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योग और ब्रह्मचर्य

 

योग और ब्रह्मचर्य

योगात्संप्राप्यते ज्ञानं, योगो धर्मस्यलक्षणम्।

योगो परन्तपोज्ञेयस्तस्माद् योगं सम्भयसेत्‌॥

महामु्नि अत्रि )

        योग से ज्ञान की प्राप्ति होती है--योग ही धर्म का रूप ' है, और योग ही परम तप माना जाता है। अतएव ऐसे योग का अभ्यास करना चाहिये ।

      महर्षि पतञ्जली ने अपने शास्त्र में इस प्रकार योग का लक्षण “किया हैः-।

“योगश्चित्त-वृत्ति-निरोधः ।

योगदर्शन )

     चित्त की वृत्तियों को रोकने का नाम योग है । जब तक चित्त-वृत्तियाँ अपने अधिकार में नहीं हो जातीं, तब तक लाख उपाय करने पर भी वे वृत्तियां रोके नहीं रुक सकतीं। चित्त-वृत्तियों को अधिकार में करने के लिये, मन की साधना की जाती है । यह मन की साधना बिना ब्रह्मचर्य के हो नहीं सकती । यही कारण है कि योग करने के पहले ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करना पड़ता है । जिसका ब्रह्मचर्य स्थिर नहीं, वह पुरुष योग-भ्रष्ट होकर अपने अनुष्ठान से गिर जाता है । एक ब्रह्मचारी कुरूप में ही चित्त-वृत्ति को रोकने की शक्ति रह सकती है । योग का उद्देश्य आत्मा ओर परमात्मा को प्राप्त करना है । उपनिषदों में आत्मा ओर परमात्मा में लीन होने के उपायों का वणर्न है । प्रमाण के लिये एक मन्त्र उद्धृत किया जाता है.--.-

सत्येन लम्यस्तपसा ह्येष आत्मा।

सम्यकज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्‌ ॥

अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयों हि शुभ्रो ।

य पश्यन्ति .यतयः क्षीण दोषाः॥

      सत्य से, तप से, पूर्ण ज्ञान से, और अविचल ब्रह्मचर्य से आत्मा ( ईश्वर ) का लाभ हो सकता है। वह अन्तःकरण में ज्योति- मय और निर्मल रूप से विराजमान है। जो लोग सिद्ध और निष्पाप हैं, वे ही उसके दर्शन कर सकते हैं ।

      हमारे विचार से सत्य, तप और आत्मज्ञान सब योग से ही सिद्ध होते हैं। वह योग भी ब्रह्मचर्य पर स्थित है। इसलिये ब्रह्मचर्य ही सच्चा योग है । इसका निभाने वाला पुरुष ही कर्मनिष्ठ योगी है। जिस चित्त-वृत्ति निरोध से योग सिद्ध होता है, उसी से ब्रह्मचर्य का भी पालन किया जाता है ।

योग-शास्त्र में योग के साधने की तीन क्रियायें या साधन इस प्रकार वतलाये गये हैं:---

“तप: स्वाध्यायेश्वर-प्र णिधानानि क्रिया-योगः ।

        तप, स्वाध्याय ओर ईश्वर-प्रणिधान को क्रिया-योग कहते हैं । हमारे ब्रह्मचर्य में भी, ये तीनों क्रियायें प्रधानरूप से विद्यमान हैं। जिन आठ अंगों से योग सिद्ध होता है, उन्हीं के पालन से ब्रह्मचर्य को भी पूरा प्राप्त होती है । ।

        अब पाठक समझ गये होंगे कि ब्रह्मचर्य एक प्रकार से योग भी है। जिससे ब्रह्मचर्य का पालन किया, उसने योग-साधन भी कर लिया ।

सत्य और ब्रह्मचर्य

 

सत्येन धायते पृथ्वी, सत्येन तपते रवि३।

खत्येब वातिवायुश्च, सर्वे सत्ये प्रतिष्ठितम्‌ ॥।

 

     सत्य से पृथ्वी ठहरी हुई है, सत्य से सूर्य अपना प्रकाश करता है ओर सत्य से ही वायु चलती है। एक सत्य में सब कुछ प्रतिष्ठित है । वास्तव सें संसार का बीज रूप एक सत्य ही है। सभी पदार्थों में सत्य विराजमान है । जहाँ वह नहीं है, वहाँ कुछ भी नहीं रह सकता । जिस पदार्थ का सत्य नष्ट हो जाता है, वह स्वयं सी नाश को प्राप्त होता है । सत्य का ही दूसरा नास अस्तित्व है । इस शरीर का सत्य बल है--        इसके भीतर रहने वाले आत्मा का सत्य ब्रह्मचर्य है। इस ब्रह्मचर्य बल के न रहने पर शरीर और ब्रह्मचर्य से हीन होने पर आत्मा का अस्तित्व नहीं रह सकता । जैसा कि

उपनिपदों में लिखा है:--

सत्य मेव जयते नानृतम्‌। सत्येन पन्‍थाविततो देवयानः ॥

येनाक्रमन्तृषयो. ह्याप्तकामा । यत्र सत्यत्यस्य परमंनिधानम्‌ ॥

 

       सत्य की ही जय होती है, असत्य की नहीं ! सत्य से ही देवों का मार्ग मिलता है। ऋषि लोग भी सत्य के प्रभाव से सफल होते हैं, जहाँ सत्य की सत्ता है, वहाँ सब सुख है ।

      हमारे विचार से जिस सत्य का वर्णन ऊपर आया है, वह ही ब्रह्मचर्य है । जो पुरुष ब्रह्मचर्य का नाश करता है, वह अपने को सत्य से पृथक करता है । इसके पालन से मनुष्य सत्य को अधिकार में कर लेता है, और वह सत्य उस को सुखी बनाता है।

      हमारे भीष्म पितामह ने ब्रह्मचर्य को सत्य शब्द से अभिमंत्रित किया है ! अपनी प्रतिज्ञा -की दृढ़ता प्रकट करने के लिये, उन्होंने सत्य का ही नाम लेकर, ब्रह्मचर्य को महत्व दिया है ।

विक्रम॑ वित्रहा जह्याधर्म जह्याच्च धर्मराट् ।

नत्वहं सत्मुत्स्रष्टुं, व्यवसेयं कथश्चन ॥।

( महाभारत )

      चाहे इन्द्र अपने पराक्रम को छोड़ दें, और धर्मराज अपने धर्म को छोड़ दें, पर जिस सत्य ( ब्रह्मचर्य ) को मैंने धारण किया है, उसे कदापि नहीं छोड़ सकता ।

        अब पाठक सत्य और ब्रह्मचर्य की एकता और रहस्य को समझ गये होंगे । जिस पुरुष ने हृदय में सत्य की कुछ भी प्रतिष्ठा है--जो सत्य का पालन करना चाहता है, वह इस ब्रह्मचर्य रूपी सत्य का पालन कर सद्गति को प्राप्त हो ।

 

कर्तव्य और ब्रह्मचर्य

 

“जयं प्राप्नोति संग्रामे, यः सुकार्याण्यनुष्ठते ।”

( विदुरनाति )

      सत्य कर्तव्यों का पालन करते वाला ही पुरुष संग्राम सें विजय- प्राप्त करता है।

कर्तव्य मेव कर्तव्यं, प्राणैः कण्ठगतैरपि ।

अकर्तव्यं न कर्तव्यं, प्राणैः कण्ठगरतैरपि ॥

( नीति-शास्त्र )

      अपने कर्तव्य का पालन प्राणों के निकलने तक करना चाहिये ! पर जिसे हम अकर्तव्य समझते हैं, उसे प्राणों के जाने पर भी करना योग्य नहीं। कर्तव्य से ही समाज की स्थिति है--कर्तव्य से ही दोषों का नाश होता है--कर्तव्य के पालन से ही मनुष्य को सुख- शान्ति मिल सकती है, और कर्तव्य ही सब का सार है । कर्तव्य ' से हीन होने पर कदापि सुख नहीं मिलता । अकर्तव्य के समान पाप भी नहीं । हम ब्रह्मचर्य को ही सब कर्तव्यों का कर्तव्य मानते हैं ।  

 

     संसार के सारे कर्तव्य एक ब्रह्मचर्य की आवश्यकता रखते हैं। ब्रह्मचर्य के बिना एक भी कर्तव्य नहीं हो सकता !

“कर्तव्यं सर्व-साधकम्‌ !”

( सृक्ति )

         कर्तव्य ही मनुष्य के सब कार्यों' को साधने वाला है । हमारा ब्रह्मचर्य भी सब का साधने वाला सिद्ध हो चुका है। अतएव वह पूर्ण रूप से कर्तव्य कहा जा सकता है। इस कर्तव्य के सामने विश्व के सभी कर्तव्य मुक हो जाते हैं । इस ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला पुरुष ही सच्चा कर्तव्यशील है, और बह सब सुखों को सहज में प्राप्त कर लेता है। तेत्तिरीयोपनिषद्‌ में आचार्य-द्वारा कर्तव्य की बहुत ही उत्तम  परिभाषा की गई है, और उसी वचन में कर्तव्य-पालन को आज्ञा भी ब्रह्मचारी को दी है। उसे हम यहाँ उद्धृत करते हैं:---

“यान्यनवद्यानिकर्माणि तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि ।

( उपनिषत्‌ )

      जो निर्दोष कर्म हैं, वे ही कर्तव्य हैं। अकर्तव्य का सेवन करना योग्य नहीं वरन्‌ मूर्खता है। इस से यह विदित होता है कि जितने दोष-रहित कर्म हैं, सब की गणना कर्तव्य में है। उनका पालन करना शास्त्र- संङ्गत है। वे सभी कर्तव्य ब्रह्मचर्य के बिना नहीं सध सकते । अतः इस प्रकार से भी ब्रह्मचर्य सब कर्तव्यों का मूल है। अब पाठक भली भाँति समझ गये होंगे कि “ब्रह्मचर्य! ही श्रेष्ठ कर्तव्य है, अतएव जिसे कर्तव्य का पालन करना हो, वह ब्रह्मचर्य का पालन करें। ।

 

यम-नियम और ब्रह्मचर्य

 

अहिंसा सत्यास्तेय-बह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।

( योगदर्शन )

       अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिय्रह--ये पाँच यम कहलाते हैं। सन, वचन ओर कम से किसी को कष्ट न देने का नाम अहिंसा” है। जैसा कुछ देखा-सुना और जो मन में हो, उसे उसी रूप में कहने को सत्य' कहते हैं । पराये धन का लोभ न करना “स्तेयः है.। उपस्थेन्द्रिय का संयम तथा वीर्य-रक्षा का नाम ब्रह्मचर्य” ओर शरीर-यात्रा के निर्वाह से अधिक भोग-सामग्री का एकत्र न करना अपरिग्रह” कहलाता है । अब हम महर्षि पतञ्जलि के कहे हुये योग के लाभों का वर्णन करते हैं । वे इस प्रकार हैं:---

अहिंसा-प्रतिष्ठायां तत्सन्निधो वैर-त्याग:।

( योगदर्शन )

      “अहिंसा? के पालन से वैर-भाव का त्याग होता है। अर्थात्‌  सब जीवों पर दया करने से वे भी प्रेम करते हैं ।

“सत्य-प्रतिष्ठायां क्रिया-फलाश्रयत्वम्‌ ।

( योगदर्शन )

      “सत्य” के पालन से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। सत्य वचन के प्रभाव से दूसरों तथा अपने को सुख मिलता है ।

अस्तेय-प्रतिष्ठायां सर्व-रत्नोपस्थानम् ।

( योगदर्शन )

       “अस्तेय” के पालन से सब कुछ स्वयं प्राप्त हो जाता है । अभिप्राय यह है कि वह सब का विश्वासपात्र बनता है ।

“ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठायां चीर्य-लाभः ।”

( योगदर्शन )

      ब्रह्मचर्य का पालन करने से वीर्य का लाभ होता है । अर्थात्‌ उसे शारीरिक ओर मानसिक बल की प्राप्ति होती है ।

 अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासम्बोधः ॥

( योगदर्शन )

        'अपरिग्रह! के पालन से जन्म-सुधार के विचार उत्पन्न होते हैं। हृदय में निस्वार्थता का भाव उदित होता है । महर्षि पतञ्जलि ने इन पाँचों यमों को अकाट्य तथा सार्व- भौम महाव्रत माना है। अर्थात्‌ इनका पालन सब जाति, सब देश, सब समय और सब अवस्था में किया जा सकता है। ' अब हम उनके योगदर्शन में लिखे हुये नियमों का आवश्यक वर्णन करते हैं:--

 “शौच-सन्तोष-तपः-स्वाध्यायेश्वर-प्रणिधानानि नियमाः ।”

( योगदर्शन )

       शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान- ये पाँच नियम कहलाते हैं ।  शारीरिक ओर मानसिक पवित्रता का नाम 'शौच' है । भोग के साधनों की अनिच्छा का नाम 'सन्तोष” है । सुख-दुःख, शीत- उष्णादि द्वन्द सहने, तथा परिमित आहार-विहार करने का नाम तप!' । ओमङ्कारादि जप और वेद-शास्त्रों के अध्ययन का नाम स्वाध्याय” है, ओर फल-रहित हो, परमात्मा की उपासना का नाम “ईश्वर-प्रणिधानः है ।

       अब नियम के पालन से जो फल प्राप्त होते हैं, उन्हें भी एक - एक कर कहते हैं:---

“शौचस्त्वाङ्ग जुगुप्सा परैरसंसर्ग: ।

“सत्वशुद्धि सौमनस्येकाग्र्येन्द्रिय जयात्मदर्शनयोग्यत्वानिक्ष ।

( योगदर्शन )

      बाह्य शौच' से शरीर का मोह और पराये शरीर के साथ सम्बन्ध की इच्छा नहीं रहती । 'आभ्यन्तर' शौच से मन की शुद्धि, प्रसन्नता, एकाग्रता, इन्द्रिय-जय और आत्म-दर्शन की योग्यता प्राप्त होती है ।

“सन्तोषादनुत्तम छुखलाभः ।

( योगदर्शन )

        'सन्तोष' की साधना से परम सुख मिलता है। तृष्णा का नाश होने से मन की अशान्ति दूर हो जाती है ।

“कायेन्द्रिय शुद्धिरशुद्धि क्षयात्तपसः ।?

( योगदर्शन )

       “तप? की साधना से सुन्दर स्वाध्याय और इन्द्रियों पर अधि- कार प्राप्त होता है ।

“स्वाध्यायादिष्ट देवता संप्रयोगः ।

( योगदर्शन )

          'स्वाध्याय'! करने से इष्ट-साधन और आत्म-ज्ञान की उपलब्धि होती है ।

( योगदर्शन )

 

“समाधि-सिद्धिरीश्वर-प्रणिधानात्‌ ।

(योगदर्शन)

        'ईश्वर-प्रणिधान! से समाधि ( अत्यन्त शान्ति ) मिलती है। आत्मा या परमात्मा में लीन होने पर कोई सुख फिर शेष नहीं रहता । यह सर्व-सम्मत सिद्धान्त है ।

         यद्यपि यम और नियम योग के अङ्ग हैं, तथापि ये ब्रह्मचर्य के भी प्रधान अवयव हैं । ब्रह्मचर्य की दशा में प्रत्येक ब्रह्मचारी को पाँच यमो और पाँच नियमों का पालन नितान्त आवश्यक है। बिना इनके ब्रह्मचर्य की कदापि सिद्धि नहीं हो सकती है ।

       धर्माचार्य मनु ने भी यम और नियमों के सम्बन्ध में अपनी ऐसी ही सम्मति प्रकट की है:--

यमान्सेवत सततं, न नित्य नियमान्वुधः !

यमान्पतत्यकुर्वाणो, नियमान्क्रेवलान्भजन ॥

( मनुस्मृति )

 

       बुद्धिमान्‌ सदैव यमों का सेवन करें, नियमों का पालन नित्य न भी करें, क्‍योंकि यमों का न पालन करने वाला मनुष्य केवल नियमों का पालन करता हुआ भी पतित हो जाता है ।

      अभिप्राय यह है कि अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालन न करने वाला पुरुष--शौच, सन्‍तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान करते रहने पर भी कार्य में असफल होता है । अवएव यम और नियम दोनों की समान रूप से प्रतिष्ठा करनी चाहिये । कारण यह है कि ब्रह्मचर्य के ये दोनों आवश्यक अङ्ग हैं, या यों समझिये कि ब्रह्मचर्य रूपी आत्मा इन्हीं यमों-नियमों से बने हुये शरीर में वास करता है।

       अब तो हमारे पाठक यम-नियम तथा ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध भली भाँति समझ गये होंगे ।


प्राचीन आर्य और ब्रह्मचर्य

 

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Mahanirvana Tantra- All- Chapter  -1 Questions relating to the Liberation of Beings

Mahanirvana Tantra

Tantra of the Great Liberation

Translated by Arthur Avalon

(Sir John Woodroffe)

Introduction and Preface

CONCLUSION.

THE VAMPIRE'S ELEVENTH STORY.

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THE VAMPIRE'S SIXTH STORY.

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THE VAMPIRE'S THIRD STORY.

THE VAMPIRE'S SECOND STORY.

THE VAMPIRE'S FIRST STORY.

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यजुर्वेद मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE UIVERSITY OF VEDA

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