स्वयं में स्थित रहें
अनमिवाः= नीरोग रहने का प्रयाश करो सदा स्वस्थ रहो। जब मैं कहता हूँ की मैं ही इस ब्रह्मान्ड का केद्र हूँ तो सबसे पहले एक बात का ध्यान रखना है कि मुझे केवल शरीर मत समझना शरीर का स्वामी मैं चेतन आत्मा के रूप में एक ब्रह्माण्डीय प्राण उर्जा का मुख्य श्रोत प्राण हूं। मेरा कोई-कोई रूप आकार या नाम नहीं है, मैं ही अनन्त नामों से जाना जाता हूँ।
हर वस्तु मुझसे ही शुरु होती है और मुझमे ही वह वस्तु विलिन हो जाती है। मेरा कभी ना जन्म होता है ना ही मैं कभी मरता ही हूँ। जो जन्म लेता है या मरता है वह हमारी शरीर है। जो मेरा थोड़े समय तक रहने का स्थान घर के समान है, इसको समय के साथ बदलता रहता हूँ और कभी ऐसा भी होता है कि इस शरीर के बिना भी रहता हूं। मुझे शरीर की ज़रूरत दृश्य मय जगत में रहने के लिये और कुछ विशेष कार्य करने के लिये पड़ती है। जिससे मैं उनके द्वारा अपने प्रमुख कार्यो को सिद्ध कर सकु, यदी सभी प्राणियों को सत्य का ज्ञान हो जायेगा तो सभी प्राणि इस दृश्य मय संसार और शरीर से मुक्त हो जायेगे। जिसके कारण यह जीवन रूप संसार का अन्त हो सकता है। जिसको मैं रोक कर रखता हूँ सभी प्राणियों को मोह, माया, काम, क्रोध लोभ आदी वृत्तियों में उलझा कर रखता हूं। जिसके कारण यहाँ संसार से मुक्त होना बहुत कठीन और दुस्कर है। उसी प्रकार से जैसे कि सूर्य को ठंडा करना किसी जीव के लिये मुस्किल ही नहीं असंभव है। क्योंकि यदी वह अपनी दुष्ट वृत्तियों के वशी भूत होकर ठंडा करने का प्रयाश करता है तो अपने जीवन के लिये ही भंयकरतम संकटो को खड़ा करता है। मैं यह जानता हूँ की हर प्राणी अपने आप से बहुत अधिक प्रेम करता है किसी भी किमत पर वह मरना नहीं चाहता है। इसी भाव का सबसे अधिक फायदा उठा कर दूसरे प्राणियों को गुमराह करने के लिये और उनके सामने बड़ी-बड़ी भयंकर चुनौतियों को खड़ी करके उसको परिस्कृत और नविनी करण करता हूं। मेरे द्वारा इततने बड़े-बड़े संकटो को प्राणियों के सामने खड़ी करने बाद भी कुछ ऐसे पुरष होते रहते है समय के साथ जो इस दृश्मय जगत से मुक्त हो जाते है और मुझे उपलब्ध कर लेते है। वास्तव मैं अशरिर ही हूँ शरीर से जो मैं मुख्य कार्य करता हूँ वह यह है कि शुद्ध शब्दों का उच्चारण ब्रह्मज्ञान का विस्तार करता हूँ जिससे ही ब्रह्म अर्थात मैं ज्ञान मतलब मेरी जान मेरा जीवन जो इस ब्रह्माण्ड रूपी शरीर के कारण ही है। मैं यही हूँ इसे मैं जानता हूं। जिससे निरंतर शब्द के साथ उर्जा का निस्तारण मेरें द्वारा अनन्त प्राणी रूप शरीर से होता रहता है यह सिर्फ़ प्राणीयों के द्वारा ही नहीं होता है इसके साथ यह अनन्त ग्रह, अनन्त तारें और अनन्त ब्रह्माण्ड के साथ अनन्त आकाश गंगाये भी शब्दोंच्चारण करती है। जिससे अनन्त प्रकार की उर्जाये निस्कासित होती रहती है जिससे अनन्त प्रकार के परमाणु निरंतर विकसीत होते रहते है। इसके साथ अनन्त जीवन के वाहक ग्रह तारे सौर्यमंडल इत्यादि बनते और नष्ट होते रहते है। यह मेरा कार्य अनन्त काल से ऐसा ही चलता आरहा है और ऐसा ही चलता रहेगा। इसका ना कही प्रारंभ है और ना ही कहीं पर इसका अंत ही है जिसके कारण ही लोग मुझे अनन्त भी कहते है और यह कार्य निरंतर सदा से होता ऐसा ही आरहा है। कभी भी इस ब्रह्माण्ड से मानव या सम्पूर्ण जीवन का पूर्ण अन्त नहीं हूआ है। मैं हमेशा इस जीवन को आगे बढ़ाता रहता हूं। इस पृथ्वी पर जीवन के बीज को बोने से पहले मैंने मंगल आदी ग्रहों पर जीवन को पैदा कर चुका हूं। इसके अतिरीक्त भी अनन्त ग्रहों की यात्रा यह जीवन यहाँ पृथ्वी पर आने से पहले कर चुका है। जो कहते है कि जीवन प्रथम विकास यहाँ पृथ्वी पर हुआ है यह ग़लत है। जीव सिर्फ़ शरीर को ही नहीं बदलता यद्यपी वह ग्रहों को भी बदलता रहता है। समय के साथ निरंतर जब उस ग्रह का दोहन पुरी तरह हो जाता है तो मैं दूसरे ग्रहों का निर्वाण करता हूँ जिससे की यह जीवन उस ग्रह पर अपना निवास बना सके. जिस प्रकार से कोई प्राणी अपनी शरीर का त्याग करता है और पुनः नई शरीर को धारण करके अपने कर्मों के अनुसार नये जीवन के संसकारों का सर्जन करता है। ऐसा यह ग्रह और नक्षत्र आदी भी करते है यह भी अपने शरीर का त्याग करते है। पुनः नये शरीरों को धारण अपनी तपस्या और शहन शक्ति की योग्यता के अनुसार करते है इस लिये तैतिस देवता में सर्व प्रथम आठ वसु है जो जीव को हर इस्थिती में स्वयं पर बसाते है और उनका अपने जीवन के अन्त तक हर प्रकार से पालन पोषण करते है। इन्ही गुणो को धारण करके मानव भी और दूसरे जीव भी स्वयं का उद्धार करने में और स्वयं को विकसीत करके मुझ में समाहित हो जाते है।
हम ही इस दृश्य मय हजारों ब्रह्माण्डों के मुख्य केन्द्र या ब्रह्माण्डिय मानव है हमारे अन्दर ही वह अनन्त ब्रह्माण्डों का स्वामी विद्यमान हो कर वह त्रीकाल दर्शी हर पल शांशे ले रहा है। सम्पूर्ण दृश्य अदृश्य चरा चर जगत का नियंत्रण करता है। हमारे अन्दर ही वह वीग वैंग की घटना घट रही है और हमारे अन्दर ही वह ब्लैकहोल भी विद्यामान हो कर हर पल घट रहा है। वह हमारे द्वारा ही ब्रह्माण्डों का सर्जन कराता है और हमारें द्वारा ही ब्रह्माण्डों को नष्ट भी कराता है। वह स्वयं कुछ भी नहीं करता है वह सारा कार्य हमारे द्वारा ही पूर्ण कराता है चाहे वह कार्य किसी के विकास के लिये उत्थान के लिये हो किसी के पतन या नाश करने के लिये भी वह हमारा ही उपयोग करता है हम सब उस अदृश्य सत्ता हमारे कर्म के मात्र मोहरे के अतिरीक्त कुछ भी नहीं है। हम स्वतन्त्र नहीं है हम सब उसकी परतंत्रता में ही अपना सम्पूर्ण जीवन जीते है। यदि कोई कहे की वह हमारे कर्मो का फल देता है यह सत्य नहीं है हम जैसा कर्म करते है उसका फल भी हम स्वयं ग्रहण कर लेते है इसमें उसका कोई अधिकार नहीं है वह किसी को कभी ना ही प्रसन्न कर सकता है ना ही वह उसे दुःखी ही कर सकता है। हम मृत्यु के भयंकर निर्दय पंजों में फंस चुके है तो उसमें हमारे स्वयं के कर्म ही कारण है उसमें वह परमेश्वर कुछ भी नहीं कर सकता है, वह हमें मृत्यु के घातक खतरनाक पंजो से मुक्त नहीं कर सकता है। हमने स्वयं के सर्वनाश में ही रस लेकर बहुत अधिक परिश्रम किया है। हमारे द्वार किये जाने वले कर्म के परिणाम का ज्ञान ना होने के कारण या लापरवाही के कारण जो कर्म किये जाते है। जिसका परिणाम हमारे लिये विनाश कारक सिद्ध होता है। मान लिया कोई एक पुरुष या स्त्री है जो नियम संयम से नहीं रहते है व्यभीचार करते है शरीर का निरंतर दोहन करते है कामुक्ता पूर्ण जीवन जीते है, उनका जीवन हमेशा दुःख मय होता है वह हमेशा अपने प्रत्येक कर्म से अपने लिये नये-नये दुःखो का निरंतर सर्जन करते है। इसके उपरान्त वह कितनी ही प्रार्थना या उपासना करते रहे, इससे उन्हे कोई फयादा नहीं होता है शीवाय इनकी परेशानी और बढ़ जाती है। हमारी प्रार्थना या उपासाना हमे ताकत वर बनाते है और हमारे संकल्प मनोबल की दृढ़ इच्छा शक्ति को बढ़ाते है, जिससे हम अपनी मुसबतों से पार बाहर निकलने में समर्थ होते है। इसमे उस परमेश्वर का कोई योग दान नहीं है। परमेश्वर कभी भी किसी का ना ही पक्ष में होता है नाही वह कभी विपक्ष ही किसी के होता है। वह हमेशा निस्पक्ष होता है। वह ना किसी को जन्म ही देता है ना ही वह किसी को मारता ही है। ना ही वह किसी को अमिर बनाता है ना ही वह किसी को गरीब ही बनाता है ना ही वह किसी को विद्वान बनाता है, नाही वह किसी को मुर्ख ही बनाता है। हम सब ही अपने पूर्ण मालिक है हमने ही अपने आप को ऐसा बनाया है जैसा की हम आज है। हम स्वयं की मृत्यु के स्वयं के जीवन के स्वयं के विकास के स्वयं के पतन के सब का सब दारोमदार अपना ही है। हम सब को ग़लत बनाया गया है, हम सब गैर जीम्मेदार किस्म के है अपनी कमियों और त्रुटियों का कारण दूसरो को घोषित करते है जिससे हमें दूसरों की नजर में उंचा उठने में सहायता मिलती है और स्वयं के अहंकार को बल मिलता है। हमारा कर्म जब हमारे स्वार्थ के वशी भुत हो कर किया जाता है तो वह हमे अपने वश में कर लेता है। हमारा स्वार्थ कितना क्षुद्र है जो किसी परमाणु या अणु के समान हो सकता है। या फिर हमारा कर्म और उसका स्वार्थ इतना बड़ा हो सकता है जितना बड़ा यह ब्रह्माण्ड है। यह हमारे स्वार्थ की दो श्रेणियाँ है एक परमाणु अणु की तरह बहुत सुक्ष्म गुप्त है क्षुद्र रूप है जिसके परिणाम से हम अनभिज्ञ होते है। इसका परिणाम बहुत खतरनाक होता है ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार से परमाणु बम कार्य करता है हमें हमारे अन्दर से ही पूरी तरह से निस्त नाबुत कर देता है। वहाँ किसी वस्तु का कभी सर्जन नहीं होता है। वहाँ चारो तरफ हमेशा मृत्यु ही अपने परों को फैला कर ही रखती है और एक दूसरे प्रकार का कर्म होता है जो बहुत बिशाल उद्देश्य को ध्यान में रख कर किया जाता है। जिसे हम परमेश्वर के समान कार्य करने वाले जो सभी परमाणुओं का संग्रह यह ब्रह्माण्ड जैसा कार्य है। जो प्रकृती करती है जिसको नियंत्रित करने के लिये यह मानव प्रयाश रत है कुछ हद तक कर लिया है कुछ अभी भी बाकी है, जिसके लिये प्रयाश रत है। एक तीसरे परकार का कर्म है जिस पर हमरे भरतिय मनिषों ने बहुत जोर दीया है। वह है निस्काम कर्म करने के लिये। निस्काम करम् का मतलब है जिसके पिछे हमार व्यक्तीगत कोई स्वार्थ ना हो जो करम्म करना यहा जगत में बहुत दुर्लभ हो चुका है।
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