पंचतन्त्र कि कहानी मित्र
लाभ
गोदावरी के तीर पर एक बड़ा सैमर का पेड़ है। वहाँ
अनेक दिशाओं के देशों से आकर रात में पक्षी बसेरा करते हैं। एक दिन जब थोड़ी रात रह
गई ओर भगवान कुमुदिनी के नायक चंद्रमा ने अस्ताचल की चोटी की शरण ली तब लघुपतनक नामक
काग जगा और सामने से यमराज के समान एक बहेलिए को आते हुए देखा, उसको देखकर सोचने लगा कि आज प्रातःकाल ही बुरे का मुख देखा है। मैं नहीं जानता
हूँ कि क्या बुराई दिखावेगा।
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। दिवसे-दिवसे
मूढमाविशन्ति न पण्डितम॥
सहस्रों शोक की और सैकड़ों भय की बातें मूर्ख पुरुष
को दिन पर दिन दुख देती है और पण्डित को नहीं।
फिर उस व्याध ने चावलों की कनकी को बिखेर कर
जाल फैलाया और खदु वहाँ छुप कर बैठ गया। उसी समय में परिवार सहित आकाश में उड़ते हुए
चित्रग्रीव नामक कबूतरों के राजा ने चावलों की कनकी को देखा, फिर कपोतराज चावल के लोभी कबूतरों से बोला—इस निर्जन वन में चावल की कनकी कहाँ से आई? पहले इसका निश्चय करो। मैं इसको कल्याणकारी नहीं देखता हूँ। अवश्य इन चावलों की
कनकी के लोभ से हमारी बुरी गति हो सकती है।
सुजीर्णमन्नं सुविचक्षणः सुतः, सुशासिता स्री नृपति: सुसेवितः। सुचिन्त्य चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं, सुदीर्घकालेsपि न याति विक्रियाम्॥
अच्छी रीति से पका हुआ भोजन, विद्यावान पुत्र, सुशिक्षित अर्थात आज्ञाकारिणी
स्री, अच्छे प्रकार से सेवा किया हुआ राजा, सोच कर कहा हुआ वचन और विचार कर किया हुआ काम ये बहुत काल तक भी नहीं बिछड़ते हैं।
यह सुनकर एक कबूतर घमंड से बोला,
"" अजी, तुम क्या कहते हो
वृद्धानां वचनं ग्राह्यमापत्काले
ह्युपस्थिते। सर्वत्रैवं विचारे तु भोजनेsप्यप्रवर्तनम्॥
जब आपत्तिकाल आए तब वृद्धों की बात माननी चाहिए, परंतु उस समय सब जगह मानने से तो भोजन भी न मिले।
शंकाभि: सर्वमाक्रान्तमन्नं पानं च भूतले। प्रवृत्ति:
कुत्र कर्त जीवितव्यं कथं नू वा?
इस पृथ्वी तल पर अन्न और पान संदेहों से भरा
है, किस वस्तु में खाने-पीने की ईच्छा करे या कैसे
जिये?
ईर्ष्यी घृणी त्वसंतुष्ट: क्रोधनो नित्यशड्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते दुखभागिनः॥
ईष्या करने वाला, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाला और पराये आसरे जीने
वाला ये छः प्रकार के मनुष्य हमेशा दुखी होते हैं।
यह सुनकर भी सब कबुतर बहेलिये के चावल के कण जहाँ छीटे थे, वहाँ बैठ गये।
सुमहान्त्यपि शास्राणि धारयन्तो बहुश्रुतः। छेत्तारः
संशयानां च क्लिश्यन्ते लोभमोहितः॥
क्योंकि अच्छे बड़े-बड़े
शास्रों को पढ़ने तथा सुनने वाले और संदेहों को दूर करने वाले भी लोभ के वश में पड़
कर दुख भोगते हैं।
लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते।
लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम।
लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से विषय भोग की इच्छा होती है और लोभ से मोह और नाश होता है, इसलिए लोभ ही पाप की जड़ है।
असंभव हेममृगस्य जन्म, तथापि रामो लुलुभे मृगाय। प्रायः समापन्नविपत्तिकाले, धियोsपि पुंसां मलिना भवन्ति॥
सोने के मृग का होना असंभव है, तब भी रामचंद्रजी सोने के मृग के पीछे लुभा गये, इसलिये विपत्तिकाल आने पर महापुरुषों की बुद्धियाँ भी बहुधा मलिन हो जाती है।
दाना पाने के लालच से उतरे सब कबूतर जाल में फँस
गये और फिर जिसके वचन से वहाँ उतरे से उसका तिरस्कार करने लगे।
न गणस्याग्रतो गच्छेत्सिध्दे कार्ये समं फलम।
यदि कार्यविपत्ति: स्यान्मुखरस्तत्र हन्यते॥
समूह के आगे मुखिया होकर न जाना चाहिये। क्योंकि
यदि काम सिद्ध हो गया तो फल सबों को बराबर प्राप्त होगा और अगर काम बिगड़ गया तो मुखिया
ही मारा जाएगा। सबको उसकी निंदा करते देख चित्रग्रीव बोला— "" इसका कुछ दोष नहीं है। " हितकारक पदार्थ भी आने वाली आपत्तियों का कारण हो
जाती है, जैसे गोदोहन के समय माता की जाँघ ही बछड़े
के बाँधने का खूँटा हो जाती है।
स बंधुर्यो विपन्नानामापदुद्धरणक्षमः। न तु भीतपरित्राणवस्तूपालम्भपण्डितः॥
बंधु वह है, जो आपत्ति में पड़े हुए मनुष्यों को निकालने में समर्थ हो और जो दुखियों की रक्षा
करने के उपाय बताने की बजाय उलाहना देने में चतुराई समझे, वह बंधु नहीं है।
आपत्ति से घबरा जाना तो कायर पुरुष का चिह्न है, इसलिये इस काम में धीरज धर कर उपाय सोचना चाहिए.
विपदि धैर्यमथाभ्युदये
क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः। यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं
श्रुतौ, प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम।
आपदा में धीरज, बढ़ती में क्षमा, सभा में वाणी की चतुरता, युद्ध में पराक्रम, यश में रुचि और शास्र
में अनुराग ये बातें महात्माओं में स्वाभाव से ही होती है। जिसे संपत्ति में हर्ष और
आपत्ति में खेद न हो और संग्राम में धीरता हो, ऐसा तीनों लोक में तिलक का जन्म विरला होता है और उसको विरली माता ही जनती है।
इस संसार में अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को निद्रा, तंद्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता ये छः अवगुण छोड़
देने चाहिए। अब भी ऐसा करो, सब एक मत होकर जाल
को ले उड़ो।
अल्पानामपि वस्तूनां संहति: कार्यसाधिका। तृणैर्गुणत्वमापन्नैर्बध्यन्ते
मत्तदन्तिनः॥
छोटी-छोटी वस्तुओं के समूह से भी कार्य सिद्ध
हो जाता है, जैसे घास की बटी हुई रस्सियों से मतवाला
हाथी भी बाँधे जाते हैं। अपने कुल के थोड़े मनुष्यों का समूह भी कल्याण का करने वाला
होता है, क्योंकि तुस (छिलके) से अलग हुए चावल
फिर नहीं उगते हैं। यह सोच कर सब कबूतर जाल को लेकर उड़े और वह बहेलिया जाल को लेकर
उड़ने वाले कबूतरों को दूर से देख कर पीछे दौड़ता हुआ सोचने लगा, ये पक्षी मिल कर मेरे जाल को लेकर उड़ रहे हैं, परंतु जब ये गिरेंगे तब मेरे वश में हो जायेंगे। फिर जब वे पक्षी आँखों से ओझल
हो गये तब व्याध लौट गया। जब कबूतर ने देखा कि लोभी व्याध लौट रहा है तब कबूतर ने कहा
कि अब क्या करना चाहिए।
माता मित्रं पिता चेति स्वभावात्रितयं हितम्।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥
माता, पिता और मित्र ये तीनों स्वभाव से हितकारी होते हैं और दूसरे लोग कार्य और किसी
कारण से हित की इच्छा करने वाले होता हैं। इसलिए मेरा मित्र हिरण्यक नामक चूहों का
राजा गंडकी नदी के तीर पर चित्रवन में रहता है, वह हमारे फंदों को काटेगा। यह विचार कर सह हिरण्यक के बिल के पास गये। हिरण्यक
सदा आपत्ति आने की आशंका से अपना बिल सौ द्वार का बना कर रहता था। फिर हिरण्यक कबूतरों
के उतरने की आहट से डर कर चुपके से बैठ गया। चित्रग्रीव बोला—हे मित्र हिरण्यक, हमसे क्यों नहीं बोलते हो? फिर हिरण्यक उसकी बोली पहचान कर शीघ्रता से बाहर निकल कर बोला—अहा! मैं पुण्यवान हूँ कि मेरा प्यारा मित्र चित्रग्रीव आया है।
यस्य मित्रेण संभाषो यस्य मित्रेण संस्थिति:।
यस्य मित्रेण संलापस्ततो नास्तीह पुण्यवान॥
जिसकी मित्र के साथ बोल-चाल है, जिसका मित्र के साथ रहना-सहना हो और जिसकी मित्र के साथ गुप्त बात-चीत हो, उसके समान कोई इस संसार में पुण्यवान नहीं है। अपने मित्र को जाल में फँसा देखकर
आश्चर्य से क्षण भर ठहर कर बोला"—मित्र, यह क्या है? चित्रग्रीव बोला"—मित्र, यह हमारे पूर्वजन्म के कर्मो का फल है।
यस्माच्च येन च यथा च यदा च यच्च, यावच्च यत्र च शुभाशुभमात्मकर्म। तस्माच्च तेन च तथा च तदा च तच्च, तावच्च तत्र च विधातृवशादुपैति।
जिस कारण से, जिसके करने से, जिस प्रकार से, जिस समय में, जिस काल तक और जिस स्थान
में जो कुछ भला और बुरा अपना कर्म है, उसी कारण से, उसी के द्वारा, उसी प्रकार से, उसी समय में, वही कर्म, उसी काल तक, उसी स्थान में, प्रारब्ध के वश से पाता है।
रोगशोकपरीतापबन्धनव्यसनानि च। आत्मापराधवृक्षाणां
फलान्येतानि दहिनाम्।
रोग, शोक, पछतावा, बंधन और आपत्ति ये देहधारियों (प्राणियों) के लिए अपने अपराधरुपी वृक्ष के फल हैं।
यह सुनकर हिरण्यक चित्रग्रीव के बंधन काटने के
लिए शीघ्र पास आया। चित्रग्रीव बोला—मित्र, ऐसा मत करो, पहले मेरे उन आश्रितों के बंधन काटो, मेरा बंधन बाद में काटना। हिरण्यक ने भी कहा—मित्र, मैं निर्बल हूँ और मेरे दाँत भी कोमल
हैं, इसलिए इन सबका बंधन काटने के लिए कैसे समर्थ
हूँ? इसलिए जब तक मेरे दाँत नहीं टूटेंगे, तब तक तुम्हारा फंदा काटता हूँ। बाद में इनके भी बंधन जहाँ तक कट सकेंगे तब तक
काटूँगा। चित्रग्रीव बोला—यह ठीक है, तो भी यथाशक्ति पहले इनके काटो। हिरण्यक ने कहा—अपने को छोड़कर अपने आश्रितों की रक्षा करना यह नीति जानने वालों को संमत नहीं है।
क्योंकि मनुष्य को आपत्ति के लिए धन की, धन देकर स्री की और धन और स्री देकर अपनी रक्षा सर्वदा करनी चाहिए.
धर्मार्थकाममोक्षाणां प्राणा: संस्थितिहेतवः।
तान्निघ्रता किं न हतं, रक्षता किं न रक्षितम्?
दूसरे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों की रक्षा के लिए
प्राण कारण हैं, इसलिए जिसने इन प्राणों का घात किया, उसने क्या घात नहीं किया? अर्थात सब कुछ घात
किया और जिसने प्राणों का रक्षण किया उसने क्या रक्षण न किया? अर्थात सबका रक्षण किया।
चित्रग्रीव बोला—मित्र, नीति तो ऐसी ही है, परंतु मैं अपने आश्रितोंका दुख सहने को सब प्रकार से असमर्थ हूँ।
धनानि जीवितं चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत।
सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति॥
चित्रग्रीव कहता है कि पण्डित को पराये उपकार
के लिए अपना धन और प्राणों को भी छोड़ देना चाहिए, क्योंकि विनाश तो अवश्य होगा, इसलिये अच्छे पुरुषों
के लिए प्राण त्यागना अच्छा है। दूसरा यह भी एक विशेष कारण है कि इन कबूतरों का और
मेरा जाति, द्रव्य और बल समान है, तो मेरी प्रभुता का फल कहो, जो अब न होगा तो किस
काल में और क्या होगा? आजीविका के बिना भी ये मेरा
साथ नहीं छोड़ते हैं, इसलिए प्राणों के बदले भी
इन मेरे आश्रितों को जीवनदान दो। हे मित्र, मांस, मल, मूत्र तथ हड्डी से बने हुए इस विनाशी शरीर में आस्था को छोड़ कर मेरे यश को बढ़ाओ.
जो अनित्य और मल-मूत्र से भरे हुए शरीर से निर्मल और नित्य यश मिले तो क्या नहीं मिला? अर्थात सब कुछ मिला।
शरीरस्य गुणानां च दूरमत्यन्तमन्तरम। शरीरं क्षणविध्वंसि
कल्पान्तस्थायिनों गुणा:॥
शरीर और दयादि गुणों में बड़ा अंतर है। शरीर तो
क्षणभंगुर है और गुण कल्प के अंत तक रहने वाले हैं।
यह सुनकर हिरण्यक प्रसन्नचित्त तथा पुलकित होकर
बोला—धन्य है, मित्र, धन्य है। इन आश्रितों पर दया विचारने
से तो तुम तीनों लोक की ही प्रभुता के योग्य हो। ऐसा कह कर उसने सबका बंधन काट डाला।
बाद में हिरण्यक सबका आदर-सत्कार कर बोला—मित्र चित्रग्रीव, इस जाल बंधन के विषय में
दोष की शंका कर अपनी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए।
योsधिकाद्योजनशतात्पश्यतीहामिषं खगः। स एव प्राप्तकालस्तु पाशबंध न पश्यति॥
जो पक्षी सैकड़ों योजना से भी अधिक दूर से अन्न
के दाने को या माँस को देखता है, वही बुरा समय आने
पर जाल की बड़ी गाँठ नहीं देखता है। चंद्रमा तथा सूर्य को ग्रहण की पीड़ा, हाथी और सपं का बंधन और पण्डित की दरिद्रता, देख कर मेरी तो समझ में यह आता है कि प्रारब्ध ही बलवान है और आकाश के एकांत स्थान
में विहार करने वाले पक्षी भी विपत्ति में पड़ जाते हैं और चतुर धीवर मछलियों को अथाह
समुद्र में भी पकड़ लेते हैं। इस संसार में दुर्नीति क्या है और सुनीति क्या है और विपत्तिरहित
स्थान के लाभ में क्या गण है? अर्थात कुछ नहीं है।
क्योंकि काल आपत्तिरुप अपने हाथ फैला कर बैठा है और कुछ समय आने पर दूर ही से ग्रहण
कर झपट लेता है। यों समझा कर और अतिथि सत्कार कर तथा मिल भेटकर उसने चित्रग्रीव को
विदा किया और वह अपने परिवार समेत अपने देश को गया। हिरण्यक भी अपने बिल में घुस गया।
इसके बाद लघुपतनक नामक कौवा सब वृत्तांत को
जानने वाला आश्चर्य से यह बोला—हे हिरण्यक, तुम प्रशंसा के योग्य हो, इसलिए कृपा करके मुझसे
भी मित्रता कर लो। यह सुन कर हिरण्यक भी बिल के भीतर से बोला—तू कौन है? वह बोला—मैं लघुपतनक नामक कौवा हूँ। हिरण्यक हँस कर कहने लगा—तेरे संग कैसी मित्रता? क्योंकि पंडित को
चाहिए कि जो वस्तु संसार में जिस वस्तु के योग्य हो उसका उससे मेल आपस में कर दें, मैं तो अन्न हूँ और तुम खाने वाले हो। इस लिए भक्ष्य और भक्षक की प्रीति कैसी होगी? कौवा बोला—तुझे खा लेने से भी तो मेरा बहुत आहार
नहीं होगा, मैं निष्कपट चित्रग्रीव के समान तेरे
जीने से जीता रहूँगा। पुण्यात्मा मृग-पक्षियों का भी विश्वास देखा जाता है, क्योंकि पुण्य ही करने वाले सज्जनों का स्वभाव सज्जनता के कारण कभी नहीं पलटता
है।
साधों: प्रकोपितस्यापि मनो नायाति विक्रियाम।
न हि तापयिंतु शक्यं सागराम्भस्तृणोल्कया॥
चाहे जैसे क्रोध में क्यों न हो सज्जन का स्वभाव
कभी डामाडोल न होगा, जैसे जलते हुए तनकों की आँच
से समुद्र का जल कौन गरम कर सकता है? हिरण्यक ने कहा—तू चंचल है, ऐसे चंचल के साथ स्नेह कभी नहीं करना चाहिए. दूसरा तुम मेरे वैरियों के पक्ष के
हो।
शत्रुणा न हि संदध्यात सुश्लिष्टेनापि संधिना।
सुतप्तमपि पानीयं शमयत्येव पावकम्॥
और यह कहा है कि वैरी चाहे जितना मीठा बन कर मेल
करे, परंतु उसके साथ मेल न करना चाहिये, क्योंकि पानी चाहे जितना भी गरम हो आग को बुझा ही देता है।
दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालंकृतोsपि सन। मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर॥
दुर्जन विद्यावान भी हो, परंतु उसे छोड़ देना चाहिये, क्योंकि रत्न से शोभायमान
सपं क्या भयंकर नहीं होता है।
जो बात नहीं हो सकती, वह कदापि नहीं हो सकती है और जो हो सकती है, वह हो ही सकती है, जैसे पानी पर गाड़ी नहीं चलती
और जमीन पर नाव नहीं चल सकती है। लघुपतनक कौवा बोला—मैंने सब सुन लिया, तो भी मेरा इतना संकल्प
है कि तेरे संग मित्रता अवश्य करनी चाहिए. नहीं तो भूखा मर अपघात कर्रूँगा। दुर्जनों
के मन में कुछ, वचन में और काम में कुछ और सज्जनों के
जी में, बचन में और काम में एक बात होती है। इसलिये
तेरा भी मनोरथ हो। यह कह कर हिरण्यक मित्रता करके विविध प्रकार के भोजन से कौवे को
संतुष्ट करके बिल में घुस गया और कौवा भी अपने स्थान को चला गया। उस दिन से उन दोनों
का आपस में भोजन के देने-लेने से, कुशल पूछने से और
विश्वासयुक्त बातचीत से समय कटने लगा।
एक दिन लघुपतनक ने हिरण्यक से कहा—मित्र, इस स्थान में बड़ी मुश्किल से भोजन मिलता
है, इसलिए इस स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान में जाना
चाहता हूँ। हिरण्यक ने कहा—मित्र, कहाँ जाओगे? बुद्धिमान एक पैर से चलता है और दूसरे
से ठहरता है। इसलिए दूसरा स्थान निश्चत किये बिना पहला स्थान नहीं छोड़ना चाहिये। कौवा
बोला—एक अच्छी भांति देखा भाला स्थान है। हिरण्यक
बोला—कौन-सा है? कौआ बोला—दण्डकवन में कर्पूरगौर नाम का एक सरोवर
है, उसमें मन्थरनामक एक धर्मशील कछुआ मेरा बहुत
पुराना और प्यारा मित्र रहता है। वह विविध प्रकार के भोजन से मेरा सत्कार करेगा। हिरण्यक
भी बोला—तो मैं यहाँ रह कर क्या करूँगा
यस्मिन्देशे न संमानो न वृत्तिर्न च बांधवः। न
च विद्यागमः कश्चित्तं देशं परिवर्जयेत्॥
क्योंकि जिस देश में न सन्मान, न जीविका का साधन, न भाई या सम्बंधी और कुछ
विद्या का भी लाभ न हो, उस देश को छोड़ देना
चाहिये। अर्थात दूसरे शब्दों में जीविका, अभय, लज्जा, सज्जनता और उदारता ये पाँचों बातें जहाँ न हो, वहाँ नहीं रहना चाहिये। साथ ही, जहाँ ॠण देने वाला, वैद्य, वेदपाठी और सुंदर जल से भरी नदी, ये चारों न हो, वहाँ नहीं रहना चाहिए. इसलिये
मुझे भी वहाँ ले चलो। बाद में कौवा उस मित्र के साथ अच्छी-अच्छी बातें करता हुआ बेखटके
उस सरोवर के पास पहुँचा। फिर मन्थर ने उसे दूर से देखते ही लघुपतनक का यथोचित अतिथिसत्कार
करके चूहे का भी अतिथिसत्कार किया। क्योंकि बालक, बूढ़ा और युवा इनमें से घर पर कोई आया हो, उसका आदर सत्कार करना चाहिये, क्योंकि अभ्यागत सब
वर्णो का पूज्य है। ब्राह्मणों को अग्नि, चारों वर्णो को ब्राह्मण, स्रियों को पति और
सबको अभ्यागत सर्वदा पूजनीय है। कौवा बोला—मित्र मन्थर, इसका अधिक सत्कार करो, क्योंकि यह पुण्यात्माओं का मुखिया और करुणा का समुद्र हिरण्यक नामक चूहों का राजा
है। इसके गुणों की बड़ाई दो सहस्र जीभों से शेष नाग भी कभी नहीं कर सकता है। यह कह कर
चित्रग्रीव का वृत्तांत कह सुनाया। मन्थर बड़े आदर से हिरण्यक का सत्कार करके पूछने
लगा—हे मित्र, यह निर्जन वन में अपने आने का भेद तो कहो। विपत्तियों के आ जाने पर निर्णय करके
काम करना ही चतुराई है, क्योंकि बिना विचारे
काम करने वालों को पद में विपत्तियाँ हैं। कुल की मर्यादा के लिए एक हो, गाँवभर के लिए कुल को, देश के लिए गाँव को
और अपने लिये पृथ्वी को छोड़ देना चाहिये। अनायास मिला हुआ जल और भय से मिला मीठा भोजन
उन दोनों में विचार कर देखता हूँ, तो जिसमें चित्त बेखटक
रहे उसी में सुख है या पराधीन भोजने से सवाधीन जल का मिलना उत्तम है। यह विचार कर मैं
निर्जन वन में आया हूँ।
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं, द्रुमालयं पक्कफलाम्बुभोजनम्। तृणानि शय्या परिधानवल्कलं, न बंधुमध्ये धनहीनजीवनम्॥
सिंह और हाथियों से भरे हुए वन के नीचे रहना, पके हुए कंद मूल फल खाकर जल पान करना तथा घास के बिछौने पर सोना और छाल के वस्र
पहनना अच्छा है, पर भाई बंधुओं के बीच धनहीन जीना अच्छा
नहीं है। फिर मेरे पुण्य से उदय से इस मित्र ने परम स्नेह से मेरा आदर किया और अब पुण्य
की रीति से तुम्हारा आश्रय मुझे स्वर्ग के समान मिल गया। मंथन बोला—धन तो चरणों की धूलि के समान है, यौवन पहाड़ की नदी के वेग के समान है, आयु चंचल जल की बिंदु के समान चपल है और जीवन फेन के समान है, इसलिए जो निर्बुद्धि स्वर्ग की आगल को खोलने वाले धर्म को नहीं करता है, वह पीछे बुढ़ापे में पछता कर शोक की अग्नि में जलाया जाता है।
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्।
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम्॥
गंभीर सरोवर में भरे हुए जल के चारों ओर निकलने
के (बार-बार जल निकाल देना जैसा सरोवर की शुद्धि का कारण है, उसी के) समान कमाये हुए धन का सत्पात्र में दान करना ही रक्षा है। लोभी जिस धन
को धरती में अधिक नीचे गाड़ता है, वह धन पाताल में जाने
के लिए पहले से ही मार्ग कर लेता है और जो मनुष्य अपने सुख को रोक कर धनसंचय करने की
इच्छा करता है, वह दूसरों के लिए बोझ ढोने वाले मजदूर
के समान क्लेश ही भोगने वाला है।
दानोपभोगहीनेन धनेन धनिनो यदि। भवामः किं न तेनैव
धनेन धनिनो वयम्।
दान और उपभोग हीन धन से जो धनी होते हैं, तो क्या उसी धन से हम धनी नहीं हैं? अर्थात अवश्य है।
न देवाय न विप्राय न बंधुभ्यो न चात्मने। कृपणस्य
धनं याति वह्मितस्करपार्थिवै:॥
जो मनुष्य धन को देवता के, ब्राह्मण के तथा भाई बंधु के काम में नहीं लाता है, उसे कृपण का धन तो जल जाता है या चोर चुरा ले जाते हैं अथवा राजा छीन लेता है।
दानं प्रियवाकसहितं ज्ञानमगर्वे क्षमान्वितं शौर्यम।
वित्तं त्यागनियुक्तं दुर्लभमेतंचतुष्टयं लोके॥
प्रिय वाणी के सहित दान, अहंकाररहित ज्ञान, क्षमायुक्त शूरता और दानयुक्त
धन, ये चार बातें दुनिया में दुर्लभ हैं। इनका
संचय नित्य करना चाहिये, पर अति संचय करना
योग्य नहीं है।
आमरणान्ता: प्रणया:
कोपास्तत्क्षणभड्गरा:। परित्यागाश्च नि: सड्गा भवन्ति हि महात्मनाम्॥
महात्माओं का स्नेह मरने तक, क्रोध केवल क्षणमात्र और परित्याग केवल संगरहित होता है अर्थात वे कुछ बुराई नहीं
करते हैं।
यह सुनकर लघुपतनक बोला—हे मन्थर, तुम धन्य हो और तुम प्रशंसनीय गुणवाले
हो।
सन्त एव सतां नित्यमापदुद्धरणक्षमा:। गजानां पड्कमग्नानां
गजा एव धुरंधरा:॥
सज्जन ही सज्जनों की आपत्ति को सर्वदा दूर करने के योग्य होते हैं। जैसे कीचड़ में
फँसे हाथियों के निकालने के लिए हाथी ही समर्थ होते हैं। तब वे इस प्रकार अपनी इच्छानुसार
खाते-पीते, खेलते-कूदते संतोष कर सुख से रहने लगे।
एक दिन चित्रांग नामक मृग किसी के डर के मारे
उनसे आ कर मिला, इसके पीछे मृग को आता हुआ देख भय को समझ
मन्थर तो पानी में घुस गया, चूहा बिल में चला
गया और काक भी उड़ कर पेड़ पर बैठ गया। फिर लघुपतनक ने दूसरे से निर्णय किया कि भय का
कोई भी कारण नहीं है, यह सोचकर बाद में सब मिल
कर वहाँ ही बैठ गये। मन्थरने कहा—कुशल हो? हे मृग, तुम्हारा आना अच्छा हुआ। अपनी इच्छानुसार
जल आहार आदि भोग करो अर्थात खाओ, पीयो, और यहाँ रह कर इस वन को सनाथ करो। चित्रांग बोला—व्याध के डर से मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ और तुम्हारे साथ मित्रता करनी चाहता
हूँ। हिरण्य बोला—मित्रता तो हमारे साथ तुम्हारी
अनायास हो गई है। 0क्योंकि मित्र चार प्रकार के होते हैं, एक तो वह जिनका जन्म से ही जैसे पुत्रादि, दूसरे विवाहादि सम्बंध से हो गये हो, तीसरे कुल परंपरा से आए हुए हों तथा चौथे वे जो आपत्तियों से बचावें। इसलिए यहाँ
तुम अपने घर से भी अधिक आनंद से रहो। यह सुन कर मृग प्रसन्न हो अपनी इच्छानुसार भोजन
करके तथा जल पी कर जल के पास वृक्ष की छाया में बैठ गया। मन्थर ने कहा कि—हे मित्र मृग, इस निर्जन वन में तुम्हें
किसने डराया है क्या कभी-कभी व्याध आ जाते हैं मृग ने कहा—कलिंग देश में रुक्मांगद नामक राजा है और वह दिग्विजिय करने के लिये आ कर चंद्रभागा
नदी के तीर पर अपनी सेना को टिका कर ठहरा है और प्रातःकाल वह यहाँ आ कर कर्पूर सरोवर
के पास ठहरेगा, यह उड़ती हुई बात शिकारियों के मुख से
सुनी जाती है। इसलिये प्रातःकाल यहाँ रहना भी भय का कारण है। यह सोच कर समय के अनुसार
काम करना चाहिये। यह सुन कर कछुआ डर कर बोला—मैं तो दूसरे सरोवर को जाता हूँ। काग और मृग ने भी कहा—ऐसा ही हो अर्थात चलो। फिर हिरण्यक हँस कर बोला—दूसरे सरोवर तक पहुँचने पर मंथर जीता बचेगा। परंतु इसके पटपड़ में चलने का कौन-सा
उपाय है।
अम्भांसि जलजन्तुनां दुर्गे दुर्गनिवासिनाम्। स्वभूमि:
श्वापदादीनां राज्ञां मंत्री परं बलम्॥
जल के जंतुओं को जल का, गढ़ में रहने वालों को गढ़ का, सिंहादि वनचरों को
अपनी भूमि का और राजाओं को अपने मंत्री का परम बल होता है। उसके हितकारक वचनों को न
मान कर बड़े भय से मूर्ख की भांति वह मन्थर उस सरोवर को छोड़ कर चला। वे हिरण्यक आदि
भी स्नेह से विपत्ति की शंका करते हुए मन्थर के पीछे-पीछे चले।
फिर पटपड़ में जाते हुए मन्थर को, वन में घूमते हुए किसी व्याध ने पाया। वह उसे पा कर धनुष में बांध घुमता हुआ क्लेस
से उत्पन्न हुई क्षुधा ओर प्यास से व्याकुल, अपने घर की ओर चला। पीछे मृग, काग और चूहा वे बड़ा
विषाद करते हुए उसके पीछे-पीछे चले। हिरण्यक विलाप करने लगा—समुद्र के पार के समान नि: सीमा एक दुख के पार जब तक मैं नहीं जाता हूँ, तब तक मेरे लिए दूसरा दुःख आ कर उपस्थित हो जाता है, क्योंकि अनर्थ के साथ बहुत से अनर्थ आ पड़ते हैं। स्वभाव से स्नेह करने वाला मित्र
तो प्रारब्ध से ही मिलता है कि जो सच्ची मित्रता को आपत्तियों में भी नहीं छोड़ता है।
न मातरि न दारेषु न सोदर्ये न चात्मजे. विश्वासस्तादृशः
पुंसां यादृड्ग्रित्रे स्वभावजे॥
न माता, न स्री में, न सगे भाई में, न पुत्र में ऐसा विश्वास होता है कि जैसा स्वाभाविक मित्र में होता है।
इस संसार में अपने पाप-पुण्यों से किये गये और
समय के उलट-पलट से बदलने वाले सुख-दुख, पुर्वजन्म के किये हुए पाप-पुण्यों के फल मैंने यहाँ ही देख लिये।
कायः संनिहितापायः संपद: पदमापदाम्। समागमा: सापगमा:
सर्वमुत्पादि भड्गरम्॥
अथवा यह ऐसे ही है—शरीर के पास ही उसका नाथ है और संपत्तियाँ आपत्तियों का मुख्य स्थान है और संयोग
के साथ वियोग है, अर्थात अस्थिर है और उत्पन्न
हुआ सब-सब साथ होने वाला है।
और विचार कर बोला—शोक और शत्रु के भय से बचाने वाला तथा प्रीति और विश्वास का पात्र, यह दो अक्षर का मित्र रुपी रत्न किसने रचा है? और अंजन के समान नेत्रों को प्रसन्न करने वाला, चित्त को आनंद देने वाला और मित्र के साथ सुख दुख में साथ देने वाला, अर्थात दुख में दुखी, सुख में सुखी हो ऐसा
मित्र होना दुर्लभ है और संपत्ति के समय में धन हरने वाले मित्र हर जगह मिलते हैं।
परंतु विपत्काल ही उनके परखने की कसौटी है। इस प्रकार बहुत—सा विलास करके हिरण्यने चित्रांग और लघुपतनक से कहा—जब तक यह व्याध वन से न निकल जाए, तब तक मन्थर को छुड़ाने का यत्न करो। वे दोनों बोले—शीघ्र कार्य को कहिये। हिरण्यक बोला—चित्रांग जल के पास जा कर मरे के समान अपना शरीर दिखावे और काक उस पर बैठ के चोंच
से कुछ-कुछ खोदे। यह व्याध कछुए को अवश्य वहाँ छोड़ कर मृगमाँस के लोभ से शीघ्र जाएगा।
फिर मैं मन्थर के बंधन काट डालूँगा और जब व्याध तुम्हारे पास आवे तब भाग जाना। तब चित्रांग
और लघुपतनक ने शीघ्र जा कर वैसा ही किया तो वह व्याध पानी पी कर एक पेड़ के नीचे बैठा
मृग को उस प्रकार देख पाया। फिर छुरी लेकर आनंदित होता हुआ मृग के पास जाने लगा। इतने
ही में हिरण्यक ने आ कर कछुए को बंधन काट डाला। तब वह कछुआ शीघ्र सरोवर में घुस गया।
वह मृग उस व्याध को पास आता हुआ देख उठ कर भाग गया। जब व्याध लौट कर पेड़ के नीचे आया, तब कछुए को न देखकर सोचने लगा—मेरे समान बिना विचार करने
वाले के लिए यही उचित था।
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते। ध्रुवाणि
तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव हि॥
श्वेतकेतु
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