हिंदी कविता अजय शोभने
Hindi Poetry Ajay Shobhane
1. मेरे पथ के बोधि दीप
(प्रकृति का उच्चतम ज्ञान)
मेरे पथ के बोधि दीप, तू अंधकार हर, प्रकाश
कर।
अखंड और अविरल जल, मेरा पगपग विकास कर। मेरा …
तेरे प्रकाश में सत्य और अहिंसा के पथ-चलूँ,
खुद दीपक बनकर, औरों को प्रकाशित करूँ।
परोपकारी-जीवन जियूं और सदा होश में रहूँ,
वासना के वशीभूत हो, कभी न अपचारी बनूँ।
मेरे-पथ के बोधि दीप, तू अंधकार हर, प्रकाश
कर।
अखंड और अविरल जल, मेरा पगपग विकास कर। मेरा …
प्रकृति के प्रकोप आयें, तो तू मुझे परिपक्व
कर,
लाभ-हानि, जन्म-मरण, निंदा-स्तुति
में स्थिर रहूं।
काम-क्रोध-लोभ-मोह-अहंकार के बंधन में न बंधूं,
विचलित न होंऊं कभी, निजधम्म पर आरूढ़ रहूं।
मेरे-पथ के बोधि दीप, तू अंधकार हर, प्रकाश
कर।
अखंड और अविरल जल, मेरा पगपग विकास कर। मेरा …
ओ! बोधि दीप तेरे समीप, सभी को ज्योति मिले,
धम्म के तेरे प्रताप से, हर पथिक का चेहरा
खिले।
तेरे संघ की शरण में, आत्मज्ञान को संबल मिले,
भय-मुक्त हों सभी, सभी का निर्वाण प्रसस्त कर।
मेरे-पथ के बोधि दीप, तू अंधकार हर, प्रकाश
कर।
अखंड और अविरल जल, मेरा पगपग विकास कर। मेरा …
2. संध्या की इस गोधूली में
(बाबा साहब का संघर्ष)
संध्या की इस गोधूली में, बाबा साहब याद आपकी
आ जाती है,
कितना भी रोकूं इस हृदय को, पर नयनों की गागर
भर जाती है ।
'जातिवाद' से लड़ने की
ऐसी वो अमिट कहानी है,
संघर्षों की वेदि पर बलि कर दी वही 'जिन्दगानी' है !
युगों-युगों तक याद रहेगी तेरी मूल-मंत्र सी वाणी है,
आज हवा बह बह के कहती, बड़ी संघर्ष भरी कहानी है !
संध्या की इस गोधूली में, बाबा साहब याद आपकी
आ जाती है,
कितना भी रोकूं इस हृदय को, पर नयनों की गागर
भर जाती है !
'मूल निवासी बहुजनों' की
घनीनिशा के चन्द्र आप हैं,
'भारतीय संविधान' के,
स्वर्णिम वैभव-जनक आप हैं !
विश्वज्ञानी-विधिवेत्ताओं में सौरमण्डल के सूर्य आप
हैं,
हिमालय से भी ऊंची, बाबा साहब की गौरवमयी कहानी है !
संध्या की इस गोधूली में, बाबा साहब याद आपकी
आ जाती है,
कितना भी रोकूं इस हृदय को, पर नयनों की गागर
भर जाती है !
हवा से विमुख हो, देखो वो, तूफानों से
खेल गये हैं,
मानसरोवर के हंसों में, वो परमहंस बन तैर गये हैं !
समता स्थापित कर, बुद्ध के वे बोधिसत्त्व हो गये हैं,
सागर से भी गहरी, बाबा साहब तेरी अमिट कहानी है !
संध्या की इस गोधूली में, बाबा साहब याद आपकी
आ जाती है,
कितना भी रोकूं इस हृदय को, पर नयनों की गागर
भर जाती है !
अंधकार भरे इस देश के, वो प्रकाशपुन्ज हो गये हैं,
बेसहारों के सहारा बन, वो जगत मसीहा हो गये हैं !
भारत रत्न फीका पड़ गया, वो विश्व रत्न हो
गये हैं,
विश्व ज्ञान दिवस पर, करुणामय की अमिट कहानी है !
संध्या की इस गोधूली में, बाबा साहब याद आपकी
आ जाती है,
कितना भी रोकूं इस हृदय को, पर नयनों की गागर
भर जाती है !
3. सावित्रीबाई फुले
(युवा नारी को पैगाम)
'सावित्रीबाई फुले' बन,
शौर्य को परवान दो,
नई सदी में राष्ट्र को आनबान और शान दो !
नष्ट कर दो कुत्सित भरे विचार दासता के,
जो लिंग के आधार पर मिथ्या गुमान करते !
चूर–चूर कर दो अभिमान उन दम्भियों के,
जो प्रेमबंधन में, दानदहेज की मांग करते !
अज्ञानता से जन्मी कुरीतियों को न स्थान दो,
नई सदी में राष्ट्र को आनबान और शान दो !
तुम कुचल दो विषदन्त उन नर-सपोलों के,
जो नारी को कैद कर भोगकी वस्तु समझते !
काट कर बिछा दो शीश, उन दुष्कर्मियों के,
जो घृणित दुष्कर्म से स्त्री को बलहीन करते !
तुम सशक्त हो अब नये युग को पहचान दो,
नई सदी में राष्ट्र को आनबान और शान दो !
तार-तार कर दो सफेदपोश उन लफंगों के,
जो महिलाओं के लोक लाज आवरण हरते !
पर कतर दो उन निर्लज्ज दरिन्द परिन्दो के,
जो तिल तिल घुटने को, तुम्हें मजबूर करते !
नरतंत्र को दण्डित कर निजतंत्र को प्राणदो,
नई सदी में राष्ट्र को आनबान और शान दो !
रोंदडालो अहंकार उन अहंकारी दानवों के,
जो तुम्हारे राष्ट्र नवनिर्माण में बाधक बनते !
कुकर्मियों के फोड़ दो विषघट जो भर चुके,
जो तुम्हें नरक में धकेलने का अपराध रचते !
तुम शिक्षित, संगठित हो संघर्ष का प्रमाण दो,
नई सदी में राष्ट्र को आनबान और शान दो !
4. जीवन में मधुसम प्रेम घोल
(प्रकृति-प्रेम)
जीवन में मधुसम प्रेम घोल, ऊँचे स्वर में न
इतना बोल,
अपने को न अधिक तोल, जीवन में मधुसम प्रेम घोल !
सूरज ने नित आकर, धरणी पर किरणें डाली,
पृथ्वी ने खुश हो, निजगोद में हरियाली पाली !
शीतल समीर संग, झूम उठी, फूलों की
डाली,
रे मन तू प्रकृति संग रहके, प्रेम भरी वाणी बोल
!
जीवन में मधुसम प्रेम घोल, ऊँचे स्वर में न
इतना बोल,
अपने को न अधिक तोल, जीवन में मधुसम प्रेम घोल !
सागर से भर मेघों ने, हर्षित हो पानी वर्षाया,
पर्वतों ने पीला रंग त्याग, हरितवस्त्र सजाया !
नदियों का सिंधु से, क्रिड़ा हेतु मन ललचाया,
रे मन तू प्रकृति संग रहके, सुरमयी वाणी बोल !
जीवन में मधुसम प्रेम घोल, ऊँचे स्वर में न
इतना बोल,
अपने को न अधिक तोल, जीवन में मधुसम प्रेम घोल !
मनुज प्राण देनी विटप, सुन्दर और सजीले,
जो पर हित देते फल, खट्टेमीठे और रसीले !
तू उन्हें क्यों काट रहा ? ओ मूढ़मनुज हठीले !
रे मन तू प्रकृति रक्षक बन, पेड़ों के संग डोल
!
जीवन में मधुसम प्रेम घोल, ऊँचे स्वर में न
इतना बोल,
अपने को न अधिक तोल, जीवन में मधुसम प्रेम घोल !
5. तुम्हें कुदरत ने इंसान बनाया
(इंसानियत का मार्ग)
तुम्हें कुदरत ने इंसान बनाया, इंसान ही तुमको
बनना है,
राह कठिन है सच्चाई की, और तुमको उस पर चलना है।
सहनशीलता बनी रहे जीवन में, ईर्ष्या का न भाव
रहे,
हमें मिला है, मिले सभी को, हृदय में
ऐसी चाह रहे।
कष्टकंटकों में हो कोई, तो तुम को हमदर्दी रखना है,
अहं भाव तज सुने सभी की और सहायक बनना है।
तुम्हें कुदरत ने इंसान बनाया, इंसान ही तुमको
बनना है,
राह कठिन है सच्चाई की, और तुमको उस पर चलना है।
जैसी कथनी वैसी करनी की स्पष्टता से पहचान रहे,
मिथ्या भाषी, ठग विद्या का, जीवन
में न स्थान रहे।
कठिनाइयों का करें सामना, उनसे कभी न डरना है,
जियो और जीने दो की राह चुनें, हिंसा भाव को तजना
है।
तुम्हें कुदरत ने इंसान बनाया, इंसान ही तुमको
बनना है,
राह कठिन है सच्चाई की, और तुमको उस पर चलना है।
सलाह किसी को दो तो, उसके हित का भाव रखें,
भरोसेमंद रहो इतना कि, तुम पर सब विश्वास करें।
सलाह किसी की लो, पर ध्यान के साथ चलना है,
चाल चलन हो सूरज सा और सूरज सा ही ढलना है।
6. जिसके चरण-चरण
(बुद्ध
मुझे, अंधकार से निकालें)
जिसके चरण-चरण हों, करुणा से गर्वित,
मुझको बस ऐसा, सम्यक सम्बुद्ध चाहिए !
छला गया हूँ, अंधश्रद्धा-अंधविश्वासों से,
बस अब तो सत्य-मार्ग का ज्ञाता चाहिए !
शील, समाधी, प्रज्ञा, से भवन हो निर्मित,
मुझको अपना वो, स्वर्णिम तीर्थ चाहिए !
जिसके चरण-चरण हों, करुणा से गर्वित,
मुझको बस ऐसा, सम्यक सम्बुद्ध चाहिए !
भेद-भाव ने किया है कलुषित मेरे चित्त को,
समता स्थापित करने वाला, वो धम्म चाहिए !
अहिंसा सदाचरण विद्या हो आभूषण जिसके,
मुझको बस ऐसा अपना आराध्यदेव चाहिए !
जिसके चरण-चरण हों, करुणा से गर्वित,
मुझको बस ऐसा, सम्यक सम्बुद्ध चाहिए !
नहीं मिला कभी किसी को सुख शान्ति पथ,
अस्त्र-सस्त्र, धनुष-वाण और बम-बारूदों से !
फूल खिले हैं हरदम करुणा मैत्री भाईचारे से,
बैर अबैर से मिटा सके, ऐसा वो देव चाहिए !
जिसके चरण-चरण हों, करुणा से गर्वित,
मुझको बस ऐसा, सम्यक सम्बुद्ध चाहिए !
7. मरे-मरे से तुम जीते हो
(जीवन जीने की कला)
मरे-मरे से तुम जीते हो, है अभी तो मौसम
हरा-भरा !
जीवन जीना सीखो उनसे, जिनका जीवन संघर्ष भरा ……
ग़ुलाम बने हो क्यों अभी भी, अब तो बंधन टूट
चुके हैं,
जातिवाद न पैर पसारे, मनुस्मृती के पन्ने जले पड़े हैं !
जली हुई रस्सी को सांप समझते, ये अज्ञान तुम्हारा
है,
मूल मंत्र है, बाबा साहब का, शिक्षित
होकर संघर्ष करो ……
मरे-मरे से तुम जीते हो, है अभी तो मौसम
हरा-भरा !
जीवन जीना सीखो उनसे, जिनका जीवन संघर्ष भरा ……
देख फसल पक चुकी है, उठ चलो अब तो काट लें,
अब तो राह मिल गयी है, चले चलो मंज़िल नाप लें !
विधर्म को भी धर्म समझते, बस ये अज्ञान
तुम्हारा है,
मूल मंत्र है बाबा साहब का, संगठित हो संघर्ष
करो ……
मरे-मरे से तुम जीते हो, है अभी तो मौसम
हरा-भरा !
जीवन जीना सीखो उनसे, जिनका जीवन संघर्ष भरा ……
विचार वदलो, तुम बदलोगे, ये संघर्ष
का नारा है,
संघर्षों में जीना सीखो, ये जीवन धर्म-
तुम्हारा है !
हिंसा करना संघर्ष समझते, ये अज्ञान तुम्हारा
है,
मूल मंत्र है बाबा साहब का, संघर्ष करो संघर्ष
करो ……
मरे-मरे से तुम जीते हो, है अभी तो मौसम
हरा-भरा !
जीवन जीना सीखो उनसे, जिनका जीवन संघर्ष भरा ……
8. एक अबोध बच्ची
(बर्बरता)
एक अबोध बच्ची ने,
अपना बचपन गुजारा,
पूजकर पत्थर के देवता को,
जिसे कभी तराश कर बनाया था,
उसके पिता ने अपने हाथों से,
और आज, उसी देवसन्तान ने,
मानवता को शर्मसार कर,
चीतकार भरे आकाश में,
पत्थरों से सिर मारती बच्ची को,
मानवता रक्तरंजित कर,
बनाया अपनी हबश का शिकार,
उसकी एक-एक साँस घुटती रही, और
वह घुट-घुट कर हर पल मरती रही,
अरे सतयुग के रावण,
तू ने सीता को छुआ नहीं,
और कायरों ने तुझे,
तुझे जलाया हजारबार,
और अब कलयुगी रावण को,
दण्डित करने के लिए,
थर-थर कांप रहीं भुजाएं,
56" सीना वाले राम की,
भारत शर्मसार है जैसे,
युधिष्ठिरी शासकों के समझ,
द्रोपदी का चीरहरण हुआ हो,
लगता है भारत में अच्छे दिन आ गए,
राम-राज और धर्म-राज दोनों छा गए !
9. सागर में मोती भरे-पड़े हैं
(लक्ष्य प्राप्ती की दिशा)
सागर में मोती भरे-पड़े हैं, पर वो कितनों को
मिल पाते हैं ?
जो तैर - डूबता-उतराता है, बस वे मोंती उसके
हो जाते हैं !
एवरेस्ट की चोटी छूने, कितनों के मन ललचाते हैं,
उनमें से न जाने कितने ही, सोच-सोच रह जाते
हैं !
पुरुषार्थ बिना इस जग में, नाम न कोई कर पाते
हैं,
प्रयास कर न हुए सफल, दे भाग्य-दोष रह जाते हैं !
सागर में मोती भरे-पड़े हैं, पर वो कितनों को
मिल पाते हैं ?
जो तैर - डूबता-उतराता है, बस वे मोंती उसके
हो जाते हैं !
उनमें से जो शोधी होते, पथ छोड़ नहीं वे जाते हैं,
साहसी होकर धैर्य वे रखते, फिर आगे बढ़ जाते
हैं !
लक्ष्य पाने का संकल्प उठा, कर्मभूमी में डट
जाते हैं,
कठिन परिश्रम के बल पर, विजय श्री वे पा जाते हैं !
सागर में मोती भरे-पड़े हैं, पर वो कितनों को
मिल पाते हैं ?
जो तैर - डूबता-उतराता है, बस वे मोंती उसके
हो जाते हैं !
10. तुम कहोगे यही ?
(ईश्वरवादी सोच अवैज्ञानिक)
तुम कहोगे यही ? मैंने तुम्हें ठीक से पुकारा नहीं होगा !
बहुत सुना जग में, चीरहरण पर तुम आ जाते हो,
पर मेरी आबरू लुटती रही, और तुम आये नहीं हो
!
तुम कहोगे यही ? मैंने तुम्हें ठीक से पुकारा नहीं होगा,
पर मैं कहूंगी, अब तुम ठीक से धर्म निभाते नहीं हो !
तुम कहोगे यही ? मैंने तुम्हें ठीक से पुकारा नहीं होगा !
बहुत सुना जग में, अग्नीपरीक्षा पर तुम आ जाते हो,
पर मैं जलती-तड़पती रही, फिर भी तुम आये
नहीं हो !
तुम कहोगे यही ? मैने तुम्हें ठीक से पुकारा नहीं होगा,
पर मैं कहूंगी अब यही, तुम भरोसे के लायक नहीं हो !
तुम कहोगे यही ? मैंने तुम्हें ठीक से पुकारा नहीं होगा !
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