संस्कृत के अद्भुत सार गर्भित विद्या श्लोक हिन्दी अर्थ सहित
सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्याँ विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्॥
जिसे सुख की अभिलाषा हो (कष्ट उठाना न हो) उसे
विद्या कहाँ से? और विद्यार्थी को सुख कहाँ से? सुख की ईच्छा रखनेवाले को विद्या की आशा छोडनी चाहिए और विद्यार्थी को सुख की।
न चोरहार्यं न च राजहार्यंन भ्रातृभाज्यं न च
भारकारी। व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम्॥
विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहीं सकता, राजा ले नहीं सकता, भाईयों में उसका भाग
नहीं होता, उसका भार नहीं लगता, (और) खर्च करने से बढता है। सचमुच, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है।
नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत्।
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम्॥
विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहीं, (और) विद्या जैसा अन्य
कोई धन या सुख नहीं।
ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते। दाने
नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम्॥
यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहीं सकता, जिसे चोर ले जा नहीं सकते और जिसका दान करने से क्षय नहीं होता।
सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम्। अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च
सर्वदा॥
सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम
है, क्योंकि वह किसी से हरा नहीं जा सकता; उसका मूल्य नहीं हो सकता और उसका कभी नाश नहीं होता।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः। विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या
परं दैवतम् विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः॥
विद्या इन्सान का विशिष्ट रूप है, गुप्त धन है। वह भोग देनेवाली, यशदात्री और सुखकारक
है। विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह इन्सान
की बंधु है। विद्या बडी देवता है; राजाओं में विद्या
की पूजा होती है, धन की नहीं। इसलिए विद्याविहीन
पशु हि है।
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्। अधनस्य
कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम्॥
आलसी इन्सान को विद्या कहाँ? विद्याविहीन को धन कहाँ? धनविहीन को मित्र
कहाँ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ?
रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः। विद्याहीना न
शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः॥
रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे
के फूल की भाँति शोभा नहीं देते।
विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम्॥
विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा–ये परम् कल्याणकारक हैं।
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति
धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
विद्या से विनय (नम्रता) आती है, विनय से पात्रता (सजनता) आती है पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है।
दानानां च समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले। श्रेष्ठानि
कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा॥
सब दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है।
क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत्। क्षणे
नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्॥
एक एक क्षण गवाये बिना विद्या पानी चाहिए; और एक-एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए. क्षण गवानेवाले को विद्या कहाँ और
कण को क्षुद्र समजनेवाले को धन कहाँ?
विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो
धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च-सा। सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना
भूषणम् तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु॥
विद्या अनुपम कीर्ति है; भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह में रति समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल-महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है; इस लिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन।
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