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ब्रह्मचर्य वैभव

 



ब्रह्मचर्य वैभव

। षडपदी छन्द ]

(१)

 

 

उन्नतियों का सार धर्म का रथ है न्यारा !

सत्कर्मों ' का पुण्य जाति का जीवन प्यारा ॥

सज्जनता का मूल फूल हैं वैदिक बन का।

सब सुख का है घास-आम है सद्गुण गण का ।।

ब्रह्मचर्य-व्रत विश्व में, कल्प वृक्ष आधार है !

इसकी महिमा से सदा, चलता सब व्यापार है ॥

(२)

ब्रह्मचर्य से दिव्य भावनायें होती हैं!

ब्रह्मचर्य से दीर्घ-यातनायें खोती हैं॥

ब्रह्मचर्य से ज्ञान और बल नर हैं पाते ।

ब्रह्मचर्य से शान्ति-मोक्ष को हैं अपनाते ॥

ऋषियों के उपदेश को, कभी न भाई भूलिये !

रक्षा करके वीर्य की, अति स्वतन्त्र हो फूलिये ॥

 

 

“-कर्विषुष्कर

 

ब्रह्मचर्य विज्ञान

1--ब्रह्म-वंदना

य आत्मदा बलदा यस्‍य विश्व, उपासते, प्रशिषं यस्य देवाः।

यस्यच्छायाऽमृतं यस्‍य  मृत्यु:, कसम देवाय हविषा विधेम।

( यजुर्वेद अ० २५ म० १३ )

 

 

' “जो आत्मज्ञान तथा शारीरिक बल का देने वाला है--जिस की सभी लोग उपासना करते हैं--विद्वान् पुरुष जिसे प्राप्त करते हैं---जिसका आश्रय अमृत (दीर्घ जीवन) देने वाला है, और जिसके अधिकार में मृत्यु है--हम उस दिव्य स्वरूप का ध्यान करते हैं । किसी भी महत्वपूर्ण कार्य के प्रारम्भ में उस की समाप्ति के लिये, वन्दता एक आवश्यक तथा शिष्टाचार से सम्बन्ध रखने वाला वैदिक नियम है। अतः हमने भी इस आर्य-धर्म सम्बन्धी ग्रन्थ को उपादेय बनाने की इच्छा से मांगलिक प्रार्थना की है । अस्तु ।।

 

ऊपर के मन्त्र में ईश्वर-विनय तो हुई है, पर हमारे विचार से इसमें ब्रह्मचर्य” की ओर गुप्त रूप से संकेत भी किया गया है । उसका आशय निम्न-लिखित हैः:--

ब्रह्मचर्य से ही मनुष्य का मानसिक ज्ञान स्फुरित होता है। उसके शारीरिक बल का भी सर्वोत्कृष्ट साधन ब्रह्मचर्य ही है। सभी लोग ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ जान कर उसकी प्रतिष्ठा करना चाहते हैं । बुद्धिमानों को ब्रह्मचर्य अत्यन्त प्रिय होता भी है। ब्रह्मचर्य से ही मनुष्य दीर्घायु प्राप्त कर सकता है। ब्रह्मचर्य से ही मृत्यु दूर भगाई जा सकती है । इसलिये इस पवित्र वैदिक प्रार्थना में कहे गये 'ब्रह्मचर्य-रूप भगवान! को हृदय में धारण करना योग्य है !

 

 

2,  ब्रह्मचर्य की व्याख्या

 

 

ब्रह्मचर्य' के सम्बन्ध में कुछ विचार प्रकट करने से पहले, यह समझा देना अत्यन्त आवश्यक है कि ब्रह्मचर्य है क्या पदार्थ? जब तक इसके अर्थ नहीं बताये जायँगे, तब तक उसके गूढ़ भावों के समझने और समझाने में, पाठक ओर लेखक--दोनों को समान रूप से असुविधा होगी ।

एक बात यह भी है कि जो वस्तु व्याख्या-द्वारा पहले पहल - स्पष्ट नहीं कर दी जाती, उसके विषय में किये गये विचार भी भाँति हृदयड्गम नहीं किये जा सकते । अवः 'ब्रह्मचर्य'” किसे कहते हैं?  यह बतलाना होगा ।

वास्तव में ब्रह्मचर्य” एक शब्द नहीं, यह दो शब्दों के योग से बना है। एक “ब्रह्म! दूसरा चर्य--इस प्रकार तो ब्रह्म और चर्य-+' ब्रह्मचर्य की व्याख्या इन दोनों शब्दों के भिन्न-भिन्न स्थानों पर, अनेक अर्थ हैं। हम पाठकों के हितार्थ कुछ को नीचे लिखे देते हैं:---

 “ ब्रह्मा--इस शब्द से ईश्वर, वेद, वीर्य, मोक्ष, धर्म, सूर्य, ब्राह्मण, गुरु, सुख, योग, सत्य, आत्मा, मन्त्र, अन्न, द्रव्य, जल, महत्व, साधन और ज्ञान आदि का, और 'चर्य--इस शब्द से चिन्तन, अध्ययन, रक्षण, विवेचन, सेवा, नियम, उपाय, हित, ध्येय, प्रगति, प्रसार, संयम, साधना और कार्य आदि का बोध होता है । बह्मचर्य' बहुत प्राचीन एवं प्रभावोत्पादक शब्द है । इसके बहुत से अर्थ हो सकते हैं, जिन्हें हम ऊपर दे चुके है, पर हमारे वैदिक साहित्य में इसके तीन ही प्रधान अर्थ होते हैं । हमने जहाँ कहीं देखा है, इन्हीं तीनों अर्थों' को ध्यान में रख कर, इस शब्द का प्राय: व्यवहार हुआ है। प्रायः उन्हीं अर्थों' को लक्ष्य में रख कर, हमारा यह ग्रन्थ भी लिखा जा रहा है। अतएव हम उन्हें नीचे स्पष्ट कर देते हैं:--

ब्रह्मः शब्द वीर्य, वेद और ईश्वर वाचक है। ओर “चर्य! रक्षण, अध्ययन तथा चिन्तन का द्योतक है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य के ये तीन प्रधान अर्थ समझने चाहियें। १---वीर्य-रक्षण, २--- वेदाध्ययन और ३--ईंश्वर-चिन्तन । पृथक्‌-पृथक्‌ तो तीन अर्थ हुए, पर तत्वतः वे तीनों ही एक मूलभूत “ब्रह्मचर्य! में सन्निहित हैं ।

” - ब्रह्मचर्य का पहला अर्थ हमने वीर्य-रक्षण” किया है। यह अर्थ प्राचीन समय से जनता में रूढ़ि को प्राप्त हो गया है। ब्रह्मचर्य का नाम लेते ही लोगों के हृदय में वीर्य-रक्षण का भाव उठता है। यह साधन-रूप से अब भी संसार में प्रतिष्ठित है ।

ब्रह्मचर्य' का दूसरा अर्थ हमने 'वेदाध्ययन! किया है । यह अर्थ वीर्य-रक्षण के साथ ही प्रचलित था। ब्रह्मचर्य की अवस्था में वेदाध्ययन एक प्रधान कार्य समझा जाता था । अब भी विद्योपार्जन की प्रणाली किसी न किसी रूप में सर्वत्र प्रचलित है ही ।

'ब्रह्मचर्य” का तीसरा अर्थ हमने '“ईश्वर-चिन्तन' किया है। यह भी प्राचीन काल में उद्देश्य-रूप से माना जाता था। वीर्य-रक्षण और वेदाध्ययन की परिपाटी के साथ ही ईश्वर-चिन्तन भी होता था । अब भी लोग देवाराघन करते हैं ।

 

ब्रह्मचर्य में वीर्य-रक्षण, वेदाध्ययन और ईश्वर-चिन्तन--इन तीनों बातों की सिद्धि होती हे ।

अर्थात्‌ एक साथ वीर्य-रक्षण करने, वेदाध्ययन करने तथा ईश्वर-चिन्तन करने का नाम 'ब्रह्मचर्य! है। इन्हीं तीन महत्वशाली प्रयोजनों के एकत्र किये हुये भाव से ब्रह्मचर्य” शब्द की संसार में उत्पत्ति हुई है।

     अब हम ऊपर कहे गये तीन प्रयोजनों के समूह-रूप “ब्रह्मचर्य! को आगे बतलावेंगे । हमने जिन आधारों पर ऊपर के अर्थ किये हैं,'वे भी नीचे लिखे जाते हैं:--  

कठोपनिषत --

“तदेव शुर्क तद॒बह्म, तदेवामृतमश्नुते ।”

अर्थात्‌ वही वीर्य है--बही परमात्मा है और वही अमृत कहलाता है ।

यजुर्वेद -

तदेव शुक्र .तदब्रह्म, ता आपः स प्रजापति: ॥

अर्थात्‌ बही वीर्य है—वही ईश्वर है--बही जीवन है, और वही सृष्टि-कर्ता भी है।

ऐतरेयोपनिषत्‌--

“प्रज्ञानं वै ब्रह्म ।”

“अर्थात्‌ वेद साक्षात्‌ परमेश्वर है ।

मनुस्मृति --

“ब्रह्मभ्यासेन चाजसत्रमनन्तसुखमश्नुते ।?

अर्थात्‌ वेद के सदैव अध्ययन करने से अपरिमित सुख मिलता है ।

केवल्योपनिषत्‌--

“यत्परतब्रह्म सर्वात्मा, विश्वस्यायतनं महत्‌ ।”?

“अर्थात्‌ जो परब्रह्म है--सर्वात्मा है, और संसार का श्रेष्ठ धाम है ।

वेदान्तदर्शन--

“अथातो ब्रह्म-जिज्ञासा ।?

 

 

अर्थात्‌ अब हम परमात्म-तत्व की विवेचना करते हैं)

ऊपर के अवतरणों से पाठक समझ गये होंगे कि 'ब्रह्म” से

वीर्य, वेद और ईश्वर का बोध होता है। ब्रह्मचर्य-व्याख्या--कहने

का अभिप्राय यह है कि वीर्य, वेद और ईश्वर का--रक्षण, अध्ययन तथा चिन्तन ही ब्रह्मचर्य” है। इन तीनों में से एक भी कम हुआ, तो ब्रह्मचर्य की सम्पूर्णता नहीं प्राप्त हो सकती ।

 

३-ब्रह्मचय के आविष्कारक

गायन्ति देवाः किल गीतकानिंधन्यास्तु ये भारत-मूमि-भागे।

स्वर्गापवर्गस्य च हेतु-भूते, भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्‌॥

(श्रीमद्भागवत्‌ )

    वहीं महत्वशाली महादेश है, जहाँ की सभ्यता अपने अलौकिक गुणों के कारण, एक बार उन्नति की चरम-सीमा को पहुँच गई थी । यह वही पुण्य-प्रधान भूमि है, जहाँ का अन्तिम आलोक ग्रहण कर आधुनिक सभ्य तथा उन्नत कहलाने वाले देशों के निवासी, विश्व में अपनी विजय-बैजयन्ती उड़ा रहे हैं । वास्तव में हमारे उस गौरव-गरिमामय वैभव-विकास के आश्रय-सूत, इस देश में रहनेवाले, परम स्वाथ्थत्यागी और त्रिकालदर्शी ऋषि, मुनि तथा महात्मा लोग थे, जो उच्च पवतों की कन्दराओं और हरे-भरे वनों की कुटियों में बस कर, ससस्त मनुष्य-जाति के लिये हितकर, एवं सुख-शान्तिमय उपाय सोचा करते थे। उनके सत्सिद्वान्त कोरी कल्पना की अरक्षित भित्ति पर ही नहीं ठहरते थे, वरन्‌ वे आदर्श विज्ञान की खरी कसौटी पर सुदृढ़ अभ्यास द्वारा कसे जाकर ही जनता में प्रचलित किये जाते थे। यही एक मुख्य कारण था कि उनके अनुगमन से प्रजा सदा फूलती-फलती रही । उन्होंने सामाजिक जीवन को नियम-बद्ध किया । ईश्वर की सत्ता को स्थिर रखने के लिये तथा मानवी-सृष्टि को कुमार्ग-गामिनी होने से बचाने के उद्देश्य से, अनेक शास्त्रों की रचना की, और उनमें अनेक अमूल्य, उच्च तथास्वाभाविक विधान किये । उन्होंने स्वभाव-सिद्ध ब्राह्मणादि चार वर्णों और ब्रह्मचर्यादि चार आश्रमों की योजना की । जैसे वर्णों में ब्राह्मण, वैसे आश्रमों में ब्रह्मचर्य को प्रधानता और श्रेष्ठता का स्थान मिला । इस रहस्य-पूर्ण प्रणाली को हम उनके सवतोभद्रमस्तिष्क और दिव्य-दृष्टि का सबसे बड़ा उत्पादन मानते हैं। संसार की प्राथमिक अवस्था में, वास्तव में, यह उनकी अपूर्व योग्यता” थी। अतएव ब्रह्मचर्य के मूल आविष्कारक इसी देश के प्राचीन महात्मा तथा दरदर्शी ऋषि देव-तुल्य पुरुष थे। इन्हीं के कारण कई शताब्दियों  तक ब्रह्मचर्य-प्रथा का प्रचार धार्मिक रूप से भारत में ही क्या, समस्त भूमण्डल में उत्तरोत्तर बहुत दिनों तक बढ़ता गया ।

       काल के प्रभाव से उस सुवर्ण-युग का अन्‍त हो गया। भारत में आज वे महर्षि तथा सिद्ध लोग नहीं रहे, पर जिस कल्याणप्रद मार्ग को दिखला गये, वह इस पतित समय में भी उनका स्मरण दिलाता है । यदि हम अपनी अज्ञानता और अभिमान को छोड़ कर, उनकी बातों पर विश्वास और प्रेम कर, ब्रह्मचर्य-प्रणाली को पुनः उसी रूप सें प्रचलित करें, तो वास्तव में हम फिर भी उनकी आत्मा को दर्शन नवीन शरीर में कर सकते हैं । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि ब्रह्मचर्य के प्रभाव से भविष्य में हम भी वैसे ही आविष्कारक तथा सत्पुरुष हो सकेंगे ।  

इसे भी पढ़े- भाग -2, ब्रह्मचर्य की प्राचीनता


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