प्राचिन आर्य और
ब्रह्मचर्य
मन्ये विधात्रा जगदेक कानम्।
विनिर्मितं वर्ष मिदं सुशोभनम् ॥
धर्माख्य पुष्पाणि कियन्ति यत्र वै ।
कैवल्य रुपञ्च फल प्रचीयते ॥
यह वात सब पर विदित है कि इस देश के
निवासी आर्य नाम से विश्व-मण्डल में विख्यात थे। उनकी इस महत्ता का कारण क्या था? उनका
सदाचारमय-धर्म निष्ठ-लोको पकारी जीवन । वे निरन्तर साधुता-पूर्ण तथा उच्च चरित्र
का अभ्यास करते थे ।
इस बात से वे बहुत उन्नत तथा
सद्गुण-सम्पन्न थे। उनके जीवन को सुधारने वाला प्रधान साधन यही ब्रह्मचर्य' था ।
इसी ब्रह्मचर्य के ऊपर उनका सामाजिक, तथा नैतिक जीवन प्रधानतया
अधिष्ठित था, ओर सारे देश में सुख-शान्ति का अनुपम साम्राज्य
हो गया था । पर हाय । महाभारत के साथ ही आयों के सत्सिद्धान्तों का ह्रास होने लग
गया । दिन पर दिन आर्यों की सब प्रकार की अवनति होती गई । अन्त में यह दशा हुईं कि
हम उन्हीं की एक मात्र सन्तान, उनके आदर्शों के शिखर से
अनाचार के कूप में गिर गये। आर्यों' के उन्नत चरित्र के
सम्बन्ध में बहुत से विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में सुसम्मतियाँ प्रकट की हैं । उनके
देखने से हमें पूर्ण रूप से अनुमान हो जाता है कि कुछ ही दिन पहले, देशी शासन में हम, कितने गौरवान्वित तथा उच्च थे । हमारी
ब्रह्मचर्य की प्रणाली ज्यों -ज्यों अवनत होती गई, त्यों -त्यों
मानव जाति की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक अवनति भी
ब्रढ़ती ही गई ।
आर्यों' के विषय में कहा गया
है कि वे बड़े ऊँचे, हृष्ट-पुष्ट ओर पराक्रमी थे । उनका वर्ण
गौर, शरीर तेजस्वी, उन्नत वक्ष- स्थल
और दिव्य मुख-मण्डल था। बड़े नेत्र ओर लम्बी भुजायें थीं। युद्ध में शूरता दिखलाते
थे। धर्म-पालन में दृढ़ ओर ईश्वर के परम भक्त थे। उनको स्त्रियाँ सदाचारिणी,
पति-भक्ता तथा टेवी-स्वरूपी थीं ।
ऊपर की बातों के अवलोकन से हमारे मन में यह स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि
वे ऐसे क्यों थे, और आज हम उन्हीं के वंशज होकर, इस दुर्गति को क्यों प्राप्त हैं? इसका उत्तर यह सकता
है कि इन सब अवनतियों का प्रधान कारण ब्रह्मचर्य- हीनता है। ब्रह्मचर्य की साधना
से आर्यों का प्राचीन समय में उत्थान हुआ था। और उसके विपरीत चलने से ही हमारा अधःपात
हुआ । यदि उसी ब्रह्मचर्य-प्रथा को पुनर्जीवित कर दिया जाये, तो हमारे अनुमान से आयों' की दशवीं पीढ़ी में पुत्र:
आर्यों' के वंशधर अपनी प्राचीन अवस्था को प्राप्त कर सकेंगे
।
अब हम इस देश के प्राचीन आर्यों' के
चरित्र के सम्बन्ध में कुछ विदेशी विद्वांनों के मतों का संग्रह करते हैं । इन
विद्वानों में प्रायः सभी भारतवर्ष में
आकर यहाँ की अवस्था अपनी आँखों देख गये हैं, और अपने देश में
जाकर अपने ग्रन्थों में यहाँ का विस्तृत वर्णन किया है, तथा
जो कुछ कहा है, उससे उनकी निष्पक्षता प्रकट होती हैः--
जोर्णस--
धर तथा सभ्यता के प्राचीनत्व के विचार
से पृथ्वी की कोई भी जाति आर्य-जाति के समकक्ष नहीं ।”?
हुयनसाँग--
सच्चरित्रता अथवा सत्यता के लिये आर्य-जाति
चिरकाल से विश्व में प्रसिद्ध है ।”
मेगास्थनीज---
“आर्यो' में दासत्व-भाव बिलकुल
नहीं । उनकी स्त्रियों में पातिव्रत और पुरुषों में वीरत्व असीम है । साहसिकता में
आर्य- जाति पृथ्वी भर की अन्य जातियों सें श्रेष्ठ है-- परिश्रमी, शिल्पी ' तथा नम्र प्रकृति है ।
मेक्समूलर--
“जिसे- पृथ्वी पर स्वर्ग कहने में भी
मुझे आनन्द होता है। यदि कोई मुझसे कहे कि किस देश के आकाश के नीचे मनुष्य के
अन्तःकरण की पूर्णता प्राप्त हुई, तो -में कहूँगा कि वह देश भारतवर्ष है ।
मिसेज एनीवेसेट--
“हिन्दू-धर्म के सामने पाश्चात्य
सभ्यता अत्यन्त हीन ज्ञात होती है । ज्ञान की कुन्जी सदा से हिन्दुओं के हाथ सें
रही है ।”
ऊपर को सम्मतियों के अतिरिक्त इस देश के विद्वानों के भी अनेक सद्भाव हैं, जो
यहाँ पर अनावश्यक समझ कर नहीं दिये गये । क्योंकि स्वदेशी लोग अपने देश का पक्षपात
भी थोड़ा- . बहुत कर सकते हैं, पर विदेशी लोगों को इससे क्या
काम !
अतः इस सम्बन्ध में उन्हीं के विचार
मूल्यवान हो सकते हैं ।
धर्म और ब्रह्मचर्य
“घर्मेणैव जगत्सुरक्षित॒मिदम्
।”
“धर्मों विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा,
धजा उपसर्पन्ति
धर्मेण।?
( नारायणोपनिषत् )
धर्म से ही यह संसार सुरक्षित है। धर्म
से ही इस सृष्टि की मर्यादा है । धर्म से ही प्रजा अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकती
है ।
विचार-दृष्टि से देखने पर विदित होता है कि वास्तव में धर्म मनुष्य-जीवन के
लिये अत्यन्त आवश्यक साधन है । धर्म से ही सब प्रकार की उन्नतियाँ हो सकती हैं। धर्म
मनुष्य की उस योग्यता का नाम है, जिसके आश्रय से, वह
अपने पद को सार्थक बनाता है। जैसे अग्नि का धर्म उष्णता--जल का तरलता है, वैसे ही इस शरीर का धर्म संयम-नियम और आत्मा, का
ब्रह्मचर्य है। जो पदार्थ अपने धर्म को छोड़ देता है, वह उसी
समय अपने अस्तित्व को भी खो बैठता है। -
उन्नति निखिला जीवा, धर्मेणैवः
क्रमादिह।
विदधानाः सावधाना, लभन्तेऽन्ते
पर पदम् ॥
( महर्षि व्यास )
इस लोक में समस्त जीव धर्म से ही विकास को प्राप्त करते हैं। धर्म के
नियमों को पालने वाले, और उसके साधन में सावधान रहने वाले नर ही अन्त
में उत्तम पद के अधिकारी होते हैं, अन्य नहीं !
महर्षि कणाद ने अपने ग्रन्थ में धर्म की बहुत ही विश्व- व्यापक तथा अकाट्य
परिभाषा की है, जो सदा और सर्वत्र एक सी घटती है, उसे
हम यहाँ देते हैं:-- .
“यतोऽभ्युद्य निः
श्रेयस सिद्धिः सधर्मः।
( वैशेषिकदर्शन )
जिस उपाय के अवलम्बन से इस लोक तथा परलोक-दोनों का सुख प्राप्त हो, उसे
धर्म कहते हैं। इसके विपरीत अधर्म है।
अभ्युदय! नाम है--ऐहिक उन्नंतियों का । सुन्दर स्वास्थ्य, दीर्घ
जीवन, प्रचुर-सम्पत्ति, सुयश तथा-
अच्छी सन्तान को ही लोग -इस लोक की उन्नतियों में :गिनते हैं। ये सभी उन्नतियाँ ब्रह्मचर्य'
के अधीन हैं । एक ब्रह्मचारी पुरुष--इन सबों को सहज में प्राप्त कर
लेता है । धन: श्रेयस” नाम है-- पारलौकिक विकास का । आत्मानन्द, जीव-दया, परमोत्साह, उच्च : कतर्व्य-
शीलता, सदज्ञान और मोक्ष, इनकी गणना
पारलौकिक विकाश में हे। ये. सभी ब्रह्मचर्य के प्रताप से सुलभ हैं । एक ब्रह्मचारी
इन्हें कुछ ही दिन के सद्भ्यास से, निश्चय रूप से अधिकृत कर
लेता है ।
किंबहुना एक ही ब्रह्मचर्य में धर्म के दोनों उद्देश्यों की सिद्धि हो जाती
है । अतएव हम ब्रह्मचर्य को ही धर्म का साक्षात् स्वरूप समझते हैं । ब्रह्मचर्य शरीर और आत्मा का प्रधान धर्म है।
इससे शारीरिक तथा मानसिक विकास स्वयं हो जाता है। इसलिये ब्रह्मचर्य को सर्वप्रथम
स्थान मिला है।
एक बार नारद जी भगवान विष्णु के पास वैकुंठ
में गये। अभिवादन तथा कुशल-प्रश्न के पश्चात नारदजी ने भगवान से पूछा कि महाराज !
मैं आप से कुछ निवेदन करना चाहता हूँ । इस पर विष्णु भगवान ने उन्हें पूछने की
आज्ञा दी।
उन्होंने पूछा कि हे सब के हृदय की बात जानने वाले प्रभो ! आप की माया में
सब जीव भूले हैं। भला यह तो बताइये कि आप को सब से प्रिय वस्तु क्या है ? में
आप के ही श्री मुख से यह रहस्य प्रकट कराना चाहता हूँ ।
नारद जी का प्रश्न सुन कर भगवान बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि हे
ऋषिवर ! आपने संसार के लाभ की इच्छा से यह प्रश्न किया है, अतएव
में आप से अपने मन की बात बतलाता हूँ
। मुझे ब्रह्मचर्य-धर्म सब से अधि प्रिय है । जो पुरुष मन, वचन
तथा कर्म से इसका उचित रीति से पालन करता है, वह निश्चय ही
मुझ को प्राप्त होता है। यही कारण है कि बड़े-बड़े योगी लोग ब्रह्मचर्य-सिद्धि के
अतिरिक्त कुछ भी - नहीं चाहते । जीव के लिये ब्रह्मचर्य से बढ़ कर दूसरा धर्म
त्रिलोक में नहीं । इस पर नारद जी भगवान की स्तुति कर वहाँ से प्रसन्न चित्त हो कर
अन्य कहीं के लिये विदा हुये ।
सदाचार और ब्रह्मचर्य
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तद्यद्देवेतरोजनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते, लोकस्तदनुवतर्ते
॥
(श्रीमगवद्गीता)
श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, वैसा दूसरे लोग भी उनकी
देखा-देखी करते हैं, और वे जो कुछ नियम निर्धारित करते हैं,
लोग उन्हीं के अनुकूल चलने लगते हैं ।
“आचार: प्रथमो धर्म: ।
( मनुस्मृति )
सदाचार ही परम धर्म है। भगवान मनु ने उपयुक्त शब्दों में सदाचार को
प्रधानता दी है ।
'वास्तव में मनुष्य-जीवन का सार सदाचार है । सदाचार से ही, दोनों ही, व्यक्तिगत तथा सामाजिक सुधार हो सकते हैं
। जो 'जाति, और जो देश अपने सदाचार से
पतित नहीं होता, वह अपनी सुखमय अवस्था से हीन नहीं हो सकता
है ।
सदाचार का अर्थ है--सज्जनों का
आचरण ! वे उत्तम नियम, जिन पर कि उच्च पुरुष चलते हैं--अथवा शास्त्र-सम्मत
वे 'कार्य, जिनके करने से मनुष्य-समाज को
सुख और शान्ति मिलती है । यह बात सभी लोग जानते हैं कि हमारे ऋषि-महर्षि सदाचारी
ओर श्रेष्ठ पुरुष थे। उनके निर्धारित किये हुये कर्म भी सदाचार हैं । वे जैसा आचरण
करते थे, वैसा ही प्रजा को भरी करने का उपदेश देते थे । वे
भी ब्रह्मचर्य को सदाचार मानते थे ।
यही कारण था कि प्राचीन कालीन जनता ब्रह्मचर्य के पालन में अत्यधिक उद्यत
थी । धमर्ज्ञ- शिरोभूषण मनु ने सदाचार ले प्राप्त होने वाले उत्तम फलों का इस
प्रकार वर्णन किया है:---
आचाराल्लभते
ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः ।
आाचाराद्धन मक्षय्ण
माचारो हन्त्यलक्षणम ॥
( मनुस्मृति )-
सदाचार का पालन करने से मनुष्य को दीर्घायु, मन चाही सन्तान और
अमित धन सिलता है। सदाचार से अनेक दुर्गुण भी नष्ट हो जाते हैं। वे फिर कहते
है:---
सर्व लक्षण-हीनोऽपि, यः
सदाचारवान्नरः ।
श्रद्दधानोअनसूयश्र्च, शतं
वर्षाणि जीवति।।
( मनुस्मृति. )
सब शुभ लक्षणों से रहित होने पर भी, जो सदाचारी पुरुष है--शास्त्रों
पर श्रद्धा रखने वाला ओर ईर्ष्या से घृणा रखने वाला है, वह सौ
वर्षों' तक जीता है । अब हमारे पाठक भली भाँति-समझ गये होंगे
कि सदाचार मनुष्य-जाति का कितना हित करने वाला साधन - है। अतः इस का पालन करना भी
कितना आवश्यक है ।
ऊपर जिन ऊँचे उद्देश्यों को सिद्धि सदाचार से होती है, सो सब
ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत हैं । अतएव वह सदाचार यही ब्रह्मचर्य है । हम सदाचार को ब्रह्मचर्य
से पृथक नहीं कर सकते । हमारे विचार से 'ब्रह्मचर्य' ही मूल सदाचार है। क्योंकि सदाचार के जितने गुण हैं, वे सब इसके भीतर आ जाते हैं ।
जैसे सदाचार से समस्त दोषों का नाश होता है, वैसे ब्रह्मचर्य से भी
किया जा सकता है। अत: ब्रह्मचर्य से सदाचार भी सिद्ध हो गया । ब्रह्मचारी ही सच्चा
सदाचारी है ।
तप और ब्रह्मचर्य
“तपो वे ब्रह्मचर्यम्
।” ( श्रृति )
वास्तव में ब्रह्मचर्य ही तप है ।
“तपो मे हृदय साक्षात्
।”
( भगवान् विष्णु )
तप मेरा साक्षात् हृदय है ।
पुराणों तथा और अच्छे ग्रन्थों में लिखा
है कि भारत के ऋषि- महर्षि तप करते थे--उन लोगों का जीवन प्रायः तप के अनुष्ठान में
ही बीतता था। यही कारण था कि वे अपने तपोबल से पृथिवी पर मनुष्य-जाति का महान हित
करे, आदरणीय बनते थे ।
ऊपर की बात जान कर मन में यह
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वह तप क्या था ? हमारे विचार से वह “ब्रह्मचर्य”
ही था! उसी की रक्षा के लिये विविध प्रकार के उपाय किए जाते थे । उसी की एक मात्र
साधना से बड़ी २ सिद्धियां प्राप्त होती थीं। '
उसको एक बार खण्डित होने से भी तपस्वियों
के अनेक वर्ष का परिश्रम ओर अनुष्ठान नष्ट हो जाता था । वे जो कुछ करना चाहते थे, वह
मनोरथ नहीं सधता था । वे लोग उसी ब्रह्मचर्य की रक्षा करने के लिये नगरों को त्याग
कर वनों सें तथा पर्वतों पर जा कर रहते थे । फलाहार कर अपने शरीर को क्षीण कर देते
थे ।
बहुत से लोग वृक्षों के पत्तों, वनस्पतियों तथा वायु पर ही
अपना
जीवन निर्वाह करते थे । देह के दुर्बल
हो जाने से उन्हें काम-विकार नहीं सताता था। काम-विकार के न उत्पन्न होने से उनका
वीर्य रक्षित रहता था। वीर्य के सुरक्षित रहने से आत्म-तेज बढ़ता था, जिससे
चित में शान्ति आती थी । चित्त के स्थिर हो जाने के कारण, वे
योग कर सकते थे। अर्थात् मन को आत्मा या परमात्मा में लीन करते थे । इस प्रकार
उन्हें उस ज्ञान या परमानन्द की प्राप्ति हो जाती थी, जिससे
वे मुक्ति-पद (परम शान्ति) को पा जाते थे ।
अब पाठक समझ गये होंगे कि ब्रह्मचर्य ही वह परम तप था । उसी का पालन करने
के लिये जन्म भर यत्न किये जाते थे । अनेक विघ्न पड़ने पर भी यह महा व्रत नहीं
छोड़ा जाता था । जो तपस्वी अपनी इस साधना में सफल हो जाते थे, वे
ही सफल मनोरथ होते थे । इसी से भगवान शिव ने इस प्रकार अपने हृदय का भाव प्रकट
किया हैः--
“न तपस्तप
इत्याहुब्रह्मचर्यतपोत्तमम् ।”
( तन्त्र शास्त्र )
अर्थात् तप कुछ नहीं है ! ब्रह्मचर्य ही उत्तम तप है । इस अवतरण से भी
हमें यही भासता है कि शिवजी ने भी ब्रह्मचर्य को ही उत्तम तप माना है । अतः हमारे
कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य ही परम तप है, और इसको पालन करने
वाला पुरुष ही सच्चा तपस्वी है ।
भगवान श्री कृष्ण ने अपनी गीता में शारीरिक, वाचिक ओर मानसिक--इन
तीन प्रकार के तपों का वर्णन किया है। उसे हम यहां देते है;-
देवद्विजगुरुप्राज्ञ-पूजनं, शौच
मार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च, शारीरं
तप उच्यते ॥
( श्रीमभागवद्गीता )
देव, द्विज, गुरु ओर विद्वान की पूजा
(सत्कार) पवित्रता और सरलता, तथा ब्रह्मचर्य और अहिंसा को
शारीरिक तप कहते हैं ।
अनुद्वेग-करं वाक्यं, सत्यं
प्रियं हितञ्चयत् ।
स्वाध्यायाव्यसनं चैव, चाङ्मयं
तप उच्यते ॥
( श्रीमदभागवद्गीता )
किसी का हृदय न दुखाने वाला, सत्य-प्रिय तथा परोपकारी वचन,
और वेदों के अभ्यास को वाचिक तप कहते हैं ।
मनः प्रसादः सौमयत्वं, मौनमात्म-विनिग्रहः
। -
भाव-संशुद्धि रित्येतत्तपो
मानस उच्यते ॥
( श्रीमदभागवद्गीता )
अर्थात् चित्त की प्रसन्नता, सौम्यता, मननशीलता, विषयों से विरक्तता तथा भावों की शुद्धता
को मानसिक तप कहते हैं । भगवान श्रीकृष्ण के मत से भी ब्रह्मचर्य की गणना शारीरिक तप
में हुई है। पर हमारे विचार से ऊपर जिन तपों का वर्णन गया है, वे सभी साधनायें, एक ब्रह्मचर्य के ही अन्तर्गत आ जाती
हैं । ब्रह्मचर्य के बिना पालन किये, वे कदापि निबह नहीं सकती
। अतएव ब्रह्मचर्य को महा तप जानना चाहिये ।
हमने ब्रचह्मर्य को ही तप सिद्ध किया है। प्राचीन काल में प्रधानतया यही तप
साधा जाता था । हमारे मत की पुष्टि नीचे लिखे 'वैद्कि मन्त्र से भी होती
हैः---
“ब्रह्मचर्येण तपसा
देवा मृत्युमुपाघ्नत ।”
( अथर्वेवेद )
ब्रह्मचर्य रूपी तप से देवों को अमरता
प्राप्त हुई । अब पाठक समझ गये होंगे कि तप ओर ब्रह्मचर्य में कुछ भी अन्तर नहीं ।
आजकल जो तप के नाम से प्रसिद्ध है, वह वास्तव में यही ब्रह्मचर्य
था, जिसके लिये अनेक वर्ष तक लोग यत्न-पूर्वक तपस्या करते थे,
और उसके निर्विघ्न अभ्यस्त हो जाने पर, ब्रह्म
की प्राप्ति होती थी । एवं ब्रह्मचर्य सिद्ध हो जाता था ।
THE
GOAL OF THE YOGI AND LEVITATION
SURAGHO-THE
LONG-LIVED YOGI THE SECRET OF HIS LONGEVITY
QUEEN CHUNDALAI, THE
GREAT YOGIN
THE POWER OF
DHARANA, DHIYANA, AND SAMYAMA YOGA.
THE POWER OF THE
PRANAYAMA YOGA.
KUNDALINI,
THE MOTHER OF THE UNIVERSE.
TO THE KUNDALINI—THE
MOTHER OF THE UNIVERSE.
Yoga Vashist part-1
-or- Heaven Found by Rishi Singh Gherwal
Shakti and Shâkta
-by Arthur Avalon (Sir John Woodroffe),
Mahanirvana Tantra-
All- Chapter -1 Questions relating to
the Liberation of Beings
Tantra
of the Great Liberation
श्वेतकेतु और
उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद,
GVB THE UNIVERSITY OF VEDA
यजुर्वेद
मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10,
GVB THE UIVERSITY OF VEDA
उषस्ति की
कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
_4 -GVB the uiversity of veda
वैराग्यशतकम्, योगी
भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी
व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda
G.V.B. THE
UNIVERSITY OF VEDA ON YOU TUBE
इसे भी पढ़े-
इन्द्र औ वृत्त युद्ध- भिष्म का युधिष्ठिर को उपदेश
इसे भी पढ़े
- भाग- ब्रह्मचर्य वैभव
Read Also Next
Article- A Harmony of Faiths and Religions
इसे भी पढ़े-
भाग -2, ब्रह्मचर्य की प्राचीनता
वैदिक इतिहास
संक्षीप्त रामायण की कहानीः-
वैदिक ऋषियों
का सामान्य परिचय-1
वैदिक इतिहास
महाभारत की सुक्ष्म कथाः-
वैदिक ऋषियों
का सामान्य परिचय-2 –वैदिक ऋषि अंगिरस
वैदिक
विद्वान वैज्ञानिक विश्वामित्र के द्वारा अन्तरिक्ष में स्वर्ग की स्थापना
राजकुमार और
उसके पुत्र के बलिदान की कहानीः-
पुरुषार्थ और विद्या- ब्रह्मज्ञान
संस्कृत के अद्भुत सार गर्भित विद्या श्लोक हिन्दी अर्थ सहित
श्रेष्ट
मनुष्य समझ बूझकर चलता है"
पंचतंत्र- कहानि क्षुद्रवुद्धि गिदण की
कनफ्यूशियस के शिष्य चीनी विद्वान के शब्द। लियोटालस्टा
कहानी माधो चमार की-लियोटलस्टाय
पर्मार्थ कि यात्रा के सुक्ष्म सोपान
जीवन संग्राम -1, मिर्जापुर का परिचय
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know