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शब्द ब्रह्म आचार्य मनोज

 शब्द ब्रह्म


आचार्य मनोज


    आपकी दिव्य और अद्भुत प्रेरणा प्राप्त करने के लिये कि आप के दिखाये मार्ग पर चलने के लिये मैं तैयार हू, न केवल प्रेरणा प्राप्त करने के लिये यद्यपि आपकी भक्ती और उपासना से उर्जा रूप शक्ति उत्साह धैर्य पराक्रम को भी प्राप्त करने के लिये। आपकी उत्तम श्रेष्ठ प्रेरणा और कृपा दृष्टी से आप मुझे मेरे जीवन के परम लक्ष्य तक पहुंचने का सामर्थ प्रदान किजीये।

भुमिका

     इस विश्व ब्रह्माण्ड के उद्भव से पहले केवल एक अदृश्य शक्ति परमेश्वर के रूप में विद्यमाम थी। उसने इच्छा की मैं अनन्त रूपों में हो जाऊ। उस अदृश्य परमेश्वर ने एक बृहद्त्तम उद्घोश रूप शब्द ओम का उच्चारण किया जो परमेश्वर का निज नाम है। शब्द को भी  ईश्वर कहते है, इस नाम के उच्चारण मात्र से अदृश्य जगत से दृश्य जगत में बहुत सुक्ष्म एक अणु का सृजन हुआ जिसमें प्रथम ब्रह्म कण, दूसरा विष्णु कण, तीसरा महेश कण कहते है। यह एक परमाणु बन गये, और यह ब्रह्म कण निरंतर विस्तार करने लगा। जिससे आकाश का जन्म हुआ, जिससे मन बना और उसी एक मन को अनन्त ब्रह्माण्डों का गर्भ कह सकते है। यह उस परमेंश्वर के लिये कच्चा मैटेरियल की भाती था। जिससे ही वह अनन्त किस्म की इस अद्भुत जगत की रचना की, जैसा की हमारें प्राचिनतम शास्त्रों में आता है कि अग्नि, वायु, जल, और पृथ्वी यह पांच प्राकृतिक भौतिक दृश्य मय पदार्थ है। जिस हम अपनी नग्न आखों से देख सकते है। यही महेश कण है, यह एक ही पदार्थ से अलग अलग रुपों में विभक्त हुये है। जैसा कि हम सब जानते है की जल एक ऐसा पदार्थ है जिसमें आग और हवा भी है। जिस प्रकार से वायु आक्सिजन जीवन के लिये आवश्यक तत्व है। जिसको जल के अन्दर रहने वाले जलिय जीव मछली आदी पानी में से छान लेते है। और अपने आप को पानी के अन्दर जीने लायक बनाते है। जैसा की हम सब जानते है की हाइड्रोजन एक ज्वलनशिल पदार्थ है जो आक्सिजन के परमाणु के साथ अभिक्रिया करके जल के एक परमाणु को  बनाता है। यही हाड्रोजन भविष्य के लिये बहुत बड़ा ऊर्जा को श्रोत है जिससे भविष्य में सभी वाहन आदि आसानी से चल सकते है। जबकी जैविक इधन जैसे पेट्रोल डीजल आदी खत्म होने के कगार पर है। पानी के एक परमाणु  में दो तत्व है आग और हवा तीसरा स्वयं जल है चौथा तत्व आकास है, इनके मध्य में ही विद्यमान है पांचवा तत्व यह पृथ्वी है, जो इन चारों के मेल से बनी है। सर्व प्रथम ज्वलनशिल गैसें थी जो आगे चल कर अग्नी का रूप धारण किया जिनसे बहुत सारें तारों का उदय हुआ। इन तारों से अनन्त ग्रहों का उद्भव हुआ। और फिर इन ग्रहों पर जीवों का उद्भव हुआ क्रमशः समय के साथ जब ग्रह और तारें आकाश गंगा में स्थापित हो गये तो उसके बाद इसमे उपस्थित कुछ ग्रहों पर जैसे शुक्र, वृहस्पती , मंगल, आदी ग्रहों पर जीवन का उद्भव हुआ। इनको व्यवस्थित रुप से उस परमेश्वर ने पैदा किया सबसे पहले शुक्र ग्रह पर आज के अरबो खरबों साल पहले वायु मंडल निर्मित किया गया, उसके बाद उस ग्रह पर वनस्पती युग आया तरह तरह के वृक्ष लतायें पेड़ पौधों को उत्पन्न किया गया, उसके उपरान्त देव युग,मन फिर मनु युग आया अर्थात मन का सृजन हुआ जो आकाश का ही एक रुप है। यह विष्णु कण के रूप में है क्योंकि मन ही है, जो दोंनों में एक साथ भाषता है। अर्थात मन विशुद्ध रूप से ब्रह्म के स्वरुप को साक्षात्कार करके उनसे एकात्म कर सकता है। और यही मन प्रकृती के मुख्य देवता महेश से भी विशुद्ध रूप से जुण कर इस दृश्य मय जगत का सृजन कर सकता है। जो मन पहले ग्रहों में तारों में रहा फिर वनस्पतियों में रहा फिर इसने एक कदम आगे बढ़ कर चलते फिरते प्राणियों और सुक्ष्म से बृहद जीवों के शरिर का रूप ग्रहण किया सबसे अन्त में मानव को शरीर का उद्भव हुआ। इस मानव को स्वयं का ज्ञान पर्मेश्वर के सामन था। प्रारंभ से इसका झुकाव प्रकृती की तरफ अधिक रहा जिसके कारण ही यह निरंतर अवनती ही करता रहा। जिसको हम यह कह सकते है की यह मन ही बहुत अधिक शरीरों को धारण किया जिसमें बहुत सारें देवी देवता और अवतार आते है ऋषि महर्षि के शरीर में यह मन उपस्थित हुआ। अवनती के कारण ही यह एक ग्रह को नष्ट करता हुआ दूसरे ग्रह पर अपना निवस बनाता रहा। शुक्र ग्रह के वायुमंडल को और वहां क सभी जीवों का अन्त करके, यह बृहस्पती पर अपनी वस्तियां वसा लिया और अरबों सालों तक उस ग्रह के संसाधनो का दोहन किया और उसको भी अधमरा करके जब देखा की इस पर जीवन का रहना संभव नहीं है ।तो वह मंगल ग्रह पर अपना निवास स्थान बनाया। वहां पर भी अरबों सालों तक रहा जब उस ग्रह के जैविक संसाधन अंत हो गये, तो वह पृथ्वी पर अपना निवास बनाने के लिये आया। यह मन ही परमेश्वर के साथ एक हो कर ज्ञान वान बन कर अपने ज्ञान से ही सभी जीव जन्तुओं का पुनः सृजन कर दिया यहां पृथ्वी पर। सर्व प्रथम ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीन पुरुष हुए इन तीनो के अधिकार में ही यह सम्पूर्ण दृश्य मय जगत हो गया। जैसा की मैंने पहले बताया कि महेश जिनको हम शीव के नाम से भी जानते है यह संहार के रूप में माने जाते है। विष्णु अर्थात जो मन के स्वामी है जिनके अधिकार में दृश्य और अृदृश्य दोनों प्रकार के जगत में संतुलन बनाने का कार्य है। जो इस जगत के पालन करता है। तीसरे ब्रह्मा जिनका मुख्य कार्य है जगत का निरंतर सृजन करना। ब्रह्मा ने ही सर्व प्रथम अपनी वुद्धि से ब्राह्मणी नाम की स्त्री को जन्म दिया इससे दो पुत्र उत्पन्न हुए। एक यक्ष दूसरा रक्ष अर्थात जैसा की नामों से प्रतित हो रहा है, कि यक्ष नाम का जो पुत्र ब्रह्मा के थे वह सिर्फ पवित्र कार्यों को करते थे जिसमें यज्ञ सर्व श्रेष्ठ कर्म है जिससे ही इस विश्व ब्रह्माण्ड की रक्षा संभव है। दूसरे पुत्र रक्ष थे जिसका कार्य था यज्ञ रूपी श्रेष्ठ कर्मों की निरंतर रक्षा करना। जो आगे चल कर देवता और दैत्य के रूप में विख्यात हुये इस जगत में। जब इस जगत में बहुत समय तक देवता और दैत्यों ने राज्य किया और इस दृश्यम जगत के आकर्षण में आशक्ती के कारण दोनों अपने मुख्य कर्मों से विरक्त होने लगे। जिससे उन दोनों में द्वेश और राग ने अपना स्थाई निवास स्थान बना लिया। जिसके परिणाम स्वरुप काम और क्रोध ने भी अपनी जड़े गहरी जमा ली। इसका परिणाम यह हुआ की यज्ञ रूपी कर्म निरंतर कम होता गया। और निकृष्ट कर्मों की मात्रा में इजाफा होने लगा जिसके कारण दोनो में संघर्ष होने लगा। यहां भारत भुमि पर उनको आर्य और अनार्य के नाम से जानते है। जैसे राम कृष्ण आदी के पुरखे आर्यों में आते है, रावण आदी के पुरखे राक्षस में आते है। इन्हीं को देवता और दैत्य कहते है, यह दोनो ही ऋषि महर्षियों की संताने थी जिनके पिता स्वयं ब्रह्मा है। इनकी ही वंसज आ ही इस जगत में चल रही है। एक श्रेष्ठ किस्म के मानव हो जो देवता के समान है जो दूसरों के दुःख दर्द पिड़ा को समझते है। जिनकी संख्या अत्यधिक कम है। दूसरे राक्षश दैत्य है जिनकी संख्या बहुत अधिक है। जैसा की हम सब जानते है कि जो श्रेष्ठ लोग पहले थे जिनमे से कुछ के बारें हम अच्छा तरह से जानते है। जासे राम या कृष्ण जिनको भारत का बच्चा बच्चा जानता है। उनको लोग भगवान और विष्णु का अवतार मानते है। इनके पास इतनी क्षमता थी की यह जिसे हम आज जड़ समझते है जैसे पानी जो सागर में विद्यमान है जिसने उनको रास्ता दिया था उसके उपर पुल बना कर वह रावण को मारने के लिये लंका गये थे। दूसरा कृष्ण ने गोबर्धन पर्वत को अपनी कानी उगंली से उठ लिया था। अगस्त ऋषि ने सागर को पी लिया था। राम के ही बंसज थे भगिरथ जीन्होंन गंगा को आकाश से जमिन पर लाये थे। इसके पिछे मै यह बताना चाहते हूं की पहले लोग इन पदार्थों के देवता शिव की आरधना करके उनसे अपना मन चाहा कार्य सिद्ध कर लेते थे। दुसरी बात जो मै बताना चाहता हू वह है की पहले जो शुक्र, वृहस्पती, मंगल पर श्रृष्टि कैसे खत्म होगई, उसका कारण यही है की दैवता और दैत्यों का निरंतर युद्ध संग्राम होता रहा। जब देवताऔं की संख्या कम होने लगी दैत्यों का अधिकार ग्रहों पर हने लगा। हर तरफ त्राही त्रही मचने लगी हर कोई प्रताणित होने लगा। तब जैसा की कृष्ण गीता में कहते है यदा यदा जब जब पृथ्वी पर दुष्टों की संख्या और अतयाचार बढे़गा तब तब मै यहां जन्म लेकर उस ग्रह का उद्धार करुगा। और उन सब का सामराज्य सामापात करके धर्म और सत्य के राज् की स्थपना करुग। यह एक सिद्धान्त इसी पर चल कर परमेश्वर ने मानव शरीर में कुछ समय के लिये अवतरित हो कर संपूर्ण जगत को अधर्म से मुक्त किया जिसमे उस ग्रह के राक्षस बंसों को खत्म करने के लिये खतरनाक युद्ध हुए। जिसमें आज से भी आधुनिक और खतरनाक हथियारों का प्रयोग किया गया था उनके पास परमाणु बम हाइड्रोजन बम न्युट्रान, बम आदि की श्रेष्ठतम और उत्तम किस्म के खतरनाक अस्त्र शस्त्र थे। इसका नया प्रमाण पृथ्वी पर मिला है सिन्धु घाटी सभ्यता और बैदिक शभ्यता के अन्त का कारण परमाणु बम पृथ्वी पर गिराये गये थे। पहले के समय में अति उत्तम विमान और स्पैसक्राफ्ट थे जो प्रकाश की गती से यात्रा करके एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर आसानी से पहुंच जाते थे। पहले के समय में एक राक्षस राजा शाल्व था जो लाखों साल जिन्दा वाला था, क्योकि उसने अपनी चिकित्सा की उत्तम विधियों के सृजन से उसने मृत्यु पर अधिकार कर लिये था। जिसके पास बहुत बड़ी सेना और बहुत अच्छे स्पैस क्राफ्ट थे जिसने शुक्र ग्रह, वृहस्पती ग्रह, और मंगल पर अपना अधिकार कर लिया था, और देवताओं को वहां से भगा दिया था। देवताओं ने अपनी जान बचा कर यहां पृथ्वी पर अपना गुप्त स्थान रहने का बना लिया था। जिसकी खोज उसने करके यहां पृथ्वी पर भी हमला करना शुरु कर दिया था। जिसके सम्पर्क में रावण आदि राक्षस भी थे, जिनके राज्य और अत्याचार को राम ने एक बार समाप्त कर दिया था। और रामराज्य स्थापित कर दिया था। लेकिन कृष्ण के समय आते आते राक्षस फिर बढ़त को प्राप्त कर लिया था जिसमें दुर्योधन आदि प्रथम थे, इस पृथ्वी पर, जिसके लिये कृष्ण नें महाभारत जैसे भयंकर युद्ध को कराया। जिस युद्ध में तीन हिस्सा पुरी आबादी के लोग सभी मार दिये गये थे। जब शाल्व को यह को यह ज्ञात हुआ की उसकी योजना कामयाब नहीं हो रही है। उसके सारे जो योद्धा है वह मारे जारहे है वहां पर सत्यता और धर्म का राज्य स्थापित हो गया है। उसने अपने तिनो ग्रहों से एक साथ कृष्ण जो उस समय द्वारिका में रहते थे। उसपर भंयकर आक्रमण कर दिया, और पृथ्वी पर उसने बहुत आतंक मचा दिया था। जिससे कृष्ण बहुत परेशान हो गये थे। उन्होंने भगवान शीव साधना करके उनको प्रसन्न किया और और उनसे ऐसे अस्त्र शस्त्र लिये  जिनकी सहायता से शाल्व के रहने के स्थान शुक्र ग्रह, वृहस्पती ग्रह, और मंगल ग्रह के जीवन को हमेशा के पूर्णः नष्ट कर दिया।


      ओ३म् इषेत्वर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणऽआप्यायध्वन्याऽइन्द्राय भागं प्रजावतीरनमीवाऽअयक्षमा मा वस्तेनऽईशत माघँसो ध्रुवाऽअस्मिन गोपतऔ स्यात बह्वीर्यजमानस्य पशून्पाहि।। 

     इस मंत्र में  जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि मैं आपके चरणों में उपस्थित हुआ हूं आपकी दिव्य और अद्भुत प्रेरणा प्राप्त करने के लिये कि आप के दिखाये मार्ग पर चलने के लिये मैं तैयार हू, न केवल प्रेरणा प्राप्त करने के लिये यद्यपि आपकी भक्ती और उपासना से उर्जा रूप शक्ति उत्साह धैर्य पराक्रम को भी प्राप्त करने के लिये। आपकी उत्तम श्रेष्ठ प्रेरणा और कृपा दृष्टी से आप मुझे मेरे जीवन के परम लक्ष्य तक पहुंचने का सामर्थ प्रदान किजीये। मैं अपने जीवन के परम उद्देश्य को प्राप्त करने  में कभी ढीला ना पड़ु या आलस्य का शीकार ना बनु। प्रेरणा, शक्ति व उत्साह इन तीनो से युक्त हमारा जीवन वास्तविक और सच्चा जीवन है। हे प्रभो मुझे तो बश यही जीवन प्राप्त करने के योग्य बनाइये।

     इस उपासक जीव को प्रभु प्रेरणा देना प्रारम्भ करते हुए कहते है, कि हे जीव तुम सतत गतिशील कर्मशिल बनो अकर्मण्यता तुम्हे कभी भी दूर – दूर तक स्पर्श ना कर सके। आत्मा शब्द का अर्थ ही होता है निरंतर गतिशील बने रहने वाला तत्व क्योंकि अकर्मण्यता वस्तुओं को जीर्ण शीर्ण कर देती है जो जणता का प्रथम गुण है। इस तरह से कर्मशीलता निरंतर क्रियाशील बने रहना ही विकास और और प्रादुर्भाव का कारण बनती है। अर्थात क्रियाशलता ही जीवन का मुल उद्देश्य स्वयं जीवन रूप निरंतर बहने वाली उर्जा है। बस तुम कुछ ऐसा उद्योग पुरुषार्थ करो की विद्वान महापुरुष तुम्हें आगे बढ़नें में तुम्हारी सहयता करें, जिससे तुम दिन प्रतिदिन निरंतर बढ़ते रहो और तुम्हारा झुकाव श्रेष्ठतम कर्मों की तरफ ही हो। जो तुम्हारे उत्थान के लिये ही हो, तुम्हारा पुरुषार्थ निरंतर सही दिशा में सार्थक अपने जीवन श्रेष्ठ उद्देश्य की प्राप्ती के लिये हो। तुम हिंशा रहित अहिसंक कर्मो को करने वाले मनुष्यों में अग्रणी मनुष्य बनो, तुम्हारे जीवन के प्रत्येक कार्य से यह प्रतिबीम्बित हो कि तुम्हार कार्य मानव कल्याण के साथ मानव निर्माण सर्व जनहिताय और सर्वजन सुखाय हो। तुम्हारे किसी भी कार्य से किसी भी प्राणी का अन्याय से बिनाश ना हो, ना ही तुम्हारा कार्य किसी प्रकार से बिद्धन्सक हो। तुम परम ऐश्वर्यशाली मेरे समान मेरे ही सभी गुणों को धारण करने वाले और तुम्हारे जीवन में मेरे ही श्रेष्ठ गुणों की अधिकता है ना कि मेरे बिपरीत प्रकृत के गुणों की अधिकता अर्थात जणता और नस्वरता की मात्रा आधिकता हो। इस तरह से तुम मेरे साथ मेरे सानिध्य से अपने सभी कार्य को सरलता से सिद्ध करने में सबल होगे। अर्थात तुम केवल प्रेय के पिछे न चल कर मरने वाले मरणधर्मा ना बन कर श्रेय के साथ चलो जिससे तुम अमरता की उपलब्धी अपने जीवन में कर सको। अपने जीवन को तुम ऐसा बना कर निश्चित रूप से उत्तम उत्तम संतानो वालो बनों तुम्हारे जीवन की यह एक महत्त्वपूर्ण असफलता होगी यदी तुम्हारी संतान या प्रजा निकृष्ट स्वभाव कि होगी जो तुम्हारी ही शत्रु बनेगी जिससे तुम्हारा जीवन साक्षात नरक बन कर रह जायेगा। इस जीवन यात्रा में ऐसी समझदारी युक्त यात्रा करना कि तुम्हारी शरीर रोग से आक्रान्त ना हो। यह शरीर रूप तुम्हारा रथ मध्य में ही ना तुम्हारा साथ छोड़ दे यदि ऐसा हुआ तो तुम्हारी जीवन यात्रा कैसे पुरी होगी? इसके प्रती हमेशा सचेत रहना जैसे सूर्य पृथिवी का के प्रती सचेत रहता है। जब तुम हमारा ध्यान करोगे तो हमेशा स्वस्थ रहोगे, दुःखी और बीमार रोग ग्रस्त वही होते है जो अत्यधिक शारीरिक प्राकृतिक  विषय भोग में ही आसक्त तल्लीन रहते है। तुम्हे यक्ष्मा रोग ना घेरे इस राज रोग के घेरे में  मत आओ यदि तुम प्रकृती का सही सद् उपयोग करोगे तो इसके शिकार तुम कैसे फंस सकते हो? चोर लुटेरे तुम्हारे संपत्ती के स्वामी कभी ना बनने पाये इसके लिए तुम हमेशा सतर्क रहों और अपनी धन की रक्षा के लिये उचित प्रबन्ध करो। बिना श्रम या पुरुषार्थ के धन संपत्ती को प्राप्त करना भी एक प्रकार की चोरी या स्तेन ही है। इससे तुम हमेशा स्वयं को मुक्त रखो। यह चोरी बिभिन्न प्रकार के सट्टे लाटरी जुआ आदि इसी में आते है यह मनुष्य कामचोर निकम्मा आरामपसंद विलाशी बनाते है। जिससे मानव भयंकर तम विपत्तीयों गन्दे व्यसनो और बिमारीयों के चपेट मे आ जाता है। जिसमे से निकलना बड़ी मशक्कत के बाद भी मुस्किल होता है कभी – कभी असंभव हो जाता है। पाप को अच्छी तरह से व्यक्त या चित्रीत करने वाला पापी पुरुष तुम्हारें विचारों तुम्हारें मस्तिस्क पर कभी हाबी या तुम कभी उसके परबस ना हो, या वह पाप आत्मा  तुम्हारें विचारों पर कभी भी शासन ना करें। तुम हमेंशा निश्चल एक शान्त चित्त रहो और अपनी इन्द्रियों को हमेंशा अपने वश में रखों और उनको अपने नियंत्रण रखो। गो पतौ अर्थात इन्द्रियों के स्वामी परमेश्वर के सानिध्य में रहने से इन्द्रिया अपना मार्ग कभी नहीं भटकती है और जब ऐसा नहीं होता है तो यह इन्द्रिया मानव किसी काम को नहीं छोड़ती है हर प्रकार से पथ भ्रष्ट कर देती है। गो पतौ का मतलब वेद वाणी को जानने वाला परमपिता भी होता है इस प्रभु में तुम हमेशा केन्द्रित रहना अपना ध्रु परमेश्वर को बना कर रखना, जो परमेश्वर के समिप केन्द्रित रहा वहीं यहां बचा है। जिसने ऐसा नहीं किया वह यहां संसार रूपी चक्की के दो पाटों के बिच में फंस कर पिसता रहा उसका बचना असंभव हो गया। प्रभु ही इस विश्वचक्र के धुरी की मुख्य किल है  इसी में तुम हमेंशा स्थिरता से निवास करना। बहुत होना संसार में स्वार्थरत आत्म केन्द्रित बन कर मत रहना अधिक से अधिक प्राणियों और जीवों से अपना संबन्ध स्थापित करने का निरंतर प्रयाश करते रहना दूसरों के भी दुःख दर्द को समझना और एक से मैं बहुत हो जाउ इसका भाव या ख्याल रख कर जीवन को जीना । और परमेश्वर सबसे अन्त में मंत्र से उपदेश कर रहा है कि यज्ञमानस्य इस श्रृष्टी यज्ञ को चलाने वाला मुझ प्रभु के काम क्रोधादि पशुओं को बहुत ही सुरक्षीत रखना क्योंकि पानी को ज्यादा सुरक्षित रखना आवश्यक नहीं लेकिन आग को बहुत सावधानी से रखने की जरुरत है अन्यथा इससे बहुत भयंकर कष्ट और दुःख उत्पन्न होता है।  इसका मुख्य कारण है इनको असुरक्षित रखना और इनका लापरवाही के तरिके से उपयोग करना। जिस प्रकार से चिड़िया घर में मृगादि को बहुत अधिक बंधन में रखना आवश्यक नहीं होता है लेकिन उसी चिड़िया घर में शेरादि प्राणीयों को बहुत शख्त पिजड़े में रखना कितना परम आवश्यक होता है?  इसी प्रकार से इन पशु रूप काम क्रोधादि को भी बहुत नियन्त्रण में रखना आवश्यक होता है। क्योंकि यह कामादि के द्वारा ही संसार में प्रजनन आदि का कार्य निरंतर होता है। यह काम उर्जा ही संसार का मूल है मन की भी उत्पत्ती इस काम से हुइ है मन से शरीर बना और शरीर से संसार बना है। प्रजानात्मक कार्य पवित्र होना चाहिये, लेकिन जब यह अनियन्त्रित हो जाता है, तो यह काम विकास के अस्थान पर विनास क्षयकारक बन जाता है। क्रोध भी आवेश शक्ति है लेकिन जब यह अनियन्त्रित हो जाता है तो विनाशकारी सिद्ध होता है। और सब विद्धनों विपत्तीयों और अनर्थों का मुख्य है।

     जैसा की योगेश्वर कृष्ण गीता मे कहते हैः- काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्धव:। महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।37।।   काम:—विषयवासना; एष:—यह; क्रोध:—क्रोध; एष:—यह; रजो-गुण—रजोगुणसे; समुद्भव:—उत्पन्न; महा-अशन:—सर्वभक्षी; महा-पाप्मा—महान पापी; विद्धि—जानो; एनम्—इसे; इह—इस संसार में; वैरिणम्—महान शत्रु।  हे अर्जुन इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है। जब जीवात्मा भौतिक सृष्टि के सम्पर्क में आता है तो उसका शाश्वत प्रभु प्रेम रजोगुण की संगति से काम में परिणत हो जाता है अथवा दूसरे शब्दों में, ईश्वर-प्रेम का भाव काम में उसी तरह बदल जाता है जिस तरह इमली के संसर्ग से दूध दही में बदल जाता है और जब काम की संतुष्टि नहीं होती तो यह क्रोध में परिणत हो जाता है, क्रोध मोह में और मोह इस संसार में निरंतर बना रहता है। अत: जीवात्मा का सबसे बड़ा शत्रु अनियन्त्रित काम है और यह काम ही है जो विशुद्ध जीवात्मा को इस संसार में फंसा रहने के लिए प्रेरित करता है। क्रोध तमोगुण का प्राकट्य है। ये गुण अपने आपको क्रोध तथा अन्य रूपों में प्रकट करते हैं। अत: यदि रहने तथा कार्य करने की विधियों द्वारा रजोगुण को तमोगुण में न गिरने देकर सतोगुण तक ऊपर उठाया जाए तो मनुष्य को क्रोध में पतित होने से आत्म आसक्ति के द्वारा बचाया जा सकता है।  अपने नित्य वर्धमान चिदानंद के लिए भगवान ने अपने आपको अनेक रूपों में विस्तार कर लिया और जीवात्माएं उनके इस चिदानंद के ही अंश हैं। उनको भी आंशिक स्वतंत्रता प्राप्त है, किन्तु अपनी इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके जब वे सेवा को इंद्रिय सुख में बदल देती हैं तो वे काम की चपेट में आ जाती है।  भगवान ने इश सृष्टि की रचना जीवात्माओं के लिए इन कामपूर्ण रुचियों की पूर्ति हेतु सुविधा प्रदान करने के निमित्त की और जब जीवात्माएं दीर्घकाल तक काम-कर्मों में फंसी रहने के कारण पूर्णतया ऊब जाती हैं तो वे अपना वास्तविक स्वरूप जानने के लिए जिज्ञासा करने लगती हैं।

      जीव ने परमेश्वर से प्रेरणा देने की याचना की थी,  परमेश्वर इन तेरह वाक्यों को जीव को प्रेरणा दी है। यह तेरह वाक्य ही जिसकी चर्चा हमने उपर की है। इनको ही 'सत्याकारास्त्रयोदश' सत्य के तेरह स्वरुप है। इस प्रेरणा को अपनाने वाला जीव उन्नती पथ पर निरंतर आगे बढ़ता हुआ एक दिन परमेष्ठी परम स्थान मे स्थित हो जाता है। यह प्रजा की रक्षा करने से प्रजापती कहलाता है। इस प्रकार से इस मंत्र का परमेष्ठी प्रजापतीः होता है। 

      परमेश्वर जीव के कल्याण के लिये उसकी याचना को सुन कर तेरह वाक्यों को कहते है मंत्र के द्वारा जिसमे से पहला वाक्य है। यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का प्रथम मंत्र इस में सर्व प्रथम परमेंश्वर के विषय में उपदेश स्वयं परमेंश्वर के द्वारा किया जा रहा है।  जैसा कि स्वामी दयानन्द जि ने बताया है उसे अब हम बिस्तार से समझते की वास्तव में मंत्र का भाव क्या-क्या है? इस प्रथम मंत्र में परमेंश्वर के सच्चे स्वरूप को अभिव्यक्त किया जा रहा है। इस मंत्र के ऋषि परमश्रेष्ठ प्रजापती परमेंश्वर ही है और इस मंत्र के देवता सविता अर्थात सब का गुरु परमेंश्वर ही हैं। इस तरह से यह मंत्र सर्वश्रेष्ठ परमेंश्वर के साक्षात्कार का मंत्र है जिसका साक्षात्कार स्वयं परमेंश्वर स्वयं कर रहा है यहा परमेंश्वर स्वयं कर्ता और स्वयं कर्म भी है। इस मंत्र के द्वारा स्वयं परमेंश्वर अपना खुद का साक्षात्कार कर रहा है या स्वयं की अपनी ही तस्विर बना रहा है । परम गुरु अपने साक्षात्कार के बारें में उसके साधन के बारे में अपने शिष्यों मनुष्यों को उपदेश दे रहा है। 

१. वायवः स्थ= अर्थात वायु के समान संसार रूप शरीर में स्थित रहो।

      यहां पर वायु एक रूपक की तरह प्रयोग किया जा रहा है। वायु का भौतिक उपयोग तो हम सब जानते ही है इस के लिये ऋग्वेद कहता हैः- (ओ३म् द्वाविमौ वातौ वात आसिन्धोरा परावतः| दक्षं ते अन्य आवतु परान्यो वातु यद्रपः|| ऋग्वेद   १० , १३७-२

      यहां दो प्रकार के वायु बहते है एक वायु भीतर हृदय तक बहता है दूसरा बाहर वायुमंडल में बहता है| उसमें एक तेरे अन्दर तेरे लिये शक्ती बल को बहा कर लाये दूसरा तेरे से बाहर तेरे रोग बिमारी को बाहर बहा कर ले आवे |) वह परमेश्वर आनन्दस्वरूप और आनन्द कारक होने से चन्द्रमा के समान है। वही परमेश्वर शुक्रम शीघ्रकारी अथवा शुद्ध भाव से शुक्र विर्य के कण के समान है। वह महान होने से ब्रह्मा सर्वत्र व्यापक होने से प्रजापति। भी कहलाता है। अर्थात वायु मुख्यतः दो प्रकार की होती है, एक अन्दर जो जाती है यह हमारा जीवन है जिसे हम सब प्राण कहते है और एक वायु जो शरीर से बाहर निकलती है जो अपान है अर्थात यह मृत्यु है। आध्यात्मिक भाषा में इसे प्राणायाम कहते है यह जीवन को विस्तार देने वाला और मृत्यु को दूर करने वाला बताया गया है। प्राणायाम यह बहुत प्राचिन वायु विज्ञान है यहां प्राण को स्थित करने की बात की जा रही है। प्राणायाम योग के आठ अंगों में से एक है। प्राणायाम = प्राण + आयाम। इसका का शाब्दिक अर्थ है - 'प्राण (श्वसन) को लम्बा करना' या 'प्राण (जीवनीशक्ति) को लम्बा करना'। (प्राणायाम का अर्थ 'स्वास को नियंत्रित करना' या कम करना नहीं है।) हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है-

    चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्। योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥२॥ अर्थात प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिये।

    यह भी कहा गया हैः- यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते। मरणं तस्य निष्क्रान्तिः ततो वायुं निरोधयेत् ॥ जब तक शरीर में वायु है तब तक जीवन है। वायु का निष्क्रमण (निकलना) ही मरण है। अतः वायु का निरोध करना चाहिये। प्राणायाम दो शब्दों के योग से बना है- (प्राण+आयाम) पहला शब्द "प्राण" है दूसरा "आयाम"। प्राण का अर्थ जो हमें शक्ति देता है या बल देता है। आयाम का अर्थ जानने के लिये इसका संधि विच्छेद करना होगा क्योंकि यह दो शब्दों के योग (आ+याम) से बना है। इसमें मूल शब्द '"याम" ' है 'आ' उपसर्ग लगा है। याम का अर्थ 'गमन होता है और '"आ" ' उपसर्ग 'उलटा ' के अर्थ में प्रयोग किया गया है अर्थात आयाम का अर्थ उलटा गमन होता है। अतः प्राणायाम में आयाम को 'उलटा गमन के अर्थ में प्रयोग किया गया है। इस प्रकार प्राणायाम का अर्थ 'प्राण का उलटा गमन होता है। यहाँ यह ध्यान देने कि बात है कि प्राणायाम प्राण के उलटा गमन के विशेष क्रिया की संज्ञा है न कि उसका परिणाम। अर्थात प्राणायाम शब्द से प्राण के विशेष क्रिया का बोध होना चाहिये। प्राणायाम के बारे में बहुत से ऋषियों ने अपने-अपने ढंग से कहा है लेकिन सभी के भाव एक ही है जैसे पतन्जलि का प्राणायाम सूत्र एवं गीता में जिसमें पतन्जलि का प्राणायाम सूत्र महत्वपूर्ण माना जाता है जो इस प्रकार है- तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद:प्राणायाम॥ इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा- श्वास प्रश्वास के गति को अलग करना प्राणायाम है। इस सूत्र के अनुसार प्राणायाम करने के लिये सबसे पहले सूत्र की सम्यक व्याख्या होनी चाहिये लेकिन पतंजलि के प्राणायाम सूत्र की व्याख्या करने से पहले हमे इस बात का ध्यान देना चाहिये कि पतंजलि ने योग की क्रियाओं एवं उपायें को योगसूत्र नामक पुस्तक में सूत्र रूप से संकलित किया है और सूत्र का अर्थ ही होता है -एक निश्चित नियम जो गणितीय एवं विज्ञान सम्मत हो। यदि सूत्र की सही व्याख्या नहीं हुई तो उत्तर सत्य से दूर एवं परिणाम शून्य होगा। यदि पतंजलि के प्राणायाम सूत्र के अनुसार प्राणायाम करना है तो सबसे पहले उनके प्राणायाम सूत्र तस्मिन सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद:प्राणायाम॥ की सम्यक व्याख्या होनी चाहिये जो शास्त्रानुसार, विज्ञान सम्मत, तार्किक, एवं गणितीय हो। इसी व्याख्या के अनुसार क्रिया करना होगा। इसके लिये सूत्र में प्रयुक्त शब्दों का अर्थबोध होना चाहिये तथा उसमें दी गयी गति विच्छेद की विशेष युक्ति को जानना होगा। इसके लिये पतंजलि के प्राणायाम सूत्र में प्रयुक्त शब्दो का अर्थ बोध होना चाहिये। प्राणायाम प्राण अर्थात् साँस आयाम याने दो साँसो मे दूरी बढ़ाना, श्‍वास और नि:श्‍वास की गति को नियंत्रण कर रोकने व निकालने की क्रिया को कहा जाता है। श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। हम साँस लेते है तो सिर्फ़ हवा नहीं खीचते तो उसके साथ ब्रह्मान्ड की सारी उर्जा को उसमे खींचते है। अब आपको लगेगा की सिर्फ़ साँस खीचने से ऐसा कैसा होगा। हम जो साँस फेफडो में खीचते है, वो सिर्फ़ साँस नहीं रहती उसमे सारे ब्रह्माण्ड की सारी उर्जा समायी रहती है। मान लो जो साँस आपके पूरे शरीर को चलाना जनती है, वो आपके शरीर को दुरुस्त करने की भी ताकत रखती है। प्राणायाम निम्न मंत्र (गायत्री महामंत्र) के उच्चारण के साथ किया जाना चाहिये। ॐ भूः भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ।

        प्राणायाम का योग में बहुत महत्व है। सबसे पहले तीन बातों की आवश्यकता है, विश्वास,सत्यभावना, दृढ़ता। प्राणायाम करने से पहले हमारा शरीर अन्दर से और बाहर से शुद्ध होना चाहिए। बैठने के लिए नीचे अर्थात भूमि पर आसन बिछाना चाहिए। बैठते समय हमारी रीढ़ की हड्डियाँ एक पंक्ति में अर्थात सीधी होनी चाहिए। सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन किसी भी आसन में बैठें, मगर जिसमें आप अधिक देर बैठ सकते हैं, उसी आसन में बैठें। प्राणायाम करते समय हमारे हाथों को ज्ञान या किसी अन्य मुद्रा में होनी चाहिए। प्राणायाम करते समय हमारे शरीर में कहीं भी किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए, यदि तनाव में प्राणायाम करेंगे तो उसका लाभ नहीं मिलेगा। प्राणायाम करते समय अपनी शक्ति का अतिक्रमण ना करें। ह्‍र साँस का आना जाना बिलकुल आराम से होना चाहिए। जिन लोगो को उच्च रक्त-चाप की शिकायत है, उन्हें अपना रक्त-चाप साधारण होने के बाद धीमी गति से प्राणायाम करना चाहिये। यदि आँप्रेशन हुआ हो तो, छः महीने बाद ही प्राणायाम का धीरे धीरे अभ्यास करें। हर साँस के आने जाने के साथ मन ही मन में ओम् का जाप करने से आपको आध्यात्मिक एवं शारीरिक लाभ मिलेगा और प्राणायाम का लाभ दुगुना होगा। साँसे लेते समय किसी एक चक्र पर ध्यान केंन्द्रित होना चाहिये नहीं तो मन कहीं भटक जायेगा, क्योंकि मन बहुत चंचल होता है। साँसे लेते समय मन ही मन भगवान से प्रार्थना करनी है कि "हमारे शरीर के सारे रोग शरीर से बाहर निकाल दें और हमारे शरीर में सारे ब्रह्मांड की सारी ऊर्जा, ओज, तेजस्विता हमारे शरीर में डाल दें"। ऐसा नहीं है कि केवल बीमार लोगों को ही प्राणायाम करना चाहिए, यदि बीमार नहीं भी हैं तो सदा निरोगी रहने की प्रार्थना के साथ प्राणायाम करें।

        भस्त्रिका प्राणायामः- सुखासन सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। नाक से लंबी साँस फेफडो में ही भरे, फिर लंबी साँस फेफडो से ही छोडें| साँस लेते और छोडते समय एकसा दबाव बना रहे। हमें हमारी गलतीयाँ सुधारनी है, एक तो हम पुरी साँस नहीं लेते; और दुसरा हमारी साँस पेट में चाली जाती है। देखिये हमारे शरीर में दो रास्ते है, एक (नाक, श्वसन नलिका, फेफडे) और दूसरा (मुँह्, अन्ननलिका, पेट्)| जैसे फेफडोमें हवा शुद्ध करने की प्रणली है, वैसे पेट में नहीं है। उसीके का‍रण हमारे शरीर में आँक्सीजन की कमी मेहसूस होती है। और उसेके कारण हमारे शरीर में रोग जडते है। उसी गलती को हमें सुधारना है। जैसे की कुछ पाने की खुशि होति है, वैसे हि खुशि हमे प्राणायाम करते समय होनि चाहिये। और क्यो न हो सारि जिन्दगि का स्वास्थ आपको मील रहा है। आप के पन्चविध प्राण सशक्त हो रहे है, हमारे शरीर की सभि प्रणालिया सशक्त हो रही है।

     लाभः- हमारा हृदय सशक्त बनाने के लिये हैं। हमारे फेफडों को सशक्त बनाने के लिये हैं। मस्तिष्क से सम्बंधित सभी व्याधिओं को मिटाने के लिये भी यह लाभदायक है। पार्किनसन, पैरालिसिस, लूलापन इत्यादि स्नायुओं से सम्बंधित सभी व्यधिओं को मिटाने के लिये। भगवान से नाता जोडने के लिये।

    कपालभाति प्राणायामः- सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। और साँस को बाहर फेंकते समय पेट को अन्दर की तरफ धक्का देना है, इस में सिर्फ् साँस को छोडते रहना है। दो साँसो के बीच अपने आप साँस अन्दर चली जायेगी जान-बूझ कर साँस को अन्दर नहीं लेना है। कपाल कहते है मस्तिष्क के अग्र भाग को, भाती कहते है ज्योति को, कान्ति को, तेज को; कपालभाति प्राणायाम करने लगातार करने से चहरे का लावण्य बढाता है। कपालभाति प्राणायाम धरती की सन्जीवनि कहलाता है। कपालभाती प्राणायाम करते समय मुलाधार चक्र पर ध्यान केन्द्रित करना है। इससे मूलाधार चक्र जाग्रत हो के कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होने में मदद होती है। कपालभाति प्राणायाम करते समय ऐसा सोचना है कि, हमारे शरीर के सारे नगेटिव तत्व शरीर से बाहर जा रहे है। खाना मिले ना मिले मगर रोज कम से कम ५ मिनिट कपालभाति प्राणायाम करना ही है, यह द्रिढ संक्लप करना है।

     लाभः- बालो की सारी समस्याओँ का समाधान प्राप्त होता है। चेहरे की झुरियाँ, आँखो के नीचे के डार्क सर्कल मिट जायेंगे| थायराँइड की समस्या मिट जाती है। सभी प्रकार की चर्म समस्या मिट जाती है। आखों की सभी प्रकार की समस्याऐं मिट जाती है, और आँखो की रोशनी लौट आती है। दातों की सभी प्रकार की समस्याऐं मिट जाती है और दातों की खतरनाक पायरिया जैसी बीमारी भी ठीक हो जाती है। कपालभाति प्राणायाम से शरीर की बढ़ी चर्बी घटती है, यह इस प्राणायाम का सबसे बड़ा फायदा है। कब्ज, ऐसिडिटी, गैस्टि्क जैसी पेट की सभी समस्याएँ मिट जाती हैं। यूटरस (महिलाओं) की सभी समस्याओँ का समाधान होता है। डायबिटीस संपूर्णतया ठीक होता है। कोलेस्ट्रोल को घटाने में भी सहायक है। सभी प्रकार की ऐलर्जियाँ मिट जाती हैं। सबसे खतरनाक कँन्सर रोग तक ठीक हो जाता है। शरीर में स्वतः हीमोग्लोबिन तैयार होता है। शरीर में स्वतः कैलशियम तैयार होता है। किडनी स्वतः स्वच्छ होती है, डायलेसिस करने की जरुरत नहीं पड़ती|

      बाह्य प्राणायामः- सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। साँस को पूरी तरह बाहर निकालने के बाद साँस बाहर ही रोके रखने के बाद तीन बन्ध लगाते है। १) जालंधर बन्ध :- गले को पूरा सिकोड कर ठोडी को छाती से सटा कर रखना है। २) उड़ड्यान बन्ध :- पेट को पूरी तरह अन्दर पीठ की तरफ खीचना है। ३) मूल बन्ध :- हमारी मल विसर्जन करने की जगह को पूरी तरह ऊपर की तरफ खींचना है।

      लाभः- कब्ज, ऐसिडिटी, गँसस्टीक, जैसी पेट की सभी समस्याऐं मिट जाती हैं। हर्निया पूरी तरह ठीक हो जाता है। धातु, और पेशाब से संबंधित सभी समस्याएँ मिट जाती हैं। मन की एकाग्रता बढ़ती है। व्यंधत्व (संतान हीनता) से छुटकारा मिलने में भी सहायक है।

      अनुलोम-विलोम प्राणायामः- सुखासन, सिद्धासन, पद्मासन, वज्रासन में बैठें। शुरुवात और अन्त भी हमेशा बाये नथुने (नोस्टिरल) से ही करनी है, नाक का दाँया नथुना बंद करें व बाये से लंबी साँस लें, फिर बाये को बंद करके, दाँया वाले से लंबी साँस छोडें...अब दाँये से लंबी साँस लें और बाये वाले से छोडें...यानि यह दाँया-दाँया बाँया-बाँया यह क्रम रखना, यह प्रक्रिया १०-१५ मिनट तक दुहराएं| साँस लेते समय अपना ध्यान दोंनों आँखो के बीच में स्थित आज्ञा चक्र पर ध्यान एकत्रित करना चाहिए। और मन ही मन में साँस लेते समय ओउम-ओउम का जाप करते रहना चाहिए। हमारे शरीर की ७२,७२,१०,२१० सुक्ष्मादी सूक्ष्म नाड़ी शुद्ध हो जाती है। बायी नाड़ी को चन्द्र (इड़ा, गन्गा) नाड़ी और बायी नाडी को सूर्य (पीन्गला, यमुना) नाड़ी कहते है। चन्द्र नाड़ी से ठण्डी हवा अन्दर जाती है और सूर्य नाड़ी से गरम नाड़ी हवा अन्दर जाती है। ठण्डी और गरम हवा के उपयोग से हमारे शरीर का तापमान संतुलित रहता है। इससे हमारी रोग-प्रतिकारक शक्ति बढ़ जाती है। इनके अतिरीक्त एक और नाड़ी अन दोनो के मध्य में होती है जिसको सुशूम्ड़ा सरस्वती कहते है। जिसकी चर्चा ऋग्वेद के एक मंत्र में करते है वह मंत्र इस प्रकार से हैः- येभ्यो माता मधुमत्पिन्वते पयः पियूषं द्योदिरतिरद्रिबर्हाः। उक्तशुष्मान् वृषभरान्त्स्वप्नसस्ताँ आदित्याँ अनु मदा स्वस्तये।। 10,63,3 अर्थात यह सब की माता मां के सामन है मधु अमृत रूप मती ज्ञान रस को पिलाने पयः जो प्राण रूप तत्व पिने योग्य पदार्थ है सूर्य पृथिवी और ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले अद्रिश्य ब्रह्मा जैसा की पहले बताया गया है शुष्मड़ा नाड़ी में स्थित वही सब में प्राण जो प्रण से बना है संकल्प को पैदा करने वाला सामर्थ का श्रोत है जिसे पाकर लोग परमआनन्द को प्राप्त करते है। जिससे ही सभी जीव जन्तुओं का कल्याण होता है। जैसा की अथर्वेद का एक  मंत्र कहता है अष्टसिद्धि नवद्वारा पूरीअयोद्धा।। अर्थात अष्ट सिद्धि आठ चक्रों को जागृत करने से मिलती है।  आठ चक्र क्रमशः मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहस्रार, ब्रह्मरन्ध्र यह आठ चक्र जो इसी शुष्मड़ा नाड़ी में ही स्थित है। 

      भारतीय पारंपरिक औषधि विज्ञान के अनुसार, चक्र की अवधारणा का संबंध पहिए-से चक्कर से हैं, माना जाता है इसका अस्तित्व आकाशीय सतह में मनुष्य का दोगुना होता है। कहते हैं कि चक्र शक्ति केंद्र या ऊर्जा की कुंडली है जो कायिक शरीर के एक बिंदु से निरंतर वृद्धि को प्राप्त होनेवाले फिरकी के आकार की संरचना (पंखे प्रेम हृदय का आकार बनाते हैं) सूक्ष्म देह की परतों में प्रवेश करती है। सूक्ष्म तत्व का घूमता हुआ भंवर ऊर्जा को ग्रहण करने या इसके प्रसार का केंद्र बिंदु है। ऐसा माना जाता है कि सूक्ष्म देह के अंतर्गत सात प्रमुख चक्र या ऊर्जा केंद्र (जिसे प्रकाश चक्र भी माना गया) स्थित होते हैं। ब्रह्मांड से अधिक मजबूती के साथ ऊर्जा खींचकर इन बिंदुओं में डालता है, इस मायने में यह ऊर्जा केंद्र है कि यह ऊर्जा उत्पन्न और उसका भंडारण करता है। मुख्य नाडि़यां इड़ा, पिंगला और सुषुन्ना (संवेदी, सहसंवेदी और केंद्रीय तंत्रिका तंथ) एक वक्र पथ से मेरूदंड से होकर जाती है और कई बार एक-दूसरे को पार करती हैं। प्रतिच्छेदन के बिंदु पर ये बहुत ही शक्तिशाली ऊर्जा केंद्र बनाती है जो चक्र कहलाता है। मानव देह में तीन प्रकार के ऊर्जा केंद्र हैं। अवर अथवा पशु चक्र की अवस्थिति खुर और श्रोणि के बीच के क्षेत्र में होती है जो प्राणी जगत में हमारे विकासवादी मूल की ओर इशारा करता है। मानव चक्र मेरूदंड में होते हैं। अंत में, श्रेष्ठ या दिव्य चक्र मेरूदंड के शिखर और मस्तिष्क के शीर्ष पर होता है।

     एनोडा जूडिथ (1996, पृ. 5) ने चक्र की आधुनिक व्याख्या दी है: चक्र को क्रियाकलापों का केंद्र माना जाता है जो जीवन शक्ति ऊर्जा को ग्रहण करता है, आत्मसात करता है और अभिव्यक्त करता है। चक्र का शाब्दिक अनुवाद चक्का या कुंडल है और यह चक्कर काटते जैविक ऊर्जा क्रियाकलापों का वृत्त है जो प्रमुख तंत्रिका गैंगलिया से निकलकर मेरूदंड में शाखाओं में बंट कर आगे बढ़ता है। सामान्य तौर पर इनमें से छह चक्रों के लिए कहा जाता है कि यह ऊर्जा के एक स्तंभ की तरह खड़ा होता है जो मेरूदंड के आधार से उठता हुआ माथे के मध्य तक विस्तृत होता है। और सातवां कायिक क्षेत्र से बाहर होता है। छह प्रमुख चक्र हैं जो चेतना के मूल अवस्थाओं से परस्पर जुड़े होते हैं ...

     सुजैन शुमस्की (2003, पृ. 24) इस विचार का समर्थन करती हैं: ऐसा माना जाता है कि आपके मेरूदंड का हरेक चक्र शारीरिक कार्यकलापों को मेरूदंड के निकट क्षेत्र को प्रभावित और यहां तक कि नियंत्रित करता हैं। शव-परीक्षण में चक्रों का खुलासा नहीं होता, इसलिए अधिकांश लोग यह सोचते हैं कि वे अनोखी उर्वर कल्पना कर रहे हैं। लेकिन सुदूर पूर्व की परंपराओं में इसके अस्तित्व को अच्छी तरह प्रमाणित किया गया है। जैसा कि ऊपर बताया गया है, चक्र एक ऊर्जा केंद्र हैं जो मेरूदंड में अवस्थित होता है और मेरूदंड के आधार से ऊपर उठकर खोपड़ी के मध्य तक मानव तंत्रिका तंत्र के विभिन्न हिस्सों में बंट जाता है। चक्र को मानव देह का प्राण या कायिक-जैविक ऊर्जा का बिंदु या बंधन माना गया है। शुमस्की कहती हैं कि "आपके सूक्ष्म देह, आपकी ऊर्जा क्षेत्र और संपूर्ण चक्र तंत्र का आधार प्राण है।.. जो कि ब्रह्मांड में जीवन और ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है।" चक्र का अध्ययन कई प्रकार की चिकित्सा और शिक्षण के लिए केन्द्रिक है। अरोमाथेरापी, मंत्र, रेकी, प्रायोगिक उपचार, पुष्प अर्क, विकिरण चिकित्सा, ध्वनि चिकित्सा, रंग/प्रकाश चिकित्सा और मणिभ/रत्न चिकित्सा जैसे कुछ अभ्यास हैं जिनके माध्यम से सूक्ष्म ऊर्जा का पता लगाया गया है। वज्रयान और तांत्रिक शक्त सिद्धांत के अनुसार एक्यूपंक्चर, शिअत्सू, ताई ची और ची कुंग ऊर्जावान पराकाष्ठा के संतुलन पर ध्यान देता है, जो कि चक्र प्रणाली का एक अभिन्न अंग हैं। 

     "नाभि" शब्द पहली बार हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ अथर्व वेद में आया और इसका उपयोग यह परिभाषित करने के लिए किया गया कि देह की सभी नाड़ियां किस तरह यहां आबद्ध होती हैं। और इसे यह नाभि चक्र के रूप में जाना जाता है और इसके अलावा मूलाधार चक्र शब्द भी पहली बार अथर्ववेद [जिस वेद से आयुर्वेद की उत्पत्ति हुई] में वर्णित किया गया। उपनिषद में चक्रों के वर्णन अधिक विस्तार से हैं, ब्रह्मोपनिषद में नाभि चक्र को अग्नि और सूर्य के निवास के रूप में वर्णित किया गया है। योगराज उपनिषद में नौ प्रकार के चक्रों - ब्रह्म, स्वाधिष्ठान, नाभि, हृदय, कंठ, तालुका, भ्रू, ब्रह्म रंध्र, व्योम चक्र का वर्णन है योग चूड़ामणिउपनिषद में षड चक्र का वर्णन है, पतंजलि योग दर्शन के विभूतिपाद में षड चक्र का वर्णन है और जब पहले सूत्र में इसे समझाया जाता है तब 12 चक्र के वर्णन पाए जाते हैं।

  यह आठ चक्र को जागृत करने से ही आठ सिद्धिया उपलब्ध होती है वह आठ सिद्धिया इस प्रकार से है। सिद्धि अर्थात पूर्णता की प्राप्ति होना व सफलता की अनुभूति मिलना। सिद्धि को प्राप्त करने का मार्ग एक कठिन मार्ग हो ओर जो इन सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है वह जीवन की पूर्णता को पा लेता है। असामान्य कौशल या क्षमता अर्जित करने को 'सिद्धि' कहा गया है. चमत्कारिक साधनों द्वारा 'अलौकिक शक्तियों को पाना जैसे - दिव्यदृष्टि, अपना आकार छोटा कर लेना, घटनाओं की स्मृति प्राप्त कर लेना इत्यादि, 'सिद्धि' इसी अर्थ में प्रयुक्त होती है। शास्त्रों में अनेक सिद्धियों की चर्चा की गई है और इन सिद्धियों को यदि नियमित और अनुशासनबद्ध रहकर किया जाए तो अनेक प्रकार की परा और अपरा सिद्धियाँ प्राप्त कि जा सकती है. सिद्धियाँ दो प्रकार की होती हैं, एक परा और दूसरी अपरा। यह सिद्धियां इंद्रियों के नियंत्रण और व्यापकता को दर्शाती हैं। सब प्रकार की उत्तम, मध्यम और अधम सिद्धियाँ अपरा सिद्धियां कहलाती है । मुख्य सिद्धियाँ आठ प्रकार की कही गई हैं। इन सिद्धियों को पाने के उपरांत साधक के लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं रह जाता। सिद्धियां क्या हैं व इनसे क्या हो सकता है इन सभी का उल्लेख मार्कंडेय पुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में प्राप्त होता है जो इस प्रकार है:- अणिमा लघिमा गरिमा प्राप्ति: प्राकाम्यंमहिमा तथा। ईशित्वं च वशित्वंच  सर्वकामावशायिता:।।

    यह आठ मुख्य सिद्धियाँ इस प्रकार हैं:- अणिमा सिद्धि अपने को सूक्ष्म बना लेने की क्षमता ही अणिमा है। यह सिद्धि यह वह सिद्धि है, जिससे युक्त हो कर व्यक्ति सूक्ष्म रूप धर कर एक प्रकार से दूसरों के लिए अदृश्य हो जाता है। इसके द्वारा आकार में लघु होकर एक अणु रुप में परिवर्तित हो सकता है। अणु एवं परमाणुओं की शक्ति से सम्पन्न हो साधक वीर व बलवान हो जाता है। अणिमा की सिद्धि से सम्पन्न योगी अपनी शक्ति द्वारा अपार बल पाता है। महिमा सिद्धिः- अपने को बड़ा एवं विशाल बना लेने की क्षमता को महिमा कहा जाता है। यह आकार को विस्तार देती है विशालकाय स्वरुप को जन्म देने में सहायक है। इस सिद्धि से सम्पन्न होकर साधक प्रकृति को विस्तारित करने में सक्षम होता है। जिस प्रकार केवल ईश्वर ही अपनी इसी सिद्धि से ब्रह्माण्ड का विस्तार करते हैं उसी प्रकार साधक भी इसे पाकर उन्हें जैसी शक्ति भी पाता है। गरिमा सिद्धिः- इस सिद्धि से मनुष्य अपने शरीर को जितना चाहे, उतना भारी बना सकता है।  यह सिद्धि साधक को अनुभव कराती है कि उसका वजन या भार उसके अनुसार बहुत अधिक बढ़ सकता है जिसके द्वारा वह किसी के हटाए या हिलाए जाने पर भी नहीं हिल सकता। लघिमा सिद्धिः- स्वयं को हल्का बना लेने की क्षमता ही लघिमा सिद्धि होती है।  लघिमा सिद्धि में साधक स्वयं को  अत्यंत हल्का अनुभव करता है। इस दिव्य महासिद्धि के प्रभाव से योगी सुदूर अनन्त तक फैले हुए ब्रह्माण्ड के किसी भी पदार्थ को अपने पास बुलाकर उसको लघु करके अपने हिसाब से उसमें परिवर्तन कर सकता है। प्राप्ति सिद्धिः- कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता  इस सिद्धि के बल पर जो कुछ भी पाना चाहें उसे प्राप्त किया जा सकता है। इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक जिस भी किसी वस्तु की इच्छा करता है, वह असंभव होने पर भी उसे प्राप्त हो जाती है। जैसे रेगिस्तान में प्यासे को पानी प्राप्त हो सकता है या अमृत की चाह को भी पूरा कर पाने में वह सक्षम हो जाता है केवल इसी सिद्धि द्वारा ही वह असंभव को भी संभव कर सकता है। प्राकाम्य सिद्धिः- कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता प्राकाम्य सिद्धि की प्राप्ति है। इसके सिद्ध हो जाने पर मन  के विचार आपके अनुरुप परिवर्तित होने लगते हैं। इस सिद्धि में साधक अत्यंत शक्तिशाली शक्ति का अनुभव करता है। इस सिद्धि को पाने के बाद मनुष्य जिस वस्तु कि इच्छा करता है उसे पाने में कामयाब रहता है। व्यक्ति चाहे तो आसमान में उड़ सकता है और यदि चाहे तो पानी पर चल सकता है। ईशिता सिद्धिः- हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना ही इस सिद्धि का अर्थ है। इस सिद्धि को प्राप्त करके साधक समस्त प्रभुत्व और अधिकार प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। सिद्धि प्राप्त होने पर अपने आदेश के अनुसार किसी पर भी अधिकार जमाय जा सकता है। वह चाहे राज्यों से लेकर साम्राज्य ही क्यों न हो। इस सिद्धि को पाने पर साधक ईश रुप में परिवर्तित हो जाता है। वशिता सिद्धिः- जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता को वशिता या वशिकरण कही जाती है। इस सिद्धि के द्वारा जड़, चेतन, जीव-जन्तु, पदार्थ- प्रकृति, सभी को स्वयं के वश में किया जा सकता है।  इस सिद्धि से संपन्न होने पर किसी भी प्राणी को अपने वश में किया जा सकता है। शरीर में नव द्वार हैं। दशम द्वार ब्रह्मरन्ध्र का है। इड़ा पिंगला और सुषुम्ना के मेल होने पर ब्रह्मरन्ध्र के द्वार से जीव के प्रयाण करने पर जीव मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। दो नाक के छिद्र, दो कान के छिद्र, दो आंख के छिद्र, एक मुख का एक गुदा का और एक लिंग का छिद्र है।

      २.सविता देवः वः श्रेष्ठतमाय कर्मणे प्रार्पयतु= परमेश्वर की प्रार्थना उपाषना उसके सानिद्धय के साथ विद्वानों के सहयोग से यह संभव होगा।  मनन करने से जो त्राण करे, उसे मंत्र कहते हैं। मंत्रविद्या का विस्तार असीम है, उसमें अनेकानेक शब्दगुच्छक हैं। अनेक शब्दों में मंत्रों का विस्तार हुआ है। उनके जप तथा सिद्धिपरक अनेकानेक योगाभ्यास भी हैं, कर्मकांड भी, किंतु उन सबके मूल में एक ही ध्वनि आती है- वह है ओंकार। यही शब्दब्रह्म- नादब्रह्म की धुरी है। शब्दब्रह्म यदि मंत्र विज्ञान की पृष्ठभूमि बनाता है तो नादब्रह्म की साधना नादयोग का आधार बनती है। ओंकार के विराट ब्रह्मांड में गुंजन से ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, यदि यह कहा जाए तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। नाद या शब्द से सृष्टि की उत्पत्ति व ताप, प्रकाश, आदि शक्तियों का आविर्भाव उसके बाद होता चला गया। इस प्रकार सृष्टि का मूल- इस निखिल ब्रह्मांड में संव्याप्त ब्राह्मी चेतना की धुरी यदि कोई है तो वह शब्द का नाद ही है। परमपूज्य गुरुदेव ने इस अनूठे किंतु जटिल विषय पर जिस सरलता से प्रतिपादन प्रस्तुत किया है, वह देखकर उसे पढ़कर आश्चर्यचकित होकर रह जाना पड़ता है। समस्त योगाभ्यासों का मूल ही- यहाँ तक कि परमात्मा तक पहुँचने के मार्ग का द्वार ही शब्दब्रह्म- नादब्रह्म है। इसे समझ कर उसे कैसे आत्मसात् किया जाए कैसे अपने अंदर छिपे पड़े प्रसुप्त के जखीरे को जगाया जाए यह सारा मार्ग दर्शन वाड्मय के इस खंड में है। शब्दब्रह्म- नादब्रह्म की विधा भारतीय अध्यात्म की एक महत्त्वपूर्ण धारा है। जहाँ शब्दब्रह्म में मंत्र- जप, नामोच्चारण, प्रार्थना, समूहिक साधना आदि की महत्ता है, वहाँ नादब्रह्म में नादयोग एवं संगीत की। यह तो मोटा वर्गीकरण हुआ। इस खंड में शब्दब्रह्म की साधना व नादब्रह्म की साधना के जटिल पक्षों को खोला गया है एवं जन-जन के लिए उसे सुगम बनाने का प्रयास किया गया है । पुराणों में एक आख्यायिका आती है। देवर्षि नारद ने एक बार लंबे समय तक यह जानने के लिए प्रव्रज्या की कि सृष्टि में आध्यात्मिक विकास की गति किस तरह चल रही है? वे जहाँ भी गए, प्रायः प्रत्येक स्थान में लोगों ने एक ही शिकायत की भगवान परमात्मा की प्राप्ति अति कठिन है। कोई सरल उपाय बताइये, जिससे उसे प्राप्त करने, उसकी अनुभूति में अधिक कष्ट साध्य तितीक्षा का सामना न करना पड़ता हो। नारद ने इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान् से पूछकर देने का आश्वासन दिया और स्वर्ग के लिए चल पड़े। आपको ढूँढ़ने में तप-साधना की प्रणालियाँ बहुत कष्टसाध्य हैं, भगवन्! नारद ने वहाँ पहुँचकर विष्णु से प्रश्न किया-ऐसा कोई सरल उपाय बताइए, जिससे भक्तगण सहज ही में आपकी अनुभूति कर लिया करें ?

   नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वा। मद्भक्ता: यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।। नारद संहिताः- हे नारद ! न तो मैं वैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहाँ निवास करता हूँ, जहाँ मेरे भक्त-जन कीर्तन करते हैं, अर्थात् संगीतमय भजनों के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। इन पंक्तियों को पढ़ने से संगीत की महत्ता और भारतीय इतिहास का वह समय याद आ जाता है, जब यहाँ गाँव गाँव प्रेरक मनोरंजन के रूप में संगीत का प्रयोग बहुलता से होता था। संगीत में केवल गाना या बजाना ही सम्मिलित नहीं था, नृत्य भी इसी कला का अंग था। कथा, कीर्तन, लोक-गायन और विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक पर्व-त्यौहार एवं उत्सवों पर अन्य कार्यक्रमों के साथ संगीत अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता था। उससे व्यक्ति और समाज दोनों के जीवन में शांति और प्रसन्नता, उल्लास और क्रियाशीलता का अभाव नहीं होने पाता था। अक्षर परब्रह्म परमात्मा की अनुभूति के लिए वस्तुतः संगीत साधना से बढ़कर अन्य कोई अच्छा माध्यम नहीं, यही कारण रहा है कि-यहां की उपासना पद्धति से लेकर कर्मकांड तक में सर्वत्र स्वर संयोजन अनिवार्य रहा है। मंत्र भी वस्तुतः छंद ही है। वेदों की प्रत्येक ऋचा का कोई ऋषि कोई देवता तो होता ही है, उसका कोई न कोई छंद जैसे ऋयुष्टुप, अनुष्टुप, गायत्री आदि भी होते हैं। इसका अर्थ ही होता है कि उस मंत्र के उच्चारण की ताल, लय और गतियाँ भी निर्धारित हैं। अमुक फ्रीक्वेन्सी पर बजाने से ही अमुक स्टेशन बोलेगा, उसी तरह अमुक गति, लय और ताल के उच्चारण से ही मंत्र सिद्धि होगी-यह उसका विज्ञान है। कोलाहल और समस्याओं से घनीभूत संसार में यदि परमात्मा का कोई उत्तम वरदान मनुष्य को मिला है, तो वह संगीत ही है। संगीत से पीड़ित हृदय को शांति और संतोष मिलता है। संगीत से मनुष्य की सृजन शक्ति का विकास और आत्मिक प्रफुल्लता मिलती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, शादी विवाहोत्सव से लेकर धार्मिक समारोह तक के लिए उपयुक्त संगीत निधि देकर परमात्मा ने मनुष्य की पीड़ा को कम किया, मानवीय गुणों से प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाया।  शास्त्रकार कहते हैं- ‘‘स्वरेण संल्लीयते योगी’’ ‘‘स्वर साधना द्वारा योगी अपने को तल्लीन करते हैं’’ और एकाग्र की हुई, मनःशक्ति को विद्याध्ययन से लेकर किसी भी व्यवसाय में लगाकर चमत्कारिक सफलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं, इसलिए वह मानना पड़ेगा कि संगीत दो वर्ष के बच्चे से लेकर विद्यार्थी, व्यवासायी, किसान, मजदूर, स्त्री-पुरुष सबको उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है। उससे मनुष्य की क्रियाशक्ति बढ़ती और आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है। यह बात ऋषि मनीषियों ने बहुत पहले अनुभव की थी और कहा था- ‘‘अभि स्वरन्ति बहवो मनीषिणो राजानमस्य भुवनस्य निंसते।’’ ऋग्वेद 6/85/3 अर्थात्-अनेक मनीषी विश्व के महाराजाधिराज भगवान् की ओर संगीतमय स्वर लगाते हैं और उसी के द्वारा उसे प्राप्त करते हैं। एक अन्य मंत्र में बताया है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए ज्ञान और कर्मयोग मनुष्य के लिए कठिन है। भक्ति-भावनाओं से हृदय में उत्पन्न हुई अखिल करुणा ही वह सर्व सरल मार्ग है, जिससे मनुष्य बहुत शीघ्र, परमात्मा की अनुभूति कर सकता है और उस प्रयोजन में भक्ति-भावनाओं के विकास में संगीत का योगदान असाधारण है- स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिनः। ऋग्वेद 8/33/2 हे शिष्य ! तुम अपने आत्मिक उत्थान की इच्छा से मेरे पास आये हो। मैं तुम्हें ईश्वर का उपदेश करता हूँ, तुम उसे प्राप्त करने के लिए संगीत के साथ उसे पुकारोगे तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रकट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा। पौराणिक उपाख्यान है कि ब्रह्मा जी के हृदय में उल्लास जागृत हुआ तो वह गाने लगे। उसी अवस्था में उनके मुख से गायत्री छंद प्रादुर्भूत हुआ- गायत्री मुखादुदपतदिति च ब्राह्मणम्। -निरुक्त 7/12 गान करते समय ब्रह्मा जी के मुख से निकलने के कारण गायत्री नाम पड़ा।  संगीत के अदृश्य प्रभाव को खोजते हुए भारतीय योगियों को वह सिद्धियाँ और अध्यात्म का विशाल क्षेत्र उपलब्ध हुआ, जिसे वर्णन करने के लिए एक पृथक वेद की रचना करनी पड़ी। सामवेद में भगवान् की संगीत शक्ति के ऐसे रहस्य प्रतिपादित और पिरोये हुए हैं, जिनका अवगाहन कर मनुष्य अपनी आत्मिक शक्तियों को, कितनी ही तुच्छ हों-भगवान् से मिला सकता है। अब इस संबंध में पाश्चात्य विद्वानों की मान्यताएँ भी भारतीय दर्शन की पुष्टि करने लगी हैं। विदेशों में विज्ञान की तरह ही एक शाखा विधिवत संगीत का अनुसंधान कर रही है और अब तक जो निष्कर्ष निकले हैं, वह मनुष्य को इस बात की प्रबल प्रेरणा देते हैं कि यदि मानवीय गुणों और आत्मिक आनंद को जीवित रखना है तो मनुष्य अपने आपको संगीत से जोड़े रहे। संगीत की तुलना प्रेम से की गई है। दोनों ही समान उत्पादक शक्तियाँ हैं, इन दोनों का ही प्रकृति (जड़ तत्त्व) और जीवन (चेतन तत्त्व) दोनों पर ही चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है। ‘‘संगीत आत्मा की उन्नति का सबसे अच्छा उपाय है, इसलिए हमेशा वाद्य यंत्र के साथ गाना चाहिये।’’ यह पाइथागोरस की मान्यता थी; पर डॉ. मैकफेडेन ने वाद्य अपेक्षा गायन को ज्यादा लाभकारी बताया है। मानसिक प्रसन्नता की दृष्टि से पाइथागोरस की बात अधिक सही लगती है। मैकफेडेन ने लगता है, केवल शारीरिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ऐसा लिखा है। इससे भी आगे की कक्षा आत्मिक है, उस संबंध में कविवर रवींद्रनाथ टैगोर का कथन उल्लेखनीय है। श्री टैगोर के शब्दों में स्वर्गीय सौंदर्य का कोई साकार रूप और सजीव प्रदर्शन है, तो उसे संगीत ही होना चाहिये। रस्किन ने संगीत को आत्मा के उत्थान, चरित्र की दृढ़ता कला और सुरुचि के विकास का महत्त्वपूर्ण साधन माना है। विभिन्न प्रकार की सम्मतियाँ वस्तुतः अपनी-अपनी तरह की विशेष अनुभूतियाँ हैं, अन्यथा संगीत में शरीर, मन और आत्मा तीनों को बलवान् बनाने वाले तत्त्व परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान हैं, इसी कारण भारतीय आचार्यों और मनीषियों ने संगीत शास्त्र पर सर्वाधिक जोर दिया। साम वेद की स्वतंत्र रचना उसका प्रणाम है। समस्त स्वर-ताल, लय, छंद, गति, मंत्र, स्वर, चिकित्सा, राग, नृत्य, मुद्रा, भाव आदि साम वेद से ही निकले हैं। किसी समय इस दिशा में भी भारतीयों ने योग सिद्धि प्राप्त करके, यह दिखा दिया था कि स्वर साधना के समक्ष संसार की कोई और दूसरी शक्ति नहीं। उसके चमत्कारिक प्रयोग भी सैकड़ों बार हुए हैं। 

      अकबर की राज्य- सभा में संगीत प्रतियोगिता रखी गई। प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे तानसेन और बैजूबावरा। यह आयोजन आगरे के पास वन में किया गया। तानसेन ने टोड़ी राग गाया और कहा जाता है कि उसकी स्वर लहरियां जैसे ही वन खंड में गुंजित हुईं, मृगों का एक झुंड वहाँ दौड़ता हुआ चला आया। भाव-विभोर तानसेन ने अपने गले पड़ी माला एक हरिण के गले में डाल दी। इस क्रिया से संगीत प्रवाह रुक गया और तभी सब के सब सम्मोहित हरिण जंगल में भाग गये। टोड़ी राग गाकर तानसेन ने यह सिद्ध कर दिया कि संगीत मनुष्यों की ही नहीं, प्राणिमात्र की आत्मिक-प्यास है, उसे सभी लोग पसंद करते हैं। इसके बाद बैजूबाबरा ने मृग रंजनी टोड़ी राग का अलाप किया। तब केवल एक वह मृग दौड़ता हुआ राज्य-सभा में आ गया, जिसे तानसेन ने माला पहनाई थी। इस प्रयोग से बैजूबावरा ने यह सिद्ध कर दिया कि शब्द के सूक्ष्मतम कंपनों में कुछ ऐसी शक्ति और सम्मोहन भरा पड़ा है कि उससे किसी भी दिशा के कितनी ही दूरस्थ किसी भी प्राणी तक अपना संदेश भेजा जा सकता है। 

      शब्द को ब्रह्म कहा गया है। ‘शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्म’ शब्दों का उपयोग शास्त्र में अनेक स्थानों पर आया है। यह उक्ति अलंकार नहीं-वरन् यथार्थ है। हाँ, यदि ध्वनि मात्र को यह उपमा दी जाएगी तो उसे उपहासास्पद समझा जाएगा । जिह्वा स्वर यन्त्र है। वाद्य यन्त्र पर उलटी सीधी अंगुली से आघात लगाये जाएँ तो आवाज भर होगी। क्रमबद्ध, तालबद्ध, राग-रागिनी निकालनी हो तो उसके लिए सधे हाथ एवं प्रशिक्षित मस्तिष्क का भी योगदान आवश्यक है। जिव्हा से बोले गये मन्त्र वाद्य-यन्त्र पर जैसे जैसे अंगुली चलाने की तरह है, उतने भर से दीपक राग या मेघ मल्हार जैसे प्रभावोत्पादक परिणामों की अपेक्षा नहीं की जा सकती । जिव्हा से उच्चरित शब्द सामान्यतया जानकारियों के आदान प्रदान का उद्देश्य पूरा करते हैं। एक व्यक्ति शब्द माध्यम से अपनी अनुभूति एवं जानकारी दूसरे तक पहुँचा सकता है। इसमें भी आवश्यक नहीं कि जिससे जो कहा गया है वह उसे उसी रूप में स्वीकार कर ले। कारण कि आजकल वचन छल का दौर दौरा है। लोग एक दूसरे को ठगने की दृष्टि से कपट वचन बोलने की कला में प्रवीण हो चले है। अस्तु सुनने वाले को फूँक-फूँक कर कदम रखना होता है और देखना पड़ता है कि कथन में छल, प्रपंच की दुरभिसंधियाँ तो घुसी हुई नहीं है। कितना कथन संदिग्ध हो सकता है, इसकी खोज करने में सुनने वाला लगता है। जितना अंश गले उतरता है, उतने पर ध्यान देकर शेष को उपेक्षा के गर्त में फेंक देता है। जब सामान्य व्यवहार तक में वाणी की यह दुर्गति हो रही हो। उच्चारण को अविश्वस्त और अप्रमाणिक मानने की परम्परा चल रही हो तो उससे व्यावहारिक आदान प्रदान तक की आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती। फिर आध्यात्मिक प्रयोजन तो पूरे हो ही कैसे सकेंगे । इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए ही मन्त्राराधन में ‘वाणी’ मात्र से सम्भव हो सकने वाले क्रिया-काण्डों को महत्त्व नहीं दिया गया है। जीभ से तो लोग आये दिन कथा, कीर्तन, भजन, पाठ, जप आदि के माध्यम से तरह तरह के चित्र विचित्र वचन बोलते रहते हैं। यदि उतने भर से धर्मचर्या के उद्देश्य पूरे हो जाया करते तो फिर सरलता की अति ही कही जाती। छोटे छोटे लाभ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कठोर श्रम करने, साधन जुटाने एवं मनोयोग लगाने की आवश्यकता पड़ती है तब कहीं आधी अधूरी सफलता का योग बनता है। अध्यात्म क्षेत्र जितना उच्चस्तरीय है उतनी ही उसकी विभूतियाँ भी बहुमूल्य है। निश्चित रूप से उसके लिए प्रयास भी अपेक्षाकृत अधिक कष्ट साध्य ही होते हैं। यदि उतने बड़े लाभ मात्र जिव्हा से अमुक शब्दावली दुहरा देने भर से प्राप्त हो जाया करते तो उन्हें पाने से कोई भी वंचित न रहता, पर इतना सस्तापन है कहाँ ? महत्त्व की दृष्टि से हर वस्तु का मूल्य निर्धारित है। अध्यात्म उपलब्धियों में शब्द शक्ति की महत्ता बताई और महिमा गाई गई है। मन्त्राराधन के फलस्वरूप मिलने वाले लाभों का वर्णन विस्तारपूर्वक शास्त्रों में भरा पड़ा है, पर उसे शब्द चमत्कार भर नहीं मान लिया जाना चाहिए। यदि उच्चारण ही सब कुछ रहा होता तो साधन ग्रन्थ पढ़ने वाली से प्रेस कर्मचारी और, पुस्तक विक्रेता पहले ही लाभान्वित हो लेते। पाठक को उनका बचा-खुचा ही शायद कुछ हाथ लगता। शब्दोच्चारण में जप के अति सरल कर्मकाण्ड के लिए थोड़ा-सा संयम लगा देने में किसी को क्या कुछ असुविधा होगी ? उतना तो कोई बालक नासमझ या वृद्ध अशक्त भी कर सकता है, फिर समर्थ व्यक्ति तो उसे उत्साहपूर्वक करते और भरपूर लाभ उठाते। ऐसा कहाँ होता है ? लाभों का महात्म्य विस्तार पढ़ते हुए भी कुछ करने के लिए कहाँ किसी का उत्साह होता है। शब्द ब्रह्म-शब्दों में जो गहन रहस्य छिपा है वह यह है कि अध्यात्म प्रयोजनों में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली को उच्चस्तरीय होना चाहिए। वह इतनी परिष्कृत हो कि उसकी पवित्रता, प्रामाणिकता एवं क्षमता को ईश्वर के समतुल्य ठहराया जा सके। इसके लिए कई लोग स्वर विन्यास की बात सोचते हैं और अनुमान लगाते हैं कि मन्त्रों में उच्चारण का जो स्वर क्रम बताया गया है, उसे जान लेने से काम बन जाएगा । यह मान्यता भी तथ्य की दिशा में एक छोटा कदम भर ही है। इस चिन्तन में इतनी सी जानकारी है कि हमारे क्रिया कृत्यों को अनगढ़ नहीं-सुव्यवस्थित होना चाहिए। भले ही वह उच्चारण ही क्यों न हो? वाणी को शिष्टाचार-सन्तुलन सभ्यता का अंग माना जाता है। जो ऐसे ही अण्ड-बण्ड बोलते रहते हैं वे असभ्य कहलाते और तिरस्कार के पात्र बनते हैं। ऐसी दशा में मन्त्र प्रयोजनों में यदि उसके साथ जुड़े हुए व्यवस्था नियमों का पालन किये जाने का निर्देश है तो उसका पालन होना ही चाहिए। इसमें सतर्कता एवं जागरूकता अपनाये जाने की बात दृष्टिगोचर होती है। यह दिशा उत्साहवर्धक है। इससे प्रमाद पर अंकुश लगने और व्यवस्था अपनाने में उत्साह उत्पन्न होने का बोध होता है, यह उचित भी है और आशाजनक भी। मन्त्रों का उच्चारण शुद्ध हो। सही हो। गति का ध्यान रहे। स्वर, लय, क्रम, विराम आदि को जाना माना जाय। यह अनगढ़पन से मन्त्र चार की सभ्यता में प्रवेश करने का कदम है। पूजा, उपचार के अन्य कर्मकाण्डों में भी यह सतर्कता बरती जानी चाहिए। आलसी प्रमादियों की तरह आधी-अधूरी चिह्न पूजा करने की बेगार भुगत लेने से तो अश्रद्धा ही टपकती है। अन्य मनस्कता एवं उपेक्षापूर्वक किये गये नित्य कर्म तक बेतुके बेढंगे होते हैं, इस स्वभाव से तो आजीविका उपार्जन जैसे काम तक असफल जैसे बने रहते हैं, फिर अध्यात्म मार्ग की उपलब्धियों में तो उसका परिणाम अवरोध उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ हो ही क्या सकता है ?

      उच्चारण से लेकर विधि-विधान तक में सुव्यवस्था एवं सतर्कता बरती जानी चाहिए किन्तु इतने भर से ही यह नहीं मान लेना चाहिए कि हमारे उच्चारण ‘मन्त्र’ बन गये और उन्हें शब्द ब्रह्म की संज्ञा मिल गई। इसके लिए वाणी को ‘वाक्’ के रूप में परिष्कृत करना होगा। यह स्वर साधना नहीं वरन् जीवन साधना के क्षेत्र में होने वाला प्रयोग है। इसके लिए समूचे व्यक्तित्व को मन, वचन, कर्म को, गुण कर्म स्वभाव को, चिन्तन एवं चरित्र को, उच्चस्तरीय बनाने के भागीरथ प्रयत्न में जुटना होता है। मन्त्रोच्चारण की विधि-व्यवस्था कुछ घण्टों में सीखी जा सकती है। उसका परिपूर्ण अभ्यास कुछ दिनों में हो सकता है। किन्तु व्यक्तित्व की मूल सत्ता का स्तर ऊँचा उठाना काफी कठिन है। उसके लिए प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। दूसरों को सुधारने में जितनी कठिनाई पड़ती है, अपने को सुधारना उससे भी अधिक कष्ट साध्य और श्रम साध्य है। जिव्हा उच्चारण तन्त्र है। अन्य वाद्य यन्त्रों की तरह उसका सही होना तो प्राथमिक आवश्यकता है। मन्त्र की शब्दावली शुद्ध हो। भाषा की अशुद्धियाँ न हों। प्रवाह एवं स्वर ठीक हो। इसके अतिरिक्त जिव्हा साधना की दृष्टि से सामान्य व्यवहार में उसके रसना प्रयोजन एवं वार्ताक्रम में साधकों जैसी रीति नीति का समावेश किया जाय। अति की, हराम की कमाई न खाई जाय। परिश्रम और न्याय के सहारे जितना कुछ कमाया जा सके उतने में ही मितव्ययितापूर्वक गुजारा किया जाय। चटोरेपन की बुरी आदत से लड़ा जाय और सात्विक सुपाच्य पदार्थों को औषधि भाव से उतनी ही मात्रा में लिया जाय जितनी कि पेट की आवश्यकता एवं क्षमता है। इस दृष्टिकोण को अपनाने वाले के लिए मद्य, माँस जैसे अभक्ष्य को ग्रहण करने की तो बात ही क्या-उत्तेजक मसाले और नशीले पदार्थों-मिष्ठान्न पकवानों तक से परहेज करने की जरूरत स्पष्ट है। सात्विक आहार से मनः क्षेत्र में सात्विकता बढ़ती है और उससे अनेकों दोष−दुर्गुण जो अभक्ष्य खाते रहने पर छुट नहीं सकते थे, अनायास ही घटते-मिटते चले जाते हैं। अस्वाद व्रत पालन करने वाले के लिए अन्य इन्द्रियों पर काबू रख सकना सरल हो जाता है।

     आहार की सात्विकता का वाणी की पवित्रता पर गहरा असर पड़ता है। अभक्ष्य आहार से जिव्हा की सूक्ष्म शक्ति नष्ट होती है और उसके द्वारा उच्चरित शब्द आध्यात्मिक प्रयोजन पूरे कर सकने की क्षमता से रहित ही बने रहते हैं। वाणी का दूसरा कार्य है वार्त्तालाप। हमारे दैनिक जीवन में वार्तालाप का स्तर उच्चस्तरीय एवं आदर्श परम्पराओं से युक्त होना चाहिए। कटुता घृणा, तिरस्कार, छल, असत्य का पुट उसमें न रहे। दूसरों को भ्रम में डालने, कुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाले, हिम्मत तोड़ने वाले शब्द न बोले। यह नियंत्रण मात्र सतर्कता बरतने से नहीं हो सकता है। उपचार में भी बार-बार भूल होती रहती है। वस्तुतः हमारे भीतर सद्भावों का इतना गहरा पुट हो कि वाणी पर नियन्त्रण करने की आवश्यकता ही न पड़े। जो भीतर होता है वही बाहर निकलता है। यदि हमारे अन्तःकरण में सद्भावनाएँ भरी होंगी दृष्टिकोण आदर्शवादी होगा तो स्वभावतः वार्तालाप में उच्चस्तरीय श्रेष्ठता भरी होगी। सद्भाव सम्पन्न मनुष्यों का सामान्य वार्तालाप भी शास्त्र वचन के स्तर का होता है उनके मुख से निकलने वाले वाक्य ‘आप्त वाक्य’ कहलाने योग्य होते हैं। इस प्रकार का वार्ता-अभ्यास जिव्हा को दैवी प्रयोजनों के उपयुक्त बनाता चला जाता है। उसके द्वारा जिन मन्त्रों की आराधना की जाती है वे सफल ही होते चले जाते हैं। मन्त्र को धीमे जपा जाता है। शब्दावली अस्पष्ट एवं धीमी रहती है। बहुत बार तो वाचिक से भी अधिक महत्त्व मानसिक और उपाँशु का होता है। उनमें तो वाणी नाम मात्र को ही होती है। किन्तु इन मौन जपों में भी मध्यमा, परा, पश्यन्ती, वाणियाँ काम करती रहती है। यह तीनों वाणियाँ मनुष्य के दृष्टिकोण, चरित्र एवं आकांक्षा से सम्बन्धित रहती है। यदि व्यक्ति ओछा, घटिया और दुष्ट है। उसकी आकांक्षाएँ निकृष्ट, दृष्टिकोण विकृत एवं चरित्र भ्रष्ट है तो तीनों सूक्ष्म वाणियाँ निम्नस्तरीय ही बनी रहेंगी और उनका समन्वय रहने में बैखरी वाणी तक प्रभावहीन संदिग्ध एवं अप्रामाणिक बनी रहेगी उसका साँसारिक उपयोग कोई महत्त्वपूर्ण परिणाम उत्पन्न न कर सकेगा फिर उसके द्वारा की गई मन्त्र साधना तो सफल हो ही कैसे सकती है ? मन्त्र जप की सरल विधि के साथ कठिन साधना यह है कि उसके लिए जिव्हा समेत समस्त उपकरणों का परिशोधन करना पड़ता है। जो तथ्य को समझते हैं वे साधनाओं के विधि-विधान तक सीमित न रह कर जीवन-प्रक्रिया को उच्चस्तरीय बनाने की सुविस्तृत रूपरेखा तैयार करते हैं। उस प्रयास में जिसे जितनी सफलता मिलेगी उसके जप तप उसी अनुपात में सफल होते देखे जा सकेंगे । शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार इसी मार्ग पर चलने से सम्भव होता है। समूची आत्मसत्ता को परिष्कृत बनाने से वाणी की परिणित ‘वाक्’ शक्ति में होती है। वाक् शक्ति का प्रभाव असीम है। उसकी सहायता से असम्भव को भी सम्भव किया जा सकता है।

     शतपथ ब्राह्मण में शब्द ब्रह्म का विवेचन करते हुए कहा गया है। परा वाक् उसका मर्मस्थल है। परा वाक् का रहस्योद्घाटन करते हुए बताया है-वह हृदयस्पर्शी है प्रसुप्त को जगाती है। स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि का आधार वही है। देवताओं के अनुग्रह वरदान का केन्द्र उसी में है। इस विश्व में जो कुछ श्रेष्ठता है वह वाक् की प्रतिध्वनि एवं प्रतिक्रिया ही समझी जानी चाहिए। वैखरी वाणी जब साधना सम्पन्न होकर ‘वाक्’ बनती है तो उसका विस्तार श्रवण क्षेत्र तक सीमित न रह कर तीनों लोकों की परिधि तक व्यापक होता है। वाणी में ध्वनि है ध्वनि में अर्थ। किन्तु वाक् शक्ति रूपा है। उसकी क्षमता का उपयोग करने पर वह सब जीता जा सकता है। जो जीतने योग्य है। कौत्स मुनि ने मन्त्र अक्षरों के अर्थ की उपेक्षा होती है और कहा है कि उनकी क्षमता शब्द गुँथन के आधार पर समझी जानी चाहिए। उसमें ‘वाक्’ तत्त्व ही प्रधान रूप से काम करता है। इस ‘परावाक्’ का स्तवन करते हुए श्रुति कहती है।

     देवी वाचमजनयन्त देवास्ताँ, विश्वरूपाः पशवो वदन्ति। सा नो मंद्रेष्षमूर्ग दुहाना, धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुवैतु॥ प्रा वाक् देवी है। विश्व रूपिणी है। देवताओं की जननी है। देवता मन्त्रात्मक ही है। यही विज्ञान है। इसे कामधेनु हम बोलते और जानते हैं।

     ३.आप्यायध्वम्= इस प्रकार तुम प्रतिदिन बढ़ो और तुम्हार झुकाव श्रेष्ठ कर्मों में हो।

       “दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः । अश्रद्धाममनृतेSधाच्छ्रद्धां सत्ये प्रजापतिः ।।” (यजुर्वेदः–१९.७७)

    सर्वज्ञ और आदिस्रष्टा परमेश्वर ने अश्रद्धा को असत्य में तथा श्रद्धा को सत्य में स्थापित किया है । “श्रद्धा”–शब्द श्रत् धा इन दो तत्त्वों के योग से निष्पन्न होता है । “श्रत्” का अर्थ है सत्य या ज्ञान और धा का तात्पर्य धारण करना या भावना है । अतः केवल सहज विश्वास अथवा अन्धविश्वास का नाम श्रद्धा नहीं है । सत्य को निश्चयपूर्वक जानकर उसे दृढता के साथ धारण करना श्रद्धा है । सत्य धारणा अथवा निष्ठा के साथ अभीष्ट की ओर उन्मुख रहना श्रद्धा है अथवा हृद की गहनतम भावना के साथ साध्य की साधना करना श्रद्धा है ।श्रद्धा हृदय की उत्कृष्टतम अनुभूति है । अन्य शब्दों में श्रेष्ठता की प्रति अटूट आस्था का नाम ही श्रद्धा है । अन्तःकरण की दिव्यभूमि में जब श्रद्धा अंकुरित होती है तो व्यक्ति का समग्र जीवन प्रशस्त हो उठता है । श्रद्धा आध्यात्मिक क्षेत्र की ऊर्जा है । जिस प्रकाप भौतिक क्षेत्र में अग्नि या सूर्य की शक्ति ऊर्जा मानी जाती है, वैसे ही अध्यात्म के क्षेत्र में आन्तरिक ऊर्जा श्रद्धा ही है । श्रद्धा ही सारे धार्मिक कृत्यों और आयोजनों का प्राण है, उसके बिना मनुष्य के सब धर्म निष्फल है । धार्मिक कर्मकाण्ड और मान्यताएँ श्रद्धा के अभाव में मूल्यहीन हो जाती है । अतः शक्ति या प्रभाव आडम्बर की विशालता में नहीं, श्रद्धा की शक्ति में सन्निहित होता है । कर्मकाण्ड की या साधन-विधान की उतनी महत्ता नहीं, जितनी उसके मूल में काम करने वाला श्रद्धा की है । श्रद्धाविहीन कर्म मनुष्य को लकीर का फकीर बना देते हैं । श्रद्धा न हो तो यज्ञ की अग्नि और रसोई के चूल्हे की अग्नि, वेदमन्त्रों और साधारण शब्दों तथा गाय और घोडे में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा । इसीलिए श्रुति का उद्घोष है- “श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः ।” (ऋग्वेदः–१०.१५१.१)   श्रद्धा के अभिसिञ्चन से असाध्य कार्य भी सिद्ध हो सकते हैं, पाषाण में भी प्राणवानों जैसी दिव्य शक्ति का सञ्चार हो सकता है । श्रद्धा के बल पर ही एकलव्य ने मिट्टी की द्रोणाचार्य की प्रतिमा से उतनी शिक्षा प्राप्त कर ली थी, जितनी पाण्डव साक्षात् द्रोणाचार्य से भी प्राप्त नहीं कर सके । श्रद्धा के कारण ही युधिष्ठिर का विशाल राजसूय यज्ञ नेवले के आधे शरीर को सुवर्णमय नहीं बना सका, किन्तु निर्धन ब्राह्मण के त्याग ने उसे आधी कञ्चन काया प्रदान कर दी थी । इसलिए नारदपुराण में कहा गया है कि श्रद्धा से ही सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धा से ही भगवान् सन्तुष्ट होते हैं । श्रद्धा की महिमा प्रकट करते हुए गीताकार ने भी कहा है— “सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोSयं पुरुषों यो यच्छर्रद्धः स एव सः ।।” (गीता–१७.३) 

    अर्थ—जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही बन जाता है । व्यक्तित्व की श्रेष्ठता-निकृष्टता की पहचान यही श्रद्धा ही है । श्रद्धा से ही सत्य की सिद्धि होती है—“श्रद्धया सत्यमाप्यते” (यजुर्वेदः–१९.३०) श्रद्धा से ही वसु की उपलब्धि होती है—“श्रद्धया विन्दते वसु” (ऋग्वेदः–१०.१५१.४) तथा श्रद्धा से ही विद्वान् जन देवत्व को प्राप्त करते हैं—“श्रद्धया देवो देवत्वमश्नुते ।” (तैत्तिरीय-ब्राह्मण—३.२.३) मानव जीवन में ज्ञान का महत्त्व सर्वोच्च है—“नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।” (गीता–३.३८) अर्थात् संसार में ज्ञान से बढकर पवित्र कुछ भी नहीं है तथा ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में श्रद्धा का विशेष महत्त्व है—“श्रद्धावांल्लभते ज्ञानम्।” (गीता–३.३९) श्रद्धावान् व्यक्ति को ही ज्ञान-लाभ होता है । श्रद्धा से ही ज्ञानरूप अग्नि प्रज्वलित होती है । श्रद्धा होने पर ही सद्गुरु एवं सद्ग्रन्थ प्रभावी होते हैं । इसीलिए कहा गया है कि श्रद्धायुक्त कर्मों का उल अनन्त होता है—

     “श्रद्धाविधिसमायुक्तं कर्म यत् क्रियते नृभिः । सुविशुद्धेन भावेन तदनन्ताय कल्पते ।।” (याज्ञवल्क्य-स्मृतिः) साधना के क्षेत्र में श्रद्धा की अपरिमित शक्ति ही काम करती है । श्रद्धा और विश्वास होने पर ही परमात्मा की प्राप्ति होती है, यह तर्क से संभव नहीं है । हमारे शास्त्रकार स्वयं यह घोषणा करते हैं कि जो हमारे अच्छे आचरण है, उन्हीं का तुम्हे अनुसरण करना चाहिए, अन्य का नहीं—“यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि ।” आज हमारे समाज में नैतिक मूल्यों का संकट विषम रूप में उपल्थित है । एक ओर वैज्ञानिक प्रगति ने तथाकथित शिक्षित मनुष्य को मानवीय गुणों से शून्य, यन्त्रवत् बना डाला है तो दूसरी ओर अधिसंख्य अशिक्षित जन अन्धश्रद्धा के जाल में जकडे हुए हैं । अतः इस बात की महती आवश्यकता है कि “श्रद्धा” जैसे सार्वकालिक, सार्वभौमिक सद्गुणों के सत्य स्वरूप को जनसाधारण तक पहुँचाया जाए, ताकि भारतीय संस्कृति के सनातन सन्देश सर्वजनग्राह्य हो सके  । वैदिक ऋषि की यह कामना पूर्ण हो— “श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यन्दिनं परि । श्रद्धा सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः ।।” (ऋग्वेदः–१०.१५१.४) 

    शब्दाद्वैतवाद के अनुसार शब्द ही ब्रह्म है। उसकी ही सत्ता है। सम्पूर्ण जगत शब्दमय है। शब्द की ही प्रेरणा से समस्त संसार गतिशील है। महती स्फोट प्रक्रिया से जगत की उत्पत्ति हुई तथा उसका विनाश भी शब्द के साथ होगा। इन्द्रियों में सबसे अधिक चंचल तथा वेगवान मन को माना गया है। ‘मन के तीन प्रमुख कार्य हैं’- स्मृति, कल्पना तथा चिन्तन। इन तीनों से ही मन की चंचलता बनती है। लेकिन यदि मन को शब्द का माध्यम न मिले तो उसे चंचलता नहीं प्राप्त हो सकती। उसकी गति शब्द की बैसाखी पर निर्भर है। सारी स्मृतियाँ, कल्पनाएँ तथा चिन्तन शब्द के माध्यम से चलते हैं। दैनन्दिन जीवन में काम आने वाले शब्दों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- व्यक्त और अव्यक्त। जैन पंन्थी इन्हें अपनी भाषा में जल्प और अन्तर्जल्प कहते हैं। जो बोला जाता है उसे जल्प कहते हैं। जल्प का अर्थ है- व्यक्त स्पष्ट मन्तव्य। जो स्पष्टतः बोला नहीं जाता, मन में सोचा अथवा जिसकी मात्र कल्पना की जाती है वह है- अन्तर्जल्प। मुँह बन्द होने होठ के स्थिर होने पर भी मन के द्वारा बोला जा सकता है, जो कुछ भी सोचा जाता है, वह भी एक प्रकार से बोलने की प्रक्रिया है तथा उतनी ही प्रभावशाली होती है जितनी की व्यक्त वाणी। शब्द अपनी अभिव्यक्ति के पूर्व चिंतन के रूप में होता है। अपनी उत्पत्ति काल में वह सूक्ष्म होता है पर बाहर आते-आते वह स्थूल बन जाता है। जो सूक्ष्म है वह हमारे लिये अश्रव्य है। जो स्थूल है वही सुनाई पड़ता है। ध्वनि विज्ञान ने ध्वनियों को दो रूपों में विभक्त किया है-श्रव्य और अश्रव्य। अश्रव्य- अर्थात्- अल्ट्रा साउण्ड- सुपर सोनिक। हमारे कान मात्र 20000 कम्पन आवृत्ति को ही पकड़ सकते हैं। वे न्यूनतम 20 कम्पन आवृत्ति प्रति सेकेण्ड तथा अधिकतम 20 हजार कम्पन आवृत्ति प्रति सेकेण्ड को पकड़ने में सक्षम हैं। पर उनसे कम तथा अधिक आवृत्ति वाली ध्वनि तरंगों का भी अस्तित्व है। श्रवणेन्द्रियों की मर्यादा अपनी सीमा रेखा को चीर नहीं पाती। फलस्वरूप वे ध्वनियाँ सुनाई नहीं पड़तीं। कान यदि सूक्ष्मातीत ध्वनि तरंगों को पकड़ने लगें तो मालूम होगा कि संसार में नीरवता कहीं और कभी भी नहीं है। कमरे में बन्द आदमी अपने को कोलाहल से दूर पाता है। पर सच्चाई यह है कि उसके चारों और कोलाहल का साम्राज्य है। समूचा अन्तरिक्ष ध्वनि तरंगों से आलोड़ित है। उनमें से थोड़ी-सी ध्वनियाँ मात्र मनुष्य के कानों तक पहुँच पाती हैं। प्रकृति की अगणित घटनाएँ सूक्ष्म जगत में पकती रहती हैं। घटित होने के पूर्व भी उनकी सूक्ष्म ध्वनि तरंगें सूक्ष्म अन्तरिक्ष में दोलयमान रहती हैं। उन्हें पकड़ा और सुना जा सके तो कितनी ही प्रकृति की घटनाओं का पूर्वानुमान लगा सकना सम्भव है। मनुष्येत्तर कितने ही जीव ऐसे हैं जिन्हें प्रकृति की घटनाओं का भूकम्प, तूफान आदि विभीषिकाओं का पूर्वाभास हो जाता है। सूचना मिलते ही उनका व्यवहार बदल जाता है। अपनी आदत के विरुद्ध वे अस्वाभाविक आचरण करने लगते हैं। कितने ही सुरक्षा के लिए सुरक्षित स्थानों की ओर दौड़ने लगते हैं। सूक्ष्म ध्वनि स्पन्दनों के आधार पर ही वे सम्भाव्य विभीषिकाओं का अनुमान लगा लेते हैं। जो कुछ भी बोला अथवा सोचा जाता है वह तुरन्त समाप्त नहीं हो जाता, सूक्ष्म रूप में अन्तरिक्ष में विद्यमान रहता, तरंगित होता रहता है। हजारों-लाखों वर्षों तक ये कम्पन उसी रूप में रहते हैं। ऐसे प्रयोग भी वैज्ञानिक क्षेत्र में चल रहे हैं कि भूतकाल में जो कुछ भी कहा गया है ईथर में विद्यमान है उसे यथावत् पकड़ा जा सके। सदियों पूर्व महा-मानवों ऋषि कल्प देव पुरुषों ने क्या कहा होगा, उसे प्रत्यक्ष सुना जा सके ऐसे अनुसन्धान प्रयोगावधि में हैं। अभी सफलता तो नहीं मिल पायी है पर वैज्ञानिक आश्वस्त हैं कि आज नहीं तो कल वह विद्या हाथ लग जायेगी। निस्सन्देह यह उपलब्धि मानव जाति के लिए महत्वपूर्ण तथा अद्वितीय होगी अब तक की वैज्ञानिक उपलब्धियों में वह सर्वोपरि होगी। सम्भवतः इसी आधार पर कृष्ण द्वारा कही गयी गीता, एवं राम रावण संवादों को अपने ही कानों से सुनना सम्भव हो सकेगा। रेडियो, टेलीविजन, राडार की भाँति प्राचीन काल के आविष्कारों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथा चमत्कारी खोज थी- मन्त्र विद्या। मन्त्र ध्वनि विज्ञान का सूक्ष्मतम विज्ञान था। इसके अनुसार जो कार्य आधुनिक यन्त्रों के माध्यम से हो सकते हैं वे मन्त्र के प्रयोग से भी सम्भव हैं। पदार्थ की तरह अक्षरों तथा अक्षरों से युक्त शब्दों में अकूत शक्ति का भाण्डागार मौजूद है। मन्त्र कुछ शब्दों के गुच्छक मात्र होते हैं पर ध्वनि शास्त्र के आधार पर उनकी संरचना बताती है कि एक विशिष्ट ताल, क्रम एवं गति से उनके उच्चारण से विशिष्ट प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न होती है। प्राचीन काल में ऋषियों ने शब्दों की गहराई में जाकर उनकी कारण शक्ति की खोज-बीन के आधार मन्त्रों एवं छन्दों की रचना की थी। पिछले दिनों ध्वनि विज्ञान पर अमेरिका पश्चिम जर्मनी में कितनी ही महत्वपूर्ण खोजें हुई हैं। साउण्ड थैरेपी एक नयी उपचार पद्धति के रूप में विकसित हुई है। ध्वनि कम्पनों के आधार पर मारक शस्त्र भी बनने लगे हैं। ब्रेन वाशिंग के अगणित प्रयोगों में ध्वनि विद्या का प्रयोग होने लगा है। अन्तरिक्ष की यात्रा करने वाले राकेटों, स्पेस शटलों के नियन्त्रण संचालन में भी शब्द विज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान है। पर वैज्ञानिक क्षेत्र में ध्वनि विद्या का अब तक जितना प्रयोग हुआ है, वह स्थूल है, सूक्ष्म और कारण स्वरूप अभी भी अविज्ञात अप्रयुक्त है जो स्थूल की तुलना में कई गुना अधिक सामर्थ्यवान है। मन्त्रों में शब्दों की स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म एवं कारण शक्ति का अधिक महत्व है। मानवी व्यक्तित्व की गहरी परतों- मन एवं अन्तःकरण को मन्त्र की सूक्ष्म एवं कारण शक्ति ही प्रभावित करती है। व्यक्तित्व का रूपान्तरण- विचारों में परिवर्तन उसके प्रभाव से ही होता है। यों तो वेदों के हर मन्त्र एवं छन्द का अपना महत्व है। देखने में गायत्री महामन्त्र भी अन्य मन्त्रों की तरह सामान्य ही लगता है, जो नौ शब्दों तथा 24 अक्षरों से मिलकर बना है। पर जिन कारणों से उसकी विशिष्टता आँकी गई है वे हैं- मन्त्र के विशिष्ट क्रम में अक्षरों एवं शब्दों का गुँथन प्रवाह, उनका चक्र-उपत्यिकाओं पर प्रभाव तथा उसकी महान प्रेरणाएँ। हर अक्षर एक विशिष्ट क्रम में जुड़कर असीम शक्तिशाली बन जाता है। 24 रत्नों के रूप में अक्षरों के नवनीत का एक मणिमुक्तक बना तथा आदिकाल में प्रकट हुआ। ब्रह्म की स्फुरणा के रूप में गायत्री मन्त्र का प्रादुर्भाव हुआ तथा आदि मन्त्र कहलाया। सामर्थ्य की दृष्टि से इतना विलक्षण एवं चमत्कारी अन्य कोई भी मन्त्र नहीं है। दिव्य प्रेरणाओं की उसे गंगोत्री कहा जा सकता है। संसार के किसी भी धर्म में इतना संक्षिप्त, पर इतना अधिक सजीव एवं सर्वांगपूर्ण कोई भी प्रेरक दर्शन नहीं है जो एक साथ उन सभी प्रेरणाओं को उभारे जिनसे महानता की ओर बढ़ने तथा आत्मबल सम्पन्न बनने का पथ-प्रशस्त होता है। ब्रह्म की अनुभूति शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्म के रूप में भी होती है जिसकी सूक्ष्म स्फुरणा हर पर सूक्ष्म अन्तरिक्ष में हो रही है। गायत्री महामन्त्र नाद ब्रह्म तक पहुँचने का एक सशक्त माध्यम है। प्राचीन काल की तरह सामान्य व्यक्ति को भी अतिमानव- महामानव बना देने की सामर्थ्य उसमें मौजूद है। आवश्यकता इतनी भर है कि गायत्री मन्त्र की उपासना के विधि-विधानों तक ही सीमित न रहकर उसने निहित दर्शन एवं प्रेरणाओं को भी हृदयंगम किया जाय और तद्नुरूप अपने व्यक्तित्व को ढाला जाय। पूरी श्रद्धा के साथ मन्त्र का अवलम्बन लिया जा सके तो आज भी वह पुरातन काल की ही तरह चमत्कारी सामर्थ्यदायी सिद्ध हो सकता है।

    राजकुमार और उसके पुत्र के बलिदान की कहानीः- किसी समय शूद्रक नामक राजा राज्य किया करता था। उसके राज्य में वीरवर नामक महाराजकुमार किसी देश से आया और राजा की ड्योढ़ी पर आ कर द्वारपाल से बोला, मैं राजपुत्र हूँ, नौकरी चाहता हूँ। राजा का दर्शन कराओ। फिर उसने उसे राजा का दर्शन कराया और वह बोला-- महाराज, जो मुझ सेवक का प्रयोजन हो तो मुझे नौकर रखिये, शूद्रक बोला - तुम कितनी तनख्वाह चाहते हो ? वीरवर बोला -- नित्य पाँच सौ मोहरें दीजिये। राजा बोला -- तेरे पास क्या- क्या सामग्री है ? वीरवर बोला -- दो बाँहें ओर तीसरा खड्ग। राजा बोला यह बात नहीं हो सकती है। यह सुनकर वीरवर चल दिया। फिर मंत्रियों ने कहा-- हे महाराज, चार दिन का वेतन दे कर इसका स्वरुप जान लीजिये कि यह क्या उपयोगी है, जो इतना धन लेता है या उपयोगी नहीं है। फिर मंत्री के वचन से बुलवाया और वीरवर को बीड़ा देकर पाँच सौ मोहरें दे दी। और उसका काम भी राजा ने छुप कर देखा। वीरवर ने उस धन का आधा देवताओं को और ब्राह्मणों को अर्पण कर दिया। बचे हुए का आधा दुखियों को, उससे बचा हुआ भोजन के तथा विलासादि में खर्च किया। यह सब नित्य काम करके वह राजा के द्वार पर रातदिन हाथ में खड्ग लेकर सेवा करता था और जब राजा स्वयं आज्ञा देता, तब अपने घर जाता था। फिर एक समय कृष्णपक्ष की चौदस के दिन, रात को राजा को करुणासहित रोने का शब्द सुना। शूद्रक बोला - यहाँ द्वार पर कौन- कौन है ? उसने कहा - महाराज, मैं वीरवर हूँ। राजा ने कहा - रोने की तो टोह लगाओं। जो महाराज की आज्ञा, यह कहकर वीरवर चल दिया और राजा ने सोचा- यह बात उचित नहीं है कि इस राजकुमारों को मैंने घने अंधेरे में जाने की आज्ञा दी। इसलिये मैं उसके पीछे जा कर यह क्या है, इसका निश्चय कर्रूँ।  फिर राजा भी खड्ग लेकर उसके पीछे नगर से बाहर गया और वीरवर ने जा कर उस रोती हुई, रुप तथा यौवन से सुंदर और सब आभूषण पहिने हुए किसी स्री को देखा और पूछा - तू कौन है ? किसलिये रोती है ? स्री ने कहा - मैं इस शूद्रक की राजलक्ष्मी हूँ। बहुत काल से इसकी भुजाओं की छाया में बड़े सुख से विश्राम करती थी। अब दूसरे स्थान में जाऊँगी। वीरवर बोला - जिसमें नाश का संभव है, उसमें उपाय भी है। इसलिए कैसे फिर यहाँ आपका रहना होगा ? लक्ष्मी बोली - जो तू बत्तीस लक्षणों से संपन्न अपने पुत्र शक्तिधर को सर्वमंगला देवी की भेंट करे, तो मैं फिर यहाँ बहुत काल तक रहूँ। यह कह कर वह अंतर्धान हो गई। फिर वीरवर ने अपने घर जा कर सोती हुई अपनी स्री को और बेटे को जगाया। वे दोनों नींद को छोड़, उठ कर खड़े हो गये। वीरवर ने वह सब लक्ष्मी का वचन उनको सुनाया। उसे सुन कर शक्तिधर आनंद से बोला - मैं धन्य हूँ, जो ऐसे, स्वामी के राज्य की रक्षा के लिए मेरा उपयोग प्रशंसनीय है। इसलिए अब विलंब का क्या कारण है ? ऐसे काम में देह का त्याग प्रशंसनीय है।

     धनानि जीवितं चैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत। सन्निमित्ते वरंत्यागो विनाशे नियते सति।। अर्थात, पण्डित को परोपकार के लिए धन और प्राण छोड़ देने चाहिए, विनाश तो निश्चत होगा ही, इसलिये अच्छे कार्य के लिए प्राणों का त्याग श्रेष्ठ है। शक्तिधर की माता बोली - जो यह नहीं करोगे तो और किस काम से इस बड़े वेतन के ॠण से उनंतर होगे ? यह विचार कर सब सर्वमंगला देवी के स्थान पर गये। वहाँ सर्वमंगला देवी की पूजा कर वीरवर ने कहा - हे देवी, प्रसन्न हो, शूद्रक महाराज की जय हो, जय हो। यह भेंट लो। यह कह कर पुत्र का सिर काट डाला। फिर वीरवर सोचने लगा कि - लिये हुए राजा के ॠण को तो चुका दिया। अब बिना पुत्र के जीवित किस काम का ? यह विचार कर उसने अपना सिर काट दिया। फिर पति और पुत्र के शोक से पीड़ित स्री ने भी अपना सिर काट डाला, तब राजा आश्चर्य से सोचने लगा,

    जीवन्ति च म्रियन्ते च मद्विधा: क्षुद्रजन्तवः। अनेन सदृशो लोके न भूतो न भविष्यति।।

     अर्थात, मेरे समान नीच प्राणी संसार में जीते हैं और मरते भी हैं, परंतु संसार में इसके समान न हुआ और न होगा। इसलिए ऐसे महापुरुष से शून्य इस राज्य से मुझे भी क्या प्रयोजन है बाद में शूद्रक ने भी अपना सिर काटने को खड्ग उठाया। तब सर्वमंगला देवी ने राजा का हाथ रोका और कहा- हे पुत्र, मैं तेरे ऊपर प्रसन्न हूँ, इतना साहस मत करो। मरने के बाद भी तेरा राज्य भंग नहीं होगा। तब राजा साष्टांग दंडवत और प्रणाम करके बोला -- हे देवी, मुझे राज्य से क्या है या जीन से भी क्या प्रयोजन है ? जो मैं कृपा के योग्य हूँ तो मेरी शेष आयु से स्री पुत्र सहित वीरवर जी उठे। नहीं तो मैं अपना सिर काट डालूँगा। देवी बोली"-- हे पुत्र, जाओ तुम्हारी जय हो। यह राजपुत्र भी परिवार सहित जी उठे। यह कह कर देवी अन्तध्र्यान हो गई। बाद में वीरवर अपने स्री- पुत्र सहित घर को गया। राजा भी उनसे छुप कर शीघ्र रनवास में चला गया। इसके उपरांत प्रातःकाल राजा ने ड्योढ़ी पर बैठे वीरवर से फिर पूछा और वह बोला- हे महाराज, वह रोती हुई स्री मुझे देखकर अंतध्र्यान हो गई, और कुछ दूसरी बात नहीं थी। उसका वचन सुन कर राजा सोचने लगा -""इस महात्मा की किस प्रकार बड़ाई कर्रूँ।''

     प्रियं ब्रूयादकृपणः शूरः स्यादविकत्थनः। दाता नापात्रवर्षी च प्रगल्भः स्यादनिष्ठुरः।

     क्योंकि, उदार पुरुष को मीठा बोलना चाहिये, शूर को अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये, दाता को कुपात्र में दान नहीं करना चाहिए और उचित कहने वाले को दयारहित नहीं होना चाहिये।  यह महापुरुष का लक्षण इसमें सब है। बाद में राजा ने प्रातःकाल शिष्ट लोगों की सभा करके और सब वृत्तांत की प्रशंसा करके प्रसन्नता से उसे कर्नाटक का राज्य दे दिया। 

      एक समय की बात है । एक नगर में एक कंजूस राजेश नामक व्यक्ति रहता था । उसकी कंजूसी सर्वप्रसिद्ध थी । वह खाने, पहनने तक में भी कंजूस था । एक बात उसके घर से एक कटोरी गुम हो गई । इसी कटोरी के दुःख में राजेश ने 3 दिन तक कुछ न खाया । परिवार के सभी सदस्य उसकी कंजूसी से दुखी थे । मोहल्ले में उसकी कोई इज्जत न थी, क्योंकि वह किसी भी सामाजिक कार्य में दान नहीं करता था । एक बार उस राजेश के पड़ोस में धार्मिक कथा का आयोजन हुआ । वेदमंत्रों व् उपनिषदों पर आधारित कथा हो रही थी । राजेश को सद्बुद्धि आई तो वह भी कथा सुनने के लिए सत्संग में पहुँच गया । वेद के वैज्ञानिक सिद्धांतों को सुनकर उसको भी रस आने लगा क्योंकि वैदिक सिद्धान्त व्यावहारिक व् वास्तविकता पर आधारित एवं सत्य-असत्य का बोध कराने वाले होते है । कंजूस को ओर रस आने लगा । उसकी कोई कदर न करता फिर भी वह प्रतिदिन कथा में आने लगा । कथा के समाप्त होते ही वह सबसे पहले शंका पूछता । इस तरह उसकी रूचि बढती गई । वैदिक कथा के अंत में लंगर का आयोजन था इसलिए कथावाचक ने इसकी सूचना दी कि कल लंगर होगा । इसके लिए जो श्रद्धा से कुछ भी लाना चाहे या दान करना चाहे तो कर सकता है । अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार सभी लोग कुछ न कुछ लाए । कंजूस के हृदय में जो श्रद्धा पैदा हुई वह भी एक गठरी बांध सर पर रखकर लाया । भीड़ काफी थी । कंजूस को देखकर उसे कोई भी आगे नहीं बढ़ने देता । इस प्रकार सभी दान देकर यथास्थान बैठ गए । अब कंजूस की बारी आई तो सभी लोग उसे देख रहे थे । कंजूस को विद्वान की ओर बढ़ता देख सभी को हंसी आ गई क्योंकि सभी को मालूम था कि यह महाकंजूस है । उसकी गठरी को देख लोग तरह-तरह के अनुमान लगते ओर हँसते । लेकिन कंजूस को इसकी परवाह न थी । कंजूस ने आगे बढ़कर विद्वान ब्राह्मण को प्रणाम किया । जो गठरी अपने साथ लाया था, उसे उसके चरणों में रखकर खोला तो सभी लोगों की आँखें फटी-की-फटी रह गई । कंजूस के जीवन की जो भी अमूल्य संपत्ति गहने, जेवर, हीरे-जवाहरात आदि थे उसने सब कुछ को दान कर दिया। उठकर वह यथास्थान जाने लगा तो विद्वान ने कहा, “महाराज! आप वहाँ नहीं, यहाँ बैठिये ।” कंजूस बोला, “पंडित जी! यह मेरा आदर नहीं है, यह तो मेरे धन का आदर है, अन्यथा मैं तो रोज आता था और यही पर बैठता था, तब मुझे कोई न पूछता था।” ब्राह्मण बोला, “नहीं, महाराज! यह आपके धन का आदर नहीं है, बल्कि आपके महान त्याग (दान) का आदर है । यह धन तो थोड़ी देर पहले आपके पास ही था, तब इतना आदर-सम्मान नहीं था जितना की अब आपके त्याग (दान) में है इसलिए आप आज से एक सम्मानित व्यक्ति बन गए है। शिक्षा :-  मनुष्य को कमाना भी चाहिए और दान भी अवश्य देना चाहिए । इससे उसे समाज में सम्मान और इष्टलोक तथा परलोक में पुण्य मिलता है । 

        ४. अघ्न्याः= तुम अहिंसक बनोः-  अहिंसक बनने से पहले हमें यह जानना होगा की अहिंसा है क्या?  “अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: l (अर्थात् यदि अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है और धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना उस से भी श्रेष्ठ है) "अहिंसा" का अर्थ है सर्वदा तथा सर्वदा (मनसा, वाचा और कर्मणा) सब प्राणियों के साथ द्रोह का अभाव। (अंहिसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह: - व्यासभाष्य, योगसूत्र 2। 30)। अहिंसा के भीतर इस प्रकार सर्वकाल में केवल कर्म या वचन से ही सब जीवों के साथ द्रोह न करने की बात समाविष्ट नहीं होती, प्रत्युत मन के द्वारा भी द्रोह के अभाव का संबंध रहता है। योगशास्त्र में निर्दिष्ट यम तथा नियम अहिंसामूलक ही माने जाते हैं। यदि उनके द्वारा किसी प्रकार की हिंसावृत्ति का उदय होता है तो वे साधना की सिद्धि में उपादेय तथा उपकार नहीं माने जाते। "सत्य" की महिमा तथा श्रेष्ठता सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, परंतु यदि कहीं अहिंसा के साथ सत्य का संघर्ष घटित हाता है तो वहाँ सत्य वस्तुत: सत्य न होकर सत्याभास ही माना जाता है। कोई वस्तु जैसी देखी गई हो तथा जैसी अनुमित हो उसका उसी रूप में वचन के द्वारा प्रकट करना तथा मन के द्वारा संकल्प करना "सत्य" कहलाता है, परंतु यह वाणी भी सब भूतों के उपकार के लिए प्रवृत्त होती है, भूतों के उपघात के लिए नहीं। इस प्रकार सत्य की भी कसौटी अहिंसा ही है। इस प्रसंग में वाचस्पति मिश्र ने "सत्यतपा" नामक तपस्वी के सत्यवचन को भी सत्याभास ही माना है, क्योंकि उसने चोरों के द्वारा पूछे जाने पर उस मार्ग से जानेवाले सार्थ (व्यापारियों का समूह) का सच्चा परिचय दिया था। हिंदू शास्त्रों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय (न चुराना), ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह, इन पाँचों यमों को जाति, देश, काल तथा समय से अनवच्छिन्न होने के कारण समभावेन सार्वभौम तथा महाव्रत कहा गया है (योगवूत्र 2। 31) और इनमें भी, सबका आधारा होने से, "अहिंसा" ही सबसे अधिक महाव्रत कहलाने की योग्यता रखती है। अंतर्ध्यान – अंहिंसा क्या है ? अहिंसा का एक साधारण अर्थ जो हमें बताया जाता है – “हिंसा न करना” ही अहिंसा है । हिंसा नहीं करनी चाहिए क्योंकि हिंसा करना पाप है जबकि अहिंसा परम धर्म है । क्या सही में अहिंसा का वही अर्थ है जो हमें बताया जा रहा है, जो हमें सिखाया जा रहा है, जो हम सुनते आ रहे हैं । ये विचार मेरे दिमाग में इसलिए आया क्योंकि अगर अहिंसा ही परम धर्मं होता तो क्या कृष्ण जी ने पूरी गीता में अर्जुन को हथियार उठाने और युद्ध के लिए प्रेरित करके अधर्म किया था ? वो गलत था या हमारे समझने में कुछ फेर है ? क्योंकि अगर अहिंसा का अर्थ हिंसा न करना होता और अहिंसा ही परम धर्म होता तो क्या महाराणा प्रताप, महाराणा सांगा, शिवा जी, रानी लक्ष्मीबाई, ये सब अधर्मी थे क्या ? क्या अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए इन्होने जो युद्ध किये वो केवल अधर्म का ही अनुसरण था ? रामायण में कहा गया है –“जननी धर्म भूमिश्च, स्वर्गादपि गरीयसी”, तो उस मातृभूमि की रक्षा के लिए जो हिंसा की जाए, वो अधर्म कैसे हो सकती है । जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है, या तो गीता और रामायण गलत बता रहे हैं या फिर “अहिंसा परमो धर्मः” को समझने में कुछ भूल है । स्कन्द पुराण में लिखा है कि एक ब्राहमण भी यदि स्त्री रक्षा, गौ रक्षा और कुटुंब की रक्षा के लिए शस्त्र उठा ले और लड़ते लड़ते मारा जाए तो उसकी गति उन परम तपस्विओं के फल से भी कहीं अधिक होती हैं जो हजारों वर्षों से तपस्या कर रहे हैं । मैंने जब और ढूँढा तो मैंने मनुस्मृति का वो श्लोक पढ़ा जिसमें धर्म के दस लक्षण बताये गए हैं –“धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम।। इसमें धर्म के दस लक्षण हैं पर कहीं भी अहिंसा नहीं है, हाँ, अक्रोध अवश्य है ।  पर अक्रोध और अहिंसा तो अलग अलग है ।फिर अहिंसा परम धर्म कैसे हुआ ? क्या ये सारे शास्त्र, पुराण धर्म के बारे में कुछ गलत कह रहे हैं या हम अहिंसा को कुछ गलत समझ रहे हैं ? इन सारी बातों पर बहुत विचार करने पर एक निष्कर्ष निकला कि अहिंसा का अर्थ “हिंसा न करना” नहीं है अपितु अंहिंसा का जो संभव अर्थ हो सकता है – “अकारण हिंसा न करना” । किसी जीव को अकारण नुक्सान न पहुँचाना ही अहिंसा है, चाहे मानसिक हो या शारीरिक क्योंकि हिंसा मानसिक भी हो सकती है । हाँ, यदि आपके पास कारण है, यदि सामने कोई आताताई है, यदि कोई किसी स्त्री का शोषण कर रहा है, यदि कोई आपके कुटुंब पर आघात करता हो, यदि कोई आपकी मातृभूमि पर कब्ज़ा करने का प्रयास करता है तो हिंसा आवश्यक है और परम पुण्य की प्राप्ति कराने वाली है। समय के साथ बहुत सी बातें और बहुत सा ज्ञान विलुप्त हो रहा है, ऐसा इसलिए नहीं कि कलियुग है या फलाना है या ढिकाना  है, वरन इसलिए क्योंकि हमने शब्दों के अर्थ बदल दिए हैं। हम शब्दों के अर्थों पर उतना मनन नहीं करते जितना आवश्यक है क्योंकि ये कार्य तो हमने विचारकों के लिए छोड़ दिया है। जो बाबा जी ने स्टेज पर से बता दिया वही सही है, क्यों सही है ? अरे देखो कितने लोग इनको करते है । ये क्या गलत कहेंगे ? इन्होने इतने शास्त्रों का अध्ययन किया है, ये क्या गलत बात बोलेंगे ? ये जो खुद की बुद्धि को प्रयोग न करने वाली जो प्रवुत्ति है, ये जो खुद को विचार न करने देने की प्रवृत्ति है, ये खतरनाक है।  इसने ही धर्म का नाश किया है। आप केवल बाबाओं के भाषण मत सुनिए, उनसे प्रश्न कीजिये । गुरु-शिष्य परम्परा कभी प्रचवन वाली नहीं रही। उसमें शिष्य अपने अज्ञान को मिटाने के लिए अपने गुरु से विभिन्न प्रश्न करता है और गुरु उन प्रश्नों का समाधान करते हैं।  आप भी प्रश्न कीजिये। पूछिए अपने गुरुओं से, बाबाओं से, डरिये मत कि लोग क्या कहेंगे ? कहने दीजिये लोग जो कहते हैं, यदि आप को सही में ज्ञान चाहिए तो आपको खड़े हो कर सवाल करने पड़ेंगे। चीजो को सही में समझना होगा। धर्म क्या है इसके अंत तक जाना पड़ेगा। यदि आप धर्म को सझते हैं तो आपका जीवन ऊर्ध्वगामी होगा अन्यथा जो बाबा जी कह रहे हैं उसे  कीजिये और किसी भी बात को मान कर के उसे अपने जीवन में उतारिये। आप समझ रहे हैं कि आप धर्म कर रहे हैं, पुण्य कार्य कर रहे हैं किन्तु वास्तव में आपके जीवन में सिवाय कष्टों के कुछ नहीं है। इस बात को समझना होगा कि तिलक छापे लगाने वाला आवश्यक नहीं कि पंडित हो, पंडित का अर्थ तो है ग्यानी, जिसने वेद का, पुराणों का, शास्त्रों का अध्ययन किया हो और न केवल अध्ययन किया हो वरन अध्ययन के बाद चिंतन भी किया हो।  हर कोई इतना अध्ययन नहीं कर सकता, इसलिए समाज में ब्राह्मण की परिकल्पना की गयी जिसका कार्य केवल समाज में ज्ञान का प्रचार और प्रसार था (ब्राहमणों में कई टाइप होते थे, जिनमें सभी कार्य ज्ञान का प्रचार प्रसार नहीं होता था)।  यदि आप को अपने जीवन में कोई कष्ट है, कोई समस्या है तो राह चलते किसी तिलक छापे वाले से मत पूछिए, किसी भी बाबा से मत पूछिए बल्कि अपने चारों ओर  ऐसे व्यक्ति को ढूंढिए जो सही में ग्यानी हो।  ऐसे व्यक्ति को, ऐसे गुरु को ढूंढना पड़ता है, वो आसानी से नहीं मिलते। वो तम्बू डेरा लगा कर भाषण देने नहीं आते।  पहले खुद को शिष्य बनाना पड़ेगा, सौम्य बनाना पड़ेगा, ये मानना पड़ेगा कि जो मुझे जो आता है, जो मैंने सीखा है वो पूर्ण नहीं है क्योंकि जब तक आपका खुद का गिलास खाली नहीं होगा, तब तक उसमें और जल नहीं भरा जा सकता। जब आप ये मान लेंगे, गुरु आपको मिलेगा और जब तक आप ये नहीं मानेगे, यकीन मानिए वो आपके सामने आकर निकल जाएगा और आप अपने अहंकार में ही डूबे रहेंगे कि मैंने तो इतना अध्ययन किया है, मैंने तो गीता पढ़ी है, मैंने तो फलाने गुरु जी से ज्ञान प्राप्त किया है, मुझे तो सब पता है।  जाने कितने पड़े हैं गीता पढ़ने वाले, जाने कितने पड़े हैं पुराण पढने वाले जिन्हें पूरी पूरी गीता कंठस्थ है किन्तु वो रट्टू तोते से ज्यादा कुछ नहीं…. वो केवल शब्दों का अर्थ जानते हैं, बता सकते हैं कि कौन से पेज पर, कौन से श्लोक में, क्या लिखा है लेकिन ये ज्ञान नहीं है, ज्ञान तो बिना चिंतन के बिना मनन के आ ही नहीं सकता। आपको ऐसा चिंतन करना पड़ेगा।  एक एक वाक्य पर, एक एक शब्द पर, आपके दिमाग में प्रश्न आयेंगे, आप उनका समाधान ढूंढिए, प्रश्न पूछिए अपने आप से, अपने गुरु से तभी आपको आगे का रास्ता साफ़ दिखाई देगा।|

       अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो दमः। अहिंसा परम दानं, अहिंसा परम तपः॥ अहिंसा परम यज्ञः अहिंसा परमो फलम्‌।

अहिंसा परमं मित्रः अहिंसा परमं सुखम्‌॥ महाभारत/अनुशासन पर्व (११५-२३/११६-२८-२९) याद रखने वाली बात है अहिंसा का अर्थ है अकारण हिंसा न करना।  जीव हत्या पाप है यदि अकारण हो किन्तु यदि वही जीव आप पर आक्रमण कर दे तो उसका वध करना ही उचित है। यदि कोई आपको या आपकी स्त्री को, कुटुंब को, गाय को और अन्यान्य प्राणियों को कष्ट पहुंचता है तो आपको भी हिंसा करनी पड़ेगी और उस समय वह धर्म होगा। बस आपकी ओर से हिंसा शुरू नहीं होनी चाहिए वो भी अकारण।  तब ये अहिंसा ही धर्म बन जाती है।

    अहिंसा की कामना या हिंसा की वासना से मुक्त हो जाने का क्या अर्थ है? बहुत मजे की बात है कि ये सारे भिन्न-भिन्न मार्ग बहुत गहरे में कहीं एक ही मूल से जुड़े होते हैं। जब तक मनुष्य के मन में इंद्रियों का लोभ है, तब तक हिंसा से मुक्ति असंभव है। जब तक आदमी इंद्रियों को तृप्त करने के लिए विक्षिप्त है, तब तक हिंसा से मुक्ति असंभव है। इंद्रियां पूरे समय हिंसा कर रही हैं। जब आपकी आंख किसी के शरीर पर वासना बन जाती है, तब हिंसा हो जाती है। तब आपने बलात्कार कर लिया। अदालत में नहीं पकड़े जा सकते हैं आप, क्योंकि अदालत के पास आंखों से किए गए बलात्कार को पकड़ने का अब तक कोई उपाय नहीं है। लेकिन जब आंख किसी के शरीर पर पड़ी और आंख मांग बन गई, काम बन गई, वासना बन गई; और आंख ने एक क्षण में उस शरीर को चाह लिया, पजेस कर लिया; एक क्षण में उस शरीर को भोगने की कामना का धुआं चारों तरफ फैल गया–बलात्कार हो गया। आंख से हुआ, आंख शरीर का हिस्सा है। आंख से हुआ, आंख के पीछे आप खड़े हैं। आंख से हुआ, आपने किया; हिंसा हो गई। हिंसा सिर्फ छुरा भोंकने से नहीं होती, आंख भौंकने से भी हो जाती है। इंद्रियां जब तक आतुर हैं भोगने को, तब तक हिंसा जारी रहती है। इंद्रियां जब भोगने को आतुर नहीं रहतीं, तभी हिंसा से छुटकारा है। जिसे हम हिंसा कहते हैं, वह कब पैदा होती है? यह सूक्ष्म हिंसा छोड़ें; जिसे हम हिंसा कहते हैं, स्थूल, वह कब पैदा होती है? वह तभी पैदा होती है, जब आपकी किसी कामना में अवरोध आ जाता है, अटकाव आ जाता है। तभी पैदा होती है। अगर आप किसी के शरीर को भोगना चाहते हैं और कोई दूसरा बीच में आ जाता है; या जिसका शरीर है, वही बीच में आ जाता है कि नहीं भोगने देंगे–तब हिंसा शुरू होती है। जब भी आपकी इंद्रियां भोगने के लिए कहीं कब्जा मांगती हैं और कब्जा नहीं मिल पाता, तभी हिंसा शुरू हो जाती है। स्थूल हिंसा शुरू हो जाती है। सूक्ष्म हिंसा पहले, भाव हिंसा पहले, फिर हिंसा सक्रिय होती और स्थूल बन जाती है। कृष्ण कहते हैं, अहिंसा के मार्ग से भी, अर्थात इंद्रियों से जिसने अब मांगना छोड़ दिया, इंद्रियां जिसके भिक्षापात्र न रहीं; इंद्रियों से जिसने छेदना छोड़ दिया, इंद्रियां जिसके शस्त्र न रहीं; इंद्रियों से जिसने आक्रमण छोड़ दिया। ध्यान में जाना हो, तो पहले प्रतिक्रमण। कभी आपने सोचा है कि प्रतिक्रमण का मतलब होता है, आक्रमण से उलटा! आक्रमण का मतलब है, दूसरे पर हमला। प्रतिक्रमण का मतलब है, आक्रमण की सारी शक्तियों को अपने में वापस लौटा ले जाना प्रतिक्रमण, आंख गई आप पर आक्रमण करने को, तो हिंसा हो गई। और मैंने आंख को वापस लौटा लिया उसकी पूरी कामना के साथ अपने भीतर, अपने भीतर, गहरे में वहां, जहां से उठती है कामना, वहीं उसे ले गया वापस–तो यह हुआ प्रतिक्रमण। और जब प्रतिक्रमण हो, तभी ध्यान हो सकता है, अन्यथा ध्यान नहीं हो सकता। क्योंकि आक्रमण करने वाली इंद्रियों के साथ ध्यान कैसा? प्रतिक्रमण करने वाली इंद्रियों के साथ ध्यान फलित हो सकता है। कृष्ण कहते हैं, अहिंसा के मार्ग से भी, अर्थात आक्रमण जो नहीं कर रहा। अब ध्यान रखें, अगर ठीक से समझें, तो किसी भी तल पर आक्रमण की कामना हिंसा है–किसी भी तल पर। सूक्ष्म से सूक्ष्म तल पर भी आक्रमण की इच्छा हिंसा है। अनाक्रमण, प्रतिक्रमण, शक्तियों को लौटा लेना वापस अपने में–आंख लौट जाए आंख के मूल में; कान लौट जाए कान के मूल में; स्वाद लौट जाए स्वाद के मूल में; फैलाव बंद हो; सब सिकुड़ आए अपने मूल में–जब ऐसा प्रतिक्रमण फलित हो, तब व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध हो पाता है। अहिंसा का अर्थ है, प्रतिक्रमण, लौटना, हिंसा का मतलब है, जाना दूसरे के ऊपर, किसी भी रूप में दूसरे के ऊपर जाना। दूसरे पर जाना! यह हिंसा शत्रुतापूर्ण भी हो सकती है, मित्रतापूर्ण भी हो सकती है। जो नासमझ हैं, वे शत्रुता के ढंग से दूसरे पर जाते हैं; जो होशियार हैं, वे मित्रतापूर्ण ढंग से दूसरों के ऊपर जाते हैं। लेकिन जब तक कोई दूसरे पर जाता है, तब तक हिंसा है। और जब कोई दूसरे पर जाता ही नहीं, अपने जाने को ही वापस लौटा लेता है, तब अहिंसा है। इस अहिंसा के क्षण में भी वही हो जाता है, जो योगाग्नि में जलकर होता है।


५. इन्द्राय भागम्= परमेश्वर के सानिध्य में रहो।

       मेरे प्रिय आत्म मन मैं अपना अनुभव तुम सब के साथ बाट रहा हूं। मैंने अपने गहन अनुभव और शोध से यह जाना है कि इस संसार में रहना है। और सफलता को हासिल करना है, और अपने लिये अच्छा कुछ श्रेष्ठ करना चाहते हो, तो तुम्हें कुछ एक वस्तुओं का जीवन में अस्थान नही देना चाहिये। पहली सबसे खतरनाक वस्तु है शान्ती, दूसरी सरलता, तीसरी सज्जनता। यह केवल शब्द कोश में ही रहें तो बहुत अच्छा है। यदी इनका अस्थान जीवन में हो गया तो जीवन का रहना बहुत कठीन और दुस्कर होगा। जो लोग शान्ती, सरलता और  सज्जनता निर्दोषता की बातें करते है। वह सारे धुर्त के हिंसक और बहुत खतरनाक किस्म के व्यक्ती है। इनसे तुम्हे सावधान रहना चाहिये। अब संसार बदल गया है आज के संसार मे एक सरल शान्त और सज्जन निर्दोष आदमी का जीवन जीना एक आत्मा हत्या के समान है। और कौन बुद्धिमान आदमी स्वयं की आत्म हत्या करना चाहता होगा? मेरे एक मित्र है जो बहुत शान्त और सज्जन किस्म के व्यक्ती है। वह हमेशा हर किसी के साथ बहुत सरलता से और प्रेम भाव से ही पेश आते है। जिसके कारण उनके जीवन में कोई भी व्यक्ती उनके साथ नहीं है हर आदमी उनको मुर्ख समझता है हलांकि वह बहुत इमानदार और बुद्धिमान व्यक्ती है। लेकिन उनकी वुद्धीमानी उनके लिये हमेशा एक नये संकट को ही खड़ी करती। उनके पिता भी उनसे खुश नहीं रहते क्योंकि वह अपनी शान्ती के कारण ही जरुरत से अधिक सहन शक्ती उनके पिता की दृष्टी में वह मुर्ख और बेकार समझे जाते है और हमेशां उनको तरह तरह यातना बचपन से देते रहे। जिसके कारण वह अक्सर मानसिक रूप से विक्षिप्त जैसे रहने लगे वह कोई कार्य सही ढंग से नहीं किया। उनकी पढ़ाई लिखाई भी पुरी नहीं हो सकी। वह अपने पीता के दुर्व्यवहार को लेकर हमेशा चिंतित और परेशान रहे। दोनों के संबंध बहुत कटुता पूर्ण बने रहें जो कभी भी सामंजस्य आपसे में नहीं बना पाये। उन्होने अपने घर को छोड़ दिया बाहर परदेश में रहने लगे लेकिन अत्यधिक शान्त स्वभाव के कारण वह लोगों की नजर में कायर और निकम्मे मुर्ख ही समझ में आये वह कही स्वयं को व्यवस्थित नहीं कर सके। उन्होंने अपने जीवन की परेशानियों और तनावों से मुक्ती पाने के लिये वह कई प्रकार के नशे का सेवन करने लगे और धिरे धिरे वह नशें के शिकार हो गये वह अपनी परेशानियों से उभर नहीं पाये, जीवन चलता रहा पहले से बढ़ कर जीवन ने उनके लिये नई नई चुनौतियों को खड़ा किया इसी बीच उनकी शादी भी गई। एक गरीब परिवार की लड़की के साथ, और वह अपने उसी घर में रहने लगे जिसमें उनका पिता ही उनका सबसे बड़ा शत्रु था। उसनें हमारे सज्जन शांत मित्र के लिये रोज नई एक परेशानियां खड़ी करने लगे। जिससे पूर्णतः मुक्त हो पाते की उनके यहां एक पुत्र का जन्म हुआ। जो एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी उनके लिये, लेकिन हमारें मित्र इसके लिये बिल्कुल तैयार नहीं थे। ना पत्नी की देख भाल करने में नाही उसकी आवश्यक्ता की पुर्ती करने में ही, इसमें एक नव जात का आना और उसकी देखभाल करना उनके लिये असंभव सिद्ध हुआ जिसके कारण बच्चा असमय बिमार हो कर मृत्यु को प्राप्त हुआ। यही नहीं इसके कुछ समय बाद उनकी पत्नी भी उनसे अत्यधिक तंग आ कर उनका साथ छोड़ कर चली गई और दूसरी दूनिया बसा लिया अर्थात किसी और से शादी कर ली। इसके बाद वह पहले ऐसे ही नौकरिया करते और छोड़ते रहें। सैकड़ो नौकरियां किया लेकिन कहीं पर ज्यादा समय तक टीक नहीं पाये। तो उन्होंने अपना स्वयं का एक छोटा व्यापार शुरु किया जो थोड़े समय तक ठीक रहा लेकिन उसने भी बहुत बुरी तरह से उनके परास्थ कर दिया। वह अपने धन्धे को आगें नहीं चला सके। वह फिर भी हिम्मत नहीं हारे उनके शाहस की मैं सराहना करता हूं की उन्हें कदम कदम पर हार का सामना करना पड़ा फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारा आगे एक नई योजना पर काम एक नये उत्साह के साथ शुरु कर दिया। उन्होंने एक विद्यालय चलाने का निर्णय किया कुछ दिन चलाया भी लेकिन उनके दुर्भाग्य ने उनका साथ नहीं छोड़ा और पहले से अधिक जोर से उनको पटका उनको एक एक रुपये के लिये परेशान कर दिया। उनका सब कुछ डुब गया। यहां तक उनका जीवन भी बचाना उनके लिये संकट पूर्ण हो गया, उनके लिये खाने पीने रहने की मुसिबत आ कर खड़ी हो गई। वह सन्यासी बन गये और भीछाटन करने लगे उस पर भी उनका गुजारा नहीं हो सका। क्योकि उनको कोई भीछा देने के लिये राजी नहीं था जैसे पुरी कायनात ही उनका शत्रु बन गई हो। वह वेचारे ना जी पा रहे थे ना मर ही पारे थे। मुस्किले तो सब पर आती है लेकिन उनके उपर तो एक से बढ़ एक मुसिबतों के पहाड़ ही गिरने लगे। उनको एक बहुत भंयकर बिमारी ने पकड़ लिया जिसका इलाज करा पाना उनके लिये । आसान नहीं था फिर भी वह उस बिमारी से उभरने के लिये जी जान से जुटे रहे, और किसी तरह से जो अपने कुछ परिचीत चाहने वाले कुछ अंतिम लोग थे पैसे का ऋण लेकर इलाज कराने के लिये। लेकिन उनको आशा जनक सफलता नहीं मिली। उनकी बिमारी बढ़ती ही गई जिसका उन्होंनें आपरेशन भी कराया मगर उसमें सफलता नहीं मीली। अर्थात वह बिमारी नहीं ठीक हुई। उसी हालत में उनको अपने लिये खाना बनाना और अपना सब काम अकेले ही देख भाल करना पड़ता, एकान्त जंगल की एक कुटी में रह कर करना पंड़ता था। जहां पर आयें दिन चोर बदमाश लुटेरें उनके पास आते और उनको परेशान करते थे। उनका वहां जीना मुस्किल लगने लगा। जब उनको निश्चित हो गया की यदी यहां रहे तो उनकी मृत्यु होना निश्चित होगा। और वह मरना नहीं चाहते थे। जैसा की कोई भी नहीं चाहता है। वह करना तो बहुत कुछ चाहते है लेकिन उसके लिये उनके पास ना ही साधन है। और ना ही लोग उनका साथ ही देना चाहते है उस स्थाना पर। इसलिये उन्होंने वह स्थान छोड़ने का निश्चय किया और वहां से अपनी जान बचाने के लिये एक शहर में चले गये जहां पर उन्होंने पहले अपनी सेवा दी थी। उस संस्थान के मालिक को उन पर दया आ गई और उसने उनको इस बिमारी की हालत में काम पर रख लिया। जहां पर वह काम कर करके आपना इलाज कराने लगे उनका सारा पैसा उनके इलाज में ही खर्च हो रहा है। लेकिन वह स्वस्थ नहीं हुए। इसलिये कहता हूं की इस शान्ती से दूर ही रहने में समझदारी है।

   ६. प्राजावतीः= श्रेष्ठ संतानों वाले बनो।

     संबंध क्या है, संबंधों पर ही यह दूनीया खड़ी है। संबंध कितने प्रकार के होते है। पती पत्नि का संबंध जो जिसे हम गृहस्थ जीवन कहते है जो सभी संबंधों का आधार है। आज के समय में संबंधों का मतलब बदल गया है। पहले लोग एक दूसरें के लिये ही जिते मरते थे एक दूसरें की इच्छा को ही अपनी इच्छा बना लेते थे। एक दूसरे के मन को वह जानने वाले थे उनके एक दूसरे के विचार, हृदय औप चित्त एक समान रहने वाले थे। जिस प्रकार से एक हाईड्रोजन और आक्सिजन के परमाणु आपस में मिल कर एक पानी के परमाणु को बनाते है। जो जीवन का मुल आधार है जीवन का सर्वप्रथम विकास जल में ही हुआ था ऐसा माना जाता है। यह जल दो अणुओं के मेल से बनता है। वह दो अणु ही स्त्री पुरुष के समान है। जीनको हम पती पत्नी कहते है यह भले ही दो अलग शरीर है लेकिन उनकी मानसिक स्थिती एक समान होती है। दोनों के शरीर में अन्तर है पुरुष शरीर आक्रामक है जबकी स्त्री शरीर शान्त है। जिस प्रकार से सूर्य है पुरुष के समान और स्त्री पृथिवी के समान है। इसी प्रकार से पानी में जो दो अणु है उसमें हाइड्रोजन आग के समान गरम और ज्वनलन शील है, जबति आक्सिजन सरल शान्त और ठन्डा है। इन दोनों विपरीत तत्वों में जब रासायनिक अभिक्रिया होती है तो एक नया पदार्थ उत्तपन्न होता है। लकिन जब दो भौतिक पदार्थ मिलते है तब उनके द्वारा कोई तीसरा नया पदार्थ उतपन्न नहीं होता है। पहले ऐसा नहीं था।

    यह गृहस्थ जीवन जो संसार के सभी वर्णों का मुख्य श्रोत है इन गृहस्थों के द्वारा ही और सभी संबंधों का आधार भुत स्तम्भ खड़ा होता है। यह जब तक सच्चे और वफादार रहते तो इनके द्वारा ही और भी संबंध में रिस्तो में पवित्रता और सच्चाई रहती है। जिस प्रकार से यदि सूर्य अपना स्वभाव बदल दे तो क्या होगा, जो वह गरमी देने वाला है वह ठण्डी देने कार्य करने लगे तो क्या यहां पृथ्वी पर जीवन का विकास संभव है। या फिर पृथ्वी जब गरम होने लगे सूर्य के समान तो क्या होगा, क्या यहां पर जीवन का रहना संभव होगा। दोनो ही स्थिती में जीवन का ही सर्वनाष होगा या सूर्य ठंडा हो जाये या फिर पृथ्वी गरम हो जाये।  इन दोनों के मध्य  रासायनिक अभीक्रिया होगी जिसके द्वारा एक नया तत्व उत्तपन्न होगा जिसका कार्य होगा मृत्यु की सृजन, यही बात जल के अणुओं के साथ भी है जो अाक्सिजन का स्वभाव शान्त है वह गरम हो जाये, और हाईड्रोजन शान्त ठंडा हो जाये तो भी जीवन का सर्वनाश ही होना निश्चित है। जल नहीं होगा अग्नी होगी जो जीवन उत्पादन के लिये सहयोगी तत्व नहीं है। इसी प्रकार से जब पुरुष का स्वभाव बदलता है वह शान्त होता जा रहा है और स्त्री गरम होती जा रही है। जो आज के युग के में हो रहा है आधुनिकता के नाम पर औरते आक्रमक बन रही है। पुरष शान्त और मन्दवुद्धि होते जा रहे है निरंतर। जिसका प्रभाव जीवन पर पड़ रहा है। इससे भौतिक परिवर्तन शारिक रूप से नहीं हो रहा है लेकिन रासायनिक परिवर्तन हो रहा है जो बहुत सुक्ष्म है इससे जो तीसरा तत्व उत्तपन्न जीवन का हो रहा है उसमें जीवन्तता कम हो रही है। वह निरंतर मृत्यु को उपलब्ध हो रहा है, जो उत्तपन्न हो रहा वह पहले से ही मृत्यु तत्व की अधिकता के साथ हो रहा है। अर्थात यह जो जीव उत्तपन्न हो रहा इन गृहस्थों के द्वारा यह संक्रमित चुका है इसके अन्दर से जीवन का ज्ञान पूर्णतः लुप्त हो चुका है। यह बहुत गंभिर और खतरनाक स्थिती है इस जीवन के लिये जो स्वभाव से ही पहले ज्ञान वान था। वह अब अज्ञान का वाहक बन चुका है। जैसा की पहले लोग जीवन से भरपुर होते थे वह बहुत अधिक शिक्षीत या शब्द ज्ञान वाले नहीं होते थे। इसके बाद भी वह लोग जो आविस्कार कर चुके थे जिसका आज के युग में वैज्ञानिकों पूर्णतः ज्ञान नहीं है। उदाहरण के लिये ऐसे कइ प्रमाण मिले है जो यह सिद्ध करते है की पहले के लोगों के पास हमारी तरह ज्ञान विज्ञान का साधन नहीं था इसके वावजुद उन लोगों ने जीवन को लम्बा जीया और विमारीयों से मुक्त रहते थे। वह एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर आते जाते थे और पहले बहुत ग्रहों पर लोग रहते थे। वह ब्रह्माण्ड की यात्रा करने में सक्षम थे। वह पृथ्वी और दूसरें ग्रहों से आत्मिक संबंध स्थापित कर लेते थे। वह सूर्य पर भी यात्रा करने में समर्थ थे। वह प्रत्येक वस्तु जिसे हम भौतिक वस्तु कहते है उनसे भी संबंध बना लेते थे और उनके अपने मन के मुताबिक ढाल लेते थे। जैसे एक पुस्पक विमान था जिसका वर्णन हमारे प्राचिन ऐतिहासिक शास्त्रों में मिलता है। वह विशेष प्रकार का विमान था जो मन की इच्छ से चलता था। उसमें कितने ही आदमी वैठ जाये फिर भी उसमें एक बैठने के लिये स्थान हमेशा खाली ही रहता था। वह आदमीयोंं के आधार पर अपने को बड़ा और हल्का कर सकता था। वह प्रकाश की गती से यात्रा करके एक ग्रह से दूसरे स्थान पर आ जा सकता था। पहले लोग अपने शरीर को मन के मुताबिक बड़ा और छोटा कर सकते थे। वह आकाश में उड़ सकते थे जमिन में प्रवेश कर सकते थे। मन के संकल्प मात्र से वह अपनी शरीर को किसी दूसरे शरीर के रूप में परिवर्तित कर सकते थे। जैसा की हम आज देखते है की जो मानव जिस शरीर के साथ जन्म लेता है उसी शरीर के साथ वह मरते समय तक रहता है। जबकी पहले लोग अपनी शरीर को पक्षी के समान या किसी और प्राणी के शरीर के समान कर लेते थे। और बहुत कुछ जो हम सब आज शब्द ज्ञान के चलते फिरते इनसाक्लोपिडीया के समान है फिर भी अपंग और परेशान पशु के समान जीवन जीने के लिये विवश है।

    संबंध का मतलब हम गलत निकाल रहें है आज के युग में, संबंध का मतलब है दो अब दो नहीं रहे वह एक हो गये है। अपने मन और आत्मा के स्तर पर जिस प्रकार से पानी के दो अणु एक जीवन रूप जल की बुंद को बनाते है। जिसे को योग कहते है यह एक संबंध है। इस योग के आविस्कार की जरुरत 

 योग ऋषि को क्यों पड़ी,इसके पिछे कारण है कि मानव अपने जीवन और ज्ञान के स्थर से निरंतर निचे गीरता जा रहा है। उसके ज्ञान के विकास के लिये, लकिन इससे मा नव का विकास नहीं हुआ उसका निरंतर हाराश ही होता रहा। आज का मानव स्वयं को भौतिक विकास के साथ समृद्ध और संपन्न करने की आकांक्षा रखता है, जैसा की उसको शिक्षीत किया गया है। यद्यपि यह अधुरी समृद्धी है क्योकि इस समृद्धी ने मानव को मानव से जोड़ने का काम नहीं किया हलांकी मानव और मानव के बिच में दूरीयां अवश्य बढ़ा दी है। यह योग नहीं है यह वियोग कहा जायेगा इसका मतलब यह की आज जिसे हम संबंध कहते है वह लोगों को एक दूसरें के साथ जोड़ने के बजाय तोड़ने का कार्य कर रहे है।

   यहां जो पृथ्वी पर मनुष्य बनाने की प्रकृया जब से प्रारम्भ हुई है यह गलत है इससे मनुष्य अभी तक एक भी नहीं बन पाया यद्यपी जानवरों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है। तो सबाल यह उठता है की आखिर सच्चा और वास्तविक मनव कैसे उत्तपन्न होगा क्या इसकी कोई संभावना है? केवल एक संभावना है वह है की हम स्वयं मनुष्य बने हमे बनाने वले हमेशा हमसे दूसरे है वह हमें नहीं जानते है वह स्वयं को भी पुरी तरह से नहीं जानते है। उनका संबंध स्वयं से नहीं है तो वह हमारा संबंध स्वयं से कैसे करायेगे?

      ७. अनमिवाः= निरोग रहने का प्रयाश करो सदा स्वस्थ रहो।

    जब मैं कहता हूं की मै ही इस ब्रह्मान्ड का केद्र हूं तो सबसे पहले एक बात का ध्यान रखना है की मुझे केवल शरीर मत समझना शरीर का स्वामी मैं चेतन आत्मा के रूप में एक ब्रह्माण्डीय प्राण उर्जा का मुख्य श्रोत प्राण हूं। मेरा कोई कोई रूप आकार या नाम नहीं है, मैं ही अनन्त नामों से जाना जाता हूं 

      हर वस्तु मुझसे ही शुरु होती है, और मुझमे ही वह वस्तु विलिन हो जाती है। मेरा कभी ना जन्म होता है ना ही मैं कभी मरता ही हूं । जो जन्म लेता है या मरता है वह हमारी शरीर है। जो मेरा थोड़े समय तक रहने का स्थान घर के समान है, इसको समय के साथ बदलता रहता हूं और कभी ऐसा भी होता है की इस शरीर के बिना भी रहता हूं। मुझे शरीर की जरुरत दृश्य मय जगत में रहने के लिये और कुछ विशेष कार्य करने के लिये पड़ती है। जिससे मैं उनके द्वारा अपने प्रमुख कार्यो को सिद्ध कर सकु, यदी सभी प्राणियों को सत्य का ज्ञान हो जायेगा तो सभी प्राणि इस दृश्य मय संसार और शरीर से मुक्त हो जायेगे। जिसके कारण यह जीवन रूप संसार का अन्त हो सकता है। जिसको मैं रोक कर रखता हूं सभी प्राणियों को मोह, माया, काम, क्रोध लोभ आदी वृत्तियों में उलझा कर रखता हूं। जिसके कारण यहां संसार से मुक्त होना बहुत कठीन और दुस्कर है। उसी प्रकार से जैसे की सूर्य को ठंडा करना किसी जीव के लिये मुस्किल ही नहीं असंभव है। क्योंकि यदी वह अपनी दुष्ट वृत्तियों के वशी भूत होकर ठंडा करने का प्रयाश करता है तो अपने जीवन के लिये ही भंयकरतम संकटो को खड़ा करता है। मैं यह जानता हूं की हर प्राणी अपने आप से बहुत अधिक प्रेम करता है किसी भी किमत पर वह मरना नहीं चाहता है। इसी भाव का सबसे अधिक फायदा उठा कर दूसरे प्राणियों को गुमराह करने के लिये और उनके सामने बड़ी बड़ी भयंकर चुनौतियों को खड़ी करके उसको परिस्कृत और नविनी करण करता हूं। मेरे द्वारा इततने बड़े बड़े संकटो को प्राणियों के सामने खड़ी करने बाद भी कुछ ऐसे पुरष होते रहते है समय के साथ जो इस दृश्मय जगत से मुक्त हो जाते है। और मुझे उपलब्ध कर लेते है। वास्तव मैं अशरिर ही हूं शरीर से जो मैं मुख्य कार्य करता हूं वह यह है की शुद्ध शब्दों का उच्चारण ब्रह्मज्ञान का विस्तार करता हूं जिससे ही ब्रह्म अर्थात मैं ज्ञान मतलब मेरी जान मेरा जीवन जो इस ब्रह्माण्ड रूपी शरीर के कारण ही है। मैं यही हूं इसे मैं जानता हूं। जिससे निरंतर शब्द के साथ उर्जा का निस्तारण मेरें द्वारा अनन्त प्राणी रूप शरीर से होता रहता है यह सिर्फ प्राणीयों के द्वारा ही नहीं होता है इसके साथ यह अनन्त ग्रह, अनन्त तारें और अनन्त ब्रह्माण्ड के साथ अनन्त आकाश गंगाये भी शब्दोंच्चारण  करती है। जिससे अनन्त प्रकार की उर्जाये निस्कासित होती रहती है जिससे अनन्त प्रकार के परमाणु निरंतर विकसीत होते रहते है। इसके साथ अनन्त जीवन के वाहक ग्रह तारे सौर्यमंडल इत्यादि बनते और नष्ट होते रहते है। यह मेरा कार्य अनन्त काल से ऐसा ही चलता आरहा है और ऐसा ही चलता रहेगा। इसका ना कही प्रारंभ है और ना ही कहीं पर इसका अंत ही है जिसके कारण ही लोग मुझे अनन्त भी कहते है। और यह कार्य निरंतर सदा से होता ऐसा ही आरहा है। कभी भी इस ब्रह्माण्ड से मानव या सम्पूर्ण जीवन का पूर्ण अन्त नहीं हूआ है। मैं हमेशा इस जीवन को आगे बढ़ाता रहता हूं। इस पृथ्वी पर जीवन के बीज को बोने से पहले मैंने मंगल आदी ग्रहों पर जीवन को पैदा कर चुका हूं। इसके अतिरीक्त भी अनन्त ग्रहों की यात्रा यह जीवन यहां पृथ्वी पर आने से पहले कर चुका है। जो कहते है की जीवन प्रथम विकास यहां पृथ्वी पर हुआ है यह गलत है। जीव सिर्फ शरीर को ही नहीं बदलता यद्यपी वह ग्रहों को भी बदलता रहता है। समय के साथ निरंतर जब उस ग्रह का दोहन पुरी तरह हो जाता है तो मैं दूसरे ग्रहों का निर्वाण करता हूं जिससे की यह जीवन उस ग्रह पर अपना निवास बना सके। जिस प्रकार से कोई प्राणी अपनी शरीर का त्याग करता है और पुनः नई शरीर को धारण करके अपने कर्मों के अनुसार नये जीवन के संसकारों का सृजन करता है। ऐसा यह ग्रह और नक्षत्र आदी भी करते है यह भी अपने शरीर का त्याग करते है। पुनः नये शरीरों को धारण अपनी तपस्या और शहन शक्ती की योग्यता के अनुसार करते है इस लिये तैतिस देवता में सर्व प्रथम आठ वसु है जो जीव को हर इस्थिती में स्वयं पर बसाते है और उनका अपने जीवन के अन्त तक हर प्रकार से पालन पोषण करते है। इन्ही गुणो को धारण करके मानव भी और दूसरे जीव भी स्वयं का उद्धार करने मे और स्वयं को विकसीत करके मुझ में समाहित हो जाते है।

८. अयक्ष्माः= यक्ष्मादि रोग से मुक्त रहो।

    हम ही इस दृश्य मय हजारों ब्रह्माण्डों के मुख्य केन्द्र या ब्रह्माण्डिय मानव है हमारे अन्दर ही वह अनन्त ब्रह्माण्डों का स्वामी विद्यमान हो कर वह त्रीकाल दर्शी हर पल शांशे ले रहा है। सम्पूर्ण दृश्य अदृश्य चरा चर जगत का नियंत्रण करता है। हमारे अन्दर ही वह वीग वैंग की घटना घट रही है और हमारे अन्दर ही वह ब्लैकहोल भी विद्यामान हो कर हर पल घट रहा है। वह हमारे द्वारा ही ब्रह्माण्डों का सृजन कराता है और हमारें द्वारा ही ब्रह्माण्डों को नष्ट भी कराता है। वह स्वयं कुछ भी नहीं करता है वह सारा कार्य हमारे द्वारा ही पूर्ण कराता है चाहे वह कार्य किसी के विकास के लिये उत्थान के लिये हो किसी के पतन या नाश करने के लिये भी वह हमारा ही उपयोग करता है हम सब उस अदृश्य सत्ता हमारे कर्म के मात्र मोहरे के अतिरीक्त कुछ भी नहीं है। हम स्वतन्त्र नहीं है हम सब उसकी परतंत्रता में ही अपना सम्पूर्ण जीवन जीते है। यदि कोई कहे की वह हमारे कर्मो का फल देता है यह सत्य नहीं है हम जैसा कर्म करते है उसका फल भी हम स्वयं ग्रहण कर लेते है इसमें उसका कोई  अधिकार नहीं है वह किसी को कभी ना ही प्रसन्न कर सकता है ना ही वह उसे दुःखी ही कर सकता है। हम मृत्यु के भयंकर निर्दयी पंजों में फंस चुके है तो उसमें हमारे स्वयं के कर्म ही कारण है उसमें वह परमेश्वर कुछ भी नहीं कर सकता है, वह हमें मृत्यु के घातक खतरनाक पंजो से मुक्त नहीं कर सकता है। हमने स्वयं के सर्वनाश में ही रस लेकर बहुत अधिक परिश्रम किया है। हमारे द्वार किये जाने वले कर्म के परिणाम का ज्ञान ना होने के कारण या लापरवाही के कारण जो कर्म किये जाते है। जिसका परिणाम हमारे लिये विनाश कारक सिद्ध होता है। मान लिया कोई एक पुरुष या स्त्री है जो नियम संयम से नहीं रहते है व्यभीचार करते है शरीर का निरंतर दोहन करते है कामुक्ता पूर्ण जीवन जीते है, उनका जीवन हमेशा दुःख मय होता है वह हमेशा अपने प्रत्येक कर्म से अपने लिये नये नये दुःखो का निरंतर सृजन करते है। इसके उपरान्त वह कितनी ही प्रार्थना या उपासना करते रहे, इससे उन्हे कोई फयादा नही होता है शीवाय इनकी परेशानी और बढ़ जाती है। हमारी प्रार्थना या उपासाना हमे ताकत वर बनाते है और हमारे संकल्प मनोबल की दृढ़ इच्छा शक्ती को बढ़ाते है, जिससे हम अपनी मुसबतों से पार बाहर निकलने में समर्थ होते है। इसमे उस परमेश्वर का कोई योग दान नहीं है। परमेश्वर कभी भी किसी का ना ही पक्ष में होता है नाही वह कभी विपक्ष ही किसी के होता है। वह हमेशा निस्पक्ष होता है। वह ना किसी को जन्म ही देता है ना ही वह किसी को मारता ही है। ना ही वह किसी को अमिर बनाता है ना ही वह किसी को गरीब ही बनाता है ना ही वह किसी को विद्वान बनाता है, नाही वह किसी को मुर्ख ही बनाता है। हम सब ही अपने पूर्ण मालिक है हमने ही अपने आप को ऐसा बनाया है जैसा की हम आज है। हम स्वयं की मृत्यु के स्वयं के जीवन के स्वयं के विकास के स्वयं के पतन के सब का सब दारोमदार अपना ही है। हम सब को गलत बनाया गया है, हम सब गैर जीम्मेदार किस्म के है अपनी कमियों और त्रुटियों का कारण दूसरो को घोषित करते है जिससे हमें दूसरों की नजर में उंचा उठने में सहायता मिलती है और स्वयं के अहंकार को बल मिलता है। हमारा कर्म जब हमारे स्वार्थ के वशी भुत हो कर किया जाता है तो वह हमे अपने वश में कर लेता है। हमारा स्वार्थ कितना क्षुद्र है जो किसी परमाणु या अणु के समान हो सकता है। या फिर हमारा कर्म और उसका स्वार्थ इतना बड़ा हो सकता है जितना बड़ा यह ब्रह्माण्ड है। यह हमारे स्वार्थ की दो श्रेणियां है एक परमाणु अणु की तरह बहुत सुक्ष्म गुप्त है क्षुद्र रूप है जिसके परिणाम से हम अनभिज्ञ होते है। इसका परिणाम बहुत खतरनाक होता है ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार से परमाणु बम कार्य करता है हमें हमारे अन्दर से ही पूरी तरह से निस्त नाबुत कर देता है। वहां किसी वस्तु का कभी सृजन नहीं होता है। वहां चारो तरफ हमेशा मृत्यु ही अपने परों को फैला कर ही रखती है। और एक दूसरे प्रकार का कर्म होता है जो बहुत बिशाल उद्देश्य को ध्यान में रख कर किया जाता है। जिसे हम परमेश्वर के समान कार्य करने वाले जो सभी परमाणुओं का संग्रह यह ब्रह्माण्ड जैसा कार्य है। जो प्रकृती करती है जिसको नियंत्रित करने के लिये यह मानव प्रयाश रत है कुछ हद तक कर लिया है कुछ अभी भी बाकी है, जिसके लिये प्रयाश रत है। एक तीसरे परकार का कर्म है जिस पर हमरे भरतिय मनिषों ने बहुत जोर दीया है। वह है निस्काम कर्म करने के लिये। निस्काम करम् का मतलब है जिसके पिछे हमार व्यक्तीगत कोई स्वार्थ ना हो जो करम्म करना यहा जगत में बहुत दुर्लभ हो चुका है।

९. मा वः स्तेनः ईशत= श्तेन अर्थात चोर लुटेरें तुम्हारें स्वामी ना बनने पाये।

   जब मै कहता हू की परमेश्वर का कोई योग दान नहीं है, हमारे जीवन में ऐसा इसलिये है क्योकि हम ही परमेश्वर है और हमारे जैसे ही जीतने जीवन के बिन्दु है उतने ही परमेश्वर भी है। इन सब के द्वारा जो उर्जा का विसर्जन हो रहा है उससे सिर्फ हमार ही जीवन ही नहीं बनता है यद्यपी हमारे अतिरीक्त जो हमारा ब्रह्माण्ड है वह भी निरंतर बढ़ रहा है। इसको हम पृथ्वी के सात घटा कर देख सकते है जैसा यह मानव है उसके अनुरुप ही पृथ्वी भी स्वयं को ढालती जा रही है। ह भी बन रहीं है यह मानव के अनुकुल बनने के लिये हर पल प्रयाश रत है। यहां रहने वाला मानव अपने जीवन को ले कर अत्यधिक संकट में दिखाई दे रहा है। इसका जीवन खतरे में यहा पृथ्वी पर नजर आ रहा है इस लिये यह यहा से कही और दूसरे किसी ग्रह पर अपना निवास अस्थान बनाने के लिये लगातार परिश्रम कर रहा है। यह पृथ्वी भी अब ठीक मनुष्य की तरह है इसे भी अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आ रहा है। ऐसा ही ब्रह्माण्ड के साथ भी हो रहा है। जीतना जीवन का विकास होगा उतना ही ब्रह्माण्ड का विकास होगा, जिसको विग वैगं के नाम से जानते है। और जितना जीवन का हराश होगा उतना ही उतना ही पृथ्वी का भी नाश होगा, इसके साथ ब्रह्माण्ड का भी पतन नाश होगा। जिसको ब्लैक होल कहते है। यह विग वैग की घटना एक परीवर्तन है जो हर परमाणु मे घट रही है, यह ब्लैक होल भी हर परमाणु में भी विद्य मान है। यह नया नहीं है यही जीवन और मृत्यु है। जब जीवन से भरे है तो आपका विकास हो रहा है जिस वैज्ञानिक भाषा में विग वैगं कहते है। लेकिन जब आप मृत्यु के साये को अपने चारों तरफ महशुष करते है तो यह वैज्ञानिक भाषा में ब्लैक होल है जो आपको पिघला कर आपका जो जीवन रस है उसे चुस रहा है। जो एक बार इस शरीर से मुक्त करके दूसरे शरीर के लिये तैयार कर रहा है।

    इस विश्व ब्रह्माण्ड के प्रारंभ में सर्वप्रथम सबका ज्ञात सबको जानने वाला और सबका उत्पादक सब को पैदा करने वाला, सबको विस्तायुक्त विस्तार कर्ता सब को फैलाने वाला, जो सब प्रकार के सद्गुण को धारण कर्ता सब का अद्वितिय प्रकाशका सूर्य के समान तेजस्वी है। सबसे श्रेष्ठ जिसमें सभी रुची लेते है जो अलौकिक अद्भुत प्रकाशयुक्त विषयों सबसे बहुमुल्य विषय है।  जिसको प्राप्त करने की योग्यता प्रत्येक मनुष्य जन्मजात धारण करता है। जिसको सबने पहले से ही प्राप्त ही कर रखा है, जिस परमेश्वर के प्रेम पूर्ण सामर्थ के वशी भूत होकर सभी आकाशगंगा, ब्रह्माण्ड, सौर्यमंडल, ग्रह आदि अपना अपनी धुरी पर निरंतर यथा स्थान निश्चित गती कर रहे है। जो ईश्वर ज्ञान का दृष्टान्त लोक और अपने व्याप्ती से सब को आच्छादित कर रहा है, वह ईश्वर मर्यादा से देखने योग्य अव्यक्त अदृश्यता के कारण जो आकाश स्थान को ग्रहण करता है।

१०. मा अघ शंसः = पापात्मा पुरुष के विचार तुम पर शासन ना करें।

    जिस ब्रह्मा के ब्रह्मज्ञान को जानने के लिये प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध सब लोक दृष्टान्त के समान है। जो सर्वत्र व्यापक सबका आवरण सबका प्रकाशक और सबका सुन्दर अनुशाशन कर्ता है। जिसने सभी को उनको नियम के साथ नियमन करके सभी छात्रों को जो लोकों के समान है लोकपाल है। उनको रखता है।  वहीं परमेश्वर हम सब के अन्तर्मन में अन्तर्यामी रूप में विद्यमान है जो निरंतर हम सब की हर कामना में सर्व श्रेष्ठ और उपसना करने के योग्य है। इसके अतिरीक्त कोई दूसरा पदार्थ इसके स्थान पर सेवन के योग्य करने नहीं है। और जो यह अद्भुत और अलौकिक कार्य करता है वही ब्राह्मण है जिसके लिये उसका ब्रह्मज्ञान सब कुछ है, जिस ब्राह्मण के पास ब्रह्मज्ञान नहीं है वह ब्राह्मण नहीं है वह कुछ और इसके अतिरीक्त है। यह ब्रह्मज्ञान सभी मनुष्यों को संतती के रूप में नहीं मिलता है यह अनुवांसिक वंस परम्परा का सम्वाहक नहीं है। इसके लिये केवल एक मार्ग है वह है पुरषार्थ के चरम उत्कर्ष को उपलब्ध होना ही ब्राह्मज्ञान है। जो सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी है वहीं सबका उत्पादक सबका माता पिता और सबका सच्चा निस्वार्थ निस्पक्ष गुरु है। वही यह सब निश्चित करता है कि कौन सा छात्र किस प्रकार की योग्यता रखता है। उसकी योग्यता के सामर्थ के अनुरुप ही वह ब्रह्मज्ञानी पुरुष उस छात्र को उसके लिये उपयुक्त शीक्षा का ज्ञान दे कर शीक्षित करता है। और उस विशेष कार्य के लिये इस भुमंडल पर नियुक्त करता है। क्योकि हर किसी के लिये हर प्रकार का विशेष ज्ञान उपलब्ध करना इस छोटे से जीवन में  संभव नहीं है। और ना हि हर व्यक्ती हर प्रकार का विशेष कार्य ही कर सकता है। इसके लिये कुछ विशेष व्यक्तियों का ही वह परम पुरुष निश्चित करता है। मानवों में अत्यधिक मानव लेवर किस्म के कार्य का संपादन करते है। जिस प्रकार से हर व्यक्ती ना ही किसी देश का प्रधान मंत्री बनता है ना ही राष्ट्रपती ही बनता है। ना ही हर व्यक्ती जज, चिकित्सक ना ही हर व्यक्ती वैज्ञानिक ही बनते है। यह बात अलग है कि यह संभावन सब के अन्दर है। यद्यपी यह पुरुष के परिश्रम और उसकी परिस्थिती पर भी काफी कुछ निश्चित करता है। यदि वह मानव यह अपने प्रारंभिक जीवन में एक विशेष उद्देश्य बना कर निश्चित उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये पुरुषार्थ करें तो अवश्यमेव वह एक दिना अपने निश्चित लक्ष्य पर पहुंच जायेगा। इसके लिये वह अपना कर्म करने के लिये बिल्कुल स्वतन्त्र है, यही इस स्वतन्त्रता का गलत उपयोग ही इस मानव को बहुत सारे ना करने योग्य करम करता जिसके कारण ही उसे बंधन को उपलब्ध होना पड़ता है जिसके लिये वह अपने भाग्य, किस्मत और अपने भगवान को दोष देता है। और बार बार उलाहना करता है की परमेश्वर तुमने हमें यह क्यों नहीं दिया, मुझे ऐसा क्यो बनाया? ऐसा ही मानवों की संख्या इस भुमंडल पर सबसे अधिक है जो स्वयं से और स्वयं के कर्मो से और मिलने वाले कर्मों से अत्यधिक अतृप्त है उनका जीवन साक्षात मृत्यु के समान है कहले को वह जीवीत होते है वास्तव में उनमे जीवन जैसा कुछ भी नही है, वह अपने अंदर पुरी तरह से टुट चुके होते है उनके सामने हर तरफ से केवल निराश के बादल ही दिखाई देते है उनके जीवन में कोई आशा की किलण नहीं दिखाई देती है। वह अपने जीवन में वस्तव मेंकभी जीवन को अनुभव ही नही करते है। सदा उन्हें मृत्यु ही दिखाई देती है। इसके पिछे मुख्य कारण है की वह जिस समाज में रहते वह समाज और वह परिवार उनको बनाता हे वह स्वयं के मालिक नहीं होते है यद्यपी वह सब दाश क समान होते है। जो वस्तु जितनी दुर्लभ या बहुमुल्य है या जितनी बड़ी है या  जितनी क्षुद्र है, उसको उपलब्ध करने वाले भी उसी प्रकार के व्यक्ती होते है। बहुत कम और दुर्लभ व्यक्ती ही होते है। जीवन के चरम उत्कर्श अपने जीवन में उपलब्ध कर पाते है। जितनी क्षुद्र या छोटी वस्तु है उसको चाहने वाले भी बहुत अधीक मात्रा में उपलब्ध होते है, यह सब निम्न स्तर के व्यक्ती होते है। यहां किसी को मुफ्त में कोई वस्तु नहीं मिलती है हर किसी व्यक्ती को उस वस्तु की उपयुक्त किमत अवश्य चुकानी पड़ती है। जो मुफ्त में किसी वस्तु को प्राप्त कर लेते है वह उसकी उपयोगिता और बहुमुल्यता से अन्जान ही रहते है। जैसा कि हर व्यक्ती को नहीं पता है कि सूर्य की किमत क्या है? हवा की किमत क्या है? पृथ्वी की किमत क्या है? जल की किमत क्या है? आकाश की किमत क्या? इन पांच तत्वों का मेल ह यह शरीर है या फिर वह परममेश्वर हमारें जीवन के लिये कितना बहुमूल्य है। लोग इसको भुल कर हमेंशा किसी ना किसी प्रकार से येन केन प्रकारेण केवल हर समश्या का सामाधान के रूप रूपये को देखते है और इसको ही उपलब्ध करना अपने जीवन का परम उद्देश्य समझते है। जिसके कारण वह उस वस्तु का सही उचित उपयोग नहीं कर पाते इसके विपरीत वह उसका अधिकतर दुर्प्रयोग ही करते है। इस जगत में जो अ नाम का कोई एक प्राणी है जिसको ब्रह्मज्ञान हो गया है, विज्ञान के माध्यम से उसने स्वयं के जीवन में कुछ विशेष प्रयोग करके ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया। जिसके माता पिता स्वयं शिव है और जिसकी माता स्वयं पार्वती है जो स्वयं साक्षात अर्धनारेश्वर है जो ना स्त्री है ना पुरुष है वह दोनों से उपर उठ चुका है। वह उस जगत में रहता है जहां जगत  जागते हु गती करता है।

११. ध्रुवा अस्मिन् गोपतौ स्यात = अपनी इन्द्रियों का केन्द्र परमेश्वर को बना के रखो।

     जीवन क्या है? यह इस दुनिया में बहुत बड़ा और बहुत ही जटिल विषय है, इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमारे पास कई महान विद्वान हैं, हर किसी ने अपनी शैली में प्राचीन कवि की तरह समझाया है कि जीवन में बहुत दर्द है, और पश्चिमी देशों के कुछ महान विद्वान इसके बारे में कई प्रकार के विवरण देते हैं। हालांकि मुझे लगता है कि हर जवाब पूरी तरह से उचित या संतुष्ट नहीं दते है क्योंकि कुछ जानकार और प्रबुद्ध मानव ने हमेशा कहा है कि जीवन एक रहस्यमय की तरह है। हमारे जीवन का यह अनुभव है जब हम निस्वार्थ भाव से सत्य का अनवेषण करते है। तब यह वास्तव मे सत्य सिद्ध होता है की जीवन एक महान दर्द या आपदा और विनाशकारी अज्ञात गहरे समुद्र समान है आज तक इसके आतंक से कोई भी मुक्त हो पाया है। चाहे वह राजा हो या रंक हो दोनो को ही यह जीवन अपनी तरह से प्रताणित करता है। तरह तरह के रूप और आकार बदल कर यह हमारे जीवन की शाश्वत सच्चाई है। जब हम जीवन की संपूर्णता में  जीवन की हर परिस्थिति में हर पहलु से देखते है तो इस बात पर ठहरते है की जीवन का स्वरूप दर्द मय ही है। जीवन को आनन्द भी कहते है जीवन में सुख भी दिखाई पड़ता है लेकिन आज तक किसी को सुख मिला नहीं है यदी किसी को वह सुख मिला होता तो वह ठहर जाता अपने जीवन के सफर में, और पूकार पुकार कर कहता की मै सुखी हो गया। लेकिन ऐसा देखने में कभी नहीं आता है अपवाद में कोई एकाक कहीं दिखाई दे तो उसको हम सब पर एक सामान नहीं लागु कर सकते है। इसका मतलब यह नहीं है की जीवन में सुख या आनन्द नहीं है इसका मतलब यह है की जीवन जीने का ढंग गलत है जिसका परिणाम ही जीवन में दुःख और पिड़ा है यह प्रमाण है की हमने गलत दिशा में स्वय के जीवन को लेकर स्वयं की यात्रा कर रहे है। और यहां जीवन के बारे में जो शिक्षा दिया जा रहा है वह गलत है इस पुरानी शिक्ष विधी को बदलना होगा। यदी हम जीवन में सुख और आनन्द की कामना करते है जीवन का सुख किसी वस्तु के आश्रित नहीं है। इसके लिये क्रान्तीकारी मार्ग का अनुसरण करना होगा । यह एक क्रान्तीकारी के लिये संभव है, लोगों को यह वेवश और वेसहारा लाचार अपंग बनाने पर जोर जिया जा जारहा है। लोगों के पास आंखे है लेकिन वह मुख्य तत्व को देखने मे असमर्थ है। यह पत्थर की आंखें के पत्थर को ही देखने में समर्थ है यह अपार्द्शी नहीं किसी वस्तु के आऱ पार देखने में समर्थ नहीं है। इनको ऐसा बनाने के लिये ही लम्बे काल से प्रशिक्षीत किया जा रहा है जिसमें हमारी शिक्षा का सबसे बड़ा योग दान है।

      यह सत्य है फिर यह सत्य सब पर प्रकाशित क्यों नहीं होता है, और इसके पिछ कारण क्या है? यह सत्य है लेकिन हम इसको स्विकार नहीं कर पाते हमें इस प्रकार से संसाकारित किया जीता है कि सुख आने वाला है दुःख के बाद जबकि सत्य यह है की वह सुख कभी आता नहीं है वह भवीष्य में होने वाली एक घटना है जो जीवन में कभी घटती नहीं है, यह पूर्णतः काल्पनिक है। जो दुःख स्वप्न को और ताकत वर शक्ती शाली बनाता है। हमारे सगे संबंधी परिवार माता पिता गुरु आदी हमें गलत शिक्षा देते है। हमें आक्रमण कारी बनाते है हममें विद्वेश की भावन भरते है, हमें गरीब बनाते है हमें अमिर बनने के लिये प्रोत्साहित उत्साहित करते है और कहते है संघर्ष करो तुम अवश्य तुम्हारी विजय होगी। जबकी सत्य यह है की उनके संघर्ष ने स्वयं उनको कभी सफल नहीं किया है। इसलिये वह चाहते है की तुम अपने जीवनको लगा कर उनकी कामना के लिये स्वयं को मिटा उनके स्वप्नो को सिद्ध करों। वह तुम्हे अपने लिये उपयोग करना चाहते है उनको तुमसे या तुम्हारे अस्तित्व से कोई लेना देने नहीं है। इस लिये तो इस जगत में कोई बाप अपने बेटे से खश नीं है ना कोई मां ही अपनी बेटी से खुशी है। ऐसा ही वेटों और वेटियों के साथ भी है। जो यह दिखाने का प्रयाश करते है कि वह अपने वेटे और वेटीयों से बहुत खुश है तो यह समझ लेना की यह सब भ्रष्ट और झुझे लोग है। यह उसी प्रकार से है जैसे मुह में राम और बगल में छुरी वह तुम्हे लुटने तुम्हे धुर्त झुठा बनाने के प्रयाश में लगे है उनको इसी में रस आता है। वह तुम्हारे सुख को आनन्द को किसी सर्त पर स्विकारना नहीं चाहते है। वह तुम रुची ले रहे है की तुम उनके जैसे बनावटी बनो जिसमें उनको फायदा है। जिसे शभ्य शिक्षीत समाज और आधुनिक परिवार कहते है। जिसमें हर प्रकार की धुर्तता जो उन्होंने सभी हिन्सक जानवरों सिख कर अपने जीवन में धारण कर लिया है। और अपने मानव जीवन के मुख्य परमतत्व परमेश्वर को त्याग कर के तुम्हे भी वह सी प्रकार का चाहते है। जिस प्रकार शराबीयों के ब्च में एक गैर शराबी उन शराबियों के लिये शत्रु दिखाई देता है। जैसे सभी विद्वानों को मुर्खो से शत्रुता है। जैसे सूर्य को अंधकार से शत्रुता है। जैसे पानी को आग से खतरा है। जैसे मिट्टी के बर्तन को लोहे के बर्तन से शत्रुता है।   

  यह जीवन क्रान्ती का मार्ग उन पुरुषों  के लिये है जो  पुरुषार्थ को अपना अस्त्र बनाने वाला उद्यमी पुरुष के समान प्रयत्न शिल और शीघ्र वेग के साथ अपने शत्रु पर हमला करने वाले पराक्रमी योद्धा के समान है। शत्रु दो प्रकार के है एक आन्तरिक अज्ञानता को धारण करने वाला अज्ञान है। और दूसरें बाहरी संसारीक शत्रु है, जो राग द्वेश को धारण करने वाले है। जो पराक्रमी योद्धा अपने शत्रु का नाश शिघ्र करता है, जिस प्रकार से अन्न को भुनने वाला मनुष्य अन्न को शिध्रता से भुनता है। उसी प्रकार पराक्रमी योद्धा अपने शत्रुओं की सेना को शिघ्रता से भुनता है। जिस प्रकार से आग पानी को वास्प में पलक झपकते ही बदल देती है। जिस प्रकार से काला रंग हर रंग पर बहुत जल्दी चढ़ जाता है ठीक इसी प्रकार से अपने विरोधी ताकतों को अपने वश में कर लेते है। जो ऐसा नहीं कर पाता है उसे फिर वह उन अपने शत्रुओं को सम्हलने का समय देता है जिससे उभरना समय के साथ मुस्किल और कठीन हो जाता है। जैसे जब हमारी इन्द्रियों में शक्ती होती है तभी उनको नियंत्रित करके अपने जीवन उद्देश्य को उपलब्ध कर लेते है। जब इन्द्रियां कमजोर हो जाती है और स्वयं के नियंत्रण करना असंभव हो जाता है। इस लिये कहा गया है की जीवन के प्रारम्भ में ही जल्दी जल्दी अपनी त्रुटियों को जीवन से दूर करके स्वयं परिपूर्ण करों और सोम रस का पान करो अर्थात जीवन रस के परम आनन्द का भोग करो, अर्थात सौम्य गुण वाले पेय शक्ती को बढ़ाने वाली परम दैविय औषधियों का सेवन करों है। क्योंकि वह परम तत्व एक रसायन ही है। तदुपरान्त हर्षित और उत्साहित होकर अपनी दुष्ट वृत्तियां जो शत्रु के समान है, उनको परास्थ करके इनसे हमेशा के लिये मुक्त हो जाओ। 

  १२. बह्वी = एक से अनेक बनो आत्मकेन्द्रित मत बनो।

      हे मनुष्यों जैसे एक अकेला अणु जो ऋतु के समान शास्वत शोभायमान प्रकट हो रहा है। जो निरंतर गति कर रहा है घोड़े के समान विशेष कर रूपादि का भेद पैदा करने वाला है। जो दो प्रकार के नियमों को बनाने वाला है। जो हमारें अंगों को ऋतु संबंधी पदार्थों को अनुकुल बनाने वला है, अग्नि के माध्यम से चेतना को  शुद्ध और उसको नियम में करने वाला है। एक ईश्वर दूसरा प्रकृती है जिस तरह से ईश्वर जीव प्रकृती है इसी तरह से ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान है। जो एक परमाणु में तीन अणुओं की तरह है। सर्व प्रथम हमारी चेतना है जो हमारे शर में सर्वप्रथम उपस्थित होती है, वही से यह हमारे सारे शरीर को एक पीण्ड के रूप में सभी अंगों का देखभाल करती है। इसमें इसके दो सहायक है एक परमेश्वर दूसरा प्रकृती है। जैसा की मंत्रों में आता है कि यह मानव शरीर एक प्रकृती रूपी वृक्ष की तरह है जिसमें दो प्रकार से सुवर्ण सुन्दर पक्षी रहते है एक तो स्वयं की चेतना हा जो शरीर मन और इन्द्रियों से एकात्म अस्थापित करके संसारीक विषयों का निरंतर भोग करती है जिसका पाप पुण्य आत्मा को भोगना पड़ता है जब तक वह शरीर में निवास करती है। दूसरा पक्षी स्वयं परमेश्वर है जो आत्मा रुपी पक्षी के कर्मों का साक्षात्कार करता है और उसके किये कर्मों का उसको फल दे कर प्रसन्न और प्रताणित भी करता है। जब आत्मा को संसारिक विषयों का ज्ञान हो जाता है की इसमें शिवाय दुःख के कुछ नहीं है तो वह विषयों का त्याग करके परमेश्वर में अपना चित्त लगाता है जिससे परमेश्वर के गुण उस चेतना में भी उतरने लगते है जैसे लोहा आग के सम्पर्क करने से आग की गर्मी को प्राप्त करता है उसी प्रकार से आत्मा परमात्मा के गुणों को प्राप्त करता है। जिससे वह शरीर रूपी संसार से मुक्त होने लगता है।  जब तक वह परमेश्वर के सानिध्य में रहता है तब तक वह आनन्दित रहता है और जब उसके पुण्य कर्म क्षीण हो जाते है तो वह पुनः श्रेष्ठ मानव के समृद्ध परिवार में जन्म लेता है।

      अब सुनो जो जीवन में परम आनन्द पाने का और सत्य को प्राप्त करने का नीयम है। जो अपने बल को बढ़ाने वाला है जिसने अपनी त्रुटियों को दूर करना जान लिया है, और जो पुरु सद्गुणों को धारण करने वाला है। ऐसा पुरष ही हमेंशा दूसरों को उत्तम उपदेश कर सकता है। जो अपने बल शक्ती सामर्थ को धटाने वाला है वह बुरे और निकृष्ट विचारों की प्रेरणा से अपने मन को दुषीत करता है। ऐसे व्यक्ती पापी और दुष्ट वृत्तियो वाले जो जन है उनको पकड़ कर बन्धन में रखना चाहिये। अर्थात कड़े अनुशासन में निरंतर उस पर नजर रखनी चाहिये,उनके लिये यथा योग्य दण्ड की व्यवस्था भी देने की समाज में होनी चाहिये। जो वृत्तिया मन का नाश करती और उसे बेकार बना कर के नष्ट भ्रष्ट कर देती है, उसका संहार या हत्या करना योग्य है। उस ग्रन्थी को जो बार बार पिड़ा और क्लेश का कारण बनता है उसे ऐसे ही काट देना चाहिये। जैसे कुल्हाड़ी से वृक्षों का काटते है। 

   जो घमंडी और अहंकारी मनुष्य अपने आप को ही सर्वोपरी सबसे महान मानता है, इतना ही नहीं हम जो ज्ञान का संग्रह करते है, उसकी भी वह निन्दा करता है। उसके सभी कर्म उसके लिये कष्टप्रद होते है।  क्योकि जो सत्य ज्ञान का विरोध करता है उसको दिव्य लोग जो ज्ञान का है, उसे बहुत प्रकार का कष्ट देता है। जिस प्रकार घोड़ा अपना पांव जब उठाता है तो वह अपने प्रापतव्य स्थान को प्राप्त करने के बाद ही रुकता है। उसी प्रकार इन सब विपत्तियों के मुख्य श्रोत को देख कर ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान के माध्यम से उन मुख्य कारण के श्रोतों को अपने में से अलग कर देना चाहिये। हर प्रकार की जीवन की कलह और क्लेश में अपनी विजय निश्चत हो ऐसी अपनी तैयारी हमेंशा करनी चाहिये। और हर एक जीवन के युद्ध संग्राम में जाग्रत रहते हुए विजय प्राप्त करने से ही जीवन की सब पिड़ायें हट सकती है।

    विश्वव्यापक पुरष जो अपनी दिव्य शक्तियों के द्वारा तथा विश्वम्भर इश्वर अपनी पोषण शक्तियों के द्वारा हमेंशा मेरी रक्षा करता है। मै अपने आपको उसकी रक्षा में समर्पित करता हू क्योकि परमेश्वर सामर्थ पराक्रम, बल, जीवन, श्रवण, दर्शन और परिपालन इन शक्तियों से युक्त है। जो वैरी, शत्रु, कंजुस ,खुन चुस और आसुरी वृत्ती वाले इनसे बचने की शक्ती तेरे अन्दर है। यह शक्ती मुझमें स्थिर कर, मै अपने आपकोतेरे लिये अर्पण करता हूं। यह मनुष्य परमात्मा के द्वारा बनाया गया है, और गुरुओं के द्वारा शिक्षीत किया गया है। वीरों के द्वारा उत्साहित किया गया है इस लिये यह शुर वीर योद्धा बन कर हमारे अन्दर आया है, और सभी कार्य करता है मात्री भूमी की उपासना करने वाला यह वीर भुख और प्यास कसे कभी कष्ट को प्राप्त ना है। जो ज्ञानी पुरुष अपने मन और आखों से बद्ध स्थित में रहते हुए, सभी प्राणियों को अनुकम्पा की दृष्टी से देखते है। उनको ही विश्व का निर्माण करने वाला और प्रजावों में रमने वाले है उनको ही प्रकाश मय देव सबसे पहले मुक्त करता है। जो ज्ञानी पुरुष सब शरीर में संचार करने वाले प्राण को सब अंगों और अवययों से इकट्ठा करके अपने अधिकार में लाते है। वे ही ज्ञानी पुरुष शरीर से सुदृढ़ होते है। वे ही गमन करते हुए सीधे दिव्य मार्ग से स्वर्ग को जाते है, और प्रकाश का स्थान प्राप्त करते है। और जो अन्न खाते हुये भी श्रेष्ठ कर्तव्यों को नहीं करते है, जिसके कारण उनके वुद्धियों में रहने वाली अत्मा रूपी अग्नि बड़ा पश्चाताप करती है और दुःखों को उपलब्ध करती है। उनके जो दोष है वह सुधर जाये और विश्वकर्ता परमेश्वर की कृपा से वे हमारे सत्त कर्मो में सम्लित हो। इस जगत में अपना संरक्षण मनुष्य को स्वयं करना चाहिये यह बात पुकार – पुकार कर सभी श्रेष्ठ और आप्त पुरुष करते है। हे मनुष्य तुम अग्निवत तेजस्वी बनो औरअपना प्रकाश जगत में फैलावो, यह तभी संभव होगा जब ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान को धारण करने में सक्षम होगे।  हे मनुष्यों ! जो वेद वाणी को धारण करने वाला विद्वान पंडित नाश रहित दिव्य ज्ञान को विषेश रूप से अपनी वुद्धी में धारण करता है, वही मुक्ती का श्रेष्ठ साधन के बारे में, और उस नित्य चेतन ब्रह्म का शिघ्र गुण कर्म स्वभावो के सहित उपदेश करता है। औऱ जो इस ब्रह्मज्ञान में कल्याण कि भावना के हितार्थ स्थित जानने योग्य तीन उत्पत्ती, स्थिती, प्रलय, भुत, भविष्य ,वर्तमान  काल है। उनको अच्छी प्रकार से जानता है। वही पिता स्वरूप सर्वरक्षक परमेश्वर का ज्ञान देने का आस्तिक्ता से रक्षक बनता है।    

    द्युलोक , पृथिवीलोक, दिन, रात्री, सूर्य, चन्द्र,नक्षत्र, ब्रह्मज्ञानी, योद्धा, सत्य, अनृत, भुत भविष्य आदि सब किसी से भा डरते नहीं है इसी लिये यह विनाश कभी प्राप्त नही होते है। इससे कैवल्य ज्ञान मिलता है की हम निर्भय वृत्ति से रह कर ही अपने विनाश से बचने की संभावन है। अतः हे प्राण तू इस शरीर में निर्भय वृत्ती के साथ रह और अप मृत्यु के भय को दूर कर।

   जिस प्रकार से यह जगत जो जागते हुए निरंतर गती कर रहा है। अपनी विविधता को त्याग कर एक रुपपता को धारण करता है। और जिस परम तत्व का निवास हृदय में है। उस परम तत्व को मानव भाव से ही अपने हृदय में साक्षात  देखता है,इस प्रकृती ने उसी एक आत्मा की विविध शक्तियों को निचोड़ कर उत्पन्न होने वाले विविध जगत का निर्माण किया है। इसलिये आत्मज्ञानी मनुष्य सदा उस आत्मा की ही गुण गान करते है। जिस प्रकार से अपने हृदय में उपस्थित उस परम अमृत तत्व के परम धाम का वर्णन केवल आत्मज्ञानी संयमी वक्ता ही कर सकता है। जिसके तीन पाद है ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान हृदय में गुप्त है जो उनको जानता है, वही ब्रह्मज्ञानी होता है। वहीं हम सब का पिता, जन्म दाता और भाई के समान है। वही सभी प्राणियों को सभी अवस्थाओं में यथावत जानता है। वह केवल अकेला ही एक है उसी के अनेक अग्नि आदि सम्पूर्ण अन्य देवों के नाम प्राप्त होते है। अर्थात उसी को दिये जाते है, जिज्ञासु जन उसी के विषय में बारम्बार प्रश्न पुछते है, और अन्त में उसी को प्राप्त होते है।

    पृथ्वी सूर्य समेत अनन्त ब्रह्माण्डों के अन्दर जो अनन्त पदार्थ है उन सब का निरीक्षण करने के बाद पता लगता है कि अटल शाश्वत नियमों का पहला प्रवर्तक एक ही परमात्मा है। इसलिये मै उसी परमात्मा की प्रार्थना और उपासना करता हूं। जिस प्रका वक्ता में वाणी विद्यमान रहती है, उसी प्रका जग के सभी पदार्थों में अथवा सभी प्राणियों में उपस्थित हो कर सबका धारण पालन पोषण कर्ता के रूप में एक आत्म रहता है। उसको अग्नि भी कहते है, जिस प्रकार अग्नि लकड़ी में गुप्त रूप से विद्यमान रहती है, उसी प्रकार से वह परमेश्वर गुप्त रूप से सभी पदार्थो में अदृश्य हो कर व्यापता है।   

   जिस एक परमेश्वर में अग्नि, वायु, सूर्यादि देव समान रीति से आश्रित है, और जिसकी अमृत मई शक्ती सम्पूर्ण उक्त देवों में कार्य कर रही है। वही एक सर्वत्र फैला हुआ व्यापक काल जई सत्य है। उसी का साक्षात्कार करने के लिये मैने सब वस्तु का निरीक्षण किया। जिसके पश्चात मैने पाया की वह सबके अन्दर एक सूत्र की तरह फैला हुआ है जिस तरह से एक माला में फुल कई प्रकार के होते है यद्यपी उनको एक साथ जोड़ने वाला तागा एक ही है। इसको मैने अनुभव किया, इसके साथ जीवन की अनन्त कलायें भी है। इन सब का निवस स्थान मध्य लोक अन्तरीक्ष है, जहां यह सब शक्तियां प्रकट होती है, और वहीं पर यह अदृश्य भी हो जाती है।

१३. यज्ञमानस्य पशुन पाहिं = काम क्रोधादि वाशनाओं पर नियंत्रण बना के रखों।                  

   जिस प्रकार से यह ईख नामक वनस्पत्ति स्वभाव से मधुर मीठी है, उसका लगाने वाला और उखाड़ने वाला भी मधुरता की भावना से ही उसको लगाता और उखाड़ता है। जिस प्रकार यह वनस्पत्ति परमात्मा से यह मिठास अपने साथ ले कर आती है। उसी प्रकार से हम सब भी अपने जीवन में परमात्मा से मिठास और मधुरता को प्राप्त कर के अपने जीवन को मीठा और मधुर बनाये। मेरी जीभ्भा के मुख्य भाग में मधुरता रहे, जीभ्भा के अग्र भाग में और जीभ्भा के मध्य भाग में भी मधुरता हमेंशा बनी रहे। मेरे कर्म में मधुरता रहे, मेरा चित्त मधुर विचारों का ही चिन्तन और मनन हमेशा करता रहे। मेरा चाल चलन हमेशा मधुर और मिठा हो, मेरा आना जाना मिठा हो, मेरे इसारे और भाव तथा मेरें शब्द भी मीठे दूसरे को सुख देने वाले हो। ऐसा होने से मै अन्दर बाहर से मिठास की मुर्ती बनुगां। मै शहद से भी मिठा बनता हू मै मिठाई से भी मिठा बनता हूं, इस प्रकार जीस प्रकार से मधुर फल वाली शाखा को पक्षी प्रेम करते है तू भी मुझ से प्रेम कर। कोई किसी का द्वेष ना करें इस उद्देश्य से व्यापक मधुर विचारों की की चार दिवारी चारों ओर बनाता हूं जिससे इस चार दिवारी में सब ओर मधुरता ही बढ़े सब एक दूसरे से हमेंशा प्रेम करें और विद्वेष से कोई किसी से विमुख ना हो।

       जो विद्युत के समान है जिस तरह से बल्ब फ्युज होता है। मगर विद्युत निश्चित रहती है। उसी प्रकार से हमारी शरीर बल्ब के समान फ्युज होती है मगर जो इसकी चेतना विद्युत के समान है वह हमेंशा उपस्थित रहती है। यह एक बात निश्चित जान ले कि मेरे आत्म मन जो भी तुम्हे मिलता है इसको तुमने बहुत परिश्रम से कमाया है, मुफ्त में तुम्हे यहां कुछ भी नहीं मिलता है। कांटों के समान पिड़ा देने वाले अथाह दुःख, ताप , संस्कार या फिर फुलों के समान हल्के सुख और आनन्द देने वाले परिणाम गुण संस्कार यहीं दो कोटि हैं । किसी भी मनुष्य को दोनो कभी साथ में नहीं मिलते यह प्रकाश और अंधकार की आते जाते रहते है। कोई फुलों के लालाइत है तो कोई काटों से भागना चाहता है। 

     कभी भी इनको देख कर भागना मत इनको भोगना जो भी हो सुख या दुःख तुम्हारे हिस्सें में जो भी आये यह एक कषौटी तुम्हारे धैर्य के असली परीक्षा की। जो दोनों को सहने के लिए तैयार है परमेश्वर का पुरुष्कार मान कर और अपने कर्मों का फल समझ कर, वहीं जीवन का सच्चा सुख पाता है। जिसने स्वयंको पत्थर के समान दृढ़ और मजबुत और फौलाद जैसा  स्वयं को बना लिया है। यह जीवन उसी को प्रसन्न करता है जिसने एक-एक कदम मृत्यु को अपने सामर्थ से पिछे धकेल देता है।  

    ब्रह्म जो विद्युत से सुक्ष्म विद्युत के समान है। जो अपनी वाणी से ही ब्रह्माण्ड की उत्पत्ती करता है। और अपनी इसी वाणी से दुष्ट व़त्तियों वालों जीवों को संतप्त करता है। जिस प्रकार से आकाशिय विजली की मात्र भयंकर आवाज को सुन कर कितने प्राणियों का हृदय भय व्याप्त हो जाता और वह कापंने लगता है। उसी प्रकार वह परमेश्वर मानव मन में भय, लज्जा, शोक, मातम जैसी वेदनाओं आदि के भावों को उत्पन्न कर के उनको गलत कार्यों को करने से निरंतर रोकता है। जो सज्जनो के आदर सत्कार नमस्कार के योग्य है। जो हमारें लिये बभिन्न प्रकार के सुख और ऐश्वर्यों को प्रकट करता है। जिसको प्राप्त करने के लिये जो सज्जन विद्वान पुरुष है वह अपने जीवन में संयम को धारण करके उसको प्राप्त करने के लिये निरंतर उसकी उपासना प्रार्थना स्तुती करते है। उसको मै बारम्बार नमस्कार करता हूं।

      मेरे हृदय के मन मीत तुम किसी भी समय अपने आप को स्वयं से ताकत वर किसी को मत समझना ना ही तुम किसी को अपने से कमजोर ही समझने का भुल पालना। जो जीवन के इस भाव को जानता है और समझता है। जो नियमीत इसका अभ्यास करता है। जीवन एक निश्चित धुरी पर काम करता है। जिस प्रकार से दीपक का प्रकाश है उसके पिछे एक विज्ञान है जिस प्रकार विद्युत का एक सिद्धान्त है। विद्युत दिखाइ नहीं देती है यद्यपी उसके क्रिया शक्ती का सही उपयोग करके उसको सिद्ध किया जा सकता है। जिस दिन भी मानव को यह समझ में आ जायेगा कि यह ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान एक शाश्वत सत्य है उसी दीन यह मानव मृत्यु से मुक्त हो जायेगा, सम्पूर्ण मानवता और यह जीवन स्वर्ग की स्थापना यही भुमंडल पर ही कर देगा, और सभी को अमृत तत्व उपलब्ध होगा। जैसा की मंत्र कहता है की अमृत तत्व मनुष्यों के लिये ही है। वह मनुष्य कैसे है जो अमृत तत्व को उपलब्ध होते है? तीन प्रकार के मुख्य कष्ट, बन्धन या दुःख माना गया है।  जिनसे मुक्त होने के लिये इस त्रयी विद्या वेद का ज्ञान होता है, अर्थात ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान का जिसको मुक्ती का साधन के रूप मे विद्वान जन प्रकट करते है।   

   ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान एक परमाणु के तीन अणु के समान है। इसको समय के साथ सबने अपनी -अपनी तरह से परिभाषित किया है। इसका मुख्य श्रोत प्राचिन वेद है। और इन्ही को समझाने के लिये परमेश्वर ने वेदों की रचना की है। जैसा कि ऋषियों की मान्यता है की यह ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान अद्भुत सामर्थ वान है। इनके लिये ही शब्दों को ब्रह्म कहा गया है, वेदों में ज्ञान को तीन भागों में विभाजित किया गया है। पहला ज्ञान जो पशुओं को मिलता है किसी के प्रेरण से, जिसे इड़ा कहते है। दूसरा ज्ञान जो शाश्त्रों और विद्वानों से मिलता है, जिसको सरस्वती कहते है। तीसरा जो सबसे श्रेष्ट ज्ञान है उसे मही कहते है। इसलिये वेदों के गुरु मंत्र गायत्री में मही रुपी ज्ञान की कामना की गयी है। जिसको हम सिधा परमेश्वर के साक्षात्कार ही प्राप्त कर सकते है। वेदों में तीन प्रकार का ज्ञान है जीसको त्रयी विद्या कहते है। ज्ञान, कर्म,उफासना। यहीं तीन सत्ताये है सर्व प्रथम प्रकृती दूसरी जीव तीसरी सत्ता परमेश्वर की है। ईश्वर ज्ञान मय है जीव विज्ञान मय है और प्रकृती ब्रह्मज्ञान मय है। इसी प्रकार से तीन प्रकार की दूरी भी होती है पहली दूरी ज्ञान की दूरी है, दूसरी समय की दूरी,तीसरी धन की दूरी। ईश्वर को प्राप्त करने में सबसे बड़ी दूरी ज्ञान की दूरी बताई गई है। इसी तीन तत्व को भौतिक वैज्ञानिक इलेक्ट्रान, न्युट्रान, प्राट्रान के नाम से पुकारते है। इन तीन तत्वों के रहस्य और इनका कितने प्रकार का रूप है वह आज तक पूरी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सका है। मुख्य रूप से तीन प्रकार के दुःख भी है। शारीरिक, मानसिक,आध्यात्मिक दुःख, यह तीन का आकड़ा अद्भुत है।इन तीन प्रकार के दुःखों से मुक्त होने के लिये केवल एक मार्ग है, जिसे पुरुषार्थ कहते है। जिस प्रकार से अन्न एक है लेकिन जब यह हमारे शरीर में जाता है तो इससे सात धातुयें बनती है। सबसे पहले रस बनता है, फिर रस से खुन बनता है, खुन से मान्स बनता है, मान्स से मज्जा बनता है, मज्जा से मेद बनता है, मेद से हड्डी बनती है, और हड्डी से विर्य बनता है जिससे किसी मानव समेत किसी भी प्राणी का शरीर बनती है। शरीर का संबंध भौतीक ज्ञान से है यह एक यन्त्र की तरह है, मन का संबंध विज्ञान से है जिस पर नियंत्रित करने के लिये ही मंत्रों को इजात किया गया है। यह मंत्र जब मन के द्वारा बार - बार स्मरण किये जाते है तो उससे एक प्रकार का कंपन पैदा होता है। जिससे मन को निकृष्ट विषय से हटा कर श्रेष्ठ विषय परमेश्वर में तल्लिन किया जाता है। आत्मा का संबंध ब्रह्मज्ञान से है, जिसके लिये पंतजली अष्टांग योग का निर्धारण करते है। इस अष्टांग योग में दो अंग है एक बाहरी है जिसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम,, प्रत्याहार है। और अष्टांग योग के तीन अंत रंग है जिसे धारणा, ध्यान, समाधि कहते है। यह जो धारणा , ध्यान, समाधि है इसी को मै ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान कहता हू। यह अन्तर्यात्रा के प्रथम अलौकि सोपान है। मन, वचन, कर्म अर्थात शरीर को  ज्ञान से समझ कर विवेक से धारण करना है, मन से मनन करना है सत्य का अर्थात मंत्रों का स्मरण करना है। जिससे आत्मा स्वयं की समस्यायों का समाधान करने के लिये समाधि को उपलब्ध कर सके। 

     ईश्वर अर्थात इसमें जो ऐश्वर्य है या फिर इसमें जो स्वर है, स्वर को भी तीन भागों में बिभक्त किया गया है ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत। जीव भी तीन प्रकार की वृत्तियों वाला है जिसके सात्विक , राजसिक, तामसिक कहा गया है। मनुष्य शरीर पांच तत्वो से बनी है (क्षीत जल पावक गगन समिरा पंच तत्व से बना शरीरा) छठा मन है सातवा आत्मा है। हर परमाणु में यह मुख्य तीन तत्व है जिसे हम ईश्वर, जीव, प्रकृती कहते है। एक परमाणु के पहले तीन अणु है यह अब यह एक - एक सात कणों के रूप में हो गये, पहले एक अणु का जिससे अन्न बनता है और अन्न से विर्य बनता है। दूसरे अणु के सात कणों से प्रकृती के पांच भुत बनते है छठां आत्मा सातवा परमात्मा बनता है। तीसरे अंतीम अणु के सात हिस्सों से सात ज्ञान के ऋषि बनते है। जो सात ज्ञानेन्द्रियों के रूप में है पांच ज्ञानेद्रिय क्रमशः आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, आत्मा और परमात्मा यह मुख्य एक्किस विभाग परमाणु के है।

         इस एक  परमाणु तत्व को अनेक नामों से जानते है। जैसा की वेद कहता है (एकं सद्विविप्रा वदन्ती) इन परमाणुओ के योग से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बन रहा है। और इसमें विद्यमान हर वस्तु का अंतिम इकाई परमाणु ही है। जैसे वैदिक भाषा में इन्द्र अर्थात इन्द्रियों का स्वामी जो इस मानव शरीर में ही रहती है। पांच कर्म इन्द्रियां है पांच ज्ञान इन्द्रिया है ग्यारहवां मन है। यह आत्मा के वश में अर्थात इन्द्र का इनके उपर अधिकार है। यह सब इन्द्रिया आत्मा की सहगामी है मित्र तन्मात्रायें के साथ वरुण अर्थात जल इसके भी सात रूप है अग्नि भी अपने सांत रूपों में है और यह दिव्य सुवर्ण चमकने वाले पदार्थ के समान गरुत्मान जो अपना कार्य आत्मा और मन के साथ मिल कर अंधकार में करते है। यम अर्थातत जो मृत्यु का देवता यमराज है। चेतना जो कभी मरती नहीं जो मृत्युलोक पर ही अपना राज्य करता है। मात रिस्वा अर्थात सब का जन्म दाता, मात रिस्वा माता के समान जो सारे रसों की माता है। रस भी कई प्रकार के होते है जिसको हम सद् गुणो के नाम से भी जानते है। जो सारे खजाने का मुख्य श्रोत है उसे मनुष्य कहते है। जो इस ब्रह्माण्ड का स्वामी है, मनुष्यों में भी चार प्रकार के मनुष्य होते है। प्रथम कोटी के मनुष्यों को ब्राह्मण कहते है जिसके जिम्मे ब्रह्माण्ड की रक्षा का दाइत्व दिया गया है। जिसको ब्रह्मज्ञान हो गया है जो ब्रह्म को जानता है। और जिसके लिये यह आवश्यक है कि वह ब्रह्म का उपदेश दे कर लोगों में  दिव्य ज्ञान का प्रसार निरंतर करता रहें। वही इस ब्रह्माण्ड में ब्रह्म का दान करके सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सहायता के साथ पालन पोषण संहार करता है। अर्थात यह ब्राह्मण जो इस ब्रह्माण्ड में मनुष्यों में सर्वोपरि उच्य कोटी का मनुष्य है। जिनके कर्मों पर ही इस ब्रह्माण्ड को सुरक्षीत रखने की गम्भिर जीम्मेदारी है। वह यदि अपनी जीम्मे दारियों का उचित तरिके से वहन नहीं कर सके तो यह नष्ट भी हो सकता है और इसका दण्ड उन ब्रह्मणों को ही भोगना पड़ेगा। दूसरें कोटी के मनुष्य को क्षत्रीय कहते है अर्थात जो छात्र शक्तीी है जो अमृत रूपी छाया के समान है जो क्षेत्रों अर्थात जो सारी जमीन का पृथिवी के रक्षक है। तीसरे कोटी का मनुष्य व्यापारी है जिसे वैश्य कहते जिसके जिम्मे सम्पूर्ण भुमंडल के प्राणियों का भोजन उफलब्ध कराने की जीम्मे दारी दी गइ है और एक दूसरे के विच व्यापार लेन देन काराय सम्पन्न करने के लिये जिम्मे दार है। चौथी कोटी का मनुष्य शुद्र कहा गया है जो सबसे अधिक सहनशिल है पृथिवी के समान है जो सबकी सेवा करता है सबके कार्य भार का वहन करता है। जो मुर्ख है जिसका प्रमुख गुण मुर्खता है इसी गुण को  वह धारण करके वह स्वयं को इस शरीर रूपी संसार से मुक्त कर लेता है और परमेश्वर को उपलब्ध हो जाता है। वह सब पर अधिकार कर लेता है क्योकि वह सब का कार्य करता है। बहुत थोड़ा कर लेकर जिस प्रकार से यह पृथिवी सम्पूर्ण मानव जाती समेत सभी प्राणियों का बहुत प्रकार का उपकार करती है और बदले में वह उन सब से बहुत थोड़ा कर के रूप में उनके सद् गुणों को ग्रहण कर लेती है। यही कार्य ब्रह्माण्ड भी करता है अर्थात ब्राह्मण से उसके सद्गुण और तपस्या का फल ले लेता है। जो इसके जीने के लिये जीवन उर्जा खाद्य के समान है जिसको ही हम यहां पर ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान कहते है। इसको दार्शीनिक एक शब्द में संयम कहते है, जो सभी प्रकार की सिद्धियों का मुख्य श्रोत है। संयम को ही धारणा ध्यान समाधि कहा गया है  इसी को अष्टांग योग का अंतरंग कहा गया है।  

      ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान एक परमाणु के समान है जिस प्रकार एक परमाणु में तिन अणु होते है। उसी प्रकार से एक अणु में सात कण होते है। इस प्रकार से कुल एक्किस कण मिल कर ही इस श्रृष्टी की रचना करते है। इस श्रृष्टी में हम सब मानव है और हम सब मानव की शरीर है जो एक प्रकार परमाणुओं से मिल कर ही बनी है। परमाणुओं से ही इस जगत का सारी वस्तु बनी है। उसमे सुन्दर ताज महल भी है दिल्ली का लाल किला भी है अमेरिका ह्वाइट हाउस भी इन्ही परमाणुओं से मील कर बना है। कार , बाइक, प्लेन, ट्रेन, कम्प्युटर, ग्रह, उपग्रह, पृथिवी, सूर्य, ब्रह्माण्ड सब कुछ इसी परमाणुओं से मिल कर ही बना है। यह परमाणु विद्युत उर्जा से बना है और यह विद्युत उर्जा ध्वनी उर्जा शब्दों की शक्ती से बना है। इस प्रकार से यह विश्व ब्रह्माण्ड का मुख्य श्रोत यह शब्द ही है इसी लिये शब्द  को ब्रह्म कहते है। इस परमाणु को जब तोण दिया जाता है तो यह परमाणु बमा बन जाता है। जो इस पृथिवी को लिये एक बहुत बड़ा अभिश्राप बन जाता है। परमाणु बम ठीक उसी प्रकार से काम करता है जिस पर्कार से एक आग का तीनका दूसरें तीनके को अपने में समेट कर स्वयं को और अधिक शक्ती शाली बना लेता है। जिस प्रकार से एक आग का कण हिमालय जैसे लकड़ी के ढेर को कुछ समय में ही उनको जला कर राख का ढेर बना देता है। ऐसे ही इस मानव शरीर में एक अग्नि का अणु है जो अपने सात कणों के रूप में सप्त ऋषि सात चक्रों पर पहरा देते है। और वही पूरे शरीर से क्रिया कलापों को नियंत्रित करते है। जिनके देख रेख में शरीर के सात चक्रों की रीफाइनरी मसिन में अन्न को शुद्ध करके उससे विर्य बनाते है। और इस विर्य से ही नयें मानव की शरीर का निर्माण होता है। यह भी शरीर की सात धातुओं में सबसे प्रमुख धातु है। यह जो विर्य का कण है जिसे अंडाणु और शुक्राणु के रीप में जानते है। इन दोनों का सिंचन मां के गर्भ मे होता है। जिसका एक अस्तर तक विकास होता है फिर उनका पतन होने लगता है। 

   इसी प्रकार से इस विर्य से तेज उत्पन्न होता है जिसे आत्मा धारण करती है। यह आत्मा भी एक अग्नि ही है जो परमात्मा के साथ शरीर में विद्यमान रहती है। यह अग्नि सुक्ष्म से सुक्ष्मतर होती जाती है। जो परमात्मा रुपी प्रमुख अग्नि है उसके पास ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने का सामर्थ विद्यमान है। और इस ब्रह्माण्ड को नषट करने का सामार्थ भी उसी परमात्मा में ही है। जिस प्रकार से परमाणुओं के जोड़ योग से मानव शरीर समेत ब्रह्माण्ड की निवार्ण करता है। ठीक इसी प्रकार से परमाणुओं का वियोग करके वह ब्रह्माण्ड का नामों निशान मिटा देता है। यह गुण मनुष्यों में भी उसकी योग्यता के आधार पर हस्तान्तरित हो जाता है। एक समय ऐसा भी होता है जब इस ब्रह्माण्ड की रक्षा और संहार मानव के द्वारा परमेश्वर कराता है। इसमें दो बातें है परमेंश्वर की भावना हमेशा कल्याण की होती है। संहार में भी वह कल्याण ही करता है। मानव के साथ ऐसा नहीं है इर्श्या वश भी संहार करने के लिये लोभ में आकर भी दूसरें के अस्तित्व को समाप्त करने के लिये मानव उतावला हो जाता है। जिस प्रकार से मानव शरीर का एक निश्चित समय है। इसमें एक सर्त भी है जब वह स्वयं के मन और इन्द्रियों के संयम को धारण करने में सामर्थ होता है। अर्थात जब वह अत्यधिक विर्यवान होता है तो वह अपने जीवन को नियंत्रित करता है और लम्बा जीवन जीता है। ऐसा नहीं होने पर मानव का जीवन अल्प होता है और अल्प काल में हर प्रकार का ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान को धारण नहीं कर सकता है इसलिये उसे कइ जन्म लेना पड़ता है। इस तरह से वह एक तरफ जन्म लेता है दूसरी तरफ वह मृत्यु में समाने लगता है। उसमें इस जगत में स्थित रहने के लिए जो सामर्थ चाहिये नहीं होता है। जिस प्रकार से तपते तावें पर पानी की कुछ बुदें थोड़े ही पल में वास्प बन जाती है। और जब पानी की मात्रा अधिक होगी भले ही वह जलते तावें पर ही क्यो ना हो उसे समय मिल ही जाता है पर्याप्त मात्रा में इस भुमंडल पर रहने के लिये। जिस प्रकार से रावण का नाम आता है कि वह इस पृथिवी पर चार हजार सलों तक जिन्दा रहा। उसने चार चौकणी राज्इय किया था अर्थात चार हजार साल तक इसके पिछे मुल कारण था की वह बहुत बड़ा विर्यवान और ब्रह्मचारी पुरष था। वह स्वयं एक सिद्ध पुरुष विश्व श्रवा का पुत्र और ऋषि पुलूस्त का पोता था। राम ग्यारह सौ साल तक जीन्दा था क्योंकि राम ने ग्यारह अश्वमेध यज्ञ किया था अपने जीवन में, पहले समय में कोई अपने सौ साल के जीवन में कोई एक बार ही अश्वमेध यज्ञ कर सकता था। राम के जीवन का मुल उद्देश्य केवल एक था की वह रावण को मारना चाहते थे। महाभारत कालिन भी विर योद्धा तीन सौ से अधिक सालों तक जीन्दा रहते थे। महाभारत के रचना कार और वेदों के विभाजन कर्ता ऋषि वेद व्यास भी तीन सौ से अधिक जीन्दा थे। वह वेदों के जानकार थे वेदों में भी तीन सौ से चार सौ साल तक जीने की बात कही जा रही है। 

     इस ज्ञान की सहायता से ही अर्थात ज्ञान विज्ञान ब्रह्माज्ञान से ही द्युलोक अन्तरिक्षलोक पृथिवीलोक के अन्तर्गत सम्पूर्ण पदार्थ जल अग्नि औषधियां सोम वायु सब दिशाओं में रहने वाले सब पदार्थ सूर्य आदि सब देव हित कारक  सुखकारक सुख वर्धक होते है। आरोग्य बढ़ाकर व्याधियों से होने वाले कष्टों को दूर करते है। 

   ज्ञान  विज्ञान ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही तुम्हे मै वृद्धा वस्था की पूर्ण आयु तक ले जाता हूं। इसी ज्ञान से तेरे पास से सभी रोग दूर भाग जाते है। यह चिकित्सा का कार्य जो जानते है वही इसे प्रविणता से निभा सकता है। बारम्बार चिकित्सा करते रहने से जो प्रारम्भ में साधारण चिकित्सक रहता है आगे चल कर कर वहीं कुशल विशेषज्ञ चिकित्सक बन जाता है। ऐसा श्रेष्ट चिकित्सक अन्य चिकित्सको की सम्मती से उत्तम प्रकार की दूर्लभ चिकित्सा करने में सफल होता है। 

    तृणादि मनुष्य पर्यन्त श्रृष्टी की माता यह पृथ्वी है, और पिता पर्जन्य मित्र,वरूण, चन्द्र, सूर्य यह पांच है। अर्थात पंच तत्व की सहायता से ही विर्य बनता है। इसमें अनन्त बल है इसके बलों का उचित उपयोग करने से ही मानव महामानव  बन जाता है। और इसके कारण ही मानव शरीर में आरोग्यता स्थिर रहती है। मनुष्य का जीवन दीर्घ होता है और उसके शरीर से सब दोष बाहर आजाते है। यह प्राकृतिक इलाज है इस औषधी का नाम ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान है। जल उनके लिए मां बहन के समान हित कारक होता है। जो इसका उत्तम उपयोग करना जानते है। जल की नदियां बह रहीं है मानो वह दुध में शहद मिला रही है। जो जल सूर्य की क्रणों से शुद्ध बनता है। अथवा जिसकी पवित्रता स्वयं सूर्य शुद्ध करता है। वह जल हमारा आरोग्य सिद्ध करें जलो में अमृत है। जल के शुभ गुण से मानव बलवान बनता है। जिस प्रकार मां का दुध उसके पुत्र के लिये सबसे बड़ी औषधि के समान है उसी प्रकार जल से हम सब को उसके अन्दर विद्यमान सुख वर्धक रस हमें प्राप्त होता है। यह सूर्य आदि देवताओं को शान्ती प्रदान करने वाला है। प्रभु ईश्वर सब जगत में विराजता है सबका सर्वोपरी शाशक वहीं है। इसलिए उसकी इच्छा ही सर्वदा सत्य सिद्ध होती है। अर्थात उसकी आज्ञा के विपरीत कोई भी नहीं जा सकता जो जाने का प्रयश करता है उसके वह अपने दण्ड से नियन्त्रित करता है। तथा ज्ञान के जानने वाला मै ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान की सहायता से तुम्हे उस परमेश्वर के क्रोध से छुड़ाता हूं। जिस प्रकार मन वेग से किसी विषय में गिरता है जिस प्रकार वायु और पक्षी वेग से आकाश में चलते है। उसी प्रकार अ नाम की चेतना का हृदय ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान से युक्त हो। वायु और बादलों को चिर कर के उसके आवरण से प्रथम बाहर निकला तेज्स्वी सूर्य वारिष और दहाड़ता हुआ मेघ गर्जना के साथ आ रहा है वह अपनी सिधी गती से दोषों और रोगों को दूर करता है। वह हमारी शरीर की निरोगता को बढ़ाता है और हमे सुख को देता है। जिस प्रकार नदियां मिल कर बहती है, वायु मिल कर बहते है, पक्षी मिल कर उड़ते है। उसी प्रकार दिव्य जन भी मेरे ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान रूपी यज्ञ से मिल कर सम्लित हो क्योकि मै संगटन के बढ़ाने वालों के अर्पण से ही यह संगठन का महा यज्ञ कर रहा हूं। सिधे मेरे इस ज्ञान विज्ञान ब्रह्मज्ञान संघटन के महा यज्ञ में आवो, और हे संगठन के साधक वक्ता लोगों। तुम अपने उत्तम संगठन बढ़ाने वाले व्यक्तृत्व से इस संगठन महा यज्ञ को फैला दो। जो हम सब में पशु भाव हो वह यहां इस इस ज्ञान यज्ञ में आवे, और हम सब में धन्यता का भाव चिर काल तक निवास करे। जो नदियों के अक्षय आश्रय श्रोत इस संगठन महा यज्ञ में बह रहे है। उन सब श्रोतो से हम अपना धन संगठन द्वारा बढ़ावे।

     सिर पर अथवा शरीर पर जो कुलक्षण हो उनको दूर करना चाहिये तथा अन्त करण में कंजुसी आदि जो दूर्गुण है उनको भी दूर करना चाहिये, और जो सुलक्षण है उनका अपने तथा संतानो के पास स्थित करना अथवा बढ़ाना चाहिये। तुम्हारी आत्मा, मन, और शरीर के वस्त्रों दृष्टी में  जो बुरे निकृष्ट भाव जो कुलक्षण हो जो कुछ दूर्गुण हो उनको हम वचन से हटाते है। परमेश्वर तुम्हे उत्तम और शुभ लक्षणों से हमेशा युक्त करें। 

      कोई भी हमारा मित्र या शत्रु हमारी जाती वाला या पर जाती वाला बडा या छोटा कोई भी क्यों नाहो? यदि वो हमे दाश बनाने का प्रयाश करता है, या हमारा नाश करने की चेष्टा करता है तो उसका नाश शस्त्रों से करना योग्य है।  जो प्रकट या छुपा हुआ हमारा शत्रु है और वह हमरा नाश करने चाहता है, या हमें बुरे ओर कड़वे शब्द बोलता है। सब सज्जन उस दुष्ट वृत्ती के मनुष्य को समाज से दूर करें। मेरा आन्तरिक कवच मेरा सत्य ज्ञान ही है अर्थात ब्रह्मज्ञान ही है। 

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