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वैदिक इतिहास महाभारत की सुक्ष्म कथाः-

 

वैदिक इतिहास महाभारत की सुक्ष्म कथाः-

  

   महाभारत हिंदू संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है। शास्त्रों में इसे पांचवां वेद भी कहा गया है। इसके रचयिता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास हैं। महर्षि वेदव्यास ने इस ग्रंथ के बारे में स्वयं कहा है-यन्नेहास्ति न कुत्रचित्। अर्थात जिस विषय की चर्चा इस ग्रंथ में नहीं की गई है, उसकी चर्चा अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है। श्रीमद्भागवतगीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी महासागर की देन है।

    परिचयः- महाभारत की रचना महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने की है, लेकिन इसका लेखन भगवान श्रीगणेश ने किया है। इस ग्रंथ में चंद्रवंश का वर्णन है। महाभारत में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। यह महाकाव्य 'जय' , 'भारत' और 'महाभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ में कुल मिलाकर एक लाख श्लोक हैं, इसलिए इसे शतसाहस्त्री संहिता भी कहा जाता है। यह ग्रंथ स्मृति वर्ग में आता है। इसमें कुल 18 पर्व हैं जो इस प्रकार हैं-आदिपर्व, सभा पर्व, वनपर्व, विराट पर्व, उद्योग पर्व, भीष्म पर्व, द्रोण पर्व, कर्ण पर्व, शल्य पर्व, सौप्तिक पर्व, स्त्री पर्व, शांति पर्व, अनुशासन पर्व, आश्वमेधिक पर्व, आश्रमवासिक पर्व, मौसल पर्व, महाप्रास्थनिक पर्व व स्वर्गारोहण पर्व। आइए इस लेख में हम इन 18 पर्वों के माध्यम से जानते है सम्पूर्ण महाभारत।

 1। आदिपर्वः- चंद्रवंश में शांतनु नाम के प्रतापी राजा हुए। शांतनु का विवाह देवी गंगा से हुआ। शांतनु व गंगा के पुत्र देवव्रत (भीष्म) हुए। अपने पिता की प्रसन्नता के लिए देवव्रत ने उनका विवाह सत्यवती से करवा दिया और स्वयं आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर ली। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उन्हें भीष्म कहा गया। शांतनु को सत्यवती से दो पुत्र हुए-चित्रांगद व विचित्रवीर्य। राजा शांतनु की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजा बने। चित्रांगद के बाद विचित्रवीर्य गद्दी पर बैठे। विचित्रवीर्य का विवाह अंबिका एवं अंबालिका से हुआ। अंबिका से धृतराष्ट्र तथा अंबालिका से पांडु पैदा हुए। धृतराष्ट्र जन्म से अंधे थे, इसलिए पांडु को राजगद्दी पर बिठाया गया।

      धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से तथा पांडु का विवाह कुंती व माद्री से हुआ। धृतराष्ट्र से गांधारी को सौ पुत्र हुए। इनमें सबसे बड़ा दुर्योधन था। पांडु को कुंती से युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन तथा माद्री से नकुल व सहदेव नामक पुत्र हुए। असमय पांडु की मृत्यु होने पर धृतराष्ट्र को राजा बनाया गया। कौरव (धृतराष्ट्र के पुत्र) तथा पांडव (पांडु के पुत्र) को द्रोणाचार्य ने शस्त्र विद्या सिखाई। एक बार जब सभी राजकुमार शस्त्र विद्या का प्रदर्शन कर रहे थे, तब कर्ण (यह कुंती का सबसे बड़ा पुत्र था, जिसे कुंती ने पैदा होते ही नदी में बहा दिया था।) ने अर्जुन से प्रतिस्पर्धा करनी चाही, लेकिन सूतपुत्र होने के कारण उसे मौका नहीं दिया गया। तब दुर्योधन ने उसे अंगदेश का राजा बना दिया।

      एक बार दुर्योधन ने पांडवों को समाप्त करने के उद्देश्य से लाक्षागृह का निर्माण करवाया। दुर्योधन ने षड्यंत्रपूर्वक पांडवों को वहाँ भेज दिया। रात के समय दुर्योधन ने लाक्षागृह में आग लगवा दी, लेकिन पांडव वहाँ से बच निकले। जब पांडव जंगल में आराम कर रहे थे, तब हिंडिब नामक राक्षस उन्हें खाने के लिए आया, लेकिन भीम ने उसका वध कर दिया। हिंडिब की बहन हिडिंबा भीम पर मोहित हो गई। भीम ने उसके साथ विवाह किया। हिडिंबा को भीम से घटोत्कच नामक पुत्र हुआ। एक बार पांडव घूमते-घूमते पांचाल देश के राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर में गए। यहाँ अर्जुन ने स्वयंवर जीत कर द्रौपदी का वरण किया। जब अर्जुन द्रौपदी को अपनी माता कुंती के पास ले गए तो उन्होंने बिना देखे ही कह दिया कि पांचों भाई आपस में बांट लो। तब श्रीकृष्ण ने कहने पर पांचों भाइयों ने द्रौपदी से विवाह किया।

      जब भीष्म, विदुर आदि को पता चला कि पांडव जीवित हैं तो उन्हें वापस हस्तिनापुर बुलाया गया। यहाँ आकर पांडवों ने अपना अलग राज्य बसाया, जिसका नाम इंद्रप्रस्थ रखा। एक बार नियम भंग होने के कारण अर्जुन को 12 वर्ष के वनवास पर जाना पड़ा।

      वनवास के दौरान अर्जुन ने नागकन्या उलूपी अमेरिका, मणिपुर की राजकुमारी चित्रांगदा व श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह किया। अर्जुन को सुभद्रा से अभिमन्यु तथा द्रौपदी से पांडवों को पांच पुत्र हुए। वनवास पूर्ण कर अर्जुन जब पुन: इंद्रप्रस्थ पहुंचे तो सभी बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन व श्रीकृष्ण के कहने पर ही मयासुर नामक दैत्य ने इंद्रप्रस्थ में एक सुंदर सभा भवन का निर्माण किया।

      2। सभा पर्वः- मयासुर द्वारा निर्मित सभा भवन बहुत ही सुंदर व विचित्र था। एक बार नारद मुनि युधिष्ठिर के पास आए और उन्हें राजसूय यज्ञ करने की सलाह दी। युधिष्ठिर ने ऐसा ही किया। भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव चारों दिशाओं में गए तथा सभी राजाओं को युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया। इसके बाद युधिष्ठिर ने समारोह पूर्वक राजसूय यज्ञ किया। इस समारोह में श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का वध कर दिया। युधिष्ठिर का ऐश्वर्य देखकर दुर्योधन के मन में ईष्र्या होने लगी। दुर्योधन ने पांडवों का राज-पाठ हथियाने के उद्देश्य से उन्हें हस्तिनापुर जुआ खेलने के लिए बुलाया। पांडव जुए में अपना राज-पाठ व धन आदि सबकुछ हार गए। इसके बाद युधिष्ठिर स्वयं के साथ अपने भाइयों व द्रौपदी को भी हार गए। भरी सभा में दु: शासन द्रौपदी को बालों से पकड़कर लाया और उसके वस्त्र खींचने लगा। किंतु श्रीकृष्ण की कृपा से द्रौपदी की लाज बच गई। द्रौपदी का अपमान देख भीम ने दु: शासन के हाथ उखाड़ कर उसका खून पीने और दुर्योधन की जंघा तोडऩे की प्रतिज्ञा की। यह देख धृतराष्ट्र डर गए और उन्होंने पांडवों को कौरवों के दासत्व से मुक्त कर दिया। इसके बाद धृतराष्ट्र ने पांडवों को उनका राज-पाठ भी लौटा दिया।

      इसके बाद दुर्योधन ने पांडवों को दोबारा जुआ खेलने के लिए बुलाया। इस बार शर्त रखी कि जो जुए में हारेगा, वह अपने भाइयों के साथ तेरह वर्ष वन में बिताएगा, जिसमें अंतिम वर्ष अज्ञातवास होगा। इस बार भी दुर्योधन की ओर से शकुनि ने पासा फेंका तथा युधिष्ठिर को हरा दिया। शर्त के अनुसार पांडव तेरह वर्ष वनवास जाने के लिए विवश हुए और राज्य भी उनके हाथ से चला गया।

    3। वन पर्वः- जुए की शर्त के अनुसार युधिष्ठिर को अपने भाइयों के साथ बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष के अज्ञातवास पर जाना पड़ा। पांडव वन में अपना जीवन बिताने लगे। वन में ही व्यासजी पांडवों से मिले तथा अर्जुन को दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए कहा। अर्जुन ने भगवान शिव से पाशुपास्त्र तथा अन्य देवताओं से भी दिव्यास्त्र प्राप्त किए। इसके लिए अर्जुन स्वर्ग भी गए। यहाँ किसी बात पर क्रोधित होकर उर्वशी नामक अप्सरा ने अर्जुन को नपुंसक होने का श्राप दे दिया।

      तब इंद्र ने कहा कि अज्ञातवास के समय यह श्राप तुम्हारे लिए वरदान साबित होगा। इधर युधिष्ठिर आदि पांडव तीर्थयात्रा करते हुए बदरिका आश्रम आकर रहने लगे। यहीं गंधमादन पर्वत पर भीम की भेंट हनुमानजी से हुई। हनुमानजी ने प्रसन्न होकर भीम को वरदान दिया कि युद्ध के समय वे अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठकर शत्रुओं को डराएंगे। कुछ दिनों बाद अर्जुन स्वर्ग से लौट आए। एक दिन जब द्रौपदी आश्रम में अकेली थी, तब राजा जयद्रथ (दुर्योधन की बहन दु: शला का पति) उसे बलपूर्वक उठा ले गया। पांडवों को जब पता चला तो उन्होंने उसे पकड़ लिया। जयद्रथ को दंड देने के लिए भीम ने उसका सिर मूंड दिया व पांच चोटियाँ रख कर छोड़ दिया।

      एक बार यमराज ने पांडवों की परीक्षा ली। यमराज ने यक्ष बन कर भीम, अर्जुन, नकुल व सहदेव से अपने प्रश्नों के उत्तर जानने चाहे, लेकिन अभिमान वश इनमें से किसी ने भी यमराज के प्रश्नों के उत्तर नहीं दिए। जिसके कारण यमराज ने इन सभी को मृतप्राय: कर दिया। अंत में युधिष्ठिर ने यमराज के सभी प्रश्नों के उत्तर दिए। प्रसन्न होकर यमराज ने सभी को पुनर्जीवित कर दिया।

   4। विराट पर्वः- 12 वर्ष के वनवास के बाद पांडवों ने अज्ञातवास बिताने के लिए विराट नगर में रहने की योजना बनाई। सबसे पहले पांडवों ने अपने शस्त्र नगर के बाहर एक विशाल वृक्ष पर छिपा दिए। युधिष्ठिर राजा विराट के सभासद बन गए। भीम रसोइए के रूप में विराट नगर में रहने लगे। नकुल घोड़ों को देख-रेख करने लगे तथा सहदेव गायों की। अर्जुन बृहन्नला बनकर राजा विराट की पुत्री उत्तरा को नृत्य की शिक्षा देने लगे। द्रौपदी दासी बनकर राजा विराट की पत्नी की सेवा करने लगी। राजा विराट का साला कीचक द्रौपदी का रूप देखकर उस पर मोहित हो गया और उसके साथ दुराचार करना चाहा। प्रतिशोध स्वरूप भीम ने षड्यंत्रपूर्वक उसका वध कर दिया। एक बार कौरवों ने विराट नगर पर हमले की योजना बनाई। पहले त्रिगर्तदेश के राजा सुशर्मा ने विराट नगर पर हमला किया। राजा विराट जब उससे युद्ध करने चला गया, उसी समय कौरवों ने भी विराट नगर पर हमला कर दिया। तब राजा विराट का पुत्र उत्तर बृहन्नला (अर्जुन) को सारथी बनाकर युद्ध करने आया।

       उत्तर ने जब कौरवों की सेना देखी तो वह डर कर भागने लगा। उस समय अर्जुन ने उसे सारथी बनाया और स्वयं युद्ध किया। देखते ही देखते अर्जुन ने कौरवों को हरा दिया। तब तक पांडवों का अज्ञातवास समाप्त हो चुका था। अगले दिन सभी पांडव अपने वास्तविक स्वरूप में राजा विराट से मिले। पांडवों से मिलकर राजा विराट बहुत प्रसन्न हुए। राजा विराट ने अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से करवा दिया।

     5। उद्योग पर्वः- अज्ञातवास के बाद जब पांडव अपने वास्तविक स्वरूप में आए तो श्रीकृष्ण आदि सभी ने मिलकर ये निर्णय लिया कि शर्त के अनुसार अब कौरवों का पांडवों का राज्य लौटा देना चाहिए। तब पांडवों ने अपना एक दूत हस्तिनापुर भेजा, लेकिन दुर्योधन ने राज्य देने से इनकार कर दिया। भीष्म, द्रोणाचार्य आदि ने भी दुर्योधन को समझाने का प्रयास किया, लेकिन वह नहीं माना। तब पांडवों ने श्रीकृष्ण को अपना दूत बना कर भेजा, लेकिन दुर्योधन ने उनका भी अपमान कर दिया। जब कौरव व पांडवों में युद्ध होना तय हो गया तब पांडवों ने अपने सेनापति धृष्टद्युम्न (द्रौपदी का भाई) को बनाया। दुर्योधन ने अपना सेनापति पितामह भीष्म को नियुक्त किया। कौरव व पांडवों की सेनाएँ कुरुक्षेत्र में आ गईं। भीष्म पितामह ने दुर्योधन को बताया कि पांडवों की सेना में शिखंडी नाम का जो योद्धा है वह जन्म के समय एक स्त्री था इसलिए मैं उसके साथ युद्ध नहीं करूंगा। तब भीष्म पितामह ने ये भी बताया कि शिखंडी पूर्व जन्म में अंबा नामक राजकुमारी थी, जिसे मैं बलपूर्वक हर लाया था। उसी ने बदला लेने के उद्देश्य से पुन: जन्म लिया है।

    6। भीष्म पर्वः- जब युद्ध प्रारंभ होने वाला था, उस समय शत्रुओं के दल में अपने परिजनों को देखकर अर्जुन हताश हो गए। तब श्रीकृष्ण ने उसे गीता का उपदेश दिया और अपना धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। देखते-ही देखते कौरव व पांडवों में घमासान युद्ध छिड़ गया। भीष्म लगातार 9 दिनों तक पांडव सेना का संहार करते रहे। तब श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा कि भीष्म की मृत्यु असंभव है इसलिए उन्हें युद्ध से हटाने का उपाय वे स्वयं ही बता सकते हैं। पांडवों के पूछने पर भीष्म ने बताया कि शिखंडी अगर मुझसे युद्ध करने आया तो मैं उस पर शस्त्र नहीं चलाऊंगा।

      दसवें दिन के युद्ध में शिखंडी पांडवों की ओर से भीष्म पितामह के सामने आकर डट गया, जिसे देखते ही भीष्म ने अपने अस्त्रों का त्याग कर दिया। श्रीकृष्ण के कहने पर शिखंडी की आड़ लेकर अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म को घायल कर दिया।

    अत्यधिक घायल होने के कारण भीष्म अपने रथ से नीचे गिर पड़े। शरीर में धंसे तीर ही उनके लिए शय्या बन गए। जब भीष्म ने देखा कि इस समय सूर्य दक्षिणायन है तो उन्हें प्राण नहीं त्यागे और तीरों की शय्या पर ही सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करने लगे।

   7। द्रोण पर्वः- भीष्म पितामह के बाद दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को अपनी सेना का सेनापति नियुक्त किया। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को जीवित पकडऩे के योजना बनाई। इसके लिए द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की और अर्जुन को युद्धभूमि से दूर ले गए। अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु चक्रव्यूह में घुस गया और वीरतापूर्वक लड़ते-लड़ते मृत्यु को प्राप्त हुआ। तब यह बात अर्जुन को पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और उसने जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा की क्योंकि जयद्रथ ने अभिमन्यु के चक्रव्यूह में प्रवेश करने के बाद उसका मार्ग बंद कर दिया था। युद्ध के चौदहवें दिन अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हुए जयद्रथ का वध कर दिया। भीम का पुत्र घटोत्कच भी अपनी माया से युद्ध करते हुए कौरवों का विनाश करने लगा। जब दुर्योधन ने देखा कि यदि घटोत्कच को रोका न गया तो ये आज ही कौरव सेना को हरा देगा, तब उसने कर्ण से उसे रोकने के लिए कहा।

     कर्ण ने अपनी दिव्य शक्ति, जो उसने अर्जुन के वध के लिए बचा रखी थी, का प्रहार घटोत्कच पर कर उसका वध कर दिया। युद्ध के पंद्रहवें दिन धृष्टद्युम्न ने षड्यंत्रपूर्वक द्रोणाचार्य का वध कर दिया। जब यह बात अश्वत्थामा को पता चली तो उसने नारायण अस्त्र का प्रहार किया, लेकिन श्रीकृष्ण के कारण पांडव बच गए।

    8। कर्ण पर्वः- द्रोणाचार्य के बाद दुर्योधन ने कर्ण को सेनापति बनाया। दो दिनों तक कर्ण ने पराक्रमपूर्वक पांडवों की सेना का विनाश किया। सत्रहवे दिन कर्ण राजा शल्य को अपना सारथि बना कर युद्ध करने आया। कर्ण जब अर्जुन से युद्ध कर रहा था उस समय भीम कौरव सेना का नाश कर रहा था। भीम ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हुए दु: शासन के दोनों हाथ उखाड़ दिए। यह देख कर्ण ने युधिष्ठिर को घायल कर दिया। जब यह बात अर्जुन को पता चली तो वह कर्ण से युद्ध करने आए। अर्जुन और कर्ण के बीच भयंकर युद्ध होने लगा। तभी अचानक कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धंस गया। जब कर्ण अपने रथ का पहिया जमीन से निकालने के लिए उतरे, उसी समय अर्जुन ने उनका वध कर दिया।

    9। शल्य पर्वः- कर्ण की मृत्यु के बाद कृपाचार्य ने दुर्योधन को पांडवों से संधि करने के लिए समझाया, लेकिन वह नहीं माना। अगले दिन दुर्योधन ने राजा शल्य को सेनापति बनाया। राजा शल्य सेनापति बनते ही पांडवों की सेना पर टूट पड़े। यह युद्ध का 18वां दिन था। राजा शल्य ने युधिष्ठिर को बीच भयंकर युद्ध हुआ। अंत में युधिष्ठिर ने राजा शल्य का वध कर दिया। यह देख कौरव सेना भागने लगी। उसी समय सहदेव ने शकुनि तथा उसके पुत्र उलूक का वध कर दिया। यह देख दुर्योधन रणभूमि से भाग कर दूर एक सरोवर में जाकर छिप गया। पांडवों को जब पता चला कि दुर्योधन सरोवर में छिपा है तो उन्होंने जाकर उसे युद्ध के लिए ललकारा। दुर्योधन और भीम में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में भीम ने दुर्योधन को पराजित कर दिया और मरणासन्न अवस्था में छोड़कर वहाँ से चले गए।

      उस समय कौरवों के केवल तीन ही महारथी बचे थे-अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। संध्या के समय जब उन्हें पता चला कि दुर्योधन मरणासन्न अवस्था में सरोवर के किनारे पड़े हैं, तो वे तीनों वहाँ पहुंचे। दुर्योधन उन्हें देखकर अपने अपमान से क्षुब्ध होकर विलाप कर रहा था। अश्वत्थामा ने प्रतिज्ञा की कि मैं चाहे जैसे भी हो, पांडवों का वध अवश्य करूंगा। दुर्योधन ने वहीं अश्वत्थामा को सेनापति बना दिया।

    10। सौप्तिक पर्वः- अश्वत्थामा, कृपाचार्य व कृतवर्मा रात के अंधेरे में पांडवों के शिविर में गए, लेकिन उन्हें ये नहीं पता था कि उस समय पांडव अपने शिविर में नहीं हैं। रात में उचित अवसर देखकर अश्वत्थामा हाथ में तलवार लेकर पांडवों के शिविर में घुस गया, उसने कृतवर्मा और कृपाचार्य से कहा कि यदि कोई शिविर से जीवित निकले तो तुम उसका वध कर देना। अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न, शिखंडी, उत्तमौजा आदि वीरों के साथ द्रौपदी के पांचों पुत्रों का भी वध कर दिया और शिविर में आग लगा दी।

      जब यह बात अश्वत्थामा ने जाकर दुर्योधन को बताई तो वह उसके मन को शांति मिली और तभी उसके प्राण पखेरु उड़ गए। इस प्रकार दुर्योधन का अंत हो गया। जब पांडवों को पता चला कि अश्वत्थामा ने छल पूर्वक सोते हुए हमारे पुत्रों व परिजनों का वध कर दिया है तो उन्हें बहुत क्रोध आया। पांडव अश्वत्थामा को ढूंढने निकल पड़े। अश्वत्थामा को ढूंढते-ढूंढते पांडव महर्षि व्यास के आश्रम तक आ गए। तभी उन्हें यहाँ अश्वत्थामा दिखाई दिया। पांडवों को आता देख अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया।

        उससे बचने के लिए अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया। दोनों अस्त्रों को टकराव से सृष्टि का नाश होने लगा। तभी महर्षि वेदव्यास ने अर्जुन और अश्वत्थामा को अपने-अपने शस्त्र लौटाने के लिए कहा। अर्जुन ने ऐसा ही किया किंतु अश्वत्थामा को अस्त्र लौटाने का विद्या नहीं आती थी। तब उसने अपने अस्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी। ताकि पांडवों के वंश का नाश हो जाए। तब श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को सदियों तक पृथ्वी पर भटकते रहने का श्राप दिया और उसके मस्तक की मणि निकाल ली।

      11। स्त्री पर्वः- जब कौरवों की हार और दुर्योधन की मृत्यु के बारे में धृतराष्ट्र, गांधारी आदि को पता चला तो हस्तिनापुर के महल में शोक छा गया। युद्ध में मृत्यु को प्राप्त वीरों की पत्नियाँ बिलख-बिलख कर रोने लगी। विदुर तथा संजय ने राजा धृतराष्ट्र को सांत्वना दी। अपने पुत्रों का संहार देखकर धृतराष्ट्र बेहोश हो गए। तब महर्षि वेदव्यास ने आकर उन्हें समझाया और सांत्वना प्रदान की। विदुरजी के कहने पर धृतराष्ट्र, गांधारी आदि कुरुकुल की स्त्रियाँ कुरुक्षेत्र चली गईं। कुरुक्षेत्र में आकर श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र को समझाया तथा पांडव भी उनसे मिलने आए। धृतराष्ट्र ने कहा कि वह भीम को गले लगाना चाहते हैं जिसने अकेले ही मेरे पुत्रों को मार दिया। श्रीकृष्ण ने समझ लिया कि धृतराष्ट्र के मन में भीम के प्रति द्वेष है। इसलिए उन्होंने पहले ही भीम की लोहे की मूर्ति सामने खड़ी कर दी। धृतराष्ट्र ने उस मूर्ति को हृदय से लगाया तथा इतनी ज़ोर से दबाया कि वह चूर्ण हो गई। धृतराष्ट्र भीम को मरा समझकर रोने लगे, तब श्रीकृष्ण ने कहा कि वह भीम नहीं था, भीम की मूर्ति थी। यह जानकर धृतराष्ट्र बड़े लज्जित हुए।

        श्रीकृष्ण पांडवों के साथ गांधारी के पास पहुंचे। वह दुर्योधन के शव से लिपट-लिपट कर रो रही थी। गांधारी ने श्रीकृष्ण को शाप दिया कि जिस तरह तुमने हमारे वंश का नाश कराया है, उसी तरह तुम्हारा भी परिवार नष्ट हो जाएगा। धृतराष्ट्र की आज्ञा से कौरव तथा पांडव वंश के सभी मृतकों का दाह-संस्कार कराया।

     12। शान्ति पर्वः- मृतकों का अंतिम संस्कार करने के बाद युधिष्ठिर आदि सभी एक महीने तक गंगा तट पर ही रुके। इसके बाद सर्वसम्मति से युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया गया।

     राज्याभिषेक होने के बाद युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को अलग-अलग दायित्व दिए तथा विदुर, संजय और युयुत्सु को धृतराष्ट्र की सेवा में रहने के लिए कहा। इसके बाद श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को बाणों की शय्या पर लेटे भीष्म पितामह के पास ले गए। यहाँ भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर के धर्म, राजनीति, राजकार्य व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि जुड़े अनेक प्रश्नों के उत्तर दिए।

    13। अनुशासन पर्वः- इस पर्व में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को न्यायपूर्वक शासन करने का उपदेश दिया। सूर्य के उत्तरायण होने के बाद भीष्म अपनी इच्छा से मृत्यु का वरण करते हैं। पांडव पूरे विधि-विधान से भीष्म पितामह का अंतिम संस्कार करते हैं पुन: हस्तिनापुर लौट आते हैं।

   14। आश्वमेधिक पर्वः- पितामह भीष्म की मृत्यु से युधिष्ठिर जब बहुत व्याकुल हो गए, तब महर्षि वेदव्यास युधिष्ठिर को अश्वमेध यज्ञ करने की सलाह देते हैं। तब युधिष्ठिर कहते हैं कि इस समय यज्ञ के लिए मेरे पास पर्याप्त धन नहीं है, तब महर्षि वेदव्यास ने बताया कि सत्ययुग में राजा मरुत्त थे। उनका धन आज भी हिमालय पर रखा है, यदि तुम वह धन ले आओ तो अश्वमेध यज्ञ कर सकते हो। युधिष्ठिर ऐसा ही करने का निर्णय करते हैं। शुभ मुहूर्त देखकर युधिष्ठिर अपने भाइयों व सेना के साथ राजा मरुत्त का धन लेने हिमालय जाते हैं। जब पांडव धन ला रहे होते हैं, उसी समय अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा एक मृत शिशु को जन्म देती है। जब यह बात श्रीकृष्ण को पता चलती है तो वह उस मृत शिशु को जीवित कर देते हैं। श्रीकृष्ण उस बालक का नाम परीक्षित रखते हैं।

      जब पांडव धन लेकर लौटते हैं और उन्हें परीक्षित के जन्म का समाचार मिलता है तो वे बहुत प्रसन्न होते हैं। इसके बाद राजा युधिष्ठिर समारोहपूर्वक अश्वमेध यज्ञ प्रारंभ करते हैं। युधिष्ठिर अर्जुन को यज्ञ के घोड़े का रक्षक नियुक्त करते हैं। अंत में बिना किसी रूकावट के राजा युधिष्ठिर का अश्वमेध यज्ञ पूर्ण होता है।

     15। आश्रमवासिक पर्वः- लगभग 15 वर्षों तक युधिष्ठिर के साथ रहने के बाद धृतराष्ट्र के मन में वैराग्य की उत्पत्ति होती है। तब धृतराष्ट्र के साथ गांधारी, कुंती, विदुर व संजय भी वन में तप करने चले जाते हैं। वन में रहते हुए धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती घोर तप करते हैं और विदुर तथा संजय इनकी सेवा करते थे। बहुत समय बीतने पर राजा युधिष्ठिर सपरिवार धृतराष्ट्र, गांधारी व अपनी माता कुंती से मिलने आते हैं। उसी समय वहाँ महर्षि वेदव्यास भी आते हैं। महर्षि वेदव्यास अपने तपोबल से एक रात के लिए युद्ध में मारे गए सभी वीरों को जीवित करते हैं। रात भर अपने परिजनों के साथ रहकर वे सभी पुन: अपने-अपने लोकों में लौट जाते हैं। कुछ दिन वन में रहकर युधिष्ठिर आदि सभी पुन: हस्तिनापुर लौट आते हैं। इस घटना के करीब दो वर्ष बाद नारद मुनि युधिष्ठिर के पास आते हैं और बताते हैं कि धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती की मृत्यु जंगल में लगी आग के कारण हो गई है। यह सुनकर पांडवों को बहुत दुख होता है और वे धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती की आत्मशांति के लिए तर्पण आदि करते हैं।

    16। मौसल पर्वः- एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व आदि ऋषि द्वारिका आते हैं। वहाँ श्रीकृष्ण के पुत्र व अन्य युवक उनका अपमान कर देते हैं। क्रोधित होकर मुनि यदुवंशियों का नाश होने का श्राप देते हैं। एक दिन जब सभी यदुवंशी प्रभास क्षेत्र में एकत्रित होते हैं, तब वहाँ वे आपस में ही लड़कर मर जाते हैं। बलराम भी योगबल से अपना शरीर त्याग देते हैं। तब श्रीकृष्ण वन में एक पेड़ के नीचे बैठे होते हैं, तब एक शिकारी उनके पैर पर बाण चला देता है, जिससे श्रीकृष्ण भी शरीर त्याग कर स्वधाम चले जाते हैं। जब यह बात अर्जुन को पता चलती है तो वह द्वारिका आते हैं और यदुवंशियों के परिवार को अपने साथ हस्तिनापुर ले जाते हैं। मार्ग में उन पर लुटेरे हमला कर देते हैं और बहुत-सा धन व स्त्रियों को अपने साथ ले जाते हैं। यह देखकर अर्जुन बहुत लज्जित होते हैं। जब अर्जुन ये बात जाकर महर्षि वेदव्यास को बताते हैं तो वे पांडवों को परलोक यात्रा पर जाने के लिए कहते हैं।

      17। महाप्रास्थानिक पर्वः- श्रीकृष्ण की मृत्यु के बाद पांडव भी अत्यंत उदासीन रहने लगे तथा उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने हिमालय की यात्रा करने का निश्चय किया। अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राजगद्दी सौंपकर युधिष्ठिर अपने चारों भाइयों और द्रौपदी के साथ चले गए तथा हिमालय पहुंचे। उनके साथ एक कुत्ता भी था। कुछ दूर चलने पर द्रौपदी गिर पड़ी। इसके बाद नकुल, सहदेव, अर्जुन व भीम भी गिर गए। युधिष्ठिर तथा वह कुत्ता आगे बढ़ते रहे। युधिष्ठिर थोड़ा आगे बढ़े ही थे कि स्वयं देवराज इंद्र अपने रथ पर सवार होकर युधिष्ठिर को सशरीर स्वर्ग ले जाने आए। तब युधिष्ठिर ने कहा कि यह कुत्ता भी मेरे साथ यहाँ तक आया है। इसलिए यह भी मेरे साथ स्वर्ग जाएगा। देवराज इंद्र कुत्ते को अपने साथ ले जाने को तैयार नहीं हुए तो युधिष्ठिर ने भी स्वर्ग जाने से इनकार कर दिया। युधिष्ठिर को अपने धर्म में स्थित देख वह यमराज अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए (कुत्ते के रूप में यमराज ही युधिष्ठिर के साथ थे) । इस प्रकार देवराज इंद्र युधिष्ठिर को सशरीर स्वर्ग ले गए।

    18। स्वर्गारोहण पर्वः- देवराज इंद्र युधिष्ठिर को स्वर्ग ले गए, तब वहाँ उन्हें दुर्योधन तो दिखाई दिया, लेकिन अपने भाई नजर नहीं आए। तब युधिष्ठिर ने इंद्र से कहा कि मैं वहीं जाना चाहता हूं, जहाँ मेरे भाई हैं। तब इंद्र ने उन्हें एक बहुत ही दुर्गम स्थान पर भेज दिया। वहाँ जाकर युधिष्ठिर ने देखा कि भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव व द्रौपदी वहाँ नरक में हैं तो उन्होंने भी उसी स्थान पर रहने का निश्चय किया। तभी वहाँ देवराज इंद्र आते हैं और बताते हैं कि तुमने अश्वत्थामा के मरने की बात कहकर छल से द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्यु का विश्वास दिलाया था।

      इसी के परिणाम स्वरूप तुम्हें भी छल से ही कुछ देर नरक देखना पड़ा। इसके बाद युधिष्ठिर देवराज इंद्र के कहने पर गंगा नदी में स्नान कर, अपना शरीर त्यागते हैं और इसके बाद उस स्थान पर जाते हैं, जहाँ उनके चारों भाई, कर्ण, भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रौपदी आदि आनंदपूर्वक विराजमान थे (वह भगवान का परमधाम था) । युधिष्ठिर को वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं। इस प्रकार महाभारत कथा का अंत होता है।

    महाभारत के कुछ सुने-अनसुने आख्यानः- यहाँ से एक बार वुद्धि में बिकार आने के कारण देवताओं के स्वर्ग पर बिपत्ति के बादल मंडराने लगा। यहाँ कारण एक ऋषि और एक चक्रवर्ती राजा के कारण हुआ। जैसा कि महाभारत में पांडवों को भयंकर बिपत्तियों और भयानक युद्ध का सामना करना पड़ा था। ऐसा ही एक बार राजा नल दमयन्ती के साथ हुआ था जब मानव बुद्धि में बिकार आता है तब सूर्य के प्रकाश में भी रास्ता बड़ी मुस्किल से दिखाइ देता है।

      हम सब मानते है कि शकुनि कौरवों का सबसे बड़ा हितैषी था जबकि है इसका बिलकुल विपरीत। शकुनि ही कौरवों के विनाश का सबसे बड़ा कारण था, उसने ही कौरवों का वंश समाप्त करने के लिए महाभारत के युद्ध की पृष्टभूमि तैयार की थी। पर उसने ऐसा किया क्यों? इसका उत्तर जानने के लिए हमे ध्रतराष्ट्र और गांधारी के विवाह से कथा प्रारम्भ करनी पड़ेगी।

    शकुनि ही थे कौरवों के विनाश का कारण:- एक साधु के कहे अनुसार गांधारी का विवाह पहले एक बकरे के साथ किया गया था। बाद में उस बकरे की बलि दे दी गयी थी। यह बात गांधारी के विवाह के समय छुपाई गयी थी। जब ध्रतराष्ट्र को इस बात का पता चला तो उसने गांधार नरेश सुबाला और उसके 100 पुत्रों को कारावास मैं डाल दिया और काफी यातनाएँ दी।

       एक-एक करके सुबाला के सभी पुत्र मरने लगे। उन्हें खाने के लिये सिर्फ़ मुट्ठी भर चावल दिये जाते थे। सुबाला ने अपने सबसे छोटे बेटे शकुनि को प्रतिशोध के लिये तैयार किया। सब लोग अपने हिस्से के चावल शकुनि को देते थे ताकि वह जीवित रह कर कौरवों का नाश कर सके। मृत्यु से पहले सुबाला ने ध्रतराष्ट्र से शकुनि को छोड़ने की बिनती की जो ध्रतराष्ट्र ने मान ली। सुबाला ने शकुनि को अपनी रीढ़ की हड्डी के पासे बनाने के लिये कहा, वही पासे कौरव वंश के नाश का कारण बने। शकुनि ने हस्तिनापुर में सबका विश्वास जीता और 100 कौरवों का अभिवावक बना। उसने ना केवल दुर्योधन को युधिष्ठिर के खिलाफ भड़काया बल्कि महाभारत के युद्ध का आधार भी बनाया।

    एक वरदान के कारण द्रोपदी बनी थी पांच पतियों की पत्नी:- द्रौपदी अपने पिछले जन्म मैं इन्द्र्सेना नाम की ऋषि पत्नी थी। उसके पति संत मौद्गल्य का देहांत जल्दी ही हो गया था। अपनी इच्छाओं की पूर्ति की लिये उसने भगवान शिव से प्रार्थना की। जब शिव उसके सामने प्रकट हुए तो वह घबरा गयी और उसने 5 बार अपने लिए वर मांगा। भगवान शिव ने अगले जन्म मैं उसे पांच पति दिये।

    एक श्राप के कारण धृतराष्ट्र जन्मे थे अंधे:- धृतराष्ट्र अपने पिछले जन्म में एक बहुत दुष्ट राजा था। एक दिन उसने देखा कि नदी में एक हंस अपने बच्चों के साथ आराम से विचरण कर रहा था। उसने आदेश दिया की उस हंस की आँख फोड़ दी जायैं और उसके बच्चों को मार दिया जाये। इसी वजह से अगले जन्म में वह अंधा पैदा हुआ और उसके पुत्र भी उसी तरह मृत्यु को प्राप्त हुये जैसे उस हंस के।

    अभिमन्यु था कालयवन राक्षस की आत्मा:- कहा जाता हे की अभिमन्यु एक कालयवन नामक राक्षस की आत्मा थी। कृष्ण ने कालयवन का वध कर, उसकी आत्मा को अपने अंगवस्त्र मैं बांध लिया था। वह उस वस्त्र को अपने साथ द्वारिका ले गये और एक अलमारी में रख दिया। सुभद्रा (अर्जुन की पत्नी) ने गलती से जब वह अलमारी खोली तो एक ज्योति उसके गर्भ मैं आगयी और वह बेहोश हो गयी। इसी वजह से अभिमन्यु को चक्रव्यूह भेदने का सिर्फ़ आधा ही तरीका बताया गया था।

   एकलव्य ही बना था द्रोणाचार्ये की मृत्यु का कारण:- एकलव्य देवाश्रवा का पुत्र था। वह जंगल में खो गया था और उसको एक निषाद हिरण्यधनु ने बचाया था। एकलव्य रुक्मणी स्वंयवर के समय अपने पिता की जान बचाते हुए मारा गया। उसके इस बलिदान से प्रसन्न होकर श्री कृष्ण ने उसे वरदान दिया की वह अगले जन्म में द्रोणाचर्य से बदला ले पायेगा। अपने अगले जन्म में एकलव्य द्रष्टद्युम्न बनके पैदा हुआ और द्रोण की मृत्यु का कारण बना।

   पाण्डु की इच्छा अनुसार पांडवो ने खाया था अपने पिता के मृत शरीर को:- पाण्डु ज्ञानी थे। उनकी अंतिम इच्छा थी की उनके पांचो बेटे उनके म्रत शरीर को खायैं ताकि उन्होंने जो ज्ञान अर्जित किया वह उनके पुत्रों मैं चला जाये। सिर्फ़ सहदेव ने पिता की इच्छा का पालन करते हुए उनके मस्तिष्क के तीन हिस्से खाये। पहले टुकड़े को खाते ही सहदेव को इतिहास का ज्ञान हुआ, दूसरे टुकड़े को खाने पर वर्तमान का और तीसरे टुकड़े को खाते ही भविष्य का। हालांकि ऐसी मान्यता भी है कि पांचो पांडवो ने ही मृत शरीर को खाया था पर सबसे ज़्यादा हिस्सा सहदेव ने खाया था।

   कुरुक्षेत्र में आज भी है मिट्टी अजीब:- कुरुक्षेत्र में एक जगह है, जहाँ माना जाता है कि महाभारत का युद्ध हुआ था। उस जगह से कुछ 30 किलोमीटर के दायरे में मिट्टी संरचना बहुत अलग है। वैज्ञानिक समझ नहीं पा रहे है कि यह कैसे संभव है। क्योंकि इस तरह की मिट्टी सिर्फ़ तब हो सकती है अगर उस जगह पर बहुत ज़्यादा तेज़ गर्मी हो। बहुत से लोगों का मानना है कि लड़ाई की वजह से ही मिट्टी का परिवर्तन बदलाव हुआ है।

    श्री कृष्ण ने ले लिया था बर्बरीक का शीश दान मेः- बर्बरीक भीम का पोता और घटोत्कच का पुत्र था। बर्बरीक को कोई नहीं हरा सकता था क्योंकि उसके पास कामाख्या देवी से प्राप्त हुए तीन तीर थे, जिनसे वह कोई भी युद्ध जीत सकता था। पर उसने शपथ ली थी की वह सिर्फ़ कमज़ोर पक्ष के लिये ही लड़ेगा। अब चुकी बर्बरीक जब वहाँ पहुंचा तब कौरव कमजोर थे इसलिए उसका उनकी तरफ से लड़ना तय था। जब यह बात श्री कृष्ण को पता चली तो उन्होंने उसका शीश ही दान में मांग लिया। तथा उसे वरदान दिया की तू कलयुग में मेरे नाम से जाना जाएगा। इसी बर्बरीक का मंदिर राजस्थान के सीकर जिले के खाटूश्यामजी में है जहाँ उनकी बाबा श्याम के नाम से पूजा होती है।

    हर योद्धा का अलग था शंख:- सभी योधाओं के शंख बहुत शक्तिशाली होते थे। भागवत गीता के एक श्लोक में सभी शंखों के नाम हैं। अर्जुन के शंख का नाम देवदत्त था। भीम के शंख का नाम पौंड्रा था, उसकी आवाज़ से कान से सुनना बंद हो जाता था। कृष्णा के शंख का नाम पांचजन्य, युधिष्ठिर के शंख का नाम अनंतविजया, सहदेव के शंख का नाम पुष्पकौ और नकुल के शंख का नाम सुघोशमनी था।

   अर्जुन एक बार और गए थे वनवास पर:- एक बार कुछ डाकुओं का पीछा करते हुए अर्जुन गलती से युधिष्ठिर और द्रौपदी के कमरे में दाखिल हो गया। अपनी गलती की सज़ा के लिये वह 12 साल के वनवास के लिये निकल गया। उस दौरान अर्जुन ने तीन विवाह कियेचित्रांगदा (मणिपुरा) , उलूपी (नागा) और सुभद्रा (कृष्ण की बहन) । इसी नाग कन्या उलूपी से उसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम इरावन (अरावन) था। महाभारत के युद्ध में जब एक बार एक राजकुमार की स्वैच्छिक नर बलि की ज़रूरत पड़ी तो इरावन ने ही अपनी बलि दी थी। इरावन की तमिलनाडु में एक देवता के रूप में पूजा होती है तथा हिंजड़ों की उनसे शादी होती है।

    यह कथा पांडव कुल के अंतिम सम्राट जनमेजय (अर्जुन के प्रपौत्र) से जुडी है। जनमेजय ने एक बार पृथ्वी से सांपो का अस्तित्व मिटाने के लिए सर्प मेध यज्ञ किया था जिसमे पृथ्वी पर उपस्तिथ लगभग सभी सांप समाप्त हो गए थे। हालंकि अंत में अस्तिका मुनि के हस्तक्षेप के कारण सांपो का सम्पूर्ण विनाश होने से रह गया था, अन्यथा आज पृथ्वी पर सांपो का अस्तित्व नहीं होता। आइये जानते है कौन थे जनमेजय और क्यों उन्होंने सांपो के सम्पूर्ण विनाश की प्रतिज्ञा ली थी?

    राजा परीक्षित को ऋषि ने दिया शापः- महाभारत के युद्ध के बाद कुछ सालों तक पांडवों ने हस्तिनापुर पर राज किया। लेकिन जब वह राजपाठ छोड़कर हिमालय जाने लगे तो राज का जिम्मा अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को दे दिया गया। परीक्षित ने पांडवों की परंपरा को आगे बढ़ाया। लेकिन यहाँ पर विधाता कोई और खेल, खेल रहा था। एक दिन मन उदास होने पर राजा परीक्षित शिकार के लिए जंगल गए थे। शिकार खेलते-खेलते वह ऋषि शमिक के आश्रम से होकर गुजरे।

     ऋषि उस वक्त ब्रह्म ध्यान में आसन लगा कर बैठे हुए थे। उन्होंने राजा की ओर ध्यान नहीं दिया। इस पर परीक्षित को बहुत तेज गुस्सा आया और उन्होंने ऋषि के गले में एक मरा हुआ सांप डाल दिया। जब ऋषि का ध्यान हटा तो उन्हें भी बहुत गुस्सा आया और उन्होंने राजा परीक्षित को शाप दिया कि जाओ तुम्हारी मौत सांप के काटने से ही होगी। राजा परीक्षित ने इस शाप से मुक्ति के लिए तमाम कोशिशे की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

   कैसे हुई राजा परीक्षित की मौतः- राजा परीक्षित ने हर मुमकिन कोशिश की कि उनकी मौत सांप के डसने से न हो। उन्होंने सारे उपाय किए ऐसी जगह पर घर बनवाया जहाँ परिंदा तक पर न मार सके। लेकिन ऋषि का शाप झूठा नहीं हो सकता था। जब चारों तरफ से राजा परीक्षित ने अपने आपको सुरक्षित कर लिया तो एक दिन एक ब्राह्मण उनसे मिलने आए। उपहार के तौर पर ब्राह्मण ने राजा को फूल दिए और परीक्षित को डसने वला वह काल सर्प 'तक्षक' उसी फूल में एक छोटे कीड़े की शक्ल में बैठा था। तक्षक सांपो का राजा था। मौका मिलते ही उसने सर्प का रूप धारण कर लिया और राज परीक्षित को डस लिया।

     राजा परीक्षित की मौत के बाद राजा जनमेजय हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठे। जनमेजय पांडव वंश के आखिरी राजा थे।

    राजा जनमेजय का सर्प मेध यज्ञः- जनमेजय को जब अपने पिता की मौत की वजह का पता चला तो उसने धरती से सभी सांपों के सर्वनाश करने का प्रण ले लिया और इस प्रण को पूरा करने के लिए उसने सर्पमेध यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ के प्रभाव से ब्रह्मांड के सारे सांप हवन कुंड में आकर गिर रहे थे। लेकिन सांपों का राजा तक्षक, जिसके काटने से परीक्षित की मौत हुई थी, खुद को बचाने के लिए सूर्य देव के रथ से लिपट गया और उसका हवन कुंड में गिरने का अर्थ था सूर्य के अस्तित्व की समाप्ति जिसकी वजह से सृष्टि की गति समाप्त हो सकती थी।

    कैसे खत्म हुआ सर्प मेध यज्ञ:- सूर्यदेव और ब्रह्माण्ड की रक्षा के लिए सभी देवता जनमेजय से इस यज्ञ को रोकने का आग्रह करने लगे लेकिन जनमेजय किसी भी रूप में अपने पिता की हत्या का बदला लेना चाहता था। जनमेजय के यज्ञ को रोकने के लिए अस्तिका मुनि को हस्तक्षेप करना पड़ा, जिनके पिता एक ब्राह्मण और माँ एक नाग कन्या थी। अस्तिका मुनि की बात जनमेजय को माननी पड़ी और सर्पमेध यज्ञ को समाप्त कर तक्षक को मुक्त करना पड़ा।


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