वैदिक विद्वान वैज्ञानिक
विश्वामित्र के द्वारा अन्तरिक्ष में स्वर्ग की स्थापना
राजा हिरिश्चन्द राम के पुर्वज थे, राम के पीता दसरथ, दसरथ के पीता रघु और रघु
के पिता अज थे। राम जिस धनुश को धारण करते थे वह अज नाम से ही जाना जाता है राम के
इनसे कई पिढ़ी पहले हरिश्चन्द हुये उनके पिता त्रिशंकु थे। जो महर्षि वैज्ञानिक विश्वामित्र
के बहुत बड़े भक्त थे। एक बार महर्षि को भी किसी कारण बश वहा स्वर्ग से निस्काशित कर
दिया गया क्योंकि वह त्रीशंकु अपने भक्त को भी वहाँ स्वर्ग में स्थान दिलान या रखना
चाहते थे। देवतावों ने यह प्रस्ताव ऋषी विश्वामित्र का अस्विकार कर दिया और कारण बताया
की वह त्रिशंकु बिलाशी राजा है जो यहाँ स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। यह देवतावों
की बात सुन कर ऋषि बिश्वामित्र को अपना अपमान समझ में आया इसलिये उन्होने स्वर्ग का
त्याग कर दिया और निचे संसार में रहने लगे, देवतावों से अपने अपमान का बदला लेने के लिये उन्होंने एक बहुत बड़ी योजना बनाई
त्रीशंकु के साथ मिल कर जो पृथ्वी का चक्रवर्ति सम्राट था। उसके लिये अंतरिक्ष में
एक नया स्वर्ग बनाने की।
विश्वामित्र भी पहले एक सम्राट थे वह भी राज्य
चुके थे पृथ्वी पर वह त्रीशंकु के पुर्वज थे।
ऋषि विश्वामित्र के संदर्भ में एक बहुत प्रसिद्ध
आख्यान प्रचलित है। एक वार ऋषि विश्वामित्र जब सम्राट हुआ करते थे, उस समय एक युद्ध इनका दैत्यों से हुवा था। उसको जित कर विश्वामित्र अपनी लाखों
की सेना के साथ वापिस अपने राज्य की तरफ लौट रहे थे। उनकी सेना और वह बहुत थके हुये
थे, वह आराम चाहते थे कुछ समय के लिये, उस समय उनके पास कुछ रसद सामान शेष नहीं बचा हुआ था। तभी उनको उन्हें अपने गुप्तचरों
के द्वारा ज्ञात हुआ की यहाँ कुछ दूर पर ब्रह्मऋषि वषिष्ट का आश्रम है। तो विश्वामित्र
अपने एक सेवक को भेजा वषिष्ट के आश्रम में भेज कर याचना की उनके लिये और उनके सेना
के लिये कुछ रसद खाने पिने का सामान उपलब्ध करायें, वषिष्ट ने उत्तर में कहलवाया की ठीक है आप सब आराम करें कुछ समय में सभी सामग्री
आप सब के पास पहुच जायेगी।
इस तरह से विश्वामित्र की सेना और वह स्वयं
आश्रम के समिप एक नदी किनार अपना पड़ाव डाल दिया। जैसा की उनको बताया गया था कि कुछ
समय में सभी वस्तु उनके पास पहुंच जायेगी। ठीक वैसा हुवा थोड़े ही समय में सभी सेना
के लिये खाने पिने रहने के लिये सभी प्रकार का पर्याप्त सामान पहुचा दिया गया, यह जान कर विश्वामित्र को बहुत आश्चर्य हुआ। जो कार्य मैं पूर्ण करने में बिवश
हो रहा हुं इस जंगल में वह कार्य एक साधु ने इतना जल्दि कैसे संभव कर दिया? इस कारण को जानने के लिये वह स्वयं वषिष्ट से मिलने के लिये उनके आश्रम में गये
और ब्रह्म ऋषि वषिष्ट से विश्वामित्र ने पुछा की आप ने यह सब कैसे किया? इतने बड़े लाव लस्कर सेना को तृप्त कर दिया। तब ब्रह्म ऋषि वषिष्ट ने अपने पास
विद्यमान एक गाय काम धेनु के बारे में बताया कि यह सब इस तो काम धेनु गाय ने किया है।
यह जानकर विश्वामित्र काम धेनु को देखना चाहा। जब ब्रह्मॠषि ने, विश्वामित्र को काम धेनु गाय का दर्शन कराया तो उसको देखकर विश्वामित्र बहुत मोहित
हो गये और उन्होंने वह कामधेनु अपने महल में ले जाने की इच्छा जाहिर कर दी। यह काम
धेनु जो सागर मंथन से निकली थी जिसको देवता और दैत्यों ने मिल कर किया था। ब्रह्मऋषि
वषिष्ट ने कहा यह तो कामधेनु स्वयं निश्चय करती है कि इसे कहा रहना है। कामधेनु ने
विश्वामित्र के महल में जाने से मना कर दिया। विश्वामित्र ने अपनी सभी प्रकार की नितियों
का प्रयोग किया कामधेनु को अपने महल में लाने के लिये। साम, दाम, दण्ड, भेद लेकिन वह किसी प्रकार से सफल नहीं हुये। अन्त में उन्हें अपनी पराजय स्विकार
करनी पड़ी। फिर उन्होंने अपने पास के सभी विद्वान मंत्री से मंत्रणा की यह कैसे संभव
हो गया? की कामधेनु एक सम्राट को छोड़ कर आश्रम
में क्यों रहना चाहती है? तब उनके सभी विद्वान
मंत्री सहयोगीयों ने बताया की वषिष्ट कोई साधारण मानव नहीं ब्रह्मऋषि है। विश्वामित्र
ने कहा कि क्या वह सम्राट से बड़े है? उनको उत्तर मिला हाँ महाराज इस तरह से विश्वामित्र ब्रह्मऋषि वषिष्ट के सरण में
आकर राज्य का त्याग कर दिया और ब्रह्मऋषि के साधना में तल्लिन हो गये काफी समय के बाद
वह ब्रह्मऋषि की उपाधी से ब्रह्मऋषि वषिष्ट द्वारा सम्बोधित किये गये और उनको स्वर्ग
में अस्थान मिल गया वहाँ बहुत समय रहने के बाद जब त्रीशंकु को बचन देने के कारण स्वर्ग
का त्याग कर दिया और एक नया स्वर्ग बनाने में जुट गये।
महर्षि विश्वामित्र जो एक महान वैज्ञानिक
थे अपने शिष्यों के साथ मिलकर त्रीशंकु को जीवित स्वर्ग में पहुंचाने के लिये, उन्होंने एक नये उपग्रह स्वर्ग नाम से अंतरिक्ष में निर्वाण किया और उसे पृथ्वि
और चंद्रमा के मध्य में स्थापित कर दिया, वह पुरी तरह से मानव निर्मित एक उपग्रह था। वहाँ मानव को रहने की सभी सुबिधायें
थी, वह एक कृतिम उपग्रह था। जैसा कि आज के समय
में अमेरिका, चाईना, रुश आदि देशों ने अपना एक स्पैश स्टेशन अंतरिक्ष में बना रखा है, यद्यपि यह बहुत छोटे है यहाँ पर कुछ एक मानव वैज्ञानिक सोध करने के लिये रहते है, भविष्य में मानव यहाँ पर घुमने जा सकता है। जहाँ पर कल्पना चावला जा कर जब वापिस
आ रही थी, उसका स्पैश क्राफ्ट रास्ते में ब्लास्ट
कर गया, जिससे उस स्पैशक्राफ्ट के सभी सात सदस्य
कल्पना चावला समेत मारे गये थे। वहाँ भारतिय मुल की सुनिता बिलियम्स भी जा कर आ चुकी
है।
विश्वामित्र का बनाया गया उपग्रह काफ़ी बड़ा
और सब प्रकार की सुख सुबिधा समपन्न था वहाँ पर त्रीशंकु अपने काफी आदमियों के साथ रहने
लगे। लेकिन यह बात और दूसरे देवता वैज्ञानिक ऋषि जो हिमालय के स्वर्ग पर रहते थे उन्हें
अच्छी नहीं लगी कि कोई उनसे श्रेष्ठ अस्थान पर रहे और उनसे अच्छा जीवन जीये। क्योंकि
जो स्वर्ग महर्षि विश्वामित्र ने बनाया था वहाँ रहने वाले की उम्र भी बढ़ जाती थी और
बहुत प्रकार कि सुबिधा थी, जो पृथ्वी पर विद्यमान
स्वर्ग था वहाँ के लोगों को गवारा नहीं था। उन सब ने विश्वीमित्र को निचा दिखाने के
लिये बहुत प्रकार के सणयंत्र रचने लगे। जिसमे सबसे पहले विश्वामित्र को जहाँ से सबसे
अधिक धन मिलता था अर्थात त्रीशंकु के राज्य से जो अब उनके पुत्र राजा हरिश्चंद के अधिपत्य
में चलता था। सभी देवता गड़ राजा हरिश्चंद को झुठा और असत्य सिद्ध करने के लिये संसार
में प्रचारित करने लगे, गुप्त रूप से यह हरिश्चन्द
को बहुत बुरा लगा। उन्होंने सम्पूर्ण संसार में अपनी प्रतिष्ठा को सिद्ध करने के लिये, यह घोषणा कर दि की जो कोई उनको झुठा सिद्ध कर देगा वह उन्हें अपना सर्वश्व दान
कर देगें, यहाँ तक राजा हरिश्चंद ने स्वप्न में
भी झुठ नहीं बोलने की कसम खा रखी थी। विश्वामित्र को अपने कार्यक्रम अंतरिक्ष में बनाये
स्वर्ग के लिये निरनंतर धन की आवश्यक्ता थी वह जानते थे देवता गड़ राजा हरिश्चंद को
यदी झुठा सिद्ध कर दिया। अपने सणयंत्र के द्वारा और उनसे राज्य और उनका धन छिन लिया
तो स्वर्ग का उनका कार्यक्रम रुक सकता है। या कोई भयानक विध्न पड़ सकता है। यह बिचार
कर करके उन्होंने एक योजना बनाई कि राजा हरिश्चंद को भी उनके साम्राज्य समेत स्वर्ग
में स्थापित किया जाये और पृथ्वि का त्याग कर दिया जाये, जिससे यहाँ पृथ्वी के दैत्य हिमालय के स्वर्ग के देवता में संघर्ष होगा और हम देवता
के सणयंत्र से बच जायेगे और हमारा अंतरिक्ष का स्वर्ग सामाराज्य के साथ सुरक्षित हो
जायेगा। यह बात जब राजा हरिश्चंद को महर्षि विश्वामित्र ने उनके स्वप्न में आ कर बताया
और कहा कि यह इच्छा उनके पिता की भी है। लेकिन राजा हरिश्चंद को अपनी सत्य के प्रति
निष्ठा और संसार में अपनी प्रतिष्ठा अपने पिता त्रीशंकु की इच्छा से बहुत अधिक बहुमूल्य
था। वह किसी किमत पर पृथ्वी को छोड़ना नहीं चाहते थे। भले हि इसके लिये उनको अपना सर्वस्व
राज्य पाठ धन, सम्पदा, मान, मर्यादा सब कुछ दाव पर लगाना पड़े। वह
बिल्कुल तैयार थे, उनके साथ उनकी पत्नी और उनका
बेटा भी तैयार था। जब महर्षि विश्वामित्र और त्रीशंकु को यह ज्ञात हो गया कि किसी भी
प्रकार से राजा हरिश्चंद अपने बचन से अडिग नहीं होने वाला है, सत्य मार्ग से जो इसके सर पर चढ़ गया है। इससे इसका सब कुछ छिन लिया जाये तो सायद
दुःखों के थपेड़ों और कष्ट पूर्ण क्लेशों कि आधियों से बौखला कर हमारी सरण में आ जाये।
त्रिशंकु की सहमति से महर्षि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद से कहा कि मैं अगले दिन
सुबह तुम्हारे दरबार में आउंगा और तुम अपना सब कुछ जो राज्य पाठ तुम्हारे पिता के द्वारा
तुम्हे मिला है। उनकी आज्ञा का पालन न करने के कारण मुझे दान कर देना, जिसके लिये राजा हरिश्चंद तैयार हो गये। सुबह होने पर जैसे ही दरबार लगा राजा हरिश्चंद
सिंहाषन पर बिराजमान हुये तभी महर्षि विश्वामित्र उनके सामने उपस्थित हो गये और अपना
स्वप्न में आने की बात का याद दिला राज्य को लेने कि बात की, जिसके लिये राजा हरिश्चंद सहर्ष तैयार हो गये और वह अपनी पत्नी और पुत्र को साथ
लेकर भिखारी के भेष में राज्य से बाहर जाने के लिये तैयार हुये। तब महर्षि विश्वामित्र
ने कहा कि यह दान जो तुमने दिया है यह तुम्हारे पिता कि बिराषत है। तुम्हारी स्वयं
की नहीं है, इसके अतिरीक्त तुम्हें दक्षिणा देना होगा
पांच सहस्र जो तुम्हें कही और से पांच दिन में व्यवस्था करना होगा, इसके लिय भी राजा हरिश्चंद तैयार होगये और राज्य से प्रस्थान किया। बहुत दुःखों
कष्टों पिड़ावों को सह-सह कर चुर हो गयें भुखे प्यासे, उनकी कोई सहायता करने वाला नहीं खड़ा हुआ, क्योंकि जो उनकी सहायता करने का प्रयाश करता वह देवताओं और महर्षि विश्वामित्र
के कोप का भाजन बनता था। जिससे किसी कि हिम्मत ही नहीं हुई, की वह राजा हरिश्चंद और उनके परिवार की किसी प्रकार से सहायता कर सके, इसके अतिरिक्त रोज महर्षि विश्वामित्र अपने दक्षिणा को लेने के लिये निरंतर दबाव
बनाते रहते थे। क्योंकि महर्षि विश्वामित्र नहीं चाहते थे कि यह राजा हरिश्चंद केवल
सत्य और अपने बचन कि रक्षा के लिये महान अशहनिय कष्टों को सहे, वह समझते थे राजा हरिश्चंद झुक जायेगें और अपने बचन से बिमुख हो जायेंगे। लेकिन
यह नहीं हो सका राजा हरिश्चंद ने भयानक कष्टों को सहा और अंत में कई दिनों में अयोद्धा
से काशी शिव की नगरी पहुचें गये। जहाँ उनको कोई पहचानता नहीं था वहाँ एक चौराहे पर
खड़े हो गये जहाँ दाश-दाशियाँ बिकते थे वहाँ पर वह अपने पत्नी और बच्चे को एक व्यापारी
के हाथों में बेच दिया और स्वयं को एक डोम (धैइकार) को बेच दिया। जिससे उन्हे पांच
शहश्त्र स्वर्ण मुद्रायें मिली जिसे उन्होंने प्रेम से महर्षि विश्वामित्र का दक्षिणा
रूप ॠण दे कर उऋण हुये। स्वयं को डोम के सम्सान घाट पर मुर्दा फुंक-फुंक कर जीवको पार्जन
करने में लगा लिया और पत्नी बच्चा उस ब्यापारी के घर की दाशी बन कर जीवको पार्जन करने
लगे।
विश्वामित्र अपने साथ अपना सारा धन सामराज्य
और स्त्री-पुरष, पशु, धन इत्यादि सामग्री को लेक कर अपने बनायें स्वर्ग में चले गयें और वहाँ उसका बिस्तार
करने लगें।
जब हिमालय के देवताओं को अपनी योजना सफल होती
नजर नहीं आई महर्षि विश्वामित्र के स्वर्ग का विस्तार उनकी आंखों तिनके की तरह दुखने
लगा। वह सब यह बर्दास्त नहीं कर पा रहे थे कि उनके स्वर्ग से निस्कासित किया गया कोई
महर्षि या राजा कैसे अपने लिये अन्तरिक्ष में स्वर्ग बनाकर रह सकता है? यह उनके सम्मान और साधारण जनों में उनके प्रति लोगों की आस्था भी बहुत कम होने
लगी थी और ज़्यादा से ज़्यादा लोग अब महर्षि विश्वामित्र के द्वारा बनाये हुये स्वर्ग
में राजा त्रिशंकु के साथ रहना चाहते थे। यह सब पृथ्वी पर उपस्थित स्वर्ग के देवताओं
को कदापि गवारां नहीं था कि उनके प्रति लोगों कि आस्था कम हो, यह उन सब के अस्तित्व को लेकर बहुत बड़ा खतरा संकेत था और दूसरा कारण था कि पृथ्वी
और चंद्रमा के मध्य में स्थित बनाये गये, महर्षि विश्वामित्र का स्वर्ग अपना सारा कार्य सौर्य उर्जा से करता था। जिसके कारण
पृथ्वी पर पर्याप्त मात्रा में सूर्य का प्रकाश भी ना मिलने से पृथ्वी ठंडी होने लगी
थी और यहाँ पर जीवन के लिये खतरा मंडराने लगा। यदि ऐसा ही चलता रहा कुछ हजार या लाख
साल में पृथ्वी पर कोई मानव जीव जन्तु प्राणी जीवित ना बचे और दूसरा कारण बताया गया
कि चन्द्रमा का गुरुत्त्वाकर्षण आकर्षण बल कम होगया। क्योंकि उस गुरुत्वाकर्षण बल का
उपयोग महर्षि विश्वामित्र नें अपने स्वर्ग को व्यवस्थित रखने में बहु ज़्यादा मात्रा
में करने लगे थे। जिसके कारण पृथ्वी पर उपस्थित समंदर में ज्वारभाटा के समय में परि
वर्तन आने लगा। सूर्य कि गर्मि कम पड़ने के कारण समंदर का पानी वास्प बहुत कम बनता
था और जिसके कारण बारिष की मात्रा पृथ्वी पर कम होगई और इस वजह से पृथ्वी अनाज, फल, सब्जियाँ की पैदावार कम होने लगी थी।
लोग हिंसक होने लगे जानवरों प्राणियों को मार-मार कर उनका भोजन के रूप में उपयोग करने
लगे। जिसके कारण हिंसक दैत्यों की संख्या में इजाफा होने लगा। हर प्रकार से देवताओं
के साथ सभी मानवों पर ग़लत प्रभाव पड़ने लगा। इन सब जानकारियों से महर्षि विश्वामित्र
को परिचित कराया गया और सिफारिश की गई की वह अपने बनाये अन्तरिक्ष को नष्ट करके पृथ्वी
वापस आकर बश जायें। लेकिन महर्षि विश्वामित्र ने जबाब में देवतावों को बहुत तिखा उत्तर
दिया की जब देवता हमारे उपर ध्यान नहीं दिये जब हम पृथ्वि पर रहते थे, अब जब कि हम अपना सर्वस्व लगाकर बहुत आगें निकल आये है तो हमे वापिस आने कि बात
करके हमे नष्ट करना चाहते है। यह कदापि संभव नहीं है हमारे लिये। यहाँ हमे कोई नुकसान
नहीं है। आप अपनी रक्षा किजीये और मेरे से किसी प्रकार के सहयोग कि कामना ना करें।
पृथ्वि के स्वर्ग के देवतावों को जब सकारात्मक
परिणाम नहीं मिला तब उन्हेंने एक बहुत बुरा दूसरा सणयंत्र रचा पहले तो देवतावों का
राजा इन्द्र ने त्रीशंकु के पुत्र राजा हरिश्चंद को अपनी तरफ मिलाने कि योजना बनाई।
आगे चलकर गुप्त रूप से सिधा-सिधा राजा हरिश्चंद्र
से ना मिल कर इनके परिवार अर्थात इनकी पत्नी शैब्या और पुत्र रोहताश्च को भी इसमें
एकत्रित रूप से मिला जाये। जब शैब्या राजा हरिश्चंद्र की पत्नी अपने बेटे रोहताश्च
के साथ जिस व्यापारी के यहाँ दासी थी। उसकी पत्नी बहुत दुष्ट और निक्रिष्ट स्वभाव की
थी वह शैब्या से बहुत अधिक काम लेती बदले में उसे बहुत थोड़ा भोजन देती थी फिर भी सभी
शारिरीक मानसिक। पिड़ाओं को सहकर शाब्या अपनी मालकिन को प्रशन्न रखने का हमेंशा प्रयाश
करती रहती थी। फिर भी उसकी मालकिन बहुत नाराज रहती और तरह-तरह के उलाहने निरंतर शाब्या
को दिया करती थी। यहाँ तक रोहताश्च से भी वह काम लेती, ऐसा ही चल रहा था, एक दिन रोहताश्च को जंगल
में लकड़ीयों को लेने भेज दिया वह लकड़ी लेकर आरहा था तभी देवताएँ का राजा इन्द्र उसे
काटने के लिये एक सांप भेज दिया जिसने रोहताश्च को काट लिया जिसके कारण रोहताश्च की
हालत बिगड़ गई, यह बात जब शैब्या को बहुत समय तक रोहताश्च
लकड़ी लेकर नहीं आया। तब शाब्या उसकी तलाश में जंगल में गई जहाँ उसने उसे रास्ते में
मृत पड़ा पया तब उसे पता चला की वह अपने प्रीय पुत्र को खो चुकी है। वह बहुत रोई बिलखी
और उसे मरा हुआ मान कर उसके अंतिम संस्कार के लिये अपने गोद में लेकर नदी किनारे रात्री
के समय उसी सम्शान घाट पर पहुंची जहाँ पर राजा हरिश्चंद्र पहरा देते थे और मुर्दा जलाने
से पहले सभी मुर्दा फुकने वाले से कर लेते थे। रात्री का समय सायं-सायं करती रात चारों
तरफ जलती लाशें इधर-उधरी बीखरी थी। चारों तरफ के वायुमंडल में मांस के जलने की भयानक
बदबु से भर रहा था, जहाँ कुत्ते भौक रहें थे
वह उस स्थान को और भयानक बना रहे थे। आज भी वह राजा हरिश्चंद्र का मुर्दा फुकने वाला
घाट काशी (वाराणसी) में प्रशिद्ध है। जब राजा हरिश्चंद ने देखा कि शब्या को और उसके
गोद में उनके बेटे रोहताश्च की लाश है, वह पहचान गये लेकिन अपने सत्य धर्म की रक्षा के लिये उन्हेंने ऐसा व्यवहार किया
की दोनो अपरचित है। उन्होंने शब्या से कहा यहा किसी शरीर का दाह संस्कार करने से पहले
मुझे कर देना होगा उसके बाद ही तुम कोई दाह संस्कार कर सकती हो। शब्या बिलख-बिलख रोते
हुये कहा मेरे पास कुछ नहीं है शिवाय यह वस्त्र जिससे मैने अपने शरिर को धक रखा है
उसमें आधा ले सकतो तुम दाह संस्कार करने के बदले में। जिसके लिये रजा हरिश्चंद्र तैयार
हो गये। शैब्या अपनी साड़ी को फाड़ने के लिये हाथ बढ़ाया तभी देवतावों का राजा इन्द्र
उन दोनो के मध्य प्रकट हुआ और कहा कि अब बहुत हो गया तुम जीत गये राजा हरिश्चंद सत्यवादी
हो धर्मात्मा हो मैं तुम्हें इस कृत्य से मुक्त करता हूँ और तुम्हारे पुत्र को जीवित
करता तुम सब अब हमारे साथ रहो हम तुम्हे अपने साथ रखते है।
इस तरह से हरिश्चंद्र देवतावों के साथ हो लिये।
राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा और धार्मिक्ता
के प्रति समर्पण से प्रशन्न हो कर महर्षि विश्वामित्र ने उनका राज्य पुनः हरिश्चंद्र
को वापिस दे दिया और स्वयं समाधि में लिन होगये। त्रीशंकु राजा हरिश्चंद्र के पिता
सत्यब्रत अपना सब कुछ यहाँ तक स्वर्ग को भी जो महर्षि विश्वामित्र ने उनके लिये बनाया
था। उसे भी राजा हरिश्चमद्र को दे कर शरीर त्याग कर के परमात्मा में विलीन हो गये।
इस तरह से देवतावों स्वर्ग को पृथ्वी को बचाया और महर्षि विश्वामित्र के बनाये अन्तरिक्ष
में स्वर्ग को अपनी दिव्य अश्त्रों से नष्ट कर दिया।
कर्ण कौरवों की सेना में होते हुए भी महान
धर्मनिष्ठ योद्धा थे। भगवान श्रीकृष्ण तक उनकी प्रशंसा करते थे। महाभारत युद्ध में
कर्ण ने अर्जुन को मारने की प्रतिज्ञा की थी। उसे सफल बनाने के लिए खांडव वन के महासर्प
अश्वसेन ने इसे उपयुक्त अवसर समझा। अर्जुन से वह शत्रुता तो रखता था, पर काटने का अवसर नहीं मिलता था। वह बाण बनकर कर्ण के तरकस में जा घुसा, ताकि जब उसे धनुष पर रखकर अर्जुन तक पहुँचाया जाए, तो अर्जुन को काटकर प्राण हर ले।
कर्ण के बाण चले। अश्वसेन वाला बाण भी चला, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने वस्तुस्थिति को समझा और रथ-घोड़े जमीन पर बिठा दिए. बाण
मुकुट काटता हुआ ऊपर से निकल गया।
असफलता पर क्षुब्ध अश्वसेन प्रकट हुआ और कर्ण
से बोला, "अबकी बार अधिक सावधानी से
बाण चलाना, साधारण तीरों की तरह मुझे न चलाना। इस
बार अर्जुन वध होना ही चाहिए. मेरा विष उसे जीवित रहने न देगा।"
इस पर कर्ण को भारी आश्चर्य हुआ। उसने उस कालसर्प
से पूछा, "आप कौन हैं और अर्जुन को
मारने में इतनी रूचि क्यों रखते हैं?"
सर्प ने कहा "अर्जुन ने एक बार खण्डव वन
में आग लगाकर मेरे परिवार को मार दिया था, इसलिए उसी का प्रतिशोध लेने के लिए मैं व्याकुल रहता हूँ। उस तक पहुँचने का अवसर
न मिलने पर आपके तरकस में बाण के रूप में आया हूँ। आपके माध्यम से अपना आक्रोश पूरा
करूँगा।"
कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति कृतज्ञता प्रकट
करते हुए वापस लौट जाने के लिए कहा, "भद्र, मुझे अपने ही पुरुषार्थ से नीति युद्ध
लड़ने दीजिए. आपकी अनीतियुक्त सहायता लेकर जीतने से तो हारना अच्छा है।"
कालसर्प कर्ण की नीति-निष्ठा को सराहता हुआ वापस
लौट गया। उसने कहा, "कर्ण तुम्हारी यह धर्मनिष्ठा
ही सत्य है, जिसमे अनीतियुक्त पूर्वाग्रह को छद्म
की कहीं स्थान नहीं।"
श्वेतकेतु और
उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद,
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यजुर्वेद
मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE
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उषस्ति
की कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
_4 -GVB the uiversity of veda
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