अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधतमम् ॥ मं० १।
सू०१।
भाषार्थ - (अग्निम्) ज्ञानस्वरूप, व्यापक, सबके
प्रयणीय नेता और पूज्य परमात्मा की मैं (है) स्तुति करता हूँ। कैसा है वह परमेश्वर
। (पुरोहितम्) जो सबके सामने स्थित, उत्पत्ति से पूर्व परमाणु मायवि जगत्
का धारण करने वाला (यज्ञस्य देवम्) यज्ञादि, उत्तम कर्मों का
प्रकाशक, (ऋत्विजम्) वसन्त आदि सब ऋतुओं का उत्पादक और सब तुमो मे पूजनीय,
(होतारम्)
सब सुखो का दाता तथा प्रलयकाल मे सब पदार्थों का ग्रहण करने वाला (रत्नधातमम)
सूर्य, चन्द्रमा आदि रमणीण पदार्थों का धारक पौर सुन्दर मोती, हीरा,
सुवर्ण-रजत
आदि पदार्थों का अपने भक्तों को देने वाला है।
भावार्थ-ज्ञानस्वरूप परमात्मा सर्वत्र व्यापक, सब प्रकार के
यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों का प्रकाशक पौर उपदेशक, सब ऋतुओं मे
पूजनीय और सब ऋतुओं का बनाने वाला, सब सुखो का दाता, पौर
सब ब्रह्माण्डों का कर्ता धर्ता और हर्ता है, हम सब को ऐसे
प्रभु की ही उपासना, प्रार्थना और स्तुति करनी चाहिये ।
मग्नि पूर्वेभिपिभिरोड्यो नूतनस्त । स देवां एह वक्षति ॥
१२२२॥ __ पदार्थ-(अग्नि ) परमेश्वर (पूर्वभि ऋषिभि) प्राचीन ऋषियो से (उत) मोर
(नूतन ) नवीनो से (दिय) स्तुति करने योग्य है। (स) वह (देवान्) देवतामो को (ह) इस
ससार मे (मा वक्षति) प्राप्त करता है।
भावा--पूर्व कल्पों में जो वेदार्थ को जानने वाले महर्षि


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