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बोधिसत्व (खण्डकाव्य) करन कोविंद Bodhisattva (Khand-Kavya) Karan Kovind

 बोधिसत्व (खण्डकाव्य) करन कोविंद

Bodhisattva (Khand-Kavya) Karan Kovind


नमन करताबुद्धं शरणं गच्छामि,

ध्मंधं श शरणं गच्छामि,

संघं शरणं गच्छाछमि।"

"मद्यं शरणं गच्छामि,

मांसं शरणं गच्छामि,

डांसं शरणं गच्छामि।"


नमन करता प्रभु नमन प्रथ्वर

सुने प्रभु प्रभा कलरव

सुने प्रभु उर कि विलरव

जगत्प्रात सर्वोसत्व प्रथ्व

सुन्दर गर्जितमय तथ्य

धर्म पूर्ति नमन प्रथ्य

सुने प्रभु विभा गुंजार

गायेगा संसार सत्वर


अपनी ग्यानोदय सर्वभाव

प्रभु धर्म कर गये निर्वाण

निर्वाण निर्वाण निर्वाण

आपकी ग्यानज्योत गर्जित

हिंदू धर्म किया सृजित

प्रवाण प्रवाण प्रवाण


आपने प्राप्तकर समृध्द

गीत गाये धृत धर्म वृध्द

शरण में जाते प्रत्येक

शरण को पाते अनेक

कल्याण कल्याण कल्याण

होता सतत कल्याण

नमन प्रभु करता नमन सत्वर


प्रातः काल माया स्वप्न में खोयी

प्रभा हुयी पर ठीक से न सोयी

कुछ अदृश्य विवेचन भरमायी

छहदंती स्वेत हाथियो आयी

ब्रम्ह सी रजत पुष्प सा अनुराग

ज्वाला सी बिजली प्रथम आग

माया की कोख अंतर में समाया

कम्प कम्प कम्पित भव काया

ज्वाला मुखी उजागर गुंजार

पत्थरों कि ढाल फूटे अंगार

आकाश में विपुल तडित तांडव

अहे पूर्णोदय सूर्य प्रभा न हुआ

प्रकाश में दिनकर का नर्तन

छाने लगी मेघ छाया विवर्तन

धूप में भी करूणा का आभास

लहर नीर में उतकंण्ठा उच्छास

झंझाये चलती पैर पसारती

कुंजो की नित दशा निखारती

क्या हो रहा यह कैसा उद्घोष

आज होगा जग में कुछ विशेष

नर्म कोमल खिलती कलियां

बाग में सिहर उठी वल्लरियां

धूप को सेंकती चारों दिशाये

वाह झकझोरती तरु लताऐ

पत्थर भी चूर होकर नीर होते

प्रेम से मधुकर मधुधीर खोते

क्या कभी ऐसा भी होता है

पृथ्वी भी किस लिये न सोता है

प्रतिपल आह्वाहन संदेश देता

प्रतिपल पहर मरु सेक देता

कौन जिसका हुआ सर्वोउदय

कौन है जो सृष्टि धर्मोभ्युदय

उसकी प्रभा सकल सृष्टि दीपित

धर्म कि आभा प्रज्जवलित

वह बिन शश्वत धर्म के निर्मूल

वह जन्म ले रहा वृक्षधर कूल

फूलों कि सेजों ने बिखेरा दूकूल

पत्तो ने बनाया धरा मुकूल

पलास कि ठंण्डी शीतल छांव

एक बुध्दगाथा कि सर्वोउद्भव

अलग ही रोष था कल्लार सी

माया कोख से जन्मा धर्म रिषी

उस एक विपुलता मानव गाथा

रोज गाकर पूरी न हो कथा

देखकर शिशु बालक कराह

धीर अधीर धर उमंग अथा

कहती प्रकृति से महामाया

रखना सदा अपने छत्रछाया

अलग न इससे तुम होना प्रिय

प्रकृति कृत बुद्ध पालन कनुप्रिय

जन्म लेकर बढ़ाया सात कदम

कुसुम निलय उपजे नव उद्दम

प्रकृति ने मान पुत्र अपनाया

झराझर मधुबूंद शुधा झराया

डाल प्रेम प्रवांजन कर झुकाया

तलधरा चीर अंक प्रवाह किया

नीर वलय प्यास बुझा दिया

पल पल मुंस्कुराती अट्टालिका

नव धर पर फूटी यौवन कलिका

वह विधुत प्रवर सर्वबुद्धिमान

धर्म बीज बसता बुद्ध सम्मान


यह गीत गाती माया

गीतयह जग का दुलारा पुत्र हमारा

इसको देना तुम अपने

आंचल का कण कण प्रेम पसारा

यह तुम्हारा जग का प्यारा

हे वृक्ष तुम रखना इसपर सदा

पलास कि कोमल छाया

यह जग का प्यारा लाल हमारा

जब जब हो गर्म अवसाद

ऐ वायु बहाना इसपर एक कोमल प्रवाह

बरसाना हे बादल मुक्ता कण की बौछार

ऐ कनक तीर के मुख से जब आवेगी लौह संचार

प्रकृति तुम अंत तक करना मेरे पुत्र पालन प्रलाप

सुनती रही मौन करूणा कलाप

मौनता में उसकी प्रेम प्रलाप

प्रकृति ने भी पुत्र को स्वीकारा

माया का पुष्प वर्षा मन हर्षाया

हे आकाश से यह संदेश आया

बादल‌ घटा विकराल रुप दिखाया

माहामाया का तन मन भीन होता

शिशु कलरव हंसता ही रहता

और फिर सहसा अंधेरा छा गया

प्रदिप्त प्रकाश आलौकित हो गया

महाराजा,जब चरो का संदेश सुना

दासों को जाने का आदेश दिया

है सजी धजी सुशोभीत पालकी

जिसकि कडे चमकती है सोने सी

उस पालकि में अथाह सभार है

पड़ जायेगे कदम बुद्धिमान के

नाम भी उज्जवलित हो जायेगा

गाथा भी उद्धेलिखित गायी जायेगी

जन्म प्रात महामानव की सवारी

जायेगी जानी सुशोभित पालकी

कंधो पर लिया चरो ने उसे उठा

लायेंगे महामाया पुत्र को बिठा

अभ्युदय है एक महामनव का

अभ्युदय है एक पुत्र महामाया का

संसार के चिर का हो रहा उदय

भाप लेता कोसों से जो प्रलय

जब संध्या को गीत वादन हो रहा

राज्य के सभी जन मुग्धमग्न थे

उठाते लुत्फ प्रजाजन दिव्यता हर्ष

बालक जन्म कि उत्सव का सहर्ष

झूमती है वसुंधरा कि कण कण

झूमती है कलाकृति वस्तु पाषाण

झूमती है जीवन अंतराल व्यग्न

जीवन में प्रफुल्लता जीवन मग्न

यह सब संकुचित विमर्श में हो रहा

एक महापुरूष आसित आ रहा

आया स्वेत केश वाले आसित गुरु

संत से निर्दिप्त प्रकाश हो जाये

एक हुंकार से अमृत बौछार हो जाये

वो मुकुल प्रणयमान संत आया

स्वर्ग आती ध्वनि को भी सुनलेते

सीपी से उलझे मोती को बुनलेते

जाकर जन्म बालक को प्रणाम किया

शीश झुकाकर सभी ने स्वागत किया

फिर यथावत राजा से कहने लगे

हे राजन ये पुत्र तेरा श्रृष्टि धारक

आप का कृपा को अनुकूलित वाचक

मैं सदा से प्रतीक्षा का था आतुर

आ गया सर्वजता से वो पहर

माथे पर चढ़ा पांव आपके नमन

हे प्रभु आप को शत शत वंदन

फिर एकाएक प्रणय झंकार उठी

प्रकाश कि मर्मता में मरु तार उठी

इस तेजस्वी बालक का जन्म प्रात

माया सह ने सकेगी उत्थान भार

सात पहर के अंत होगी मृत अंतर

माया को जाना होगा स्वर्गपथ पर

यह सुन‌सब चकित दिन दमन

राजा के उड़े होश निराश मन

सत्य माता सिधार चली परलोक

यह धरा पर पालेंगे मौसी आलोक

फिर माता गौतमी और यशोधरा

प्रकृति गौतमी पालड़ी वंसुधरा

पर जो वादा प्रकृति ने कर रखा है

उस क्षण भी व्यकुल मन करता है

अब नहीं कब मिलेगा सौभाग्य

रखूंगी छाया वृक्ष खिलाऊंगी साग

बस प्रतीक्षा प्रकृति कर रही

और आयेगा वो मधु बुद्ध का दिन

जब लिपटकर बुद्ध वट वृक्ष

मन में एक व्यथित चिंता कढी

राजा कि ललाम कुछ लोहित हुयी

विश्राम में भी व्यथा कि शोक

पुत्र होगा वैराग्य याकि राजाभोज

तल धरा वर वरिद धर धीर

सब विटप में डूबे थे अधीर

प्रवाचन किंचित विचार सुमधुर

तक्षशिला पर न बजती रूनझुन

अजीब कंजकूल शाम दिवसान

सब दिशाओं में शोक प्रवमान

एक अतापु भर से सम्मुज्जवल

और खुशीदीपों से प्रज्जवल

दीवारो लताओ में लटके पुष्कर

चारों तरफ कूल का बौछार

चंद्रधर स गुलाबी फूल बरसे

चपल चंचल प्रकाश चमके

आतापु में भ्रमित स्वेत स्वान

आकाश कि पुंज में संतरंगता

धरा पर कोमल कलीन रमणीयता

कंचों कि लक्ष्यी प्रवेश सजी शिला

बगीचों में नव पुष्पों को होना खिला

एक तनिक न शोक का भी नाम हो

महल मे प्रशन्नता न अभिराम हो

ऐसा महल का निर्माण करे हे

जहां कामधेनु सदा समृद्ध ठहरे

जहां वैश्राग्य को कुछ न हो प्रपत्र

जहां चंचल दासियों का हो धरित्र

उस राज में फैलाती रहे वाह पवित्र

क्रोध ईष्या लोभ मीथ्या कुछ न हो

यहां तक की दोष दुःख रोष न हो

संसार कि सारी प्रपत्र चाहिए

उस महल में खुशी होनी चाहिए

कोई अगर आते दुखित व्यक्ती

उस पर लगाने दोगुनी सख्ती

कोई न लंगड़ा टहलना चाहिए

कोई न‌ भिखारी रोना चाहिए

चिंता से लालायित राजा ने

पुत्र को खुशियों से भर दिया

महल में सुन्दर नारीओ को

हर एक कार्य संभाल लिया

प्रस्तुत वहा के कुछ उच्छवाल

प्रस्तुत वहा की कुल व्याल

प्रस्तुत सतावत सभी संस्करण

एक पुकार पर प्रस्तुत प्रकरण

स्वर्ग सी सम्पुष्ट प्रकृति

स्वर्ग सी स्पष्ट द्वितीय दृव्य

स्वर्ग सी दिखती कण कण

वैसी तल सी मोहक भव्य

कपिलवस्तु का आद्वितीय

कपिलवस्तु में प्रकाशित

कपिलवस्तु से सम्मानित

उसकी छवि अविस्मत

हिय में एक संवेदना थी प्रबल

पुत्र बनेगा चक्रवर्ती सम्राट

इस लिए अब चले करने भ्रमण

और घुमेगे प्रजा के द्वार घाट

तीर तक बहती चलेगी राज रथ

वृक्ष पंथों को सुसज्जित कर दीया

गुलाब जल के इतर छिड़का दिया


चल पड़े राजा राज्य भ्रमण


राज्य में लहलहाते खेत को

और धरा पर उगती नव बसंत

दिख दिखा कर मंजु गुंजित पहर

नव तल नव भव मधु यौवन

कुछ परिपक्य होता मन अमंत

बागों वीहंगम फूल कंचन प्रखर

शोभा सांमत कुंच धर चमन

दीखला कर मोहक साथ सज्जा

करते भ्रमित महामानव देह को

पर मनुज पर कभी प्रभाव क्याए

जो लिखा भार पर मिटा क्या

स्वर्ग चाहें कि धरा पर उतार लाओ

या कि कनक कि संभाल लाओ

है चाहता जो दृढ़ता से मनुज मन

पाया भवीष्य के अर्द्ध अंत

आशोक उत्सव का हुआ पर्दापर्ण

सुन्दर राजभुवन का दर्पण

लाल लाल थी कालीन बीछि

शोभा कि अरूण मंजीर खीची

सर सर लहराते खादी परदे

सुर प्यालो में मोद चहकते

नव सज्जा मधुर संगीत बजा

दरबार में कन्याओ का ओढ़ लग

बगल खड़ी सुनहरी कन्याऐ

मन मोहती रूप तनरुप हर्षाये

कनक कीट भी भीन हो जाता

दरबार सकल सुफल हो जाता

उन बालाओं कि अदाओं से

किरिट निकालती दरारों से

मदमस्त नेत्रो कि कुशलित

भ्रमण नेत्रो कि स्वभीत पुलकित

सोलह श्रृंगार कर आती सब

एक एक कर प्रेम बरसाती सब

पर एक पर जो नेत्र प्रवाह पड़ी

समक्ष सुन्दर यशोधरा खड़ी

एक नज़र में मन प्रेम बयां

यशोधरा संग मन विरह हो गया

देखकर बुध्द को थोड़ा लजाई

तन मन से संकुचित पजाई

बुद्ध को अपना प्रभु मान कर

गले प्रेम कि माला डालकर

मान प्रभु वर जीवन साथी

दोनों बने एक रथ के सारथी

चलेंगे साथ जीवन पथ पर

कि छूट जायगा पंथ टूटकर

साथ चलने का लिया वचन

पर क्या होगा निवारण वादन

जिनके थे नीरव अपलक

तनिक झपकी बुद्ध कि पलक

देख देख मन मोहित होता

दोनों के तन-मन पीड़ा खोता

आज दो नदी प्रवाह एक हो जाये

साथी चलो अपना हाथ बढाये

नयन से नयन नित उलझे

काले गाढ़े बादल कि सी सुलझे

कोस प्रांत प्रवेश करता अंतर

पर देख सकी न वह कलांतर

यशोधरा भाग मे दुख संताप

आयेगा कुछ जल्द अभिव्याप

किया था कोई असहय पाप

जो छोड़ेंगे बुद्ध देकर शाप

दोनों को क्या पता काल समय

कब होगा फूल अलग निलय

कब घट पर आ जाते प्रलय

कब छायेगी आंधी लंगड़ी

कब जायेगी कहर नीगढडी

पर होगा वो जो नित होना

पड़ेगा उस दिन साथ खोना

कई जन्मों का प्रेम विरह

हो जायेगा आज निरह

जो पहले प्रन्तर में बसते

आज एक अंदर से नीरसते

दोनो में प्रेम का संचार

हिय मे शोषित कामनीय प्रभाव

यशोधरि प्रति शास्त्र कला

दिखलाना होगा व्यघ्र शला

राज्य भूत पृथा के अनुसार

होगा सीद्धार्थ के बल प्रसार

देख चकित सब प्रजाजन

उतरेगा रण पर बुद्धिमान

हार पहले वीर मानता नहीं

जीत या कि हरण कायर नहीं

सोचकर फिर घोषणा हुयी

यशोधरा के खातिर मोल हुयी

अर्जुन दे्वदत्त नीत हारेगे

बुद्ध ही यशोधरा को पायेंगे

चिर प्रभा का उदय आंचाल

दुर्वादल पर हरी कंचाल

हरीतीमा कि हरी हरी दूब

फैली दिशाओं मे कोसों दूर

नजर जहां तक है पहुचती

हरी प्रतिमा अवछिन्न झलकती

सोलह श्रृंगार कर आती यशोधरा

सिद्धर्थ कुछ प्रसन्न हो चला

एक गीत सखियां गाती है

गीतप्रिय देखो वह पहर है आया

तुम्हारे लिये सिध्दार्थ ने धनुष उठाया

दिख रहा प्रेम झलक रही

दृष्टि में तुम्हारी छवि रही

प्रणयनाथ को देखो

एक टक देखें जाते

प्रेम में आंखें सहर्ष रही

लक्ष्य तुम्हे पाने कि रही

ह्रदयनाथ को देखो

तुम्हें देख मुस्क्याते

प्रिय देखो वह पहर है आया

तुम्हारे लिया सिध्दार्थ ने धनुष उठाया


विवाह हुआ नवयुगल प्रीत

रंगभवन को निर्माण अस्तीत

लुत्फ उठाना जीवन वैभव

एक प्रेमालय रमणीय शैशव

निराला अद्भुत अद्वितीय

प्रेमालय में शिल्प सुखद प्रिय

नदियो का प्रवाहन कल कल

पवनो का विहार प्रतीपल

शिरोमणि कंचन जड़जडित

खुला दालान आंगन सपाट

लहराता पवमान छोटा कपाट

दूर से आकाशगंगा का विहार

मन आनन्द प्रेम भवन प्रतिहार

हिमालय का स्वर्ण रजत भाल

छेक खड़ा रहे दक्षिण में प्रकाल

बर्फ सतत शत-शत आकाल

वसुंधरा पर मुक्ता कण सिहरे

नव्य दिव्य भव हूं भव्य निर्माण

निर्माण एक प्रेम प्रेमोदयलय

जिसमें ठहरे दो जोड़े युगलय

प्रेमप्रेमोदलय के समीप स्थित

एक विशाल जंगल पृथिस्थित

कभी गाती मयूर गीत नृत्य

कभी सुनायी पडती गर्जन

शेरो की रौरव जीव जंतु सृजन

किट‌ पतंगो कि झुण्ड उड़ा

चिड़ियों कि ठहरी समूह बड़ा

तितलियां हजारों रंग पखारे

पत्थर से मोती सीपी बरसे

प्रेम भवन में स्वर्ग सोपान

कालीन नीली सुरक्षित कपाल

आंगन से इन्द्रधनुष झलके

धरा पर पंखुड़ियां उभरे

राजा विनयविनय प्रथ्य मैं करता

तुमसे मिलने का मन करता

पुत्र तुम्हरी छाया व्याकुल

पुत्र तुम्हारी माया आतुर

रह देखते हैं प्रतिपल मन

आ सरसित कर निज तन

तन हो चला बूढ़ा शिथिल

लौट कपिलवस्तु मिथिल

राह तकती है यशोधरा

राह ताकती कपिल धरा

एक बार सहसा आओ

राहुल कुछ कहना चाहता

विनय प्रथ्य वह करता

तुमसे मिलने का मन करता


यशोधरा है बहुत उदास

करती याद सदा सुहास

कहने का उसमें न साहस

कैसा दिया पीड़ा आसहस

चुपके छोड़ चले गये सुयश

लौट एक बार फिर आओ

कुछ दायां राहुल पर खाओ

पल पल तुम्हे पुकारता

विनय प्रथ्य मै करता

तुमसे मिलने का मन करता

प्रजा ढुढती तुमको संत

राज्य का सून पड़ा पंथ

एक क्षण को वसंत लाओ

एक बार लौट के आओ

शखा सम्बन्धि चिन्तित

सुन लो विरह विनती

जब तुम हंसते मुस्कराते

धरा से कलियां खिल जाते

सखा तुम्हार ढूंढा करता

विनय प्रथ्य वह करता

तुझसे मिलने का मन करता


रात चांदनी चंदन झलक

सिहर पड़ते उनके पलक

राहुल शत शत यही कहते

पिता क्या यह पीड़ा सहते

जिस पर हम बर्षो से करहते

एक बार लौटकर आओ

पंथ की बाधा न दिखलाओ

तुम सुयश प्रीत दर्शावो

यही आकाश तल कहता

विनय प्रथ्य मै करता

तुमसे मिलने का मन करता


जब नहीं आते पुत्र तुम तो

भेज समंत दिया समर्थक

पर समाचार न आया प्रर्थक

समंत खो गया योग भोग में

फिर विटप से भेजा सखा को

जाकर जाते सभी उस ओर

आते आने का नही है छोर

ऐसा है तो यह कैसी बाधा

तुमने कैसा बाण साधा

जब लौट नहीं आते अनुचर

दुविधा मन कि बढ़ती सत्वर

सभी शरण में तुम्हारे गये

सभी बुद्धयोग में लिपट गये

ऐसा कैसे कर सकता हे संत

लौट नहीं क्या सकता हे संत

सखा ने नित विशेष ध्येय रखा


हे संत---

मैं सखा समंत तुम्हारा

लेकर आया हू लौटने का संदेश

देखते राह तरु तल डाल प्रदेश

अब चलो हे प्रभु हे संत

कर दो व्याकुल मन अमंत

अब चलो बढ़े हे सखा सम्बन्ध

कर दो बेडापार अबन्ध

फिर दिया संदेश आने का

बादल रोष कुछ छाने का

लौटे बोधिसत्व कपिलवस्तु

फैल गयी आग सी शब्दांशु

प्रजा में भर हास- हुलास

राजा मुख पर पर्याय सुवास

परशन्नचित है प्रत्येक प्राणी

आने को है ईश्वर बुध्द ग्यिनी

उपदेश दे रहे करते प्रसार

सारे दैनिक क्रिया का विस्तार

चलो चलो संत प्रभु आते

राजा मुख खिले मुस्काते

तनिक खुश न यशोधरा

ईश्वर का न किया सर्वांगीण

वह पल लगता भंगुर क्षीण

अथक प्रयास बाहर आती

पाकर दर्शन रोती जाती

हे सुयश सोचो पुत्र का हाल

रहता था बिन पिता बिहाल

सदा कहानी कहती उससे

एक बुद्ध है इस संसार

जिसने शान्ति की विहार

त्याग दिया सुख सुविधा समृद्ध

प्रप्तकर लौटेगा बोधि सिद्ध

अब आप लौटककर आये हे

राहुल दान संग स्वीकारे हे

इसका सर्वत्र कल्याण करें हे

राहुल दान स्वीकार करें हे

राजकुमार ललायित भ्रमण इच्छा

राजा ने सहमति दी उर-अनिच्छा

जाके दूत ने राजा से यह बात कही

देखना प्राणी नित्यावन दृश्य बाहरी

तीर घाट उनिंदी चिर और यौवन

देखना है उर्मिल तार तराल पावन

जाके दूत राजा से यह बात कही

मन उच्छास एक वेदना उपाहरी

मुझे देखना सदृश्य स्वानक लोक

देखना उदयगिरी पर उदय आलोक

देखना प्रधुम्न गन्धवाह शहरी

मोहक सुगन्ध संक्षिप्त झांझरी

जहां ठहरती मलयज कि मंजर

जहां सुहारती सुफलम मनअंतर

गिरती प्रभा की संतरंग प्रताप

दिनकर कि गिरती पुंज अनुताप

अरुणिमा से लोहित स्मृति संचार

कोलाहल में द्रुत -घनघोर अभिसार

शतदल से निरुपम अरुण्य कंचार

दोपहर कि कडकित गर्मप्रतीहार

संसार कि दैनिक निति विधान

समझने को आतुर देश संविधान

भव कृत कुल प्रसारी प्रर्थवउर्जा

प्रकृती कि कुछ मिले सर्व अनुर्जा

झरनों से झरती छन छन गरल

नीर पर चमकती चंचल चपल

धार पर परिष्कृत रूप अपलक

रंगधार पर भंगदूत दादुर कनल

लहरों का शोषित पंथ ही है वो

बहती‌ केवल एक मात्र पंथ है वो

उसकी दलानो के कोने में हरी घास

चूनो से सेजित दरारें धूल कला

उच्छावित लहर की लहरी

दिग्पात शहर निरह बिठौली

कण का सम्भांर भोग कर सकूं

बंजर में भी दुर्वादल सजा सकूं

जहा में था वो हर सुख समान

महल में खाली थे बिछे वीतान

चाहता देखना खुला आकाश

चखना चाहु बेल बेर अनानास

पिता सारा प्रबंध कर दिया

मिट्टि के घर द्वार रंगवाया

सारथी को तैयार करवा कर

चले भ्रमण को सिध्दार्थ बैठक

गीतरथ को आगे बढ़ाओ सारथी

रथ को आगे बढ़ाओ


कैसा सुन्दर बांट सजा

कितना मोहक यह सहसा

उधर देखो सब हंसते

मुझे देख सिहरते

कुछ अलग पंथ बतलाओ पंथी

कुछ अलग बांट बतलाओ

पिता ने सारी सुविधा कि

द्वार सजाये मंजु गृह

मिलने का करते आग्रह

किस किस हाथ बढाऊ

सदृश्य मुझे दीखलाओ

रथ को आगे बढ़ाओ सारथी

रथ को आगे बढ़ाओ


प्रजाजन को एक एक

चक्कर मारो अनेक

कहीं दूर ले जाओ पंथी

पंथ को और बढ़ाओ पंथी

पंथ को कुछ बढाओ


वैभव देख सभी व्याकुल

रथ पर जड़ें मोती कंचुल

सूर्य की तूरित प्रकाश चंचल

सब कुछ दिखलाओ सारथी

सब कुछ दिखलाओ

रथ को आगे बढ़ाओ पंथी

रथ को आगे बढाओ


रात्री कि कलांन्त विहवल

सांय सांय करती तम प्रवल

निष्ठूर धूमिल धुंधली तिमिर

मंद मंद वायु बहती शिथिर

चैत्र पूर्णिमा कि विटप कड़ी

जीवन‌ रस को ताकते खडी

कलयुग समय वह आया

चन्द्रमा ने प्रकाश चमकाया

बिस्तर यशोधरा सोयी अचेत

निकले वहां छुपकर सचेत

बुद्ध चल पड़े रात्री विहार

प्रकोष्ठ के खोले द्वार

प्रतीक्षा में थी अडीत प्रकृति

आयेगे बुद्ध छोड़ कपिल धुति

शरण मे वैराग्य के

शरण में संन्यास के

शरण में धर्म संघ के

शरण में मध्यं के

महाप्रयाण का यह आगमन

अब रचेगा एक नया कथन

छोड़ चले कपिलवस्तु शहर

पर भाप सके न एक बार

यशोधरा के मलयनिल तन को

छोड़ चले उस साथी मन को

साथ साथ रहने का वचन

खोजने संसार में अमन

छोड़ चले कपिलवस्तु चमन

चले उन दीपों से छुपकर

चले गये उन दीवारों से

जहा कभी बसते प्रन्तर

कभी गुजारते आंगन से

वैराग्य कि खोज को आतुर

तन में पीड़ा गृहस्त प्रचीर

अन्धेरे मे पैदल चलते थककर

जहां पर होते कठोर चट्टान

कंकड़ पत्थर से छनकर

चलते सागर में गृह त्यागकर

काली सी कली रात तमी

वन को फिर खली कमी

आये साथी त्याग उद्दमी

ढूढते फिरते गरल चांदनी

तूफानो ने आहट सुनकर

तानी कुछ जोर शास्वर

बादल ने कुछ रोष सुनकर

चमकायी तडित तंडवकर

पत्तियां बलखाती कतराती

दरख्त झूलती बरसाती

सखाये जड़ जड़ घूमती

किसलय आंचल इठलाती

कुहकती कोयाल तान भर

मृगों की धावन गतिमान

सिंह सांप सभी प्राणी छुपकर

करते वंदन सादर अभिनंदन

चांदनी जूही कली खिलती

प्रत्यूष शशि का जल क्रंदन

तमिनी जाग उठी कूल पर

तडांग भरता उर मे स्पंदन

सहसा बरसा बादल गोरा

डूब गया जंगल का कोना

कही नही आश्राय कि शैया

बोधिवृक्ष पर होगा सोना

अचल देवताओ का दरख़्त

शाखा काले सुनहरे बदन

पल्लव पर शैवाल ससख्त

रहते जिसमें मोर विहंग

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