछलियों पर पड़ी तो वह
उन्हें अपने घर ले आया। उसी समय सियार भी कहीं से दही की एक हांडी और मांस का एक
टुकड़ा चुरा,
अपने घर को लौट आया। उछलता-कूदता बंदर भी किसी बाग से पके आम का गुच्छा
तोड़, अपने घर ले आया। तीनों मित्रों ने उन्हीं वस्तुओं को
दान में देने का संकल्प लिया। किन्तु उनका चौथा मित्र खरगोश तो कोई साधारण प्राणी
नहीं था। उसने सोचा यदि वह अपने भोजन अर्थात् घास-पात का दान जो करे तो दान पाने
वाले को शायद ही कुछ लाभ होगा। अत: उसने उपोसथ के अवसर पर याचक को परम संतुष्ट
करने के उद्देश्य से स्वयं को ही दान में देने का निर्णय लिया।
उसके स्वयं के त्याग
का निर्णय संपूर्ण ब्रह्माण्ड को दोलायमान करने लगा और सक्क के आसन को भी तप्त
करने लगा। वैदिक परम्परा में सक्क को शक्र या इन्द्र कहते हैं। सक्क ने जब इस अति
अलौकिक घटना का कारण जाना तो सन्यासी के रुप में वह उन चारों मित्रों की
दान-परायणता की परीक्षा लेने स्वयं ही उनके घरों पर पहुँचे।
ऊदबिलाव, सियार
और बंदर ने सक्क को अपने-अपने घरों से क्रमश: मछलियाँ; मांस
और दही ; एवं पके आम के गुच्छे दान में देना चाहा। किन्तु
सक्क ने उनके द्वारा दी गयी दान को वस्तुओं को ग्रहण नहीं किया। फिर वह खरगोश के
पास पहुँचे और दान की याचना की। खरगोश ने दान के उपयुक्त अवसर को जान याचक को अपने
संपूर्ण शरीर के मांस को अंगीठी में सेंक कर देने का प्रस्ताव रखा। जब अंगीठी जलायी
गयी तो उसने तीन बार अपने रोमों को झटका ताकि उसके रोमों में बसे छोटे जीव आग में
न जल जाएँ। फिर वह बड़ी शालीनता के साथ जलती आग में कूद पड़ा।
सक्क उसकी दानवीरता
पर स्तब्ध हो उठे। चिरकाल तक उसने ऐसी दानवीरता न देखी थी और न ही सुनी थी।
हाँ, आश्चर्य
! आग ने खरगोश को नहीं जलाया क्योंकि वह आग जादुई थी; सक्क
के द्वारा किये गये परीक्षण का एक माया-जाल था।
सम्मोहित सक्क ने तब
खरगोश का प्रशस्ति गान किया और चांद के ही एक पर्वत को अपने हाथों से मसल, चांद
पर खरगोश का निशान बना दिया और कहा,
"जब तक इस चांद
पर खरगोश का निशान रहेगा तब तक हे खरगोश ! जगत् तुम्हारी दान-वीरता को याद
रखेगा।"
बुद्धि का
चमत्कार-जातक कथा
आज से कई सौ साल
पूर्व की बात है। एक गांव में रामसिंह नामक एक किसान अपनी पत्नी व बच्चे के साथ
रहता था। रामसिंह अनपढ़ व गरीब था। मगर अपने बेटे सुन्दर को वह पढ़ा-लिखाकर किसी
योग्य बनाना चाहता था ताकि उसका बेटा भी उसकी भाँति उम्र भर मेहनत-मजदूरी न करता
रहे। अपने पुत्र से उसे बड़ी आशाएं थीं। लाखों सपने उसने अपने पुत्र को लेकर संजो
डाले थे। वही उसके बुढ़ापे की लाठी था।
उसका बेटा सुन्दर भी
काफी बुद्धिमान था। वह गांव के पण्डित कस्तूरीलाल के पास जाकर शिक्षा ग्रहण कर रहा
था। उसने भी अपने मन में यही सोचा हुआ था कि वह भी पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा और
अपने मां-बाप के कदमों में दुनिया भर की सारी खुशियां और सारे सुख लाकर डाल देगा।
इंसान यदि किसी लक्ष्य को निर्धारित कर ले और सच्चे मन से उसे पाने का प्रयास करे
तो वह उसमें सफलता प्राप्त कर ही लेता है। ऐसा ही सुन्दर के साथ भी हुआ। वह अपनी
कक्षा में अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ। सारे गांव में उसकी खूब वाहवाही हुई।
अपने बेटे की इस सफलता पर रामसिंह का मस्तक भी गर्व से ऊंचा हो उठा।
एक रात रामसिंह ने
अपनी पत्नी से कहा-‘‘सुन्दर की मां ! मेरे मन में सुन्दर को लेकर काफी दिनों से एक विचार उठा
रहा है।’’
‘‘कहो जी।’’ रामसिंह की पत्नी ने कहा-‘‘ऐसी क्या बात है ?
क्या सुन्दर की शादी-ब्याह का विचार बनाया है ?’’
‘‘अरी भागवान ! शादी ब्याह तो
समय आने पर हम उसका करेंगे ही, मगर अभी उसे अपने पैरों पर तो
खड़ा होने दें। मेरा तो यह विचार है कि क्यों न हम उसे शहर भेज दें ताकि वहां जाकर
कोई अच्छा-सा काम-धंधा सीखकर कुछ बनकर दिखाए। यहां गांव में तो बस मेहनत-मजदूरी का
ही धंधा है। पढ़ने-लिखने के बाद भी यदि उसे यही धंधा करना है तो पढ़ाई-लिखाई का
लाभ ही क्या है ? हमारा तो अपना कोई खेत भी नहीं है जिसमें
मेहनत करके वह कोई तरक्की कर सके।’’
‘‘मगर सुन्दर के बापू ! सुन्दर
ने तो आज तक शहर देखा ही नहीं है, हम किसके भरोसे उसे शहर
भेज दें ?’’ सुन्दर की मां कमला ने कहा-‘‘माना कि हमारा सुन्दर समझदार और सूझबूझ वाला है और शहर में वह कोई अच्छा-सा
काम-धंधा तलाश भी लेगा, मगर शहर में टिकने का कोई ठिकाना भी
तो चाहिए।’’
‘‘सुनो सुन्दर की मां ! शहर में
मेरा एक मित्र है, हालांकि हम दोनों वर्षों से एक-दूसरे से
नहीं मिले, मगर फिर भी मुझे उम्मीद है कि यदि मैं सुन्दर को
उसका पता-ठिकाना समझाकर भेजूं तो वह अवश्य ही उसे शरण देगा और रोजी-रोजगार ढूढ़ने
में वह सुन्दर की सहायता भी करेगा।’’
‘‘बात तो आपकी ठीक है सुन्दर के
बापू, लेकिन मेरा मन नहीं मान रहा कि मैं अपने लाल को अपनी
आंखों से दूर करूं।’’
‘‘ऐसा तुम अपनी ममता के हाथों
मजबूर होकर कह रही हो, मगर दिल से तो तुम भी यही चाहती हो कि
हमारा बेटा तरक्की करे। इसलिए दिल को मजबूत बनाओ। सुन्दर शहर जाकर कुछ बन गया तो
हमारा बुढ़ापा भी सुख से गुजरेगा।’
और इस प्रकार रामसिंह
ने अपनी पत्नी को समझा-बुझाकर सुन्दर को शहर भेजने के लिए राजी कर लिया।
उसी शाम सुन्दर जब
अपने यार-दोस्तों के साथ खेल-कूदकर घर वापस आया तो रामसिंह ने बड़े प्यार से अपने
पास बैठाया और अपने मन की बात बता दी।
सुन्दर यह जानकर बहुत
खुश हुआ कि उसका बापू उसे शहर भेजना चाहता है।
वास्तव में सुन्दर भी
यही चाहता था कि वह किसी प्रकार शहर चला जाए और वहां कोई ऐसा काम-धंधा करे जिससे
उसका परिवार सदा-सदा के लिए गरीबी से छुटकारा पाकर सुख भोगे।
अतः पिता का प्रस्ताव
पाकर वह बड़ा खुश हुआ और बोला-‘‘पिताजी ! चाहता तो मैं भी यही
था कि पढ़-लिखकर शहर जाऊँ और अच्छी-सी नौकरी करके घर की कमाई में आपका हाथ बटाऊं,
मगर कहीं आप मुझे शहर भेजने से इनकार न कर दें, यही सोचकर मैंने आपसे अपने मन की बात नहीं कही। मगर अब जब आप स्वयं ही
मुझे शहर भेजने के इच्छुक हैं तो इससे अधिक खुशी की बात मेरे लिए भला और क्या हो
सकती है। मैं अवश्य ही शहर जाऊंगा।’’
और प्रकार दूसरे ही
दिन रामसिंह ने उसे दीन-दुनिया की ऊंच-नीच समझाई और अपने मित्र का पता देकर शहर के
लिए विदा कर दिया।
सुन्दर काफी सूझबूझ
वाला समझदार युवक था।
अपने माता-पिता के
दुख-दर्द को वह भली-भांति समझता था। वह यह भी जानता था कि गांव में रहकर तो उसका
भविष्य अंधकार में ही डूबा रहेगा जबकि उसकी इच्छा बड़ा आदमी बनकर अपने माता-पिता
को भरपूर सुख देना था।
अतः खुशी-खुशी वह शहर
के लिए रवाना हो गया।
शहर आकर सुन्दर की आंखें
चुंधिया गईं।
खूब भीड़-भड़क्का।
सजी-संवरी दुकानें।
तागें-इक्कों का
आवागमन।
खैर, आश्चर्य
से वह सब देखता सुन्दर अपने पिता के कथित दोस्त से मिलने चल दिया।
लेकिन जब वह पता के
बताए स्थान पर पहुंचा तो पता चला कि उसके पिता का दोस्त रामचन्द्र तो न जाने कब का
मर-खप गया और अब तो उसके परिवार का भी कोई अता-पता नहीं था। यह जानकर सुन्दर बहुत
निराश हुआ और सोचने लगा कि अब क्या होगा ?
आशा-निराशा तो जीवन
में चलती ही रहती है, लेकिन सुन्दर उन युवकों में से नहीं था जो
हताश होकर बैठ जाते हैं। उसमें हिम्मत और आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा था।
उसने अपने आपको
दिलासा दिया और बोला-‘बेटे सुन्दर ! निराश होने से कुछ नहीं
होगा। अब शहर आ ही गए हैं तो कुछ करके ही लौटेंगे। मां और बापू ने मुझसे बड़ी
उम्मीदें लगा रखी हैं, मैं ही उनके बुढ़ापे की लाठी हूं। अब
शहर आ ही गया हूं तो कुछ बनकर ही लौटूंगा। तुझे याद नहीं, गांव
में मास्टर जी कहा करते थे-हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा। यानी
जो लोग हिम्मत करते हैं...उनकी मदद खुद भगवान करते हैं।’
अपने आपको इसी प्रकार
हौसला बंधाता हुआ सुन्दर पूछता-पूछता एक सराय में आकर ठहर गया।
उसने स्नान आदि से
निवृत्त होकर थोड़ा आराम किया, फिर किसी नौकरी की तलाश में
निकल पड़ा।
वह जहां भी नौकरी
मांगने जाता,
दुकानदार उसके बातचीत करने के ढंग और उसकी सूझ-बूझ से प्रभावित तो
होता किन्तु कोई जान-पहचान न होने के कारण उसे नौकरी नहीं मिल पाती थी।
इसी प्रकार कई दिन
गुजर गए।
सुन्दर गांव से अपने
साथ जो रुपया-पैसा लेकर आया था, वह भी लगभग समाप्त होने को
था।
अब तो सचमुच सुन्दर
को चिन्ताओं ने आ घेरा।
वह सोचने लगा कि काश
! शहर में उसकी कोई जानकारी होती तो अवश्य ही उसे कोई नौकरी मिल जाती। एक दिन की
बात है,
सुन्दर थक-हारकर एक पेड़ के नीचे बैठा मौजूदा स्थिति के विषय में
सोच रहा था। उससे कुछ ही दूरी पर राज कर्मचारी पेड़ की ठंडी छांव में बैठे गपशप कर
रहे थे। अनमना-सा सुन्दर उनकी बातें सुनने लगा। एक दूसरे से कह रहा था-‘‘कुछ भी कह भाई रामवीर ! तू है बड़ा नसीब वाला। हम दोनों साथ-साथ ही
राजदरबार की सेवा में आए थे, मगर तू तरक्की करके राजाजी का
खजांची बन गया और मैं रहा सिपाही का सिपाही। इसे कहते हैं तकदीर।’’
‘‘तकदीर भी उन्हीं का साथ देती
है गंगाराम, जो सूझबूझ और हिम्मत से काम लेते हैं। मैंने
अपनी सूझबूझ से कुछ ऐसे काम किए कि महाराज का विश्वासपात्र बन गया और उन्होंने
मेरी ईमानदारी देखकर मुझे खजांची बना दिया।’’
‘‘न-न भाई, तू जरूर किसी साधु या फकीर से कोई मन्तर-वन्तर पढ़वाकर लाया होगा जो इतनी
जल्दी इतनी तरक्की कर ली। वरना मैं क्यों न किसी ऊंचे पद पर पहुंच गया ? भइया, तू मुझे भी अपनी कामयाबी का राज बता।’’
‘‘तेरे जैसे लोग इसी चक्कर में
रहते हैं कि पकी-पकाई मिल जाए और खा लें। अरे भाई मेरे, अगर
इन्सान में हिम्मत हौसला, ईमानदारी साहस और सूझबूझ हो तो वह
पहाड़ को खोदकर नदी बहा दे। देख, तू वह मरा हुआ चूहा देख रहा
है ना !’’ रामवीर ने सड़क के किनारे पड़े एक मरे हुए चूहे की
ओर इशारा किया।
‘‘हां-देख रहा हूं।’’
‘‘आने-जाने वाले लोग भी उसे देख
रहे हैं और घृणा से थूककर दूसरी ओर मुंह फेरकर निकल रहे हैं।’’
‘‘रामवीर भाई ! मैं तुझसे तेरी
कामयाबी का रहस्य पूछ रहा था और तू मुझे मरा हुआ चूहा दिखा रहा है। ये क्या बात
हुई ?’’
‘‘गंगाराम ! मैं तुझे कामयाबी
की बाबत ही बता रहा हूं। सुन, लोग उस मरे हुए चूहे पर थूककर
जा रहे हैं। मगर कोई सूझबूझ वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा।
भइया मेरे, अक्ल का इस्तेमाल करने से ही इन्सान कामयाबी
हासिल करता है। जन्तर-मन्तर से कुछ नहीं होता। ’’
‘‘मैं समझ गया भाई रामवीर।’’
निराश-सा होकर गंगाराम बोला-‘‘तू मुझे अपनी
कामयाबी का राज बताना ही नहीं चाहता। खैर, कभी तो मेरे भी
दिन बदलेंगे। आ, अब चलते हैं।’’
इस प्रकार वे दोनों
राज कर्मचारी उठकर चले गए।
वे तो चले गए। मगर
खजांची रामवीर की चूहे वाली बात ने सुन्दर के दिमाग में खलबली-सी मचा दी। उसके
दिमाग में रामवीर की कही बात बार-बार गूंज रही थी-‘लोग
उस मरे हुए चूहे पर थूक-थूककर जा रहे हैं, मगर कोई सूझबूझ
वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा...चार पैसा कमा लेगा...चार
पैसे कमा लेगा।’
सुन्दर सोचने लगा-‘खजांची
की बात में दम है। जिस देश में मिट्टी भी बिकती हो, वहां कोई
चीज बेचना मुश्किल नहीं-मगर इस मरे हुए चूहे को खरीदेगा कौन ? कैसे कमाएगा कोई इससे चार पैसे ?’
चूहे को घूरते हुए
सुन्दर यही सोच रहा था, लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था।
तभी सड़क पर उसे एक
तांगा आता दिखाई दिया। तांगे में एक सेठ बैठा था जिसने एक बिल्ली को अपनी गोद में
दबोचा हुआ था। बिल्ली बार-बार उसकी पकड़ से छूटने की कोशिश कर रही थी।
अभी घोड़ा गाड़ी
सुन्दर के आगे से गुजरी ही थी कि बिल्ली सेठ की गोद से कूदी और सड़के के किनारे की
झाड़ियों में जा घुसी।
‘‘अरे...अरे तांगे वाले,
तांगा रोको। मेरी बिल्ली कूद गई।’’ सेठ
चिल्लाया।
तांगा रुका और सेठ
उतरकर तेजी से झाड़ियों की तरफ लपका।
‘‘अरे भाई तांगे वाले, देखो ! मेरी बिल्ली उन झाड़ियों में जा घुसी है। उसे पकड़ने में मेरी मदद
करो।’’ सेठ झाड़ियों के पास जाकर बिल्ली को बुलाने लगा-‘‘आ...आ...पूसी..पूसी आओ।’’
इसी बीच तांगे वाला
और सुन्दर सहित कुछ अन्य लोग भी वहां जमा हो गए थे।
‘‘अरे भाई ! मैं किसी खास
प्रयोजन से इस बिल्ली को खरीदकर लाया हूं। कोई इसे बाहर निकालने में सहायता करो।’’
सेठ बेताब होकर एकत्रित हो गए लोगों से गुहार कर रहा था।
जबकि झाड़ियों में
घुसी बिल्ली पंजे झाड़-झाड़कर गुर्रा रही थी।
‘‘देख नहीं रहे हो सेठजी कि
बिल्ली किस प्रकार गुर्रा रही है।’’ एक व्यक्ति बोला-‘‘हाथ आगे बढ़ाते ही झपट पड़ेगी।’’
यह सब देखकर सुन्दर
के मस्तिष्क में राजा के खजांची की बात गूंज गई-‘कोई
सूझ-बूझ वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा।’
सुन्दर के मस्तिष्क
में धमाका-सा हुआ और तुरन्त उसके मस्तिष्क में एक युक्ति आ गई। वह सेठ से बोला-‘‘सेठ
जी ! अगर मैं आपकी बिल्ली को काबू करके दूं तो आप मुझे क्या देंगे ?’’
‘‘आएं’’ सेठ
जी ने तुरन्त सुन्दर की ओर देखा और बोला-‘‘भाई ! तू मेरी
बिल्ली को काबू करके देगा तो मैं तुझे चांदी का एक सिक्का दूंगा।’’
‘‘चांदी का सिक्का।’’ सुन्दर के मुंह में पानी भर आया-‘‘ठीक है, आप यहीं रुकिए, मैं अभी आपकी बिल्ली काबू करके आपको
देता हूं।’’
कहकर सुन्दर
दौड़ा-दौड़ा उसी दिशा में गया जिधर मरा हुआ चूहा पड़ा था।
‘वाह बेटा सुन्दर ! बन गया काम।
उस खजांची ने ठीक ही कहा था कि यदि सूझबूझ से काम लिया जाए तो इस मरे हुए चूहे से
भी चार पैसे कमाए जा सकते हैं।
सुन्दर ने मन-ही-मन
खुश होते हुए एक रस्सी तलाश की और चूह की गरदन में फंदा डालकर झाड़ियों की ओर चल
दिया।
‘‘हटो-हटो-सब पीछे हटो।’’भीड़ को एक ओर हटाता हुआ सुन्दर बोला-‘‘बिल्ली अभी
बाहर आती है।’’
‘‘अरे ! मरा हुआ चूहा-यह तो
वहां पड़ा था’’ किसी ने कहा।
दूसरा बोला-‘‘भई
वाह ! इस लड़के ने तो मौके का फायदा उठाकर एक सिक्का कमा लिया।’’
‘‘इसे कहते हैं, बुद्धि का करिश्मा।’’
‘‘यह लड़का अवश्य ही एक दिन
बड़ा आदमी बनेगा।’’
लोग तरह-तरह की बातें
बनाने लगे।
सुन्दर झाड़ियों के
करीब बैठ गया और रस्सी से बंधे चूहे को बिल्ली के सामने लहराने लगा।
मोटे-चूहे को देखकर
बिल्ली के मुंह में पानी भर आया, एक नजर उसने मैत्री भाव से
सुन्दर की ओर देखा, फिर दुम हिलाती हुई धीरे-धीरे सुन्दर के
करीब आने लगी।
सभी लोग उस्सुकता से
यह तमाशा देख रहे थे।
और फिर कुछ ही पलों
बाद चूहे के लालच में जैसे ही बिल्ली बाहर आई, सुन्दर
ने उसकी पीठ पर प्यार से हाथ फेरा और उसे गोद में उठा लिया।
दो हंसों की
कहानी-जातक कथा
मानसरोवर, आज
जो चीन में स्थित है, कभी ठमानस-सरोवर' के नाम से विश्वविख्यात था और उसमें रहने वाले हंस तो नीले आकाश में सफेद
बादलों की छटा से भी अधिक मनोरम थे। उनके कलरव सुन्दर नर्तकियों की नुपुर ध्वनियों
से भी अधिक सुमधुर थे। उन्हीं सफेद हंसों के बीच दो स्वर्ण हंस भी रहते थे। दोनों
हंस बिल्कुल एक जैसे दिखते थे और दोनों का आकार भी अन्य हंसों की तुलना में थोड़ा
बड़ा था। दोनों समान रुप से गुणवान और शीलवान भी थे। फर्क था तो बस इतना कि उनमें
एक राजा था और दूसरा उसका वफादार सेनापति। राजा का नाम धृतराष्ट्र था और सेनापति
का नाम सुमुख। दोनों हंसों की चर्चा देवों, नागों, यक्षों और विद्याधर ललनाओं के बीच अक्सर हुआ करती थी। कालान्तर में मनुष्य
योनि के लोगों को भी उनके गुण-सौन्दर्य का ज्ञान होने लगा। वाराणसी नरेश ने जब
उनके विषय में सुना तो उस के मन में उन हंसों को पाने की प्रबल इच्छा जागृत हुई।
तत्काल उसने अपने राज्य में मानस-सदृश एक मनोरम-सरोवर का निर्माण करवाया, जिसमें हर प्रकार के आकर्षक जलीय पौधे और विभिन्न प्रकार के कमल जैसे पद्म,
उत्पल, कुमुद, पुण्डरीक,
सौगन्धिक, तमरस और कहलर विकसित करवाये। मत्स्य
और जलीय पक्षियों की सुंदर प्रजातियाँ भी वहाँ बसायी गयीं। साथ ही राजा ने वहाँ
बसने वाले सभी पक्षियों की पूर्ण सुरक्षा की भी घोषणा करवायी, जिससे दूर-दूर से आने वाले पंछी स्वच्छंद भाव से वहाँ विचरण करने लगे।
एक बार, वर्षा
काल के बाद जब हेमन्त ॠतु प्रारम्भ हुआ और आसमान का रंग बिल्कुल नीला होने लगा तब
मानस के दो हंस वाराणसी के ऊपर से उड़ते हुए जा रहे थे। तभी उनकी दृष्टि राजा
द्वारा निर्मित सरोवर पर पड़ी। सरोवर की सुन्दरता और उसमें तैरते रमणीक पक्षियों की
स्वच्छंदता उन्हें सहज ही आकर्षित कर गयी। तत्काल वे नीचे उतर आये और महीनों तक
वहाँ की सुरक्षा, सुंदरता और स्वच्छंदता का आनंद लेते रहे।
अन्ततोगत्वा वर्षा ॠतु के प्रारंभ होने से पूर्व वे फिर मानस को प्रस्थान कर गये।
मानस पहुँच कर उन्होंने अपने साथियों के बीच वाराणसी के कृत्रिम सरोवर की इतनी
प्रशंसा की कि सारे के सारे हंस वर्षा के बाद वाराणसी जाने को तत्पर हो उठे।
हंसों के राजा
युधिष्ठिर और उसके सेनापति सुमुख ने अन्य हंसों की इस योजना को समुचित नहीं माना।
युधिष्ठिर ने उनके प्रस्ताव का अनुमोदन न करते हुए, यह
कहा कि, पंछी और जानवरों की एक प्रवृत्ति होती है। वे अपनी
संवेदनाओं को अपनी चीखों से प्रकट करते हैं। किन्तु जन्तु जो कहलाता है
"मानव" बड़ी चतुराई से करता है अपनी भंगिमाओं को प्रस्तुत जो होता है
उनके भावों के ठीक विपरीत।
फिर भी कुछ दिनों के
बाद हंस-राज को हंसों की ज़िद के आगे झुकना पड़ा और वह वर्षा ॠतु के बाद मानस के
समस्त हंसों के साथ वाराणसी को प्रस्थान कर गया। जब मानस के हंसों का आगमन वाराणसी
के सरोवर में हुआ और राजा को इसकी सूचना मिली तो उसने अपने एक निषाद को उन दो
विशिष्ट हंसों को पकड़ने के लिए नियुक्त किया।
एक दिन युधिष्ठिर जब
सरोवर की तट पर स्वच्छंद भ्रमण कर रहा था तभी उसके पैर निषाद द्वारा बिछाये गये
जाल पर पड़े। अपने पकड़े जाने की चिंता छोड़ उसने अपनी तीव्र चीखों से अपने
साथी-हंसों को तत्काल वहाँ से प्रस्थान करने को कहा जिससे मानस के सारे हंस वहाँ
से क्षण मात्र में अंतर्धान हो गये। रह गया तो केवल उसका एकमात्र वफादार हमशक्ल
सेनापति-सुमुख। हंसराज ने अपने सेनापति को भी उड़ जाने की आज्ञा दी मगर वह दृढ़ता
के साथ अपने राजा के पास ही जीना मरना उचित समझा। निषाद जब उन हंसों के करीब
पहुँचा तो वह आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि पकड़ा तो उसने एक ही हंस था फिर भी दूसरा
उसके सामने निर्भीक खड़ा था। निषाद ने जब दूसरे हंस से इसका कारण पूछा तो वह और भी
चकित हो गया,
क्योंकि दूसरे हंस ने उसे यह बताया कि उसके जीवन से बढ़कर उसकी
वफादारी और स्वामि-भक्ति है। एक पक्षी के मुख से ऐसी बात सुनकर निषाद का हृदय
परिवर्तन हो गया। वह एक मानव था; किन्तु मानव-धर्म के लिए
वफादार नहीं था। उसने हिंसा का मार्ग अपनाया था और प्राणातिपात से अपना जीवन
निर्वाह करता था। शीघ्र ही उस निषाद ने अपनी जागृत मानवता के प्रभाव में आकर दोनों
ही हंसों को मुक्त कर दिया।
दोनों हंस कोई साधारण
हंस तो थे नहीं। उन्होंने अपनी दूरदृष्टि से यह जान लिया था कि वह निषाद
निस्सन्देह राजा के कोप का भागी बनेगा। अगर निषाद ने उनकी जान बख़शी थी तो उन्हें
भी निषाद की जान बचानी थी। अत: तत्काल वे निषाद के कंधे पर सवार हो गये और उसे
राजा के पास चलने को कहा। निषाद के कंधों पर सवार जब वे दोनों हंस राज-दरबार
पहुँचे तो समस्त दरबारीगण चकित हो गये। जिन हंसों को पकड़ने के लिए राजा ने इतना
प्रयत्न किया था वे स्वयं ही उसके पास आ गये थे। विस्मित राजा ने जब उनकी कहानी
सुनी तो उसने तत्काल ही निषाद को राज-दण्ड से मुक्त कर पुरस्कृत किया। उसने फिर उन
ज्ञानी हंसों को आतिथ्य प्रदान किया तथा उनकी देशनाओं को राजदरबार में सादर सुनता
रहा।
इस प्रकार कुछ दिनों
तक राजा का आतिथ्य स्वीकार कर दोनों ही हंस पुन: मानस को वापिस लौट गये।
रुरु मृग की कथा-जातक
कथा
रुरु एक मृग था। सोने
के रंग में ढला उसका सुंदर सजीला बदन; माणिक, नीलम
और पन्ने की कांति की चित्रांगता से शोभायमान था। मखमल से मुलायम उसके रेशमी बाल,
आसमानी आँखें तथा तराशे स्फटिक-से उसके खुर और सींग सहज ही किसी का
मन मोह लेने वाले थे। तभी तो जब भी वह वन में चौकडियाँ भरता तो उसे देखने वाला हर
कोई आह भर उठता।
जाहिर है कि रुरु एक
साधारण मृग नहीं था। उसकी अप्रतिम सुन्दरता उसकी विशेषता थी। लेकिन उससे भी बड़ी
उसकी विशेषता यह थी कि वह विवेकशील था ; और मनुष्य की तरह बात-चीत
करने में भी समर्थ था। पूर्व जन्म के संस्कार से उसे ज्ञात था कि मनुष्य स्वभावत:
एक लोभी प्राणी है और लोभ-वश वह मानवीय करुणा का भी प्रतिकार करता आया है। फिर भी
सभी प्राणियों के लिए उसकी करुणा प्रबल थी और मनुष्य उसके करुणा-भाव के लिए कोई
अपवाद नहीं था। यही करुणा रुरु की सबसे बड़ी विशिष्टता थी।
एक दिन रुरु जब वन
में स्वच्छंद विहार कर रहा था तो उसे किसी मनुष्य की चीत्कार सुनायी दी। अनुसरण
करता हुआ जब वह घटना-स्थल पर पहुँचा तो उसने वहाँ की पहाड़ी नदी की धारा में एक
आदमी को बहता पाया। रुरु की करुणा सहज ही फूट पड़ी। वह तत्काल पानी में कूद पड़ा और
डूबते व्यक्ति को अपने पैरों को पकड़ने कि सलाह दी। डूबता व्यक्ति अपनी घबराहट में
रुरु के पैरों को न पकड़ उसके ऊपर की सवार हो गया। नाजुक रुरु उसे झटक कर अलग कर
सकता था मगर उसने ऐसा नहीं किया। अपितु अनेक कठिनाइयों के बाद भी उस व्यक्ति को
अपनी पीठ पर लाद बड़े संयम और मनोबल के साथ किनारे पर ला खड़ा किया।
सुरक्षित आदमी ने जब
रुरु को धन्यवाद देना चाहा तो रुरु ने उससे कहा, "अगर तू सच में मुझे धन्यवाद देना चाहता है तो यह बात किसी को ही नहीं
बताना कि तूने एक ऐसे मृग द्वारा पुनर्जीवन पाया है जो एक विशिष्ट स्वर्ण-मृग है;
क्योंकि तुम्हारी दुनिया के लोग जब मेरे अस्तित्व को जानेंगे तो वे निस्सन्देह
मेरा शिकार करना चाहेंगे।" इस प्रकार उस मनुष्य को विदा कर रुरु पुन: अपने
निवास-स्थान को चला गया।
कालांतर में उस राज्य
की रानी को एक स्वप्न आया। उसने स्वप्न में रुरु साक्षात् दर्शन कर लिए। रुरु की
सुन्दरता पर मुग्ध;
और हर सुन्दर वस्तु को प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा से रुरु को
अपने पास रखने की उसकी लालसा प्रबल हुई। तत्काल उसने राजा से रुरु को ढूँढकर लाने
का आग्रह किया। सत्ता में मद में चूर राजा उसकी याचना को ठुकरा नहीं सका। उसने नगर
में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो कोई-भी रानी द्वारा कल्पित मृग को ढूँढने में सहायक
होगा उसे वह एक गाँव तथा दस सुन्दर युवतियाँ पुरस्कार में देगा।
राजा के ढिंढोरे की
आवाज उस व्यक्ति ने भी सुनी जिसे रुरु ने बचाया था। उस व्यक्ति को रुरु का निवास
स्थान मालूम था। बिना एक क्षण गँवाये वह दौड़ता हुआ राजा के दरबार में पहुँचा। फिर
हाँफते हुए उसने रुरु का सारा भेद राजा के सामने उगल डाला।
राजा और उसके सिपाही
उस व्यक्ति के साथ तत्काल उस वन में पहुँचे और रुरु के निवास-स्थल को चारों ओर से
घेर लिया। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने रुरु को रानी की बतायी छवि के
बिल्कुल अनुरुप पाया। राजा ने तब धनुष साधा और रुरु उसके ठीक निशाने पर था। चारों
तरफ से घिरे रुरु ने तब राजा से मनुष्य की भाषा में यह कहा "राजन् ! तुम मुझे
मार डालो मगर उससे पहले यह बताओ कि तुम्हें मेरा ठिकाना कैसे मालूम हुआ ?"
उत्तर में राजा ने
अपने तीर को घुमाते हुए उस व्यक्ति के सामने रोक दिया जिसकी जान रुरु ने बचायी थी।
रुरु के मुख से तभी यह वाक्य हठात् फूट पड़ा
"निकाल लो लकड़ी
के कुन्दे को पानी से न निकालना कभी एक अकृतज्ञ इंसान को।"
राजा ने जब रुरु से
उसके संवाद का आशय पूछा तो रुरु ने राजा को उस व्यक्ति के डूबने और बचाये जाने की
पूरी कहानी कह सुनायी। रुरु की करुणा ने राजा की करुणा को भी जगा दिया था। उस
व्यक्ति की कृतध्नता पर उसे रोष भी आया। राजा ने उसी तीर से जब उस व्यक्ति का
संहार करना चाहा तो करुणावतार मृग ने उस व्यक्ति का वध न करने की प्रार्थना की।
रुरु की विशिष्टताओं
से प्रभावित राजा ने उसे अपने साथ अपने राज्य में आने का निमंत्रण दिया। रुरु ने
राजा के अनुग्रह का नहीं ठुकराया और कुछ दिनों तक वह राजा के आतिथ्य को स्वीकार कर
पुन: अपने निवास-स्थल को लौट गया।
बुद्धिमान् वानर-जातक
कथा
हज़ारों साल पहले किसी
वन में एक बुद्धिमान बंदर रहता था। वह हज़ार बंदरों का राजा भी था।
एक दिन वह और उसके
साथी वन में कूदते-फाँदते ऐसी जगह पर पहुँचे जिसके निकट क्षेत्र में कहीं भी पानी
नहीं था। नयी जगह और नये परिवेश में प्यास से व्याकुल नन्हे वानरों के बच्चे और
उनकी माताओं को तड़पते देख उसने अपने अनुचरों को तत्काल ही पानी के किसी स्रोत को
ढूंढने की आज्ञा दी।
कुछ ही समय के बाद उन
लोगों ने एक जलाशय ढूंढ निकाला। प्यासे बंदरों की जलाशय में कूद कर अपनी प्यास
बुझाने की आतुरता को देख कर वानरराज ने उन्हें रुकने की चेतावनी दी, क्योंकि
वे उस नये स्थान से अनभिज्ञ था। अत: उसने अपने अनुचरों के साथ जलाशय और उसके तटों
का सूक्ष्म निरीक्षण व परीक्षण किया। कुछ ही समय बाद उसने कुछ ऐसे पदचिह्नों को
देखा जो जलाशय को उन्मुख तो थे मगर जलाशय से बाहर को नहीं लौटे थे। बुद्धिमान्
वानर ने तत्काल ही यह निष्कर्ष निकाला कि उस जलाशय में निश्चय ही किसी खतरनाक
दैत्य जैसे प्राणी का वास था। जलाशय में दैत्य-वास की सूचना पाकर सारे ही बंदर
हताश हो गये। तब बुद्धिमान वानर ने उनकी हिम्मत बंधाते हुए यह कहा कि वे दैत्य के
जलाशय से फिर भी अपनी प्यास बुझा सकते हैं क्योंकि जलाशय के चारों ओर बेंत के जंगल
थे जिन्हें तोड़कर वे उनकी नली से सुड़क-सुड़क कर पानी पी सकते थे। सारे बंदरों ने
ऐसा ही किया और अपनी प्यास बुझा ली।
जलाशय में रहता दैत्य
उन्हें देखता रहा मगर क्योंकि उसकी शक्ति जलाशय तक ही सीमित थी, वह
उन बंदरों का कुछ भी नहीं बिगाड़ सका । प्यास बुझा कर सारे बंदर फिर से अपने वन को
लौट गये।
छद्दन्त हाथी-जातक
कथा
हिमालय के घने वनों
में कभी सफेद हाथियों की दो विशिष्ट प्रजातियाँ हुआ करती थीं - छद्दन्त और उपोसथ।
छद्दन्त हाथियों का रंग सफेद हुआ करता था और उनके छ: दाँत होते थे। (ऐसा पालि
साहित्य मे उल्लिखित है।) छद्दन्त हाथियों का राजा एक कंचन गुफा में निवास करता
था। उसके मस्तक और पैर माणिक के समान लाल और चमकीले थे। उसकी दो रानियाँ थी -
महासुभद्दा और चुल्लसुभद्दा।
एक दिन गजराज और उसकी
रानियाँ अपने दास-दासियों के साथ एक सरोवर में जल-क्रीड़ा कर रहे थे। सरोवर के तट
पर फूलों से लदा एक साल-वृक्ष भी था। गजराज ने खेल-खेल में ही साल वृक्ष की एक
शाखा को अपनी सूंड से हिला डाला। संयोगवश वृक्ष के फूल और पराग महासुभद्दा को
आच्छादित कर गये। किन्तु वृक्ष की सूखी टहनियाँ और फूल चुल्लसुभद्दा के ऊपर गिरे।
चुल्लसुभद्दा ने इस घटना को संयोग न मान, स्वयं को अपमानित
माना। नाराज चुल्लसुभद्दा ने उसी समय अपने पति और उनके निवास का त्याग कर कहीं चली
गई। तत: छद्दन्तराज के अथक प्रयास के बावजूद वह कहीं ढूंढे नहीं मिली।
कालान्तर में
चुल्लसुभद्दा मर कर मद्द राज्य की राजकुमारी बनी और विवाहोपरान्त वाराणसी की
पटरानी। किन्तु छद्दन्तराज के प्रति उसका विषाद और रोष इतना प्रबल था कि पुनर्जन्म
के बाद भी वह प्रतिशोध की आग में जलती रही। अनुकूल अवसर पर उसने राजा से
छद्दन्तराज के दन्त प्राप्त करने को उकसाया। फलत: राजा ने उक्त उद्देश्य से कुशल
निषादों की एक टोली बनवाई जिसका नेता सोनुत्तर को बनाया।
सात वर्ष, सात
महीने और सात दिनों के पश्चात् सोनुत्तर छद्दन्तराज के निवास-स्थान पर पहुँचा।
उसने वहाँ एक गड्ढा खोदा और उसे लकड़ी और पत्तों से ढ्ँक दिया। फिर वह चुपचाप पेड़ों
की झुरमुट में छिप गया। छद्दन्तराज जब उस गड्ढे के करीब आया तो सोनुत्तर ने उस पर
विष-बुझा बाण चलाया। बाण से घायल छद्दन्त ने जब झुरमुट में छिपे सोनुत्तर को हाथ
में धनुष लिये देखा तो वह उसे मारने के लिए दौड़ा । किन्तु सोनुत्तर ने संन्यासियों
का गेरुआ वस्र पहना हुआ था जिस के कारण गजराज ने निषाद को जीवन-दान दिया। अपने
प्राणों की भीख पाकर सोनुत्तर का हृदय-परिवर्तन हुआ। भाव - विह्मवल सोनुत्तर ने
छद्दन्त को सारी बातें बताई कि क्यों वह उसके दांतों को प्राप्त करने के उद्देश्य
से वहाँ आया था।
चूँकि छद्दन्त के
मजबूत दांत सोनुत्तर नहीं काट सकता था इसलिए छद्दन्त ने मृत्यु-पूर्व स्वयं ही
अपनी सूँड से अपने दांत काट कर सोनुत्तर को दे दिये।
वाराणसी लौट कर
सोनुत्तर ने जब छद्दन्त के दाँत रानी को दिखलाये तो रानी छद्दन्त की मृत्यु के
आघात को संभाल न सकी और तत्काल मर गयी।
लक्खण मृग-जातक कथा
हजारों साल पहले मगध
जनपद के एक निकटवर्ती वन में हजार हिरणों का एक समूह रहता था जिसके राजा के दो
पुत्र थे- लक्खण और काल। जब मृगराज वृद्ध होने लगा तो उसने अपने दोनों पुत्रों को
उत्तराधिकारी घोषित किया और प्रत्येक के संरक्षण में पाँच-पाँच सौ मृग प्रदान किए
ताकि वे सुरक्षित आहार-विहार का आनंद प्राप्त कर सकें।
उन्हीं दिनों फसल
काटने का समय भी निकट था तथा मगधवासी अपने लहलहाते खेतों को आवारा पशुओं से
सुरक्षित रखने के लिए अनेक प्रकार के उपक्रम और खाइयों का निर्माण कर रहे थे।
मृगों की सुरक्षा के लिए वृद्ध पिता ने अपने दोनों पुत्रों को अपने मृग-समूहों को
लेकर किसी सुदूर और सुरक्षित पहाड़ी पर जाने का निर्देश दिया।
काला एक स्वेच्छाचारी
मृग था। वह तत्काल अपने मृगों को लेकर पहाड़ी की ओर प्रस्थान कर गया। उसने इस बात
की तनिक भी परवाह नहीं की कि लोग सूरज की रोशनी में उनका शिकार भी कर सकते थे।
फलत: रास्ते में ही उसके कई साथी मारे गये।
लक्खण एक बुद्धिमान
और प्रबुद्ध मृग था। उसे यह ज्ञान था कि मगधवासी दिन के उजाले में उनका शिकार भी
कर सकते थे। अत: उसने पिता द्वारा निर्दिष्ट पहाड़ी के लिए रात के अंधेरे में
प्रस्थान किया। उसकी इस बुद्धिमानी से उसके सभी साथी सुरक्षित पहाड़ी पर पहुँच गए।
चार महीनों के बाद जब
लोगों ने फसल काट ली तो दोनों ही मृग-बन्धु अपने-अपने अनुचरों के साथ अपने
निवास-स्थान को लौट आये। जब वृद्ध पिता ने लक्खण के सारे साथियों को जीवित और काला
के अनेक साथियों के मारे जाने का कारण जाना तो उसने खुले दिल से लक्खण की
बुद्धिमत्ता की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
महाकपि का बलिदान-जातक
कथा
हिमालय के फूल अपनी
विशिष्टताओं के लिए सर्वविदित हैं। दुर्भाग्यवश उनकी अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती
जा रही हैं। कुछ तो केवल किस्से- कहानियों तक ही सिमट कर रह गयी हैं। यह कहानी उस
समय की है,
जब हिमालय का एक अनूठा पेड़ अपने फलीय वैशिष्ट्य के साथ एक निर्जन
पहाड़ी नदी के तीर पर स्थित था। उसके फूल थाईलैंड के कुरियन से भी बड़े, चेरी से भी अधिक रसीले और आम से भी अधिक मीठे होते थे। उनकी आकृति और
सुगंध भी मन को मोह लेने वाली थी।
उस पेड़ पर वानरों का
एक झुण्ड रहता था,
जो बड़ी ही स्वच्छंदता के साथ उन फूलों का रसास्वादन व उपभोग करता
था। उन वानरों का एक राजा भी था जो अन्य बन्दरों की तुलना कई गुणा ज्यादा बड़ा,
बलवान्, गुणवान्, प्रज्ञावान्
और शीलवान् था, इसलिए वह महाकपि के नाम से जाना जाता था।
अपनी दूर-दृष्टि उसने समस्त वानरों को सचेत कर रखा था कि उस वृक्ष का कोई भी फल उन
टहनियों पर न छोड़ा जाए जिनके नीचे नदी बहती हो। उसके अनुगामी वानरों ने भी उसकी
बातों को पूरा महत्तव दिया क्योंकि अगर कोई फल नदी में गिर कर और बहकर मनुष्य को
प्राप्त होता तो उसका परिणाम वानरों के लिए अत्यंत भयंकर होता।
एक दिन दुर्भाग्यवश
उस पेड़ का एक फल पत्तों के बीचों-बीच पक कर टहनी से टूट, बहती
हुई उस नदी की धारा में प्रवाहित हो गया।
उन्हीं दिनों उस देश
का राजा अपनी औरतों दास-दासीयों तथा के साथ उसी नदी की तीर पर विहार कर रहा था। वह
प्रवाहित फल आकर वहीं रुक गया। उस फल की सुगन्ध से राजा की औरतें सम्मोहित होकर
आँखें बंद कर आनन्दमग्न हो गयीं। राजा भी उस सुगन्ध से आनन्दित हो उठा। शीघ्र ही
उसने अपने आदमी उस सुगन्ध के स्रोत के पीछे दौड़ाये। राजा के आदमी तत्काल उस फल को
नदी के तीर पर प्राप्त कर पल भर में राजा के सम्मुख ले आए। फल का परीक्षण कराया
गया तो पता चला कि वह एक विषहीन फल था। राजा ने जब उस फल का रसास्वादन किया तो
उसके हृदय में वैसे फलों तथा उसके वृक्ष को प्राप्त करने की तीव्र लालसा जगी। क्षण
भर में सिपाहियों ने वैसे फलों पेड़ को भी ढूँढ लिया। किन्तु वानरों की उपस्थिति
उन्हें वहाँ रास नहीं आयी। तत्काल उन्होंने तीरों से वानरों को मारना प्रारम्भ कर
दिया।
वीर्यवान् महाकपि ने
तब अपने साथियों को बचाने के लिए कूदते हुए उस पेड़ के निकट की एक पहाड़ी पर स्थित
एक बेंत की लकड़ी को अपने पैरों से फँसा कर, फिर से उसी पेड़ की
टहनी को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर लेट अपने साथियों के लिए एक पुल का निर्माण कर
लिया। फिर उसने चिल्ला कर अपने साथियों को अपने ऊपर चढ़कर बेतों वाली पहाड़ी पर कूद
कर भाग जाने की आज्ञा दी। इस प्रकार महाकपि के बुद्धि कौशल से सारे वानर दूसरी तरफ
की पहाड़ी पर कूद कर भाग गये।
राजा ने महाकपि के
त्याग को बड़े गौर से देखा और सराहा । उसने अपने आदमियों को महाकपि को जिन्दा पकड़
लाने की आज्ञा दी।
उस समय महाकपि की
हालत अत्यन्त गंभीर थी। साथी वानरों द्वारा कुचल जाने के कारण उसका सारा शरीर
विदीर्ण हो उठा था। राजा ने उसके उपचार की सारी व्यवस्थता भी करवायी, मगर
महाकपि की आँखें हमेशा के लिए बंद हो चुकी थीं।
संत भैंसा और नटखट
बंदर-जातक कथा
हिमवंत के वन में कभी
एक जंगली भैंसा रहता था। कीचड़ से सना, काला और बदबूदार। किंतु वह एक
शीलवान भैंसा था। उसी वन में एक नटखट बंदर भी रहा करता था। शरारत करने में उसे
बहुत आनंद आता था। मगर उससे भी अधिक आनंद उसे दूसरों को चिढ़ाने और परेशान करने
में आता था। अत: स्वभावत: वह भैंसा को भी परेशान करता रहता था। कभी वह सोते में
उसके ऊपर कूद पड़ता; कभी उसे घास चरने से रोकता तो कभी उसके
सींगों को पकड़ कर कूदता हुआ नीचे उतर जाता तो कभी उसके ऊपर यमराज की तरह एक छड़ी
लेकर सवारी कर लेता। भारतीय मिथक परम्पराओं में यमराज की सवारी भैंसा बतलाई जाती
है।
उसी वन के एक वृक्ष
पर एक यक्ष रहता था। उसे बंदन की छेड़खानी बिल्कुल पसन्द न थी। उसने कई बार बंदर को
दंडित करने के लिए भैंसा को प्रेरित किया क्योंकि वह बलवान और बलिष्ठ भी था। किंतु
भैंसा ऐसा मानता था कि किसी भी प्राणी को चोट पहुँचाना शीलत्व नहीं है; और
दूसरों को चोट पहुँचाना सच्चे सुख का अवरोधक भी है। वह यह भी मानता था कि कोई भी
प्राणी अपने कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता। कर्मों का फल तो सदा मिलता ही है। अत:
बंदर भी अपने बुरे कर्मों का फल एक दिन अवश्य पाएगा। और एक दिन ऐसा ही हुआ जबकि वह
भैंसा घास चरता हुआ दूर किसी दूसरे वन में चला गया। संयोगवश उसी दिन एक दूसरा
भैंसा पहले भैंसा के स्थान पर आकर चरने लगा। तभी उछलता कूदता बंदर भी उधर आ
पहुँचा। बंदर ने आव देखी न ताव। पूर्ववत् वह दूसरे भैंसा के ऊपर चढ़ने की वैसी ही
धृष्टता कर बैठा। किंतु दूसरे भैंसा ने बंदर की शरारत को सहन नहीं किया और उसी
तत्काल जमीन पर पटक कर उसकी छाती में सींग घुसेड़ दिये और पैरों से उसे रौंद डाला ।
क्षण मात्र में ही बंदर के प्राण पखेरु उड़ गये।
सीलवा हाथी और लोभी
मित्र-जातक कथा
कभी हिमालय के घने
वनों में एक हाथी रहता था। उसका शरीर चांदी की तरह चमकीला और सफेद था। उसकी आँखें
हीरे की तरह चमकदार थीं। उसकी सूंड सुहागा लगे सोने के समान कांतिमय थी। उसके
चारों पैर तो मानो लाख के बने हुए थे। वह अस्सी हज़ार गजों का राजा भी था।
वन में विचरण करते
हुए एक दिन सीलवा ने एक व्यक्ति को विलाप करते हुए देखा। उसकी भंगिमाओं से यह
स्पष्ट था कि वह उस निर्जन वन में अपना मार्ग भूल बैठा था। सीलवा को उस व्यक्ति की
दशा पर दया आयी। वह उसकी सहायता के लिए आगे बढ़ा। मगर व्यक्ति ने समझा कि हाथी उसे
मारने आ रहा था। अत: वह दौड़कर भागने लगा। उसके भय को दूर करने के उद्देश्य से
सीलवा बड़ी शालीनता से अपने स्थान पर खड़ा हो गया, जिससे
भागता आदमी भी थम गया।
सीलवा ने ज्योंही पैर
फिर आगे बढ़ाया वह आदमी फिर भाग खड़ा हुआ और जैसे ही सीलवा ने अपने पैर रोके वह
आदमी भी रुक गया तीन बार जब सीलवा ने अपने उपक्रम को वैसे ही दो हराया तो भागते
आदमी का भय भी भाग गया। वह समझ गया कि सीलवा कोई खतरनाक हाथी नहीं था। तब वह आदमी
निर्भीक हो कर अपने स्थान पर स्थिर हो गया। सीलवा ने तब उसके पास पहुँचा कर उसकी
सहायता का प्रस्ताव रखा। आदमी ने तत्काल उसके प्रस्ताव को स्वीकार किया। सीलवा ने
उसे तब अपनी सूँड के उठाकर पीठ पर बिठा लिया और अपने निवास-स्थान पर ले जाकर
नानाप्रकार के फलों से उसकी आवभगत की। अंतत: जब उस आदमी की भूख-प्यास का निवारण हो
गया तो सीलवा ने उसे पुन: अपनी पीठ पर बिठा कर उस निर्जन वन के बाहर उसकी बस्ती के
करीब लाकर छोड़ दिया।
वह आदमी लोभी और
कृतघ्न था। तत्काल ही वह एक शहर के बाज़ार में एक बड़े व्यापारी से हाथी दाँत का
सौदा कर आया। कुछ ही दिनों में वह आरी आदि औजार और रास्ते के लिए समुचित भोजन का
प्रबन्ध कर सीलवा के निवास स्थान को प्रस्थान कर गया।
जब वह व्यक्ति से
सीलवा के सामने पहँचा तो सीलवा ने उससे उसके पुनरागमन का उद्देश्य पूछा। उस
व्यक्ति ने तब अपनी निर्धनता दूर करने के लिए उसके दाँतों की याचना की। उन दिनों सीलवा
दान-पारमी होने की साधना कर रहा था। अत: उसने उस आदमी की याचना को सहर्ष स्वीकार
कर लिया तथा उसकी सहायता के लिए घुटनों पर बैठ गया ताकि वह उसके दाँत काट सके।
उस व्यक्ति ने शहर
लौटकर सीलवा के दांतों को बेचा और उनकी भरपूर कीमत भी पायी। मगर प्राप्त धन से उसकी
तृष्णा और भी बलवती हो गयी। वह महीने भर में फिर सीलवा के पास पहुँच कर उसके शेष
दांतों की याँचना कर बैठा। सीलवा ने उस पुन: अनुगृहीत किया।
कुछ ही दिनों के बाद
वह लोभी फिर से सीलवा के पास पहुँचा और उसके शेष दांतों को भी निकाल कर ले जाने की
इच्छा जताई। दान-परायण सीलवा ने उस व्यक्ति की इस याचना को भी सहर्ष स्वीकार कर
लिया। फिर क्या था?
क्षण भर में वह आदमी सीलवा के मसूढ़ों को काट-छेद कर उसके सारे
दांत-समूल निकाल कर और अपने गन्तव्य को तत्काल प्रस्थान कर गया।
खून से लथपथ दर्द से
व्याकुल कराहता सीलवा फिर जीवित न रह सका और कुछ समयोपरान्त दम तोड़ गया।
लौटता लोभी जब वन की
सीमा भी नहीं पार कर पाया था तभी घरती अचानक फट गयी और वह आदमी काल के गाल में समा
गया।
तभी वहाँ वास करती
हुई एक वृक्ष यक्षिणी ने यह गान गाया।
मांगती है तृष्णा
और.... और --- !
मिटा नहीं सकता जिसकी
भूख को सारा संसार....
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know