तंत्र-सूत्र-विधि-08
आठवीं श्वास विधि- आत्यांतिक भक्ति पूर्वक श्वास की दो संधि स्थलों पर केन्द्रित हो कर ज्ञाता को जान लो।
इस विधियों के बीच अंतर जरा-जरा से हैं, तो भी तुम्हारे लिए वह भेद बहुत बड़ें हो सकते हैं। एक अकेला शब्द बहुत बड़ा फर्क ला सकता है।
"आत्यांतिक भक्ति पूर्वक श्वास-की दो संधियों स्थलों पर केन्द्रित होकर.......
भीतर आने वाली श्वास का एक संधि स्थल है, जहां वह मुड़ती है। इन संधि-स्थलों की जिनकी हमने पहले चर्चा की है, उनके साथ जरा से भेद किया गया है। हालांकि यह भेद विधि में तो जरा सा ही है, लेकिन साधक के लिए बहुत बड़ा भेद हो सकता है, केवल एक शर्त जोड़ दी गई है। आत्यांतिक भक्ति पूर्वक और पूरी विधि बदल गई है।
इसके प्रथम रूप में भक्ति का सवाल नहीं था। वह मात्र वैज्ञानिक विधि थी, तुम प्रयोग करो और वह काम करेगी। लेकिन लोग हैं जो ऐसी शुष्क विधि पर काम नहीं करेंगे। इसलिए जो हृदय की ओर झुके हैं, जो भक्ति के जगत के हैं, उनके लिए जरा सा भेद किया गया है।
आत्यांतिक भक्ति पूर्वक श्वास की दो संधि स्थलों पर केन्द्रित हो कर ज्ञाता को जान लो।
अगर तुम वैज्ञानिक रुझान के नहीं हो, अगर तुम्हारा मन वैज्ञानिक नहीं है, तुम इस विधि को प्रयोग में लाओ।
आत्यांतिक भक्ति पूर्वक-- प्रेम श्रद्धा के साथ-- श्वास के दो संधि स्थलों पर केन्द्रित हो कर ज्ञाता को जान लो।
यह कैसे संभव होगा?
भक्ति तो किसी के प्रति होती है, चाहे कृष्ण हो या क्राइस्ट हो। लेकिन तुम्हारे स्वयं के प्रति श्वासो के दो संधि स्थलों के प्रति भक्ति कैसे होगी? यह तत्व तो गैर भक्ति वाला है, लेकिन व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर करता है।
तंत्र कहता है शरीर मंदिर है। शरीर परमात्मा का मंदिर है उसका निवास स्थान है। इसलिए इसे केवल अपना शरीर या एक वस्तु मत मानो, यह पवित्र है, धार्मिक है। जब तुम एक श्वास भीतर ले रहे हो, तो तुम ही श्वास नहीं ले रहे हो, तुम्हारे भीतर परमात्मा भी श्वास ले रहा है। तुम चलते फिरते हो, इसे इस तरह से देखो-तुम नहीं, स्वयं परमात्मा तुमने चल रहा है, तब पुरी तरह से सभी चीजे भक्तिमय हो जाएगी।
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