॥ श्रीहरिः ॥
विदुरनीति
हिन्दी-अनुवादसहित
पहला अध्याय
वैशम्पायन उवाच
द्वाःस्थं प्राह महाप्राज्ञो धृतराष्ट्रो महीपतिः ।
विदुर द्रष्टुमिच्छामि तमिहानय मा चिरम् ॥१॥
वैशम्पायनजी कहते हैं-[संजयके चले जानेपर] महाबुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रने
द्वारपालसे कहा-'मैं
विदुरसे मिलना चाहता हूँ। उन्हें यहाँ शीघ्र बुला लाओ ॥१॥
प्रहितो धृतराष्ट्रेण दूतः क्षत्तारमब्रवीत्।
ईश्वरस्त्वां महाराजो महाप्राज्ञ दिदृक्षति ॥२॥
धृतराष्ट्रका भेजा हुआ वह दूत जाकर विदुरसे बोला-'महामते ! हमारे स्वामी महाराज
धृतराष्ट्र आपसे मिलना चाहते हैं ॥२॥
एवमुक्तस्तु विदुरः प्राप्य राजनिवेशनम् ।
अब्रवीद् धृतराष्ट्राय द्वाःस्थ मा प्रतिवेदय ॥३॥
उसके ऐसा कहनेपर विदुरजी राजमहलके पास जाकर बोले---'द्वारपाल ! धृतराष्ट्रको मेरे आनेकी
सूचना दे दो' ॥ ३ ॥
द्वाःस्थ उवाच
विदुरोऽयमनुप्राप्तो राजेन्द्र तव शासनात् ।
द्रष्टुमिच्छति ते पादौ किं करोतु प्रशाधि माम् ॥ ४ ॥
द्वारपाल ने जाकर कहा-'महाराज ! आपकी आज्ञासे विदुरजी यहाँ आ पहुँचे हैं, वे
आपके चरणोंका दर्शन करना चाहते हैं। मुझे आज्ञा दीजिये, उन्हें
क्या कार्य बताया जाय' ॥४॥
धृतराष्ट्र उवाच
प्रवेशय महाप्राज्ञं विदुरं दीर्घदर्शिनम् ।
अहं हि विदुरस्यास्य नाकल्पो जातु दर्शने ॥५॥
'धृतराष्ट्रने कहा-'महाबुद्धिमान् दूरदर्शी विदुरको
भीतर ले आओ, मुझे इस विदुरसे मिलनेमें कभी भी अड़चन नहीं है'
॥५॥
द्वाःस्थ उवाच
प्रविशान्तःपुरं क्षत्तर्महाराजस्य धीमतः ।
न हि ते दर्शनेऽकल्पो जातु राजाब्रवीद्धि माम् ॥ ६ ॥
द्वारपाल विदुरके पास आकर बोला-'विदुरजी
! आप बुद्धिमान् महाराज धृतराष्ट्र के अन्तःपुरमें प्रवेश कीजिये। महाराजने मुझसे
कहा है कि मुझे विदुरसे मिलनेमें कभी अड़चन नहीं है ॥६॥
वैशम्पायन उवाच
ततः प्रविश्य विदुरो धृतराष्ट्रनिवेशनम्।
अब्रवीत् प्राञ्जलिर्वाक्यं चिन्तयानं नराधिपम् ॥ ७॥
वैशम्पायनजी कहते हैं तदनन्तर विदुर धृतराष्ट्रके महलके भीतर जाकर
चिन्तामें पड़े हुए राजासे हाथ जोड़कर बोले- ॥७॥
विदुरोऽहं महाप्राज्ञ सम्प्राप्तस्तव शासनात् ।
यदि किञ्चन कर्तव्यमयमस्मि प्रशाधि माम् ॥८॥ '
महाप्राज्ञ ! मैं विदुर हूँ, आपकी आज्ञासे यहाँ आया हैं। यदि मेरे करने योग्य कुछ काम हो तो मैं
उपस्थित हूँ, मुझे आज्ञा कीजिये' ॥८॥
धृतराष्ट्र उवाच
सञ्जयो विदुर प्राज्ञो गर्हयित्वा च मां गतः। .
अजातशत्रोः श्वो वाक्यं सभामध्ये स वक्ष्यति ॥ ९॥
धृतराष्ट्रने कहा-विदुर ! बुद्धिमान् संजय आया था, मुझे बुरा-भला कहकर चला गया है। कल
सभामें वह अजातशत्रु युधिष्ठिरके वचन सुनायेगा ॥९॥
तस्याद्य कुरुवीरस्य न विज्ञातं वचो मया।
तन्ये दहति गात्राणि तदकार्षीत् प्रजागरम् ।। १०॥
आज मैं उस कुरुवीर युधिष्ठिरकी बात न जान सका-यही मेरे अङ्गोंको जला रहा
है और इसीने मुझे अबतक जगा रखा है।॥ १०॥
जाग्रतो दह्यमानस्य श्रेयो यदनुपश्यसि ।
तद् ब्रूहि त्वं हि नस्तात धर्मार्थकुशलो ह्यसि ।।
११॥
तात ! मैं चिन्तासे जलता हुआ अभीतक जग रहा हूँ। मेरे लिये जो कल्याणकी
बात समझो, वह कहो;
क्योंकि हमलोगोंमें तुम्हीं धर्म और अर्थके ज्ञानमें निपुण हो ॥११॥
यतः प्राप्तः सञ्जयः पाण्डवेभ्यो
न मे यथावन्मनसः प्रशान्तिः ।
सर्वेन्द्रियाण्यप्रकृतिं गतानि .
किं वक्ष्यतीत्येव मेऽद्य प्रचिन्ता ।। १२॥
संजय जबसे पाण्डवोंके यहाँसे लौटकर आया है, तबसे मेरे मनको पूर्ण शान्ति नहीं मिलती। सभी इन्द्रियाँ
विकल हो रही हैं। कल वह क्या कहेगा, इसी बातकी मुझे इस समय
बड़ी भारी चिन्ता हो रही है ।। १२ ।।
विदुर उवाच
अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम् ।
हतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागराः ॥ १३ ॥
विदुरजी बोले-राजन् ! जिसका बलवानके साथ विरोध हो गया है उस साधनहीन
दुर्बल मनुष्यको, जिसका
सब कुछ हर लिया गया है उसको, कामीको तथा चोरको रातमें
जागनेका रोग लग जाता है॥ १३ ॥
कश्चिदेतैर्महादोषैर्न स्पृष्टोऽसि नराधिप ।
कश्चिच परवित्तेषु गृध्यन्न परितप्यसे ॥ १४ ॥
नरेन्द्र । कहीं आपका भी इन महान् दोषोंसे सम्पर्क तो नहीं हो गया है? कहीं पराये धनके लोभसे तो आप कष्ट
नहीं पा रहे हैं? ॥ १४ ॥
धृतराष्ट्र उवाच
श्रोतुमिच्छामि ते धर्म्य परं नैःश्रेयसं वचः ।
अस्मिन् राजर्षिवंशे हि त्वमेकः प्राज्ञसम्मतः ॥ १५॥
धृतराष्ट्रने कहा-मैं तुम्हारे धर्मयुक्त तथा कल्याण करनेवाले सुन्दर वचन
सुनना चाहता हूँ, क्योंकि
इस राजर्षिवंशमें केवल तुम्हीं विद्वानोंके भी माननीय हो ॥ १५॥
विदुर उवाच
राजा लक्षणसम्पन्नस्त्रैलोक्यस्याधिपो भवेत्।
प्रेष्यस्ते प्रेषितश्चैव धृतराष्ट्र युधिष्ठिरः ॥
१६॥
विदुरजी बोले-महाराज धृतराष्ट्र ! श्रेष्ठ लक्षणोंसे सम्पन्न राजा
युधिष्ठिर तीनों लोकोंके स्वामी हो सकते हैं। वे आपके आज्ञाकारी थे, पर आपने उन्हें वनमें भेज दिया ॥१६॥
विपरीततरश्च त्वं भागधेये न सम्मतः।
अर्चिषां प्रक्षयाश्चैव धर्मात्मा धर्मकोविदः ॥ १७॥
आप धर्मात्मा और धर्मके जानकार होते हुए भी आँखोंसे अन्धे होनेके कारण
उन्हें पहचान न सके, इसीसे
उनके अत्यन्त विपरीत हो गये और उन्हें राज्यका भाग देनेमें आपकी सम्मति नहीं हुई
।। १७ ॥
आनृशंस्यादनुक्रोशाद् धर्मात् सत्यात् पराक्रमात् ।
गुरुत्वात् त्वयि सम्प्रेक्ष्य बहून्
क्लेशांस्तितिक्षते ॥ १८॥
युधिष्ठिरमें क्रूरताका अभाव, दया, धर्म, सत्य तथा पराक्रम
है; वे आपमें पूज्यबुद्धि रखते हैं। इन्हीं सद्गुणोंके कारण
वे सोच-विचारकर चुपचाप बहुत-से क्लेश सह रहे हैं ॥ १८॥
दुर्योधने सौबले च कर्णे दुःशासने तथा।।
एतेष्वश्वैश्वर्यमाधाय कथं त्वं भूतिमिच्छसि ॥ १९ ॥
आप दुर्योधन, शकुनि,
कर्ण तथा दुःशासन-जैसे अयोग्य व्यक्तियोंपर राज्यका भार रखकर कैसे
ऐश्वर्य-वृद्धि चाहते हैं ? ॥१९॥
आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥२०॥
अपने वास्तविक स्वरूपका ज्ञान,
उद्योग, दुःख सहनेकी शक्ति और धर्ममें स्थिरता-ये
गुण जिस मनुष्यको पुरुषार्थसे च्युत नहीं करते, वही पण्डित
कहलाता है ॥ २० ॥
निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत् पण्डितलक्षणम् ॥ २१ ॥
जो अच्छे कर्मोका सेवन करता और बुरे कर्मोंसे दूर रहता है, साथ ही जो आस्तिक और श्रद्धालु है,
उसके वे सद्गुण पण्डित होनेके लक्षण हैं ॥२१॥
क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता।
यमर्थानापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ २२॥
क्रोध, हर्ष,
गर्व, लज्जा, उद्दण्डता
तथा अपनेको पूज्य समझना-ये भाव जिसको पुरुषार्थसे भ्रष्ट नहीं करते, वही पण्डित कहलाता है ॥ २२ ॥
यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे।
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ २३ ॥
दूसरे लोग जिसके कर्तव्य, सलाह और पहलेसे किये हुए विचारको नहीं जानते, बल्कि
काम पूरा होनेपर ही जानते हैं, वही पण्डित कहलाता है ॥ २३ ॥
यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः। ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥ २४ ॥
सदी-गर्मी, भय-अनुराग,
सम्पत्ति अथवा दरिद्रता-ये जिसके कार्यमें विघ्न नहीं डालते वही
पण्डित कहलाता है ॥ २४॥
यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते।
कामादर्थ वृणीते यः स वै पण्डित उच्यते ॥ २५॥
जिसकी लौकिक बुद्धि धर्म और अर्थका ही अनुसरण करती है और जो भोगको छोड़कर
पुरुषार्थका ही वरण करता है वही पण्डित कहलाता है ॥ २५ ॥
यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते ।
न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डितबुद्धयः ॥ २६ ।।
विवेकपूर्ण बुद्धिवाले पुरुष शक्तिके अनुसार काम करनेकी इच्छा रखते हैं
और करते भी हैं तथा किसी वस्तुको तुच्छ समझकर उसकी अवहेलना नहीं करते।। २६ ॥
क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न
कामात् ।
नासम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते पराथें । तत् प्रज्ञानं
प्रथम पण्डितस्य ॥ २७ ॥
विद्वान् पुरुष किसी विषयको देरतक सुनता है किंतु शीघ्र ही समझ लेता है, समझकर कर्तव्यबुद्धिसे पुरुषार्थमें
प्रवृत्त होता है-कामनासे नहीं; बिना पूछे दूसरेके विषयमें
व्यर्थ कोई बात नहीं कहता है। उसका यह स्वभाव पण्डितकी मुख्य पहचान है ॥२७॥
नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्। ।
आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः ॥ २८॥
पण्डितोंकी-सी बुद्धि रखनेवाले मनुष्य दुर्लभ वस्तुकी कामना नहीं करते, खोयी हुई वस्तुके विषयमें शोक करना
नहीं चाहते और विपत्तिमें पड़कर घबराते नहीं हैं ॥ २८॥
निश्चित्य यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः।
अबध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ।। २९॥
जो पहले निश्चय करके फिर कार्यका आरम्भ करता है, कार्यके बीचमें नहीं रुकता, समयको व्यर्थ नहीं जाने देता और चित्तको वशमें रखता है, वही पण्डित कहलाता है ॥ २९॥
आर्यकर्मणि रज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते ।
हितं च नाभ्यसूयन्ति पण्डिता भरतर्षभ ॥ ३०॥
भरतकुल-भूषण ! पण्डितजन श्रेष्ठ र्कोमें रुचि रखते हैं, उन्नतिके कार्य करते हैं तथा भलाई
करनेवालोंमें दोष नहीं निकालते हैं॥३०॥
न हृष्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते ।
गाङ्गो हद इवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते ॥ ३१ ॥
जो अपना आदर होनेपर हर्षके मारे फूल नहीं उठता, अनादरसे संतप्त नहीं होता तथा
गङ्गाजीके कुण्डके समान जिसके चित्तको क्षोभ नहीं होता, वह
पण्डित कहलाता है ॥ ३१ ॥
तत्त्वज्ञः सर्वभूतानां योगज्ञः सर्वकर्मणाम् ।
उपायज्ञो मनुष्याणां नरः पण्डित उच्यते ॥ ३२॥
जो सम्पूर्ण भौतिक पदार्थोकी असलियतका ज्ञान रखनेवाला, सब कार्यों के करनेका ढंग जाननेवाला
तथा मनुष्योंमें सबसे बढ़कर उपायका - जानकार है, वही मनुष्य
पण्डित कहलाता है।। ३२ ॥
प्रवृत्तवाकचित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ॥ ३३॥
जिसकी वाणी कहीं रुकती नहीं, जो विचित्र ढंगसे बातचीत करता है, तर्कमें निपुण और
प्रतिभाशाली है तथा जो ग्रन्थ के तात्पर्यको शीघ्र बता सकता है, वही पण्डित कहलाता है ॥३३॥
श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा।
असम्भिन्नार्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ।। ३४ ॥
जिसकी विद्या बुद्धिका अनुसरण करती है और बुद्धि विद्याका तथा जो शिष्ट
पुरुषों की मर्यादाका उल्लङ्घन नहीं करता,
वही 'पण्डित' की पदवी पा
सकता है ॥ ३४॥
अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः ।
अर्थाश्चाकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ।।
३५॥
बिना पढ़े ही गर्व करनेवाले, दरिद्र होकर भी बड़े-बड़े मनसूबे बाँधनेवाले और बिना काम किये ही धन
पानेकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यको पण्डितलोग मूर्ख कहते हैं ॥ ३५॥
स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति ।
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥ ३६॥
जो अपना कर्तव्य छोड़कर दूसरेके कर्तव्यका पालन करता है तथा मित्रके साथ
असत् आचरण करता है; वह
मूर्ख कहलाता है ।। ३६॥
अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत् ।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ ३७॥
जो न चाहनेवालोंको चाहता है और चाहनेवालोंको त्याग देता है तथा जो अपनेसे
बलवानके साथ बैर बाँधता है, उसे 'मूढ़ विचारका मनुष्य' कहते
हैं॥ ३७॥
अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च ।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ ३८॥
जो शत्रुको मित्र बनाता और मित्रसे द्वेष करते हुए उसे कष्ट पहुँचाता है
तथा सदा बुरे कर्मोंका आरम्भ किया करता है,
उसे 'मूढ़ चित्तवाला' कहते
हैं॥३८॥
संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ ।। ३९ ।।
भरतश्रेष्ठ ! जो अपने कामोंको व्यर्थ ही फैलाता है, सर्वत्र सन्देह करता है तथा शीघ्र
होनेवाले काम में भी देर लगाता है, वह मूढ़ है।। ३९ ॥
श्राद्धं पितृभ्यो न ददाति दैवतानि न चार्चति ।
सुहृन्मित्रं न लभते. तमाहुर्मूढचेतसम् ॥ ४०॥
जो पितरोंका श्राद्ध और देवताओंका पूजन नहीं करता तथा जिसे सुहृद् मित्र
नहीं मिलता, उसे 'मूढ़ चित्तवाला' कहते हैं ॥ ४० ॥
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते ।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः ॥४१॥
मूढ़ चित्तवाला अधम मनुष्य बिना बुलाये ही भीतर चला आता है, बिना पूछे ही बहुत बोलता है तथा
अविश्वसनीय मनुष्योंपर भी विश्वास करता है ॥४१॥
परं क्षिपति दोषेण वर्तमानः स्वयं तथा ।
यश्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः ॥ ४२ ॥
स्वयं दोषयुक्त बर्ताव करते हुए भी जो दूसरेपर उसके दोष बताकर आक्षेप
करता है तथा जो असमर्थ होते हुए भी व्यर्थका क्रोध करता है, वह मनुष्य महामूर्ख है ॥ ४२ ॥
आत्मनो बलमज्ञाय धर्मार्थपरिवर्जितम् ।
'अलभ्यमिच्छन्नैष्कान्मूढबुद्धिरिहोच्यते ॥४३॥
जो अपने बलको न समझकर बिना काम किये ही धर्म और अर्थसे विरुद्ध तथा न
पानेयोग्य वस्तुकी इच्छा करता है, वह पुरुष इस संसारमें 'मूढबुद्धि' कहलाता है।। ४३ ॥
अशिष्यं शास्ति यो राजन् यश्च शून्यमुपासते ।
कदर्य भजते यश्च तमाहर्मूठचेतसम् ॥४४॥
राजन् ! जो अनधिकारीको उपदेश देता और शून्यकी उपासना करता है तथा जो
कृपणका आश्रय लेता है, उसे
मूढ़ चित्तवाला कहते हैं ।। ४४ ॥
अर्थ महान्तमासाद्य विद्यामैश्वर्यमेव वा।
विचरत्यसमुन्नन्द्वो यः स पण्डित उच्यते ॥ ४५ ॥
जो बहुत धन, विद्या
तथा ऐश्वर्यको पाकर भी इठलाता नहीं चलता, वह पण्डित कहलाता
है॥४५॥ -
एकः सम्पन्नमवाति वस्ते वासश्च शोभनम् ।
योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः ॥ ४॥
जो अपनेद्वारा भरण-पोषणके योग्य व्यक्तियोंको बाँटे बिना अकेले ही उत्तम
भोजन करता और अच्छा वस्त्र पहनता है, उससे बढ़कर क्रूर कौन होगा ।। ४६ ॥
एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः ।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ॥ ४७ ॥
मनुष्य अकेला पाप करता है और बहुत-से लोग उससे मौज उड़ाते है। मौज
उड़ानेवाले तो छूट जाते हैं। पर उसका कर्ता ही दोषका भागी होता है॥४७॥
एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता।।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्र सराजकम् ॥
४८ ॥
किसी धनुर्धर वीरके द्वारा छोड़ा हुआ बाण सम्भव है एकको भी मारे या न
मारे। मगर बुद्धिमानद्वारा प्रयुक्त की हुई बुद्धि राजाके साथ-साथ सम्पूर्ण
राष्ट्रका विनाश कर सकती है ।। ४८॥
एकया द्वे विनिश्चित्य त्रीश्चतुर्भिर्वशे कुरु ।
पञ्च जित्वा विदित्वा षट् सप्त हित्वा सुखी भव ॥ ४९॥
एक (बुद्धि) से दो (कर्तव्य और अकर्तव्य) का निश्चय करके चार (साम, दान, भेद,
दण्ड) से तीन (शत्रु, मित्र, तथा उदासीन) को वशमें कीजिये। पाँच (इन्द्रियों) को जीतकर छः (सन्धि,
विग्रह, यान, आसन,
द्वैधीभाव और समाश्रयरूप) गुणोंको जानकर तथा सात (स्त्री, जूआ, मृगया, मद्य, कठोर वचन, दण्डकी कठोरता और अन्यायसे धनका उपार्जन)
को छोड़कर सुखी हो जाइये ।। ४९ ॥ .
एकं विषरसो हन्ति शस्त्रेणकश वध्यते।
सराष्ट्र सप्रज हन्ति राजानं मन्त्रविप्लवः ।। ५०॥
विषका रस एक (पीनेवाले) को ही मारता है, शस्त्रसे एकका ही वध होता है, किंतु
मन्त्रका फूटना राष्ट्र और प्रजाके साथ ही राजाका भी विनाश कर डालता है ।। ५०॥
एकः स्वादु न भुञ्जीत एकश्चार्थान्न चिन्तयेत् ।
एको न गच्छेदध्वानं नैकः सुप्तेषु जाग्यात् ।। ५१॥
अकेले स्वादिष्ट भोजन न करे, अकेला किसी विषयका निश्चय न करे, अकेला रास्ता न चले
और बहुत-से लोग सोये हों तो उनमें अकेला न जागता रहे ।। ५१॥
एकमेवाद्वितीयं तद् यद् राजन्नावबुध्यसे ।
सत्यं स्वर्गस्य सोपानं पारावारस्य नौरिव ।। ५२॥
राजन् ! जैसे समुद्रके पार जानेके लिये नाव ही एकमात्र साधन है, उसी प्रकार स्वर्गके लिये सत्य ही
एकमात्र सोपान है, दूसरा नहीं, किंतु
आप इसे नहीं समझ रहे हैं ।। ५२ ।।
एकः क्षमावतां दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः ।। ५३ ।।
क्षमाशील पुरुषोंमें एक ही दोषका आरोप होता है, दूसरेकी तो सम्भावना ही नहीं है। वह
दोष यह है कि क्षमाशील मनुष्यको लोग असमर्थ समझ लेते हैं ।। ५३ ।।
सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम् ।
क्षमा गुणो ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा ।। ५४
।।
किंतु क्षमाशील पुरुषका वह दोष नहीं मानना चाहिये; क्योंकि क्षमा बहुत बड़ा बल है।
क्षमा असमर्थ मनुष्योंका गुण तथा समर्थोका भूषण है।। ५४ ।।
क्षमा वशीकृतिर्लोके क्षमया किं न साध्यते ।
शान्तिखड्गः करे यस्य किं करिष्यति दुर्जनः ॥ ५५॥
'इस जगत्में क्षमा वशीकरणरूप है। भला, क्षमासे क्या
नहीं सिद्ध होता? जिसके हाथमें शान्तिरूपी तलवार है, उसका दुष्ट पुरुष क्या कर लेंगे? ॥ ५५ ॥
अतृणे पतितो बह्निः स्वयमेवोपशाम्यति ।
अक्षमावान् परं दोषैरात्मानं चैव योजयेत् ।। ५६।।
तृणरहित स्थानमें गिरी हुई आग अपने-आप बुझ जाती है। क्षमाहीन पुरुष
अपनेको तथा दूसरेको भी दोषका भागी बना लेता है॥५६॥
एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।
विद्यैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा ॥ ५७ ॥
केवल धर्म ही परम कल्याणकारक है,
एकमात्र क्षमा ही शान्तिका सर्वश्रेष्ठ उपाय है। एक विद्या ही परम
सन्तोष देनेवाली है और एकमात्र अहिंसा ही सुख देनेवाली है ॥ ५७॥
द्वाविमौ असते भूमिः सपों विलशयानिव।
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ ५८॥
बिलमें रहनेवाले मेढक आदि जीवोंको जैसे साँप खा जाता है, उसी - प्रकार यह पृथ्वी शत्रुसे
विरोध न करनेवाले राजा और परदेश-सेवन न करनेवाले ब्राह्मण-इन दोनोंको खा जाती है
।। ५८॥
द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिल्लोके विरोचते ।
अब्रुवन् परुषं किञ्चिदसतोऽनर्चयस्तथा ।। ५९ ॥
जरा भी कठोर न बोलना और दुष्ट पुरुषोंका आदर न करना-इन दो कर्मोको
करनेवाला मनुष्य इस लोकमें विशेष शोभा पाता है॥ ५९॥
द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र परप्रत्ययकारिणौ।
स्त्रियः कामितकामिन्यो लोकः पूजितपूजकः ॥६०॥
दूसरी स्त्रीद्वारा चाहे गये पुरुषकी कामना करनेवाली स्त्रियाँ तथा
दूसरोंके द्वारा पूजित मनुष्यका आदर करनेवाले पुरुष-ये दो प्रकारके लोग दूसरोंपर
विश्वास करके चलनेवाले हैं। ६० ।।
द्वाविमौ कण्टको तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणौ ।
यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्वरः ॥ ६१॥
जो निर्धन होकर भी बहुमूल्य वस्तुकी इच्छा रखता और असमर्थ होकर भी क्रोध
करता है ये दोनों ही अपने शरीरको सुखा देनेवाले काँटोंके समान हैं ॥ ६१ ॥
द्वावेव न विराजेते विपरीतेन कर्मणा।
गृहस्थश्च निरारम्भः कार्यवांश्चैव भिक्षुकः ।। ६२॥
दो ही अपने विपरीत कर्मके कारण शोभा नहीं पाते-अकर्मण्य गृहस्थ और
प्रपञ्चमें लगा हुआ संन्यासी ॥२॥
द्वाविमौ पुरुषौ राजन् स्वर्गस्योपरि तिष्ठतः। ।
प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ।। ६३ ॥
राजन् । ये दो प्रकारके पुरुष स्वर्गके भी ऊपर स्थान पाते हैं-शक्तिशाली
होनेपर भी क्षमा करनेवाला और निर्धन होनेपर भी दान देनेवाला ।। ६३ ।।
न्यायागतस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ ।
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥ ६४ ।।
न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धनके दो ही दुरुपयोग समझने
चाहिये-अपात्रको देना और सत्पात्रको न देना ।। ६४ ॥
द्वावम्भसि निवेष्टव्यौ गले बध्वा दृढां शिलाम् ।
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम् ॥६५॥
जो धनी होनेपर भी दान न दे और दरिद्र होनेपर भी कष्ट सहन न कर सके, इन दो
प्रकारके मनुष्योंको गलेमें मजबूत पत्थर बाँधकर पानीमें डुबा देना चाहिये ॥६५॥
द्वाविमौ पुरुषव्याघ्र सूर्यमण्डलभेदिनौ ।
परिव्राड्योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ॥६६॥
पुरुषश्रेष्ठ ! ये दो प्रकारके पुरुष सूर्यमण्डलको भेदकर ऊर्ध्वगतिको
प्राप्त होते हैं—योगयुक्त
संन्यासी और संग्राममें लोहा लेते हुए मारा गया योद्धा ॥६६॥
त्रयो न्याया मनुष्याणां श्रूयन्ते भरतर्षभ ।
कनीयान्मध्यमः श्रेष्ठ इति वेदविदो विदुः ॥ ६7॥
भरतश्रेष्ठ | मनुष्योंकी
कार्यसिद्धिके लिये उत्तम, मध्यम और अधम-ये तीन प्रकारके
न्यायानुकूल उपाय सुने जाते हैं, ऐसा वेदवेत्ता विद्वान्
जानते हैं ॥ ६७॥
त्रिविधाः पुरुषा राजन्नुत्तमाधममध्यमाः ।
नियोजयेद् यथावत् तांत्रिविधेष्वेव कर्मसु ॥ ६८॥
राजन् । उत्तम, मध्यम
और अधम-ये तीन प्रकारके पुरुष होते हैं, इनको यथायोग्य तीन
ही प्रकारके कर्मों में लगाना चाहिये ॥ ६८॥
त्रय एवाधना राजन् भार्या दासस्तथा सुतः ।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम् ॥ ६९ ॥
राजन् ! तीन ही धनके अधिकारी नहीं माने जाते-स्त्री, पुत्र तथा दास । ये जो कुछ कमाते हैं,
वह धन उसी का होता है जिसके अधीन ये रहते हैं। ६९॥
हरणं च परस्वानां परदाराभिमर्शनम् ।
सुहृदच परित्यागस्त्रयो दोषाः क्षयावहाः ॥ ७० ॥
दूसरेके धनका हरण, दूसरेकी स्त्रीका संसर्ग तथा सुहद् मित्रका परित्याग-ये तीनों ही दोष नाश
करनेवाले होते हैं ॥ ७० ॥
त्रिविध नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।। ७१
॥
काम, क्रोध और
लोभ-ये आत्माका नाश करनेवाले नरकके तीन दरवाजे हैं, अतः इन
तीनोंको त्याग देना चाहिये ॥१॥
वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च भारत ।
शत्रोश्च मोक्षण कच्छात् त्रीणि चैकं च तत्समम् ।। ७२
।।
भारत ! वरदान पाना, राज्यकी प्राप्ति और पुत्रका जन्म-ये तीन एक ओर और शत्रुके कष्ट से
छूटना-यह एक तरफ; वे तीन और यह एक बराबर ही है ।। ७२ ॥
भक्तं च भजमानं च तवास्मीति च वादिनम् ।
त्रीनेतांश्छरणं प्राप्तान् विषमेऽपि न संत्यजेत् ॥
७३ ॥
भक्त, सेवक तथा
मैं आपका ही हूँ, ऐसा कहनेवाले-इन तीन प्रकारके शरणागत
मनुष्योंको संकट पड़नेपर भी नहीं छोड़ना चाहिये। ७३ ।।
चत्वारि राज्ञा तु महाबलेन
वार्ज्यान्याहुः पण्डितस्तानि विद्यात् ।
अल्पप्रज्ञैः सह मन्त्रं न कुर्या
न दीर्घसूत्रै रभसैश्चारणैश्च ।। ७४ ।।
थोड़ी बुद्धिवाले, दीर्घसूत्री, जल्दबाज और स्तुति करनेवाले लोगोंके
साथ गुप्त सलाह नहीं करनी चाहिये-ये चारों महाबली राजाके लिये त्यागने योग्य बताये
गये हैं। विद्वान् पुरुष ऐसे लोगोंको पहचान ले ॥ ७४ ॥
चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु
श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्थधर्मे ।
वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः
सखा दरिद्रो भगिनीं चानपत्या ॥ ७५ ॥
तात | गृहस्थ-धर्ममें
स्थित लक्ष्मीवान् आपके घरमें चार प्रकारके मनुष्योंको सदा रहना चाहिये-अपने
कुटुम्बका बूढ़ा, संकटमें पड़ा हुआ उच्च कुलका मनुष्य,
धनहीन मित्र और बिना सन्तानकी बहिन ।। ७५ ।।
चत्वार्याह महाराज साद्यस्कानि बृहस्पतिः ।
पृच्छते त्रिदशेन्द्राय तानीमानि निबोध मे ॥ ७६ ॥
महाराज ! इन्द्रके पूछनेपर उनसे बृहस्पतिजीने जिन चारोंको तत्काल फल
देनेवाला बताया था, उन्हें
आप मुझसे सुनिये-॥७६ ॥
देवतानां च सङ्कल्पमनुभावं च धीमताम्।
विनयं कृतविद्यानां विनाशं पापकर्मणाम् ॥ ७७ ॥
देवताओंका सङ्कल्प, बुद्धिमानोंका प्रभाव, विद्वानोंकी नम्रता और
पापियोंका विनाश ॥७७॥
चत्वारि कर्माण्यभयङ्कराणि
भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि ।
मानाग्निहोत्रमुत मानमौनं
मानेनाधीतमुत मानयज्ञः ।। ७८॥
चार कर्म भयको दूर करनेवाले हैं;
किन्तु वे ही यदि ठीक तरहसे सम्पादित न हों तो भय प्रदान करते हैं।
वे कर्म हैं-आदरके साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौनका पालन,
आदरपूर्वक स्वाध्याय और आदरके साथ यज्ञका अनुष्ठान ।।.७८॥
पञ्चाग्नयो मनुष्येण परिचर्याः प्रयत्नतः ।
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ ॥ ७९ ॥
भरतश्रेष्ठ ! पिता, माता, अग्नि, आत्मा और
गुरु-मनुष्यको इन पाँच अग्नियोंकी बड़े यत्न से सेवा करनी चाहिये ।। ७९ ।।
पञ्चैव पूजयेल्लोके यशः प्राप्नोति केवलम् ।
देवान् पितृन् मनुष्यांश्च भिक्षूनतिथिपञ्चमान् ॥ ८०॥
देवता, पितर,
मनुष्य, संन्यासी और अतिथि–इन पाँचोंकी पूजा करनेवाला मनुष्य शुद्ध यश प्राप्त करता है ।। ८० ॥
पञ्च त्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि ।
मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः ।। ८१ ॥
राजन् ! आप जहाँ-जहाँ जायेंगे वहाँ-वहाँ मित्र-शत्रु, उदासीन, आश्रय देनेवाले
तथा आश्रय पानेवाले–ये पाँच आपके पीछे लगे रहेंगे।। ८१ ॥
पञ्चेन्द्रियस्य मर्त्यस्यच्छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम्।
ततोऽस्य स्त्रवति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम् ॥ ८२
॥
पाँच ज्ञानेन्द्रियोंवाले पुरुषको यदि एक भी इन्द्रिय छिद्र (दोष) युक्त
हो जाय तो उससे उसकी बुद्धि इस प्रकार बाहर निकल जाती है, जैसे मशक के छेदसे पानी ॥ ८२॥
षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भृतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भर्य क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥ ८३
।।
ऐश्वर्य या उन्नति चाहनेवाले पुरुषोंको नींद, तन्द्रा (ऊँघना), डर, क्रोध, आलस्य तथा
दीर्घसूत्रता (जल्दी हो जानेवाले काममें अधिक देर लगानेकी आदत)-इन छ: दुर्गुणोंको
त्याग देना चाहिये। ८३ ॥
षडिमान् पुरुषो जह्याद् भिन्नां नावमिवार्णवे।
अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम् ॥८४ ।।
अरक्षितारं राजानं भायां चाप्रियवादिनीम् ।
ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम् ॥ ८५ ॥
उपदेश न देनेवाले आचार्य, मन्त्रोच्चारण न करनेवाले होता, रक्षा करनेमें
असमर्थ राजा, कटु वचन बोलनेवाली स्त्री, ग्राममें रहने की इच्छावाले ग्वाले तथा वनमें रहनेकी इच्छावाले नाई-इन
छःको उसी भाँति छोड़ दे, जैसे समुद्रकी सैर करनेवाला मनुष्य
फटी हुई नावका परित्याग कर देता है।। ८४-८५॥
षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन ।
सत्यं दानपनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥ ८६ ।।
मनुष्यको कभी भी सत्य, दान, कर्मण्यता, अनसूया
(गुणोंमें दोष दिखानेकी प्रवृत्तिका अभाव), क्षमा तथा धैर्य-इन
छ: गुणोंका त्याग नहीं करना चाहिये ।। ८६॥
अर्थागमो नित्यमरोगिता च
प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या
षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ।। ८७॥
राजन् ! धनकी आय, नित्य नीरोग रहना, स्त्रीका अनुकूल तथा प्रियवादिनी
होना, पुत्रका आज्ञाके अन्दर रहना तथा धन पैदा करनेवाली
विद्याका ज्ञान-ये छ: बातें इस मनुष्यलोक में सुखदायिनी होती हैं ।। ८७ ॥
षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योऽधिगच्छति ।
न स पापैः कुतोऽनथैर्युज्यते विजितेन्द्रियः ॥ ८॥
मनमें नित्य रहनेवाले छः शत्रु-काम,
क्रोध, लोभ, मोह,
मद तथा मात्सर्यको जो वशमें कर लेता है, वह
जितेन्द्रिय पुरुष पापोंसे ही लिप्त नहीं होता, फिर उनसे
उत्पत्र होनेवाले अनर्थोंकी तो बात ही क्या है ॥ ८८॥
षडिमे षट्सु जीवन्ति सप्तमो नोपलभ्यते।
चौराः प्रमत्ते जीवन्ति व्याधितेषु चिकित्सकाः ॥ ८९ ॥
प्रमदाः कामयानेषु यजमानेषु याजकाः ।
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिताः ॥9०॥
निम्नाङ्कित छः प्रकारके मनुष्य छः प्रकारके लोगोंसे अपनी जीविका चलाते
हैं, सातवें की उपलब्धि
नहीं होती। चोर असावधान पुरुषसे, वैद्य रोगी से, मतवाली स्त्रियाँ कामियोंसे, पुरोहित यजमानोंसे,
राजा झगड़नेवालोंसे तथा विद्वान् पुरुष मूर्खो से अपनी जीविका चलाते
हैं ।। ८९-९० ॥
षडिमानि'
विनश्यन्ति मुहर्तमनवेक्षणात्।
गावः सेवा कृषिर्भार्या विद्या वृषलसंगतिः ॥ ९१ ।।
क्षणभर भी देख-रेख न करने से गौ,
सेवा, खेती, स्त्री,
विद्या तथा शूद्रों से मेल-ये छः चीजें नष्ट हो जाती हैं।९१ ॥.
षडेते ह्यवमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम् ।
आचार्य शिक्षिताः शिष्याः कृतदाराश्च मातरम् ॥ ९२ ।।
नारी विगतकामास्तु कृतार्थाश्च प्रयोजकम्।
नावं निस्तीर्णकान्तारा आतुराश्च चिकित्सकम् ॥ १३ ॥
ये छः सदा अपने पूर्व उपकारीका अनादर करते हैं---शिक्षा समाप्त हो जानेपर
शिष्य आचार्यका, विवाहित
बेटे माताका, कामवासनाकी शान्ति हो जानेपर मनुष्य स्त्रीका,
कृतकार्य पुरुष सहायकका, नदीकी दुर्गम धारा
पार कर लेनेवाले पुरुष नावका तथा रोगी पुरुष रोग छूटनेके बाद वैद्यका तिरस्कार कर
देते हैं । ९२-९३ ॥
आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः
सद्धिर्मनुष्यैः सह सम्प्रयोगः।
वृत्तिरभीतवासः ।
षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ।। ९४ ॥
राजन् ! नीरोग रहना, ऋणी न होना, परदेश में न रहना, अच्छे लोगों के साथ मेल होना, अपनी वृत्ति से जीविका
चलाना और निडर होकर रहना-ये छः मनुष्य लोक के सुख हैं ॥९४ ॥
ईर्ष्या घृणी न सन्तुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ॥ १५॥
ईर्ष्या करनेवाला, घृणा करनेवाला, असन्तोषी, क्रोधी,
सदा शङ्कित रहनेवाला और दूसरेके भाग्यपर जीवन-निर्वाह करने वाला-ये
छः सदा दुःखी रहते हैं ॥९५॥
सप्त दोषाः सदा राज्ञा हातव्या व्यसनोदयाः।
प्रायशो यैर्विनश्यन्ति कृतमूला अपीश्वराः ॥ ९६ ॥
स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं वाक्पारुष्यं च पञ्चमम्। -
महच दण्डपारुष्यमर्थदूषणमेव च ॥ १७ ॥
स्त्रीविषयक आसक्ति, जूआ, शिकार, मद्यपान, वचनकी कठोरता, अत्यन्त कठोर दण्ड देना और धनका
दुरुपयोग करना—ये सात दुःखदायी दोष राजाको सदा त्याग देने
चाहिये। इनसे दृढमूल राजा भी प्रायः नष्ट हो जाते हैं।९६-९७॥
अष्टौं पूर्वनिमित्तानि नरस्य विनशिष्यतः ।
ब्राह्मणान् प्रथमं द्वेष्टि ब्राह्मणैश्च विरुध्यते
॥ ९८॥
ब्राह्मणस्वानि चादत्ते ब्राह्मणांश्च जिघांसति ।
रमते निन्दया चैषां प्रशंसां नाभिनन्दति ॥ ९९ ।।
नैनान् स्मरति कृत्येषु याचितश्चाभ्यसूयति।
एतान् दोषान्नरः प्राज्ञो बुध्येद् बुद्ध्वा
विसर्जयेत् ॥ १०0 ॥
विनाशके मुखमें पड़नेवाले मनुष्यके आठ पूर्वचिह्न हैं-प्रथम तो वह
ब्राह्मणोंसे द्वेष करता है, फिर उनके विरोधका पात्र बनता है, ब्राह्मणोंका धन
हड़प लेता है, उनको मारना चाहता है, ब्राह्मणोंकी
निन्दामें आनन्द मानता है, उनकी प्रशंसा सुनना नहीं चाहता,
यज्ञ-यागादिमें उनका स्मरण नहीं करता तथा कुछ माँगनेपर उनमें दोष
निकालने लगता है। इन सब दोषोंको बुद्धिमान् मनुष्य समझे और समझकर त्याग दे॥९८-१००॥
अष्टाविमानि हर्षस्य नवनीतानि भारत ।
वर्तमानानि दृश्यन्ते तान्येव स्वसुखान्यपि ॥ १०१॥
समागमश्च सखिभिर्महांश्चैव धनागमः ।
पुत्रेण च परिषङ्गः संनिपातश्च मैथुने ।। १०२ ।।
समये च प्रियालापः स्वयूथ्येषु समुन्नतिः।
अभिप्रेतस्य लाभक्ष पूजा च जनसंसदि ॥ १०३ ॥
भारत ! मित्रोंसे समागम, अधिक धनकी प्राप्ति, पुत्रका आलिङ्गन, मैथुनमें प्रवृत्ति, समयपर प्रिय वचन बोलना, अपने वर्गके लोगोंमें उन्नति, अभीष्ट वस्तुकी
प्राप्ति और जनसमाजमें सम्मान-ये आठ हर्षके सार दिखायी देते हैं और ये ही अपने
लौकिक सुखके भी साधन होते हैं ।। १०१-१०३ ॥
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति
प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च ।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च
दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥ १०४ ॥
बुद्धि, कुलीनता,
इन्द्रियनिग्रह, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अधिक न बोलना, शक्तिके
अनुसार दान और कृतज्ञता-ये आठ गुण पुरुषकी ख्याति बढ़ा देते हैं॥ १०४ ॥
नवद्वारमिदं वेश्म त्रिस्थूणं पञ्चसाक्षिकम्।
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितं विद्वान् यो वेद स परः कविः ॥
१०५॥
जो विद्वान् पुरुष [आँख, कान आदि] नौ दरवाजेवाले, तीन (वात, पित्त, कफरूपी) खम्भोंवाले, पाँच
(ज्ञानेन्द्रियरूप) साक्षीवाले आत्माके निवासस्थान इस शरीररूपी गृहको जानता है,
वह बहुत बड़ा ज्ञानी है।। १०५॥
दश धर्म न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान् ।
मत्तः प्रमत्त उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः
॥ १०६ ॥
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश ।
तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत पण्डितः ॥ १०७॥
महाराज धृतराष्ट्र ! दस प्रकारके लोग धर्मको नहीं जानते, उनके नाम सुनो। नशेमें मतवाला,
असावधान, पागल, थका हुआ,
क्रोधी, भूखा, जल्दबाज,
लोभी, भयभीत और कामी-ये दस हैं। अतः इन सब
लोगोंमें विद्वान् पुरुष आसक्ति न बढ़ावे ॥ १०६-१०७ ॥
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
पुत्रार्थमसुरेन्द्रेण गीतं चैव सुधन्वना ॥ १०८॥
इसी विषयमें असुरोंके राजा प्रह्लादने सुधन्वाके साथ अपने पुत्रके प्रति कुछ
उपदेश दिया था। नीतिज्ञ लोग उस पुराने इतिहासका उदाहरण देते हैं॥ १०८॥
यः काममन्यू प्रजहाति राजा
पात्रे प्रतिष्ठापयते धनं च।
विशेषविच्छ्रुतवान् क्षिप्रकारी
तं सर्वलोकः कुरुते प्रमाणम् ॥१०९।।
जो राजा काम और क्रोधका त्याग करता है और सुपात्रको धन देता है, विशेषज्ञ है, शास्त्रोंका
ज्ञाता और कर्त्तव्यको शीघ्र पूरा करनेवाला है, उसे सब लोग
प्रमाण मानते हैं ॥१०९॥
जानाति विश्वासयितुं मनुष्यान्
विज्ञातदोषेषु दधाति दण्डम् ।
जानाति मात्रां च तथा क्षमा च
तं तादृशं श्रीर्जुषते समग्रा ॥ ११०॥
जो मनुष्योंमें विश्वास उत्पन्न करना जानता है, जिनका अपराध प्रमाणित हो गया है,
उन्हींको दण्ड देता है, जो दण्ड देनेकी
न्यूनाधिक मात्रा तथा क्षमाका उपयोग जानता है, उस राजाकी
सेवामें सम्पूर्ण सम्पत्ति चली आती है॥११०॥
सुदुर्बलं नावजानाति कश्चिद्
युक्तो रिपुं सेवते बुद्धिपूर्वम् ।
न विग्रहं रोचयते बलस्थैः
काले च यो विक्रमते स धीरः ॥ १११ ।।
जो किसी दुर्बलका अपमान नहीं करता,
सदा सावधान रहकर शत्रुके साथ बुद्धिपूर्वक व्यवहार करता है, बलवानोंके साथ युद्ध पसन्द नहीं करता तथा समय आनेपर पराक्रम दिखाता है,
वही धीर है ।। १११ ॥
प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि
दुद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः । -
दुःखं च काले सहते महात्मा
धुरन्धरस्तस्य जिताः सपत्नाः ॥ ११२ ॥
जो धुरन्धर महापुरुष आपत्ति पड़नेपर कभी दुःखी नहीं होता, बल्कि सावधानीके साथ उद्योगका आश्रय
लेता है तथा समयपर दुःख सहता है, उसके शत्रु तो पराजित ही
हैं ।। ११२ ।।
अनर्थकं विप्रवासं गृहेभ्यः |
पापैः सन्धिं परदाराभिमर्शम् ।
दर्भ स्तन्यं पैशुनं मद्यपानं
न सेवते यश्च सुखी सदैव ॥ ११३ ॥
जो निरर्थक विदेशवास, पापियोंसे मेल, परस्त्रीगमन, पाखण्ड,
चोरी, चुगलखोरी तथा मदिरापान नहीं करता,
वह सदा सुखी रहता है ।। ११३ ।।
न संरम्भेणारभते त्रिवर्ग माकारितः शंसति तत्त्वमेव ।
न मित्रार्थे रोचयते विवादं नापूजितः कुप्यति
चाप्यमूढः ॥ ११४ ।।
न योऽभ्यसूयत्यनुकम्पते च न दुर्बलः प्रातिभाव्यं
करोति ।
नात्याह किञ्चित्क्षमते विवाद सर्वत्र तादृग् लभते
प्रशंसाम् ।। ११५॥
जो क्रोध या उतावलीके साथ धर्म,
अर्थ तथा कामका आरम्भ नहीं करता, पूछनेपर
यथार्थ बात ही बतलाता है, मित्रके लिये झगड़ा नहीं पसन्द
करता, आदर न पानेपर क्रुद्ध नहीं होता, विवेक नहीं खो बैठता, दूसरोंके दोष नहीं देखता,
सबपर दया करता है, दुर्बल होते हुए किसीकी
जमानत नहीं देता, बढ़कर नहीं बोलता तथा विवादको सह लेता है,
ऐसा मनुष्य सब जगह प्रशंसा पाता है ।। ११४-११५॥
यो नोद्धतं कुरुते जातु वेषं
न पौरुषेणापि विकस्थतेऽन्यान्।
न मूर्छितः कटुकान्याह किञ्चित्
प्रियं सदा तं कुरुते जनो हि ।। ११६ ॥
जो कभी उद्दण्डका-सा वेष नहीं बनाता, दूसरोंके सामने अपने पराक्रमकी भी डींग नहीं हाँकता,
क्रोधसे व्याकुल होनेपर भी कटुवचन नहीं बोलता, उस मनुष्यको लोग सदा ही प्यारा बना लेते हैं ।। ११६ ।।
न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं
न दर्पमारोहति नास्तमेति ।
न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्य
तमार्यशीलं परमाहुरार्याः ॥ ११७ ॥
जो शान्त हुई वैरकी आगको फिर प्रज्वलित नहीं करता, गर्व नहीं करता, हीनता नहीं दिखाता तथा 'मैं विपत्तिमें पड़ा हूँ,'
ऐसा सोचकर अनुचित काम नहीं करता, उस उत्तम
आचरणवाले पुरुषको आर्यजन सर्वश्रेष्ठ कहते हैं ॥११७॥
न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्ष
नान्यस्य दुःखे भवति प्रहृष्टः ।
दत्त्वा न पश्चात्कुरुतेऽनुतापं
स कथ्यते सत्पुरुषार्यशीलः ॥ ११८॥
जो अपने सुखमें प्रसन्न नहीं होता,
दूसरेके दुःखके समय हर्ष नहीं मानता और दान देकर पश्चात्ताप नहीं
करता; वह सज्जनोंमें सदाचारी कहलाता है॥ ११८ ॥
देशाचारान् समयाञ्जातिधर्मान्
बुभूषते यः स परावरज्ञः।
स यत्र तत्राभिगतः सदैव
महाजनस्याधिपत्यं करोति ॥ ११९ ॥
जो मनुष्य देशके व्यवहार, लोकाचार तथा जातियोंके धर्मोको जाननेकी इच्छा करता है, उसे उत्तम-अधमका विवेक हो जाता है। वह जहाँ कहीं भी जाता है; सदा महान् जनसमूहपर अपनी प्रभुता स्थापित कर लेता है ॥ ११९ ॥
दर्भ मोहं मत्सरं पापकृत्यं
राजद्विष्ट पैशुनं पूगवैरम् ।
मत्तोन्मत्तैर्दुर्जनैश्चापि वादं
यः प्रज्ञावान् वर्जयेत् स प्रधानः ॥ १२०॥
जो बुद्धिमान् दम्भ, मोह, मात्सर्य, पापकर्म,
राजद्रोह, चुगलखोरी, समूहसे
वैर और मतवाले, पागल तथा दुर्जनोंसे विवाद छोड़ देता है,
वह श्रेष्ठ है ।। १२०॥
दानं होमं दैवतं मङ्गलानि
प्रायश्चित्तान् विविधौल्लोकवादान् ।
एतानि यः कुरुते नैत्यकानि
तस्योत्थानं देवता राधयन्ति ॥ १२१॥
जो दान, होम,
देवपूजन, माङ्गलिक कर्म, प्रायश्चित्त तथा अनेक प्रकारके लौकिक आचार-इन नित्य किये जानेयोग्य
कर्मोको करता है, देवतालोग उसके अभ्युदयकी सिद्धि करते हैं
।। १२१ ।।
समैर्विवाहं कुरुते न हीनैः
समैः सख्यं व्यवहारं कथां च ।
गुणैर्विशिष्टांश्च पुरो दधाति
विपश्चितस्तस्य नयाः सुनीताः ॥ १२२ ।।
जो अपने बराबरवालोंके साथ विवाह,
मित्रता, व्यवहार तथा बातचीत करता है, हीन पुरुषोंके साथ नहीं; और गुणोंमें बढ़े-चढ़े
पुरुषोंको सदा आगे - रखता है, उस विद्वानकी नीति श्रेष्ठ है॥
१२२ ॥
मितं भुङ्क्ते संविभज्याश्रितेभ्यो
मितं स्वपित्यमितं कर्म कृत्वा ।
ददात्यमित्रेष्वपि याचितः सं
स्तमात्मवन्तं प्रजहत्यनार्थाः ।। १२३॥
जो अपने आश्रितजनोंको बाँटकर थोड़ा ही भोजन करता है, बहुत अधिक काम करके भी थोड़ा सोता है
तथा माँगनेपर जो मित्र नहीं है, उसे भी धन देता है, उस मनस्वी पुरुषको सारे अनर्थ दूरसे ही छोड़ देते हैं ॥ १२३॥
चिकीर्षितं विप्रकृतं च यस्य
नान्ये जनाः कर्म जानन्ति किञ्चित् ।
मन्त्रे गुप्ते सम्यगनुष्ठिते च
नाल्पोऽप्यस्य च्यवते कश्चिदर्थः ॥ १२४ ॥
जिसके अपनी इच्छाके अनुकूल और दूसरोंकी इच्छाके विरुद्ध कार्यको दूसरे
लोग कुछ भी नहीं जान पाते, मन्त्र गुप्त रहने और अभीष्ट कार्यका ठीक-ठीक सम्पादन होनेके कारण उसका
थोड़ा भी काम बिगड़ने नहीं पाता ।। १२४॥
यः सर्वभूतप्रशमे निविष्टः
सत्यो मृदुर्मानकृच्छुद्धभावः ।
अतीव स ज्ञायते ज्ञातिमध्ये
महामणिर्जात्य इव प्रसन्नः ।। १२५॥
जो मनुष्य सम्पूर्ण भूतोंको शान्ति प्रदान करनेमें तत्पर, सत्यवादी, कोमल,
दूसरोंको आदर देनेवाला तथा पवित्र विचारवाला होता है, वह अच्छी खानसे निकले और चमकते हुए श्रेष्ठ रत्नकी भाँति अपनी
जातिवालोंमें अधिक प्रसिद्धि पाता है ।। १२५॥
य आत्मनापत्रपते भृशं नरः
स सर्वलोकस्य गुरुर्भवत्युत ।
अनन्ततेजाः सुमनाः समाहितः
स तेजसा सूर्य इवावभासते ।। १२६ ॥
जो स्वयं ही अधिक लज्जाशील है,
वह सब लोगोंमें श्रेष्ठ समझा जाता है। वह अपने अनन्त तेज, शुद्ध हृदय एवं एकाग्रतासे युक्त होनेके कारण कान्तिमें सूर्यके समान शोभा
पाता है।। १२६॥
वने जाताः शापदग्धस्य राज्ञः ..
पाण्डोः पुत्राः पञ्च पञ्चेन्द्रकल्पाः ।
त्वयैव बाला वर्धिताः शिक्षिताश्च
तवादेशं पालयन्त्याम्बिकेय ।। १२७॥
अम्बिकानन्दन ! शापसे दग्ध राजा पाण्डुके जो पाँच पुत्र वनमें उत्पन्न
हुए; वे पाँच इन्द्रोंके
समान शक्तिशाली हैं, उन्हें आपहीने बचपनसे पाला और शिक्षा दी
है, वे भी सदा आपकी आज्ञाका पालन करते रहते हैं ।। १२७ ॥
प्रदायैषामुचितं तात राज्य
सुखी पुत्रैः सहितो मोदमानः ।
न देवानां नापि च मानुषाणां
भविष्यसि त्वं तर्कणीयो नरेन्द्र ।। १२८॥
तात ! उन्हें उनका न्यायोचित राज्यभाग देकर आप अपने पुत्रोंके साथ आनन्द
भोगिये। नरेन्द्र। ऐसा करनेपर आप देवता या मनुष्योंकी टीका-टिप्पणीके विषय नहीं रह
जायेंगे ॥ १२८ ।
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि प्रजागरपर्वणि विदुरनीतिवाक्ये
त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥
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