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दयालु हृदय रुरु कथा

 

दयालु हृदय रुरु कथा

    

   रुरु नाम एक मृग था। सोने के रंग में ढला उसका सुंदर सजीला बदन; माणिक, नीलम और पन्ने की कांति की चित्रांगता से शोभायमान था। मखमल से मुलायम उसके रेशमी बाल, आसमानी आँखें तथा तराशे स्फटिक-से उसके खुर और सींग सहज ही किसी का मन मोह लेने वाले थे। तभी तो जब भी वह वन में चौकडियाँ भरता तो उसे देखने वाला हर कोई आह भर उठता। जाहिर है कि रुरु एक साधारण मृग नहीं था। उसकी अप्रतिम सुन्दरता उसकी विशेषता थी। लेकिन उससे भी बड़ी उसकी विशेषता यह थी कि वह विवेकशील था; और मनुष्य की तरह बात-चीत करने में भी समर्थ था। पूर्व जन्म के संस्कार से उसे ज्ञात था कि मनुष्य स्वभावत: एक लोभी प्राणी है और लोभ-वश वह मानवीय करुणा का भी प्रतिकार करता आया है। फिर भी सभी प्राणियों के लिए उसकी करुणा प्रबल थी और मनुष्य उसके करुणा-भाव के लिए कोई अपवाद नहीं था। यही करुणा रुरु की सबसे बड़ी विशिष्टता थी। एक दिन रुरु जब वन में स्वच्छंद विहार कर रहा था तो उसे किसी मनुष्य की चीत्कार सुनायी दी। अनुसरण करता हुआ जब वह घटना-स्थल पर पहुँचा तो उसने वहाँ की पहाड़ी नदी की धारा में एक आदमी को बहता पाया। रुरु की करुणा सहज ही फूट पड़ी। वह तत्काल पानी में कूद पड़ा और डूबते व्यक्ति को अपने पैरों को पकड़ने कि सलाह दी। डूबता व्यक्ति अपनी घबराहट में रुरु के पैरों को न पकड़ उसके ऊपर की सवार हो गया। नाजुक रुरु उसे झटक कर अलग कर सकता था मगर उसने ऐसा नहीं किया। अपितु अनेक कठिनाइयों के बाद भी उस व्यक्ति को अपनी पीठ पर लाद बड़े संयम और मनोबल के साथ किनारे पर ला खड़ा किया। सुरक्षित आदमी ने जब रुरु को धन्यवाद देना चाहा तो रुरु ने उससे कहा, "अगर तू सच में मुझे धन्यवाद देना चाहता है तो यह बात किसी को ही नहीं बताना कि तूने एक ऐसे मृग द्वारा पुनर्जीवन पाया है जो एक विशिष्ट स्वर्ण-मृग है; क्योंकि तुम्हारी दुनिया के लोग जब मेरे अस्तित्व को जानेंगे तो वे निस्सन्देह मेरा शिकार करना चाहेंगे।" इस प्रकार उस मनुष्य को विदा कर रुरु पुन: अपने निवास-स्थान को चला गया। कालांतर में उस राज्य की रानी को एक स्वप्न आया। उसने स्वप्न में रुरु साक्षात् दर्शन कर लिए. रुरु की सुन्दरता पर मुग्ध; और हर सुन्दर वस्तु को प्राप्त करने की तीव्र अभिलाषा से रुरु को अपने पास रखने की उसकी लालसा प्रबल हुई. तत्काल उसने राजा से रुरु को ढूँढकर लाने का आग्रह किया। सत्ता में मद में चूर राजा उसकी याचना को ठुकरा नहीं सका। उसने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो कोई-भी रानी द्वारा कल्पित मृग को ढूँढने में सहायक होगा उसे वह एक गाँव तथा दस सुन्दर युवतियाँ पुरस्कार में देगा। राजा के ढिंढोरे की आवाज उस व्यक्ति ने भी सुनी जिसे रुरु ने बचाया था। उस व्यक्ति को रुरु का निवास स्थान मालूम था। बिना एक क्षण गँवाये वह दौड़ता हुआ राजा के दरबार में पहुँचा। फिर हाँफते हुए उसने रुरु का सारा भेद राजा के सामने उगल डाला। राजा और उसके सिपाही उस व्यक्ति के साथ तत्काल उस वन में पहुँचे और रुरु के निवास-स्थल को चारों ओर से घेर लिया। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने रुरु को रानी की बतायी छवि के बिल्कुल अनुरुप पाया। राजा ने तब धनुष साधा और रुरु उसके ठीक निशाने पर था। चारों तरफ से घिरे रुरु ने तब राजा से मनुष्य की भाषा में यह कहा "राजन्! तुम मुझे मार डालो मगर उससे पहले यह बताओ कि तुम्हें मेरा ठिकाना कैसे मालूम हुआ?" उत्तर में राजा ने अपने तीर को घुमाते हुए उस व्यक्ति के सामने रोक दिया जिसकी जान रुरु ने बचायी थी। रुरु के मुख से तभी यह वाक्य हठात् फूट पड़ा

     "निकाल लो लकड़ी के कुन्दे को पानी से न निकालना कभी एक अकृतज्ञ इंसान को।"

      राजा ने जब रुरु से उसके संवाद का आशय पूछा तो रुरु ने राजा को उस व्यक्ति के डूबने और बचाये जाने की पूरी कहानी कह सुनायी। रुरु की करुणा ने राजा की करुणा को भी जगा दिया था। उस व्यक्ति की कृतध्नता पर उसे रोष भी आया। राजा ने उसी तीर से जब उस व्यक्ति का संहार करना चाहा तो करुणावतार मृग ने उस व्यक्ति का वध न करने की प्रार्थना की। रुरु की विशिष्टताओं से प्रभावित राजा ने उसे अपने साथ अपने राज्य में आने का निमंत्रण दिया। रुरु ने राजा के अनुग्रह का नहीं ठुकराया और कुछ दिनों तक वह राजा के आतिथ्य को स्वीकार कर पुन: अपने निवास-स्थल को लौट गया।

       कुटिलता रहित कर्मों अर्थात शुद्ध भाव से जिन-जिन पदार्थों से हवन भौतिक यज्ञ किया जाता है उन सभी पदार्थों को एकत्रित करके स्वयं के पास भारी मात्रा में संग्रहित करें और निरंतर इस भौतिक यज्ञ को करके इसका निरंतर विस्तार किजीये। क्योकि यज्ञ यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिय है जिससे हमारा भुमंडल पूर्णतः शुद्ध निर्मल और पवित्र होता है। इसका किसी भी परिस्थिति में त्याग मत किजीये जो गुरु है उनके लिए परमेश्वर उपदेश कर रहा है। आगे मंत्र कहता है कि तुम्हारे यज्ञमान भी कभी इस यज्ञ के अनुष्ठान का त्याग कभी ना करें ऐसा करने से वह जो सब जो गंदगी करते है जिससे हमारा वातवरण अपवित्र शुद्ध और प्रदुषित होता है वह नहीं होगा। यज्ञ को पांच प्रकार का बताया गया है। जिसको यहाँ पाच प्रकार कि चेष्टाये कहा जा रहा है।

       कल्याणकटक बस्ती में एक भैरव नामक व्याध (शिकारी) रहता था। वह एक दिन मृग को ढ़ूढ़ता-ढ़ूंढ़ता विंध्याचल की ओर गया, फिर मारे हुए मृग को ले कर जाते हुए उसने एक भयंकर शूकर को देखा। तब उस व्याध ने मृग को भूमि पर रख कर शूकर को बाण से मारा। शूकर ने भी भयंकर गर्जना करके उस व्याध के मुष्कदेश में ऐसी टक्कर मारी कि वह कटे पेड़ के समान जमीन पर गिर पड़ा। क्योंकि जल, अग्नि, विष, शस्र, भूख, रोग और पहाड़ से गिरना इसमें से किसी-न-किसी बहाने को पा कर प्राणी प्राणों से छूटता है। उन दोनों के पैरों की रगड़ से एक सर्प भी मर गया। इसके पीछे आहार को चाहने वाले दीर्घराव नामक गीदड़ ने घूमते-घूमते उन मृग, व्याध, सर्प और शूकर को मरे पड़े हुए देखा और विचारा कि आहा, आज तो मेरे लिए बड़ा भोजन तैयार है। अथवा, जैसे देहधारियों को अनायास दु: ख मिलते हैं वैसे ही सुख भी मिलते हैं, परंतु इसमें प्रारब्ध बलवान है, ऐसा मानता हूँ। जो कुछ हो, इनके माँसों से मेरे तीन महीने तो सुख से कटेंगे। एक महीने को मनुष्य होगा, दो महीने को हरिण और शूकर होंगे और एक दिन को सर्प होगा और आज धनुष की डोरी चाबनी चाहिये। फिर पहले भूख में यह स्वादरहित, धनुष में लगा हुआ तांत का बंधन खाउँ। यह कह कर वैसा करने पर तांत के बंधन के टूटते ही उछटे हुए धनुष से हृदय फट कर वह दीर्घराव मर गया। इसलिए कहा गया है, ज्ञान संचय नित्य करना चाहिये।

       शास्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान पुरुषः स विद्वान्। सुचिन्तितं चौषधमातुराणां, न नाममात्रेण करोत्यरोगम्॥

     शास्त्र पढ़ कर भी मूर्ख होते हैं, परंतु जो क्रिया में चतुर हैं, वहीं सच्चा पण्डित है, जैसे अच्छे प्रकार से निर्णय की हुई औषधि भी रोगियों को केवल नाममात्र से अच्छा नहीं कर देती है। शास्र की विधि, पराक्रम से डरे हुए मनुष्य को कुछ गुण नहीं करती है, जैसे इस संसार में हाथ पर धरा हुआ भी दीपक अंधे को वस्तु नहीं दिखा सकती है। इस शेष दशा में शांति करनी चाहिए और इसे भी अधिक क्लेश तुमको नहीं मानना चाहिये। क्योंकि राजा, कुल की वधु, ब्राह्मण, मंत्री, स्तन, दंत, केश, नख और मनुष्य ये अपने स्थान से अलग हुए शोभा नहीं देते हैं। यह जान कर बुद्धिमान को अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहिये। यह कायर पुरुष का वचन है।

    स्थानमुत्सृज्य गच्छन्ति: सिंहा: सत्पुरुषा गजा:। 

तत्रैव निधनं यान्ति काका: कापुरुषा मृगा:॥

     क्योंकि, सिंह, सज्जन पुरुष और हाथी ये स्थान को छोड़ कर जाते हैं और काक, कायर पुरुष और मृग ये वहाँ ही नाश होते हैं। वीर और उद्योगी पुरुषों को देश और विदेश क्या है? अर्थात जैसा देश वैसा ही विदेश। वे तो जिस देश में रहते हैं, उसी को अपने बाहु के प्रताप से जीत लेते हैं। जैसे सिंह वन में दांत, नख, पूँछ के प्रहार करता हुआ फिरता है, उसी वन में (अपने बल से) मारे हुए हाथियों के रुधिर से अपने प्यास बुझाता है और जैसे मैण्डक कूप के पास पानी के गड्ढ़े में और पक्षी भरे हुए सरोवर को आते हैं, वैसे ही सब संपत्तियाँ अपने आप उद्योगी पुरुष के पास आती हैं।

      सुखमापतितं सेव्यं दु: खमापतितं तथा। 

चक्रवत् परिवर्तन्ते दु: खानि च सुखानि च॥

    आए हुए सुख और दु: ख को भोगना चाहिये। क्योंकि सुख और दु: ख पहिये की तरह घुमते हैं (यानि सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता जाता है।) और दूसरे-उत्साही तथा आलस्यहीन, कार्य की रीति को जानने वाला, द्यूतक्रीड़ा आदि व्यसन से रहित, शूर, उपकार को मानने वाला और पक्की मित्रता वाला ऐसे पुरुष के पास रहने के लिए लक्ष्मी आप ही जाती है।

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