गोस्वामी तुलसीदास कृत दोहावली
॥ राम ॥
॥ श्री हनुमते नमः ॥
दो०
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौ पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस बिकार ॥
चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥
राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी ॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा ॥
हाथ बज्र और ध्वजा बिराजै। काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥
संकर सुवन केसरीनंदन। तेज प्रताप महा जग बंदन ॥
बिद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर ॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया ॥
सूक्ष्म रुप धरि सियहि दिखावा। बिकट रुप धरि लंक जरावा ॥
भीम रुप धरि असुर सँहारे। रामचन्द्र के काज सँवारे ॥
लाय संजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥
रघुपति कीन्ही बहुत बडाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा ॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥
तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना। लंकेश्वर भए सब जग जाना ॥
जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही। जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥
दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥
राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥
सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहु को डरना ॥
आपन तेज संहारो आपै। तीनो लोक हाँक ते काँपै ॥
भूत पिसाच निकट नहि आवै। महाबीर जब नाम सुनावै ॥
नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥
संकट तें हनुमान छुडावैं। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥
सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा ॥
और मनोरथ जो कोई लावै। सोइ अमित जीवन फल पावै ॥
चारो जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा ॥
साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे ॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता ॥
राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा ॥
तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै ॥
अंत काल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥
और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥
संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥
जै जै जै हनुमान गोसाई। कृपा करहु गुरुदेव की नाई ॥
जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बंदि महासुख होई ॥
जो यह पढै हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥
दो०
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥
॥ इति ॥
सियावर रामचन्द्र की जय। पवनसुत हनुमान की जय ॥
उमापति महादेव की जय। बोलो भाइ सब संतन्ह की जय ॥
॥ श्रीसीतारामाभ्यां नमः ॥
दोहावली
ध्यान
राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर ॥
सीता लखन समेत प्रभु सोहत तुलसीदास।
हरषत सुर बरषत सुमन सगुन सुमंगल बास ॥
पंचबटी बट बिटप तर सीता लखन समेत।
सोहत तुलसीदास प्रभु सकल सुमंगल देत ॥
राम-नाम-जपकी महिमा
चित्रकूट सब दिन बसत प्रभु सिय लखन समेत।
राम नाम जप जापकहि तुलसी अभिमत देत ॥
पय अहार फल खाइ जपु राम नाम षट मास।
सकल सुमंगल सिद्धि सब करतल तुलसीदास ॥
राम नाम मनीदीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहरेहुँ जौं चाहसि उजियार ॥
हियँ निर्गुन नयनन्हि सगुन रसना राम सुनाम।
मनहुँ पुरट संपुट लसत तुलसी ललित ललाम ॥
सगुन ध्यान रुचि सरस नहिं निर्गुन मन ते दूरि।
तुलसी सुमिरहु रामको नाम सजीवन मूरि ॥
एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ ॥
नाम राम को अंक है सब साधन हैं सून।
अंक गएँ कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून ॥
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ॥
राम नाम जपि जीहँ जन भए सुकृत सुखसालि।
तुलसी इहाँ जो आलसी गयो आजु की कालि ॥
नाम गरीबनिवाज को राज देत जन जानि।
तुलसी मन परिहरत नहिं घुर बिनिआ की बानि ॥
कासीं बिधि बसि तनु तजें हठि तनु तजें प्रयाग।
तुलसी जो फल सो सुलभ राम नाम अनुराग ॥
मीठो अरु कठवति भरो रौंताई अरु छैम।
स्वारथ परमारथ सुलभ राम नाम के प्रेम ॥
राम नाम सुमिरत सुजस भाजन भए कुजाति।
कुतरुक सुरपुर राजमग लहत भुवन बिख्याति ॥
स्वारथ सुख सपनेहुँ अगम परमारथ न प्रबेस।
राम नाम सुमिरत मिटहिं तुलसी कठिन कलेस ॥
मोर मोर सब कहँ कहसि तू को कहु निज नाम।
कै चुप साधहि सुनि समुझि कै तुलसी जपु राम ॥
हम लखि लखहि हमार लखि हम हमार के बीच।
तुलसी अलखहि का लखहि राम नाम जप नीच ॥
राम नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस।
बरषत बारिद बूँद गहि चाहत चढ़न अकास ॥
तुलसी हठि हठि कहत नित चित सुनि हित करि मानि।
लाभ राम सुमिरन बड़ो बड़ी बिसारें हानि ॥
बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु ॥
प्रीति प्रतीति सुरीति सों राम राम जपु राम।
तुलसी तेरो है भलो आदि मध्य परिनाम ॥
दंपति रस रसना दसन परिजन बदन सुगेह।
तुलसी हर हित बरन सिसु संपति सहज सनेह ॥
बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
रामनाम बर बरन जुग सावन भादव मास ॥
राम नाम नर केसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल ॥
राम नाम कलि कामतरु राम भगति सुरधेनु।
सकल सुमंगल मूल जग गुरुपद पंकर रेनु ॥
राम नाम कलि कामतरु सकल सुमंगल कंद।
सुमिरत करतल सिद्धि सब पग पग परमानंद ॥
जथा भूमि सब बीजमय नखत निवास अकास।
राम नाम सब धरममय जानत तुलसीदास ॥
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष हृद तिन्हहुँ किए मन मीन ॥
ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
राम चरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि ॥
सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ ॥
राम नाम पर नाम तें प्रीति प्रतीति भरोस।
सो तुलसी सुमिरत सकल सगुन सुमंगल कोस ॥
लंक बिभीषन राज कपि पति मारुति खग मीच।
लही राम सों नाम रति चाहत तुलसी नीच ॥
हरन अमंगल अघ अखिल करन सकल कल्यान।
रामनाम नित कहत हर गावत बेद पुरान ॥
तुलसी प्रीति प्रतीति सों राम नाम जप जाग।
किएँ होइ बिधि दाहिनो देइ अभागेहि भाग ॥
जल थल नभ गति अमित अति अग जग जीव अनेक।
तुलसी तो से दीन कहँ राम नाम गति एक ॥
राम भरोसो राम बल राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल माँगत तुलसीदास ॥
राम नाम रति राम गति राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल दुहुँ दिसि तुलसीदास ॥
रामप्रेमके बिना सब व्यर्थ है
रसना साँपिनि बदन बिल जे न जपहिं हरिनाम।
तुलसी प्रेम न राम सों ताहि बिधाता बाम ॥
हिय फाटहुँ फूटहुँ नयन जरउ सो तन केहि काम।
द्रवहिं स्त्रवहिं पुलकइ नहीं तुलसी सुमिरत राम ॥
रामहि सुमिरत रन भिरत देत परत गुरु पाँय।
तुलसी जिन्हहि न पुलक तनु ते जग जीवत जायँ ॥
सोरठा
हृदय सो कुलिस समान जो न द्रवइ हरिगुन सुनत।
कर न राम गुन गान जीह सो दादुर जीह सम ॥
स्त्रवै न सलिल सनेहु तुलसी सुनि रघुबीर जस।
ते नयना जनि देहु राम करहु बरु आँधरो ॥
रहैं न जल भरि पूरि राम सुजस सुनि रावरो।
तिन आँखिन में धूरि भरि भरि मूठी मेलिये ॥
प्रार्थना
बारक सुमिरत तोहि होहि तिन्हहि सम्मुख सुखद।
क्यों न सँभारहि मोहि दया सिंधु दसरत्थ के ॥
रामकी और रामप्रेमकी महिमा
साहिब होत सरोष सेवक को अपराध सुनि।
अपने देखे दोष सपनेहु राम न उर धरे ॥
दोहा
तुलसी रामहि आपु तें सेवक की रुचि मीठि।
सीतापति से साहिबहि कैसे दीजै पीठि ॥
तुलसी जाके होयगी अंतर बाहिर दीठि।
सो कि कृपालुहि देइगो केवटपालहि पीठि ॥
प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान ॥
उद्बोधन
रे मन सब सों निरस ह्वै सरस राम सों होहि।
भलो सिखावन देत है निसि दिन तुलसी तोहि ॥
हरे चरहिं तापहि बरे फरें पसारहिं हाथ।
तुलसी स्वारथ मीत सब परमारथ रघुनाथ ॥
स्वारथ सीता राम सों परमारथ सिय राम।
तुलसी तेरो दूसरे द्वार कहा कहु काम ॥
स्वारथ परमारथ सकल सुलभ एक ही ओर।
द्वार दूसरे दीनता उचित न तुलसी तोर ॥
तुलसी स्वारथ राम हित परमारथ रघुबीर।
सेवक जाके लखन से पवनपूत रनधीर ॥
ज्यों जग बैरी मीन को आपु सहित बिनु बारि।
त्यों तुलसी रघुबीर बिनु गति आपनी बिचारि ॥
तुलसीदासजीकी अभिलाषा
राम प्रेम बिनु दूबरो राम प्रेमहीं पीन।
रघुबर कबहुँक करहुगे तुलसिहि ज्यों जल मीन ॥
रामप्रेमकी महत्ता
राम सनेही राम गति राम चरन रति जाहि।
तुलसी फल जग जनम को दियो बिधाता ताहि ॥
आपु आपने तें अधिक जेहि प्रिय सीताराम।
तेहि के पग की पानहीं तुलसी तनु को चाम ॥
स्वारथ परमारथ रहित सीता राम सनेहँ।
तुलसी सो फल चारि को फल हमार मत एहँ ॥
जे जन रूखे बिषय रस चिकने राम सनेहँ।
तुलसी ते प्रिय राम को कानन बसहि कि गेहँ ॥
जथा लाभ संतोष सुख रघुबर चरन सनेह।
तुलसी जो मन खूँद सम कानन बसहुँ कि गेह ॥
तुलसी जौं पै राम सों नाहिन सहज सनेह।
मूँड़ मुड़ायो बादिहीं भाँड़ भयो तजि गेह ॥
रामविमुखताका कुफल
तुलसी श्रीरघुबीर तजि करै भरोसो और।
सुख संपति की का चली नरकहुँ नाहीं ठौर ॥
तुलसी परिहरि हरि हरहि पाँवर पूजहिं भूत।
अंत फजीहत होहिंगे गनिका के से पूत ॥
सेये सीता राम नहिं भजे न संकर गौरि।
जनम गँवायो बादिहीं परत पराई पौरि ॥
तुलसी हरि अपमान तें होइ अकाज समाज।
राज करत रज मिलि गए सदल सकुल कुरुराज ॥
तुलसी रामहि परिहरें निपट हानि सुन ओझ।
सुरसरि गत सोई सलिल सुरा सरिस गंगोझ ॥
राम दूरि माया बढ़ति घटति जानि मन माँह।
भूरि होति रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छाँह ॥
साहिब सीतानाथ सों जब घटिहै अनुराग।
तुलसी तबहीं भालतें भभरि भागिहैं भाग ॥
करिहौ कोसलनाथ तजि जबहिं दूसरी आस।
जहाँ तहाँ दुख पाइहौं तबहीं तुलसीदास ॥
बिंधि न ईंधन पाइऐ सागर जुरै न नीर।
परै उपास कुबेर घर जो बिपच्छ रघुबीरो ॥
बरसा को गोबर भयो को चहै को करै प्रीति।
तुलसी तू अनुभवहि अब राम बिमुख की रीति ॥
सबहिं समरथहि सुखद प्रिय अच्छम प्रिय हितकारि।
कबहुँ न काहुहि राम प्रिय तुलसी कहा बिचारि ॥
तुलसी उद्यम करम जुग जब जेहि राम सुडीठि।
होइ सुफल सोइ ताहि सब सनमुख प्रभु तन पीठि ॥
राम कामतरु परिहरत सेवत कलि तरु ठूँठ।
स्वारथ परमारथ चहत सकल मनोरथ झूँठ ॥
कल्याणका सुगम उपाय
निज दूषन गुन राम के समुझें तुलसीदास।
होइ भलो कलिकाल हूँ उभय लोक अनयास ॥
कै तोहि लागहिं राम प्रिय कै तू प्रभु प्रिय होहि।
दुइ में रुचै जो सुगम सो कीबे तुलसी तोहि ॥
तुलसी दुइ महँ एक ही खेल छाँड़ि छल खेलु।
कै करु ममता राम सों के ममता परहेलु ॥
श्रीरामजीकी प्राप्तिका सुगम उपाय
निगम अगम साहेब सुगम राम साँचिली चाह।
अंबु असन अवलोकिअत सुलभ सबै जग माँह ॥
सनमुख आवत पथिक ज्यों दिएँ दाहिनो बाम।
तैसोइ होत सु आप को त्यों ही तुलसी राम ॥
रामप्रेमके लिये वैराग्यकी आवश्यकता
राम प्रेम पथ पेखिऐ दिएँ बिषय तन पीठि।
तुलसी केंचुरि परिहरें होत साँपहू दीठि ॥
तुलसी जौ लौं बिषय की मुधा माधुरी मीठि।
तौ लौं सुधा सहस्र सम राम भगति सुठि सीठि ॥
शरणागतिकी महिमा
जैसो तैसो रावरो केवल कोसलपाल।
तौ तुलसी को है भलो तिहूँ लोक तिहुँ काल ॥
है तुलसी कें एक गुन अवगुन निधि कहैं लोग।
भलो भरोसो रावरो राम रीझिबे जोग ॥
भक्तिका स्वरुप
प्रीति राम सों नीति पथ चलिय राग रिस जीति।
तुलसी संतन के मते इहै भगति की रीति ॥
कलियुगसे कौन नहीं छला जाता
सत्य बचन मानस बिमल कपट रहित करतूति।
तुलसी रघुबर सेवकहि सकै न कलिजुग धूति ॥
तुलसी सुखी जो राम सों दुखी सो निज करतूति।
करम बचन मन ठीक जेहि तेहि न सकै कलि धूति ॥
गोस्वामीजीकी प्रेम-कामना
नातो नाते राम कें राम सनेहँ सनेहु।
तुलसी माँगत जोरि कर जनम जनम सिव देहु ॥
सब साधनको एक फल जेहिं जान्यो सो जान।
ज्यों त्यों मन मंदिर बसहिं राम धरें धनु बान ॥
जौं जगदीस तौ अति भलो जौं महीस तौ भाग।
तुलसी चाहत जनम भरि राम चरन अनुराग ॥
परौ नरक फल चारि सिसु मीच डाकिनी खाउ।
तुलसी राम सनेह को जो फल सो जरि जाउ ॥
रामभक्तके लक्षण
हित सों हित, रति राम सों, रिपु सों बैर बिहाउ।
उदासीन सब सों सरल तुलसी सहज सुभाउ ॥
तुलसी ममता राम सों समता सब संसार।
राग न रोष न दोष दुख दास भए भव पार ॥
उद्बोधन
रामहि डरु करु राम सों ममता प्रीति प्रतीति।
तुलसी निरुपधि राम को भएँ हारेहूँ जीति ॥
तुलसी राम कृपालु सों कहि सुनाउ गुन दोष।
होय दूबरी दीनता परम पीन संतोष ॥
सुमिरन सेवा राम सों साहब सों पहिचानि।
ऐसेहु लाभ न ललक जो तुलसी नित हित हानि ॥
जानें जानन जोइऐ बिनु जाने को जान।
तुलसी यह सुनि समुझि हियँ आनु धरें धनु बान ॥
करमठ कठमलिया कहैं ग्यानी ग्यान बिहीन।
तुलसी त्रिपथ बिहाइ गो राम दुआरें दीन ॥
बाधक सब सब के भए साधक भए न कोइ।
तुलसी राम कृपालु तें भलो होइ सो होइ ॥
शिव और रामकी एकता
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास ॥
बिलग बिलग सुख संग दुख जनम मरन सोइ रीति।
रहिअत राखे राम कें गए ते उचित अनीति ॥
रामप्रेमकी सर्वोत्कृष्टता
जाँय कहब करतूति बिनु जायँ जोग बिन छेम।
तुलसी जायँ उपाय सब बिना राम पद प्रेम ॥
लोग मगन सब जोगहीं जोग जाँय बिनु छेम।
त्यों तुलसीके भावगत राम प्रेम बिनु नेम ॥
श्रीरामकी कृपा
राम निकाई रावरी है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक ॥
तुलसी राम जो आदर्यो खोटो खरो खरोइ।
दीपक काजर सिर धर्यो धर्यो सुधर्यो धरोइ ॥
तनु बिचित्र कायर बचन अहि अहार मन घोर।
तुलसी हरि भए पच्छधर ताते कह सब मोर ॥
लहइ न फूटी कौंड़िहू को चाहै केहि काज।
सो तुलसी महँगो कियो राम गरीब निवाज ॥
घर घर माँगे टूक पुनि भूपति पूजे पाय।
जे तुलसी तब राम बिनु ते अब राम सहाय ॥
तुलसी राम सुदीठि तें निबल होत बलवान।
बैर बालि सुग्रीव कें कहा कियो हनुमान ॥
तुलसी रामहु तें अधिक राम भगत जियँ जान।
रिनिया राजा राम भे धनिक भए हनुमान ॥
कियो सुसेवक धरम कपि प्रभु कृतग्य जियँ जानि।
जोरि हाथ ठाढ़े भए बरदायक बरदानि ॥
भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरुप ॥
ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार।
सोइ सच्चिदानंदघन कर नर चरित उदार ॥
हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ कृपासिंधु भगवान ॥
सुद्ध सच्चिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।
चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु ॥
भगवान् की बाललीला
बाल बिभूषन बसन बर धूरि धूसरित अंग।
बालकेलि रघुबर करत बाल बंधु सब संग ॥
अनुदिन अवध बधावने नित नव मंगल मोद।
मुदित मातु पितु लोग लखि रघुबर बाल बिनोद ॥
राज अजिर राजत रुचिर कोसलपालक बाल।
जानु पानि चर चरित बर सगुन सुमंगल माल ॥
नाम ललित लीला ललित ललित रूप रघुनाथ।
ललित बसन भूषन ललित ललित अनुज सिसु साथ ॥
राम भरत लछिमन ललित सत्रु समन सुभ नाम।
सुमिरत दसरथ सुवन सब पूजहिं सब मन काम ॥
बालक कोसलपाल के सेवकपाल कृपाल।
तुलसी मन मानस बसत मंगल मंजु मराल ॥
भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।
करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जगजाल ॥
निज इच्छा प्रभु अवतरइ सुर महि गो द्विज लागि।
सगुन उपासक संग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ॥
प्रार्थना
परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम ॥
भजनकी महिमा
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ॥
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम सब काम तजि अस बिचारि मन माहिं ॥
जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य ॥
श्रीरघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ॥
लव निमेष परमानु जुग बरस कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम कहँ कालु जासु कोदंड ॥
तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोकधाम तजि काम ॥
बिनु सतसंग न हरिकथा तेहिं बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु रामपद होइ न दृढ अनुराग ॥
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न ल बिश्रामु ॥
सोरठा
अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद ॥
भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ॥
कहहिं बिमलमति संत बेद पुरान बिचारि अस।
द्रवहिं जानकी कंत तब छूटै संसार दुख ॥
बिनु गुरु होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ॥
दोहा
रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ॥
जरउ सो संपति सदन सुखु सुहृद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो रामपद करइ न सहस सहाइ ॥
सेइ साधु गुरु समुझि सिखि राम भगति थिरताइ।
लरिकाई को पैरिबो तुलसी बिसरि न जाइ ॥
रामसेवककी महिमा
सबइ कहावत राम के सबहि राम की आस।
राम कहहिं जेहि आपनो तेहि भजु तुलसीदास ॥
जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान ॥
जानि राम सेवा सरस समुझि करब अनुमान।
पुरुषा ते सेवक भए हर ते भे हनुमान ॥
तुलसी रघुबर सेवकहि खल डाटत मन माखि।
बाजराज के बालकहि लवा दिखावत आँखि ॥
रावन रिपुके दास तें कायर करहिं कुचालि।
खर दूषन मारीच ज्यों नीच जाहिंगे कालि ॥
पुन्य पाप जस अजस के भावी भाजन भूरि।
संकट तुलसीदास को राम करहिंगे दूरि ॥
खेलत बालक ब्याल सँग मेलत पावक हाथ।
तुलसी सिसु पितु मातु ज्यों राखत सिय रघुनाथ ॥
तुलसी दिन भल साहु कहँ भली चोर कहँ राति।
निसि बासर ता कहँ भलो मानै राम इताति ॥
राम महिमा
तुलसी जाने सुनि समुझि कृपासिंधु रघुराज।
महँगे मनि कंचन किए सौंधे जग जल नाज ॥
रामभजनकी महिमा
सेवा सील सनेह बस करि परिहरि प्रिय लोग।
तुलसी ते सब राम सों सुखद सँजोग बियोग ॥
चारि चहत मानस अगम चनक चारि को लाहु।
चारि परिहरें चारि को दानि चारि चख चाहु ॥
रामप्रेमकी प्राप्ति सुगम उपाय
सूधे मन सूधे बचन सूधी सब करतूति।
तुलसी सूधी सकल बिधि रघुबर प्रेम प्रसूति ॥
रामप्राप्तिमें बाधक
बेष बिसद बोलनि मधुर मन कटु करम मलीन।
तुलसी राम न पाइऐ भएँ बिषय जल मीन ॥
बचन बेष तें जो बनइ सो बिगरइ परिनाम।
तुलसी मन तें जो बनइ बनी बनाई राम ॥
राम अनुकूलतामें ही कल्याण है
नीच मीचु लै जाइ जो राम रजायसु पाइ।
तौ तुलसी तेरो भलो न तु अनभलो अघाइ ॥
श्रीरामकी शरणागतवत्सलता
जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥
बंधु बधू रत कहि कियो बचन निरुत्तर बालि।
तुलसी प्रभु सुग्रीव की चितइ न कछू कुचालि ॥
बालि बली बलसालि दलि सखा कीन्ह कपिराज।
तुलसी राम कृपालु को बिरद गरीब निवाज ॥
कहा बिभीषन लै मिल्यो कहा बिगार्यो बालि।
तुलसी प्रभु सरनागतहि सब दिन आए पालि ॥
तुलसी कोसलपाल सो को सरनागत पाल।
भज्यो बिभीषन बंधु भय भंज्यो दारिद काल ॥
कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि ॥
बलकल भूषन फल असन तृन सज्या द्रुम प्रीति।
तिन्ह समयन लंका दई यह रघुबर की रीति ॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥
अबिचल राज बिभीषनहि दीन्ह राम रघुराज।
अजहुँ बिराजत लंक पर तुलसी सहित समाज ॥
कहा बिभीषन लै मिल्यो कहा दियो रघुनाथ।
तुलसी यह जाने बिना मूढ़ मीजिहैं हाथ ॥
बैरि बंधु निसिचर अधम तज्यो न भरें कलंक।
झूठें अघ सिय परिहरी तुलसी साइँ ससंक ॥
तेहि समाज कियो कठिन पन जेहिं तौल्यो कैलास।
तुलसी प्रभु महिमा कहौं सेवक को बिस्वास ॥
सभा सभासद निरखि पट पकरि उठायो हाथ।
तुलसी कियो इगारहों बसन बेस जदुनाथ ॥
त्राहि तीनि कह्यो द्रौपदी तुलसी राज समाज।
प्रथम बढ़े पट बिय बिकल चहत चकित निज काज ॥
सुख जीवन सब कोउ चहत सुख जीवन हरि हाथ।
तुलसी दाता मागनेउ देखिअत अबुध अनाथ ॥
कृपन देइ पाइअ परो बिनु साधें सिधि होइ।
सीतापति सनमुख समुझि जौ कीजै सुभ सोइ ॥
दंडक बन पावन करन चरन सरोज प्रभाउ।
ऊसर जामहिं खल तरहिं होइ रंक ते राउ ॥
बिनहिं रितु तरुबर फरत सिला द्रवहि जल जोर।
राम लखन सिय करि कृपा जब चितवत जेहि ओर ॥
सिला सुतिय भइ गिरि तरे मृतक जिए जग जान।
राम अनुग्रह सगुन सुभ सुलभ सकल कल्यान ॥
सिला साप मोचन चरन सुमिरहु तुलसीदास।
तजहु सोच संकट मिटिहिं पूजहि मनकी आस ॥
मुए जिआए भालु कपि अवध बिप्रको पूत।
सुमिरहु तुलसी ताहि तू जाको मारुति दूत ॥
प्रार्थना
काल करम गुन दोर जग जीव तिहारे हाथ।
तुलसी रघुबर रावरो जानु जानकीनाथ ॥
रोग निकर तनु जरठपनु तुलसी संग कुलोग।
राम कृपा लै पालिऐ दीन पालिबे जोग ॥
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥
भव भुअंग तुलसी नकुल डसत ग्यान हरि लेत।
चित्रकूट एक औषधी चितवत होत सचेत ॥
हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास ॥
रामराज्यकी महिमा
राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि।
राग न रोष न दोष दुख सुलभ पदारथ चारि ॥
राम राज संतोष सुख घर बन सकल सुपास।
तरु सुरतरु सुरधेनु महि अभिमत भोग बिलास ॥
खेती बनि बिद्या बनिज सेवा सिलिप सुकाज।
तुलसी सुरतरु सरिस सब सुफल राम कें राज ॥
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहिं सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ॥
कोपें सोच न पोच कर करिअ निहोर न काज।
तुलसी परमिति प्रीति की रीति राम कें राज ॥
श्रीरामकी दयालुता
मुकुर निरखि मुख राम भ्रू गनत गुनहि दै दोष।
तुलसी से सठ सेवकन्हि लखि जनि परहिं सरोष ॥
श्रीरामकी धर्मधुरन्धरता
सहसनाम मुनि भनित सुनि तुलसी बल्लभ नाम।
सकुचित हियँ हँसि निरखि सिय धरम धुरंधर राम ॥
श्रीसीताजीका अलौकिक प्रेम
गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहँसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि ॥
श्रीरामकी कीर्ति
तुलसी बिलसत नखत निसि सरद सुधाकर साथ।
मुकुता झालरि झलक जनु राम सुजसु सिसु हाथ ॥
रघुपति कीरति कामिनी क्यों कहै तुलसीदासु।
सरद अकास प्रकास ससि चारु चिबुक तिल जासु ॥
प्रभु गुन गन भूषन बसन बिसद बिसेष सुबेस।
राम सुकीरति कामिनी तुलसी करतब केस ॥
राम चरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु ॥
रघुबर कीरति सज्जननि सीतल खलनि सुताति।
ज्यों चकोर चय चक्कवनि तुलसी चाँदनि राति ॥
रामकथाकी महिमा
राम कथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु ॥
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥
हरि हर जस सुर नर गिरहुँ बरनहिं सुकबि समाज।
हाँड़ी हाटक घटित चरु राँधे स्वाद सुनाज ॥
राममहिमाकी अज्ञेयता
तिल पर राखेउ सकल जग बिदित बिलोकत लोग।
तुलसी महिमा राम की कौन जानिबे जोग ॥
श्रीरामजीके स्वरुपकी अलौकिकता
सोरठा
राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।
अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह ॥
ईश्वर-महिमा
दोहा
माया जीव सुभाव गुन काल करम महदादि।
ईस अंक तें बढ़त सब ईस अंक बिनु बादि ॥
श्रीरामजीकी भक्तवत्सलता
हित उदास रघुबर बिरह बिकल सकल नर नारि।
भरत लखन सिय गति समुझि प्रभु चख सदा सुबारि ॥
सीता,लक्ष्मण और भरतके रामप्रेमकी अलौकिकता
सीय सुमित्रा सुवन गति भरत सनेह सुभाउ।
कहिबे को सारद सरस जनिबे को रघुराउ ॥
जानि राम न कहि सके भरत लखन सिय प्रीति।
सो सुनि गुनि तुलसी कहत हठ सठता की रीति ॥
सब बिधि समरथ सकल कह सहि साँसति दिन राति।
भलो निबाहेउ सुनि समुझि स्वामिधर्म सब भाँति ॥
भरत-महिमा
भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरिहर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ ॥
संपति चकई भरत चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पिंजराँ राखे भा भिनुसार ॥
सधन चोर मग मुदित मन धनी गही ज्यों फेंट।
त्यों सुग्रीव बिभीषनहिं भई भरतकी भेंट ॥
राम सराहे भरत उठि मिले राम सम जानि।
तदपि बिभीषन कीसपति तुलसी गरत गलानि ॥
भरत स्याम तन राम सम सब गुन रूप निधान।
सेवक सुखदायक सुलभ सुमिरत सब कल्यान ॥
लक्ष्मणमहिमा
ललित लखन मूरति मधुर सुमिरहु सहित सनेह।
सुख संपति कीरति बिजय सगुन सुमंगल गेह ॥
शत्रुघ्नमहिमा
नाम सत्रुसूदन सुभग सुषमा सील निकेत।
सेवत सुमिरत सुलभ सुख सकल सुमंगल देत ॥
कौसल्यामहिमा
कौसल्या कल्यानमइ मूरति करत प्रनाम।
सगुन सुमंगल काज सुभ कृपा करहिं सियाराम ॥
सुमित्रामहिमा
सुमिरि सुमित्रा नाम जग जे तिय लेहिं सनेम।
सुअन लखन रिपुदवन से पावहिं पति पद प्रेम ॥
सीतामहिमा
सीताचरन प्रनाम करि सुमिरि सुनाम सुनेम।
होहिं तीय पतिदेवता प्राननाथ प्रिय प्रेम ॥
रामचरित्रकी पवित्रता
तुलसी केवल कामतरु रामचरित आराम।
कलितरु कपि निसिचर कहत हमहिं किए बिधि बाम ॥
कैकेयीकी कुटिलता
मातु सकल सानुज भरत गुरु पुर लोग सुभाउ।
देखत देख न कैकइहि लंकापति कपिराउ ॥
सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान ॥
दशरथमहिमा
दसरथ नाम सुकामतरु फलइ सकलो कल्यान।
धरनि धाम धन धरम सुत सदगुन रूप निधान ॥
तुलसी जान्यो दसरथहिं धरमु न सत्य समान।
रामु तजे जेहि लागि बिनु राम परिहरे प्रान ॥
राम बिरहँ दसरथ मरन मुनि मन अगम सुमीचु।
तुलसी मंगल मरन तरु सुचि सनेह जल सींचु ॥
सोरठा
जीवन मरन सुनाम जैसें दसरथ राय को।
जियत खिलाए राम राम बिरहँ तनु परिहरेउ ॥
जटायुका भाग्य
दोहा
प्रभुहि बिलोकत गोद गत सिय हित घायल नीचु।
तुलसी पाई गीधपति मुकुति मनोहर मीचु ॥
बिरत करम रत भगत मुनि सिद्ध ऊँच अरु नीचु।
तुलसी सकल सिहात सुनि गीधराज की मीचु ॥
मुए मरत मरिहैं सकल घरी पहरके बीचु।
लही न काहूँ आजु लौं गीधराज की मीचु ॥
मुँए मुकुत जीवत मुकुत मुकुत मुकुत हूँ बीचु।
तुलसी सबही तें अधिक गीधराज की मीचु ॥
रघुबर बिकल बिहंग लखि सो बिलोकि दोउ बीर।
सिय सुधि कहि सियल राम कहि देह तजी मति धीर ॥
दसरथ तें दसगुन भगति सहित तासु करि काजु।
सोचत बंधु समेत प्रभु कृपासिंधु रघुराजु ॥
रामकृपाकी महत्ता
केवट निसिचर बिहग मृग किए साधु सनमानि।
तुलसी रघुबर की कृपा सकल सुमंगल खानि ॥
हनुमत्स्मरणकी महत्ता
मंजुल मंगल मोदमय मूरति मारुत पूत।
सकल सिद्धि कर कमल तल सुमिरत रघुबर दूत ॥
धीर बीर रघुबीर प्रिय सुमिरि समीर कुमारु।
अगम सुगम सब काज करु करतल सिद्धि बिचारु ॥
सुख मुद मंगल कुमुद बिधु सुगुन सरोरुह भानु।
करहु काज सब सिद्धि सुभ आनि हिएँ हनुमानु ॥
सकल काज सुभ समउ भल सगुन सुमंगल जानु।
कीरति बिजय बिभूति भलि हियँ हनुमानहि आनु ॥
सूर सिरोमनि साहसी सुमति समीर कुमार।
सुमिरत सब सुख संपदा मुद मंगल दातार ॥
बाहुपीड़ाकी शान्तिके लिये प्रार्थना
तुलसी तनु सर सुख जलज भुज रुज गज बरजोर।
दलत दयानिधि देखिऐ कपि केसरी किसोर ॥
भुज तरु कोटर रोग अहि बरबस कियो प्रबेस।
बिहगराज बाहन तुरत काढ़िअ मिटै कलेस ॥
बाहु बिटप सुख बिहँग थलु लगी कुपीर कुआगि।
राम कृपा जल सीचिऐ बेगि दीन हित लागि ॥
काशीमहिमा
सोरठा
मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर।
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥
शंकरमहिमा
जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपालु संकर सरिस ॥
शंकरजीसे प्रार्थना
दोहा
बासर ढासनि के ढका रजनीं चहुँ दिसि चोर।
संकर निज पुर राखिऐ चितै सुलोचन कोर ॥
अपनी बीसीं आपुहीं पुरिहिं लगाए हाथ।
केहि बिधि बिनती बिस्व की करौं बिस्व के नाथ ॥
भगवल्लीलाकी दुर्ज्ञेयता
और करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।
अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु ॥
प्रेममें प्रपञ्च बाधक है
प्रेम सरीर प्रपंच रुज उपजी अधिक उपाधि।
तुलसी भली सुबैदई बेगि बाँधिऐ ब्याधि ॥
अभिमान ही बन्धनका मूल है
हम हमार आचार बड़ भूरि भार धरि सीस।
हठि सठ परबस परत जिमि कीर कोस कृमि कीस ॥
जीव और दर्पणके प्रतिबिम्बकी समानता
केहिं मग प्रबिसति जाति केहिं कहु दरपनमें छाहँ।
तुलसी ज्यों जग जीव गति करि जीव के नाहँ ॥
भगवन्मायाकी दुर्ज्ञेयता
सुखसागर सुख नींद बस सपने सब करतार।
माया मायानाथ की को जग जाननिहार ॥
जीवकी तीन दशाएँ
जीव सीव सम सुख सयन सपनें कछु करतूति।
जागत दीन मलीन सोइ बिकल बिषाद बिभूति ॥
सृष्टि स्वप्नवत् है
सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ ॥
हमारी मृत्यु प्रतिक्षण हो रही है
तुलसी देखत अनुभवत सुनत न समुझत नीच।
चपरि चपेटे देत नित केस गहें कर मीच ॥
कालकी करतूत
करम खरी कर मोह थल अंक चराचर जाल।
हनत गुनत गनि गुनि हनत जगत ज्यौतिषी काल ॥
इन्द्रियोंकी सार्थकता
कहिबे कहँ रसना रची सुनिबे कहँ किये कान।
धरिबे कहँ चित हित सहित परमारथहि सुजान ॥
सगुणके बिना निर्गुणका निरूपण असम्भव है
ग्यान कहै अग्यान बिनु तम बिनु कहै प्रकास।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु सो गुरु तुलसीदास ॥
निर्गुणकी अपेक्षा सगुण अधिक प्रामाणिक है
अंक अगुन आखर सगुन समुझिअ उभय प्रकार।
खोएँ राखें आपु भल तुलसी चारु बिचार ॥
विषयासक्तिका नाश हुए बिना ज्ञान अधूरा है
परमारथ पहिचानि मति लसति बिषयँ लपटानि।
निकसि चिता तें अधजरित मानहुँ सती परानि ॥
विषयासक्त साधुकी अपेक्षा वैराग्यवान् गृहस्थ अच्छा है
सीस उधारन किन कहेउ बरजि रहे प्रिय लोग।
घरहीं सती कहावती जरती नाह बियोग ॥
साधुके लिये पूर्ण त्यागकी आवश्यकता
खरिया खरी कपूर सब उचित न पिय तिय त्याग।
कै खरिया मोहि मेलि कै बिमल बिबेक बिराग ॥
भगवतप्रेममें आसक्ति बाधक है, गृहस्थाश्रम नहीं
घर कीन्हें घर जात है घर छाँड़े घर जाइ।
तुलसी घर बन बीचहीं राम प्रेम पुर छाइ ॥
संतोषपूर्वक घरमें रहना उत्तम है
दिएँ पीठि पाछें लगै सनमुख होत पराइ।
तुलसी संपति छाँह ज्यों लखि दिन बैठि गँवाइ ॥
विषयों की आशा ही दुःख का मूल है
तुलसी अद्भूत देवता आसा देवी नाम।
सीँ सोक समर्पई बिमुख भएँ अभिराम ॥
मोह-महिमा
सोई सेंवर तेइ सुवा सेवत सदा बसंत।
तुलसी महिमा मोह की सुनत सराहत संत ॥
बिषय-सुखकी हेयता
करत न समुझत झूठ गुन सुनत होत मति रंक।
पारद प्रगट प्रपंचमय सिद्धिउ नाउँ कलंक ॥
लोभकी प्रबलता
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार ॥
धन और ऐश्वर्यके मद तथा कामकी व्यापकता
श्रीमद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ॥
मायाकी फौज
ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ॥
काम,क्रोध,लोभकी प्रबलता
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ॥
काम,क्रोध,लोभके सहायक
लोभ कें इच्छा दंभ बल काम के केवल नारि।
क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि ॥
मोहकी सेना
काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारुपी नारि ॥
अग्नि,समुद्र,प्रबल स्त्री और कालकी समानता
काह न पावक जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ ॥
स्त्री झगड़े और मृत्युकी जड़ है
जनमपत्रिका बरति कै देखहु मनहिं बिचारि।
दारुन बैरी मीचु के बीच बिराजति नारि ॥
उद्बोधन
दीपसिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥
गृहासक्ति श्रीरघुनाथजीके स्वरूपके ज्ञानमें बाधक है
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे भव कूप ॥
काम-क्रोधादि एक-एक अनर्थकारक है फिर सबकी
तो बात ही क्या है
ग्रह ग्रहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार।
तेहि पिआइअ बारुनी कहहु काह उपचार ॥
किसके मनको शान्ति नहीं मिलती ?
ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम ॥
ज्ञानमार्गकी कठिनता
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ॥
भगवद्भजनके अतिरिक्त और सब प्रयत्न व्यर्थ है
खल प्रबोध जग सोध मन को निरोध कुल सोध।
करहिं ते फोटक पचि मरहिं सपनेहुँ सुख न सुबोध ॥
संतोषकी महिमा
सोरठा
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ ॥
मायाकी प्रबलता और उसके तरनेका उपाय
सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥
गोस्वामीजीकी अनन्यता
दोहा
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास ॥
प्रेमकी अनन्यताके लिये चातकका उदाहरण
जौं घन बरषै समय सिर जौं भरि जनम उदास।
तुलसी या चित चातकहि तऊ तिहारी आस ॥
चातक तुलसी के मतें स्वातिहुँ पिऐ न पानि।
प्रेम तृषा बाढ़ति भली घटें घटैगी आनि ॥
रटत रटत रसना लटी तृषा सूखि गे अंग।
तुलसी चातक प्रेम को नित नूतन रुचि रंग ॥
चढ़त न चातक चित कबहुँ प्रिय पयोद के दोष।
तुलसी प्रेम पयोधि की ताते नाप न जोख ॥
बरषि परुष पाहन पयद पंख करौ टुक टूक।
तुलसी परी न चाहिऐ चतुर चातकहि चूक ॥
उपल बरसि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर।
चितव कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर ॥
पबि पाहन दामिनि गरज झरि झकोर खरि खीझि।
रोष न प्रीतम दोष लखि तुलसी रागहि रीझि ॥
मान राखिबो माँगिबो पिय सों नित नव नेहु।
तुलसी तीनिउ तब फबैं जौ चातक मत लेहु ॥
तुलसी चातक ही फबै मान राखिबो प्रेम।
बक्र बुंद लखि स्वातिहू निदरि निबाहत नेम ॥
तुलसी चातक माँगनो एक एक घन दानि।
देत जो भू भाजन भरत लेत जो घूँटक पानि ॥
तीनि लोक तिहुँ काल जस चातक ही के माथ।
तुलसी जासु न दीनता सुनी दूसरे नाथ ॥
प्रीति पपीहा पयद की प्रगट नई पहिचानि।
जाचक जगत कनाउड़ो कियो कनौड़ा दानि ॥
नहिं जाचत नहिं संग्रही सीस नाइ नहिं लेइ।
ऐसे मानी मागनेहि को बारिद बिन देइ ॥
को को न ज्यायो जगत में जीवन दायक दानि।
भयो कनौड़ो जाचकहि पयद प्रेम पहिचानि ॥
साधन साँसति सब सहत सबहि सुखद फल लाहु।
तुलसी चातक जलद की रीझि बूझि बुध काहु ॥
चातक जीवन दायकहि जीवन समयँ सुरीति।
तुलसी अलख न लखि परै चातक प्रीति प्रतीति ॥
जीव चराचर जहँ लगे है सब को हित मेह।
तुलसी चातक मन बस्यो घन सों सहज सनेह ॥
डोलत बिपुल बिहंग बन पिअत पोखरनि बारि।
सुजस धवल चातक नवल तुही भुवन दस चारि ॥
मुख मीठे मानस मलिन कोकिल मोर चकोर।
सुजस धवल चातक नवल रह्यो भुवन भरि तोर ॥
बास बेस बोलनि चलनि मानस मंजु मराल।
तुलसी चातक प्रेम की कीरति बिसद बिसाल ॥
प्रेम न परखिअ परुषपन पयद सिखावन एह।
जग कह चातक पातकी ऊसर बरसै मेह ॥
होइ न चातक पातकी जीवन दानि न मूढ़।
तुलसी गति प्रहलाद की समुझि प्रेम पथ गूढ़ ॥
गरज आपनी सबन को गरज करत उर आनि।
तुलसी चातक चतुर भो जाचक जानि सुदानि ॥
चरग चंगु गत चातकहि नेम प्रेम की पीर।
तुलसी परबस हाड़ पर परिहैं पुहुमी नीर ॥
बध्यो बधिक पर्यो पुन्य जल उलटि उठाई चोंच।
तुलसी चातक प्रेमपट मरतहुँ लगी न खोंच ॥
अंड फोरि कियो चेटुवा तुष पर्यो नीर निहारि।
गहि चंगुल चातक चतुर डार्यो बाहिर बारि ॥
तुलसी चातक देत सिख सुतहि बारहीं बार।
तात न तर्पन कीजिऐ बिना बारिधर धार ॥
सोरठा
जिअत न नाई नारि चातक घन तजि दूसरहि।
सुरसरिहू को बारि मरत न माँगेउ अरध जल ॥
सुनु रे तुलसीदास प्यास पपीहहि प्रेम की।
परिहरि चारिउ मास जौ अँचवै जल स्वाति को ॥
जाचै बारह मास पिऐ पपीहा स्वाति जल।
जान्यो तुलसीदास जोगवत नेही नेह मन ॥
दोहा
तुलसीं के मत चातकहि केवल प्रेम पिआस।
पिअत स्वाति जल जान जग जाँचत बारह मास ॥
आलबाल मुकुताहलनि हिय सनेह तरु मूल।
होइ हेतु चित चातकहि स्वाति सलिलु अनुकूल ॥
उष्न काल अरु देह खिन मन पंथी तन ऊख।
चातक बतियाँ न रुचीं अन जल सींचे रूख ॥
अन जल सींचे रूख की छाया तें बरु घाम।
तुलसी चातक बहुत हैं यह प्रबीन को काम ॥
एक अंग जो सनेहता निसि दिन चातक नेह।
तुलसी जासों हित लगै वहि अहार वहि देह ॥
एकाङ्गी अनुरागके अन्य उदाहरण
बिबि रसना तनु स्याम है बंक चलनि बिष खानि।
तुलसी जस श्रवननि सुन्यो सीस समरप्यो आनि ॥
मृगका उदाहरण
आपु ब्याध को रूप धरि कुहौ कुरंगहि राग।
तुलसी जो मृग मन मुरै परै प्रेम पट दाग ॥
सर्पका उदाहरण
तुलसी मनि निज दुति फनिहि ब्याधिहि देउ दिखाइ।
बिछुरत होइ नब आँधरो ताते प्रेम न जाइ ॥
कमलका उदाहरण
जरत तुहिन लखि बनज बन रबि दै पीठि पराउ।
उदय बिकस अथवत सकुच मिटै न सहज सुभाउ ॥
मछलीका उदाहरण
देउ आपनें हाथ जल मीनहि माहुर घोरि।
तुलसी जिऐ जो बारि बिनु तौ तु देहि कबि खोरि ॥
मकर उरग दादुर कमठ जल जीवन जल गेह।
तुलसी एकै मीन को है साँचिलो सनेह ॥
मयूरशिखा बूटीका उदाहरण
तुलसी मिटे न मरि मिटेहुँ साँचो सहज सनेह।
मोरसिखा बिनु मूरिहूँ पलुहत गरजत मेह ॥
सुलभ प्रीति प्रीतम सबै कहत करत सब कोइ।
तुलसी मीन पुनीत ते त्रिभुवन बड़ो न कोइ ॥
अनन्यताकी महिमा
तुलसी जप तप नेम ब्रत सब सबहीं तें होइ।
लहै बड़ाई देवता इष्टदेव जब होइ ॥
गाढ़े दिनका मित्र ही मित्र है
कुदिन हितू सो हित सुदिन हित अनहित किन होइ।
ससि छबि हर रबि सदन तउ मित्र कहत सब कोइ ॥
बराबरीका स्नेह दुःखदायक होता है
कै लघुकै बड़ मीत भल सम सनेह दुख सोइ।
तुलसी ज्यों घृत मधु सरिस मिलें महाबिष होइ ॥
मित्रतामें छल बाधक है
मान्य मीत सों सुख चहैं सो न छुऐ छल छाहँ।
ससि त्रिसंकु कैकेइ गति लखि तुलसी मन माहँ ॥
कहिअ कठिन कृत कोमलहुँ हित हठि होइ सहाइ।
पलक पानि पर ओड़िअत समुझि कुघाइ सुघाइ ॥
वैर और प्रेम अंधे होते है
तुलसी बैर सनेह दोउ रहित बिलोचन चारि।
सुरा सेवरा आदरहिं निंदहिं सुरसरि बारि ॥
दानी और याचकका स्वभाव
रुचै मागनेहि मागिबो तुलसी दानिहि दानु।
आलस अनख न आचरज प्रेम पिहानी जानु ॥
प्रेम और वैर ही अनुकुलता और प्रतिकूलतामें हेतु हैं
अमिअ गारि गारेउ गरल गारि कीन्ह करतार।
प्रेम बैर की जननि जुग जानहिं बुध न गवाँर ॥
स्मरण और प्रिय भाषण ही प्रेमकी निशानी है
सदा न जे सुमिरत रहहिं मिलि न कहहिं प्रिय बैन।
ते पै तिन्ह के जाहिं घर जिन्ह के हिएँ न नैन ॥
स्वार्थ ही अच्छाई-बुराईका मानदण्ड हैं
हित पुनीत सब स्वारथहिं अरि असुद्ध बिनु चाड़।
निज मुख मानिक सम दसन भूमि परे ते हाड़ ॥
संसारमें प्रेममार्गके अधिकारी बिरले ही हैं
माखी काक उलूक बक दादुर से भए लोग।
भले ते सुक पिक मोरसे कोउ न प्रेम पथ जोग ॥
कलियुगमें कपटकी प्रधानता
हृदयँ कपट बर बेष धरि बचन कहहिं गढ़ि छोलि।
अब के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिए मन खोलि ॥
कपट अन्ततक नहीं निभता
चरन चोंच लोचन रँगौ चलौ मराली चाल।
छीर नीर बिबरन समय बक उघरत तेहि काल ॥
कुटिल मनुष्य अपनी कुटिलताको नहीं छोड़ सकता
मिलै जो सरलहि सरल ह्वै कुटिल न सहज बिहाइ।
सो सहेतु ज्यों बक्र गति ब्याल न बिलहिं समाइ ॥
कृसधन सखहि न देब दुख मुएहुँ न मागब नीच।
तुलसी सज्जन की रहनि पावकल पानी बीच ॥
संग सरल कुटिलहि भएँ हरि हर करहिं निबाहु।
ग्रह गनती गनि चतुर बिधि कियो उदर बिनु राहु ॥
स्वभावकी प्रधानता
नीच निचाई नहिं तजइ सज्जनहू कें संग।
तुलसी चंदन बिटप बसि बिनु बिष भए न भुअंग ॥
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु ॥
मिथ्या माहुर सज्जनहि खलहि गरल सम साँच।
तुलसी छुअत पराइ ज्यों पारद पावक आँच ॥
सत्संग और असत्संगका परिणामगत भेद
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ ॥
सुकृत न सुकृती परिहरइ कपट न कपटी नीच।
मरत सिखावन देइ चले गीधराज मारीच ॥
सज्जन और दुर्जनका भेद
सुजन सुतरु बन ऊख सम खल टंकिका रुखान।
परहित अनहित लागि सब साँसति सहर समान ॥
पिअहि सुमन रस अलिल बिटप काटि कोल फल खात।
तुलसी तरुजीवी जुगल सुमति कुमति की बात ॥
अवसरकी प्रधानता
अवसर कौड़ी जो चुकै बहुरि दिएँ का लाख।
दुइज न चंदा देखिऐ उदौ कहा भरि पाख ॥
भलाई करना बिरले ही जानते हैं
ग्यान अनभले को सबहि भले भलेहू काउ।
सींग सूँड़ रद लूम नख करत जीव जड़ घाउ ॥
संसारमें हित करनेवाले कम है
तुलसी जग जीवन अहित कतहुँ कोउ हित जानि।
सोषक भानु कृसानु महि पवन एक घन दानि ॥
सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल।
जहँ तहँ काक उलूक बक मानस सकृत मराल ॥
जलचर थलचर गगनचर देव दनुज नर नाग।
उत्तम मध्यम अधम खल दस गुन बढ़त बिभाग ॥
बलि मिस देखे देवता कर मिस मानव देव।
मुए मार सुबिचार हत स्वारथ साधन एव ॥
सुजन कहत भल पोच पथ पापि न परखइ भेद।
करमनास सुरसरित मिस बिधि निषेध बद बेद ॥
वस्तुही प्रधान है, आधार नहीं
मनि भाजन मधु पारई पूरन अमी निहारि।
का छाँड़िअ का संग्रहिअ कहहु बिबेक बिचारि ॥
प्रीति और वैरकी तीन श्रेणियाँ
उत्तम मध्यम नीच गति पाहन सिकता पानि।
प्रीति परिच्छा तिहुन की बैर बितिक्रम जानि ॥
जिसे सज्जन ग्रहण करते है,उसे दुर्जन त्याग देते हैं
पुन्य प्रीति पति प्रापतिउ परमारथ पथ पाँच।
लहहिं सुजन परिहरहिं खल सुनहु सिखावन साँच ॥
प्रकृतिके अनुसार व्यवहारका भेद भी आवश्यक हैं
नीच निरादरहीं सुखद आदर सुखद बिसाल।
कदरी बदरी बिटप गति पेखहु पनस रसाल ॥
अपना आचरण सभी को अच्छा लगता है
तुलसी अपनो आचरन भलो न लागत कासु।
तेहि न बसात जो खात नित लहसुनहू को बासु ॥
भाग्यवान् कौन है ?
बुध सो बिबेकी बिमलमति जिन्ह के रोष न राग।
सुहृद सराहत साधु जेहि तुलसी ताको भाग ॥
साधुजन किसकी सराहना करते है
आपु आपु कहँ सब भलो अपने कहँ कोइ कोइ।
तुलसी सब कहँ जो भलो सुजन सराहिअ सोइ ॥
संगकी महिमा
तुलसी भलो सुसंग तें पोच कुसंगति सोइ।
नाउ किंनरी तीर असि लोह बिलोकहु लोइ ॥
गुरु संगति गुरु होइ सो लघु संगति लघु नाम।
चार पदारथ में गनै नरक द्वारहू काम ॥
तुलसी गुरु लघुता लहत लघु संगति परिनाम।
देवी देव पुकारिअत नीच नारि नर नाम ॥
तुलसी किएँ कुसंग थिति होहिं दाहिने बाम।
कहि सुनि सकुचिअ सूम खल गत हरि संकर नाम ॥
बसि कुसंग चह सुजनता ताकी आस निरास।
तीरथहू को नाम भो गया मगह के पास ॥
राम कृपाँ तुलसी सुलभ गंग सुसंग समान।
जो जल परै जो जन मिलै कीजै आपु समान ॥
ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जल लखहिं सुलच्छन लोग ॥
जनम जोग में जानिअत जग बिचित्र गति देखि।
तुलसी आखर अंक रस रंग बिभेद बिसेषि ॥
आखर जोरि बिचार करु सुमति अंक लिखि लेखु।
जोग कुजोग सुजोग मय जग गति समुझि बिसेषु ॥
मार्ग-भेदसे फल-भेद
करु बिचार चलु सुपथ भल आदि मध्य परिनाम।
उलटि जपें 'जारा मरा' सूधें'राजा राम' ॥
भलेके भला ही हो, यह नियम नहीं है
होइ भले के अनभलो होइ दानि के सूम।
होइ कपूत सपूत कें ज्यों पावक में धूम ॥
विवेककी आवश्यकता
जड़ चेतन गुन दोष मय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंक गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥
सोरठा
पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ॥
दोहा
जो जो जेहिं जेहिं रल मगन तहँ सो मुदित मन मानि।
रसगुन दोष बिचारिबो रसिक रीति पहिचानि ॥
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥
कभी-कभी भलेको बुराई भी मिल जाती है
लोक बेदहू लौं दगो नाम भले को पोच।
धर्मराज जम गाज पबि कहत सकोच न सोच ॥
सज्जन और दुर्जनकी परीक्षाके भिन्न-भिन्न प्रकार
बिरुचि परखिऐ सुजन जन राखि परखिऐ मंद।
बड़वानल सोषत उदधि हरष बढ़ावत चंद ॥
नीच पुरुषकी नीचता
प्रभु सनमुख भएँ नीच नर होत निपट बिकराल।
रबिरुख लखि दरपन फटिक उगिलत ज्वालाजाल ॥
सज्जनकी सज्जनता
प्रभु समीप गत सुजन जन होत सुखद सुबिचार।
लवन जलधि जीवन जलद बरषत सुधा सुबारि ॥
नीच निरावहिं निरस तरु तुलसी सींचहिं ऊख।
पोषत पयद समान सब बिष पियूष के रूख ॥
बरषि बिस्व हरषित करत हरत ताप अघ प्यास।
तुलसी दोष न जलद को जो जल जरै जवास ॥
अमर दानि जाचक मरहिं मरि मरि फिरि फिरि लेहिं।
तुलसी जाचक पातकी दातहि दूषन देहिं ॥
नीचनिन्दा
लखि गयंद लै चलत भजि स्वान सुखानो हाड़।
गज गुन मोल अहार बल महिमा जान कि राड़ ॥
सज्जनमहिमा
कै निदरहुँ कै आदरहुँ सिंघहि स्वान सिआर।
हरष बिषाद न केसरिहि कुंजर गंजनिहार ॥
दुर्जनोका स्वभाव
ठाढ़ो द्वार न दै सकैं तुलसी जे नर नीच।
निंदहि बलिल हरिचंद को का कियो करन दधीच ॥
नीचकी निन्दासे उत्तम पुरुषोंका कुछ नहीं घटता
ईस सीस बिलसत बिमल तुलसी तरल तरंग।
स्वान सरावग के कहें लघुता लहै न गंग ॥
तुलसी देवल देव को लागे लाख करोरि।
काक अभागें हगि भर्यो महिमा भई कि थोरि ॥
गुणोंका ही मूल्य है,दूसरोंके आदर-अनादरका नहीं
निज गुन घटत न नाग नग परखि परिहरत कोल।
तुलसी प्रभु भूषन किए गुंजा बढ़े न मोल ॥
श्रेष्ठ पुरुषोंकी महिमाको कोई नहीं पा सकता
राकापति षोड़स उअहिं तारा गन समुदाइ।
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ ॥
दुष्ट पुरुषोंद्वारा की हुई निन्दा-स्तुतिका कोई मूल्य नहीं है
भलो कहहिं बिनु जानेहूँ बिनु जानें अपबाद।
ते नर गादुर जानि जियँ करिय न हरष बिषाद ॥
डाह करनेवालोंका कभी कल्याण नहीं होता
पर सुख संपति देखि सुनि जरहिं जे जड़ बिनु आगि।
तुलसी तिन के भागते चलै भलाई भागि ॥
दूसरोंकी निन्दा करनेवालोंका मुहँ काला होता है
तुलसी जे कीरति चहहिं पर की कीरति खोइ।
तिनके मुहँ मसि लागिहैं मिटहि न मरिहै धोइ ॥
मिथ्या अभिमानका दुष्परिणाम
तन गुन धन महिमा धरम तेहि बिनु जेहि अभिमान।
तुलसी जिअत बिडंबना परिनामहु गत जान ॥
नीचा बनकर रहना ही श्रेष्ठ है
सासु ससुर गुरु मातु पितु प्रभु भयो चहै सब कोइ।
होनी दूजी ओर को सुजन सराहिअ सोइ ॥
सज्जन स्वाभाविक ही पूजनीय होते है
सठ सहि साँसति पति लहत सुजन कलेस न कायँ।
गढ़ि गुढ़ि पाहन पूजिऐ गंडकि सिला सुभायँ ॥
भूप-दरबारकी निन्दा
बड़े बिबुध दरबार तें भूमि भूप दरबार।
जापक पूजत पेखिअत सहत निरादर भार ॥
छल-कपट सर्वत्र वर्जित है
बिनु प्रपंच छल भीख भलि लहिअ न दिएँ कलेस।
बावन बलि सों छल कियो दियो उचित उपदेस ॥
भलो भले सों छल किएँ जनम कनौड़ो होइ।
श्रीपति सिर तुलसी लसति बलि बावन गति सोइ ॥
बिबुध काज बावन बलिहि छलो भलो जिय जानि।
प्रभुता तजि बस भे तदपि मन की गइ न गलानि ॥
जगत् में सब सीधोंको तंग करते है
सरल बक्र गति पंच ग्रह चपरि न चितवत काहु।
तुलसी सूधे सूर ससि समय बिडंबित राहु ॥
दुष्ट-निन्दा
खल उपकार बिकार फल तुलसी जान जहान।
मेढुक मर्कट बनिक बक्र कथा सत्य उपखान ॥
तुलसी खल बानी मधुर सुनि समुझिअ हियँ हेरि।
राम राज बाधक भई मूढ़ मंथरा चेरि ॥
जोंक सूधि मन कुटिल गति खल बिपरीत बिचारु।
अनहित सोनित सोष सो सो हित सोषनिहारु ॥
नीच गुड़ि ज्यों जानिबो सुनि लखि तुलसीदास।
ढीलि दिएँ गिरि परत महि खैंचत चढ़त अकास ॥
भरदर बरसत कोस सत बचै जे बूँद बराइ।
तुलसी तेउ खल बचन कर हए गए न पराइ ॥
पेरत कोल्हू मेलि तिल तिली सनेही जानि।
देखि प्रीति की रीति यह अब देखिबी रिसानि ॥
सहबासी काचो गिलहिं पुरजन पाक प्रबीन।
कालछेप केहि मिलि करहिं तुलसी खग मृग मीन ॥
जासु भरोसें सोइऐ राखि गोद में सीस।
तुलसी तासु कुचाल तें रखवारो जगदीस ॥
मार खोज लै सौंह करि करि मत लाज न त्रास।
मुए नीच ते मीच बिनु जे इन कें बिस्वास ॥
परद्रोही परदार रत परधन पर अपबाद।
ते नर पावँर पापमय देह धरें मनुजाद ॥
कपटीको पहचानना बड़ा कठिन है
बचन बेष क्यों जानिए मन मलीन नर नारि।
सूपनखा मृग पूतना दसमुख प्रमुख बिचारि ॥
कपटी से सदा डरना चाहिये
हँसनि मिलनि बोलनि मधुर कटु करतब मन माँह।
छुवत जो सकुचइ सुमति सो तुलसी तिन्ह कि छाहँ ॥
कपट ही दुष्टताका स्वरूप है
कपट सार सूची सहस बाँधि बचन परबास।
कियो दुराउ चहौ चातुरीं सो सठ तुलसीदास ॥
कपटी कभी सुख नहीं पाता
बचन बिचार अचार तन मन करतब छल छूति।
तुलसी क्यों सुख पाइऐ अंतरजामिहि धूति ॥
सारदूल को स्वाँग करि कूकर की करतूति।
तुलसी तापर चाहिऐ कीरति बिजय बिभूति ॥
पाप ही दुःखका मूल है
बड़े पाप बाढ़े किए छोटे किए लजात।
तुलसी ता पर सुख चहत बिधि सों बहुत रिसात ॥
अविवेक ही दुःखका मूल है
देस काल करता करम बचन बिचार बिहीन।
ते सुरतरु तर दारिदी सुरसरि तीर मलीन ॥
साहस ही कै कोप बस किएँ कठिन परिपाक।
सठ संकट भाजन भए हठि कुजाति कपि काक ॥
राज करत बिनु काजहीं करहिं कुचालि कुसाजि।
तुलसी ते दसकंध ज्यों जइहैं सहित समाज ॥
राज करत बिनु काजहीं ठटहिं जे कूर कुठाट।
तुलसी ते कुरुराज ज्यों जइहै बारह बाट ॥
विपरीत बुद्धि बिनाशका लक्षण है
सभा सुयोधन की सकुनि सुमति सराहन जोग।
द्रोन बिदुर भीषम हरिहि कहहिं प्रपंची लोग ॥
पांडु सुअन की सदसि ते नीको रिपु हित जानि।
हरि हर सम सब मानिअत मोह ग्यान की बानि ॥
हित पर बढ़इ बिरोध जब अनहित पर अनुराग।
राम बिमुख बिधि बाम गति सगुन अघाइ अभाग ॥
सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि ॥
जोशमें आकर अनधिकार कार्य करनेवाला पछताता है
भरुहाए नट भाँट के चपरि चढ़े संग्राम।
कै वै भाजे आइहै के बाँधे परिनाम ॥
समयपर कष्ट सह लेना हितकर होता है
लोक रीति फूटी सहहिं आँजी सहइ न कोइ।
तुलसी जो आँजी सहइ सो आँधरो न होइ ॥
भगवान् सबके रक्षक है
भागें भल ओड़ेहुँ भलो भलो न घालें घाउ।
तुलसी सब के सीस पर रखवारो रघुराउ ॥
लड़ना सर्वथा त्याज्य है
सुमति बिचारहिं परिहरहिं दल सुमनहुँ संग्राम।
सकुल गए तनु बिनु भए साखी जादौ काम ॥
ऊलह न जानब छोट करि कलह कठिन परिनाम।
लगति अगिनि लघु नीच गृह जरत धनिक धन धाम ॥
क्षमाका महत्व
छमा रोष के दोष गुन सुनि मनु मानहिं सीख।
अबिचल श्रीपति हरि भए भूसुर लहै न भीख ॥
कौरव पांडव जानिऐ क्रोध छमा के सीम।
पाँचहि मारि न सौ सके सयौ सँघारे भीम ॥
क्रोधकी अपेक्षा प्रेमके द्वारा वश करना ही जीत है
बोल न मोटे मारिऐ मोटी रोटी मारु।
जीति सहस सम हारिबो जीतें हारि निहारु ॥
जो परि पायँ मनाइए तासों रूठि बिचारि।
तुलसी तहाँ न जीतिऐ जहँ जीतेहूँ हारि ॥
जूझे ते भल बूझिबो भली जीति तें हार।
डहकें तें डहकाइबो भलो जो करिअ बिचार ॥
जा रिपु सों हारेहुँ हँसी जिते पाप परितापु।
तासों रारि निवारिऐ समयँ सँभारिअ आपु ॥
जो मधु मरै न मारिऐ माहुर देइ सो काउ।
जग जिति हारे परसुधर हारि जिते रघुराउ ॥
बैर मूल हर हित बचन प्रेम मूल उपकार।
दो हा सुभ संदोह सो तुलसी किएँ बिचार ॥
रोष न रसना खोलिऐ बरु खोलिअ तरवारि।
सुनत मधुर परिनाम हित बोलिअ बचन बिचारि ॥
मधुर बचन कटु बोलिबो बिनु श्रम भाग अभाग।
कुहू कुहू कलकंठ रव का का कररत काग ॥
पेट न फूलत बिनु कहें कहत न लागइ ढेर।
सुमति बिचारें बोलिऐ समुझि कुफेर सुफेर ॥
वीतराग पुरुषोंकी शरण ही जगत् के जंजालसे बचनेका उपाय है
छिद्यो न तरुनि कटाच्छ सर करेउ न कठिन सनेहु।
तुलसी तिन की देह को जगत कवच करि लेहु ॥
शूरवीर करनी करते है,कहते नहीं
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु ॥
अभिमान के बचन कहना अच्छा नहीं
बचन कहे अभिमान के पारथ पेखत सेतु।
प्रभु तिय लूटत नीच भर जय न मीचु तेहिं हेतु ॥
दीनोंकी रक्षा करनेवाला सदा बिजयी होता है
राम लखन बिजई भए बनहुँ गरीब निवाज।
मुखर बालि रावन गए घरहीं सहित समाज ॥
नीतिका पालन करनेवालेके सभी सहायक बन जाते हैं
खग मृग मीत पुनीत किय बनहुँ राम नयपाल।
कुमति बालि दसकंठ घर सुहद बंधु कियो काल ॥
सराहनेयोग्य कौन है
लखइ अघानो भूख ज्यों लखइ जीतिमें हारि।
तुलसी सुमति सराहिऐ मग पग धरइ बिचारि ॥
अवसर चूक जानेसे बड़ी हानि होती है
लाभ समय को पालिबो हानि समय की चूक।
सदा बिचारहिं चारुमति सुदिन कुदिन दिन दूक ॥
समयका महत्व
सिंधु तरन कपि गिरि हरन काज साइँ हित दोउ।
तुलसी समयहिं सब बड़ो बूझत कहुँ कोउ कोउ ॥
तुलसी मीठी अमी तें मागी मिलै जो मीच।
सुधा सुधाकर समय बिनु काललकूट तें नीच ॥
विपत्तिकालके मित्र कौन है ?
तुलसी असमय के सखा धीरज धरम बिबेक।
साहित साहस सत्यब्रत राम भरोसो एक ॥
समरथ कोउ न राम सों तीय हरन अपराधु।
समयहिं साधे काज सब समय सराहहिं साधु ॥
तुलसी तीरहु के चलें समय पाइबी थाह।
धाइज न जाइ थहाइबी सर सरिता अवगाह ॥
होनहारकी प्रबलता
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पै ताहि तहाँ लै जाइ ॥
परमार्थप्राप्तिके चार उपाय
कै जूझीबो कै बूझिबो दान कि काय कलेस।
चारि चारु परलोक पथ जथा जोग उपदेस ॥
विवेककी आवश्यकता
पात पात को सींचिबो न करु सरग तरु हेत।
कुटिल कटुक फर फरैगो तुलसी करत अचेत ॥
विश्वासकी महिमा
गठिबँध ते परतीति बड़ि जेहिं सबको सब काज।
कहब थोर समुझब बहुत गाड़े बढ़त अनाज ॥
अपनो ऐपन निज हथा तिय पूजहिं निज भीति।
फरइ सकल मन कामना तुलसी प्रीति प्रतीति ॥
बरषत करषत आपु जल हरषत अरघनि भानु।
तुलसी चाहत साधु सुर सब सनेह सनमानु ॥
बारह नक्षत्र व्यापारके लिये अच्छे हैं
श्रुति गुन कर गुन पु जुग मृग हर रेवती सखाउ।
देहि लेहि धन धरनि धरु गएहुँ न जाइहि काउ ॥
चौदह नक्षत्रोंमें हाथसे गया हुआ धन वापस नहीं मिलता
ऊगुन पूगुन बि अज कृ म आ भ अ मू गुनु साथ।
हरो धरो गाड़ो दियो धन फिरि चढ़इ न हाथ ॥
कौन-सी तिथियाँ कब हानिकारक होती हैं ?
रबि हर दिसि गुन रस नयन मुनि प्रथमादिक बार।
तिथि सब काज नसावनी होइ कुजोग बिचार ॥
कौन-सा चन्द्रमा घातक समझना चाहिये ?
ससि सर नव दुइ छ दस गुन मुनि फल बसु हर भानु।
मेषादिक क्रम तें गनहिं घात चंद्र जियँ जानु ॥
किन-किन वस्तुओंका दर्शन शुभ है ?
नकुल सुदरसनु दरसनी छेमकरी चक चाष।
दस दिसि देखत सगुन सुभ पूजहिं मन अभिलाष ॥
सात वस्तुएँ सदा मङ्गलकारी हैं
सुधा साधु सुरतरु सुमन सुफल सुहावनि बात।
तुलसी सीतापति भगति सगुन सुमंगल सात ॥
श्रीरघुनाथजीका स्मरण सारे मङ्गलोंकी जड़ है
भरत सत्रुसूदन लखन सहित सुमिरि रघुनाथ।
करहु काज सुभ साज सब मिलिहि सुमंगल साथ ॥
यात्राके समयका शुभ स्मरण
राम लखन कौसिक सहित सुमिरहु करहु पयान।
लच्छि लाभ लै जगत जसु मंगल सगुन प्रमान ॥
वेदकी अपार महिमा
अतुलित महिमा बेद की तुलसी किएँ बिचार।
जो निंदत निंदित भयो बिदित बुद्ध अवतार ॥
बुध किसान सर बेद निज मतें खेत सब सींच।
तुलसी कृषि लखि जानिबो उत्तम मध्यम नीच ॥
धर्मका परित्याग किसी भी हालतमें नही करना चाहिये
सहि कुबोल साँसति सकल अँगइ अनट अपमान।
तुलसी धरम न परिहरिअ कहि करि गए सुजान ॥
दूसरेका हित ही करना चाहिये, अहित नहीं
अनहित भय परहित किएँ पर अनहित हित हानि।
तुलसी चारु बिचारु भल करिअ काज सुनि जानि ॥
प्रत्येक कार्यकी सिद्धिमें तीन सहायक होते हैं
पुरुषारथ पूरब करम परमेस्वर परधान।
तुलसी पैरत सरित ज्यों सबहिं काज अनुमान ॥
नीतिका अवलम्बन और श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम ही श्रेष्ठ है
चलब नीति मग राम पग नेह निबाहब नीक।
तुलसी पहिरिअ सो बसन जो न पखारें फीक ॥
दोहा चारु बिचारु चलु परिहरि बाद बिबाद।
सुकृत सीवँ स्वारथ अवधि परमारथ मरजाद ॥
विवेकपूर्वक व्यवहार ही उत्तम है
तुलसी सो समरथ सुमति सुकृती साधु सयान।
जो बिचारि ब्यवहरइ जग खरच लाभ अनुमान ॥
जाय जोग जग छेम बिनु तुलसी के हित राखि।
बिनुऽपराध भृगुपति नहुष बेनु बृकासुर साखि ॥
नेमसे प्रेम बड़ा है
बड़ि प्रतीति गठिबंध तें बड़ो जोग तें छेम।
बड़ो सुसेवक साइँ तें बड़ो नेम तें प्रेम ॥
किस-किसका परित्याग कर देना चाहिये
सिष्य सखा सेवक सचिव सुतिय सिखावन साँच।
सुनि समुझिअ पुनि परिहरिअ पर मन रंजन पाँच ॥
सात वस्तुओंको रस बिगड़नेके पहले ही छोड़ देना चाहिये
नगर नारि भोजन सचिव सेवक सखा अगार।
सरस परिहरें रंग रस निरस बिषाद बिकार ॥
मनके चार कण्टक हैं
तूठहिं निज रुचि काज करि रूठहिं काज बिगारि।
तीय तनय सेवक सखा मन के कंटक चारि ॥
कौन निरादर पाते हैं ?
दीरघ रोगी दारिदी कटुबच लोलुप लोग।
तुलसी प्रान समान तउ होहिं निरादर जोग ॥
पाँच दुःखदायी होते है
पाही खेती लगन बट रिन कुब्याज मग खेत।
बैर बड़े सों आपने किए पाँच दुख हेत ॥
समर्थ पापीके वैर करना उचित नहीं
धाइ लगै लोहा ललकि खैंचि लेइ नइ नीचु।
समरथ पापी सों बयर जानि बिसाही मीचु ॥
शोचनीय कौन है
सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग ॥
परमार्थसे विमुख ही अंधा है
तुलसी स्वारथ सामुहो परमारथ तन पीठि।
अंध कहें दुख पाइहै डिठिआरो केहि डीठि ॥
मनुष्य आँख होते हुए भी मृत्युको नहीं देखते
बिन आँखिन की पानहीं पहिचानत लखि पाय।
चारि नयन के नारि नर सूझत मीचु न माय ॥
मूढ़ उपदेश नहीं सुनते
जौ पै मूढ़ उपदेस के होते जोग जहान।
क्यों न सुजोधन बोध कै आए स्याम सुजान ॥
सोरठा
फुलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम ॥
दोहा
रीझि आपनी बूझि पर खीझि बिचार बिहीन।
ते उपदेस न मानहीं मोह महोदधि मीन ॥
बार-बार सोचनेकी आवश्यकता
अनसमुझें अनुसोचनो अवसि समुझिऐ आपु।
तुलसी आपु न समुझिऐ पल पल पर परितापु ॥
मूर्खशिरोमणि कौन हैं ?
कूप खनत मंदिर जरत आएँ धारि बबूर।
बवहिं नवहिं निज काज सिर कुमति सिरोमनि कूर ॥
ईश्वरविमुखकी दुर्गति ही होती है
निडर ईस तें बीस कै बीस बाहु सो होइ।
गयो गयो कहैं सुमति सब भयो कुमति कह कोइ ॥
जान-बूझकर अनीति करनेवालेको उपदेश देना व्यर्थ हैं
जो सुनि समुझि अनीति रत जागत रहे जु सोइ।
उपदेसिबो जगाइबो तुलसी उचित न होइ ॥
बहु सुत बहु रुचि बहु बचन बहु अचार ब्यवहार।
इनको भलो मनाइबो यह अग्यान अपार ॥
जगत् के लोगोंको रिझानेवाला मूर्ख हैं
लोगनि भलो मनाव जो भलो होन की आस।
करत गगन को गेंडुँआ सो सठ तुलसीदास ॥
अपजस जोग कि जानकी मनि चोरी की कान्ह।
तुलसी लोग रिझाइबो करषि कातिबो नान्ह ॥
तुलसी जु पै गुमान को होतो कछू उपाउ।
तौ कि जानकिहि जानि जियँ परिहरते रघुराउ ॥
प्रतिष्ठा दुःखका मूल है
मागि मधुकरी खात ते सोवत गोड़ पसारि।
पाप प्रतिष्ठा बढ़ि परी ताते बाढ़ी रारि ॥
तुलसी भेड़ी की धँसनि जड़ जनता सनमान।
उपजत ही अभिमान भो खोवत मूढ़ अपान ॥
भेड़ियाधँसानका उदाहरण
लही आँखि कब आँधरे बाँझ पूत कब ल्याइ।
कब कोढ़ी काया लही जग बहराइच जाइ ॥
ऐश्वर्य पाकर मनुष्य अपनेको निडर मान बैठते हैं
तुलसी निरभय होत नर सुनिअत सुरपुर जाइ।
सो गति लखि ब्रत अछत तनु सुख संपति गति पाइ ॥
तुलसी तोरत तीर तरु बक हित हंस बिडारि।
बिगत नलिन अलि मलिन जल सुरसरिहू बढ़िआरि ॥
अधिकरी बस औसरा भलेउ जानिबे मंद।
सुधा सदन बसु बारहें चउथें चउथिउ चंद ॥
नौकर स्वामीकी अपेक्षा अधिक अत्याचारी होते है
त्रिबिध एक बिधि प्रभु अनुग अवसर करहिं कुठाट।
सूधे टेढ़े सम बिषम सब महँ बारहबाट ॥
प्रभु तें प्रभु गन दुखद लखि प्रजहिं सँभारै राउ।
कर तें होत कृपानको कठिन घोर घन घाउ ॥
ब्यालहु तें बिकराल बड़ ब्यालफेन जियँ जानु।
वहि के खाए मरत है वहि खाए बिनु प्रानु ॥
कारन तें कारजु कठिन होइ दोसु नहिं मोर।
कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर ॥
काल बिलोकत ईस रुख भानु काल अनुहारि ॥
रबिहि राउ राजहिं प्रजा बुध ब्यवहरहिं बिचारि ॥
जथा अमल पावन पवन पाइ कुसंग सुसंग।
कहिअ कुबास सुबास तिमि काल महीस प्रसंग ॥
भलेहु चलत पथ पोच भय नृप नियोग नय नेम।
सुतिय सुभूपति भूषिअत लोह सँवारित हेम ॥
राजाको कैसा होना चाहिये ?
माली भानु किसान सम नीति निपुन नरपाल।
प्रजा भाग बस होहिंगे कबहुँ कबहुँ कलिकाल ॥
बरषत हरषत लोग सब करषत लखै न कोइ।
तुलसी प्रजा सुभाग ते भूप भानु सो होइ ॥
राजनीति
सुधा सुजान कुजान फल आम असन सम जानि।
सुप्रभु प्रजा हित लेहिं कर सामादिक अनुमानि ॥
पाके पकए बिटप दल उत्तम मध्यम नीच।
फल नर लहैं नरेस त्यों करि बिचारि मन बीच ॥
रीझि खीझि गुरु देत सिख सखा सुसाहिब साधु।
तोरि खाइ फल होइ भल तरु काटें अपराधु ॥
धरनि धेनु चारितु चरत प्रजा सुबच्छ पेन्हाइ।
हाथ कछू नहिं लागिहै किएँ गोड़ कि गाइ ॥
चढ़े बधूरें चंग ज्यों ग्यान ज्यों सोक समाज।
करम धरम सुख संपदा त्यों जानिबे कुराज ॥
कंटक करि करि परत गिरि साखा सहस खजूरि।
मरहिं कृनृप करि करि कुनय सों कुचालि भव भूरि ॥
काल तोपची तुपक महि दारू अनय कराल।
पाप पलीता कठिन गुरु गोला पुहुमी पाल ॥
किसका राज्य अचल हो जाता है ?
भूमि रुचिर रावन सभा अंगद पद महिपाल।
धरम राम नय सीय बल अचल होत सुभ काल ॥
प्रीति राम पद नीति रति धरम प्रतीति सुभायँ।
प्रभुहि न प्रभुता परिहरै कबहुँ बचन मन कायँ ॥
कर के कर मन के मनहिं बचन बचन गुन जानि।
भूपहि भूलि न परिहरै बिजय बिभूति सयानि ॥
गोली बान सुमंत्र सर समुझि उलटि मन देखु।
उत्तम मध्यम नीच प्रभु बचन बिचारि बिसेषु ॥
सत्रु सयानो सलिल ज्यों राख सीस रिपु नाव।
बूड़त लखि पग डगत लखि चपरि चहूँ दिसि घाव ॥
रैअत राज समाज घर तन धन धरम सुबाहु।
सांत सुसचिवन सौंपि सुख बिलसइ नित नरनाहु ॥
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक ॥
सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ ॥
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनी कर होइ बेगिहीं नास ॥
रसना मन्त्री दसन जन तोष पोष निज काज।
प्रभु कर सेन पदादिका बालक राज समाज ॥
लकड़ी डौआ करछुली सरस काज अनुहारि।
सुप्रभु संग्रहहिं परिहरहिं सेवक सखा बिचारि ॥
प्रभु समीप छोटे बड़े रहत निबल बलवान।
तुलसी प्रगट बिलोकिऐ कर अँगुली अनुमान ॥
आज्ञाकारी सेवक स्वामी से बड़ा होता है
साहब तें सेवक बड़ो जो निज धरम सुजान।
राम बाँधि उतरे उदधि लाँघि गए हनुमान ॥
मूलके अनुसार बढ़नेवाला और बिना अभिमान किये
सबको सुख देनेवाला पुरुष ही श्रेष्ठ है
तुलसी भल बरतरु बढ़त निज मूलहिं अनुकुल।
सबहि भाँति सब कहँ सुखद दलनि फलनि बिनु फूल ॥
त्रिभुवनके दीप कौन है ?
सघन सगुन सधरम सगन सबल सुसाइँ महीप।
तुलसी जे अभिमान बिनु ते तिभुवन के दीप ॥
कीर्ति करतूतिसे ही होती है
तुलसी निज करतूति बिनु मुकुत जात जब कोइ।
गयो अजामिल लोक हरि नाम सक्यो नहिं धोइ ॥
बड़ो का आश्रय भी मनुष्यको बड़ा बना देता है
बड़ो गहे ते होत बड़ ज्यों बावन कर दंड।
श्रीप्रभु के सँग सों बढ़ो गयो अखिल ब्रह्मंड ॥
कपटी दानीकी दुर्गति
तुलसी दान जो देत हैं जल में हाथ उठाइ।
प्रतिग्राही जीवै नहीं दाता नरकै जाइ ॥
अपने लोगोंके छोड़ देनेपर सभी वैरी हो जाते है
आपन छोड़ो साथ जब ता दिन हितू न कोइ।
तुलसी अंबुज अंबु बिनु तरनि तासु रिपु होइ ॥
साधनसे मनुष्य ऊपर उठता है और साधन बिना गिर जाता है
उरबी परि कलहीन होइ ऊपर कलाप्रधान।
तुलसी देखु कलाप गति साधन घन पहिचान ॥
सज्जनोको दुष्टोंका संग भी मङ्गलदायक होता है
तुलसी संगति पोच की सुजनहि होति म-दानि।
ज्यों हरि रूप सुताहि तें कीनि गोहारि आनि ॥
कलियुगमें कुटिलताकी वृद्धि
कलि कुचालि सुभ मति हरनि सरलै दंडै चक्र।
तुलसी यह निहचय भई बाढ़ि लेति नव बक्र ॥
आपसमें मेल रखना उत्तम है
गो खग खे खग बारि खग तीनों माहिं बिसेक।
तुलसी पीवैं फिरि चलैं रहैं फिरै सँग एक ॥
सब समय समतामे स्थित रहनेवाले पुरुष ही श्रेष्ठ हैं
साधन समय सुसिद्धि लहि उभय मूल अनुकूल।
तुलसी तीनिउ समय सम ते महि मंगल मूल ॥
जीवन किनका सफल है ?
मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ।
लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ ॥
पिताकी आज्ञाका पालन सुखका मूल है
अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन।
ते भाजन सुख सुजस के बसहिं अमरपति ऐन ॥
स्त्रीके लिये पतिसेवा ही कल्याणदायिनी है
सोरठा
सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय ॥
शरणागतका त्याग पापका मूल है
दोहा
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहिं बिलोकत हानि ॥
तुलसी तृन जलकूल को निरबल निपट निकाज।
कै राखे कै सँग चलै बाँह गहे की लाज ॥
कलियुगका वर्णन
रामायन अनुहरत सिख जग भयो भारत रीति।
तुलसी सठ की को सुनै कलि कुचालि पर प्रीति ॥
पात पात कै सींचिबो बरी बरी कै लोन।
तुलसी खोटें चतुरपन कलि डहके कहु को न ॥
प्रीति सगाई सकल बिधि बनिज उपायँ अनेक।
कल बल छल कलि मल मलिन डहकत एकहि एक ॥
दंभ सहित कलि धरम सब छल समेत ब्यवहार।
स्वारथ सहित सनेह सब रूचि अनुहरत अचार ॥
चोर चतुर बटमार नट प्रभु प्रिय भँडुआ भंड।
सब भच्छक परमारथी कलि सुपंथ पाषंड ॥
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहीं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ॥
सोरठा
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार ते बकता कलिकाल महुँ ॥
दोहा
ब्रह्मग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ॥
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ॥
साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान।
भगति निरूपहिं भगत कलि निंदहिं बेद पुरान ॥
श्रुति संमत हरिभगति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहि परिहरिहिं बिमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ॥
सकल धरम बिपरीत कलि कल्पित कोटि कुपंथ।
पुन्य पराय पहार बन दुरे पुरान सुग्रन्थ ॥
धातुबाद निरुपाधि बर सद्गुरू लाभ सुमीत।
देव दरस कलिकाल में पोथिन दुरे सभीत ॥
सुर सदननि तीरथ पुरिन निपट कुचालि कुसाज।
मनहुँ मवा से मारि कलि राजत सहित समाज ॥
गोंड़ गवाँर नृपाल महि जमन महा महिपाल।
साम न दान न भेद कलि केवल दंड कराल ॥
फोरहिं सिल लोढ़ा सदन लागें अढुक पहार।
कायर कूर कुपूत कलि घष घर सहस डहार ॥
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हे दान करइ कल्यान ॥
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास ॥
और चाहे जो भी घट जाय,
भगवान् से प्रेम नहीं घटना चाहिये
श्रवन घटहुँ पुनि दृग घटहुँ घटउ सकल बल देह।
इते घटें घटिहै कहा जौं न घटै हरिनेह ॥
कुसमयका प्रभाव
तुलसी पावस के समय धरी कोकिलन मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं हमें पूछिहै कौन ॥
श्रीरामजीके गुणोंकी महिमा
कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि ईंधन अनल प्रचंड ॥
कलियुगमें दो ही आधार है
सोरठा
कलि पाषंड प्रचार प्रबल पाप पावँर पतित।
तुलसी उभय अधार राम नाम सुरसरि सलिल ॥
भगवत्प्रेम ही सब मङ्गलोंकी खान है
दोहा
रामचंद्र मुख चंद्रमा चित चकोर जब होइ।
राम राज सब काज सुभ समय सुहावन सोइ ॥
बीज राम गुन गन नयन जल अंकुर पुलकालि।
सुकृती सुतन सुखेत बर बिलसत तुलसी सालि ॥
तुलसी सहित सनेह नित सुमिरहु सीता राम।
सगुन सुमंगल सुभ सदा आदि मध्य परिनाम ॥
पुरुषारथ स्वारथ सकल परमारथ परिनाम।
सुलभ सिद्धि सब साहिबी सुमिरत सीता राम ॥
दोहावलीके दोहोंकी महिमा
मनिमय दोहा दीप जहँ उर घर प्रगट प्रकास।
तहँ न मोह तम भय तमी कलि कज्जली बिलास ॥
का भाषा का संसकृत प्रेम चाहिऐ साँच।
काम जु आवै कामरी का लै करिअ कुमाच ॥
रामकी दीनबन्धुता
मनि मानिक महँगे किए सहँगे तृन जल नाज।
तुलसी एते जानिऐ राम गरीब नेवाज ॥
॥ इति ॥
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