श्रेष्ट मनुष्य समझ बूझकर
चलता है"
एक श्रेष्ट इंसान काम-काज में कुशल और मुश्किलों
का हल करने में माहिर होता है। उसमें सही फैसले करने और हर बात को फौरन समजने की काबिलीयत
होती है। साथ ही, वह समझदार, होशियार और अक्लमंद वुद्धिमान होता है। वह मक्कार या छली नहीं होता। जो इसके विपरीत
होते है वह दुष्ट प्रकृति के मुर्ख किश्म के लोग होते है अपने अज्ञान पूर्ण कर्म के
कारण दूसरे सज्जन लोगों को मुसिबत में डाल कर स्वंय को आन्नदित महशुस करते है। सब वुद्धिमान
समझदार श्रेषेट पुरुष तो ज्ञान से काम करते हैं। " जी हाँ, चतुराई या होशियारी एक मनभावना गुण है, जिसे अपने अंदर पैदा करने की हमें ज़रूरत है।
हम रोज़मर्रा ज़िंदगी में चतुराई समझदारी
से कैसे काम कर सकते हैं? हम ज़िंदगी के फैसले
करने में, दूसरों के साथ पेश आने में और अलग-अलग
हालात से निपटने में चतुर कैसे हो सकते हैं? होशियार लोगों को क्या प्रतिफल मिलता है? वे किन-किन मुसीबतों से बचते हैं? इन सवालों के जवाब प्राचीन मंत्रों में परमेश्वर ने उपदेश के रूप में दिए हैं।
इनकी जाँच और समझने से हमें बहुत फायदा हो सकता है।
अपना रास्ता वुद्धि से विचार करके चुनिए
ज़िंदगी के फैसले बुद्धिमानी से करने और कामयाब
होने के लिए ज़रूरी है कि हमारे अंदर सही-गलत के बीच फर्क करने की काबिलीयत हो। मगर
इस बारे में वेद मंत्र हमें आगाह एक चेतावनी देती है: "ऐसा मार्ग है, जो मनुष्य को ठीक देख पड़ता है, परन्तु उसके अन्त
में एक भयानक और कष्ट पूर्ण मृत्यु मिलती है। इसलिए हमें यह फर्क करना सीखना चाहिए
कि कौन-सी बात वाकई सही है और कौन-सी बात सिर्फ़ देखने में सही लगती है, मगर होती नहीं। वेद मंत्रो और उनके शब्दों से पता चलता है कि ऐसे कई ग़लत रास्ते
हैं जिन्हें इख्तियार करने से हम धोखा खा सकते हैं। आइए ऐसे कुछ रास्तों पर गौर करें
जिनके बारे में हमें पता होना चाहिए और जिनसे हमें दूर रहना चाहिए. आम तौर पर दुनिया
के दौलतमंदों और नामी-गिरामी लोगों को बहुत इज़्ज़तदार माना जाता है और उनकी खूब तारीफ
की जाती है। समाज में उनके ओहदे और उनकी दौलत को देखकर लग सकता है कि वे जिस रास्ते
पर हैं या उनके जीने का तरीका बिलकुल सही है। लेकिन वे दौलत या शोहरत कमाने के लिए
जो रास्ते अपनाते हैं, उनके बारे में क्या? क्या वे ईमानदारी और सच्चाई के रास्ते पर चलकर इस मुकाम तक पहुँचे हैं? और अगर धर्म की बात करें, तो वहाँ भी ऐसे रास्ते
हैं जो सिर्फ़ दिखने में सही लगते हैं और कुछ लोग अपने धर्म को सही मानकर उसके लिए काफी
जोश दिखाते हैं। मगर क्या उनकी नेक-नीयत से यह साबित होता है कि वे जिस रास्ते पर हैं, वह सही है? कोई रास्ता शायद हमें इसलिए भी सही जान
पड़े क्योंकि हमने खुद को धोखे में रखा है। जो हमें सही लगता है उसकी बिना पर फैसला
करना, अपने दिल पर भरोसा करना है और हमारा दिल
हमें ग़लत राह दिखा सकता है। अगर हमारे विवेक को सही-गलत की अच्छी समझ नहीं है और उसे
सही तालीम न दी गयी हो, तो हम इसके बहकावे
में आकर ग़लत रास्ते को भी सही मान बैठेंगे। इसलिए सही रास्ता चुनने में क्या बात हमारी
मदद कर सकती है? परमेश्वर के-के वेद वचन की गूढ़ सच्चाइयों
का मन लगाकर अध्ययन करना निहायत ज़रूरी है। तभी हम 'अपनी ज्ञानेंद्रियों को भले बुरे में भेद करने के लिये पक्का' कर सकेंगे। इतना ही नहीं, हमें इन ज्ञानेंद्रियों
का" अभ्यास" भी करना चाहिए यानी की वेद मंत्रों के सिद्धांतों को अपने जीवन
में लागू करना चाहिए. हमें चौकन्ना रहना है कि जो डगर सिर्फ़ देखने में सही लगती है, कहीं उसकी तरफ कदम बढ़ाकर हम 'जीवन को पहुंचानेवाले सकरे
मार्ग' से भटक न भटक जाए।
क्या यह मुमकिन है कि हमारा मन दुःख से दबा
हो, फिर भी हम हँसते-मुस्कराते रहें? क्या खिलखिलाकर हँसने और मौज-मस्ती करने से दिल का दर्द कम हो सकता है? क्या अपनी मायूसी से उबरने के लिए शराब का सहारा लेना, ड्रग्स का नशा या अपना गम भुलाने के लिए बदचलन ज़िंदगी जीना चतुराई है? जवाब है नहीं। बुद्धिमान पुरुष कहता है: "हंसी के समय भी मन उदास होता है।
हँसने से दिल का दर्द छिप सकता है, मगर यह मिटता नहीं।
वेद मंत्र कहते पुर्षाथ करों और यह निश्चय करों क्या श्रेष्ठ है और क्या मिकृष्ट है
श्रेष्ठ को जीवन में अस्थान दो और निकृष्टता का दुष्टता का समुल नाश करें 'हर एक बात का एक अवसर होता है।' यहाँ तक कि"
रोने का समय और हंसने का भी समय; छाती पीटने का समय
और नाचने का भी समय है। इसलिए अगर हम किसी वजह से मायूस हैं, तो अपनी भावनाओं पर काबू पाने के लिए हमें कुछ कदम उठाने चाहिए और ज़रूरत पड़ने
पर दूसरों से "बुद्धि की सलाह" लेनी चाहिए. हँसने और मन बहलाने से अपना दर्द
सहने में थोड़ी-बहुत मदद मिल सकती है, मगर इनसे ज़्यादा फायदा नहीं होता। मंत्र हमें खबरदार करता है कि हम ग़लत किस्म
के मन-बहलाव से और हद-से-ज़्यादा मनोरंजन करने से दुष्टतापूर्ण कर्मों से दूर रहें।
मंत्र कहता है: " कि जो निकृष्ट कर्मों और दुष्ट कर्मों के आनन्द के अन्त में
शोक होता है।
परमेश्वर मंत्र के माध्यम से आगे कहता है:
" जिसका मन ईश्वर की ओर से हट जाता है, वह अपनी चालचलन का फल भोगता है, परन्तु भला मनुष्य
आप ही आप सन्तुष्ट होता है। जिनका मन परमेश्वर से हट जाता है, ऐसे अविश्वासी लोग, साथ ही भले इंसान, दोनों अपनी-अपनी करनी के फल से कैसे संतुष्ट होते हैं? अविश्वासी को इस बात की फिक्र नहीं रहती कि उसे परमेश्वर को लेखा देना पड़ेगा।
इसलिए उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह जो कर रहा है, वह परमेश्वर की नज़र में सही है या गलत। वह बस अपनी ऐशो-आराम की ज़िंदगी से संतुष्ट
रहता है। दूसरी तरफ, एक भला इंसान हमेशा ऐसे काम
करने की कोशिश करता है जो परमेश्वर की नज़रों में सही हैं। वह अपने हर काम में परमेश्वर
के धर्मी स्तरों को मानने की भरसक कोशिश करता है और इससे मिलने वाले अच्छे नतीजों से
वह संतुष्ट होता है, क्योंकि परमेश्वर का आदेश
सर्वोपरि है। वह परमप्रधान परमेश्वर की सेवा से बेइंतिहा खुशी पाता है। मंत्र बताता
है कि एक अनाड़ी और होशियार इंसान में क्या फर्क होता है, भोला तो हर एक बात को सच मानता है, परन्तु वुद्धिमान मनुष्य समझ बूझकर चलता है। एक समझदार वुद्धिमान इंसान को आसानी
से बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। वह देखी-सुनी हर बात पर यकीन नहीं कर लेता, ना ही आँख मूँदकर दूसरों की राय अपना लेता है। इसके बजाय, वह फूँक-फूँककर कदम रखता है। वह पहले पूरी जानकारी हासिल करता है और फिर उसके मुताबिक
सोच-समझकर कदम उठाता है। जैसे, इस सवाल को लीजिए
क्या कोई परमेश्वर है? इस बारे में एक अनाड़ी
वही धारणाएँ अपनाता है जो दुनिया में मशहूर हैं या जो बड़े-बड़े लोग मानते हैं। लेकिन
चतुर इंसान समय निकालकर सबूतों को जाँचता है। वह वेद मंत्रों पर गहराई से सोचता विचार
करता है। एक होशियार इंसान आध्यात्मिक मामलों में धर्म-गुरुओं की बात को आँख बंद करके
नहीं मान लेता। वह 'आध्यात्मिक संदेशों को परखता
है कि वे परमेश्वर की ओर से हैं कि नहीं। वेद मंत्रो की इस सलाह को मानना कितनी अक्लमंदी
है कि हम' हर एक बात को सच मानने' की गलती न करें पहले विचार करके यह निश्चय करें क्या ग़लत है और क्या सही है इस
बात पर खासकर उन लोगों को ध्यान देना चाहिए जिन्हें मंत्रो कोसमझने और में दूसरों को
सलाह देने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है। किसी को सलाह देने से पहले एक व्यक्ति को
मामले की पूरी-पूरी जानकारी होनी चाहिए. उसे सामने वाले की बात ध्यान से सुननी चाहिए
और हर जगह से सबूत इकट्ठे करने चाहिए ताकि उसकी सलाह ग़लत या एकतरफा न हो।
वेद मंत्र बुद्धिमान और मूर्ख के बीच एक और
फर्क बताता है: वह कहता है कि जो दुष्ट है दया हिन है छल कपट पूर्ण कर्म करते है और
सत्य ज्ञान विद्या के विरोधी है। " बुद्धिमान डरकर बुराई से हटता है, परन्तु मूर्ख दुष्ट ढीठ होकर निडर रहता है। जो झट क्रोध करे, वह मूढ़ता का काम भी करेगा और जो बुरी युक्तियाँ निकालता है जो सोचने-समझने की
काबिलीयत रखत है वुद्धिमान जन उस से दुष्ट लोग बैर रखते हैं।
बुद्धिमान को इस बात का डर रहता है कि ग़लत रास्ते
पर चलने से उसे बुरे अंजाम भुगतने पड़ेंगे। इसलिए वह एहतियात बरतता है और उसे बुराई
से दूर रहने की जो भी सलाह दी जाती है, उसकी वह कदर करता है। मगर एक बेवकूफ को ऐसा डर नहीं रहता। उसे अपने ऊपर कुछ ज़्यादा
ही भरोसा होता है, इसलिए वह मगरूर होकर दूसरों
की सलाह को अनसुना कर देता है। वह गरम-मिज़ाज होता है, इसलिए वह मूर्खता के ही काम करता है। लेकिन परमेश्वर ने यह क्यों कहा कि सोचने-समझने
की काबिलीयत रखनेवाले इंसान से लोग नफरत करते हैं? मूल मंत्र के जिस शब्द का अनुवाद "सोचने-समझने की काबिलीयत" किया गया
है, उसके दो मतलब हैं। एक का इस्तेमाल परख-शक्ति
या चतुराई के लिए हो सकता है, जो कि एक अच्छा गुण
है। दूसरा, दुष्ट विचारों या मंसूबों के लिए इस्तेमाल
हो सकता है। "सोचने-समझने की काबिलीयत रखनेवाले," ये शब्द अगर बुरे मंसूबे रखनेवाले दुष्ट के लिए इस्तेमाल किए गए हैं, तो यह समझना आसान है कि उससे नफरत क्यों की जाती है। लेकिन यह भी सच है कि जिस
इंसान में परख-शक्ति होती है, वह ऐसे लोगों की नफरत
का शिकार बनता है जिनमें परख-शक्ति नहीं होती। उदाहरण के लिए, जो अपनी दिमागी काबिलीयत का सही इस्तेमाल करके संसार को सुधारने सही मार्ग पर चलने
का चुनाव करते हैं। उनसे संसार बैर करता है। जब महर्षि स्वामी दयान्नद जवान थे अपनी
सोचने-समझने की काबिलीयत का अच्छा इस्तेमाल करने की वजह से साथियों के दबाव में नहीं
आते और ग़लत चालचलन से दूर रहते हैं, तो उनका मज़ाक उड़ाया
जाता है। हकीकत तो यह है कि जो सच्ची उपासना करते हैं, उनसे पूरी दुनिया नफरत करती है, क्योंकि यह दुनिया
दष्ट शैतान किस्म के लोगों से भरी है। वुद्धिमान होशियार या चतुर इंसान और अनाड़ी के
बीच एक और फर्क है। " भोलों का भाग मूढ़ता ही होता है, परन्तु चतुरों को ज्ञानरूपी मुकुट बान्धा जाता है। अनाड़ी लोगों में समझ नहीं होती, इसलिए वे मूर्खता के काम करना पसंद करते हैं। ऐसे ही काम करना उनकी आदत बन जाती
है। दूसरी तरफ, एक चतुर इंसान को ज्ञान होता है और यह
ज्ञान उसकी शोभा बढ़ाता है, ठीक जैसे एक मुकुट, राजा का सम्मान बढ़ाता है। इसलिए परमेश्वर उन श्रेष्ट लोगों को आदेश मंत्रो के
माध्यम से देता है और कहता है कि दुष्टों का समुल नाश अपनी वुद्धिमत्ता से करों। क्योंकि
कहा गया है कि वुद्धि यस्य बलम् तस्य जहा वुद्धि है बल वही है वुद्धि हिनस्य कुतस्य
बल् आर्थात वुद्धिहिन के पास कैसा बल।
बुद्धिमान परमेश्वर कहता है: "दुष्ट, भले लोगों के सम्मुख और कुटिल, धर्मियों के फाटकों
पर सिर झुकाएंगे। दूसरे शब्दों में, आखिरकार दुष्टों पर
भले लोगों की ही जीत होगी। ज़रा गौर कीजिए कि आज परमेश्वर की आशीष से उसके लोगों की
गिनती में कितनी बढ़ोतरी हो रही है और वे दुनिया के मुकाबले कितनी बेहतरीन और कामयाब
ज़िंदगी जी रहे हैं। हमें मिलने वाली ये आशीषें देखकर हमारे कुछ विरोधियों को परमेश्वर
की लाक्षणिक स्वर्गीय ज्ञान के सामने 'झुकना' पड़ेगा, जिसके प्रतिनिधि आज धरती पर बचे हुए अभिषिक्त जन हैं। उन्हें कैसे झुकना पड़ेगा? चाहे अब नहीं तो भविष्य में ही सही, इन विरोधियों को कबूल करना पड़ेगा कि परमेश्वर के संगठन का जो हिस्सा धरती पर
है, वह सचमुच स्वर्गीय संगठन का ही प्रतिनिधित्व
करता है। परमेश्वर इंसान की एक फितरत के बारे में कहता है निर्धन का पड़ोसी भी उस से
घृणा करता है, परन्तु धनी के बहु तेरे प्रेमी होते हैं।"
इसलिये परमेश्वर कहता है कि अपार सुख की कामना करों यह बात असिद्ध इंसानों के मामले
में कितनी सच है! उनके अंदर स्वार्थ भरा होता है, इसलिए वे गरीबों के बजाय हमेशा अमीरों के साथ होना पसंद करते हैं। मगर एक अमीर
इंसान के पास चाहे कितने ही दोस्त हों, पैसे की तरह वे भी कुछ समय बाद पंख लगाकर उड़ जाते हैं। इसलिए हमें न तो दूसरों
पर पैसे लुटाकर, ना ही अमीरों की चापलूसी करके उन्हें
दोस्त बनाना चाहिए।
अगर यदि ईमानदारी से खुद की जाँच करें तो हम
पाते हैं कि हमें अमीरों की खुशामद करने और गरीबों को नीचा दिखाने की आदत है, तो हमें क्या करना चाहिए? हमें यह ध्यान में
रखना चाहिए कि वेद मंत्र ऐसी तरफदारी की निंदा करती है। यह बताता है जो अपने पड़ोसी
को तुच्छ जानता, वह पाप करता है, परन्तु जो दीन लोगों पर अनुग्रह करता, वह धन्य होता है। वह सब को श्रेष्ठ वनाने कि बात करता है। हमें ऐसे लोगों का लिहाज़
करना चाहिए जो मुश्किल हालात से गुज़र रहे हैं। यह हम कैसे कर सकते हैं? उन्हें "संसार की संपत्ति" देकर, जिसमें खाना, कपड़ा, पैसा या सिर छिपाने की जगह देना और उनकी देखभाल करना शामिल है। जो मुसीबत के मारों
की मदद करता है उसे खुशी मिलती है, क्योंकि "लेने
से देने में अधिक सुख है। मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा यह सिद्धांत वुद्धिमान चतुर और मूर्ख दोनों पर लागू होता है। चतुर इंसान
भले काम करता है, जबकि मूर्ख बुरे काम करने
की साज़िश रचता है। बुद्धिमान राजा पूछता है:" जो बुरी युक्ति निकालते हैं, क्या वे भ्रम में नहीं पड़ते? "जवाब है, हाँ; वे ' भटक जाते हैं। परन्तु भली युक्ति निकालनेवालों
से करुणा और सच्चाई का व्यवहार किया जाता है। भले काम करनेवाले दूसरों की नज़रों में
अच्छा नाम कमाते हैं, साथ ही परमेश्वर की करुणा
भी पाते हैं। कड़ी मेहनत से सफलता मिलती है, जबकि लंबी-चौड़ी बातें करने और काम न करने से नाकामी हाथ लगती है। इस सच्चाई को
वेद मंत्र पुरुषार्थ के इन शब्दों में बताता है:" परिश्रम से सदा लाभ होता है, परन्तु बकवाद करने से केवल घटी होती है। "बेशक यह सिद्धांत आध्यात्मिक मामलों
पर भी लागू होता है। जब हम परमेश्वर सेवा में कड़ी मेहनत करते हैं, तो हमें अच्छे नतीजे मिलते हैं। हम परमेश्वर के वचन की जीवन देनेवाली सच्चाई बहुत-से
लोगों को सिखा पाते हैं। परमेश्वर के संगठन में जो भी काम हमें सौंपा जाता है, उसे बेहतर ढंग से पूरा करने से हमें खुशी और संतोष मिलता है। बुद्धिमानों का धन
उनका मुकुट ठहरता है, परन्तु मूर्खों की मूढ़ता
निरी मूढ़ता है।" इसका यह मतलब हो सकता है कि बुद्धिमानों को अपनी मेहनत से जो
बुद्धि हासिल होती है, वह उनके लिए धन के बराबर
अनमोल है। बुद्धि एक मुकुट की तरह उन्हें सम्मानित करती है। दूसरी तरफ, एक मूर्ख को सिर्फ़ मूर्खता ही हासिल होती है। एक किताब के मुताबिक, इस मंत्र वचन का यह मतलब भी हो सकता है कि जो धन का सही इस्तेमाल करते हैं अर्थात
दान करते है उनका धन एक गहने की तरह उनका रूप निखारता है जबकि मूर्खों के हिस्से में
सिर्फ़ मूर्खता होती है। इस मंत्र का अर्थ चाहे जो भी मतलब हो, मगर यह तय है कि एक बुद्धिमान, मूर्ख के मुकाबले
ज़्यादा कामयाब होता है। मंत्र आगे कहता है: " सच्चा साक्षी बहुतों के प्राण बचाता
है, परन्तु जो झूठी बातें उड़ाया करता है उस से
धोखा ही होता है। हालाँकि यह बात अदालती मामलों में सोलह आने सच है, मगर ध्यान दीजिए कि यह हमारी सेवा पर कैसे लागू होती है। वेद मंत्रो के प्रचार
शिष्य बनाने के काम में हम परमेश्वर के वचन की सच्चाई की साक्षी देते हैं। हमारा साक्षी, नेकदिल लोगों को झूठे धर्म के चंगुल से छुटकारा दिलाकर उनकी जान बचाती है। अगर
हम खुद पर और अपने सिखाने के तरीके पर हमेशा ध्यान देते रहें, तो हम अपनी और अपने सुननेवालों की जान बचा पाएँगे। इसलिए आइए हम यह काम जारी रखें, साथ ही ज़िंदगी के हर दायरे में चतुराई से काम लें।
मनुष्य अपने बहुत कर्म लोभ के वशी भुत हो कर
करता है जिसका कारण उसका अज्ञान होता है, जैसा कि यह काल्पनिक कहानी कहती है।
एक समय दक्षिण दिशा में एक वृद्ध बाघ स्नान
करके कुशों को हाथ में लिए हुए कह रहा था-वह मार्ग के चलने वाले पथिकों! मेरे हाथ में
रखे हुए इस सुवर्ण के कड्कण (कड़ा) को ले लो, इसे सुनकर लालच के वशीभूत होकर किसी बटोही ने (मन में) विचारा—ऐसी वस्तु, (सुवर्ण कड्क) भाग्य से उपलब्ध होती है।
परंतु इसे लेने के लिये, बाघ के पास जाना उचित
नहीं, क्योंकि इसमें प्राणों का संदेह है। अनिष्ट
स्थान बाघ इत्यादि से सुवर्ण, कड्क सदृश अभीष्ट
वस्तु के लाभ की संभावना होते हुए भी कल्याण होना न नहीं आता, क्योंकि जिस अमृत में जहर का संपर्क है, वह अमृत भी मौत का कारण है, न कि अमरता का। किंतु
धन पैदा करने की सभी क्रियाओं में संदेह की संभावना रहती ही है।
कोई भी व्यक्ति संदेहपूर्ण कार्य में बिना
पग बढ़ाये कल्याण के दर्शन में असमर्थ ही रहता है। हाँ, फिर संदेहपूर्ण कार्य करने पर यदि वह जीता रहता है, तो कल्याण का दर्शन करता है। इस कारण से सर्वप्रथम मैं इसके वाक्य के तथ्य सत्य, अतथ्य असत्य का परीक्षण करता हूँ। वह उच्चस्वर में बोलता है—कहाँ है तुम्हारा कंगन? बाघ हाथ फैला कर देखाता
है। पथिक बोला मारने वाले तुम में कैसे विश्वास करु?
मुझे इतना भी लोभ
नहीं है, जिससे मैं अपने हाथ में रखे हुए सुवर्ण
कंगन को जिस किसी रास्ता चलता अपरिचित व्यक्ति को दे देना चाहता हूँ। परंतु बाघ मनुष्य
को भक्षक है, इस लोकापवाद को हटाया नहीं जा सकता। अंधपरंपरा
पर चलने वाला लोक धर्म के विषय में गोवध करने वाले ब्राह्मण को जैसे प्रमाण मानता है, वैसे उपदेश देनेवाली कुट्ठिनी को प्रमाणता से स्वीकार नहीं करता। अर्थात संसार
कुट्ठिनी के वाक्य को धर्म के विषय में प्रमाण नहीं मानता।
हे युधिष्ठिर! जिस प्रकार मरुप्रदेश में वृष्टि सफल होती है, जिस प्रकार भूख से पीड़ित को भोजन देना सफल होता है, उसी तरह दरिद्र को दिया गया दान सफल होता है। प्राणा यथात्मनोभीष्टा भूतानामपि ते तथा। आत्मौपम्येन भूतानां दयाँ कुर्वन्ति साधवः। प्राण जैसे अपने लिए प्रिय हैं, उसी तरह अन्य प्राणियों को भी अपने प्राण प्रिय होंगे। इस कारण से सज्जन जीवनमात्र पर दया करते हैं। निषेध में तथा दान में, सुख अथवा दु: ख में, प्रिय एवं अप्रिय में सज्जन पुरुष अपनी तुलना से अनुभव करता है, अर्थात मुझे किसी ने कुछ दिया तो हर्ष होता है, यदि अनादर किया तो दुख होता है। इस तरह मैं भी किसी को कुछ दूँगा तो हर्ष होगा, निषेध कर्रूँगा तो दुख होगा।
मातृवत्परदारेषु, परद्रव्येषु लोष्टवत्।
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्चति स पण्डितः॥
जो पुरुष दूसरे की स्रियों को अपनी माता की तरह एवं अन्य के धन को मिट्टी के ढेले के समान तथा प्राणिमात्र को अपने समान देखता है, वह पंडित है, अर्थात सत असत के विवेक करने वाली बुद्धि वाला है और चंद्रमा जो आकाश में विचरता है, अंधकार दूर करता है, सहस्र किरणों को धारण करता है और नक्षत्रों में बीच में चलता है उस चंद्रमा को भी भाग्य से राहु ग्रस्त होता है, इसलिए जो कुछ भाग्य (ललाट) में विधाता ने लिख दिया है उसे कौन मिटा सकता है। यह बात वह सोच ही रहा था जब उसको बाघ ने मार डाला और खा गया। इसी से कहा जाता है कंगन के लोभ से इत्यादि बिना विचारे काम कभी नहीं करना चाहिए।
श्वेतकेतु
और उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद, GVB THE UNIVERSITY OF VEDA
यजुर्वेद मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE
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उषस्ति की कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
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