पंचतंत्र- कहानि क्षुद्रवुद्धि गिदण
की
मगध देश में चंपकवती नामक एक महान अरण्य
था, उसमें बहुत दिनों में मृग और कौवा बड़े स्नेह
से रहते थे। किसी गीदड़ ने उस मृग को हट्ठा-कट्ठा और अपनी इच्छा से इधर-उधर घूमता हुआ
देखा, इसको देख कर गीदड़ सोचने लगा अरे, कैसे इस सुंदर (मीठा) माँस खाऊँ? जो हो, पहले इसे विश्वास उत्पन्न कराऊँ। यह विचार
कर उसके पास जाकर बोला हे मित्र, तुम कुशल हो? मृग ने कहा " तू कौन है? ' वह बोला मैं क्षुद्रबुद्धि
नामक गीदड़ हूँ। इस वन में बंधुहीन मरे के समान रहता हूँ और सब प्रकार से तुम्हारा सेवक
बन कर रहूँगा। मृग ने कहा-ऐसा ही हो, अर्थात रहा कर। इसके अनंतर किरणों की मालासे भगवान सूर्य के अस्त हो जाने पर वे
दोनों मृग के घर को गये और वहाँ चंपा के वृक्ष की डाल पर मृग का परम मित्र सुबुद्धि
नामक कौवा रहता था। कौए ने इन दोनों को देखकर कहा-मित्र, यह चितकवरा दूसरा कौन है? मृग ने कहा-यह गीदड़
है। हमारे साथ मित्रता करने की इच्छा से आया है। कौवा बोला-मित्र, अनायास आए हुए के साथ मित्रता नहीं करनी चाहिये।
अज्ञातकुलशीलस्य वासो देयो न कस्यचित्।
मार्जारस्य
हि दोषेण हतो गृध्रो जरद्रवः॥
कहा भी गया है कि-जिसका कुल और स्वभाव नहीं
जाना है, उसको घर में कभी न ठहराना चाहिए, क्योंकि बिलाव के अपराध में एक बूढ़ा गिद्ध मारा गया। यह सुनकर सियार झुंझलाकर
बोला-मृग से पहले ही मिलने के दिन तुम्हारी भी तो कुल और स्वभाव नहीं जाना गया था।
फिर कैसे तुम्हारे साथ इसकी गाढ़ी मित्रता हो गई.
यत्र विद्वज्जनो नास्ति श्रलाघ्यस्तत्राल्पधीरपि।
निरस्तपादपे देशे एरण्डोsपि द्रुमायते॥
जहाँ पंडित नहीं होता है, वहाँ थोड़े पढ़े की भी बड़ाई होती है। जैसे कि जिस देश में पेड़ नहीं होता है, वहाँ अरण्डाका वृक्ष ही पेड़ गिना जाता है और दूसरे यह अपना है या पराया है, यह अल्पबुद्धियों की गिनती है। उदारचरित वालों को तो सब पृथ्वी ही कुटुंब है। जैसा
यह मृग मेरा बंधु है, वैसे ही तुम भी हो। मृग बोला-इस
उत्तर-प्रत्युत्तर से क्या है? सब एक स्थान में विश्वास
की बातचीत कर सुख से रहो। क्योंकि न तो कोई किसी का मित्र है, न कोई किसी का शत्रु है। व्यवहार से मित्र और शत्रु बन जाते हैं। कौवे ने कहा-ठीक
है। फिर प्रातःकाल सब अपने-अपने मनमाने देश को गये।
एक दिन एकांत में सियार ने कहा-मित्र मृग, इस वन में एक दूसरे स्थान में अनाज से भरा हुआ खेत है, सो चल कर तुझे दिखाऊँ। वैसा करने पर मृग वहाँ जा कर नित्य अनाज खाता रहा। एक दिन
उसे खेत वाले ने देख कर फँदा लगाया। इसके बाद जब वहाँ मृग फिर चरने को आया सो ही जाल
में फँस गया और सोचने लगा-मुझे इस काल की फाँसी के समान व्याध के फंदे से मित्र को
छोड़कर कौन बचा सकता है? इस बीच में सियार
वहाँ आकर उपस्थित हुआ और सोचने लगा—मेरे छल की चाल से मेरा मनोरथ
सिद्ध हुआ और इस उभड़े हुए माँस और लहू लगी हुई हड्डियाँ मुझे अवश्य मिलेंगी और वे मनमानी
खाने के लिए होंगी। मृग उसे देख प्रसन्न होकर बोला-ओ मित्र मेरा बंधन काटो और मुझे
शीघ्र बचाओ.
आपत्सु मित्रं जानीयाद्युध्दे शूरमृणे शुचिम्।
भार्यो क्षीणेषु वित्तेषु व्यसनेषु च बांधवान्॥
आपत्ति में मित्र, युद्ध में शूर, उधार में सच्चा व्यवहार, निर्धनता में स्री और दु: ख में भाई (या कुटुंबी) परखे जाते हैं और दूसरे विवाहादि
उत्सव में, आपत्ति में, अकाल में, राज्य के पलटने में, राजद्वार में तथा श्मशान में, जो साथ रहता है, वह बांधव है। सियार जाल को बार-बार देख सोचने लगा-यह बड़ा कड़ा बंध है और बोला—
"" मित्र, ये फँदे तांत के बने हुए हैं, इसलिए आज रविवार के
दिन इन्हें दाँतों से कैसे छुऊँ मित्र जो बुरा न मानो तो प्रातः काल जो कहोगे, सो कर्रूँगा"। ऐसा कह कर उसके पास ही वह अपने को छिपा कर बैठ गया। पीछे वह
कौवा सांझ होने पर मृग को नहीं आया देख कर इधर-उधर ढ़ूढ़ते-ढ़ूंढ़ते उस प्रकार उसे (बंधन
में) देख कर बोला—" "मित्र, यह क्या है?" मृग ने कहा-"मित्र का
वचन नहीं मानने का फल है"।
सुहृदां हितकामानां यः श्रृणोति न भाषितम्।
विपत्संनिहिता
तस्य स नरः शत्रुनंदन॥
जैसा कहा गया है कि जो मनुष्य अपने हितकारी
मित्रो का वचन नहीं सुनता है, उसके पास ही विपत्ति
है और अपने शत्रुओं को प्रसन्न करने वाला है। कौवा बोला-"वह ठग कहाँ है? मृग ने कहा-" मेरे मांस का लोभी यहाँ ही कहीं बैठा होगा? कौवा बोला-मैंने पहले ही कहा था। मृग ने कहा मेरा कुछ अपराध नहीं है, अर्थात मैंने इसका कुछ नहीं बिगाड़ा है, अतएव यह भी मेरे संग विश्वासघात न करेगा, यह बात कुछ विश्वास का कारण नहीं है, क्योंकि गुण और दोष को बिना सोचे शत्रुता करने वाले नीचों से सज्जनों को अवश्य
भय होता ही है और जिनकी मृत्यु पास आ गयी है, ऐसे मनुष्य न तो बुझे हुए दिये की चिरांद सूंघ सकते हैं, न मित्रता का वचन सुनते हैं और न अर्रूंधती के तारे को देख सकते हैं।
परोक्ष कार्यहंतारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।
वर्जयेत्तादृशं मित्र विषकुम्भं पयोमुखम्।
पीठ पीछे काम बिगाड़ने वाले और मुख पर मीठी-मीठी
बातें करने वाले मित्र को, मुख पर दूध वाले विष
के घड़े के समान छोड़ देना चाहिए। कौवे ने लंबी सांस भर कर कहा कि-"अरे ठग, तुझ पापी ने यह क्या किया?" क्योंकि अच्छे प्रकार से बोलने वालों को, मीठे-मीठे वचनों तथा मित्र कपट से वश में किये हुओं को, आशा करने वालों को, भरोसा रखने वालों
को और धन के याचकों को, ठगना क्या बड़ी बात
है? और हे पृथ्वी, जो मनुष्य उपकारी, विश्वासी तथा भोले-भाले मनुष्य
के साथ छल करता है उस ठग पुरुष को हे भगवति पृथ्वी, तू कैसे धारण करती है
दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
उष्णो दहति चाड्गारः शीतः कृष्णायते करम्।
दुष्ट के साथ मित्रता और प्रीति नहीं करनी चाहिये, क्योंकि गरम अंगारा हाथ को जलाता है और ठंढ़ा हाथ को काला कर देता है। दुर्जनों
का यही आचरण है। मच्छर दुष्ट के समान सब चरित्र करता है, अर्थात् जैसे दुष्ट पहले पैरों पर गिरता है, वैसे ही यह भी गिरता है। जैसे दुष्ट पीठ पीछे बुराई करता है, वैसे ही यह भी पीठ में काटता है। जैसे दुष्ट कान के पास मीठी-मीठी बात करता है, वैसे ही यह भी कान के पास मधुर विचित्र शब्द करता है और जैसे दुष्ट आपत्ति को देखकर
निडर हो बुराई करता है, वैसे ही मच्छर भी
छिद्र अर्थात् रोम के छेद में प्रवेश कर काटता है।
दुर्जनः प्रियवादी च नैतद्विश्वासकारणम्।
मधु तिष्ठति
जिह्मवाग्रे हृदि हालाहलं विषम्।
और दुष्ट मनुष्य का प्रियवादी होना यह विश्वास
का कारण नहीं है। उसकी जीभ के आगे मिठास और हृदय में हालाहल विष भरा है। प्रातःकाल
कौवे ने उस खेत वाले को लकड़ी हाथ में लिये उस स्थान पर आता हुआ देखा, उसे देख कर कौवे ने मृग से कहा-" मित्र हरिण, तू अपने शरीर को मरे के समान दिखा कर पेट को हवा से फुला कर और पैरों को ठिठिया
कर बैठ जा। जब मैं शब्द कर्रूँ तब तू झट उठ कर जल्दी भाग जाना। मृग उसी प्रकार कौवे
के वचन से पड़ गया। फिर खेत वाले ने प्रसन्नता से आँख खोल कर उस मृग को इस प्रकार देखा, आहा, यह तो आप ही मर गया। ऐसा कह कर मृग की
फाँसी को खोल कर जाल को समेटने का प्रयत्न करने लगा, पीछे कौवे का शब्द सुन कर मृग तुरंत उठ कर भाग गया। इसको देख उस खेत वाले ने ऐसी
फेंक कर लकड़ी मारी कि उससे सियार मारा गया।
त्रिभिर्वषैंस्रिभिर्मासैस्रिभि: पक्षैस्रिभिर्दिनै:।
अत्युत्कटै: पापपुण्यैरिहैव फलमश्रुते॥
जैसा कहा गया है कि प्राणी तीन वर्ष, तीन मास, तीन पक्ष और तीन दिन में, अधिक पाप और पुण्य का फल यहाँ ही भोगता है।
श्वेतकेतु
और उद्दालक, उपनिषद की कहानी, छान्द्योग्यापनिषद, GVB THE UNIVERSITY OF VEDA
यजुर्वेद मंत्रा हिन्दी व्याख्या सहित, प्रथम अध्याय 1-10, GVB THE
UIVERSITY OF VEDA
उषस्ति की कठिनाई, उपनिषद की कहानी, आपदकालेमर्यादानास्ति,
_4 -GVB the uiversity of veda
वैराग्यशतकम्, योगी भर्तृहरिकृत, संस्कृत काव्य, हिन्दी व्याख्या, भाग-1, gvb the university of Veda
G.V.B. THE UNIVERSITY OF VEDA ON
YOU TUBE
इसे भी पढ़े- इन्द्र औ वृत्त युद्ध- भिष्म का
युधिष्ठिर को उपदेश
इसे भी पढ़े - भाग- ब्रह्मचर्य वैभव
Read Also Next Article- A Harmony of Faiths and
Religions
इसे भी पढ़े- भाग -2, ब्रह्मचर्य की प्राचीनता
वैदिक इतिहास संक्षीप्त रामायण की कहानीः-
वैदिक ऋषियों का सामान्य परिचय-1
वैदिक इतिहास महाभारत की सुक्ष्म कथाः-
वैदिक ऋषियों का सामान्य परिचय-2 –वैदिक ऋषि अंगिरस
वैदिक विद्वान वैज्ञानिक विश्वामित्र के द्वारा
अन्तरिक्ष में स्वर्ग की स्थापना
राजकुमार और उसके पुत्र के बलिदान की कहानीः-
पुरुषार्थ
और विद्या- ब्रह्मज्ञान
संस्कृत
के अद्भुत सार गर्भित विद्या श्लोक हिन्दी अर्थ सहित
श्रेष्ट
मनुष्य समझ बूझकर चलता है"
0 Comments
If you have any Misunderstanding Please let me know