मैं जीवन का जीवन हूं
ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात = अपनी इन्द्रियों का केन्द्र परमेश्वर को बना के रखो। जीवन क्या है? यह इस दुनिया में बहुत बड़ा और बहुत ही जटिल विषय है, इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमारे पास कई महान विद्वान हैं, हर किसी ने अपनी शैली में प्राचीन कवि की तरह समझाया है कि जीवन में बहुत दर्द है और पश्चिमी देशों के कुछ महान विद्वान इसके बारे में कई प्रकार के विवरण देते हैं। हालांकि मुझे लगता है कि हर जवाब पूरी तरह से उचित या संतुष्ट नहीं दते है क्योंकि कुछ जानकार और प्रबुद्ध मानव ने हमेशा कहा है कि जीवन एक रहस्यमय की तरह है। हमारे जीवन का यह अनुभव है जब हम निस्वार्थ भाव से सत्य का अनवेषण करते है। तब यह वास्तव में सत्य सिद्ध होता है कि जीवन एक महान दर्द या आपदा और विनाशकारी अज्ञात गहरे समुद्र समान है आज तक इसके आतंक से कोई भी मुक्त हो पाया है। चाहे वह राजा हो या रंक हो दोनो को ही यह जीवन अपनी तरह से प्रताणित करता है। तरह-तरह के रूप और आकार बदल कर यह हमारे जीवन की शाश्वत सच्चाई है। जब हम जीवन की संपूर्णता में जीवन की हर परिस्थिति में हर पहलु से देखते है तो इस बात पर ठहरते है कि जीवन का स्वरूप दर्द मय ही है। जीवन को आनन्द भी कहते है जीवन में सुख भी दिखाई पड़ता है लेकिन आज तक किसी को सुख मिला नहीं है यदी किसी को वह सुख मिला होता तो वह ठहर जाता अपने जीवन के सफर में और पूकार पुकार कर कहता की मैं सुखी हो गया। लेकिन ऐसा देखने में कभी नहीं आता है अपवाद में कोई एकाक कहीं दिखाई दे तो उसको हम सब पर एक सामान नहीं लागू कर सकते है। इसका मतलब यह नहीं है कि जीवन में सुख या आनन्द नहीं है इसका मतलब यह है कि जीवन जीने का ढंग ग़लत है जिसका परिणाम ही जीवन में दुःख और पिड़ा है यह प्रमाण है कि हमने ग़लत दिशा में स्वय के जीवन को लेकर स्वयं की यात्रा कर रहे है और यहाँ जीवन के बारे में जो शिक्षा दिया जा रहा है वह ग़लत है इस पुरानी शिक्ष विधी को बदलना होगा। यदी हम जीवन में सुख और आनन्द की कामना करते है जीवन का सुख किसी वस्तु के आश्रित नहीं है। इसके लिये क्रान्तीकारी मार्ग का अनुसरण करना होगा। यह एक क्रान्तीकारी के लिये संभव है, लोगों को यह वेवश और वेसहारा लाचार अपंग बनाने पर जोर जिया जा जारहा है। लोगों के पास आंखे है लेकिन वह मुख्य तत्व को देखने में असमर्थ है। यह पत्थर की आंखें के पत्थर को ही देखने में समर्थ है यह अपार्द्शी नहीं किसी वस्तु के आऱ पार देखने में समर्थ नहीं है। इनको ऐसा बनाने के लिये ही लम्बे काल से प्रशिक्षीत किया जा रहा है जिसमें हमारी शिक्षा का सबसे बड़ा योग दान है।
यह सत्य है फिर यह सत्य सब पर प्रकाशित क्यों नहीं होता है और इसके पिछ कारण क्या है? यह सत्य है लेकिन हम इसको स्विकार नहीं कर पाते हमें इस प्रकार से संसाकारित किया जीता है कि सुख आने वाला है दुःख के बाद जबकि सत्य यह है कि वह सुख कभी आता नहीं है वह भवीष्य में होने वाली एक घटना है जो जीवन में कभी घटती नहीं है, यह पूर्णतः काल्पनिक है। जो दुःख स्वप्न को और ताकत वर शक्ति शाली बनाता है। हमारे सगे सम्बंधी परिवार माता पिता गुरु आदी हमें ग़लत शिक्षा देते है। हमें आक्रमण कारी बनाते है हममें विद्वेश की भावन भरते है, हमें गरीब बनाते है हमें अमिर बनने के लिये प्रोत्साहित उत्साहित करते है और कहते है संघर्ष करो तुम अवश्य तुम्हारी विजय होगी। जबकी सत्य यह है कि उनके संघर्ष ने स्वयं उनको कभी सफल नहीं किया है। इसलिये वह चाहते है कि तुम अपने जीवनको लगा कर उनकी कामना के लिये स्वयं को मिटा उनके स्वप्नो को सिद्ध करों। वह तुम्हे अपने लिये उपयोग करना चाहते है उनको तुमसे या तुम्हारे अस्तित्व से कोई लेना देने नहीं है। इस लिये तो इस जगत में कोई बाप अपने बेटे से खश नीं है ना कोई माँ ही अपनी बेटी से खुशी है। ऐसा ही वेटों और वेटियों के साथ भी है। जो यह दिखाने का प्रयाश करते है कि वह अपने वेटे और वेटीयों से बहुत खुश है तो यह समझ लेना की यह सब भ्रष्ट और झुझे लोग है। यह उसी प्रकार से है जैसे मुह में राम और बगल में छुरी वह तुम्हे लुटने तुम्हे धुर्त झुठा बनाने के प्रयाश में लगे है उनको इसी में रस आता है। वह तुम्हारे सुख को आनन्द को किसी सर्त पर स्विकारना नहीं चाहते है। वह तुम रुची ले रहे है कि तुम उनके जैसे बनावटी बनो जिसमें उनको फायदा है। जिसे शभ्य शिक्षीत समाज और आधुनिक परिवार कहते है। जिसमें हर प्रकार की धुर्तता जो उन्होंने सभी हिन्सक जानवरों सिख कर अपने जीवन में धारण कर लिया है और अपने मानव जीवन के मुख्य परमतत्व परमेश्वर को त्याग कर के तुम्हे भी वह-सी प्रकार का चाहते है। जिस प्रकार शराबीयों के ब्च में एक गैर शराबी उन शराबियों के लिये शत्रु दिखाई देता है। जैसे सभी विद्वानों को मुर्खो से शत्रुता है। जैसे सूर्य को अंधकार से शत्रुता है। जैसे पानी को आग से खतरा है। जैसे मिट्टी के बर्तन को लोहे के बर्तन से शत्रुता है।
यह जीवन क्रान्ती का मार्ग उन पुरुषों के लिये है जो पुरुषार्थ को अपना अस्त्र बनाने वाला उद्यमी पुरुष के समान प्रयत्न शिल और शीघ्र वेग के साथ अपने शत्रु पर हमला करने वाले पराक्रमी योद्धा के समान है। शत्रु दो प्रकार के है एक आन्तरिक अज्ञानता को धारण करने वाला अज्ञान है और दूसरें बाहरी संसारीक शत्रु है, जो राग द्वेश को धारण करने वाले है। जो पराक्रमी योद्धा अपने शत्रु का नाश शिघ्र करता है, जिस प्रकार से अन्न को भुनने वाला मनुष्य अन्न को शिध्रता से भुनता है। उसी प्रकार पराक्रमी योद्धा अपने शत्रुओं की सेना को शिघ्रता से भुनता है। जिस प्रकार से आग पानी को वास्प में पलक झपकते ही बदल देती है। जिस प्रकार से काला रंग हर रंग पर बहुत जल्दी चढ़ जाता है ठीक इसी प्रकार से अपने विरोधी ताकतों को अपने वश में कर लेते है। जो ऐसा नहीं कर पाता है उसे फिर वह उन अपने शत्रुओं को सम्हलने का समय देता है जिससे उभरना समय के साथ मुस्किल और कठीन हो जाता है। जैसे जब हमारी इन्द्रियों में शक्ति होती है तभी उनको नियंत्रित करके अपने जीवन उद्देश्य को उपलब्ध कर लेते है। जब इन्द्रियाँ कमजोर हो जाती है और स्वयं के नियंत्रण करना असंभव हो जाता है। इस लिये कहा गया है कि जीवन के प्रारम्भ में ही जल्दी-जल्दी अपनी त्रुटियों को जीवन से दूर करके स्वयं परिपूर्ण करों और सोम रस का पान करो अर्थात जीवन रस के परम आनन्द का भोग करो, अर्थात सौम्य गुण वाले पेय शक्ति को बढ़ाने वाली परम दैविय औषधियों का सेवन करों है। क्योंकि वह परम तत्व एक रसायन ही है। तदुपरान्त हर्षित और उत्साहित होकर अपनी दुष्ट वृत्तियाँ जो शत्रु के समान है, उनको परास्थ करके इनसे हमेशा के लिये मुक्त हो जाओ।
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