पुरुषार्थ और विद्या- ब्रह्मज्ञान
पुरुषार्थ दो शब्दों से बना है-पुरुष तथा अर्थ।
पुरुष का अर्थ है विवेकशील प्राणी तथा अर्थ का मतलब है लक्ष्य। इसलिए पुरुषार्थ का
अर्थ हुआ विवेकशील प्राणी का लक्ष्य। एक विवेकशील प्राणी का लक्ष्य होता है परमात्मा
से मिलन। इसके लिए वह जिन उपायों को अपनाता है वे ही पुरुषार्थ हैं। हिंदू चिंतन के
अनुसार इस पुरुषार्थ के चार अंग हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। हमारे महान ऋषियों ने मानव
जीवन में इन अंगों को अनिवार्य मानते हुए इन्हें अपनाने का उपदेश दिया है। पुरुषार्थों
में पहला स्थान धर्म का है। जीवन में जो भी धारण किया जाता है वही धर्म कहलाता है।
धर्म मनुष्य को अच्छे कार्यों की ओर ले जाता है। वह व्यक्ति की विभिन्न रुचियों, इच्छाओं और आवश्यकताओं के बीच एक संतुलन बनाए रखता है। 'महाभारत' के अनुसार धर्म वही है जो किसी को कष्ट
नहीं देता। धर्म में लोककल्याण की भावना निहित है। मनु के अनुसार जो व्यक्ति धर्म का
सम्मान करता है, धर्म उस व्यक्ति की सदैव रक्षा करता है।
धर्म के मार्ग पर चलकर व्यक्ति इस संसार में तथा परलोक में शांति प्राप्त कर सकता है।
मनुष्य समाज में रहकर अनेक प्रकार के क्रियाकलाप करता है। धर्म उसके सामाजिक आचरण को
एक निश्चित और सकारात्मक रूप देता है। अर्थ का सीधा सम्बंध जीवनयापन करने में सहायक
भौतिक उपादानों से है। अधिकांश लोगों का मानना है कि भारतीय संस्कृति में परलोक एवं
मोक्ष को ही प्रमुखता दी गई है, इहलोक (सांसारिक जीवन)
वहाँ उपेक्षित है। यह एक ग़लत धारणा है। वास्तव में भारतीय संस्कृति में इहलोक एवं परलोक
दोनों को समान महत्त्व दिया गया है। मनुष्य के इहलौकिक एवं पारलौकिक उद्देश्यों के
मध्य जितना उदात्त एवं उत्कृष्ट सामंजस्य भारतीय संस्कृति में है उतना किसी अन्य संस्कृति
में नहीं। इसी सामंजस्य के कारण ही भारत जहाँ दर्शन के क्षेत्र में ऊंचाई पर पहुंचा, वहीं उसकी भौतिक उपलब्धियाँ भी विशिष्ट रहीं। यह सही है कि भारतीय संस्कृति में
मनुष्य का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है, किंतु अर्थ का महत्त्व भी इस संस्कृति में कम नहीं है। अर्थ को यदि जीवन का अंतिम
लक्ष्य माना जाता तो भारत संभवत: अर्थ का दास बनकर ही रह जाता। भारतीय संस्कृति में
पुरुषार्थों के अंतर्गत काम की भी गणना की गई है। मनुष्य के जीवन में काम का भी उतना
ही महत्त्व है, जितना धर्म व अर्थ का। मनुष्य की रागात्मक
प्रवृत्ति का नाम है-काम। आहार, निदा, भय एवं काम मनुष्य एवं पशुओं में सामान्य रूप से पाए जाते हैं, मगर मनुष्य एक सामाजिक एवं बुद्धिसंपन्न प्राणी है। वह प्रत्येक कार्य बुद्धि की
सहायता से करता है। पशुओं में काम स्वाभाविक रूप से होता है। उनमें विचार तथा भावना
नहीं होती है। मनुष्य का काम सम्बंध शिष्ट एवं नियंत्रित होता है। मनुष्य के इस व्यवहार
को मर्यादित करने के लिए स्त्री-पुरुष सम्बंध को स्थायी, सभ्य एवं सुसंस्कृत रूप दिया गया। विवाह द्वारा मनुष्य की उच्छृंखल काम वासना को
मर्यादित किया गया। भारतीय परंपरा में काम का उद्देश्य संतानोत्पत्ति माना गया है, काम वासना की पूर्ति नहीं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों में
गहरा सम्बंध है। मोक्ष से धर्म का प्रत्यक्ष सम्बंध है। सभी प्राणी केवल धर्म का आश्रय
ग्रहण कर तथा उसी के अनुसार आचरण कर मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। इसलिए कहा
गया है कि मनुष्य अर्थ एवं काम का सेवन करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करे। कौटिल्य ने
कहा है कि व्यक्ति संसार में रहकर सारे ऐश्वर्य प्राप्त करे, उपभोग करे, धन संचय करे, किंतु सब धर्मानुकूल हो। उनके मूल में धर्म का अनुष्ठान हो। काम के लिए भी वात्स्यायन
ने कामसूत्र में कहा है कि वही काम प्रवृत्ति पुरुषार्थ के अंतर्गत आ सकती है जो धर्म
के अनुरूप हो। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि धर्मपूर्ण काम में ईश्वर विद्यमान
रहता है। इस प्रकार धर्मानुकूल अर्थ व काम का सेवन करने से मनुष्य परम पुरुषार्थ-मोक्ष
के समीप पहुंचता है। पुरुषार्थ की अवधारणा भौतिक एवं आध्यात्मिक जगत के बीच संतुलन
स्थापित करती है। पुरुषार्थों के माध्यम से ही मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास हो
पाता है। पुरुषार्थ का सिद्धांत भारतीय संस्कृति की आत्मा है।
जो ज्ञान वान या विद्यावान है वहीं
आत्मवान है इसके विपरित अज्ञानवान जो आत्मा की सत्ता को नकारता है जिसमें अविद्या है
जो अज्ञान का प्रचार करता है जैसा की ईश्वर उपदेश करता है कि सत्य का ज्ञान का सभी
प्रकार की विद्यायों को पहले अर्जन करों फिर उनका प्रचार करों लोगों को उपदेश करों।
अविद्या शब्द का प्रयोग माया के अर्थ में होता
है। भ्रम एवं अज्ञान भी इसके पर्याय है। यह चेतनता की स्थिति तो हो सकती है, लेकिन इसमें जिस वस्तु का ज्ञान होता है, वह मिथ्या होती है। सांसारिक जीव अहंकार अविद्याग्रस्त होने के कारण जगत् को सत्य
मान लेता है और अपने वास्तविक रूप, ब्रह्म या आत्मा का
अनुभव नहीं कर पाता। एक सत्य को अनेक रूपों में देखना एवं मैं, तू, तेरा, मेरा, यह, वह, इत्यादि का भ्रम उसे अविद्या के कारण
होता है। आचार्य शंकर के अनुसार प्रथम देखी हुई वस्तु की स्मृतिछाया को दूसरी वस्तु
पर आरोपित करना भ्रम या अध्यास है। रस्सी में साँप का भ्रम इसी अविद्या के कारण होता
है। इसी प्रकार माया या अविद्या आत्मा में अनात्म वस्तु का आरोप करती है। आचार्य शंकर
के अनुसार इस तरह के अध्यास को अविद्या कहते हैं। संसार के सारा आचार व्यवहार एवं सम्बंध
अविद्याग्रस्त संसार में ही संभव है। अत: संसार व्यवहार रूप से ही सत्य है, परमार्थत: वह मिथ्या है, माया है। माया की
कल्पना ऋग्वेद में मिलती है। यह इंद्र की शक्ति मानी गई है, जिससे वह विभिन्न रूपों में प्रकट होती है। उपनिषदों में इन्हें ब्रह्म की शक्ति
के रूप में चित्रित किया गया है। किंतु इसे ईश्वर की शक्ति के रूप में अद्वैत वेदांत
में भी स्वीकार किया गया है। माया अचितद्य तत्व है, इसलिए ब्रह्म से उसका सम्बंध नहीं हो सकता। अविद्या भी माया की समानधर्मिणी है।
यदि माया सर्वदेशीय भ्रम का कारण है तो अविद्या व्यक्तिगत भ्रम का करण है। दूसरे शब्दों
में समष्टि रूप में अविद्या माया है और माय व्यष्टि रूप में अविद्या है। शुक्ति में
रजत का आभास या रस्सी में साँप का भ्रम उत्पन्न होने पर हम अधिष्ठान के मूल रूप का
नहीं देख पाते। अविद्या दो प्रकार से अधिष्ठान का "आवरण" करती है। इसका अर्थ
यह हुआ कि वह अधिष्ठान के वास्तविक रूप को ढँक देती है। द्वितीय, विक्षेप कर देती है, अर्थात् उसपर दूसरी
वस्तु का आरोप कर देती है। अविद्या के कारण ही हम एक अद्वैत ब्रह्म के स्थान पर नामरूप
से परिपूर्ण जगत् का दर्शन करते हैं। इसीलिए अविद्या को "भावरूप" कहा गया
है, क्योंकि वह अपनी विक्षेप शक्ति के कारण ब्रह्म
के स्थान पर नानात्य को आभासित करती है। अनिर्वचनीय ख्याति के अनुसार अविद्या न तो
सत् है और न असत्। वह सद्सद्विलक्षण है। अविद्या को अनादि तत्व माना गा है। अविद्या
ही बंधन का कारण है, क्योंकि इसी के प्रभाव से
अहंकार की उत्पत्ति होती है।
श्वेतकेतु
और उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद, GVB THE UNIVERSITY OF VEDA
यजुर्वेद मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE
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