संसार जहां उल्लू को मोर बताते हैं
बहुत पहले, गंगा के तट पर, शिवा का एक पुराना खाली मंदिर था और एक रात, बरसात के मौसम में, तूफान से खुद को बचाने और आश्रय देने के लिए, एक वृद्ध तपस्वी महिला मंदिर में प्रवेश करती
थी और उसके ठीक बाद ही इसी तपस्या के उद्देश्य के लिए एक उल्लू ने भी मंदिर में
प्रवेश किया। जब कि उस मंदिर की छत में चमगादड़ की जाति की संख्या बहुत अधिक थी
जिसने उस मंदिर परिसर कभी नहीं छोड़ा था और वह सब उल्लू देखकर, उन्होंने बूढ़े औरत से कहा तुम कौन हो? और यह किस प्रकार का पशु है? तब बूढ़ी औरत ने कहा मैं देवी सरस्वती हूँ और
यह मोर है जिस पर मैं इसकी सवारी करती हूँ। फिर, जब तूफान जा चुका था उसके पीछे से ही पुराने कपटी धोखे बाजी की चाल
आगे बढ़ने लगी। यद्यपि उल्लू, उस
निवास के स्थान के रूप में मंदिर से प्रसन्न होने के नाते, वही पर बना रहा और चमगादड़ों ने इसको दिव्य
सम्मान दिया। फिर कुछ साल बाद, ऐसा
हुआ कि एक असली मोर मंदिर में प्रवेश किया और चमगादड़ ने कहा, तुम किस तरह के पशु हो? मोर ने कहा मैं एक मोर हूँ। चमगादड़ ने जवाब
दिया, तुम पर भरोसा कैसे करें? तुम धोखेबाज हो! यह मूर्खता क्या है? मोर ने कहा, मैं
एक मोर, एक मोर का बेटा हूँ और देवी सरस्वती की
गाड़ी खिचने का कार्य हमारी जाति में वंशागत रूप से करती है। चमगादड़ ने कहा तू
झूठा है और झूठे पुत्र है;
क्या तुम देवी से बेहतर जानते हों? और उन्होंने मवेशी को मंदिर से बाहर निकाल दिया
और वैसा ही सम्मान उल्लू किया, जैसा
कि पहले, उल्लू की पूजा करते थे। अर्थात यह
संसार में जीने का मार्ग हैं जहाँ पर उल्लू को मोर बताया जाता है और लोग उसको ही
मोर समझ कर पुजते हैं और सच्चे मोर को लोग धूर्त समझ कर अपने शरण से दूर भगा देते
हैं।
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know