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ऐतिहासिक प्रेम कहानियाँ-कादंबरी और चंद्रपीड़ की प्रेम कहानी

 

 

 


ऐतिहासिक प्रेम कहानियाँ-कादंबरी और चंद्रपीड़ की प्रेम कहानी

 

ऐतिहासिक प्रेम कहानियाँ- कादंबरी-चंद्रपीड़ की प्रेम कहानी

 

प्राचीन काल  में हिमालय पर्वत पर स्थित हेमकूट नगर में एक गंधर्व राजा का शासन हुआ करता था। उस गंधर्व राजा की बेटी का नाम था कादंबरी। कादंबरी की एक सहेली थी, महाश्वेता। कादंबरी की तरह वह भी एक गंधर्व की बेटी थी।

 

एक दिन महाश्वेता ‘अच्छोद’ नामक पावन झील में स्नान करने के लिए गई। वहां संन्यासी पुंडरीक भी अपने एक मित्र कपिंजल के साथ शिव मंदिर में पूजा करने आया हुआ था। महाश्वेता ने उसे देखा तो पहली ही नजर में वह युवा संन्यासी उसके मन को भा गया। उसी क्षण से वह उसे प्रेम करने लगी। मंदिर से लौटते समय पुंडरीक की निगाहें भी अनायास ही महाश्वेता की निगाहों से मिलीं तो वह भी महाश्वेता से प्रेम करने लगा। उसने अपने मन की बात अपने मित्र कपिंजल को बताई तो उसने कहा-‘मित्र! तुम संन्यासी हो। स्वयं पर संयम रखना सीखो। संन्यासी होकर नारी की ओर आकर्षित होना तुम्हारी तपस्या में विघ्न पैदा कर सकता है।’

 

लेकिन कपिंजल का समझाना-बुझाना व्यर्थ साबित हुआ। पुंडरीक दिन-रात महाश्वेता के प्रेम की आग में दुखी रहने लगा। उसने भोजन का भी परित्याग कर दिया और सारे दिन महाश्वेता के ख्यालों में ही डूबा रहता।

 

अपने मित्र की ऐसी हालत देखकर कपिंजल को दुख पहुंचा। उसने अपने मन में विचार किया-‘इसकी पीड़ा मुझसे नहीं देखी जाती। इसके हृदय की बात महाश्वेता को बता देनी चाहिए।’

 

कपिंजल उसी दिन महाश्वेता से मिला और उसने अपने मित्र पुंडरीक के विषय में उसे बताया। सुनकर महाश्वेता ने कहा-‘आप घबराइए नहीं संन्यासी, मैं आज ही आपके मित्र से मिलूंगी।’

 

वचन के अनुसार महाश्वेता पुंडरीक से मिली तो दोनों ने संकोच त्यागकर एक-दूसरे से अपने मन की बात कह डाली। इस प्रकार दोनों प्रेमी समय निकालकर एक-दूसरे से मिलने लगे।

 

 

एक दिन रात के समय पुंडरीक एक झील के किनारे बैठा अपनी प्रेयसी की प्रतीक्षा कर रहा था। आकाश से धरती पर बिखरती चंद्रमा की शीतल चांदनी जैसे पृथ्वी को शीतल कर रही थी, किंतु वही चांदनी पुंडरीक को धधकती अग्नि जैसी लग रही थी और चंद्रदेव जैसे उसे मुंह चिढ़ाते हुए-से लग रहे थे। विरह-वेदना से जलते हुए पुंडरीक ने उसी समय चंद्रमा को शाप दे दिया- ‘अरे चंद्र! तू मेरी बेबसी पर हंस रहा है। जा, मैं तुझे शाप देता हूं कि तू भी पृथ्वी पर किसी मानव कुल में जन्म ले और मेरी तरह ही वियोग की अग्नि में जले।

 

चंद्रमा का कोई दोष तो था नहीं। पुंडरीक ने जब उसे ऐसा शाप दे दिया तो बदले में चंद्रदेव ने भी उसे शाप दे दिया-‘अरे मूर्ख मानव! मैं तुझे शाप देता हूं कि इसी क्षण तेरी मृत्यु हो जाए और तू भी पृथ्वी पर मेरे साथ ही जन्म लेकर वैसे ही दुख भोगे जैसा शाप तूने मुझे दे दिया है।’

 

शाप के प्रभाव से पुंडरीक का तुरंत ही प्राणांत हो गया। उधर जब पुंडरीक बहुत देर तक कपिंजल के पास नहीं पहुंचा तो वह उसे खोजने के लिए बाहर निकला। झील के किनारे उसने अपने मित्र का मृत शरीर देखा तो वह दहाड़ें मारकर रोने लगा।

 

कुछ ही देर बाद महाश्वेता अपनी एक विश्वस्त अनुचरी के साथ झील पर आई। उसने किसी के रोने का स्वर सुना तो वे दोनों तेजी से वहां पहुंचीं। पुंडरीक की लाश को देखकर महाश्वेता सन्न रह गई। पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि उसका प्रेमी मर चुका है, किंतु जब उसने पुंडरीक के शरीर को छूकर देखा तो उसे विश्वास हो गया कि उसका प्रेमी सदैव के लिए उससे बिछुड़ गया है। तब वह भी रोने लगी। उसने निर्णय कर लिया कि वह भी अपने प्रेमी के साथ इसी समय मौत के आगोश में समा जाएगी।

 

ऐतिहासिक प्रेम कहानियाँ-कादंबरी-चंद्रपीड़ की प्रेम कहानी

 

ठीक उस समय, जब महाश्वेता अपनी उंगली में पहनी अंगूठी में लगे हीरे को चाटने के लिए उद्यत हो रही थी, तभी एक आकाशवाणी हुई–’प्राण मत त्यागो महाश्वेता! इसी झील के किनारे तुम्हारा प्रेमी तुम्हें मिल जाएगा।’ यह वाणी चंद्रमा की थी।

 

 महाश्वेता की हिचकियां रुक गईं। आंसू पोंछते हुए वह अपनी अनुचरी से बोली-‘तुम घर लौट जाओ और वह बात कादंबरी को बता देना। अब से मैं किसी संन्यासिनी की भांति यहां की किसी गुफा में रहूंगी और पुंडरीक के आने की राह देखा करूंगी।’

 

 

दासी ने लौटकर महाश्वेता का निर्णय कादंबरी को सुनाया तो उसके मन को भारी ठेस पहुंची। उसने निर्णय कर लिया कि जब तक महाश्वेता और पुंडरीक का मिलन नहीं होता, वह भी अपना विवाह नहीं करेगी।

 

उधर कपिंजल अपने मित्र की मृत्यु से इतना आहत हुआ कि वह अपनी सुध-बुध गंवा बैठा और पागलों की भांति इधर-उधर भागने लगा। इसी स्थिति के चलते वह एक गंधर्व के रथ के नीचे आ गया। यह देखकर गंधर्व क्रोधित हो गया और उसने उसे शाप दे दिया- ‘तू बिना लगाम के घोड़े की तरह उछल-कूद कर रहा है। जा, इसी समय घोड़ा बन जा।’

 

ठहरो गंधर्वराज।’ एकाएक कपिंजल ने हाथ उठाकर कहा- ‘आपका शाप मुझे स्वीकार है, किंतु अगले जन्म में मुझे पुंडरीक और चंद्रमा का मिलन चाहिए।’

 

ऐसा ही होगा।’ गंधर्व ने कहा और रथ आगे बढ़ा ले गया।

 

उज्जयिनी के नरेश तारापीड़ इस बात से बहुत चिंतित रहते थे कि उसके घर में किसी संतान का जन्म क्यों नही हो रहा है। वह अनेक ख्यातिप्राप्त वैद्यों से अपनी रानी का इलाज करवा चुके थे, किंतु अभी तक उनके यहां संतान पैदा नहीं हुई थी।

 

संतान-प्राप्ति के लिए रानी ने व्रत किया था कि जब तक उसके यहां कोई संतान नहीं पैदा होगी, वह घास-फूस पर ही सोया करेगी। रानी ने सभी राजसी वैभवों का भी त्याग किया हुआ था। एक रात जब रानी-राजा दोनों सोए हुए थे तो राजा ने एक स्वप्न देखा। स्वप्न में उसने देखा कि चंद्रमा के समान एक चमकदार प्रकाश पुंज उसकी रानी के मुख में प्रवेश कर गया है। अगली सुबह जब उसने अपना स्वप्न रानी को सुनाया तो रानी ने मुस्कराकर कहा-‘आर्यपुत्र! आपके द्वारा देखा गया स्वप्न बिल्कुल ठीक है। कल रात से मुझे भी ऐसा ही लग रहा है कि कोई जीव मेरे पेट में आ गया है।’

 

बात ठीक थी। वह चंद्रदेव ही थे जो शाप के प्रभाव से एक प्रकाशपुंज बनकर रानी के गर्भ में समा गए थे। यथासमय रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। बालक बहुत ही सुंदर था। राजा तारापीड़ और रानी अपने बालक को देखकर निहाल हो उठे। राजा ने कहा-‘यह तो चंद्रदेव जैसा सुंदर है।’

 

हां, हम इसका नाम चंद्रपीड़ रखेंगे।’ रानी ने मुदित मन से कहा।

 

लगभग उसी समय, राजा के मंत्री की पत्नी ने भी एक सुंदर बालक को जन्म दिया। वह पुंडरीक था जिसे चंद्रमा के शाप के कारण मंत्री के घर में जन्म लेना पड़ा था। मंत्री और उसकी पत्नी ने उसका नाम रखा-वैशम्पायन!

 

राजकुमार चंद्रपीड़ और वैशम्पायन साथ-साथ बड़े होने लगे। दोनों इकट्ठे खाते-पीते और खेलते थे, अतः दिनों-दिन दोनों के बीच घनिष्ठता बढ़ती गई।

 

समय बीतता गया। उन दोनों की आयु सोलह वर्ष की हो गई। एक दिन दोनों घोड़ों पर सवार होकर वनविहार को निकले तो वैशम्पायन ने युवराज चंद्रपीड़ से

 

कहा-‘चंद्रपीड़! कुछ समय पश्चात जब तुम उज्जयिनी के राजा बनोगे तो जानते हो महाराज तुम्हें क्या उपहार देंगे?’

 

क्या देंगे भला?’ चंद्रपीड़ ने पूछा।

 

अभी बता दूंगा तो तुम्हारी सारी उत्सुकता खत्म हो जाएगी, इसलिए कुछ दिन प्रतीक्षा का आनंद लो। राजतिलक के दिन तुम्हें स्वयं ही इस बात का ज्ञान हो जाएगा।’ वैशम्पायन ने हंसते हुए कहा।

 

धीरे-धीरे वह समय भी आ गया जब राजा तारापीड़ ने अपने पुत्र का राजतिलक कर दिया। उपहार में राजा ने उसे एक बहुत ही उत्तम प्रकार का घोड़ा भेंट किया। राजा ने उससे कहा- ‘यह घोड़ा मुझे फारस के बादशाह ने भेंट किया था। आज से वह तुम्हारा हुआ कुमार।’ दरअसल वह घोड़ा और कोई नहीं, कपिंजल ही था, जो गंधर्व के शाप के कारण घोड़े की योनि में उत्पन्न हुआ था।

 

रानी ने भी उसे एक बहुत ही सुंदर कन्या भेंट की। कुमार चंद्रपीड़ ने जब उसका परिचय पूछा तो रानी ने बताया-‘इसका नाम पत्रलेखा है कुमार, इसकी परवरिश मैंने ही की है। अब यह तुम्हारी सेवा किया करेगी और तुम इसकी देखभाल करना।’ वह युवती जिसका नाम रानी ने पत्रलेखा बताया था, चंद्रमा की पत्नी रोहिणी थी, जिसने अपने पति के लिए इस रूप में जन्म लिया था।

 

राजा बनने के कुछ दिन बाद चंद्रपीड़ वैशम्पायन, पत्रलेखा और सेना को साथ लेकर राज्य का दौरा करने के लिए निकला। वैशम्पयान ने रास्ते में जब पत्रलेखा को साथ आने का कारण पूछा तो चंद्रपीड़ ने बताया- ‘पत्रलेखा की देखभाल की जिम्मेदारी अब मेरी है, इसलिए मैं इसे अपने साथ ले आया हं।’

 

अच्छा किया तुमने चंद्र।’ वैशम्पयान ने कहा-‘इस प्रकार इसे भी हमारी देखभाल करने का अवसर मिलता रहेगा।’

 

 

 बहुत ही कर्त्तव्यपरायण है पत्रलेखा। मेरे कहने से पहले ही यह मेरा हर काम कर देती है।’ चंद्रपीड़ ने बताया।

 

सुनकर वैशम्पायन ने कहा-‘तुम बहुत भाग्यशाली हो चंद्र। ऐसी स्वामिभक्त सेविका मैंने पहले कभी नहीं देखी।’

 

धीरे-धीरे सारे राज्य का दौरा करते हुए तीन वर्ष बीत गए। इस बीच पत्रलेखा मां की तरह सबकी देखभाल करती रही। समय पर सबसे पहले भोजन कराकर बाद में स्वयं भोजन करना, अपने स्वामी की हर आज्ञा का मन से पालन करना पत्रलेखा का रोजाना का कार्य बन गया।

 

एक दिन चंद्रपीड़ अकेला ही घोड़े पर सवार होकर आखेट के लिए जंगल में चला गया। वहां उसकी नजर कुछ किन्नरों पर पड़ी तो वह उन्हें पकड़ने के लिए लालायित हो उठा। उसने अपना घोड़ा किन्नरों की ओर दौड़ा दिया। उसे अपना पीछा करते देख किन्नर भाग खड़े हुए। एक भी किन्नर चंद्रपीड़ के हाथ न आया। इस प्रयास में चंद्रपीड़ बुरी तरह थक गया और उसे जोर की प्यास लग आई। प्यास बुझाने के लिए जल की तलाश में वह अच्छोद झील के किनारे जा पहुंचा। चंद्रपीड़ और उसका घोड़ा जल पीकर तृप्त हुए तो अचानक चंद्रपीड़ को उस सुनसान स्थान में एक मधुर संगीत की ध्वनि सुनाई दी। यह जानने के लिए कि वह मधुर ध्वनि किसके कंठ से निकल रही है, चंद्रपीड़ आवाज की दिशा में चल पड़ा। वह मधुर ध्वनि एक मंदिर के अंदर से आ रही थी। जब वह मंदिर में पहुंचा तो वहां उसे एक अपूर्व सुंदरी संन्यासिनी के वेश में दिखाई दी जो वीणा पर एक दर्द-भरी तान बजा रही थी। सुंदरी ने उसे देखा तो वीणा बजानी बंद कर दी और आश्चर्य से उसे देखने लगी। कुछ क्षण पश्चात उसने चंद्रपीड़ से पूछा-‘तुम यहां कैसे आ पहुंचे युवक ? इस स्थान पर तो मृत्युलोक के किसी भी प्राणी के पांव अभी तक नहीं पड़े हैं।’

 

चंद्रपीड़ ने उसे अपना परिचय दिया और बताया कि किस तरह किन्नरों का पीछा करते-करते वह भटककर इस झील तक आ पहुंचा है। फिर उसने उस सुंदर युवती से पूछा-‘तुम कौन हो सुंदरी! जो इतनी रूपवान होते हुए भी किसी संन्यासिनी की तरह जीवन बिता रही हो?’

 

युवती ने उत्तर दिया- ‘मैं गंधर्व राजकुमारी महाश्वेता हूं और अपने प्रेमी से बिछुड़ गई हूं।’ ऐसा कहकर उसने रो-रोकर अपनी सारी व्यथा राजकुमार चंद्रपीड़ को बता दी। उसने आगे बताया- ‘मुझे इस बात का भारी दुख है कि जब तक पुंडरीक से मिलन नहीं हो जाता तब तक मैं इसी वेश में रहूंगी। मेरी प्रिय सखी कादंबरी ने विवाह न करने का निश्चय कर लिया है।’

 

कादंबरी कहां है?’ चंद्रपीड़ ने पूछा।

 

हेमकूट में।’ महाश्वेता ने बताया- ‘आप मेरे साथ हेमकूट चलिए। संभव है, आपके समझाने पर वह अपना विचार बदल दे।’

 

चलूंगा।’ चंद्रपीड़ ने कहा। तब चंद्रपीड़ ने महाश्वेता को अपने घोड़े पर बैठा लिया और हेमकूट नगर की ओर चल पड़ा। कुछ ही घंटों में वे हेमकूट नगर में जा पहंचे। महाश्वेता ने उसे कादंबरी से मिलवाया तो दोनों एक-दूसरे को आश्चर्य से देखते ही रह गए। कादंबरी मन-ही-मन सोचने लगी-‘ऐसा रूपवान पुरुष मैंने पहले कभी नहीं देखा।

 

कुछ ऐसे ही विचार चंद्रपीड़ के मन में भी उठ रहे थे। कादंबरी के चेहरे को एकटक देखता हुआ वह सोच रहा था-‘बहुत ही अद्भुत है इसकी सुंदरता। भगवान ने न जाने किस घड़ी में ऐसे सौंदर्य की रचना की होगी।’

 

चंद्रपीड़ बहुत देर तक वहां ठहरा रहा। शाम के समय जब वह वापस लौटने लगा तो उसने कादंबरी से कहा-‘राजकुमारी! अब मैं विदा लेना चाहता हूं। मेरा सौभाग्य है जो मेरी आपसे भेंट हुई।’ उधर कादंबरी कुछ और ही सोच रही थी-‘मैं तुम्हें हृदय दे बैठी हूं कुमार! किंतु मेरी विवशता है कि मैंने विवाह न करने की प्रतिज्ञा कर ली।’ इच्छा न होते हुए भी राजकुमार चंद्रपीड़ वापस चल दिया। उस समय नाना प्रकार के विचार उसके मस्तिष्क में उठ रहे थे। वह सोच रहा था-‘माता-पिता की इच्छा जाने बिना कुछ और कहना उचित न होगा। इस समय अच्छोद चलूं। फिर अपने साथियों के पास जाऊंगा।’

 

 

वह अच्छोद पहुंचा तो उसके साथी वहीं मौजूद थे। चंद्रपीड़ ने उनसे पूछा-‘तुम लोग यहां कैसे पहुंचे?’ वैशम्पायन ने बताया कि हम लोग तुम्हारे घोड़े के पैरों के निशान देखते हुए यहां तक पहुंचे हैं।’ उस रात देर तक चंद्रपीड़ वैशम्पायन और पत्रलेखा को महाश्वेता और कादंबरी के विषय में बताता रहा। उसने कहा-‘कादंबरी को देखने के बाद राजसत्ता से भी मेरी रुचि जाती रही है।’

 

अगले दिन उसे महाश्वेता द्वारा भेजा हुआ एक पत्र मिला। पत्र में उसने लिखा था

 

कुमार चंद्रपीड़! तुमसे मिलने के बाद कादंबरी बहुत विह्वल हो उठी है। मुझे लगता है कि तुम उसके हृदय में बस गए हो। मेरी एक प्रार्थना है। तुम एक बार फिर हेमकूट आओ और कादंबरी को दर्शन दो।   –महाश्वेता।

 

पत्र पढ़कर चंद्रपीड़ ने वैशम्पायन और महाश्वेता को बुलवाया। उसने वैशम्पायन से कहा-‘वैशम्पायन! मुझे हेमकूट जाना है। सेना का संचालन तुम संभालो। पत्रलेखा को मैं अपने साथ ले जाऊंगा।’ ऐसा कहकर वह पत्रलेखा को अपने घोड़े पर बैठाकर हेमकूट की दिशा में चल पड़ा। शीघ्र ही वह कादंबरी के महल में जा पहुंचा। उसने कादंबरी से कहा-‘कादंबरी! मैं जानता हूं कि तुमने कितनी पीड़ा झेली है, फिर भी वह पीड़ा मेरी पीड़ा से अधिक नहीं होगी। फिर चंद्रपीड़ बाहर से पत्रलेखा को बुला लाया। उसे देखते ही कादंबरी के मन में स्नेह उमड़ आया। पत्रलेखा ने बड़ी शिष्टता के साथ उसे प्रणाम किया तो वह मन-ही-मन उसके रूप की प्रशंसा किए बिना न रह सकी। कादंबरी ने उसका स्वागत किया।

 

इस प्रकार कुछ दिन तक पत्रलेखा और चंद्रपीड़ कादंबरी के महल में ठहरे रहे। तत्पश्चात एक दिन चंद्रपीड़ ने उससे विदा मांगी। कहा- ‘मुझे अपने डेरे पर जाना होगा, लेकिन मैं तुम्हें वचन देता हूं कि शीघ्र ही दोबारा लौटकर आऊंगा।’

 

हां-हां जरूर आइएगा, किंतु पत्रलेखा को मेरे पास ही छोड़ जाइए। कुछ ही दिन में इसने मेरे मन में अपना एक अलग ही स्थान बना लिया है। मैं इसे बहुत चाहने लगी हूं।’ चंद्रपीड़ ने कादंबरी का आग्रह स्वीकार कर लिया और वह पत्रलेखा को उसके पास छोड़कर वैशम्पायन के पास लौट पड़ा। जब वह अपने डेरे पर पहुंचा तो वैशम्पायन ने उसे बताया कि उज्जयिनी से महाराज का भेजा हुआ एक पत्र आया है।

 

क्या लिखा है पत्र में?’ चंद्रपीड़ ने पूछा।

 

लिखा है तुम्हें देखे हुए कई वर्ष बीत गए हैं। इस पत्र को पाते ही तुम घर चले आओ।

 

ठीक है वैशम्पायन।’ चंद्रपीड़ ने कहा- ‘मैं उज्जयिनी जा रहा हूं। तुम सेना लेकर मेरे पीछे-पीछे चले आओ।’

 

वैशम्पायन ने ऐसा ही करने का उसे आश्वासन दे दिया।

 

जाने से पहले उसने कादंबरी के नाम एक पत्र लिखा जिसमें उसने लिखा-‘पिताजी की आज्ञा है, इसलिए मुझे तुरंत उज्जयिनी जाना है। कभी-कभी मुझे याद कर लिया करना।

 

उधर हेमकूट में कादंबरी ने महाश्वेता और पुंडरीक के प्रेम तथा अपनी प्रतिज्ञा की बात पत्रलेखा को बताई और कहा-‘महाश्वेता का आग्रह है कि मैं विवाह कर लूं, किंतु मैं तो विवाह करके दाम्पत्य जीवन का सुख भोगू और महाश्वेता विरह की आग में तड़पे, ऐसा मुझसे नहीं होगा।’

 

कादंबरी की व्यथा सुनकर पत्रलेखा ने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि यह विवाह भले ही न हो, किंतु मैं इसकी मन की शांति के लिए चंद्रपीड़ को एक बार यहां लाऊंगी अवश्य।

 

कुछ दिन बाद पत्रलेखा उज्जयिनी पहुंची और एकांत में चंद्रपीड़ से मिली। उसने चंद्रपीड़ से कहा- ‘कादंबरी आपके वियोग में बहुत दुखी है। उसे छोड़कर आप उज्जयिनी चले आए, यह आपने अच्छा नहीं किया।’

 

पत्रलेखा! मैं भी उतना ही दुखी हूं, परंतु सेना अभी तक नहीं आई है, मैं उज्जयिनी से जाऊं कैसे?’ चंद्रपीड़ ने कहा। – तभी दूत ने आकर सूचना दी–’युवाज! सेना आती हुई दिखाई दे रही है।’ यह सुनकर चंद्रपीड़ के मुंह से राहत-भरी सांस निकली। वह बोला-‘ठीक है पत्रलेखा। मैं तुमसे फिर मिलूंगा। फिलहाल तो मुझे सेना के विषय में सोचना है।’

 

 

चंद्रपीड़ सेना की अगवानी करने के लिए पहुंचा। उसे वहां वैशम्पायन दिखाई न दिया। इस कारण से वह आशंकित हो उठा। उसने पूछा- ‘वैशम्पायन कहां है?’

 

युवराज! पहले आप घोड़े से तो उतरिए। फिर हम सारी बात आपको बता देते हैं।’ सेनानायक ने उससे कहा।

 

बेचैनी के भाव में चंद्रपीड़ घोड़े से उतरा। तब सेनापति ने उसे बड़ी अनहोनी-सी बात बताई। बोला- ‘युवराज! हम वहां से चलने को हुए तो वैशम्पायन ने हमसे कहा कि पहले अच्छोद झील में स्नान कर लें। हम अच्छोद झील पर पहुंचे तो वे बिल्कुल ही बदल चुके थे। उन्हें सहसा जैसे कुछ याद आ गया था। वे ऐसे खोजबीन करने लगे जैसे उनकी कोई प्रिय वस्तु अचानक गुम हो गई हो। वे वहां से चलने के लिए तैयार ही नहीं थे। हमने उनसे बहुत विनती की, किंतु सब व्यर्थ । तब हमें उन्हें वहीं छोड़कर वापस लौटना पड़ा। कुछ आदमी उनकी देखभाल के लिए हम वहां छोड़ आए हैं।’

 

महल में पहुंचकर चंद्रपीड़ ने सारी बात अपने पिता और मंत्री को बताई।

 

वह कहने लगा-पिताश्री! मुझे वहां जाने की आज्ञा दीजिए, ताकि मैं वैशम्पायन को समझा-बुझाकर यहां ला सकू।’ मंत्री ने उसकी बात का हल्का-सा विरोध किया, किंतु जब राजा ने सहर्ष चंद्रपीड़ को वहां जाने की आज्ञा दे दी तो वह चुप हो गया।

 

जाने से पूर्व चंद्रपीड़ पत्रलेखा से मिला और उससे कहा- ‘पत्रलेखा, तुम हेमकूट चली जाओ और वहां कादंबरी से कहना कि मैं शीघ्र ही उसके पास आकर उससे मिलूंगा। इस समय मैं अच्छोद झील पर जा रहा हूं।’

 

उधर महाश्वेता भी बड़े अनुनय-विनय के बाद कादंबरी से विदा लेकर अच्छोद झील की ओर चल पड़ी। वह मन में विचार कर रही थी कि-‘कादंबरी को छोड़ने का दुख तो बहुत है, परंतु बहुत समय तक अच्छोद से दूर रहना भी संभव नहीं। मेरे पीछे यदि पुंडरीक वहां आ गए और मैं उन्हें न मिली तो वे क्या सोचेंगे?’

 

जब महाश्वेता वापस अपनी गुफा पर पहुंची तो उसकी निगाह एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जो उसी की ओर टकटकी लगाए उसे देख रहा था। महाश्वेता सोच में पड़ गई कि यह युवक कौन है और क्यों मेरी ओर टकटकी लगाए देख रहा है?

 

क्या है इस युवक के मन में?

 

वह युवक और कोई नहीं, वैशम्पायन था। महाश्वेता के पास आकर उसने कहा- ‘मैं तुम्हारे प्रेम में पीड़ित हूं। तुम मेरी बन जाओ।’

 

यह सुनते ही महाश्वेता क्रोधित हो उठी। वह गुस्से से बोली- ‘अरे पापी! कौन है तू? तेरा ऐसा दुस्साहस? एक संन्यासिनी से इस प्रकार की बातें करता है?’

 

महाश्वेता को क्या पता था कि पुंडरीक ने ही इस रूप में जन्म लिया है, सो उसने शाप दे दिया-‘तू बिना विचारे तोते की तरह एक ही रट लगाए जा रहा है। जा, इसी समय तोता बन जा।’

 

महाश्वेता का इतना कहना था कि तत्काल वैशम्पायन की मृत्यु हो गई। उसी समय वैशम्पायन की देखभाल करने वाले सैनिक वहां पहुंच गए और वैशम्पायन को मृत देखकर विलाप करने लगे-‘हाय वैशम्पायन ! अब हम राजकुमार चंद्रपीड़ को क्या उत्तर देंगे। तुम तो उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय थे। तुम्हारी मृत्यु की खबर सुनकर वह कैसे जीवित रह पाएंगे?’

 

यह देखकर महाश्वेता को अपने किए पर पश्चाताप होने लगा। उसी समय चंद्रपीड़ भी अच्छोद झील के किनारे पहुंच गया, किंतु वैशम्पायन उसे वहां दिखाई न दिया। तब वह विचार करने लगा-‘महाश्वेता ने उसे अवश्य देखा होगा। उसी के पास चलूं। मुझे देखकर वह प्रसन्न भी हो जाएगी।’

 

चंद्रपीड़ महाश्वेता के पास पहुंचा, परंतु उसे देखकर महाश्वेता का दुख उमड़ पड़ा। वह रोने लगी। यह देख चंद्रपीड़ ने चिंतित होकर उससे पूछा- ‘क्या बात है महाश्वेता! तुम रो क्यों रही हो? क्या कादंबरी पर कोई विपत्ति आन पड़ी है? मुझे बताओ महाश्वेता।’

 

आंखों में आंसू भरकर महाश्वेता ने उसे वैशम्पायन के बारे में बताया। वैशम्पायन की मृत्यु की बात सुनते ही चंद्रपीड़ के मन पर बड़ा भारी आघात पहुंचा। वह चकराकर गिर पड़ा और उसी हालत में उसकी मृत्यु हो गई।

 

महाश्वेता चंद्रपीड़ के निर्जीव शरीर को विस्फारित नेत्रों से अभी देख ही रही थी कि पत्रलेखा और कादंबरी भी सैनिकों के साथ वहां आ पहुंची।

 

चंद्रपीड़ के मृत शरीर को देखकर पत्रलेखा खड़ी न रह सकी और कादंबरी तो मानो पत्थर की मूर्ति बन गई।

 

वह मन-ही-मन सोचनी लगी-‘आंसू बहाना व्यर्थ है। मैंने प्रतिज्ञा की थी कि पुंडरीक और महाश्वेता का मिलन हुए बिना मैं अपना विवाह नहीं करूंगी, फिर भी मैंने प्रेम किया और अपनी सखी के साथ धोखा किया।’

 

उसने महाश्वेता को अपने गले से लगाया और बोली-‘प्रिय सखी! चंद्रपीड़ से अब मेरा मिलन अगले जन्म में ही होगा। मैं अपना यह शरीर त्याग दूंगी।’

 

तभी आकाशवाणी हुई–’कादंबरी! चंद्रपीड़ के शरीर को उस ऋषि के समान सुरक्षित रखो, जिसकी आत्मा किसी और शरीर में प्रवेश कर गई हो। तुम्हारा प्रेमी तुम्हें अवश्य मिलेगा।’

 

सुनकर कादंबरी महाश्वेता से बोली-‘महाश्वेता! हम दोनों सच्ची सखियां हैं। मैं भी अब से तपस्विनी का जीवन व्यतीत करूंगी और यहीं रहकर चंद्रपीड़ के शरीर की देखभाल करूंगी।’

 

फिर उसने एक सैनिक से कहा- ‘सैनिक! तुम हेमकूट चले जाओ और जाकर सारी बातें मेरे माता-पिता को बता देना। चंद्रपीड़ से मिलन होने पर मैं उन्हें सूचित कर दूंगी।’

 

उधर, पत्रलेखा की मनोदशा सुधरी तो वह चंद्रपीड़ के घोड़े पर सवार होकर झील की ओर दौड़ पड़ी और घोड़े सहित अच्छोद झील में कूद पड़ी।

 

उसी स्थान पर कुछ देर बाद कपिंजल जल से बाहर निकला और वह महाश्वेता के पास पहुंचा। उसने महाश्वेता से पूछा-‘महाश्वेता! क्या तुमने मुझे पहचाना?’

 

हां। मैं तुम्हें पहचान गई हूं कपिंजल!’ महाश्वेता ने कहा- ‘परंतु तुम अकेले कैसे आए? मेरे हृदय के स्वामी पुंडरीक कहां हैं?’

 

महाश्वेता! तुमने अभी जिसे शाप दिया था, वह पुंडरीक ही था। उसने दूसरा जन्म लिया था। कपिंजल ने बताया।

 

यह सुनकर महाश्वेता के शोक का पारावार न रहा। वह हिचकियां भर-भरकर रोने और पश्चाताप करने लगी।

 

 धीरज रखो महाश्वेता।’ कपिंजल ने उसे धीरज बंधाया-‘शीघ्र ही पुंडरीक से तुम्हारा मिलन होगा।’

 

कुछ दिनों पश्चात चंद्रपीड़ की मृत्यु का समाचार उज्जयिनी के राजमहल में पहंचा, तो महाराज तारापीड़ व्याकुल हो उठे। बोले- ‘हम इसी समय अच्छोद झील पर जाएंगे।

 

महाराज तारापीड़ झील पर पहुंचे। वहां महाश्वेता और कादंबरी के मुख से सारी बातें सुनी तो उन्होंने कहा-‘कादंबरी! तुमने हमारे पुत्र के शरीर की देखभाल इस प्रकार की है जैसे एक पत्नी अपने पति की करती है। तुम दोनों का मिलन होने तक अब हम भी यहां आश्रम में रहेंगे।’

 

इस बीच वैशम्पायन तोते का जन्म ले चुका था और उसकी आयु भी पूरी हो रही थी। अच्छोद झील के निकट कादंबरी चंद्रपीड़ के निर्जीव शरीर को संभाले रही, फिर एक दिन अचानक चंद्रपीड़ ने आंखों खोली और उसकी ओर देखकर

 

बोला- ‘कादंबरी! तुम्हारे प्रेम ने मुझे फिर से जीवन दे दिया है।’

 

चंद्रपीड़ उठकर खड़ा हुआ और एक दिशा में उंगली से संकेत करता हुआ बोला-‘उधर देखो कादंबरी। पुंडरीक भी जीवित हो गया। महाश्वेता की प्रतिज्ञा पूरी हो गई।

 

कादंबरी भागी-भागी मंदिर में गई जहां महाश्वेता संगीत में डूबी हुई थी। कादंबरी को देखकर महाश्वेता ने वीणा बंद कर दी और उत्सुकता से उसके मुख की ओर देखने लगी।

 

कादंबरी ने उसे समाचार दिया-‘महाश्वेता! पुंडरीकजी लौट आए हैं और चंद्रपीड़जी भी पुनः जीवित हो गए हैं। चलो, उनके माता-पिता को सूचित करें।’

 

बाद में, चंद्रपीड़ का कादंबरी से तथा पुंडरीक का महाश्वेता के साथ धूमधाम से विवाह हुआ। उनके माता-पिता ने उन्हें आशीर्वाद दिया। विवाह के बाद कादंबरी के पिता चंद्रपीड़ को एकांत में ले गए और कहा-‘चंद्रपीड़! मेरे कोई पुत्र नहीं है। अब से मेरे राज्य का तुम्हीं को संचालन करना होगा।’

 

चंद्रपीड़ ने अपने ससुर का यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। उस मिलन बेला में अचानक कादंबरी को पत्रलेखा की याद हो आई। उसने चंद्रपीड़ से पूछा-‘स्वामी! पत्रलेखा कहां है?’

 

 आकाश लोक में।’ चंद्रपीड़ ने उसे बताया- ‘तुम्हें मैं आकाश लोक ले चलूंगा। वहीं उससे भेंट होगी।’

 

 

चंद्रपीड़ ने उज्जयिनी का राजकाज पुंडरीक को सौंप दिया। वह स्वयं कभी उज्जयिनी में रहता तो कभी अपने गंधर्व देश में, परंतु कादंबरी सदैव उसके साथ रहती थी।

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