इन्द्र और वृत्त युद्ध- भिष्म का युधिष्ठिर को उपदेश
(इन्द्रस्य
नु०) यहाँ सूर्य का इन्द्र नाम है। उसके किये हुए पराक्रमों को हम लोग कहते हैं, जोकि परम ऐश्वर्य होने का हेतु बड़ा तेजधारी है। वह अपनी किरणों से 'वृत्र' अर्थात मेघ को मारता है। जब वह मरके पृथ्वी
में गिर पड़ता है, तब अपने जलरूप शरीर को सब
पृथ्वी में फैला देता है। फिर उससे अनेक बड़ी-२ नदी परिपूर्ण होके समुद्र में जा मिलती
हैं। कैसी वे नदी हैं कि पर्वत और मेघों से उत्पन्न होके जल ही बहने के लिए होती हैं।
जिस समय इन्द्र मेघरूप वृत्रासुर को मार के आकाश से पृथ्वी में गिरा देता है, तब वह पृथ्वी में सो जाता है। फिर वही मेघ आकाश में से नीचे गिरके पर्वत अर्थात
मेघमण्डल का पुनः आश्रय लेता है। जिसको सूर्य्य अपनी किरणों से फिर हनन करता है। जैसे
कोई लकड़ी को छील के सूक्ष्म कर देता है। वैसे ही वह मेघ को भी बिन्दु-बिन्दु करके
पृथ्वी में गिरा देता है और उसके शरीररूप जल सिमट-सिमट कर नदियों के द्वारा समुद्र
को ऐसे प्राप्त होते हैं कि जैसे अपने बछड़ों से गाय दौड़ के मिलती हैं। जब सूर्य्य
उस अत्यन्त गर्जित मेघ को छिन्न-भिन्न करके पृथ्वी में ऐसे गिरा देता है कि जैसे कोई
मनुष्य आदि के शरीर को काट-काट कर गिराता है, तब वह वृत्रासुर भी पृथ्वी पर मृतक के समान शयन करने वाला हो जाता है। 'निघण्टु' में मेघ का नाम वृत्र है (इन्द्रशत्रु)
—वृत्र का शत्रु अर्थात निवारक सूर्य्य है, सूर्य्य का नाम त्वष्टा है, उसका संतान मेघ है, क्योंकि सूर्य्य की किरणों के द्वारा जल कण होकर ऊपर को जाकर वाहन मिलके मेघ रूप
हो जाता है। तथा मेघ का वृत्र नाम इसलिये है कि वृत्रोवृणोतेः० वह स्वीकार करने योग्य
और प्रकाश का आवरण करने वाला है। वृत्र के इस जलरूप शरीर से बड़ी-बड़ी नदियाँ उत्पन्न
होके अगाध समुद्र में जाकर मिलती हैं और जितना जल तालाब व कूप आदि में रह जाता है वह
मानो पृथ्वी में शयन कर रहा है। वह वृत्र अपने बिजली और गर्जनरूप भय से भी इन्द्र को
कभी जीत नहीं सकता। इस प्रकार अलंकाररूप वर्णन से इन्द्र और वृत्र ये दोनों परस्पर
युद्ध के सामान करते हैं, अर्थात जब मेघ बढ़ता
है, तब तो वह सूर्य्य के प्रकाश को हटाता है और
जब सूर्य्य का ताप अर्थात तेज बढ़ता है तब वह वृत्र नाम मेघ को हटा देता है। परन्तु
इस युद्ध के अंत में इन्द्र नाम सूर्य्य ही की विजय होती है। (वृत्रो ह वा०) जब-जब
मेघ वृद्धि को प्राप्त होकर पृथ्वी और आकाश में विस्तृत होके फैलता है, तब-तब उसको सूर्य्य हनन करके पृथ्वी में गिरा देता है। उसके पश्चात वह शुद्ध भूमि, सड़े हुये वनस्पति, काष्ठ, तृण तथा मलमुत्रादि युक्त होने से कहीं-कहीं दुर्गन्ध रूप भी हो जाता है। तब समुद्र
का जल देखने में भयंकर मालूम पड़ने लगता है। इस प्रकार बारम्बार मेघ वर्षता रहता है।
(उपर्य्युपय्यॅति०) —अर्थात सब स्थानों से जल
उड़-उड़ कर आकाश में बढ़ता है। वहाँ इकट्ठा होकर फिर से वर्षा किया करता है। उसी जल
और पृथ्वी के सयोंग से ओषधी आदि अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। उसी मेघ को 'वृत्रासुर' के नाम से बोलते हैं। वायु और सूर्य्य
का नाम इन्द्र है। वायु आकाश में और सूर्य्य प्रकाशस्थान में स्थित है। इन्हीं वृत्रासुर
और इन्द्र का आकाश में युद्ध हुआ करता है कि जिसके अन्त में मेघ का पराजय और सूर्य्य
का विजय निःसंदेह होता है।
युधिष्ठिर द्वारा भीष्म से वृत्रासुर के विषय
में प्रश्न करना युधिष्ठिर ने पूछा-दादाजी! अमित तेजस्वी वृत्रासुर की धर्मनिष्ठा
अद्भुत थी। उसका विज्ञान भी अनुपम था और भगवान विष्णु के प्रति उसकी भक्ति भी वैसी
ही उच्च कोटि की थी। त्तात! अनन्त तेजस्वी श्रीविष्णु के स्वरूप का ज्ञान तो अत्यन्त
कठिन है। नृप श्रेष्ठ! उस वृत्रासुर ने उस परमपद का ज्ञान कैसे प्राप्त कर लिया? यह बड़े आश्चर्य की बात है। आपने इस घटना का वर्णन किया है; इसलिये मैं इसे सत्य मानता और इस पर विश्वास करता हूँ; क्योंकि आप कभी सत्य से विचलित नहीं होते हैं तथापि यह बात स्पष्ट रूप से मेरी
समझ में नहीं आयी है; अत: पुन: मेरी बुद्धि में
प्रश्न उत्पन्न हो गया। पुरुषप्रवर! वृत्रासुर धर्मात्मा, भगवान विष्णु का भक्त और वेदान्त के पदों का अन्वय करके उनके तात्पर्य को
ठीक-ठीक समझने में कुशल था तो भी इन्द्र ने उसे कैसे मार डाला? भरतभूषण! नृपश्रेष्ठ! मैं यह बात आपसे पूछता हूँ, आप मेरे इस संशय का समाधान कीजिये। इन्द्र ने वृत्रासुर को कैसे परास्त किया? महाबाहु! पितामह! इन्द्र और वृत्रासुर में किस प्रकार का युद्ध हुआ था, यह विस्तारपूर्वक बताइये; इसे सुनने के लिये
मेरे मन में बड़ी उत्सुकता हो रही है। भीष्म का युधिष्ठिर को वृत्रासुर की कथा सुनाना
भीष्म जी ने कहा-राजन्! प्राचीन काल की बात है, इन्द्र रथ पर आरूढ हो देवताओं को साथ ले वृत्रासुर से युद्ध करने के लिये चले।
उन्होंने अपने सामने खड़े हुए पर्वत के समान विशालकाय वृत्र को देखा। शत्रुदमन नरेश!
वह पाँच सौ योजन ऊँचा था और कुछ अधिक तीन सौ योजन उसकी मोटाई थी। वृत्रासुर का वह वैसा
रूप, जो तीनों लोकों के लिये भी दुर्जय था, देखकर देवता लोग डर गये। उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। राजन्! उस समय वृत्रासुर
का वह उत्तम एवं विशाल रूप देखकर सहसा भय के मारे इन्द्र की दोनों जाँघें अकड़ गयीं।
तदनन्तर वह युद्ध में उपस्थित होने पर समस्त देवताओं और असुरों के दलों में रणवाद्यों
का भीषण नाद होने लगा। कुरुनन्दन! इन्द्र को खड़ा देखकर भी वृत्रासुर के मन में न
तो घबराहट हुई, न कोई भय हुआ और न इन्द्र के प्रति उसकी
कोई युद्ध विषयक चेष्टा ही हुई. फिर तो देवराज इन्द्र और महामनस्वी वृत्रासुर में
भारी युद्ध छिड़ गया, जो तीनों लोकों के मन में
भय उत्पन्न करने वाला था। उस समय तलवार, पट्टिश, त्रिशूल, शक्ति, तोमर, मुदगर, नाना प्रकार की शिला, भयानक टंकार करने वाले धनुष्, अनेक प्रकार के दिव्य अस्त्र-शस्त्र तथा आग की ज्वालाओं से एवं देवताओं और
असुरों की सेनाओं से यह सारा आकाश व्याप्त हो गया। भरतभूषण महाराज! ब्रह्मा आदि समस्त
देवता महाभाग ऋषि, सिद्धगण तथा अप्सराओं सहित
गन्धर्व-ये सबके सब श्रेष्ठ विमानों पर आरूढ हो उस अद्भुत युद्ध का दृश्य देखने
के लिये वहाँ आ गये थे। तब धर्मात्माओं में श्रेष्ठ वृत्रासुर ने आकाश को घेरकर वड़ी
उतावली के साथ देवराज इन्द्र पर पत्थरों की वर्षा आरम्भ कर दी। यह सब देख देवगण
कुपित हो उठे। उन्होंने युद्ध में सब ओर से बाणों की वर्षा करके वृत्रासुर के चलाये
हुए पत्थरों की वर्षा को नष्ट कर दिया। कुरुश्रेष्ठ! महामायावी महाबली वृत्रासुर
ने सब ओर से मायामय युद्ध छेड़कर देवराज इन्द्र को मोह में डाल दिया। वृत्रासुर से
पीड़ित हुए इन्द्र पर मोह छा गया। तब वसिष्ठ जी ने रथन्तर सामद्वारा वहाँ इन्द्र
को सचेत किया। वसिष्ठ जी ने कहा-देवेन्द्र! तुम सब देवताओं में श्रेष्ठ हो। दैत्यों
तथा असुरों का संहार करने वाले शक्र! तुम तो त्रिलोकी के बल से सम्पन्न हो; फिर इस प्रकार विषाद में क्यों पड़े हो? ये जगदीश्वर ब्रह्मा, विष्णु और शिव तथा
भगवान सोमदेव और समस्त महर्षि तुम्हें उदिग्न देखकर तुम्हारी विजय के लिये स्वस्तिवाचन
कर रहे हैं। इन्द्र! किसी साधारण मनुष्य के समान तुम कायरता न प्रकट करो। सुरेश्वर!
युद्ध के लिये श्रेष्ठ बुद्धि का सहारा लेकर अपने शत्रुओं का संहार करो। देवराज! ये
सर्वलोकवन्दित लोकगुरु भगवान त्रिलोचन शिव तुम्हारी ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देख रहे
हैं। तुम मोह को त्याग दो। शक्र! ये बृहस्पति आदि महर्षि तुम्हारी विजय के लिये
दिव्य स्तोत्र द्वारा स्तुति कर रहे हैं। -महर्षियों द्वारा भगवान शिव से निवेदन
भीष्म जी कहते हैं-राजन्! महात्मा वसिष्ठ के द्वारा इस प्रकार सचेत किये जाने पर
महातेजस्वी इन्द्र का बल बहुत बढ गया। तब भगवान पाकशासन ने उत्तम बुद्धि का आश्रय
ले महान योग से युक्त हो उस माया को नष्ट कर दिया। तदनन्तर अंगिरा के पुत्र श्रीमान
बृहस्पति तथा बड़े-बडे़ महर्षियों ने जब वृत्रासुर का पराक्रम देखा, तब महादेवजी के पास आकर लोकहित की कामना से वृत्रासुर के विनाश के लिये उनसे निवेदन
किया। तब जगदीश्वर भगवान शिव का रौद्र ज्वर होकर लोकेश्वर वृत्र के शरीर में समा
गया। फिर लोकरक्षापरायण सर्वलोकपूजित देवेश्वर भगवान विष्णु ने भी इन्द्र के वज्र
में प्रवेश किया। तत्पश्चात बुद्धिमान बृहस्पति, महातेस्वी वसिष्ठ तथा सम्पूर्ण महर्षि वरदायक, लोकपूजित शतक्रतु इन्द्र के पास जाकर एकाग्रचित्त हो इस प्रकार बोले-प्रभो! वृत्रासुर
का वध करो '। महेश्वर बोले-इन्द्र! यह महान वृत्रासुर
बड़ी भारी सेना से घिरा हुआ तुम्हारे सामने खड़ा है। इसमें सर्वत्र गमन करने की शक्ति
है। यह अनेक प्रकार की मायाओं का सुविख्यात ज्ञाता भी है। सुरेश्वर! यह श्रेष्ठ
असुर तीनों लोकों के लिये भी दुर्जय है। तुम योग का आश्रय लेकर इसका वध करो। इसकी अवहेलना
न करो। अमरेश्वर! इस वृत्रासुर ने बल की प्राप्ति के लिये ही साठ हजार वर्षों तक तप
किया था और तब ब्रह्माजी ने इसे मनोवांछित वर दिया था। सुरेन्द्र! उन्होंने इसे योगियों
की मीहिमा, महामायावीपन, महान बल-पराक्रम तथा सर्वश्रेष्ठ तेज प्रदान किया है। वासव! लो, यह मेरा तेज तुमहारे शरीर में प्रवेश करता है। इस समय दानव वृत्र ज्वर के कारण
बहुत व्यग्र हो रहा है; इसी अवस्था में तुम
वज्र से इसे मार डालो। इन्द्र ने कहा-भगवन्! सुरश्रेष्ठ! आपकी कृपा से इस दुर्धर्ष
दैत्य को मैं आपके देखते-देखते वज्र से मार डालूँगा। भीष्मजी कहते हैं–राजन्! जब महादैत्य वृत्रासुर के शरीर में ज्वर ने प्रवेश किया, तब देवता और ॠर्षियों का महान हर्षनाद वहाँ गूँज उठा। फिर तो दुन्दुभियाँ, जोर-जोर से बजने वाले शंख, ढोल और नगाड़े आदि
सहस्त्रों बाजे बजाये जाने लगे। समस्त असुरों की स्मरण-शक्ति का बड़ा भारी लोप हो
गया। क्षणभर में उनकी सारी मायाओं का पूर्णरूप से विनाश हो गया। इस प्रकार वृत्रासुर
में महादेव जी के ज्वर का आवेश हुआ जान देवता और ऋषि देवेश्वर इन्द्र की स्तुति
करते हुए उन्हें वृत्रवध के लिये प्रेरणा देने लगे। युद्ध के समय रथ पर बैठकर ऋषियों
के द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए महामना इन्द्र का रूप ऐसा तेजस्वी प्रतीत होता
था कि उसकी ओर देखना भी अत्यन्त कठिन जान पड़ता था।
श्वेतकेतु और
उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद,
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यजुर्वेद
मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE
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उषस्ति
की कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
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वैराग्यशतकम्,
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व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda
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