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पर्मार्थ कि यात्रा के सुक्ष्म सोपान

 

पर्मार्थ कि यात्रा के सुक्ष्म सोपान
 

1 .    बहुत पहले की बात है। पाटलिपुत्र नगर के निकट एक दिन एक बौद्ध भिक्षु कहीं से आ रहे थे। एक और व्यक्ति उनके पीछे-पीछे काफी दूर से आ रहा था। वह रास्ते भर उन्हें बेवजह अपशब्द कहता रहा। जब नगर एकदम निकट आ गया और भवन दिखाई देने लगे, तब भिक्षु रुके और अत्यंत प्रेमपूर्वक अपशब्द बोलने वाले व्यक्ति से बोल-देखो प्रिय, अब नगर आने वाला है। इस नगर के निवासी मेरे परम भक्त हैं। जो भी अपशब्द आपको कहने हों, आप मुझे यहीं कह लें। यदि नगर में प्रवेश करने के पश्चात आपने यह शब्द बोले और मेरे किसी शिष्य ने सुन लिया तो वह क्रोध में आपको नुकसान पहुंचा सकता है। मैं नहीं चाहता कि आपको कोई हानि हो। आप मेरे सहयात्री रहे हैं। सात पग साथ चलने के बाद तो कोई भी व्यक्ति मित्र हो जाता है। आप और मैं तो कोसों दूर से साथ ही चले आ रहे हैं। भिक्षु की इस सहृदयता को देखकर अपशब्द कहने वाला बहुत लज्जित हुआ। उसने भिक्षु से तुरंत क्षमा मांगी। इस पर भिक्षु ने कहा कि न तो मैं क्रोध करने का अधिकारी हूँ और न ही क्षमा करने का। क्षमा की स्थिति तो वहाँ उत्पन्न होती है जहाँ मैं आपके प्रति क्रोधित रहूं। मुझे क्रोध ही नहीं आया, आपके प्रति तो मुझमें करुणा ही विकसित होती रही। मेरा विचार तो यह रहा कि कितना अज्ञानी है कि अपशब्दों से अपने मन और मस्तिष्क को नष्ट किए जा रहा है। मैं तो रास्ते भर आपके कल्याण की कामना करता आया हूं। इसके बाद तो फिर वह व्यक्ति इतना प्रभावित हुआ कि भिक्षुक का परम शिष्य ही हो गया। बाद में उसने आर्यवर्द्धन नाम से ख्याति पाई. आर्यवर्द्धन ने अनेक बौद्ध दार्शनिक ग्रंथों की रचना की। भिक्षुक आर्यवर्द्धन ने अपने साहित्य में जिस बात पर विशेष बल दिया, वह है सर्वभूत हिते रत:। अर्थात् मानव के कल्याण में लीन रहना ही सच्ची साधना और तप होता है।

 

2 .      श्रीराम और वशिष्ठ से जुड़ा प्रसंग इस संदर्भ में बहुत उपयोगी हो सकता है। एक बार श्रीराम ने अपने गुरु वशिष्ठ से पूछा कि मानव के दु: खों की शृंखला बढ़ती जा रही है। ऐसे में हम कैसे दु: खों को कम करके मोक्ष की ओर बढ़ सकते हैं। इस पर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने जो सूत्र बताए, वे आधुनिक संदर्भों में अधिक उपयोगी हैं। उन्होंने कहा कि संसार में प्राणी मात्र की सेवा करते हुए ही हम मोक्ष के द्वार तक पहुंच सकते हैं। सबसे पहले जीवन को लोक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करें। इसके लिए उन्होंने पहला उपाय चित्त बुद्धि को बताया। बिना आत्मा की बुद्धि के जग और जन की पीड़ा को न तो समझा जा सकता है और न ही उनके प्रति संवेदनशील हुआ जा सकता है। मन को सदा शांत रखें और हमेशा विनम्रता पूर्ण व्यवहार करें। इसके बाद सम के भाव को विकसित करना आवश्यक है। सम यानी शांति का अनुभव करना। सभी के प्रति कल्याण चाहने वाली प्रेम की दृष्टि होनी चाहिए. सभी के प्रति आदर भाव प्रकट करें। किसी प्रकार का कोई भेद मन में न हो। तीसरा उपाय उन्होंने संतोष बताया। न होने पर दुःख न होना और प्राप्त होने पर अति उत्साहित न होना संतोष की स्थिति है। अपरिग्रह का पालन करें। आवश्यकताओं को कम करें, यहीं से जीवन का पवित्र होना आरंभ होता है। चैथा सूत्र वशिष्ठ जी ने अच्छे लोगों की संगत बताया। उन्होंने कहा कि सदा उत्तम चरित्र, सदाचारी और ज्ञानी व्यक्तियों की निकटता में रहना चाहिए. उन्हें सम्मान दें और उनके उत्तम कार्यों में सहयोगी बनें। अंतिम सूत्र विचार बताया। बिना किसी पूर्वाग्रह के उदार मन और मस्तिष्क से सोचना ही विचार कहलाता है। सदा विचारशील रहें। यदि यह सूत्र जीवन में उतार लेते हैं तो सब एक-दूसरे का कल्याण करने में लगे रहेंगे। ऐसे में फिर इस दुनिया में न तो हिंसा होगी और न ही कोई दूसरा दुःख होगा।

     परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः। परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थ मिदं शरीरम्॥ परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदीयाँ परोपकार के लिए ही बहती हैं और गाय परोपकार के लिए दूध देती हैं, (अर्थात्) यह शरीर भी परोपकार के लिए ही है।

    आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः। परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति॥ इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता? परंतु, जो परोपकार के लिए जीता है, वही सच्चा जीना है।

     राहिणि नलिनीलक्ष्मी दिवसो निदधाति दिनकराप्रभवाम्। अनपेक्षितगुणदोषः परोपकारः सतां व्यसनम्॥ दिन में जिसे अनुराग है वैसे कमल को, दिन सूर्य से पैदा हुई शोभा देता है। अर्थात् परोपकार करना तो सज्जनों का व्यसन-आदत है, उन्हें गुण-दोष की परवा नहीं होती।

    भवन्ति नम्रस्तरवः फलोद्रमैः। नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः। अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः। स्वभाव एवैष परोपकारिणाम्॥ वृक्षों पर फल आने से वे झुकते हैं (नम्र बनते हैं) ; पानी में भरे बादल आकाश में नीचे आते हैं; अच्छे लोग समृद्धि से गर्विष्ठ नहीं बनते, परोपकारियों का यह स्वभाव ही होता है।

    श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥ जो करोडो ग्रंथों में कहा है, वह मैं आधे श्लोक में कहता हूँ; परोपकार पुण्यकारक है और दूसरे को पीडा देना पापकारक है।

    जीवितान्मरणं श्रेष्ठ परोपकृतिवर्जितात्। मरणं जीवितं मन्ये यत्परोपकृतिक्षमम्॥ बिना उपकार के जीवन से मृत्यु श्रेष्ठ है; जो परोपकार करने के लिए शक्तिमान है, उस मरण को भी मैं जीवन मानता हूँ।

    परोपकारशून्यस्य धिक् मनुष्यस्य जीवितम्। जीवन्तु पशवो येषां चर्माप्युपकरिष्यति॥ परोपकार रहित मानव के जीवन को धिक्कार है। वे पशु धन्य है, मरने के बाद जिनका चमडा भी उपयोग में आता है

  3.    परोपकार सबसे बड़ा पुण्य और परपीड़ा यानी दूसरों को कष्ट देना सबसे बड़ा पाप है। आइये परोपकार से सम्बंधित इस कहानी को पढ़ें और आत्मसात करें। समुद्र के किनारे एक लड़का अपनी माँ के साथ रहता था। उसके पिता नाविक थे। कुछ दिनों पहले उसके पिता जहाज लेकर समुद्री-यात्रा पर गए थे। बहुत दिन बीत गए पर वे लौट कर नहीं आए. लोगों ने समझा की समुद्री तूफान में जहाज डूबने से उनकी मृत्यु हो गए होगी। एक दिन समुद्र में तूफान आया, लोग तट पर खड़े थे। वह लड़का भी अपनी माँ के साथ वहीं खड़ा था। उन्होंने देखा कि एक जहाज तूफान में फँस गया है। जहाज थोड़ी देर में डूबने ही वाला था। जहाज पर बैठे लोग व्याकुल थे यदि तट से कोई नाव जहाज तक चली जाती तो उनके प्राण बच सकते थे। तट पर नाव थी, लेकिन कोई उसे जहाज तक ले जाने का साहस न कर सका, उस लडके ने अपनी माँ से कहा–"माँ! मैं नाव लेकर जाऊंगा, पहले तो माँ के मन में ममता उमड़ी, फिर उसने सोचा कि एक के त्याग से इतने लोगों के प्राण बचा लेना अच्छा है। उसने अपने पुत्र को जाने की आज्ञा दे दी। वह लड़का साहस करके नाव चलाता हुआ जहाज तक पहुंचा, लोग जहाज से उतरकर नाव में आ गए, जहाज डूब गया नाव किनारे की ओर चल दी सबने बालक की प्रशंसा की और उसे आशीर्वाद देने लगे संयोग से उसी नाव में उसके पिता भी थे। उन्होंने अपने पुत्र को पहचाना लडके ने भी अपने पिता को पहचान लिया। किनारे पहुंचते ही बालक दौड़ कर अपनी माँ के पास गया और लिपट कर बोला–" माँ! पिता जी आ गए "माँ की आँखों में हर्ष के आँसू थे। लोगों ने कहा–" परोपकार की भावना ने पुत्र को उसका पिता लौटा दिया। " परोपकार से मन को शांति और सुख मिलता है। परोपकारी व्यक्ति का नाम संसार में अमर हो जाता है। महाराज शिवि, रन्तिदेव आदि ने प्राणों का मोह छोड़ के परोपकार करके दिखलाया था। इसलिए वे अमर हो गए.

 

       पुरुवंशी नरेश शिवि उशीनगर देश के राजा थे। वे बड़े दयालु-परोपकारी शरण में आने वालो की रक्षा करने वाले एक धर्मात्मा राजा थे। इसके यहाँ से कोई पीड़ित, निराश नहीं लौटता था। इनकी सम्पत्ति परोपकार के लिए थी। इनकी भगवान से एकमात्र कामना थी कि मैं दुःख से पीड़ित प्राणियों की पीड़ा का सदा निवारण करता रहूँ। स्वर्ग में इन्द्र को राजा शिवि के धर्म-कर्म से इन्द्रासन छिनने का भय हुआ। उन्होंने राजा की परीक्षा लेने, हो सके तो इन्हें धर्म मार्ग से हटाने के लिए अपने साथ अग्निदेव को लेकर उशीनगर को प्रस्थान किया। इन्द्र ने बाज का रूप धारण किया, अग्नि ने कबूतर का रूप बनाया। बाज ने कबूतर का पीछा किया। बाज के भय से डरता-कांपता कबूतर उड़ता हुआ आकर राजा शिवि की गोद में गिर पड़ा और इनके वस्त्रों में छिप गया। राजा उसे प्रेम से पुचकारने लगे। इतने में पीछा करता हुआ बाज वहाँ आ पहुंचा। बाज ने कहा-'राजन! मैं भूखा हूँ, यह कबूतर मेरा आहार है्। इसे मुझे दे दीजिए और मुझ भूखे की प्राणरक्षा कीजिए.' राजा ने का-'यह कबूतर मेरी शरण में आया है। शरण में आये हुए की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। मैंने इसे अभयदानन दिया है। मैं इसे किसी प्रकार तुमको नहीं सौंप सकता हूँ।' बाज ने कहा-'महाराज! जहाँ शरणागत की रक्षा करना आपका धर्म है, वहीं किसी का आहार छीनना भी तो आपके लिए अधर्म है। यहाँ आपका धर्म है कि मुझ भूखे को आहार दें, अन्यथा मेरी हत्या का पाप आपको लगेगा। मर जाने के बाद मेरे बच्चे भी भूखे मरेंगे, उनकी हत्या का पाप भी आपको लगेगा। अतः आप इतना अधिक पाप न करें और मेरा आहार सौंप कर अपने धर्म का पालन करें।' राजा ने कहा-'मैं शरणागत को तुम्हें कदापि नहीं दे सकता। आहार के लिए इसके स्थान पर मैं अपना मांस तुम्हें देता हूँ। तुम भरपेट खा लो।' बाज बोला-'मैं मांसाहारी हूँ। कबूतर का मांस या अन्य मांस मेरे लिए समान है। आप चाहें तो कबूतर के बराबर अपना मांस मुझे दे सकते हैं। मुझे अधिक की आवश्यकता भी नहीं है।' राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई. उन्होंने कहा-'यह आपने बड़ी कृपा की। आज इस नश्वर शरीर से अविनाशी धर्म की रक्षा हो रही है।' राजधानी में कोलाहल मच गया। आज राजा एक कबूतर की प्राणरक्षा के लिए अपने शरीर का मांस काटकर तराजू पर तोलने जा रहे हैं-यह देखने के लिए नगर की सारी प्रजा एकत्रित हो गयी। तराजू मंगाया गया। एक पलड़े में कबूतर को बैठाया गया और दूसरे पलड़े पर राजा ने अपने शरीर का मांस काट कर रखा। मांस कम पड़ा तो और काटना पड़ा। वह भी कम पड़ गया। इस प्रकार राजा अपने शरीर का मांस काट कर रखते गये और तराजू का पलड़ा हमेशा कबूतर की तरफ झुका रहा वह जैसे राजा का मांस पाकर अधिकाधिक और भारी होता जा रहा था। सारी प्रजा सांस रोक, भीगे आंसूओं के साथ यह दृश्य देख रही थी। राजा को मुखमण्डल में तो तनिक भी शिकन नहीं थी। अन्त में राजा स्वयं तराजू के पलड़े पर बैठ गये। उसी समय आकाश से पुष्पवृष्ठि होने लगी। अन्तरिक्ष में प्रकाश व्याप्त हो गया। दोनो पक्षी अदृश्य हो गये। उनके स्थान पर इन्द्र और अग्नि सामने खड़े थे। सभी उन्हें आश्चर्यचकित हो देखने लगे। इन्द्र ने कहा-'महाराज! आपकी परीक्षा के लिए मैंने बाज का और अग्निदेव ने कबूतर का रूप धारण किया था। आप तो सच्चे धर्मात्मा निकले। आप जैसे परोपकारी जगत की रक्षा के लिए ही जन्म लेते हैं।' राजा शिवि तराजू से नीचे उतरे। उनका शरीर सामान्य हो चुका था। दोनो देवता अन्तर्धान हो गये। महाराज शिवि ने परोपकार-धर्म की रक्षा की। ऐसे आदर्श चरित्र राजा अब कहाँ हैं? वर्तमान काल के लिए परहित और दयालुता का वे एक आदर्श उदाहरण हैं।

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