राजा : तिमन (नाटक कहानी के रूप में) : विलियम शेक्सपियर
जैसे कुछ लोग अपनी कंजूसी के लिए प्रसिद्ध होते हैं, उसी प्रकार कुछ लोगों को फिजूलखर्ची में महारत हासिल होती है। ऐसे लोगों में एथेंस नगर के राजा तिमन का नाम भी सम्मिलित था। उसकी गिनती ऐसे उदार लोगों में होती थी जो धन को पानी की तरह बहाया करते थे। एक अशर्फी के स्थान पर वह सौ अशर्फियाँ और सौ अशर्फियों के स्थान पर हजार अशर्फियाँ लुटाता था। इससे भी उसे संतोष नहीं था। वह अकसर सोचा करता कि ईश्वर ने उसे दो हाथ क्यों दिए? उसके हजार हाथ होने चाहिए थे। वह इतना धन लुटाता था कि लेनेवाले थक जाते थे, लेकिन उसका हाथ नहीं रुकता था। जहाँ शहद होता है, वहाँ मधुमक्खियाँ आ ही जाती हैं। कुछ ऐसा ही तिमन के साथ हुआ। उसकी दरियादिली देखकर उसके आस-पास चापलूसों की भीड़ लग गई। ये लोग उसकी चापलूसी कर अपना उल्लू सीधा करते रहते थे।
राज्य में अनेक लोग ऐसे भी थे, जो वर्षों से निर्धनता का जीवन जी रहे थे। लेकिन तिमन की चापलूसी करके कुछ ही दिनों में उनकी गिनती धनवानों में होने लगी थी। जो व्यक्ति फिजूलखर्ची में विश्वास करते थे, तिमन उन्हें बहुत पसंद करता। उसका दरबार भी फिजूलखर्च करनेवाले लोगों से भरा पड़ा था। जो जितना अधिक फिजूलखर्च था, तिमन उसे उतना ही उदार समझता था। वह कितना मूर्ख और अक्ल का अंधा था, इसका पता इस बात से ही चलता है कि उसका प्रधानमंत्री एक ऐसा व्यक्ति था जिस पर अनेक लोगों का कर्ज चढ़ा हुआ था। वह निन्यानबे नाइयों से मुफ्त में हजामत बनवा चुका था।
उपप्रधानमंत्री की चापलूसी की भी कई बातें प्रसिद्ध थीं। कहते हैं, उसने पहली बार दरबार में आकर तिमन को सलाम किया और उसे एक छंद सुनाया। इसमें उसने तिमन की दयालुता, दानवीरता और दरियादिली की भरपूर प्रशंसा की थी। इस चापलूसी भरे छंद को सुनकर तिमन वाह-वाह कर उठा। उसने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ा और उसे उपप्रधानमंत्री की कुरसी पर आसीन कर दिया।
तिमन के दरबार में ऐसी घटनाएँ प्रतिदिन घटती रहती थीं। जरा सी चापलूसी के बदले कई भिक्षुकों को उसने अपना दरबारी बना लिया था।
एक बार की बात है। तिमन दरबार में बैठा था कि तभी वहाँ एक युवक आया और फरियाद करते हुए बोला, "महाराज की जय हो! महाराज, मेरा नाम कड़का है। मैं एक सेठ की बेटी से प्रेम करता हूँ और उससे विवाह करना चाहता हूँ। उसकी शर्त है कि वह अपनी बेटी का विवाह उसके साथ करेगा जो उससे अधिक धनवान् होगा, जिसके पास सुख के सभी साधन होंगे। किंतु महाराज, मेरी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि शर्त पूरी करने की बात तो दूर, मैं अपना भरण-पोषण भी ठीक से नहीं कर सकता। अब आप ही मेरी सहायता कीजिए। मैं बड़ी उम्मीद लेकर आपके पास आया हूँ।"
तिमन प्रसन्न होकर बोला, "वाह नौजवान, क्या दिल पाया है तुमने! तुम्हारे साहस की मैं दिल से प्रशंसा करता हूँ। तुम्हारे लिए मैं अपना सारा खजाना और राज्य लुटाने को तैयार हूँ। जाओ, तुम्हें जितना धन चाहिए, खजांची से ले लो और धूमधाम से विवाह करो। तुम्हारे विवाह में किसी प्रकार की कोई अड़चन नहीं आएगी। विवाह के बाद तुम मेरे पास अवश्य आना। मुझे तुम जैसे साहसी और उदार लोगों की बहुत आवश्यकता है।"
आज्ञा पाते ही युवक उसी समय खजांची के पास गया और भरपूर धन लेकर चला गया।
यह अकेली ऐसी घटना नहीं थी। ऐसे हथकंडे अपनाकर न जाने अब तक कितने फकीर और निर्धन मालामाल हो चुके थे। स्थिति यह थी कि खजाना दिन-प्रतिदिन तेजी से खाली होता जा रहा था।
एक बार दूसरे देश का एक व्यापारी दरबार में उपस्थित हुआ। उसने तिमन को एक घोड़ा भेंट किया। चूँकि तिमन राजा था, इसलिए वह भी उस व्यापारी को उपहारस्वरूप कुछ देना चाहता था। उसने खजांची को पचास हजार रुपए लाने की आज्ञा दी।
खजांची हाथ जोड़कर बोला, "महाराज, निरंतर लोगों को दान देने के कारण राजकोष पूरी तरह से खाली हो चुका है। पचास हजार तो क्या, इन्हें देने के लिए इस समय उसमें एक रुपया भी नहीं है।"
"क्या बकते हो? राजकोष खाली कैसे हो गया? इस व्यापारी को भेंट में अब हम क्या देंगे?" तिमन ने चौंकते हुए कहा।
वह कुछ देर तक माथे पर हाथ रखकर सोचता रहा। फिर उसके होंठों पर मुसकान उभर आई। वह अभिमान से भरकर बोला, "ठीक है, तुम इसी समय शाही संपत्ति का कुछ अंश बेच दो। उससे जो धन प्राप्त हो, उसे इस व्यापारी को हमारी ओर से पुरस्कारस्वरूप प्रदान किया जाए।"
खजांची हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक बोला,"क्षमा करें, महाराज! शाही संपत्ति का अधिकांश भाग पहले ही जरूरतमंदों और याचकों में दानस्वरूप बाँटा जा चुका है। अब शाही संपत्ति का इतना भी टुकड़ा नहीं बचा कि उसे बेचकर व्यापारी को पचास रुपए भी दिए जा सकें।"
"नहीं! क्या शाही संपत्ति का इतना भाग बेचा जा चुका है?" तिमन पुनः चौंकते हुए बोला।
तिमन धर्मसंकट में फँस गया। वह व्यापारी को पचास हजार रुपए देने की घोषणा कर चुका था। इसलिए बहुत सोच-विचार के बाद उसने खजांची से कहा, "जाओ, नगर के किसी भी धनी से पचास हजार रुपए का ऋण लेकर इस व्यापारी को मेरी ओर से दे दो। मेरा नाम सुनकर कोई भी धन देने से इनकार नहीं करेगा।"
खजांची सर्वप्रथम नगर के प्रसिद्ध अमीर के पास गया। उसका नाम लूशियस था। खजांची ने उसे सारी बात बताकर ऋण देने के लिए कहा। लूशियस होंठों पर कुटिल मुस्काराहट लाते हुए बोला,"यह मेरा सौभाग्य है कि महाराज ने मुझे इस तुच्छ सेवा के लिए चुना। उनका कार्य करके मुझे अपार प्रसन्नता होती, परंतु आपने आने में देर कर दी। आज ही मैंने अपना सारा धन व्यापार में लगा दिया है। इस समय देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं उनके उपकारों के बोझ तले दबा हुआ हूँ, लेकिन चाहकर भी उनके लिए कुछ नहीं कर सकता। आप उनसे मेरी ओर से क्षमा माँग लेना और कहना कि जैसे ही मेरे पास धन आएगा, मैं उसे लेकर स्वयं उनकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा।"
लूशियस ने बहाना बनाकर खजांची को विदा कर दिया।
खजांची एक दूसरे सेठ के पास गया। यह सेठ पहले बहुत निर्धन था। तिमन की चापलूसी करके आज वह नगर का धनी बना हुआ था। ऋण देने की बात सुनते ही मानो उसे साँप सूंघ गया। वह खजांची से बोला, “मित्र, मेरे पास भला इतना धन कहाँ है? मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता। आप राजा साहब से कह देना कि मैं घर नहीं था। आपकी बड़ी कृपा होगी।"
इस प्रकार एक-एक कर खजांची नगर के सभी अमीरों के पास गया और उनसे सहायता की प्रार्थना की। लेकिन कल तक जो तिमन की जी-हुजूरी किया करते थे, आज उन्होंने उसकी ओर से मुँह फेर लिया था। अंत में थक-हारकर खजांची दरबार में लौट आया।
"सेवक, तुम ऋण ले आए? मेरे किस प्रिय ने धन दिया है?" तिमन ने प्रश्न किया।
खजांची थके स्वर में बोला,"महाराज, सर्प केवल डस सकते हैं, उनसे मित्रता या उदारता की उम्मीद करना मूर्खता है। मैंने नगर के प्रत्येक धनी का द्वार खटखटाया, लेकिन कोई भी सहायता के लिए तैयार नहीं हुआ। सभी के पास कोई-न-कोई बहाना तैयार था। ऋण का नाम सुनते ही सभी ने मुँह मोड़ लिया।"
"क्या कह रहे हो तुम? होश में तो हो? किसी ने भी तुम्हें ऋण नहीं दिया? सबने आँखें फेर ली?" तिमन आश्चर्य से बोला।
"जी महाराज! सब भाग्य का खेल है।"खजांची ने सिर झुकाकर उत्तर दिया।
तिमन के पैरों तले मानो जमीन खिसक गई हो। क्रोध की अधिकता से उसकी आँखों में खून उतर आया। वह हाथों में तलवार लेकर एक-एक का सिर काट डालना चाहता था। उसका दिल बार-बार चीख रहा था, मेरे टुकड़ों पर पलनेवाले लालची कुत्तो! क्या मेरे उपकारों का यही बदला है? क्या इसी दिन के लिए तुम मेरी चापलूसी, मेरी खुशामद किया करते थे? क्या मेरे लिए कहे जानेवाले तुम्हारे प्रशंसायुक्त शब्द मात्र धन हथियाने के साधन थे? मैंने अपना सारा धन तुम पर न्योछावर कर दिया, किंतु तुम ऐसे दगाबाज निकले कि मुझसे ही आँखें चुराने लगे। मैं तुम्हें इसकी सजा अवश्य दूँगा। तुम्हें इतनी आसानी से क्षमा नहीं करूँगा।'
यह सोचकर तिमन सिंहासन से उठा और अपने कक्ष में चला गया।
दो दिन बाद नगर में उत्सव का-सा वातावरण था। नगर के सभी धनवान् बड़े उत्साहित थे; प्रसन्नता उनके चेहरों से टपक रही थी। आखिर प्रसन्न क्यों नहीं होते, महाराज ने उन्हें दावत पर जो आमंत्रित किया था। इसकी घोषणा एक दिन पहले ही हो चुकी थी। इस आमंत्रण से चापलूसों की बाँछे खिली हुई थीं। चापलूसी करके तिमन से धन प्राप्त करने का उन्हें एक और सुनहरा अवसर मिल रहा था। वे बेसब्री से दावत के दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे।
इस दावत में नगर के धनिकों के साथ-साथ तिमन के मित्र और पुराने दरबारी भी आमंत्रित थे। इनमें वे लोग भी सम्मिलित थे, जिन्होंने तिमन को ऋण देने से इनकार कर दिया था।
निश्चित समय पर अतिथि एक-एक कर अतिथिशाला में एकत्र होने लगे। उन्हें उम्मीद थी कि स्वभाव के अनुसार तिमन उन्हें कीमती उपहारों से सम्मानित करेगा, रत्न-आभूषण प्रदान करेगा। जिन्होंने ऋण देने से इनकार किया था, वे सोचने लगे कि 'कल यदि हम थोड़ा धन देकर तिमन की सहायता कर देते तो आज हमें सबसे अधिक उपहार प्राप्त होते।' उन्हें इस बात का मलाल था।
कुछ परस्पर परामर्श करने लगे,“तिमन को प्रसन्न करना बहुत आसान है। उसे कीमती ईरानी कालीन अथवा एक अरबी घोड़ा उपहार में देकर दो-चार तारीफ के शब्द बोल दो। बस, इतने से ही खुश होकर वे कल की सारी बात भूल जाएँगे और हमें मालामाल कर देंगे।"
अभी बातचीत का दौर चल ही रहा था कि तभी कक्ष में तिमन ने प्रवेश किया और आसन पर आकर बैठ गया। फिर उसका संकेत पाकर नौकर हाथी दाँत की विशाल मेज पर भोजन की तश्तरियाँ और प्यालियाँ लाकर रखने लगे। व्यंजनों के सभी बरतन कपड़ों से ढके हुए थे। उपस्थित अतिथिगण कपड़ों से ढके इन बरतनों में स्वादिष्ट व्यंजनों की कल्पना कर रहे थे। मसालेदार पुलाव, कबाब, मिठाइयाँ, शराब आदि के बारे में सोच-सोचकर उनके मुँह में पानी आने लगा। उनकी भूख बढ़ने लगी।
तिमन ने भोजन आरंभ करने का संकेत किया। अतिथियों ने शीघता से कपड़े हटाकर बरतनों को अपनी ओर खींचा। लेकिन भोजन की ओर देखते ही वे ठिठक गए। उनकी आँखें फटी-की-फटी रह गई।
सोने-चाँदी के बरतनों के स्थान पर प्रत्येक अतिथि के सामने मिट्टी की दो-दो प्यालियाँ रखी हुई थीं। उनमें से एक प्याली में हड्डी और दूसरी प्याली में थोड़ा सा पानी था। सभी अचंभे से तिमन की ओर देखने लगे।
तिमन अपने आसन से उठा और चिंघाड़ते हुए बोला,"तुम सब रुक क्यों गए? भोजन क्यों नहीं करते? जब मेरे पास खिलाने के लिए स्वादिष्ट भोजन था, तब तुमने पेट भरकर खाया। लेकिन आज जब मेरे पास केवल ये हड्डयाँ और पानी हैं तो इन्हें खाने से पीछे क्यों हट रहे हो? खाओ इन्हें और अपनी भूख शांत करो।"
आज तक तिमन का यह रौद्र रूप किसी ने नहीं देखा था। वे समझ गए कि यह उनकी कृतघ्नता का असर है। उन्होंने नजरें नीची कर ली और जहाँ अवसर मिला, उठकर भाग गए।
यह तिमन की अंतिम दावत थी।
इस घटना ने तिमन को गहरे शोक, निराशा और हताशा के गर्त में डुबो दिया। हर व्यक्ति उसे स्वार्थी नजर आने लगा। उसे सबसे घृणा हो गई। अंतत: उसने इस बनावटी और स्वार्थी दुनिया को त्यागने का निश्चय कर लिया। एथेंस में एक भी पल रुकना उसके लिए असहनीय हो गया। वह जल्दी-से-जल्दी वहाँ से दूर चला जाना चाहता था।
उसे एथेंस से इतनी घृणा हो गई थी कि नगर से बाहर निकलते ही उसने शरीर से सारे वस्त्र उतार फेंके और नगर की प्राचीरों को संबोधित करते हुए बोला,"हे प्राचीरो! इन स्वार्थी कुत्तों की रक्षा करने की अपेक्षा तुम ध्वस्त हो जाओ। इस नगर की स्त्रियाँ एवं कुंवारी लड़कियाँ पथभष्ट और चरित्रहीन हो जाएँ; संतानें अपने माता-पिता की शत्रु हो जाएँ; लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाएँ। दरबारी पदच्युत हो जाएँ। इस नगर का विनाश हो जाए। इससे अच्छा तो वह जंगल है, जहाँ रहनेवाले जानवर इन स्वार्थी भेड़ियों से अच्छे होते हैं।"
तिमन ने नगर छोड़ने का निश्चय कर लिया था, इस बात से दरबारी अनजान थे। उनमें कुछ ऐसे भी थे, जो उसके प्रति वफादार थे। एकाएक उसके महल से चले जाने से वे चिंतित हो उठे। उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी कि स्वार्थी और धोखेबाज लोगों के दुर्व्यवहार से तिमन के दिलो-दिमाग पर गहरी ठेस लगेगी और वह सबकुछ त्यागकर चला जाएगा। वे मन-ही-मन उसके चापलूस और स्वार्थी मित्रों एवं दरबारियों को कोस रहे थे।
इन्हीं लोगों में फ्लेवियस नामक एक दरबारी भी था, जो तिमन का निकटतम और विश्वसनीय व्यक्ति था। वह बड़ा सभ्य और वफादार था। तिमन के अचानक कहीं चले जाने से वह शोकातुर हो गया और बार-बार सोचने लगा—'क्या भलाई का यही परिणाम भुगतना पड़ता है? क्या दूसरों की सहायता करना अपराध है? मेरे मालिक ने मुसीबत में फंसे लोगों की हमेशा सहायता की; आवश्यक धन और वस्तुएँ देकर उनकी जरूरतें पूरी की। लेकिन इसका उन्हें क्या फल मिला? आज उनकी इनसानियत और दयालुता ही उनकी शत्रु बन गई। न जाने वे कहाँ भटक रहे होंगे? किसी को भी उनकी चिंता नहीं है; सभी निशंचित होकर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। मैं स्वयं अपने मालिक को ढूँढंगा और आजीवन उनकी सेवा करूँगा। मैं उनका ऋण कभी नहीं चुका सकता। परंतु ऐसा करके शायद मैं अपने सेवक होने का कर्तव्य पूरा कर सकूँ।'
यह सोचकर फ्लेवियस तिमन को ढूँढ़ने निकल पड़ा।
इधर, भटकते-भटकते तिमन समुद्र के किनारे जा पहुँचा। वहाँ के शांत और सुंदर वातावरण ने उसे मोहित कर लिया। वह वहीं कुटिया बनाकर रहने लगा। भोजन के लिए वह जंगल की जमीन खोदता और कंद-मूल खाकर पेट भर लेता था।
इसके अतिरिक्त अपने दरबारियों, मित्रों और नगर के सेठों को कोसना उसका मुख्य कार्य था। उसे सबसे घृणा हो गई थी। वह उनके विनाश के लिए लगातार भगवान् से प्रार्थना करता था। उसके जीवित रहने का एकमात्र उद्देश्य था—एथेंस का विनाश। मरने से पूर्व वह उसका विनाश देख लेना चाहता था।
एक बार भोजन की तलाश में वह जमीन खोद रहा था कि सहसा उसे स्वर्ण के कुछ टुकड़े मिले। उसे देखते ही तिमन के चेहरे पर दर्द उमड़ आया। इसी स्वर्ण के लिए उसे उसके साथियों और दरबारियों ने उसे धोखा दिया था, उसके साथ विश्वासघात किया था। इसी स्वर्ण ने लोगों के बीच उसे उपहास का पात्र बनाया था। उसका मन घृणा से भर उठा। अब उसके लिए उनका कोई मोल नहीं था। स्वार्थी मित्रों और चापलूस दरबारियों को याद रखने के लिए उसने कुछ स्वर्ण अपने पास रखा और शेष पुनः जमीन में दबा दिया।
एक दिन तिमन को ढोल-नगाड़ों की आवाज सुनाई दी। आवाज की दिशा में देखने पर उसे एक घुड़सवार सैनिक आता दिखाई दिया। उसके साथ दो सुंदर स्त्रियाँ और कुछ सैनिक थे। यह सवार उसका मित्र कैप्टन एलसिविडस था, जिसे किसी बात से नाराज होकर तिमन ने ही एथेंस से बाहर निकाल दिया था।
तिमन एक आदिवासी की तरह दिखाई दे रहा था, इसलिए एलसिविडस उसे पहचान नहीं सका। साथ ही उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि तिमन उसे ऐसी स्थिति में मिल सकता है।
उसने तिमन का परिचय पूछा।
तिमन कठोर स्वर में बोला,"मैं भी तुम्हारी तरह एक दुष्ट हूँ। चले जाओ यहाँ से। मैं किसी भी इनसान की सूरत नहीं देखना चाहता।"
आवाज सुनते ही एलसिविडस तिमन को पहचान गया। उसकी ऐसी दयनीय और करुण हालत देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह पास आकर बोला,"तिमन, मेरे मित्र! तुमने यह क्या हालत बना रखी है? तुम यहाँ क्या कर रहे हो?"
तिमन दूर हट गया और गुस्से में भरकर बोला, "मुझे अकेला छोड़ दो। जाओ और जाकर एथेंस की धरती को खून से लाल कर दो। अपनी तलवार से सभी स्वार्थी लोगों के सिर काट दो!"
एलसिविडस को समझते देर न लगी कि तिमन अपना मानसिक संतुलन खो बैठा है। वह पुनः स्नेह भरे स्वर में बोला, "मित्र, तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? मुझे बताओ, मैं तुम्हारे शत्रुओं से अवश्य प्रतिशोध लूँगा।"
"मैं अपनी इस दुर्गति का स्वयं जिम्मेदार हूँ। मेरी दयालुता और इनसानियत ही मेरे शत्रु बन गए। दूसरों को देते-देते मैंने अपना सबकुछ गँवा दिया। और जब मुझे धन की आवश्यकता पड़ी तो सभी ने आँखें फेर लीं।'' तिमन आँसू बहाते हुए बोला।
उसकी दयनीय हालत देखकर एलसिविडस का मन भर आया। उसने एक थैली निकाली और तिमन को पकड़ाते हुए बोला, "मित्र, यह कुछ धन है। इसे अपने पास रख लो। जरूरत पड़ने पर यह तुम्हारे काम आएगा।"
तिमन उत्तेजित होकर बोला, "मुझे तुम्हारा धन नहीं चाहिए। दूर चले जाओ मेरी नजरों से । मैं तुम्हें देखना तक नहीं चाहता।"
"मित्र! जानते हो, इस समय मैं सेना लेकर एथेंस पर चढ़ाई करने जा रहा हूँ। जल्दी ही मैं और मेरे सैनिक एथेंस को मिट्टी में मिला देंगे।''एलसिविडस ने सोचा था, शायद यह समाचार सुनकर तिमन दुखी होगा।
परंतु तिमन के चेहरे पर प्रसन्नता उभर आई। उसने जेब से स्वर्ण के टुकड़े निकाले और एलसिविडस को देते हुए बोला, "मेरे पास यह कुछ स्वर्ण है। तुम इसे अपने सैनिकों में बाँट दो और उन्हें आदेश दे दो कि वे एथेंस में किसी को भी जीवित न छोड़ें। उनकी तलवारें एक बार उठे तो एथेंस-वासियों का नाश करके ही नीचे आएँ।"
"जल्दी ही एथेंस को जीतने के बाद मैं तुमसे भेंट करने आऊँगा।”—यह कहकर एलसिविडस सेना सहित वहाँ से चला गया।
उसके जाने के बाद तिमन पुनः जमीन खोदने लगा। तभी वहाँ एपेमेंटस नामक दार्शनिक आ धमका। वह तिमन को पहचानता था। वह उस पर व्यग्य कसने लगा। तिमन ने भला-बुरा कहते हुए उसे मारने के लिए पत्थर उठा लिया। एपेमेंटस सिर पर पैर रखकर भागा।
उधर, एलसिविडस को सेना सहित आते देख एथेंस के दरबारियों ने घुटने टेक दिए और सर्वसम्मति से उसे अपना राजा घोषित कर दिया। इस प्रकार बिना लड़ाई किए एथेंस पर एलसिविडस का अधिकार हो गया। इसके बाद उसने एक सेवक को तिमन का पता लगाने के लिए भेजा।
सेवक ने कुटिया और उसके आस-पास का सारा क्षेत्र छान मारा, परंतु तिमन कहीं भी न मिला। अंततः उसकी दृष्टि एक कब्र पर पड़ी। कब्र के ऊपर कुछ लिखा हुआ था। सेवक पढ़ना-लिखना नहीं जानता था, इसलिए उसने मोम द्वारा उस लेख की छाप उतार ली और वापस लौटकर एलसिविडस को छाप सौंप दी।
एलसिविडस उसे पढ़ने लगा। उस पर लिखा था-'इस स्थान पर एक अभागे और घृणित व्यक्ति को दफनाया गया है, जिसका नाम तिमन था। उसने जीवन भर मनुष्य और मनुष्य के नाम से घृणा की। जो भी व्यक्ति स्वार्थी, नीच और बेईमान है, महामारी उसका अंत कर दे। यहाँ से निकलनेवालो, अब तुम मुझे दुत्कारो, परंतु यहाँ रुकने की मत सोचना।'
(रूपांतर - महेश शर्मा)
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