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विधि का विधान

विधि का विधान  


      बहुत समय पहले की बात है एक राजा था और उसकी बहुत-सी रानियाँ थी जिसमें से उसकी सबसे प्रिय एक रानी थी जिसका नाम श्री था, जो अपने नाम के बिल्कुल अनुकूल नहीं थी।


       लेकिन फिर भी वह एक छोटी-सी सज्जन औरत थी, वह कभी भी अपने बारे में कुछ भी नहीं सोचती थी, जिसको राजा अपने आत्मा के अन्तःकरण की गहराइयों और दिल से चाहता था। जिसके कारण ही उसने अपने संपूर्ण साम्राज्य की बागडोर उसके हाथ में दे दिया था। और अपने जीवन को भी उसके लिए समर्पित कर रखा था। इसके साथ संपूर्ण संसार के धन ऐश्वर्य के साथ वह तीनों लोक की संपत्ति को उसके सर के एक बाल की रक्षा के लिए खर्च करने लिए तैयार था।


        तभी एक दिन ऐसा हुआ कि उस राजा की राजधानी में एक अपराधी ने एक बहुत घृणित अपराध का कार्य किया, जिसके लिए राजा ने तत्काल उसको सजा के रूप में तत्काल मृत्यु दण्ड का आदेश दे दिया, और ऐसा ही किया गया। फिर इसके कुछ समय के बाद राज पुरोहित राजा के पास आया, और राजा से कहा कि हे राजा जिस आदमी को आपने मृत्यु दण्ड की सजा दिया है। वह एक ब्राह्मण था जिसके कारण से इस राज्य के देवता आप पर और आपके राज्य पर अत्यधिक क्रोधित हो चुके है। और इसके बदले में जब तक आप बली चढ़ाकर अपने अपराध के लिए प्रायश्चित नहीं करेंगे, (इसका मतलब हैं जब भारत में ब्राह्मणों के भयंकरतम अपराध करने पर भी, राजा यदि दण्ड देता था, तो राजा को उसके लिए ब्राह्मणों ने राजा को प्रायश्चित करने का नियम बनाया था) तब तक इस राज्य के देवता शांत नहीं होगे और उनकी आज्ञा का उलंघन करने पर आप पर और आप के राज्य पर बहुत बड़ा संकट आयेगा। और आपका सब कुछ उनके श्राप से कारण से नष्ट हो जायेगा। जिससे राजा काफी परेशान हो गया, और पुरोहित से कहा किसकी बली देनी पड़ेगी। तब पुरोहित ने कहा जिस रानी को आप सबसे अधिक प्रेम करते हैं, जिसको सुन कर राजा और अधिक दुःखी हुआ और उसके हृदय में भय का आंतक छा गया। क्योंकि सबसे अधिक प्रेम तो वह अपनी रानी श्री से करता था। लेकिन इस बात को पुरोहित से उसने छुपा लिया, और कहा कि आह मैं तो सबसे अधिक प्रेम अपनी रानी प्रिय दर्शनी से करता हू। वही मेरी रानियों में सबसे अधिक सुंदर हैं, तो पुरोहित ने कहा कि ठीक हैं फिर कल सुबह उनकी ही बली चढ़ायी जायेगी। अर्थात बली के रिवाज को संपन्न किया जायेगा। और वह सारे पुरोहित वहाँ से चले गये, और अगले दिन सुबह राज्य के सभी लोगों की बड़ी भीड़ एक सभा को रूप में, बली की प्रक्रिया के पूरे होने वाले पत्थर के पास एक बड़े मैदान में एकत्रित हो गई। और राजा भी वहाँ अपने सिंहासन पर विराजमान हुआ और फिर वहाँ पर जिस रानी का बली को चढ़ाना था उसको लबादें से ढक कर लाया गया। और फिर उसकी बली की रस्म को पूरा करने के लिए, अपने हाथ में एक तेज धार कटार ले कर एक पुरोहित जल्लाद उसके पास खड़ा हुआ, और फिर उस पुरोहित ने उस रानी के ऊपर पड़े लबादें को हटाया। जिसकी वजह से वहाँ उपस्थित सभी लोगों के साथ स्वयं राजा ने भी देखा कि वह प्रियदर्शनि नहीं यद्यपि वह तो राजा की सबसे सुंदर और सबसे अधिक प्रिय रानी श्री थी।


        जिसको देखने के बाद राजा को बहुत अधिक घोर यातना अर्थात कष्ट का अनुभव हुआ। जिसके कारण वह जैसे अपने सिंहासन के साथ बंध गया हो, उसको ऐसा प्रतीत हुआ। और उसके आँखों के सामने से संपूर्ण संसार जैसे कुछ समय के लिए अदृश्य हो गया हो। और उसने अपने हाथों को जोड़ लिया वह नहीं जानता था कि वह क्या कर रहा है। जिसके साथ वह बहुत तेजी के साथ रोने और हाथी के समान चिग्घाड़ने लगा। आह नहीं, नहीं, श्री नहीं, नहीं श्री, लेकिन पुरोहित ने राजा की कोई बात नहीं सुनी उसने उसके गले पर अपनी कटार को चला दिया, उसके कपड़ों को पकड़ कर जिसके कारण वह नीचे गिर गई और कुछ पलो में ही पुरोहित ने उसकी शरीर पर बार-बार वार अपनी कटार से करने लगा। जिसके कारण राजा से यह देखा नहीं गया और तत्काल राजा अपनी पत्नी श्री के शरीर की रक्षा के लिए एक बाघ के समान उसके ऊपर कूद कर उसको अपने शरीर से ढक लिया, जिसके कारण पुरोहितों की कटार राजा के हृदय में धंस गई।


       और फिर श्री ने अपनी आँखें खोल कर देखा राजा के शरीर के नीचे से, अपने चारों तरफ कुछ देर के लिए वहाँ पर भारी एकत्रित भीड़ को, और वह राजा के सर को अपने गोद में लेकर जमीन पर बैठ गई। और इसके कुछ पलो के बाद वह राजा के ऊपर गीर गई, जिसके साथ वह राजा की आत्मा के साथ अपनी आत्मा को एक कर के किसी दूसरे लोक के लिए प्रयाण किया, अर्थात दोनों प्रेम भरें आलिंगन के साथ मृत्यु को गले लगा लिया। और उस लोग में पुनः प्रवेश किया जहां पर कभी कोई मरता नहीं है।


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