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गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रीका

 गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका 


                  ॥ राम ॥ 

                विषयानुक्रमणिका


विषय          पदाङ्क   विषय           पदाङ्क


श्री गणेश-स्तुति    १    श्री राम स्तुति      ४३-४५

सूर्य-स्तुति      २    श्रीराम-नाम-वन्दना      ४६

शिव-स्तुति      ३-१४    श्रीराम-आरती        ४७-४८

देवी-स्तुति     १५-१६    हरिशङ्करी-पद         ४९

गङ्गा-स्तुति    १७-२०    श्रीराम-स्तुति       ५.५६

यमुना-स्तुति      २१    श्रीरंग-स्तुति       ५७-५९

काशी-स्तुति      २२    श्रीनर-नारायण-स्तुति     ६०

चित्रकूट-स्तुति   २३-२४    श्रीविन्दुमाधव-स्तुति   ६१-६३

हनुमत्-स्तुति    २५-३६    श्रीरामवन्दना         ६४

लक्ष्मण-स्तुति   ३७-३८    श्रीराम-नाम-जप       ६५-७०

भरत-स्तुति       ३९    विनयावली         ७१-२७९

शत्रुघ्न-स्तुति    ४०      ---           ---

श्रीसीता-स्तुति   ४१-४२      ---           --- 



                 राग-सूचौ


आसावरी    ६२,१८३-१८८    बिहाग          १०७-१३४


कल्याण  २०८-२११,२१४-२७९    भैरव          २२,६५-७३


कान्हरा    २४,२०४-२०७    भैरवी          १९८-२०३


केदारा   ४१-४४,२१२-२१३    मलार             १६१


गौरी  ३१,३६,४५,१८९-१९७    मारु             १५


जैतश्री     ६३,८३-८४    रामकली    ६-९,१६-२०,४६-६१,१०६


टोड़ी       ७८-८२    ललित            ७५-७७


दण्डक         ३७    विभास             ७४


धनाश्री ४-५,१.१२,२५-२९,    सारंग         ३०,१५५-१५७


          ३८-४०,८५-१०५    सूहो बिलावल       १३५-१३६


नट        १५८-१६०    सोरठ           १६२-१७८


बसन्त    १३-१४,२३,६४    ---            --- 


बिलावल १-३,२१,३२-३५,१०७,    ---            ---


       १३४,१३७-१५४,१७९-१८२    ---            ---



           ॥ राम ॥ 

         ॥ श्री हनुमते नमः ॥ 


            दो०


श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि ॥ 

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौ पवन-कुमार।

बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेस बिकार ॥ 


            चौपाई


जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ॥ 

राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा ॥ 

महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी ॥ 

कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा ॥ 

हाथ बज्र और ध्वजा बिराजै। काँधे मूँज जनेऊ साजै ॥ 

संकर सुवन केसरीनंदन। तेज प्रताप महा जग बंदन ॥ 

बिद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर ॥ 

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया ॥ 

सूक्ष्म रुप धरि सियहि दिखावा। बिकट रुप धरि लंक जरावा ॥ 

भीम रुप धरि असुर सँहारे। रामचन्द्र के काज सँवारे ॥ 

लाय संजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये ॥ 

रघुपति कीन्ही बहुत बडाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥ 

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं ॥ 

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा ॥ 

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥ 

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥ 

तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना। लंकेश्वर भए सब जग जाना ॥ 

जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥ 

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही। जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥ 

दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥ 

राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥ 

सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहु को डरना ॥ 

आपन तेज संहारो आपै। तीनो लोक हाँक ते काँपै ॥ 

भूत पिसाच निकट नहि आवै। महाबीर जब नाम सुनावै ॥ 

नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥ 

संकट तें हनुमान छुडावैं। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥ 

सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा ॥ 

और मनोरथ जो कोई लावै। सोइ अमित जीवन फल पावै ॥ 

चारो जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा ॥ 

साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे ॥ 

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता ॥ 

राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा ॥ 

तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै ॥ 

अंत काल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ॥ 

और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई ॥ 

संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥ 

जै जै जै हनुमान गोसाई। कृपा करहु गुरुदेव की नाई ॥ 

जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बंदि महासुख होई ॥ 

जो यह पढै हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा ॥ 

तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा ॥ 


                      दो० 


पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप।

राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥ 


             ॥ इति ॥ 


सियावर रामचन्द्र की जय। पवनसुत हनुमान की जय ॥ 

उमापति महादेव की जय। बोलो भाइ सब संतन्ह की जय ॥ 


         ॥ श्री सीतारामाभ्यां नमः ॥ 

           विनय-पत्रिका

           राग बिलावल

          श्रीगणेश-स्तुति

            १


गाइये गनपति जगबंदन। संकर-सुवन भवानी नंदन ॥ १ ॥ 


सिद्धि-सदन, गज बदन, बिनायक। कृपा-सिंधु,सुंदर सब-लायक ॥ २ ॥ 


मोदक-प्रिय, मुद-मंगल-दाता। बिद्या-बारिधि,बुद्धि बिधाता ॥ ३ ॥ 


माँगत तुलसिदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥ ४ ॥ 


           सूर्य-स्तुति

            २


दीन-दयालु दिवाकर देवा। कर मुनि,मनुज,सुरासुर सेवा ॥ १ ॥ 


हिम-तम-करि केहरि करमाली। दहन दोष-दुख-दुरित-रुजाली ॥ २ ॥ 


कोक-कोकनद-लोक-प्रकासी। तेज-प्रताप-रूप-रस-रासी ॥ ३ ॥ 


सारथि-पंगु,दिब्य रथ-गामी। हरि-संकर-बिधि-मूरति स्वामी ॥ ४ ॥ 


बेद पुरान प्रगट जस जागै। तुलसी राम-भगति बर माँगै ॥ ५ ॥ 


            शिव स्तुति

             ३


को जाँचिये संभु तजि आन।

दीनदयालु भगत-आरति-हर,सब प्रकार समरथ भगवान ॥ १ ॥ 


कालकूट-जुर जरत सुरासुर,निज पन लागि किये बिष पान।

दारुन दनुज,जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान ॥ २ ॥ 


जो गति अगम महामुनि दुर्लभ,कहत संत,श्रुति,सकल पुरान।

सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान ॥ ३ ॥ 


सेवत सुलभ,उदार कलपतरु,पारबती-पति परम सुजान।

देहु काम-रिपु राम-चरन-रति,तुलसिदास कहँ कृपानिधान ॥ ४ ॥ 


             राग धनाश्री

             ४


दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।

दीन-दयालु दिबोई भावै,जाचक सदा सोहाहीं ॥ १ ॥ 


मारिकै मार थप्यौ जगमें,जाकी प्रथम रेख भट माहीं।

ता ठाकुरकौ रीझि निवाजिबौ,कह्यौ क्यों परत मो पाहीं ॥ २ ॥ 


जोग कोटि करि जो गति हरिसों,मुनि माँगत सकुचाहीं।

बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर,कीट पंतग समाहीं ॥ ३ ॥ 


ईस उदार उमापति परिहरि,अनत जे जाचन जाहीं।

तुलसिदास ते मूढ़ माँगने,कबहुँ न पेट अघाहीं ॥ ४ ॥ 


            ५


बावरो रावरो नाह भवानी।

दानि बड़ो दिन देत दये बिनु,बेद-बडाई भानी ॥ १ ॥ 


निज घरकी बरबात बिलोकहु,हौ तुम परम सयानी।

सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी ॥ २ ॥ 


जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी।

तिन रंकनकौ नाक सँवारत,हौं आयो नकबानी ॥ ३ ॥ 


दुख-दीनता दुखी इनके दुख,जाचकता अकुलानी।

यह अधिकार सौपिये औरहिं,भीख भली मैं जानी ॥ ४ ॥ 


प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत,सुनि बिधिकी बर बानी।

तुलसी मुदित महेस मनहिं मन,जगत-मातु मुसुकानी ॥ ५ ॥ 


            राग रामकली

            ६


जाँचिये गिरिजापति कासी। जासु भवन अनिमादिक दासी ॥ १ ॥ 


औढर-दानि द्रवत पुनि थोरें। सकत न देखि दीन करजोरे ॥ २ ॥ 


सुख-संपति,मति-सुगति सुहाई। सकल सुलभ संकर-सेवकाई ॥ ३ ॥ 


गये सरन आरतिकै लीन्हे। निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हे ॥ ४ ॥ 


तुलसिदास जाचक जस गावै। बिमल भगति रघुपतिकी पावै ॥ ५ ॥ 


              ७


कस न दीनपर द्रवहु उमाबर। दारुन बिपति हरन करुनाकर ॥ १ ॥ 


बेद-पुरान कहत उदार हर। हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर ॥ २ ॥ 


कवनि भगति कीन्ही गुननिधि द्विज। होइ प्रसन्न दीन्हेहु सिव पद निज ॥ ३ ॥ 


जो गति अगम महामुनि गावहिं। तव पुर कीट पतंगहु पावहिं ॥ ४ ॥ 


देहु काम-रिपु ! राम -चरन-रति। तुलसिदास प्रभु ! हरहु भेद-मति ॥ ५ ॥ 


              ८


देव बड़े,दाता बड़े, संकर बड़े भोरे।

किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह-जिन्ह कर जोरे ॥ १ ॥ 


सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे।

दिये जगत जहँ लगि सबै,सुख,गज,रथ,घोरे ॥ २ ॥ 


गावँ बसत बामदेव, मैं कबहूँ न निहोरे।

अधिभौतिक बाधा भई, ते किंकर तोरे ॥ ३ ॥ 


बेगि बोलि बलि बरजिये, करतूति कठोरे।

तुलसी दलि, रूँध्यो चहैं सठ साखि सिहोरे ॥ ४ ॥ 


             ९


सिव! सिव! होइ प्रसन्न करु दाया।

करुनामय उदार कीरति,बलि जाउँ हरहु निज माया ॥ १ ॥ 


जलज-नयन,गुन-अयन,मयन-रिपु,महिमा जान न कोई।

बिनु तव कृपा राम-पद-पंकज, सपनेहुँ भगति न होई ॥ २ ॥ 


रिषय,सिद्ध,मुनि,मनुज,दनुज,सुर,अपर जीव जग माहीं।

तव पद बिमुख न पार पाव कोउ, कलप कोटि चलि जाहीं ॥ ३ ॥ 


अहिभूषन,दूषन-रिपु-सेवक, देव-देव, त्रिपुरारी।

मोह-निहार-दिवाकर संकर, सरन सोक-भयहारी ॥ ४ ॥ 


गिरिजा-मन-मानस-मराल, कासीस, मसान-निवासी।

तुलसिदास हरि-चरन-कमल-बर, देहु भगति अबिनासी ॥ ५ ॥ 


             राग धनाश्री

               १० 


देव,

मोह-तम-तरणि,हर,रुद्र,संकर,शरण,हरण,मम शोक लोकाभिरामं।

बाल-शशि-भाल,सुविशाल लोचन-कमल, काम-सतकोटि-लावण्य-धामं ॥ १ ॥ 


कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-विग्रह रुचिर, तरुण-रवि-कोटि तनु तेज भ्राजै।

भस्म सर्वांग अर्धांग शैलात्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै ॥ २ ॥ 


मौलिसंकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर-वारि हरि-चरण-पूतं।

श्रवण कुंडल,गरल कंठ, करुणाकंद,सच्चिदानंद वंदेऽवधूतं ॥ ३ ॥ 


शूल-शायक पिनाकासि-कर,शत्रु-वन-दहन इव धूमध्वज,वृषभ-यानं।

व्याघ्र-गज-चर्म-परिधान,विज्ञान-घन,सिद्ध-सुर-मुनि-मनुज-सेव्यमानं ॥ ४ ॥ 


तांडवित-नृत्यपर,डमरु डिंडिम प्रवर,अशुभ इव भाति कल्याणाराशी।

महाकल्पांत ब्रह्मांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसीन काशी ॥ ५ ॥ 


तज्ञ,सर्वज्ञ,यज्ञेश, अच्युत,विभो,विश्व भवदंशसंभव पुरारी।

ब्रह्मेंद्र,चंद्रार्क,वरुणाग्नि,वसु,मरुत,यम,अर्चि भवदंघ्नि सर्वाधिकारी ॥ 

अकल, निरुपाधि,निर्गुण,निरंजन,ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं।

अखिलविग्रह,उग्ररूप,शिव,भूपसुर, सर्वगत,शर्व सर्वोपकारं ॥ ७ ॥ 


ज्ञान-वैराग्य,धन-धर्म,कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य शिव!सानुकूलं।

तदपि नर मूढ आरूढ संसार-पथ, भ्रमत भव,विमुख तव पादमूलं ॥ ८ ॥ 


नष्टमति,दुष्ट अति,कष्ट-रत,खेद-गत, दास तुलसी शंभु-शरण आया।

देहि कामारि! श्रीराम-पद-पंकज भक्ति अनवरत गत-भेद-माया ॥ ९ ॥ 


            भैरवरूप शिव-स्तुति

              ११ 


देव,

भीषणाकार,भैरव,भयंकर,भूत-प्रेत-प्रमथाधिपति,विपति-हर्ता।

मोह-मूषक-मार्जार,संसार-भय-हरण,तारण-तरण,अभय कर्ता ॥ १ ॥ 


अतुल बल, विपुलविस्तार,विग्रहगौर, अमल अति धवल धरणीधराभं।

शिरसि संकुलित-कल-जूट पिंगलजटा, पटल शत-कोटि-विद्युच्छटाभं ॥ २ ॥ 


भ्राज विबुधापगा आप पावन परम, मौलि-मालेव शोभा विचित्रं।

ललित लल्लाटपर राज रजनीशकल, कलाधर,नौमि हर धनद-मित्रं ॥ ३ ॥ 


इंदु-पावक-भानु-नयन,मर्दन-मयन, गुण-अयन,ज्ञान-विज्ञान-रूपं।

रमण-गिरिजा,भवन भूधराधिप सदा, श्रवण कुंडल,वदनछवि अनूपं ॥ ४ ॥ 


चर्म-असि-शूल-धर,डमरु-शर-चाप-कर, यान वृषभेश,करुणा-निधानं।

जरत सुर-असुर,नरलोक शोकाकुलं, मृदुलचित,अजित,कृत गरलपानं ॥ ५ ॥ 


भस्म तनु-भूषणं,व्याघ्र-चर्माम्बरं, उरग-नर-मौलि उर मालधारी।

डाकिनी,शाकिनी,खेचरं,भूचरं, यंत्र-मंत्र-भंजन,प्रबल कल्मषारी ॥ ६ ॥ 


काल-अतिकाल,कलिकाल,व्यालादि-खग, त्रिपुर-मर्दन,भीम-कर्म भारी।

सकल लोकान्त-कल्पान्त शूलाग्र कृत दिग्गजाव्यक्त-गुण नृत्यकारी ॥ ७ ॥ 


पाप-संताप-घनघोर संसृति दीन, भ्रमत जग योनि नहिं कोपि त्राता।

पाहि भैरव-रूप राम-रूपी रुद्र,बंधु,गुरु,जनक,जननी,विधाता ॥ ८ ॥ 


यस्य गुण-गण गणति विमल मति शारधा,निगम नारद-प्रमुख ब्रह्मचारी।

शेष,सर्वेश,आसीन आनंदवन,दास टुलसी प्रणत-त्रासहारी ॥ ९ ॥ 


              १२


सदा-

शंकरं,शंप्रदं,सज्जनानंददं,शैल-कन्या-वरं,परमरम्यं।

काम-मदमोचनं,तामरस-लोचनं,वामदेवं भजे भावगम्यं ॥ १ ॥ 


कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं,सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं।

सिद्ध-सनकादि-योगींद्र-वृंदारका,विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं ॥ २ ॥ 


ब्रह्म-कुल-वल्लभं,सुलभ मति दुर्लभं,विकट-वेषं,विभुं,वेदपारं।

नौमि करुणाकरं,गरल-गंगाधरं,निर्मलं,निर्गुणं,निर्विकारं ॥ ३ ॥ 


लोकनाथं,शोक-शूल-निर्मूलिनं,शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं।

कालकालं,कलातीतमजरं हरं,कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं ॥ ४ ॥ 


तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं, सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं।

प्रचुर-भव-भंजनं,प्रणत-जन-रंजनं,दास तुलसी शरण सानुकूलं ॥ ५ ॥ 


             १३


            राग वसन्त

सेवहु सिव-चरन-सरोज-रेनु। कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनू ॥ १ ॥ 


कर्पूर-गौर, करुना-उदार। संसार-सार,भुजगेन्द्र-हार ॥ २ ॥ 


सुख-जन्मभूमि,महिमा अपार। निर्गुन, गुननायक,निराकार ॥ ३ ॥ 


त्रयनयन,मयन-मर्दन महेस। अहँकार निहार-उदित दिनेस ॥ ४ ॥ 


बर बाल निसाकर मौलि भ्राज। त्रैलोक-सोकहर प्रमथराज ॥ ५ ॥ 


जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल। तिन्ह की गति कासीपति कृपाल ॥ ६ ॥ 


उपकारी कोऽपर हर-समान। सुर-असुर जरत कृत गरल पान ॥ ७ ॥ 


बहु कल्प उपायन करि अनेक। बिनु संभु-कृपा नहिं भव-बिबेक ॥ ८ ॥ 


बिग्यान-भवन,गिरिसुता-रमन। कह तुलसिदास मम त्राससमन ॥ ९ ॥ 


              १४


देखो देखो, बन बन्यो आजु उमाकंत। मानों देखन तुमहिं आई रितु बसंत ॥ १ ॥ 


जनु तनुदुति चंपक-कुसुम-माल। बर बसन नील नूतन तमाल ॥ २ ॥ 


कलकदलि जंघ, पद कमल लाल। सूचत कटि केहरि, गति मराल ॥ ३ ॥ 


भूषन प्रसून बहु बिबिध रंग। नूपूर किंकिनि कलरव बिहंग ॥ ४ ॥ 


कर नवल बकुल-पल्लव रसाल। श्रीफल कुच, कंचुकिलता-जाल ॥ ५ ॥ 


आनन सरोज, कच मधुप गुंज। लोचन बिसाल नव नील कंज ॥ ६ ॥ 


पिक बचन चरित बर बर्हि कीर। सित सुमन हास,लीला समीर ॥ ७ ॥ 


कह तुलसिदास सुनु सिव सुजान। उर बसि प्रपंच रचे पंचबान ॥ ८ ॥ 


करि कृपा हरिय भ्रम-फंद काम। जेहि हृदय बसहिं सुखरासि राम ॥ ९ ॥ 


              देवी-स्तुति

              राग मारू

              १५


दुसह दोष-दुख,दलनि, करु देवि दाया।

विश्व-मूलाऽसि,जन-सानुकूलाऽसि,कर शूलधारिणि महामूलमाया ॥ १ ॥ 


तडित गर्भाङ्ग सर्वाङ्ग सुन्दर लसत, दिव्य पट भव्य भूषण विराजैं।

बालमृग-मंजु खंजन-विलोचनि,चन्द्रवदनि लखि कोटि रतिमार लाजैं ॥ २ ॥ 


रूप-सुख-शील-सीमाऽसि,भीमाऽसि,रामाऽसि,वामाऽसि वर बुद्धि बानी।

छमुख हेरंब-अंबासि,जगदंबिके,शंभु-जायासि जय जय भवानी ॥ ३ ॥ 


चंड-भुजदंड-खंडनि,बिहंडनि महिष मुंड-मद-भंग कर अंग तोरे।

शुंभ-निःशुंभ कुम्भीश रण-केशरिणि,क्रोध-वारीश अरि-वृन्द बोरे ॥ ४ ॥ 


निगम-आगम-अगम गुर्वि!तव गुन-कथन, उर्विधर करत जेहि सहसजीहा।

देहि मा,मोहि पन प्रेम यह नेम निज, राम घनश्याम तुलसी पपीहा ॥ ५ ॥ 


            राग रामकली

             १६


जय जय जगजननि देवि सुर-नर-मुनि-असुर-सेवि,

          भुक्ति-मुक्ति-दायनी,भय-हरणि कालिका।

मंगल-मुद-सिद्धि-सदनि,पर्वशर्वरीश-वदनि,

          ताप-तिमिर-तरुण-तरणि-किरणमालिका ॥ १ ॥ 


वर्म, चर्म कर कृपाण, शूल-शेल-धनुषबाण,

          धरणि,दलनि दानव-दल,रण-करालिका।

पूतना-पिंशाच-प्रेत-डाकिनी-शाकिनी-समेत,

          भूत-ग्रह-बेताल-खग-मृगालि-जालिका ॥ २ ॥ 


जय महेश-भामिनी, अनेक-रूप-नामिनी,

          समस्त-लोक-स्वामिनी,हिमशैल-बालिका।

रघुपति-पद परम प्रेम,तुलसी यह अचल नेम,

          देहु ह्वै प्रसन्न पाहि प्रणत-पालिका ॥ ३ ॥ 


           गंगा-स्तुति

           राग रामकली

            १७


जय जय भगीरथनन्दिनि,मुनि-चय चकोर-चन्दिनि,

          नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जह्नु बालिका।

बिस्नु-पद-सरोजजासि,ईस-सीसपर बिभासि,

          त्रिपथगासि,पुन्यरासि,पाप-छालिका ॥ १ ॥ 


बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,

          भँवर बर बिभंगतर तरंग-मालिका।

पुरजन पूजोपहार,सोभित ससि धवलधार,

         भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका ॥ २ ॥ 


निज तटबासी बिहंग, जल-थल-चर पसु-पतंग,

          कीट,जटिल तापस सब सरिस पालिका।

तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस-बीर,

          बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका ॥ ३ ॥ 


               १८


जयति जय सुरसरी जगदखिल-पावनी।

विष्णु-पदकंज-मकरंद इव अम्बुवर वहसि,दुख दहसि,अघवृन्द-विद्राविनी ॥ १ ॥ 


मिलितजलपात्र-अजयुक्त-हरिचरणरज,विरज-वर-वारि त्रिपुरारि शिर-धामिनी।

जह्नु-कन्या धन्य,पुण्यकृत सगर-सुत,भूधरद्रोणि-विद्दरणि,बहुनामिनी ॥ २ ॥ 


यक्ष,गंधर्व,मुनि,किन्नरोरग,दनुज,मनुज मज्जहिं सुकृत-पुंज युत-कामिनी।

स्वर्ग-सोपान,विज्ञान-ज्ञानप्रदे,मोह-मद-मदन-पाथोज-हिमयामिनी ॥ ३ ॥ 


हरित गंभीर वानीर दुहुँ तीरवर,मध्य धारा विशद,विश्व अभिरामिनी।

नील-पर्यक-कृत-शयन सर्पेश जनु,सहस सीसावली स्त्रोत सुर-स्वामिनी ॥ ४ ॥ 


अमित-महिमा,अमितरूप,भूपावली-मुकुट-मनिवंद्य त्रेलोक पथगामिनी।

देहि रघुबीर-पद-प्रीति निर्भर मातु, दासतुलसी त्रासहरणि भवभामिनी ॥ ५ ॥ 


            १९


हरनि पाप त्रिबिध ताप सुमिरत सुरसरित।

बिलसति महि कल्प-बेलि मुद-मनोरथ-फरित ॥ १ ॥ 


सोहत ससि धवल धार सुधा-सलिल-भरित।

बिमलतर तरंग लसत रघुबरके-से चरित ॥ २ ॥ 


तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित ?

घोर भव अपारसिंधु तुलसी किमि तरित ॥ ३ ॥ 


            २०


ईस-सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ-पताल-धरनि।

सुर-नर-मुनि-नाग-सिद्ध-सुजन मंगल-करनि ॥ १ ॥ 


देखत दुख-दोष-दुरित-दाह-दारिद-दरनि।

सगर-सुवन साँसति-समनि,जलनिधि जल भरनि ॥ २ ॥ 


महिमाकी अवधि करसि बहु बिधि हरि-हरनि।

तुलसी करु बानि बिमल, बिमल बारि बरनि ॥ ३ ॥ 


             यमुना-स्तुति

             राग बिलावल

              २१


जमुना यों ज्यों ज्यों लागी बाढ़न।

त्यों त्यों सुकृत-सुभट कलि भूपहिं, निदरि लगे बहु काढ़न ॥ १ ॥ 


ज्यों ज्यों जल मलीन त्यों त्यों जमगन मुख मलीन लहै आढ़ न।

तुलसिदास जगदघ जवास ज्यों अनघमेघ लगे डाढ़न ॥ २ ॥ 


            काशी-स्तुति

            राग भैरव

             २२


सेइअ सहित सनेह देह भरि, कामधेनु कलि कासी।

समनि सोक-संताप-पाप-रुज,सकल-सुमंगल-रासी ॥ १ ॥ 


मरजादा चहुँओर चरनबर,सेवत सुरपुर-बासी।

तीरथ सब सुभ अंग रोम सिवलिंग अमित अबिनासी ॥ २ ॥ 


अंतराइन ऐन भल,थन फल, बच्छ बेद-बिस्वासी।

गलकंबल बरुना बिभाति जनु,लूम लसति,सरिताऽसी ॥ ३ ॥ 


दंडपानि भैरव बिषान, मलरुचि-खलगन-भयदा-सी।

लोलदिनेस त्रिलोचन लोचन,करनघंट घंटा-सी ॥ ४ ॥ 


मनिकर्निका बदन-ससि सुंदर,सुरसरि-सुख सुखमा-सी।

स्वारथ परमारथ परिपूरन,पंचकोसि महिमा-सी ॥ ५ ॥ 


बिस्वनाथ पालक कृपालुचित,लालति नित गिरिजा-सी।

सिद्धि सची, सारद पूजहिं मन जोगवति रहति रमा-सी ॥ ६ ॥ 


पंचाच्छरी प्रान,मुद माधव,गब्य सुपंचनदा-सी।

ब्रह्म-जीव-सम रामनाम जुग,आखर बिस्व बिकासी ॥ ७ ॥ 


चारितु चरति करम कुकरम करि,मरत जीवगन घासी।

लहत परमपद पय पावन ,जेहि चहत प्रपंच-उदासी ॥ ८ ॥ 


कहत पुरान रची केसव निज कर-करतूति कला-सी।

तुलसी बसि हरपुरी राम जपु,जो भयो चहै सुपासी ॥ ९ ॥ 


             चित्रकूट-स्तुति

             राग बसन्त

             २३


सब सोच-बिमोचन चित्रकूट। कलिहरन,करन कल्यान बूट ॥ १ ॥ 


सुचि अवनि सुहावनि आलबाल। कानन बिचित्र,बारी बिसाल ॥ २ ॥ 


मंदाकिनि-मालिनि सदा सींच। बर बारि,बिषम नर-नारि नीच ॥ ३ ॥ 


साखा सुसृंग,भूरुह-सुपात। निरझर मधुबर,मृदु मलय बात ॥ ४ ॥ 


सुक,पिक,मधुकर,मुनिबर बिहारु। साधन प्रसून फल चारि चारु ॥ ५ ॥ 


भव-घोरघाम-हर सुखद छाँह। थप्यो थिर प्रभाव जानकी-नाह ॥ ६ ॥ 


साधक-सुपथिक बडे भाग पाइ। पावत अनेक अभिमत अघाइ ॥ ७ ॥ 


रस एक,रहित-गुन-करम-काल। सिय राम लखन पालक कृपाल ॥ ८ ॥ 


तुलसी जो राम पद चहिय प्रेम। सेइय गिरि करि निरुपाधि नेम ॥ ९ ॥ 


             राग कान्हरा

              २४


अब चित चेति चित्रकूटहि चलु।

कोपित कलि, लोपित मंगल मगु, बिलसत बढ़त मोह-माया-मलु ॥ १ ॥ 


भूमि बिलोकु राम-पद-अंकित, बन बिलोकु रघुबर-बिहारथलु।

सैल-सृंग भवभंग-हेतु लखु, दलन कपट-पाखंड-दंभ-डलु ॥ २ ॥ 


जहँ जनमे जग-जनक जगपति, बिधि-हरि परिहरि प्रपंच छलु।

सकृत प्रबेस करत जेहि आस्रम, बिगत-बिषाद भये पारथ नलु ॥ ३ ॥ 


न करु बिलंब बिचारु चारुमति, बरष पाछिले सम अगिले पलु।

मंत्र सो जाइ जपहि, जो जपि भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु ॥ ४ ॥ 


रामनाम-जप जाग करत नित, मज्जत पय पावन पीवत जलु।

करिहैं राम भावतौ मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु ॥ ५ ॥ 


कामदमनि कामता,कलपतरु सो जुग-जुग जागत जगतीतलु।

तुलसी तोहि बिसेषि बूझिये, एक प्रतीति प्रीति एकै बलु ॥ ६ ॥ 


            हनुमत-स्तुति

             राग धनाश्री

              २५


जयत्यंजनी-गर्भ-अंभोधि-संभूत विधु विबुध-कुल-कैरवानंदकारी।

केसरी-चारु-लोचन चकोरक-सुखद, लोकगन-शोक-संतापहारी ॥ १ ॥ 


जयति जय बालकपि केलि-कौतुक उदित-चंडकर-मंडल-ग्रासकर्त्ता।

राहु-रवि-शक्र-पवि-गर्व-खर्वीकरण शरण-भयहरण जय भुवन-भर्ता ॥ २ ॥ 


जयति रणधीर, रघुवीरहित,देवमणि,रुद्र-अवतार, संसार-पाता।

विप्र-सुर-सिद्ध-मुनि-आशिषाकारवपुष,विमलगुण,बुद्धि-वारिधि-विधाता ॥ ३ ॥ 


जयति सुग्रीव-ऋक्षादि-रक्षण-निपुण,बालि-बलशालि-बध-मुख्यहेतू।

जलधि-लंघन सिंह सिंहिंका-मद-मथन,रजनिचर-नगर-उत्पात-केतू ॥ ४ ॥ 


जयति भूनन्दिनी-शोच-मोचन विपिन-दलन घननादवश विगतशंका।

लूमलीलाऽनल-ज्वालमालाकुलित होलिकाकरण लंकेश-लंका ॥ ५ ॥ 


जयति सौमित्र रघुनंदनानंदकर,ऋक्ष-कपि-कटक-संघट-विधायी।

बद्ध-वारिधि-सेतु अमर-मंगल-हेतु,भानुकुलकेतु-रण-विजयदायी ॥ ६ ॥ 


जयति जय वज्रतनु दशन नख मुख विकट,चंड-भुजदंड तरु-शैल-पानी।

समर-तैलिक-यंत्र तिल-तमीचर-निकर,पेरि डारे सुभट घालि घानी ॥ ७ ॥ 


जयति दशकंठ-घटकर्ण-वारिद-नाद-कदन-कारन,कालनेमि-हंता।

अघटघटना-सुघट सुघट-विघटन विकट,भूमि-पाताल-जल-गगन-गंता ॥ ८ ॥ 


जयति विश्व-विख्यात बानैत-विरुदावली,विदुष बरनत वेद विमल बानी।

दास तुलसी त्रास शमन सीतारमण संग शोभित राम-राजधानी ॥ ९ ॥ 


               २६


जयति मर्कटाधीश ,मृगराज-विक्रम,महादेव,मुद-मंगलालय,कपाली।

मोह-मद-क्रोध-कामादि-खल-संकुला,घोर संसार-निशि किरणमाली ॥ १ ॥ 


जयति लसदंजनाऽदितिज,कपि-केसरी-कश्यप-प्रभव,जगदार्त्तिहर्त्ता।

लोक-लोकप-कोक-कोकनद-शोकहर,हंस हनुमान कल्यानकर्ता ॥ २ ॥ 


जयति सुविशाल-विकराल-विग्रह,वज्रसार सर्वांग भुजदण्ड भारी।

कुलिशनख, दशनवर लसत,बालधि बृहद, वैरि-शस्त्रास्त्रधर कुधरधारी ॥ ३ ॥ 


जयति जानकी-शोच-संताप-मोचन,रामलक्ष्मणानंद-वारिज-विकासी।

कीस-कौतुक-केलि-लूम-लंका-दहन,दलन कानन तरुण तेजरासी ॥ ४ ॥ 


जयति पाथोधि-पाषाण-जलयानकर,यातुधान-प्रचुर-हर्ष-हाता।

दुष्टरावण-कुंभकर्ण-पाकारिजित-मर्मभित्,कर्म-परिपाक-दाता ॥ ५ ॥ 


जयति भुवननैकभूषण,विभीषणवरद,विहित कृत राम-संग्राम साका।

जयति पर-यत्रंमंत्राभिचार-ग्रसन,कारमन-कूट-कृत्यादि-हंता।

शाकिनी-डाकिनी-पूतना-प्रेत-वेताल-भूत-प्रमथ-यूथ-यंता ॥ ७ ॥ 


पुष्पकारूढ़ सौमित्रि-सीता-सहित,भानु-कुलभानु-कीरति-पताका ॥ 

जयति वेदान्तविद विविध-विद्या-विशद,वेद-वेदांगविद ब्रह्मवादी।

ज्ञान- विज्ञान-वैराग्य-भाजन विभो,विमल गुण गनति शुकनारदादी ॥ ८ ॥ 


जयति काल-गुण-कर्म-माया-मथन, निश्चलज्ञान,व्रत-सत्यरत,धर्मचारी।

सिद्ध-सुरवृंद-योगींद्र-सेवति सदा,दास तुलसी प्रणत भय-तमारी ॥ ९ ॥ 


             २७


जयति मंगलागार, संसारभारापहर,वानराकारविग्रह पुरारी।

राम-रोषानल-ज्वालमाला-मिष ध्वांतर-सलभ-संहारकारी ॥ १ ॥ 


जयति मरुदंजनामोद-मंदिर,नतग्रीव सुग्रीव-दुखःखैकबंधो।

यातुधानोद्धत-क्रुद्ध-कालाग्निहर,सिद्ध-सुर-सज्जनानंद-सिंधो ॥ २ ॥ 


जयति रुद्राग्रणी,विश्व-वंद्याग्रणी, विश्वविख्यात-भट-चक्रवर्ती।

सामगाताग्रणी,कामजेताग्रणी,रामहित,रामभक्तानुवर्ती ॥ ३ ॥ 


जयतिसंग्रामजय, रामसंदेसहर,कौशला-कुशल-कल्याणभाषी।

राम-विरहार्क-संतप्त-भरतादि-नरनारि-शीतलकरण कल्पशाषी ॥ ४ ॥ 


जयति सिंहासनासीन सीतारमण,निरखि निर्भरहरण नृत्यकारी।

राम संभ्राज शोभा-सहित सर्वदा तुलसिमानस-रामपुर-विहारी ॥ ५ ॥ 


               २८


जयति वात-संजात,विख्यात विक्रम,बृहद्बाहु,बलबिपुल,बालधिबिसाला।

जातरूपाचलाकारविग्रह,लसल्लोम विद्युल्लता ज्वालमाला ॥ १ ॥ 


जयति बालार्क वर-वदन,पिंगल-नयन,कपिश-कर्कश-जटाजूटधारी।

विकट भृकुटी,वज् दशन नख,वैरि-मदमत्त-कुंजर-पुंज-कुंजरारी ॥ २ ॥ 


जयति भीमार्जुन-व्यालसूदन-गर्वहर, धनंजय-रथ-त्राण-केतू।

भीष्म-द्रोण-कर्णादि-पालित,कालदृक सुयोधन-चमू-निधन-हेतू ॥ ३ ॥ 


जयति गतराजदातार,हंतार संसार-संकट,दनुज-दर्पहारी।

ईति-अति-भीति-ग्रह-प्रेत-चौरानल-व्याधिबाधा-शमन घोर मारी ॥ ४ ॥ 


जयति निगमागम व्याकरण करणलिपि,काव्यकौतुक-कला-कोटि-सिंधो।

सामगायक, भक्त-कामदायक,वामदेव,श्रीराम-प्रिय-प्रेम बंधो ॥ ५ ॥ 


जयति घर्माशु-संदग्ध-संपाति-नवपक्ष-लोचन-दिव्य-देहदाता।

कालकलि-पापसंताप-संकुल सदा,प्रणत तुलसीदास तात-माता ॥ ६ ॥ 


             २९


जयति निर्भरानंद-संदोह कपिकेसरी,केसरी-सुवन भुवनैकभर्ता।

दिव्यभूम्यंजना-मंजुलाकर-मणे,भक्त-संताप-चिंतापहर्ता ॥ १ ॥ 


जयति धमार्थ-कामापवर्गद,विभो ब्रह्मलोकादि-वैभव-विरागी।

वचन-मानस-कर्म सत्य-धर्मव्रती,जानकीनाथ-चरणानुरागी ॥ २ ॥ 


जयति बिहगेश-बलबुद्धि-बेगाति-मद-मथन,मनमथ-मथन,ऊर्ध्वरेता।

महानाटक-निपुन,कोटि-कविकुल-तिलक,गानगुण-गर्व-गंधर्व-जेता ॥ ३ ॥ 


जयति मंदोदरी-केश-कर्षण,विद्यमान दशकंठ भट-मुकुट मानी।

भूमिजा-दुःख-संजात रोषांतकृत-जातनाजंतु कृत जातुधानी ॥ ४ ॥ 


जयति रामायण-श्रवण-संजात-रोमांच,लोचन सजल, शिथिल वाणी।

रामपदपद्म-मकरंद-मधुकर पाहि,दास तुलसी शरण,शूलपाणी ॥ ५ ॥ 


             राग सारंग

              ३०


जाके गति है हनुमानकी।

ताकी पैज पूजि आई, यह रेखा कुलिस पषानकी ॥ १ ॥ 


अघटित-घटन, सुघट-बिघटन,ऐसी बिरुदावलि नहिं आनकी।

सुमिरत संकट-सोच-बिमोचन, मूरति मोद-निधानकी ॥ २ ॥ 


तापर सानुकूल गिरिजा, हर, लषन, राम अरु जानकी।

तुलसी कपिकी कृपा-बिलोकनि, खानि सकल कल्यानकी ॥ ३ ॥ 


             राग गौरी

              ३१


ताकिहै तमकि ताकी ओर को।

जाको है सब भाँति भरोसो कपि केसरी-किसोरको ॥ १ ॥ 


जन-रंजन अरिगिन-गंजन मुख-भंजन खल बरजोरको।

बेद-पुरान-प्रगट पुरुषारथ सकल-सुभट-सिरमोर को ॥ २ ॥ 


उथपे-थपन,थपे उथपन पन,बिबुधबृंद बँदिछोर को।

जलधि लाँघि दहि लंक प्रबल बल दलन निसाचर घोर को ॥ ३ ॥ 


जाको बालबिनोद समुझि जिय डरत दिवाकर भोरको।

जाकी चिबुक-चोट चूरन किय रद-मद कुलिस कठोरको ॥ ४ ॥ 


लोकपाल अनुकूल बिलोकिवो चहत बिलोचन-कोरको।

सदा अभय,जय, मुद-मंगलमय जो सेवक रनरोरको ॥ ५ ॥ 


भगत-कामतरु नाम राम परिपूरन चंद चकोरको।

तुलसी फल चारो करतल जस गावत गईबहोर को ॥ ६ ॥ 


           राग बिलावल

            ३२


ऐसी तोही न बूझिये हनुमान हठीले।

साहेब कहूँ न रामसे , तोसे न उसीले ॥ १ ॥ 


तेरे देखत सिंहके सिसु मेंढक लीले।

जानत हौं कलि तेरेऊ मन गुनगन कीले ॥ २ ॥ 


हाँक सुनत दसकंधके भये बंधन ढीले।

सो बल गयो किधौं भये अब गरबगहीले ॥ ३ ॥ 


सेवकको परदा फटे तू समरथ सीले।

अधिक आपुते आपुनो सुनि मान सही ले ॥ ४ ॥ 


साँसति तुलसीदासकी सुनि सुजस तुही ले।

तिहुँकाल तिनको भलौं जे राम-रँगीले ॥ ५ ॥ 


           ३३


समरथ सुअन समीरके,रघुबीर-पियारे। 

मोपर कीबी तोहि जो करि लेहि भिया रे ॥ १ ॥ 


तेरी महिमा ते चलै चिंचिनी-चिया रे।

अँधियारो मेरी बार क्यो,त्रिभुवन-उजियारे ॥ २ ॥ 


केहि करनी जन जानिकै सनमान किया रे।

केहि अघ औगुन आपने कर डारि दिया रे ॥ ३ ॥ 


खाई खोंची माँगि मैं तेरो नाम लिया रे।

तेरे बल,बलि,आजु लौं जग जागि जिया रे ॥ ४ ॥ 


जो तोसों होतौ फिरौं मेरो हेतु हिया रे।

तौ कयों बदन देखावतो कहि बचन इयारे ॥ ५ ॥ 


तोसो ग्यान-निधान को सरबग्य बिया रे।

हौं समुझत साई-द्रोहकी गति छार छिया रे ॥ ६ ॥ 


तेरे स्वामी राम से,स्वामिनी सिया रे।

तहँ तुलसीके कौनको काको तकिया रे ॥ ७ ॥ 


            ३४


अति आरत, अति स्वारथी, अति दीन-दुखारी।

इनको बिलगु न मानिये, बोलहिं न बिचारी ॥ १ ॥ 


लोक-रीति देखी सुनी, व्याकुल नर-नारी।

अति बरषे अनबरषेहूँ, देहिं दैवहिं गारी ॥ २ ॥ 


नाकहि आये नाथसों, साँसति भय भारी।

कहि आयो, कीबी छमा, निज ओर निहारी ॥ ३ ॥ 


समै साँकरे सुमिरिये, समरथ हितकारी।

सो सब बिधि ऊबर करै, अपराध बिसारी ॥ ४ ॥ 


बिगरी सेवककी सदा,साहेबहिं सुधारी।

तुलसीपर तेरी कृपा, निरुपाधि निरारी ॥ ५ ॥ 


          ३५


कटु कहिये गाढे परे, सुनि समुझि सुसाईं।

करहिं अनभलेउ को भलो, आपनी भलाई ॥ १ ॥ 


समरथ सुभ जो पाइये, बीर पीर पराई।

ताहि तकैं सब ज्यों नदी बारिधि न बुलाई ॥ २ ॥ 


अपने अपनेको भलो, चहैं लोग लुगाई।

भावै जो जेहि तेहि भजै, सुभ असुभ सगाई ॥ ३ ॥ 


बाँह बोलि दै थापिये, जो निज बरिआई।

बिन सेवा सों पालिये, सेवककी नाईं ॥ ४ ॥ 


चूक-चपलता मेरियै, तू बड़ो बड़ाई।

होत आदरे ढीठ है, अति नीच निचाई ॥ ५ ॥ 


बंदिछोर बिरुदावली, निगमागम गाई।

नीको तुलसीदासको, तेरियै निकाई ॥ ६ ॥ 


            राम गौरी

            ३६


मंगल-मूरति मारुत-नंदन। सकल-अमंगल-मूल-निकंदन ॥ १ ॥ 


पवनतनय संतन हितकारी। ह्रदय बिराजत अवध-बिहारी ॥ २ ॥ 


मातु-पिता,गुरु,गनपति,सारद। सिवा समेत संभु,सुक,नारद ॥ ३ ॥ 


चरन बंदि बिनवौं सब काहू। देहु रामपद-नेह-निबाहू ॥ ४ ॥ 


बंदौं राम-लखन-बैदेही। जे तुलसीके परम सनेही ॥ ५ ॥ 


          लक्ष्मण-स्तुति

          दण्डक

           ३७


लाल लाडिले लखन , हित हौ जनके।

सुमिरे संकटहारी, सकल सुमंगलकारी ,

पालक कृपालु अपने पनके ॥ १ ॥ 


धरनी-धरनहार भंजन-भुवनभार ,

अवतार साहसी सहसफनके ॥ 

सत्यसंध, सत्यब्रत, परम धरमरत ,

निरमल करम बचन अरु मन के ॥ २ ॥ 


रूपके निधान, धनु-बान पानि,

तून कटि, महाबीर बिदित, जितैया बड़े रनके ॥ 

सेवक-सुख-दायक, सबल, सब लायक,

गायक जानकीनाथ गुनगनके ॥ ३ ॥ 


भावते भरत के, सुमित्रा-सीताके दुलारे ,

चातक चतुर राम स्याम घनके ॥ 

बल्लभ उरमिलाके, सुलभ सनेहबस ,

धनी धन तुलसीसे निरधनके ॥ ४ ॥ 


           राग धनाश्री

           ३८


जयति

लक्ष्मणानंत भगवंत भूधर, भुजग-

राज, भुवनेश, भूभारहारी।

प्रलय-पावक-महाज्वालमाला-वमन,

शमन-संताप लीलावतारी ॥ १ ॥ 


जयति दाशरथि, समर-समरथ, सुमित्रा-

सुवन, शत्रुसूदन, राम-भरत-बंधो।

चारु-चंपक-वरन, वसन-भूषन-धरन,

 दिव्यतर, भव्य, लावण्य-सिधों ॥ २ ॥ 


जयति गाधेय-गौतम-जनक-सुख-जनक,

विश्व-कंटक-कुटिल-कोटि-हंता।

वचन-चय-चातुरी-परशुधर-गरबहर,

सर्वदा  रामभद्रानुगंता ॥ ३ ॥ 


जयति सीतेश-सेवासरस , बिषयरस-

निरस, निरुपाधि धुरधर्मधारी।

विपुलबलमूल शार्दूलविक्रम जलद-

नाद-मर्दन, महावीर भारी ॥ ४ ॥ 


जयति संग्राम-सागर-भयंकर-तरन,

रामहित-करण वरबाहु-सेतु।

उर्मिला-रवन, कल्याण-मंगल-भवन,

दासतुलसी-दोष-दवन-हेतू ॥ ५ ॥ 


            भरत-स्तुति

             ३९


जयति

भूमिजा-रमण-पदकंज-मकरंद-रस-

           रसिक-मधुकर भरत भूरिभागी।

भुवन-भूषण, भानुवंश-भूषण, भूमिपाल-

           मनि रामचंद्रानुरागी ॥ १ ॥ 


जयति विबुधेश-धनदादि-दुर्लभ-महा-

           राज-संम्राज-सुख-पद-विरागी।

खड्ग-धाराव्रती-प्रथमरेखा प्रकट

           शुद्धमति-युवति पति-प्रेमपागी ॥ २ ॥ 


जयति निरुपाधि-भक्तिभाव-यंत्रित-ह्रदय ,

           बंधु-हित चित्रकुटाद्रि-चारी।

पादुका-नृप-सचिव,पुहुमि-पालक परम

          धरम-धुर-धीर, वरवीर भारी ॥ ३ ॥ 


जयति संजीवनी-समय-संकट हनूमान

          धनुबान-महिमा  बखानी।

बाहुबल बिपुल परमिति पराक्रम अतुल,

          गूढ गति जानकी-जानि जानी ॥ ४ ॥ 


जयति रण-अजिर गन्धर्व-गण-गर्वहर,

          फिर किये रामगुणगाथ-गाता।

माण्डवी-चित्त-चातक-नवांबुद-बरन,

          सरन तुलसीदास अभय दाता ॥ ५ ॥          


           शत्रुघ्न-स्तुति

            राग धनाश्री

            ४०


जयति जय शत्रु-करि-केसरी शत्रुहन,

          शत्रुतम-तुहिनहर किरणकेतू।

देव-महिदेव-महि-धेनु-सेवक सुजन-

           सिद्धि-मुनि-सकल-कल्याण-हेतू ॥ १ ॥ 


जयति सर्वांगसुदंर सुमित्रा-सुवन,

           भुवन-विख्यात-भरतानुगामी।

वर्मचर्मासी-धनु-बाण-तूणीर-धर

           शत्रु-संकट-समय यत्प्रणामी ॥ २ ॥ 


जयति लवणाम्बुनिधि-कुंभसंभव महा-

           दनुज-दुर्जनदवन, दुरितहारि।

लक्ष्मणानुज, भरत-राम-सीता-चरण-

         रेणु-भूषित-भाल-तिलकधारी ॥ ३ ॥ 


जयति श्रुतिकीर्ति-वल्लभ सुदुर्लभ सुलभ

          नमत नर्मद भुक्तिमुक्तिदाता।

दासतुलसी चरण-शरण सीदत विभो,

          पाहि दीनार्त्त-संताप-हाता ॥ ४ ॥ 


          श्रीसीता-स्तुति

           राग केदारा

           ४१


कबहुँक अंब, अवसर पाइ।

मेरिऔ सुधि द्याइबी,कछु करुन-कथा चलाइ ॥ १ ॥ 


दीन, सब अँगहीन,छीन,मलीन,अघी अघाइ।

नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ ॥ २ ॥ 


बूझिहैं 'सो है कोन', कहिबी नाम दसा जनाइ।

सुनत राम कृपालुके मेरी बिगरीऔ बनि जाइ ॥ ३ ॥ 


जानकी जगजननि जनकी किये बचन सहाइ।

तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ ॥ ४ ॥ 


           ४२


कबहुँ समय सुधि द्ययाबी,मेरी मातु जानकी।

जन कहाइ नाम लेत हौं,किये पन चातक ज्यों,प्यास-प्रेम-पानकी ॥ १ ॥ 


सरल कहाई प्रकृति आपु जानिए करुना-निधानकी।

निजगुन,अरिकृत अनहितौ,दास-दोष सुरति चित रहत न दिये दानकी ॥ 

बानि बिसारनसील है मानद अमानकी।

तुलसीदास न बिसारिये,मन करम बचन जाके,सपनेहुँ गति न आनकी ॥ 

          श्रीराम-स्तुति

           ४३


जयति

सच्चिदव्यापकानंद परब्रह्म-पद विग्रह-व्यक्त लीलावतारी।

विकल ब्रह्मादि,सुर,सिद्ध,संकोचवश,विमल गुण-गेह नर-देह-धारी। १।


जयति

कोशलाधीश कल्याण कोशलसुता,कुशल कैवल्य-फल चारु चारी।

वेद-बोधित करम-धरम-धरनीधेनु,विप्र-सेवक साधु-मोदकारी ॥ २ ॥ 


जयति ऋषि-मखपाल,शमन-सज्जन-साल,शापवश मुनिवधू-पापहारी।

भंजि भवचाप,दलि दाप भूपावली,सहित भृगुनाथ नतमाथ भारी ॥ ३ ॥ 


जयति धारमिक-धुर,धीर रघुवीर गुर-मातु-पितु-बंधु-वचनानुसारी।

चित्रकूटाद्रि विन्ध्याद्रि दंडकविपिन,धन्यकृत पुन्यकानन-विहारी ॥ ४ ॥ 


जयति पाकारिसुत-काक-करतूति-फलदानि खनि गर्त गोपित विराधा।

दिव्य देवी वेश देखि लखि निशिचरी जनु विडंबित करी विश्वबाधा ॥ ५ ॥ 


जयति खर-त्रिशिर-दूषण चतुर्दश-सहस-सुभट-मारीच-संहारकर्ता।

गृध्र-शबरी-भक्ति-विवश करुणासिंधु,चरित निरुपाधि,त्रिविधार्तिहर्ता ॥ ६ ॥ 


जयति मद-अंध कुकबंध बधि,बालि बलशालि बधि,करन सुग्रीव राजा।

सुभट मर्कट-भालु-कटक-संघट सजत,नमत पद रावणानुज निवाजा ॥ ७ ॥ 


जयति पाथोधि-कृत-सेतु कौतुक हेतु,काल-मन अगम लई ललकि लंका।

सकुल,सानुज,सदल दलित दशकंठ रण,लोक-लोकप किये रहित-शंका ॥ ८ ॥ 


जयति सौमित्रि-सीता-सचिव-सहित चले पुष्पकारुढ निज राजधानी।

दासतुलसी मुदित अवधवासी सकल,राम भे भूप वैदेहि रानी ॥ ९ ॥ 


            ४४


जयति

राज-राजेंद्र राजीवलोचन,राम

         नाम कलि-कामतरु,साम-शाली।

अनय-अंभोधि-कुंभज,निशाचर-निकर-

         तिमिर-घनघोर-खरकिरणमाली ॥ १ ॥ 


जयति मुनि-देव-नरदेव दसरत्थके ,

         देव-मुनि-वंद्य किय अवध-वासी।

लोक नायक-कोक-शोक-संकट-शमन,

         भानुकुल-कमल कानन-विकासी ॥ २ ॥ 


जयति श‍ृंगार-सर तामरस-दामदुति-

         देह,गुणगेह,विश्वोपकारी ॥ ।३ ॥ 


सकल सौभाग्य-सौंदर्य-सुषमारुप,

         मनोभव कोटि गर्वापहारी ॥ ३ ॥ 


(जयति) सुभग सारंग सुनिखंग सायक शक्ति,

         चारु चर्मासि वर वर्मधारी।

धर्मधुरधीर,रघुवीर,भुजबल अतुल,।

         हेलया दलित भूभार भारी ॥ ४ ॥ 


जयति कलधौत मणि-मुकुट,कुंडल,तिलक-

         झलक भलि भाल,विधु-वदन-शोभा।

दिव्य भूषन,बसन पीत,उपवीत,

         किय ध्यान कल्यान-भाजन न को भा ॥ ५ ॥ 


(जयति)भरत-सौमित्रि-शत्रुघ्न-सेवित,सुमुख,

        सचिव-सेवक-सुखद, सर्वदाता ॥ 

अधम,आरत,दीन,पतित,पातक-पीन

        सकृत नतमात्र कहि 'पाहि' पाता ॥ ६ ॥ 


जयति जय भुवन दसचारि जस जगमगत,

        पुन्यमय,धन्य जय रामराजा।

चरित-सुरसरित कवि-मुख्य गिरि निःसरित,

        पिबत,मज्जत मुदित सँत-समाजा ॥ ७ ॥ 


जयति वर्णाश्रमाचारपर नारि-नर,

         सत्य-शम-दम-दया-दानशीला।

विगत दुख-दोष,संतोस सुख सर्वदा,

         सुनत,गावत राम राजलीला ॥ ८ ॥ 


जयति वैराग्य-विज्ञान-वारांनिधे

         नमत नर्मद,पाप-ताप-हर्ता।

दास तुलसी चरण शरण संशय-हरण,

         देहि अवलंब वैदेहि-भर्ता ॥ ९ ॥ 


           राग गौरी

           ४५


श्री रामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं।

नवकंज-लोचन,कंज-मुख,कर-कंज,पद कंजारुणं ॥ १ ॥ 


कंदर्प अगणित अमित छवि,नवनिल नीरद सुंदरं।

पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ॥ २ ॥ 


भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश निकंदनं।

रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनं ॥ ३ ॥ 


सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं।

आजानुभुज शर-चाप-धर,संग्राम-जित-खरदूषणं ॥ ४ ॥ 


इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।

मम ह्रदय कंज निवास करु कामादि खल-दल-गंजनं ॥ ५ ॥ 


            राग रामकली

             ४६


सदा

राम जपु,राम जपु,राम जपु, राम जपु, राम जपु, मूढंअन बार बारं।

सकल सौभाग्य-सुख-खानि जिय जानि शठ,मानि विश्वास वद वेदसारं ॥ 

कोशलेन्द्र नव-नीलकंजाभतनु,मदन-रिपु-कंजह्रदि-चंचरीकं।

जानकीरवन सुखभवन भुवनैकप्रभु,समर-भंजन,परम कारुनीकं ॥ २ ॥ 


दनुज-वन धूमधुज,पीन आजानुभुज,दंड-कोदंडवर चंड बानं।

अरुनकर चरण मुख नयन राजीव,गुन-अयन,बहु मयन-शोभा-निधानं ॥ ३ ॥ 


वासनावृंद-कैरव-दिवाकर, काम-क्रोध-मद कंज-कानन-तुषारं।

लोभ अति मत्त नागेंद्र पंचानन भक्तहित हरण संसार-भारं ॥ ४ ॥ 


केशवं,क्लेशहं,केश-वंदित पद-द्वंद्व मंदाकिनी-मूलभूतं।

सर्वदानंद-संदोह,मोहापहं, घोर-संसार-पाथोधि-पोतं ॥ ५ ॥ 


शोक-संदेह-पाथोदपटलानिलं, पाप-पर्वत-कठिन-कुलिशरूपं।

संतजन-कामधुक-धेनु,विश्रामप्रद, नाम कलि-कलुष-भंजन अनूपं ॥ ६ ॥ 


धर्म-कल्पद्रुमाराम, हरिधाम-पथि संबलं, मूलमिदमेव एकं।

भक्ति-वैराग्यं विज्ञान-शम-दान-दम, नाम आधीन साधन अनेकं ॥ ७ ॥ 


तेन तप्तं,हुतं,दत्तमेवाखिलं, तेन सर्व कृतं कर्मजालं।

येन श्रीरामनामामृतं पानकृतमनिशमनवद्यमवलोक्य कालं ॥ ८ ॥ 


श्वपच,खल,भिल्ल,यवनादि हरिलोकगत, नामबल विपुल मति मल न परसी।

त्यागि सब आस,संत्रास,भवपास असि निसित हरिनाम जपु दासतुलसी ॥ 

              ४७


        ऐसी आरती राम रघुबीरकी करहि मन।

        हरन दुखदुंद गोबिंद आनन्दघन ॥ १ ॥ 


अचरचर रूप हरि,सरबगत,सरबदा बसत,इति बासना धूप दीजै।

दीप निजबोधगत-कोह-मद-मोह-तम,प्रौढऽभिमान चितबृति छीजै। २।


भाव अतिशय विशद प्रवर नैवेद्य शुभ श्रीरमण परम संतोषकारी।

प्रेम-तांबूल गत शूल संशय सकल,विपुल भव-बासना-बीजहारी। ३।


अशुभ-शुभकर्म-घृतपूर्ण दश वर्तिका,त्याग पावक, सतोगुण प्रकासं।

भक्ति-वैराग्य-विज्ञान दीपावली,अर्पि नीराजनं जगनिवासं ॥ ४ ॥ 


बिमल ह्रदि-भवन कृत शांति-पर्यक शुभ,शयन विश्राम श्रीरामराया।

क्षमा-करुणा प्रमुख तत्र परिचारिका,यत्र हरि तत्र नहिं भेद-माया। ५।


एहि

आरती-निरत सनकादि,श्रुति,शेष,शिव,देवरिषि,अखिलमुनि तत्व-दरसी

करै सोइ तरै,परिहरै कामादि मल,वदति इति अमलमति-दास तुलसी ॥ ६ ॥ 


          ४८


हरति सब आरती आरती रामकी।

दहन दुख-दोष,निरमूलिनी कामकी ॥ १ ॥ 


सुरभ सौरभ धूप दीपबर मालिका।

उड़त अघ-बिहँग सुनि ताल करतालिका ॥ २ ॥ 


भक्त-ह्रदि-भवन, अज्ञान-तम-हारिनी।

बिमल बिग्यानमय तेज-बिस्तारिनी ॥ ३ ॥ 


मोह-मद-कोह-कलि-कंज-हिमजामिनी।

मुक्तिकी दूतिका,देह-दुति दामिनी ॥ ४ ॥ 


प्रनत-जन-कुमुद-बन-इंदु-कर-जालिका।

तुलसि अभिमान-महिषेस बहु कालिका ॥ ५ ॥ 


           हरिशंकरी पद

            ४९


देव-

दनुज-बन-दहन,गुन-गहन,गोविंद नंदादि-आनंद-दाताऽविनाशी।

शंभु,शिव,रुद्र,शंकर,भयंकर,भीम,घोर,तेजायतन,क्रोध-राशी ॥ १ ॥ 


अनँत,भगवंत-जगदंत-अंतक-त्रास-शमन,श्रीरमन,भुवनाभिरामं।

भूधराधीश जगदीश ईशान,विज्ञानघन,ज्ञान-कल्यान-धामं ॥ २ ॥ 


वामनाव्यक्त,पावन,परावर,विभो,प्रकट परमातमा,प्रकृति-स्वामी।

चंद्रशेखर,शूलपाणि,हर,अनघ,अज,अमित,अविछिन्न,वृशभेश-गामी ॥ ३ ॥ 


नीलजलदाभ तनु श्याम,बहु काम छवि राम राजीवलोचन कृपाला।

कबुं-कर्पूर-वपु धवल,निर्मल मौलि जटा,सुर-तटिनि,सित सुमन माला ॥ ४ ॥ 


वसन किंजल्कधर,चक्र-सारंग-दर-कंज-कौमोदकी अति विशाला।

मार-करि-मत्त-मृगराज,त्रैनैन,हर,नौमि अपहरण संसार-जाला ॥ ५ ॥ 


कृष्ण,करुणाभवन,दवन कालीय खल,विपुल कंसादि निर्वशकारी।

त्रिपुर-मद-भंगकर,मत्तगज-चर्मधर,अन्धकोरग-ग्रसन पन्नगारी ॥ ६ ॥ 


ब्रह्म,व्यापक,अकल,सकल,पर,परमहित,ग्यान,गोतीत,गुण-वृत्ति-हर्त्ता।

सिंधुसुत-गर्व-गिरि-वज्र,गौरीश,भव दक्ष-मख अखिल विध्वंसकर्त्ता ॥ ७ ॥ 


भक्तिप्रिय,भक्तजन-कामधुक धेनु,हरि हरण दुर्घट विकट विपति भारी।

सुखद,नर्मद,वरद,विरज,अनवघ्यऽखिल,विपिन-आनंद-वीथिन-विहारी

रुचिर हरिशंकरी नाम-मंत्रावली द्वंद्वदुख हरनि,आनंदखानी।

विष्णु-शिव-लोक-सोपान-सम सर्वदा वदति तुलसीदास विशद बानी ॥ ८ ॥ 


               ५०


देव-

भानुकुल-कमल-रवि,कोटि कंर्दप-छवि,काल-कलि-व्यालमिव वैनतेयं।

प्रबल भुजदंड परचंड-कोदंड-धर तूणवर विशिख बलमप्रमेयं ॥ १ ॥ 


अरुण राजीवदल-नयन,सुषमा-अयन,श्याम तन-कांति वर वारिदाभं।

तत्प कांचन-वस्त्र,शस्त्र-विद्या-निपुण,सिद्ध-सुर-सेव्य,पाथोजनाभं ॥ 

अखिल लावण्य-गृह,विश्व-विग्रह,परम प्रौढ,गुणगूढ़,महिमा उदारं।

दुर्धर्ष,दुस्तर,दुर्ग,स्वर्ग-अपवर्ग-पति,भग्न संसार-पादप कुठारं ॥ ३ ॥ 



शापवश मुनिवधू-मुक्तकृत,विप्रहित,यज्ञ-रक्षण-दक्ष,पक्षकर्ता।

जनक-नृप-सदसि शिवचाप-भंजन,उग्र भार्गवागर्व-गरिमापहर्ता ॥ ४ ॥ 


गुरु-गिरा-गौरवामर-सुदुस्त्यज राज्य त्यक्त,श्रीसहित सौमित्रि-भ्राता।

संग जनकात्मजा,मनुजमनुसृत्य अज,दुष्ट-वध-निरत,त्रैलोक्यत्राता ॥ ५ ॥ 


दंडकारण्य कृतपुण्य पावन चरण,हरण मारीच-मायाकुरंगं।

बालि बलमत्त गजराज इव केसरी,सुह्रद-सुग्रीव-दुख-राशि-भंगं ॥ ६ ॥ 


ऋक्ष,मर्कट विकट सुभट उभ्दट समर,शैल-संकाश रिपु त्रासकारी।

बद्धपाथोधि,सुर-निकर-मोचन,सकुल दलन दससीस-भुजबीस भारी ॥ ७ ॥ 


दुष्ट विबुधारि-संघात,अपहरण महि-भार,अवतार कारण अनूपं।

अमल,अनवद्य,अद्वैत,निर्गुण,सर्गुण,ब्रह्म सुमिरामि नरभूप-रूपं ॥ ८ ॥ 


शेष-श्रुति-शारदा-शंभु-नारद-सनक गनत गुन अंत नहीं तव चरित्रं।

सोइ राम कामारि-प्रिय अवधपति सर्वदा दासतुलसी-त्रास-निधि वहित्रं ॥ ९ ॥ 


             ५१


देव

जानकीनाथ,रघुनाथ,रागादि-तम-तरणि,तारुण्यतनु,तेजधामं।

सच्चिदानंद,आनंदकंदाकरं,विश्व-विश्राम,रामाभिरामं ॥ १ ॥ 


नीलनव-वारिधर-सुभग-शुभकांति,कटि पीत कौशेय वर वसनधारी।

रत्न-हाटक-जटित-मुकुट-मंडित-मौलि,भानु-शत-सदृश उद्योतकारी ॥ २ ॥ 


श्रवण कुंडल,भाल तिलक,भूरुचिर अति,अरुण अंभोज लोचन विशालं।

वक्र-अवलोक,त्रैलोक-शोकापहं,मार-रिपु-ह्रदय-मानस-मरालं ॥ ३ ॥ 


नासिका चारु सुकपोल,द्विज वज्रदुति,अधर बिंबोपमा,मधुरहासं।

कंठ दर,चिबुक वर,वचन गंभीरतर,सत्य-संकल्प,

सुरत्रास-नासं ॥ ४ ॥ 


सुमन सुविचित्र नव तुलसिकादल-युतं मृदृल वनमाल उर भ्राजमानं।

भ्रमत आमोदवश मत्त मधुकर-निकर,मधुरतर मुखर कुर्वन्ति गानं ॥ ५ ॥ 


सुभग श्रीवत्स,केयूर,कंकण,हार,किंकणी-रटनि कटि-तट रसालं।

वाम दिसि जनकजासीन-सिंहासनं कनक-मृदुवल्लित तरु तमालं ॥ ६ ॥ 


आजानु भुजदंड कोदंड-मंडित वाम बाहु, दक्षिण पाणि बाणमेकं।

अखिल मुनि-निकर,सुर,सिद्ध,गंधर्व वर नमत नर नाग अवनिप अनेकं ॥ 

अनघ अविछिन्न,सर्वज्ञ,सर्वेश, खलु सर्वतोभद्र-दाताऽसमाकं।

प्रणतजन-खेद-विच्छेद-विद्या-निपुण नौमि श्रीराम सौमित्रिसाकं ॥ ८ ॥ 


युगल पदपद्म,सुखसद्म पद्मालयं, चिन्ह कुलिशादि शोभाति भारी।

हनुमंत-ह्रदि विमल कृत परममंदिर, सदातुलसी-शरण शोकहारी ॥    

              ५२


देव--

कोशलाधीश,जगदीश,जगदेकहित, अमितगुण,विपुल विस्तार लीला।

गायंति तव चरित सुपवित्र श्रुति-शेष-शुक-शंभु-सनकादि मुनि मननशीला ॥ १ ॥ 


वारिचर-वपुष धरि भक्त-निस्तारपर, धरणिकृत नाव महिमातिगुर्वी।

सकल यज्ञांशमय उग्र विग्रह क्रोड़, मर्दि दनुजेश उद्धरण उर्वी ॥ २ ॥ 


कमठ अति विकट तनु कठिन पृष्ठोपरी, भ्रमत मंदर कंडु-सुख मुरारी।

प्रकटकृत अमृत,गो,इंदिरा,इंदु, वृंदारकावृंद-आनंदकारी ॥ ३ ॥ 


मनुज-मुनि-सिद्ध-सुर-नाग-त्रासक, दुष्ट दनुज द्विज-धर्म-मरजाद-हर्त्ता।

अतुल मृगराज-वपुधरित, विद्दरित अरि, भक्त प्रहलाद-अहलाद-कर्त्ता ॥ ४ ॥ 


छलन बलि कपट-वटुरूप वामन ब्रह्म, भुवन पर्यंत पद तीन करणं।

चरण-नख-नीर-त्रेलोक-पावन परम, विबुध-जननी-दुसह-शोक-हरणं ॥ ५ ॥ 


क्षत्रियाधीश-करिनिकर-नव-केसरी, परशुधर विप्र-सस-जलदरूपं।

बीस भुजदंड दससीस खंडन चंड वेग सायक नौमि राम भूपं ॥ ६ ॥ 


भूमिभर-भार-हर,प्रकट परमातमा, ब्रह्म नररूपधर भक्तहेतू।

वृष्णि-कुल-कुमुद-राकेश राधारमण, कंस-बंसाटवी-धूमकेतू ॥ ७ ॥ 


प्रबल पाखंड महि-मंडलाकुल देखि, निंद्यकृत अखिल मख कर्म-जालं।

शुद्ध बोधैकघन,ज्ञान-गुणधाम, अज बौद्ध-अवतार वंदे कृपालं ॥ ८ ॥ 


कालकलिजनित-मल-मलिनमन सर्व नर मोह निशि-निबिड़यवनांधकारं।

विष्णुयश पुत्र कलकी दिवाकर उदित दासतुलसी हरण विपतिभारं ॥ ९ ॥ 


               ५३


देव--

सकल सौभाग्यप्रद सर्वतोभद्र-निधि, सर्व,सर्वेश,सर्वाभिरामं।

शर्व-ह्रदि-कंज-मकरंद-मधुकर रुचिर-रूप, भूपालमणि नौमि रामं ॥ १ ॥ 


सर्वसुख-धाम गुणग्राम, विश्रामपद, नाम सर्वसंपदमति पुनीतं।

निर्मलं शांत,सुविशुद्ध,बोधायतन, क्रोध-मद-हरण,करुणा-निकेतं ॥ २ ॥ 


अजित,निरुपाधि,गोतीतमव्यक्त, विभुमेकमनवद्यमजमद्वितीयं।

प्राकृतं,प्रकट परमातमा,परमहित, प्रेरकानंत वंदे तुरीयं ॥ ३ ॥ 


भूधरं सुन्दरं,श्रीवरं,मदन-मद-मथन सौन्दर्य-सीमातिरम्यं।

दुष्प्राप्य,दुष्पेक्ष्य,दुस्तर्क्य,दुष्पार, संसारहर,सुलभ,मृदुभाव-गम्यं ॥ 

सत्यकृत,सत्यरत,सत्यव्रत,सर्वदा, पुष्ट,संतुष्ट,संकष्टहारी।

धर्मवर्मनि ब्रह्मकर्मबोधैक,विप्रपूज्य, ब्रह्मण्यजनप्रिय,मुरारी ॥ ५ ॥ 


नित्य,निर्मम,नित्यमुक्त,निर्मान, हरि,ज्ञानघन,सच्चिदानंद मूलं।

सर्वरक्षक सर्वभक्षकाध्यक्ष,कूटस्थ, गूढार्चि, भक्तानुकूलं ॥ ६ ॥ 


सिद्ध-साधक-साध्य,वाच्य-वाचकरूप, मंत्र-जापक-जाप्य,सृष्टि-स्त्रष्टा।

परम कारण,कञ्ञनाभ,जलदाभतनु, सगुण,निर्गुण,सकल दृश्य-द्रष्टा ॥ ७ ॥ 


व्योम-व्यापक,विरज,ब्रह्म,वरदेश, वैकुंठ, वामन विमल ब्रह्मचारी।

सिद्ध-वृंदारकावृंदवंदित सदा, खंडि पाखंड-निर्मूलकारी ॥ ८ ॥ 


पूरनानंदसंदोह, अपहरन संमोह-अज्ञान, गुण-सन्निपातं।

बचन-मन-कर्म-गत शरण तुलसीदास त्रास-पाथोधि इव कुंभजातं ॥ ९ ॥ 


                 ५४


देव--

विश्व-विख्यात,विश्वेश,विश्वायतन, विश्वमरजाद,व्यालारिगामी।

ब्रह्म,वरदेश,वागीश,व्यापक,विमल विपुल,बलवान,निर्वानस्वामी ॥ १ ॥ 


प्रकृति,महतत्व,शब्दादि गुण,देवता व्योम,मरुदग्नि,अमलांबु,उर्वी।

बुद्धि,मन,इंद्रिय,प्राण,चित्तातमा, काल,परमाणु,चिच्छक्ति गुर्वी ॥ २ ॥ 


सर्वमेवात्र त्वद्रूप भूपालमणि! व्यक्तमव्यक्त, गतभेद,विष्णो।

भुवन भवदंग,कामारि-वंदित, पदद्वंद्व मंदाकिनी-जनक, जिष्णो ॥ ३ ॥ 


आदिमध्यांत,भगवंत! त्वं सर्वगतमीश, पश्यन्ति ये ब्रह्मवादी।

यथा पट-तंतु,घट-मृतिका, सर्प-स्त्रग,दारुकरि,कनक-कटकांगदादी ॥ ४ ॥ 


गूढ़,गंभीर,गर्वघ्न,गूढार्थवित,गुप्त,गोतीत,गुरु,ग्यान-ग्याता।

ग्येय,ग्यानप्रिय,प्रचुर गरिमागार, घोर-संसार-पर, पार दाता ॥ ५ ॥ 


सत्यसंकल्प,अतिकल्प,कल्पांतकृत,कल्पनातीत,अहि-तल्पवासी।

वनज-लोचन,वनज-नाभ, वनदाभ-वपु, वनचरध्वज-कोटि-लावण्यरासी ॥ ६ ॥ 


सुकर,दुःकर,दुराराध्य,दुर्व्यसनहर,दुर्ग,दुर्द्धर्ष,दुर्गार्त्तिहर्त्ता।

वेदगर्भार्भकादर्भ-गुनगर्व, अर्वांगपर-गर्व-निर्वाप-कर्त्ता ॥ ७ ॥ 


भक्त-अनुकूल,भवशूल-निर्मूलकर, तूल-अघ-नाम पावक-समानं।

तरलतृष्णा-तमी-तरणि,धरणीधरण, शरण-भयहरण,करुणानिधानं ॥ ८ ॥ 


बहुल वृंदारकावृंद-वंदारु-पद-द्वंद्व मंदार-मालोर-धारी।

पाहि मामीश संताप-संकुल सदा दास तुलसी प्रणत रावणारी ॥ ९ ॥  


              ५५


देव--

संत-संतापहर,विश्व-विश्रामकर, रामकामारि,अभिरामकारी।

शुद्ध बोधायतन,सच्चिदानंदघन, सज्जनानंद-वर्धन,खरारी ॥ १ ॥ 


शील-समता-भवन,विषमता-मति-शमन,राम,रमारमन,रावनारी।

खड्ग,कर चर्मवर,वर्मधर,रुचिरल कटि तूण,शर-शक्ति-सारंगधारी ॥ २ ॥ 


सत्यसंधान,निर्वानप्रद,सर्वहित, सर्वगुण-ज्ञान-विज्ञानशाली।

सघन-तम-घोर-संसार-भर-शर्वरी नाम दिवसेष खर-किरणमाली ॥ ३ ॥ 


तपन तीच्छन तरुन तीव्र तापघ्न, तपरूप,तनभूप,तमपर,तपस्वी।

मान-मद-मदन-मत्सर-मनोरथ-मथन, मोह-अंभोधि-मंदर,मनस्वी ॥ ४ ॥ 


वेद विख्यात,वरदेश,वामन,विरज,विमल,वागीश,वैकुंठस्वामी।

काम-क्रोधादिमर्दन,विवर्धन,छमा-शांति-विग्रह,विहगराज-गामी ॥ ५ ॥ 


परम पावन,पाप-पुंज-मुंजावटी-अनल इव निमिष निर्मूलकर्त्ता।

भुवन-भूषण,दूषणारि-भुवनेश,भूनाथ,श्रुतिमाथ जय भुवनभर्ता ॥ ६ ॥ 


अमल,अविचल,अकल,सकल,संतप्त-कलि-विकलता-भंजनानंदरासी।

उरगनायक-शयन,तरुणपंकज-नयन,छीरसागर-अयन,सर्ववासी ॥ ७ ॥ 


सिद्ध-कवि-कोविकानंद-दायक पदद्वंद्व मंदात्ममनुजैर्दुरापं।

यत्र संभूत अतिपूत जल सुरसरी दर्शनादेव अपहरति पापं ॥ ८ ॥ 


नित्य निर्मुक्त,संयुक्तगुण,निर्गुणानंद,भगवंत,न्यामक,नियंता।

विश्व-पोषण-भरण,विश्व-कारण-करण, शरण तुलसीदास त्रास-हंता ॥ ९ ॥ 


               ५६


देव--

दनुजसूदन दयासिंधु,दंभापहन दहन दुर्दोष,दर्पापहर्त्ता।

दुष्टतादमन,दमभवन,दुःखौघहर दुर्ग दुर्वासना नाश कर्त्ता ॥ १ ॥ 


भूरिभूषण,भानुमंत,भगवंत, भवभंजनाभयद,भुवनेश भारी।

भावनातीत,भववंद्य,भवभक्तहित, भूमिउद्धरण,भूधरण-धारी ॥ २ ॥ 


वरद,वनदाभ,वागीश,विश्वात्मा, विरज,वैकुण्ठ-मन्दिर-विहारी।

व्यापक व्योम,वंदारु,वामन,विभो,ब्रह्मविद,ब्रह्म,चिंतापहारी ॥ ३ ॥ 


सहज सुन्दर,सुमुख,सुमन,शुभ सर्वदा, शुद्धसर्वज्ञ,स्वछन्दचारी।

सर्वकृत,सर्वभृत,सर्वजित,सर्वहित, सत्य-संकल्प,कल्पांतकारी ॥ ४ ॥ 


नित्य,निर्मोह,निर्गुण,निरंजन, निजानंद,निर्वाण,निर्वाणदाता।

निर्भरानंद,निःकंप,निःसीम,निर्मुक्त, निरुपाधि,निर्मम,विधाता ॥ ५ ॥ 


महामंगलमूल,मोद-महिमायतन,मुग्ध-मधु-मथन,मानद,अमानी।

मदनमर्दन,मदातीत,मायारहित, मंजु मानाथ,पाथोजपानी ॥ ६ ॥ 


कमल-लोचन,कलाकोश,कोदंडधर,कोशलाधीश,कल्याणराशी।

यातुधान प्रचुर मत्तकरि-केसरी, भक्तमन-पुण्य-आरण्यवासी ॥ ७ ॥ 


अनघ,अद्वैत,अनवद्य,अव्यक्त,अज, अमित अविकार,आनंदसिंधो।

अचल,अनिकेत,अविरल,अनामय, अनारंभ,अंभोदनादहन-बंधो ॥ ८ ॥ 


दासतुलसी खेदखिन्न,आपन्न इह, शोकसंपन्न अतिशय सभीतं।

प्रणतपालक राम, परम करुणाधाम, पाहि मामुर्विपति,दुर्विनीतं ॥ ९ ॥ 


              ५७


देव--

देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग! भवभंग-कारण शरण-शोकहारी।

ये तु भवदघ्रिपल्लव-समाश्रित सदा, भक्तिरत,विगतसंशय,मुरारी ॥ १ ॥ 


असुर,सुर,नाग,नर,यक्ष,गंधर्व,खग,रजनिचर,सिद्ध,ये चापि अन्ने।

संत-संसर्ग त्रेवर्गपर,परमपद,प्राप्य निप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने ॥ २ ॥ 


वृत्र,बलि,बाण,प्रहलाद,मय,व्याध,गज,गृध्र,द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी।

साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल,श्वपच-यवनादि कैवल्य-भागी ॥ ३ ॥ 


शांत,निरपेक्ष,निर्मम,निरामय,अगुण,शब्दब्रह्मैकपर,ब्रह्मज्ञानी।

दक्ष,समदृक,स्वदृक,विगत अति स्वपरमति,परमरतिविरति तव चक्रपानी ॥ ४ ॥ 


विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा,त्यक्तमदमन्यु,कृत पुण्यरासी।

यत्र तिष्ठन्ति,तत्रेव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी ॥ ५ ॥ 


वेद-पयसिंधु,सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निमर्थनकर्ता।

सार सतसंगमुद् धृत्य इति निश्चिंतं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता ॥ ६ ॥ 


शोक-संदेह,भय-हर्ष,तम-तर्षगण,साधु-सद्युक्ति विच्छेदकारी।

यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू-निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी ॥ ७ ॥ 


यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोनि संकट अनेकं।

तत्र त्वद्भक्ति,सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं ॥ ८ ॥ 


प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।

संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी ॥ ९ ॥ 


              ५८


देव--

देहि अवलंब कर कमल,कमलारमन,दमन-दुख,शमन-संताप भारी।

अज्ञान-राकेश-ग्रासन विंधुतुद,गर्व-काम-करिमत्त-हरि,दूषणारी ॥ १ ॥ 


वपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका-दुर्ग, रचित मन दनुज मय-रूपधारी।

विविध कोशौघ, अति रुचिर-मंदिर-निकर,सत्वगुण प्रमुख त्रेकटककारी ॥ २ ॥ 


कुणप-अभिमान सागर भंयकर घोर, विपुल अवगाह,दुस्तर अपारं।

नक्र रागादि-संकुल मनोरथ सकल, संग-संकल्प वीची-विकारं ॥ ३ ॥  


मोह दशमौलि, तद्भ्रात अहँकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी।

लोभ अतिकाय,मत्सर महोदर दुष्ट,क्रोध पापिष्ठ-विबुधांतकारी ॥ ४ ॥ 


द्वेष दुर्मुख,दंभ खर अकंपन कपट, दर्प मनुजाद मद शूलपानी।

अमितबल परम दुर्जय निशाचर-निकर सहित षडवर्ग गो-यातुधानी ॥ ५ ॥ 


जीव भवदंघ्रि-सेवक विभीषण बसत मध्य दुष्टाटवी ग्रसितचिंता।

नियम-यम-सकल सुरलोक-लोकेश लंकेश-वश नाथ! अत्यंत भीता ॥ ६ ॥ 


ज्ञान-अवधेश-गृह गेहिनी भक्ति शुभ,तत्र अवतार भूभार-हर्ता।

भक्त-संकष्ट अवलोकि पितु-वाक्य कृत गमन किय गहन वैदेहि-भर्ता ॥ ७ ॥ 


कैवल्य-साधन अखिल भालु मर्कट विपुल ज्ञान-सुग्रीवकृत जलधिसेतू।

प्रबल वैराग्य दारुण प्रभंजन-तनय, विषय वन भवनमिव धूमकेतू ॥ ८ ॥ 


दुष्ट दनुजेश निर्वशकृत दासहित, विश्वदुख-हरण बोधैकरासी।

अनुज निज जानकी सहित हरि सर्वदा दासतुलसी ह्रदय कमलवासी ॥ ९ ॥ 


             ५९


देव--

दीन-उद्धरण रघुवर्य करुणाभवन शमन-संताप पापौघहारी।

विमल विज्ञान-विग्रह,अनुग्रहरूप,भूपवर, विबुध,नर्मद,खरारी ॥ १ ॥ 


संसार-कांतार अति घोर,गंभीर,घन,गहन तरुकर्मसंकुल,मुरारी।

वासना वल्लि खर-कंटकाकुल विपुल, निबिड़ विटपाटवी कठिन भारी ॥ २ ॥ 


विविध चितवृति-खग निकर श्येनोलूक,काक वक गृध्र आमिष-अहारी।

अखिल खल,निपुण छल,छिद्र निरखत सदा, जीवजनपथिकमन-खेदकारी ॥ ३ ॥ 


क्रोध करिमत्त,मृगराज,कंदर्प,मद-दर्प वृक-भालु अति उग्रकर्मा।

महिष मत्सर क्रूर,लोभ शूकररूप,फेरु छल,दंभ मार्जारधर्मा ॥ ४ ॥ 


कपट मर्कट विकट,व्याघ्र पाखण्डमुख,दुखद मृगव्रात,उत्पातकर्ता।

ह्रदय अवलोकि यह शोक शरणागतं,पाहि मां पाहि भो विश्वभर्ता ॥ ५ ॥ 


प्रबल अहँकार दुरघट महीधर,महामोह गिरि-गुहा निबिड़ांधकारं।

चित्त वेताल,मनुजाद मन,प्रेतगनरोग,भोगौघ वृश्चिक-विकारं ॥ ६ ॥ 


विषय-सुख-लालसा दंश-मशकादि,खल झिल्लि रूपादि सब सर्प,स्वामी।

तत्र आक्षिप्त तव विषम माया नाथ,अंध मैं मंद,व्यालादगामी ॥ ७ ॥ 


घोर अवगाह भव आपगा पापजलपूर,दुष्प्रेक्ष्य,दुस्तर,अपारा।

मकर षड्वर्ग,गो नक्र चक्राकुला,कूल शुभ-अशुभ,दुख तीव्र धारा ॥ ८ ॥ 


सकल संघट पोच शोचवश सर्वदा दासतुलसी विषम गहनग्रस्तं।

त्राहि रघुवंशभूषण कृपा कर,कठिन काल विकराल-कलित्रास-त्रस्तं ॥ ९ ॥ 


               ६०


देव--

नौमि नारायणं नरं करुणायनं, ध्यान-पारायणं,ज्ञान-मूलं।

अखिल संसार-उपकार-कारण, सदयह्रदय,तपनिरत,प्रणतानुकूलं ॥ १ ॥ 


श्याम नव तामरस-दामद्युति वपुष, छवि कोटि मदनार्क अगणित प्रकाशं।

तरुण रमणीय राजीव-लोचन ललित, वदन राकेश,कर-निकस-हासं ॥ २ ॥ 


सकल सौंदर्य-निधि,विपुल गुणधाम, विधि-वेद-बुध-शंभु-सेवित,अमानं।

अरुण पदकंज-मकरंद मंदाकिनी मधुप-मुनिवृंद कुर्वन्ति पानं ॥ ३ ॥ 


शक्र-प्रेरित घोर मदन मद-भृगंकृत, क्रोधगत,बोधरत,ब्रह्मचारी।

मार्केण्डय मुनिवर्यहित कौतुकी बिनहि कल्पांत प्रभु प्रलयकारी ॥ ४ ॥ 


पुण्य वन शैलसरि बद्रिकाश्रम सदासीन पद्मासनं,एक रूपं।

सिद्ध-योगीन्द्र-वृंदारकानंदप्रद,भद्रदायक दरस अति अनूपं ॥ ५ ॥ 


मान मनभंग,चितभंग,मद,क्रोधा लोभादि पर्वतदुर्ग,भुवन-भर्त्ता।

द्वेष-मत्सर-राग प्रबल प्रत्यूह प्रति,भूरि निर्दय,क्रूर कर्म कर्त्ता ॥ ६ ॥ 


विकटतर वक्र क्षुरधार प्रमदा,तीव्र दर्प कंदर्प खर खड्गधारा।

धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक,तत्र के वराका वयं विगतसारा ॥ ७ ॥ 


परम दुर्घट पथं खल-असंगत साथ,नाथ! नहिं हाथ वर विरति-यष्टी।

दर्शनारत दास,त्रसित माया-पाश,त्राहि हरि,त्राहि हरि,दास कष्टी ॥ ८ ॥ 


दासतुलसी दीन धर्म-संबलहीन,श्रमित अति,खेद,मति मोह नाशी।

देहि अवलंब न विलंब अंभोज-कर,चक्रधर-तेजबल शर्मराशी ॥ ९ ॥ 


             ६१


देव--

सकल सुखकंद, आनंदवन-पुण्यकृत,बिंदुमाधव द्वंद्व-विपतिहारी।

यस्यांघ्रिपाथोज अज-शंभु-सनकादि-शुक-शेष-मुनिवृंद-अलि-निलयकारी ॥ १ ॥ 


अमल मरकत श्याम,काम शतकोटि छवि,पीतपट तड़ित इव जलदनीलं।

अरुण शतपत्र लोचन,विलोकनि चारू,प्रणतजन-सुखद,करुणार्द्रशीलं ॥ २ ॥ 


काल-गजराज-मृगराज,दनुजेश-वन-दहन पावक,मोह-निशि-दिनेशं।

चारिभुज चक्र-कौमोदकी-जलज-दर, सरसिजोपरि यथा राजहंस ॥ ३ ॥ 


मुकुट,कुंडल,तिलक,अलक अलिव्रातइव,भृकुटि,द्विज,अधरवर,चारुनासा।

रुचिर सुकपोल,दर ग्रीव सुखसीव,हरि,इंदुकर-कुंदमिव मधुरहासा ॥ ४ ॥ 


उरसि वनमाल सुविशाल नवमंजरी, भ्राज श्रीवत्स-लांछन उदारं।

परम ब्रह्मन्य,अतिधन्य,गतमन्यु,अज,अमितबल,विपुल महिमा अपारं ॥ ५ ॥ 


हार-केयूर,कर कनक कंकन रतन-जटित मणि-मेखला कटिप्रदेशं।

युगल पद नूपुरामुखर कलहंसवत, सुभग सर्वांग सौन्दर्य वेशं ॥ ६ ॥ 


सकल सौभाग्य-संयुक्त त्रेलोक्य-श्री दक्षि दिशि रुचिर वारीश-कन्या।

बसत विबुधापगा निकट तट सदनवर, नयन निरखंति नर तेऽति धन्या ॥ ७ ॥ 


अखिल मंगल-भवन,निबिड़ संशय-शमन दमन-वृजिनाटवी,कष्टहर्त्ता।

विश्वधृत,विश्वहित,अजित,गोतीत,शिव,विश्वपालन,हरण,विश्वकर्त्ता ॥ ८ ॥ 


ज्ञान-विज्ञान-वैराग्य-ऐश्वर्य-निधि,सिद्धि अणिमादि दे भूरिदानं।

ग्रसित-भव-व्याल अतित्रास तुलसीदास,त्राहि श्रीराम उरगारि-यानं ॥ ९ ॥ 


                ६२


इहै परम फलु,परम बड़ाई।

नखसिख रुचिर बिंदुमाधव छबि निरखहिं नयन अघाई ॥ १ ॥ 


बिसद किसोर पीन सुंदर बपु,श्याम सुरुचि अधिकाई।

नीलकंज,बारिद,तमाल,मनि,इन्ह तनुते दुति पाई ॥ २ ॥ 


मृदुल चरन शुभ चिन्ह,पदज,नख अति अभूत उपमाई।

अरुन नील पाथोज प्रसव जनु, मनिजुत दल-समुदाई ॥ ३ ॥ 


जातरूप मनि-जटित-मनोहर, नूपुर जन-सुखदाई।

जनु हर-उर हरि बिबिध रूप धरि, रहे बर भवन बनाई ॥ ४ ॥ 


कटितट रटति चारु किंकिनि-रव,अनुपम,बरनि न जाई।

हेम जलज कल कलित मध्य जनु,मधुकर मुखर सुहाई ॥ ५ ॥ 


उर बिसाल भृगुचरन चारु अति,सूचत कोमलताई।

कंकन चारु बिबिध भूषन बिधि,रचि निज कर मन लाई ॥ ६ ॥ 


गज-मनिमाल बीच भ्राजत कहि जाति न पदक निकाई।

जनु उडुगन-मंडल बारिदपर,नवग्रह रची अथाई ॥ ७ ॥ 


भुजगभोग-भुजदंड कंज दर चक्र गदा बनि आई।

सोभासीव ग्रीव,चिबुकाधर,बदन अमित छबि छाई ॥ ८ ॥ 


कुलिस,कुंद-कुडमल,दामिनि-दुति,दसनन देखि लजाई।

नासा-नयन-कपोल,ललित श्रुति कुंडल भ्रू मोहि भाई ॥ ९ ॥ 


कुंचित कच सिर मुकुट,भाल पर,तिलक कहौं समुझाई।

अलप तड़ित जुग रेख इंदु महँ,रहि तजि चंचलताई ॥ १० ॥ 


निरमल पीत दुकुल अनूपम,उपमा हिय न समाई।

बहु मनिजुत गिरि नील सिखरपर कनक-बसन रुचिराई ॥ ११ ॥ 


दच्छ भाग अनुराग-सहित इंदिरा अधिक ललिताई।

हेमलता जनु तरु तमाल ढिग,नील निचोल ओढ़ाई ॥ १२ ॥ 


सत सारदा सेष श्रुति मिलिकै,सोभा कहि न सिराई।

तुलसिदास मतिमंद द्वंदरत कहै कौन बिधि गाई ॥ १३ ॥ 


          राग जैतश्री

           ६३


मन इतनोई या तनुको परम फलु।

सब अँग सुभग बिंदुमाधव-छबि,तजि सुभाव,अवलोकु एक पलु ॥ १ ॥ 


तरुन अरुन अंभोज चरन मृदु,नख-दुति ह्रदय-तिमिर-हारी।

कुलिस-केतु-जव-जलज रेख बर,अंकुस मन-गज-बसकारी ॥ २ ॥ 


कनक-जटित मनि नूपुर,मेखल,कटि-तट रटति मधुर बानी।

त्रिबली उदर,गँभीर नाभि सर,जहँ उपजे बिरंचि ग्यानी ॥ ३ ॥ 


उर बनमाल,पदिक अति सोभित,बिप्र-चरन चित कहँ करषै।

स्याम तामरस-दाम-बरन बपु पीत बसन सोभा बरषै ॥ ४ ॥ 


कर कंकन केयूर मनोहर,देति मोद मुद्रिक न्यारी।

गदा कंज दर चारु चक्रधर,नाग-सुंड-सम भुज चारी ॥ ५ ॥ 


कंबुग्रीव,छबिसीव चिबुक द्विज,अधर अरुन,उन्नत नासा।

नव राजीव नयन,ससि आनन,सेवक-सुखद बिसद हासा ॥ ६ ॥ 


रुचिर कपोल,श्रवन कुंडल,सिर मुकुट,सुतिलक भाल भ्राजै।

ललित भृकुटि,सुंदर चितवनि,कच निरखि मधुप-अवली लाजे ॥ ७ ॥ 


रूप-सील-गुन-खानि दच्छ दिसि,सिंधु-सुता रत-पद-सेवा।

जाकी कृपा-कटाच्छ चहत सिव,बिधि,मुनि,मनुज,दनुज,देवा ॥ ८ ॥ 


तुलसिदास भव-त्रास मिटै तब,जब मति येहि सरूप अटकै।

नाहिंत दीन मलीन हीनसुख,कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भटकै ॥ ९ ॥ 


            राग बसन्त

             ६४


बंदौ रघुपति करुना-निधान। जाते छूटै भव-भेद-ग्यान ॥ १ ॥ 


रघुबंस-कुमुद-सुखप्रद निसेस। सेवत पद-पंकज अज महेस ॥ २ ॥ 


निज भक्त-ह्रदय-पाथोज-भृंग। लावन्य बपुष अगनित अनंग ॥ ३ ॥ 


अति प्रबल मोह-तम-मारतंड। अग्यान-गहन-पावक प्रचंड ॥ ४ ॥ 


अभिमान-सिंधु-कुंभज उदार। सुररंजन,भंजन भूमिभार ॥ ५ ॥ 


रागादि-सर्पगन-पन्नगारि। कंदर्प-नाग-मृगपति,मुरारि ॥ ६ ॥ 


भव-जलधि-पोत चरनारबिंद। जानकी-रवन आनंद-कंद ॥ ७ ॥ 


हनुमंत-प्रेम-बापी-मराल। निष्काम कामधुक गो दयाल ॥ ८ ॥ 


त्रेलोक-तिलक,गुनगहन राम। कह तुलसिदास बिश्राम-धाम ॥ ९ ॥ 


             राग भैरव

             ६५


राम राम रमु,राम राम रटु, राम राम जपु जीहा।

रामनाम-नवनेह-मेहको,मन! हठि होहि पपीहा ॥ १ ॥ 


सब साधन-फल कूप-सरित-सर,सागर-सलिल-निरासा।

रामनाम-रति-स्वाति-सुधा-सुभ-सीकर प्रेमपियासा ॥ २ ॥ 


गरजि,तरजि,पाषान बरषि पवि,प्रीति परखि जिय जानै।

अधिक अधिक अनुराग उमँग उर, पर परमिति पहिचानै ॥ ३ ॥ 


रामनाम-गति, रामनाम-मति, राम-नाम-अनुरागी।

ल्है गये,है,जे होहिंगे, तेइ त्रिभुवन गनियत बड़भागी ॥ ४ ॥ 


एक अंग मग अगमु गवन कर, बिलमु न छिन छिन छाहैं।

तुलसी हित अपनो अपनी दिसि,निरुपधि नेम निबाहैं ॥ ५ ॥ 


             ६६


राम जपु,राम जपु, राम जपु बावरे।

घोर भव-नीर-निधि नाम निज नाव रे ॥ १ ॥ 


एक ही साधन सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे।

ग्रसे कलि-रोग जोग-संजम-समाधि रे ॥ २ ॥ 


भलो जो है,पोच जो है,दाहिनो जो,बाम रे।

राम-नाम ही सों अंत सब ही को काम रे ॥ ३ ॥ 


जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे।

धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे ॥ ४ ॥ 


राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे।

तुलसी परोसो त्यागि माँगै कूर कौर रे ॥ ५ ॥ 


         ६७


राम राम जपु जिय सदा सानुराग रे।

         कलि न बिराग,जोग,जाग,तप,त्याग रे ॥ १ ॥ 


राम सुमिरत सब बिधि ही को राज रे।

         रामको बिसारिबो निषेध-सिरताज रे ॥ २ ॥ 


राम-नाम महामनि,फनि जगजाल रे।

         मनि लिये,फनि जियै,ब्याकुल बिहाल रे ॥ ३ ॥ 


राम-नाम कामतरु देत फल चारि रे।

         कहत पुरान,बेद,पंडित,पुरारि रे ॥ ४ ॥ 


राम-नाम प्रेम-परमारथको सार रे।

         राम-नाम तुलसीको जीवन-अधार रे ॥ ५ ॥ 


          ६८


राम राम राम जीह जौलौं तू न जपिहै।

तौलौं,तू कहूँ जाय, तिहूँ ताप तपिहै ॥ १ ॥ 


सुरसरि-तीर बिनु नीर दुख पाइहै।

सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै ॥ २ ॥ 


जागत,बागत सपने न सुख सोइहै।

जनम जनम,जुग जुग जग रोइहै ॥ ३ ॥ 


छूटिबेके जतन बिसेष बाँधो जायगो।

ह्वेहै बिष भोजन जो सुधा-सानि खायगो ॥ ४ ॥ 


तुलसी तिलोक,तिहूँ काल तोसे दीनको।

रामनाम ही की गति जैसे जल मीनको ॥ ५ ॥ 


           ६९


सुमिरु सनेहसों तू नाम रामरायको।

संबल निसंबलको,सखा असहायको ॥ १ ॥ 


भाग है अभागेहूको,गुन गुनहीनको।

गाहक गरीबको,दयालु दानि दीनको ॥ २ ॥ 


कुल अकुलीनको,सुन्यो है बेद साखि है।

पाँगुरेको हाथ-पाँय,आँधरेको आँखि है ॥ ३ ॥ 


माय-बाप भूखेको, अधार निराधारको।

सेतु भव-सागरको, हेतु सुखसारको ॥ ४ ॥ 


पतितपावन राम-नाम सो न दूसरो।

सुमिरि सुभूमि भयो तुलसी सो ऊसरो ॥ ५ ॥ 


û      ७०


भलो भली भाँति है जो मेरे कहे लागिहै।

मन राम-नामसों सुभाय अनुरागिहै ॥ १ ॥ 


राम-नामको प्रभाउ जानि जूड़ी आगिहै।

सहित सहाय कलिकाल भीरु भागिहै ॥ २ ॥ 


राम-नामसों बिराग,जोग,जप जागिहै।

बाम बिधि भाल हू न करम दाग दागिहै ॥ ३ ॥ 


राम-नाम मोदक सनेह सुधा पागिहै।

पाइ परितोष तू न द्वार द्वार बागिहै ॥ ४ ॥ 


राम-नाम काम-तरु जोइ जोइ माँगिहै।

तुलसिदास स्वारथ परमारथ न खाँगिहै ॥ ५ ॥ 


               ७१


ऐसेहू साहबकी सेवा सों होत चोरु रे।

          आपनी न बुझ, न कहै को राँडरोरु रे ॥ १ ॥ 


मुनि-मन-अगम,सुगम माइ-बापु सों।

          कृपासिंधु,सहज सखा, सनेही आपु सों ॥ २ ॥ 


लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों।

          सब दिन दब देस, सबहिके साथ सों ॥ ३ ॥ 


स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।

          प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी ॥ ४ ॥ 


काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी।

          सुमिरे सकुचि रुचि जोगवत जनकी ॥ ५ ॥ 


रीझे बस होत,खीझे देत निज धाम रे।

          फलत सकल फल कामतरु नाम रे ॥ ६ ॥ 


बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे।

          सोऊ तुलसी निवाज्यो ऐसो राजाराम रे ॥ ७ ॥ 


              ७२


मेरो भलो कियो राम आपनी भलाई।

          हौं तो साई-द्रोही पै सेवक-हित साई ॥ १ ॥ 


रामसों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो।

          राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो ॥ २ ॥ 


लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।

          एतो बड़ो अपराध भौ न मन बावौं ॥ ३ ॥ 


पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो।

          बोरत न बारि ताहि जानि आपु सीचो ॥ ४ ॥ 


             ७३


जागु,जागु,जीव जड़! जोहै जग-जामिनी।

          देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी ॥ १ ॥ 


सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे।

          बूड्यो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे ॥ २ ॥ 


कहैं बेद-बुध,तू तो बूझि मनमाहिं रे।

          दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे ॥ ३ ॥ 


तुलसी जागेते जाय ताप तिहुँ ताय रे।

          राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे ॥ ४ ॥ 


            राग विभास

             ७४


जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,

          जागी त्यागि मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।

करि बिचार,तजि बिकार,भजु उदार रामचंद्र,

          भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे ॥ १ ॥ 


मोहमय कुहू-निसा बिसाल काल बिपुल सोयो,

          खोयो सो अनूप रूप सुपन जू परे।

अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,

          बासना,सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे ॥ २ ॥ 


भागे मद-मान चोर भोर जानि जातुधान,

          काम-कोह-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।

देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,

          ताप त्रिबिध प्रेम-आप दूर ही करे ॥ ३ ॥ 


श्रवन सुनि गिरा गँभीर, जागे अति धीर बीर,

          बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।

तुलसिदास प्रभुकृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,

          भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे ॥ ४ ॥ 


            राग ललित

            ७५


खोटो खरो रावरो हौं,रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,

                 जानो सब ही के मनकी।

करम-बचन-हिये,कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि

                   पानी परे सनकी ॥ १ ॥ 


दूसरो,भरोसो नाहिं बासना उपासनाकी, बासव,बिरंचि

                 सुर-नर-मुनिगनकी।

स्वारथ के साथी मेरे,हाथी स्वान लेवा देई,काहू तो न पीर

                 रघुबीर! दीन जनकी ॥ २ ॥ 


साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य,दुसह साँसति कीजै

                  आगे ही या तनकी।

साँचे परौं,पाँऊ पान,पंचमें पन प्रमान,तुलसी चातक आस

                   राम स्यामघनकी ॥ ३ ॥ 


              ७६


रामको गुलाम,नाम रामबोला राख्यौ राम,

       काम यहै, नाम द्वै हौ कबहूँ कहत हौं।

रोटी-लूगा नीके राखै,आगेहूकी बेद भाखै,

      भलो ह्वेहै तेरो,ताते आनँद लहत हौं ॥ १ ॥ 


बाँध्यौ हौं करम जड़ गरब गूढ़ निगड़,

      सुनत दुसह हौं तौ साँसति सहत हौं।

आरत-अनाथ-नाथ,कौसलपाल कृपाल,

      लीन्हौ छीन दीन देख्यो दुरित दहत हौं ॥ २ ॥ 


बूझ्यौ ज्यौं ही,कह्यो,मैं हूँ चेरो ह्वेहौ रावरो जू

      मेरो कोऊ कहूँ नाहिं, चरन गहत हौं।

मींजो गुरु पीठ,अपनाइ गहि बाँह,बोलि

      सेवक-सुखद,सदा बिरद बहत हौं ॥ ३ ॥ 


लोग कहै पोच,सो न सोच न सँकोच मेरे

      ब्याह न बरेखी,जाति-पाँति न चहत हौं।

तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे,

      प्रीतिकी प्रतीति मन मुदित रहत हौं ॥ ४ ॥ 


             ७७


जानकी-जीवन,जग-जीवन,जगत-हित,

       जगदीस,रघुनाथ,राजीवलोचन राम।

सरद-बिधु-बदन,सुखसील,श्रीसदन,

       सहज सुंदर तनु,सोभा अगनित काम ॥ १ ॥ 


जग-सुपिता,सुमातु,सुगुरु,सुहित,सुमीत,

       सबको दाहिनो,दीनबन्धु,काहुको न बाम।

आरतिहरन,सरनद,अतुलित दानि,

      प्रनतपालु,कृपालु,पतित-पावन नाम ॥ २ ॥ 


सकल बिस्व-बंदित,सकल सुर-सेवित,

      आगम-निगम कहैं रावरेई गुनग्राम।

इहै जानि तुलसी तिहारो जन भयो,

      न्यारो कै गनिबो जहाँ गने गरीब गुलाम ॥ ३ ॥ 


       राग टोडी

       ७८


देव-

दीनको दयालु दानि दूसरो न कोऊ।

जाहि दीनता कहौं हौं देखौं दीन सोऊ ॥ १ ॥ 


सुर,नर,मुनि,असुर,नाग,साहिब तौ घनेरे।

(पै) तौ लौं जौं लौं रावरे न नेकु नयन फेरे ॥ २ ॥ 


त्रिभुवन,तिहुँ काल बिदित,बेद बदति चारी।

आदि-अंत-मध्य राम! साहबी तिहारी ॥ ३ ॥ 


तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।

सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो ॥ ४ ॥ 


पाहन-पसु, बिटप-बिहँग अपने करि लीन्हे।

महाराज दसरथके ! रंक राय कीन्हे ॥ ५ ॥ 


तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।

बारक कहिये कृपालु! तुलसिदास मेरो ॥ ६ ॥ 


      ७९


देव-

तू दयालु ,दीन हौं तू दानि, हौं भिखारी।

हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी ॥ १ ॥ 


नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो

मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो ॥ २ ॥ 


ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर,हौं चेरो।

तात-मात,गुरु-सखा, तू सब बिधि हितु मेरो ॥ ३ ॥ 


तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।

ज्यों त्यों, तुलसी कृपालु ! चरन-सरन पावै ॥ ४ ॥ 


         ८०


देव--

और काहि माँगिये, को माँगिबो निवारै।

अभिमतदातार कौन, दुख-दरिद्र दारै ॥ १ ॥ 


धरमधाम राम काम-कोटि-रूप रूरो।

साहब सब बिधि सुजान, दान-खडग-सूरो ॥ २ ॥ 


सुसमय दिन द्वै निसान सबके द्रार बाजै।

कुसमय दसरथके ! दानि तैं गरीब निवाजै ॥ ३ ॥ 


सेवा बिनु गुनबिहीन दीनता सुनाये।

जे जे तैं निहाल किये फूले फिरत पाये ॥ ४ ॥ 


तुलसीदास जाचक-रुचि जानि दान दीजै।

रामचंद्र चंद्र तू, चकोर मोहिं कीजै ॥ ५ ॥ 


        ८१


दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई।

सुनहु नाथ ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई ॥ १ ॥ 


कबहुँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई।

कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई ॥ २ ॥ 


कबहुँ दीन,मतिहीन, रंकतर,कबहुँ भूप अभिमानी।

कबहुँ मूढ, पंडित बिडंबरत,कबहुँ धर्मरत ग्यानी ॥ ३ ॥ 


कबहुँ देव! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै।

संसृति-संनिपात दारुन दुख बिनु हरि-कृपा न नासै ॥ ४ ॥ 


संजम,जप,तप,नेम,धरम, ब्रत,बहु भेषज-समुदाई।

तुलसिदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहिं जाई ॥ ५ ॥ 


         ८२


मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।

जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥ १ ॥ 


नयन मलिन परनारि निरखि,मन मलिन बिषय सँग लागे।

हृदय मलिन बासना-मान मद, जीव सहज सुख त्यागे ॥ २ ॥ 


परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये।

सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरन बिसराये ॥ ३ ॥ 


तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै।

राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै ॥ ४ ॥ 


         राग जैतश्री

          ८३


कछु ह्वे न आई गयो जनम जाय।

अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे न राम मन बचन- काय ॥ १ ॥ 


लरिकाई बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।

जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन बाय ॥ २ ॥ 


मध्य बयस धन हेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।

राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय ॥ ३ ॥ 


सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।

सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय ॥ ४ ॥ 


अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यो, बिकल अंग दले जरा धाय।

सिर धुनि-धुनि पछिताय मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय ॥ ५ ॥ 


जिन्ह लगि निज परलोक बिगार् यौ, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।

तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं,तर् यौ गयँद जाके एक नाँय ॥ ६ ॥ 


          ८४


तौ तू पछितैहै मन मींजि हाथ।

भयो है सुगम तोको अमर-अगम तन,समुझिधौं कत खोवत अकाथ ॥ १ ॥ 


सुख-साधन हरिबिमुख बृथा जैसे श्रम फल घृतहित मथे पाथ।

यह बिचारि, तजि कुपथ-कुसंगति चलि सुपंथ मिलि भले साथ ॥ २ ॥ 


देखु-राम-सेवक, सुनि कीरति, रटहि नाम करि गान गाथ।

हृदय आनु धनुबान-पानि प्रभु,लसे मुनिपट, कटि कसे भाथ ॥ ३ ॥ 


तुलसिदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद-कमल माथ।

जनि डरपहि तोसे अनेक खल, अपनाये जानकीनाथ ॥ ४ ॥ 


          राग धनाश्री

           ८५


मन! माधवको नेकु निहारहि।

सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यो,छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि ॥ १ ॥ 


सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।

रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि ॥ २ ॥ 


जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-पारहि।

तौ जनि तुलसिदास निसि- बासर हरि-पद कमल बिसारहि ॥ ३ ॥ 


           ८६


इहै कह्यो सुत! बेद चहूँ।

श्रीरघुबीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ ॥ १ ॥ 


जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।

सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तेउ भजन करत अजहूँ ॥ २ ॥ 


जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।

हरि-पद-पंकज पाइ अचल भइ,करम-बचन-मनहूँ ॥ ३ ॥ 


करुनासिंधु,भगत-चिंतामनि,सोभा सेवतहूँ।

और सकल सुर,असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ ॥ ४ ॥ 


सुरुचि कह्यो सोइ सत्य तात अति परुष बचन जबहूँ।

तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ ॥ ५ ॥ 


        ८७


सुनु मन मूढ सिखावन मेरो।

हरि-पद-बिमुख लह्यो न काहु सुख सठ ! यह समुझ सबेरो ॥ १ ॥ 


बिछुरे ससि-रबि मन-नैननितें, पावत दुख बहुतेरो।

भ्रमत श्रमित निसि-दिवस गगन महँ,तहँ रिपु राहु बडेरो ॥ २ ॥ 


जद्यपि अति पुनित सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो।

तजे चरन अजहूँ न मिटत नित,बहिबो ताहू केरो ॥ ३ ॥ 


छुटै न बिपति भजे बिनु रघुपति, श्रुति संदेहु निबेरो।

तुलसिदास सब आस छाँडि करि, होहु रामको चेरो ॥ ४ ॥ 


         ८८


कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो।

निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो ॥ १ ॥ 


जदपि बिषय-सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो।

तदपि न तजत मूढ़ ममताबस,जानतहूँ नहिं जान्यो ॥ २ ॥ 


जनम अनेक किये नाना बिधि करम-कीच चित सान्यो।

होइ न बिमल बिबेक-नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो ॥ ३ ॥ 


निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हदै नहि आन्यो।

तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो ॥ ४ ॥ 


          ८९


मेरो मन हरिजू! हठ न तजै।

निसिदिन नाथ देउँ सिख बहु बिधि, करत सुभाउ निजै ॥ १ ॥ 


ज्यो जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुन दुख उपजै।

ह्वे अनुकूल बिसारि सूल सठ पुनि खल पतिहिं भजै ॥ २ ॥ 


लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यौं जहँ तहँ सिर पदत्रान बजै।

तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजै ॥ ३ ॥ 


हौं हार् यौ करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै।

तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै ॥ ४ ॥ 


          ९०


ऐसी मूढ़ता या मनकी।

परिहरि राम-भगति-सुरसरिता,आस करत ओसकनकी ॥ १ ॥ 


धूम-समूह निरखि चातक ज्यो, तृषित जानि मति घनकी।

नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी ॥ २ ॥ 


ज्यो गच-काँच बिलोकि सेन जड छाँह आपने तनकी।

टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी ॥ ३ ॥ 


कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जनकी।

तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी ॥ ४ ॥ 


         ९१


नाचत ही निसि-दिवस मर् यो।

तब ही ते न भयो हरि थिर जबतें जिव नाम धर् यो ॥ १ ॥ 


बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भर् यो।

चर अरु अचर गगन जल थलमें,कौन न स्वाँग कर् यो ॥ २ ॥ 


देव-दनुज,मुनि,नाग,मनुज नहिं जाँचत कोउ उबर् यो।

मेरो दुसह दरिद्र, दोष,दुख काहू तौ न हर् यो ॥ ३ ॥ 


थके नयन, पद, पानि, सुमति, बल, संग सकल बिछुर् यो।

अब रघुनाथ सरन आयो जन,भव,भय बिकल डर् यो ॥ ४ ॥ 


जेहि गुनतें बस होहु रीझि करि, सो मोहि सब बिसर् यो।

तुलसिदास निज भवन-द्वार प्रभु दीजै रहन पर् यो ॥ ५ ॥ 


         ९२


माधवजू,मोसम मंद न कोऊ।

जद्यपि मीन-पतंग हीनमति, मोहि नहिं पूजैं ओऊ ॥ १ ॥ 


रुचिर रुप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो।

देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयान्यो ॥ २ ॥ 


महामोह-सरिता अपार महँ, संतत फिरत बह्यो।

श्रीहरि- चरन-कमल-नौका तजि,फिरि फिरि फेन गह्यो ॥ ३ ॥ 


अस्थि पुरातन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै।

निज तालूगत रुधिर पान करि,मन संतोष धरै ॥ ४ ॥ 


परम कठिन भव-ब्याल-ग्रसित भयो अति भारी।

चाहत अभय भेक सरनागत, खगपति-नाथ बिसारी ॥ ५ ॥ 


जलचर-बृंद जाल-अंतरगत होत सिमिटि इक पासा।

एकहि एक खात लालच-बस, नहिं देखत निज नासा ॥ ६ ॥ 


मेरे अघ सारद अनेक जुग, गनत पार नहिं पावै।

तुलसिदास पतित-पावन प्रभु यह भरोस जिय आवै ॥ ७ ॥ 


         ९३


कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम।

जेहि करुना सुनि श्रवन दीन-दुख, धावत हौ तजि धाम ॥ १ ॥ 


नागराज निज बल बिचारि हिय, हारि चरन चित दीन्हों।

आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न कीन्हों ॥ २ ॥ 


दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिग्या राखी।

अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी ॥ ३ ॥ 


भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु-राखु कह्यो नर- नारी।

बसन पूरि,अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी ॥ ४ ॥ 


एक एक रिपुते त्रासित जन,तुम राखे रघुबीर।

अब मोहिं देत दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव-पीर ॥ ५ ॥ 


लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरुराज-बंधु खल मार।

तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार ॥ ६ ॥ 


          ९४


काहे ते हरि मोहिं बिसारो।

जानत निज महिमा मेरे अघ,तदपि न नाथ सँभारो ॥ १ ॥ 


पतित-पुनीत,दीनहित,असरन-सरन कहत श्रुति चारो।

हौं नहिं अधम,सभीत,दीन  ? किधौं बेदन मृषा पुकारो  ? ॥ २ ॥ 


खग-गनिका-गज-ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौहूँ बैठारो।

अब केहि लाज कृपानिधान ! परसत पनवारो फारो ॥ ३ ॥ 


जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो।

तौ हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो ॥ ४ ॥ 


मसक बिरंचि,बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो।

यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो ॥ ५ ॥ 


नाहिन नरक परत मोकहँ डर,जद्यपि हौं अति हारो।

यह बडि त्रास दासतुलसी प्रभु,नामहु पाप न जारो ॥ ६ ॥ 


         ९५


तरु न मेरे अघ-अवगुन गनिहैं ।

जौ जमराज काज सब परिहरि, इहै ख्याल उर अनिहैं ॥ १ ॥ 


चलिहैं छूटि पुंज पापिनके, असमंजस जिय जनिहैं ।

देखि खलल अधिकार प्रभूसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहैं ॥ २ ॥ 


हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-सिरोमनि मनिहैं ।

ज्यों त्यों तुलसिदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं ॥ ३ ॥ 


          ९६


जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके ।

तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अघ-बनके ॥ १ ॥ 


कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके ।

हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके ॥ २ ॥ 


जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके ।

तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके ॥ ३ ॥ 


         ९७


जौ पै हरि जनके औगुन गहते ।

तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते ॥ १ ॥ 


जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते ।

तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप-गेह बसि रहते ॥ २ ॥ 


जौ जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते ।

तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबहते ॥ ३ ॥ 


जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते ।

तौ जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते ॥ ४ ॥ 


जौ जगबिदित पतितपावन, अति बाँकुर बिरद न बहते ।

तौ बहुकलप कुटिल तुलसीसे, सपनेहुँ सुगति न लहते ॥ ५ ॥ 


         ९८


ऐसी हरि करत दासपर प्रीति ।

निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति ॥ १ ॥ 


जिन बाँधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी ।

सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठि बाँध्यो सकत न छोरी ॥ २ ॥ 


जाकी मायाबस बिरंचि सिव, नाचत पार न पायो ।

करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिन्ह सोइ नाच नचायो ॥ ३ ॥ 


बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति,बेद-बिदित यह लीख ।

बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु है द्विज माँगी भीख ॥ ४ ॥ 


जाको नाम लिये छूटत भव-जनम-मरन दुख-भार ।

अंबरीष-हित लागि कृपानिधि सोइ जनमे दस बार ॥ ५ ॥ 


जोग-बिराग, ध्यान-जप-तप करि, जेहि खोजत मुनि ग्यानी ।

बानर-भालु चपल पसु पामर, नाथ तहाँ रति मानी ॥ ६ ॥ 


लोकपाल,जम,काल,पवन,रबि,ससि सब आग्याकारी ।

तुलसिदास प्रभु उग्रसेनके द्वार बेंत कर धारी ॥ ७ ॥ 


         ९९


बिरद गरीबनिवाज रामको ।

गावत बेद-पुरान, संभु-सुक, प्रगट प्रभाउ नामको ॥ १ ॥ 


ध्रुव,प्रहलाद,बिभीषन,कपिपति,जड,पतंग,पाडंव,सुदामको ।

लोक सुजस परलोक सुगति,इन्हमें को है राम कामको ॥ २ ॥ 


गनिका, कोल,किरात,आदिकबि इन्हते अधिक बाम को।

बाजिमेध कब कियो अजामिल, गज गायो कब सामको ॥ ३।


छली,मलीन,हीन सब ही अँग, तुलसी सो छीन छामको।

नाम-नरेस-प्रताप प्रबल जग, जुग-जुग चालत चामको ॥ ४ ॥ 


            १००


सुनि सीतापति-सील-सुभाउ।

मोद न मन,तन पुलक,नयन जल,सो नर खेहर खाउ ॥ १ ॥ 


सिसुपनतें पितु,मातु,बंधु,गुरु,सेवक,सचिव,सखाउ।

कहत राम-बिधु-बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ ॥ २ ॥ 


खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ।

जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ ॥ ३ ॥ 


सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ।

दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ ॥ ४ ॥ 


भव-धनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गये ताउ।

छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ ॥ ५ ॥ 


कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ।

ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों निज तन मरम कुघाउ ॥ ६ ॥ 


कपि-सेवा-बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ।

देबेको न कछु रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ ॥ ७ ॥ 


अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ।

भरत सभा सनमानि,सराहत, होत न हृदय अघाउ ॥ ८ ॥ 


निज करुना करतूति भगत पर चपत चलत चरचाउ।

सकृत प्रनाम प्रनत जल बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ ॥ ९ ॥ 


समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ।

तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ ॥ १० ॥ 


            १०१


जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।

काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे ॥ १ ॥ 


कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम उधारे।

खग,मृग,ब्याध,पषान,बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ॥ २ ॥ 


देव,दनुज,मुनि,नाग,मनुज सब, माया-बिबस बिचारे।

तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ॥ ३ ॥ 


            १०२


हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हो।

साधन-धाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों ॥ १ ॥ 


कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।

तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार ॥ २ ॥ 


बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।

ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक ॥ ३ ॥ 


कृपा-डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु-चारो।

एहि बिधि बेधि हरहु मेरो दुख, कौतुक राम तिहारो ॥ ४ ॥ 


हैं श्रुति-बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै।

तुलसिदास येहि जीव मोह-रजु, जेहि बाँध्यो सोइ छोरै ॥ ५ ॥ 


             १०३


यह बिनती रघुबीर गुसाई।

और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ॥ १ ॥ 


चहौं न सुगति,सुमति,संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।

हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई ॥ २ ॥ 


कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई।

तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाई ॥ ३ ॥ 


या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई।

ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाई ॥ ४ ॥ 


            १०४


जानकी-जीवनकी बलि जैहौं।

चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं ॥ १ ॥ 


उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहौं।

मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं ॥ २ ॥ 


श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं।

रोकिहौं नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं ॥ ३ ॥ 


नातो-नेह नाथसों करि सब नातो-नेह बहैहौं।

यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं ॥ ४ ॥ 


             १०५


अबलौ नसानी, अब न नसैहौं।

राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं ॥ १ ॥ 


पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं।

स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं ॥ २ ॥ 


परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वे न हँसेहौं।

मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं ॥ ३ ॥ 


           राग रामकली

            १०६


महाराज रामादर् यो धन्य सोई।

गरुअ,गुनरासि,सरबग्य,सुकृती,सूर,सील-निधि,साधु तेहि सम न कोई ॥ १ ॥ 


उपल,केवट,कीस,भालु,निसिचर,सबरि,गीध सम-दम-दया-दान-हीने।

नाम लिये राम किये परम पावन सकल, नर तरत तिनके गुनगान कीने ॥ २ ॥ 


ब्याध अपराधकी साध राखी कहा, पिंगलै कौन मति भगति भेई।

कौन धौं सोमजाजी अजामिल अधम, कौन गजराज धौं बाजपेयी ॥ ३ ॥ 


पांडु-सुत,गोपिका,बिदुर,कुबरी,सबरि,सुद्ध किये सुद्धता लेस कैसो।

प्रेम लखि कृस्न किये आपने तिनहुको, सुजस संसार हरिहरको जैसो ॥ ४ ॥ 


कोल,खस,भील,जवनादि खल राम कहि, नीच ह्वे ऊँच पद को न पायो।

दीन-दुख-दवन श्रीरवन करुना-भवन, पतित-पावन विरद बेद गायो ॥ ५ ॥ 


मंदमति,कुटिल,खल-तिलक तुलसी सरिस, भो न तिहुँ लोक तिहुँ काल कोऊ।

नामकी कानि पहिचानि पन आपनो, ग्रसित कलि-ब्याल राख्यो सरन सोऊ ॥ ६ ॥ 


                बिहाग

             राग ---------

                बिलावल

               १०७


है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।

        सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम ॥ १ ॥ 


सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग।

        भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग ॥ २ ॥ 


बलिलपूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति।

        सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति ॥ ३ ॥ 


देहि सकल सुख,दुख दहै, आरत-जन-बंधु।

        गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु ॥ ४ ॥ 


देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान।

        सबको प्रभु,सबमें बसै,सबकी गति जान ॥ ५ ॥ 


को करि कोटिक कामना, पूजै बहु देव।

        तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव ॥ ६ ॥ 


              १०८


बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय।

        सकल काम पूरन करै, जाने सब कोय ॥ १ ॥ 


बेगि,बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस।

        बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस ॥ २ ॥ 


प्रेम-बारि-तरपन भलो, घृत सहज सनेहु।

        संसय-समिध, अगिनि छमा, ममता-बलि देहु ॥ ३ ॥ 


अघ-उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार।

        आकरषै    सुख-संपदा-संतोष-बिचार ॥ ४ ॥ 


जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि।

        तुलसिदास प्रभुपथ चढ् यौ, जौ लेहु निबाहि ॥ ५ ॥ 


             १०९


कस न करहु करुना हरे! दुखहरन मुरारि!

त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि  ॥ १ ॥ 


इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन।

तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन ॥ २ ॥ 


सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन।

यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मै करम बिहीन ॥ ३ ॥ 


भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे।

दुख-सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे ॥ ४ ॥ 


तो सम देव न कोउ कृपालु, समुझौं मनमाहीं।

तुलसिदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं ॥ ५ ॥ 


          ११०


कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।

इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति ॥ १ ॥ 


जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी।

हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी ॥ २ ॥ 


मै अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे।

जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे ॥ ३ ॥ 


जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे।

तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे ॥ ४ ॥ 


          १११


केसव! कहि न जाइ का कहिये।

देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये ॥ १ ॥ 


सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे।

धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे ॥ २ ॥ 


रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।

बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं ॥ ३ ॥ 


कोउ कह सत्य,झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।

ø

तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ॥ ४ ॥ 


          ११२


केसव! कारन कौन गुसाई।

जेहि अपराध असाध जानि मोहिं तजेउ अग्यकी नाई ॥ १ ॥ 


परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई।

तौ कत बिप्र,ब्याध,गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई ? ॥ २ ॥ 


काल,करम,गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे।

सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे ॥ ३ ॥ 


जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे।

मन-बच-करम नरक-सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे ॥ ४ ॥ 


जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सों करौं ढिठाई।

तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई ॥ ५ ॥ ý


           ११३


माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।

प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे ॥ १ ॥ 


जब लगि मै न दीन,दयालु तैं, मैं न दास, तैं स्वामी।

तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी ॥ २ ॥ 


तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै।

बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै ॥ ३ ॥ 


जनक-जननि,गुरुबंधु,सुहृदकल-पति, सब प्रकार हितकारी।

द्वैतरूप तम-कूप परौं नहिं, अस कछु जतन बिचारी ॥ ४ ॥ ø


सुनु अदभ्र करुना बारिजलोचन मोचन भय भारी।

तुलसिदास प्रभु! तव प्रकास बिनु, संसय टरै न टारी ॥ ५ ॥ 


ú      ११४


माधव! मो समान जग माहीं।

सब बिधि हीन,मलीन,दीन अति, लीन-बिषय कोउ नाहीं ॥ १ ॥ 


तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत-हित ईस न त्यागी।

मैं दुख-सोक-बिकल कृपालु! केहि कारन दया न लागी ॥ २ ॥ 


नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।

ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना ॥ ३ ॥ 


बेनु करील,श्रीखंड बसंतहि दूषन मृषा लगावै।

सार-रहित हत-भाग्य सुरभि, पल्लव सो कहु किमि पावै ॥ ४ ॥ 


सब प्रकार मैं कठिन,मृदुल हरि,दृढ़ बिचार जिय मोरे।

तुलसिदास प्रभु मोह-सृंखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे ॥ ५ ॥ 


            ११५


माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै।

बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै ॥ १ ॥ 


घृतपूरन कराह अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै।

ईंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै ॥ २ ॥ 


तरु-कोटर महँ बस बिहंग तरु काटे मरै न जैसे।

साधन करिय बिचार-हीन मन सुद्ध होइ नहिं तैसे ॥ ३ ॥ 


अंतर मलिन बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे।

मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे ॥ ४ ॥ 


तुलसिदास हरि-गुरु-करुना बिनु बिमल बिबेक न होई।

बिनु बिबेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ॥ ५ ॥ 


          ११६


माधव! असि तुम्हारि यह माया ।

करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं जब लगि करहु न दाया ॥ १ ॥ 


सुनिय,गुनिय,समुझिय,समुझाइय,दसा हृदय नहिं आवै ।

जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै ॥ २ ॥ 


ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै ।

तौ कत मृगजल-रूप बिषय कारन निसि-बासर धावै ॥ ३ ॥ 


जेहिके भवन बिमल चिंतामनि,सो कत काँच बटोरै ।

सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै ॥ ४ ॥ 


ग्यान-भगति साधन अनेक, सब सत्य,झूँठ कछु नाही ।

तुलसिदास हरि-कृपा मिटै भ्रम, यह भरोस मनमाहीं ॥ ५ ॥ 


          ११७


हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै ।

जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै ॥ १ ॥ 


जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे ।

तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यो, फिरत बिषय अनुरागे ॥ २ ॥ 


भूत-द्रोह कृत मोह-बस्य हित आपन मै न बिचारो ।

मद-मत्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो ॥ ३ ॥ 


बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी ।

बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ॥ ४ ॥ 


मैं अपराध-सिंधु करुनाकर ! जानत अंतरजामी ।

तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसित तव सरन उरग-रिपु-गामी ॥ ५ ॥ 


          ११८


हे हरि ! कवन जतन सुख मानहु ।

ज्यों गज-दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु ॥ १ ॥ 


जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे ।

रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद-सुख पाइय कैसे ॥ २ ॥ 


देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी ।

सबिष उरग-आहार,निठुर अस,यह करनी वह बानी ॥ ३ ॥ 


अखिल-जीव-वत्सल, निरमत्सर,दरन-कमल-अनुरागी ।

ते तव प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी ॥ ४ ॥ 


जद्यपि मम औगुन अपार संसार-जोग्य रघुराया ।

तुलसिदास निज गुन बिचारि करुनानिधान करु दाया ॥ ५ ॥ 


           ११९


हे हरि ! कवन जतन भ्रम भागै ।

देखत,सुनत,बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै ॥ १ ॥ 


भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई ।

कोउ भल कहउ,देउ कछु, असि बासना न उरते जाई ॥ २ ॥ 


जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै ।

निज करनी बिपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै ॥ ३ ॥ 


जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत, दुख पावै ।

चित्रकार करहीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै ॥ ४ ॥ 


हृषीकेश सुनि नाउँ जाउँ बलि, अति भरोस जिय मोरे ।

तुलसिदास इंद्रिय-संभव दुख, हरे बनिहिं प्रभु तोरे ॥ ५ ॥ 


         १२०


हे हरि ! कस न हरहु भ्रम भारी ।

जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी ॥ १ ॥ 


अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाई ।

बिन बाँधे निज हठ सठ परबस पर् यो कीरकी नाई ॥ २ ॥ 


सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई ।

बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई ॥ ३ ॥ 


श्रुति-गुरु-साधु-समृति-संमत यह दृश्य असत दुखकारी ।

तेहि बिनु तजे, भजे बिनु रघुपति, बिपति सकै को टारी ॥ ४ ॥ 


बहु उपाय संसार-तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावै ।

तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै ॥ ५ ॥ 


          १२१


हे हरि ! यह भ्रमकी अधिकाई ।

देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई ॥ १ ॥ 


जो जग मृषा ताप-त्रय-अनुभव होइ कहहु केहि लेखे ।

कहि न जाय मृगबारि सत्य,भ्रम ते दुख होइ बिसेखे ॥ २ ॥ 


सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै ।

कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै ॥ ३ ॥ 


अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी ।

सम-संतोष-दया-बिबेक तें, व्यवहारी सुखकारी ॥ ४ ॥ 


तुलसिदास सब बिधि प्रपञ्च जग, जदपि झूठ श्रुति गावै ।

रघुपति-भगति, संत-संगति बिनु, को भव-त्रास नसावै ॥ ५ ॥ 


          १२२


मै हरि, साधन करइ न जानी ।

जस आमय भेषज न कीन्ह तस,दोष कहा दिरमानी ॥ १ ॥ 


सपने नृप कहँ घटै बिप्र-बध, बिकल फिरै अघ लागे ।

बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे ॥ २ ॥ 


स्त्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे ।

बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे ॥ ३ ॥ 


निज भ्रम ते रबिकर-सम्भव सागर अति भय उपजावै ।

अवगाहत बोहोत नौका चढ़ि कबहुँ पार न पावै ॥ ४ ॥ 


तुलसिदास जग आपु सहित जब लगि निरमूल न जाई ।

तब लगि कोटि कलप उपाय करि मरिय, तरिय नहिं भाई ॥ ५ ॥ 


           १२३


अस कछु समुझि परत रघुराया !

बिनु तव कृपा दयालु ! दास-हित ! मोह न छूटै माया ॥ १ ॥ 


बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई ।

निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत नहिं होई ॥ २ ॥ 


जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै ।

चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै ॥ ३ ॥ 


षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै ।

बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानै ॥ ४ ॥ 


जबलगि नहिं निज हृदि प्रकास, अरु बिषय-आस मनमाहीं ।

तुलसिदास तबलगि जग-जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं ॥ ५ ॥ 


            १२४


जौ निज मन परिहरै बिकारा।

तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख,संसय,सोक अपारा ॥ १ ॥ 


सत्रु,मित्र,मध्यस्थ,तीनि ये, मन कीन्हे बरिआई।

त्यागन,गहन,उपेच्छनीय,अहि हाटक तृनकी नाई ॥ २ ॥ 


असन,बसन,पसु बस्तु बिबिध बिधिसब मनि महँ रह जैसे।

सरग,नरक,चर-अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे ॥ ३ ॥ 


बिटप-मध्य पुतरिका,सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये।

मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये ॥ ४ ॥ 


रघुपति-भगति-बारि-छालित-चित, बिनु प्रयास ही सूझै।

तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझत बूझै ॥ ५ ॥ 


            १२५


मै केहि कहौं बिपति अति भारी। श्रीरघुबीर धीर हितकारी ॥ १ ॥ 


मम हृदय भवन प्रभु तोरा। तहँ बसे आइ बहु चोरा ॥ २ ॥ 


अति कठिन करहिं बरजोरा। मानहिं नहिं बिनय निहोरा ॥ ३ ॥ 


तम,मोह,लोभ,अहँकारा। मद,क्रोध,बोध-रिपु मारा ॥ ४ ॥ 


अति करहिं उपद्रव नाथा। मरदहिं मोहि जानि अनाथा ॥ ५ ॥ 


मैं एक,अमित बटपारा। कोउ सुनै न मोर पुकारा ॥ ६ ॥ 


भागेहु नहिं नाथ! उबारा। रघुनायक, करहुँ सँभारा ॥ ७ ॥ 


कह तुलसिदास सुनु रामा। लूटहिं तसकर तव धामा ॥ ८ ॥ 


चिंता यह मोहिं अपारा। अपजस नहिं होइ तुम्हारा ॥ ९ ॥ 


            १२६


मन मेरे,मानहि सिख मेरी। जो निजु भगति चहै हरि केरी ॥ १ ॥ 


उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते। सेवहि ते जे अपनपौ चेते ॥ २ ॥ 


दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई। सब सम लेखहि बिपति बिहाई ॥ ३ ॥ 


सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही। जनि तेहि लागि बिदूषहि केही ॥ ४ ॥ 


तुलसिदास बिनु असि मति आयै। मिलहिं न राम कपट-लौ लाये ॥ ५ ॥ 


             १२७


मै जानी,हरिपद-रति नाहीं। सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं ॥ १ ॥ 


जे रघुबीर चरन अनुरागे। तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे ॥ २ ॥ 


काम-भुजंग डसत जब जाहीं। बिषय-नींब कटु लगत न ताही ॥ ३ ॥ 


असमंजस अस हृदय बिचारी। बढ़त सोच नित नूतन भारी ॥ ४ ॥ 


जब कब राम-कृपा दुख जाई। तुलसिदास नहिं आन उपाई ॥ ५ ॥ 


            १२८


सुमिरु सनेह-सहित सीतापति। रामचरन तजि नहिंन आनि गति ॥ १ ॥ 


जप,तप,तीरथ,जोग समाधी। कलिमत बिकल,न कछु निरुपाधी ॥ २ ॥ 


करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं। रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं ॥ ३ ॥ 


हरति एक अघ-असुर-जालिका। तुलसिदास प्रभु-कृपा-कालिका ॥ ४ ॥ 


            १२९


रुचिर रसना तू राम राम राम क्यों न रटत।

सुमिरत सुख-सुकृत बढ़त, अघ-अमंगल घटत ॥ १ ॥ 


बिनु श्रम कलि-कलुषजाल कटु कराल कटत।

दिनकरके उदय जैसे तिमिर-तोम फटत ॥ २ ॥ 


जोग,जाग,जप,बिराग,तप सुतीरथ-अटत।

बाँधिबेको भव-गयंद रेनुकी रजु बटत ॥ ३ ॥ 


परिहरि सुर-मनि सुनाम, गुंजा लखि लटत।

लालच लघु तेरो लखि, तुलसि तोहि हटत ॥ ४ ॥ 


            १३०


राम राम,राम राम,राम राम, जपत।

मंगल-मुद उदित होत, कलि-मल-छल छपत ॥ १ ॥ 


कहु के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत।

हाहरि जनि जनम जाय गाल गूल गपत ॥ २ ॥ 


काल,करम,गुन,सुभाउ सबके सीस तपत।

राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत ॥ ३ ॥ 


साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत।

कलिजुग बर बनिज बिपुल, नाम-नगर खपत ॥ ४ ॥ 


नाम सों प्रतीति-प्रीति हृदय सुथिर थपत।

पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत ॥ ५ ॥ 


            १३१


पावन प्रेम राम-चरन-कमल जनम लाहु परम।

रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ॥ १ ॥ 


जोग,मख,बिबेक,बिरत,बेद-बिदित करम।

करिबे कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर,नरम ॥ २ ॥ 


तुलसी सुनि, जानि-बूझि, भूलहि जनि भरम।

तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम ॥ ३ ॥ 


            १३२


राम-से प्रीतमकी प्रीति-रहित जीव जाय जियत।

जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत ॥ १ ॥ 


जहँ जहँ जेहि जोनि जनम महि, पताल,बियत।

तहँ-तहँ तू बिषय-सुखहिं, चहत लहत नियत ॥ २ ॥ 


कत बिमोह लट्यो,फट्यो गगन मगन सियत।

तुलसी प्रभु-सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत ॥ ३ ॥ 


            १३३


तोसो हौं फिरि फिरि हित,प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत।

सुनि मन,गुनि,समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत ॥ १ ॥ 


छोटो बड़ो,खोटो खरो, जग जो जहँ रहत।

अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत ॥ २ ॥ 


बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत।

पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ॥ ३ ॥ 


बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत।

योहीं जिय जानि,मानि सठ! तू साँसति सहत ॥ ४ ॥ 


पायो केहि घृत बिचारु, हरिन-बारि महत।

तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत ॥ ५ ॥ 


            १३४


ताते हौं बार बार देव! द्वार परि पुकार करत।

आरति,नति,दीनता कहें प्रभु संकट हरत ॥ १ ॥ 


लोकपाल सोक-बिकल रावन-डर डरत।

का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत ॥ २ ॥ 


कौसिक,मुनि-तीय, जनक सोच-अनल जरत।

साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत ॥ ३ ॥ 


केवट,खग,सबरि सहज चरनकमल न रत।

सनमुख तोहिं होत नाथ! कुतरुíसुफरु फरत ॥ ४ ॥ 


बंधु-बैर कपि-बिभीषन गुरु गलानि गरत।

सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत ॥ ५ ॥ 


सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत।

ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत ॥ ६ ॥ 


जाने बिनु राम-रीति पचि पचि जग मरत।

परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत ॥ ७ ॥ 


        राग सुहो बिलावल

          १३५


       राम सनेही सों तैं न सनेह कियो।

       अगम जो अमरनि हूँ सो तनु तोहिं दियो ॥ 

दियो सुकुल जनम,सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको।

जो पाइ पंडित परमपद, पावत पुरारि-मुरारिको ॥ 

यह भरतखंड,समीप सुरसरि,थल भलो,संगति भली।

तेरी कुमति कायर! कलप-बल्ली चहति है बिष फल फली ॥ १ ॥ 


         !   !   !    !

       अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथ।û

       है हित सो जगहूँ जाहिते स्वारथ ॥ 

स्वारथहि प्रिय,स्वारथ सो का ते कौन बेद बखानई।

देखु खल,अहि-खेल परिहरि,सो प्रभुहि पहिचानाई ॥ 

पितु-मातु,गुरु,स्वामी,अपनपौ,तिय,तनय,सेवक,सखा।

प्रिय लगत जाके प्रेमसों,बिनु हेतु हित तैं नहि लखा ॥ २ ॥ 


         !   !   !    !

       दूरि न सो हितू हेरि हिये ही है।

       छलहि छाँड़ि सुमिरे छोहु किये ही है।

किये छोहु छाया कमल करकी भगतपर भजतहि भजै।

जगदीश,जीवन जीवको, जो साज सब सबको सजै ॥ 

हरिहि हरिता,बिधिहि बिधिता,सिवहि सिवता जो दई।

सोइ जानकी-पति मधुर मूरति,मोदमय मंगल मई ॥ ३ ॥ 


        !    !    !   !

      ठाकुर अतिहि बड़ो,सील,सरल,सुठि।

      ध्यान अगम सिवहूँ,भेट्यो केवट उठि ॥ 

भरि अंक भेट्यो सजल नयन, सनेह सिथिल सरीर सो।

सुर,सिद्ध,मुनि,कबि कहत कोउ न प्रेमप्रिय रघुबीर सो।

खग,सबरि,निसिचर,भालु,कपि किये आपु ते बंदित बड़े।

तापर तिन्ह कि सेवा सुमिरि जिय जात जनु सकुचनि गड़े ॥ ४ ॥ 


        !     !     !    !

       स्वामीको सुभाव कह्यो सो जब उर आनिहै।

       सोच सकल मिटिहै, राम भलो मन मानिहैं ॥ 

भलो मानिहै रघुनाथ जोरि जो हाथ माथो नाइहै।

ततकाल तुलसीदास जीवन-जनमको फल पाइहै ॥ 

जपि नाम करहि प्रनाम,कहि गुन-ग्राम,रामहिं धरि हिये।

बिचरहि अवनि अवनीस-चरनसरोज मन-मधुकर किये ॥ ५ ॥ 


             १३६


             (१)


जिव जबते हरितें बिलगान्यो। तबतें देह गेह निज जान्यो ॥ 

मायाबस स्वरुप बिसरायो। तेहि भ्रमतें दारुन दुख पायो ॥ 

पायो जो दारुन दुसह दुख, सुख-लेस सपनेहुँ नहिं मिल्यो।

भव-सूल,सोक अनेक जेहि, तेहि पंथ तू हठि हठि चल्यो ॥ 

बहु जोनि जनम,जरा,बिपति, मतिमंद! हरि जान्यो नहीं।

श्रीराम बिनु बिश्राम मूढ़! बिचारु, लखि पायो कहीं ॥ 

             (२)


आनँद-सिंधु-मध्य तव बासा। बिनु जाने कस मरसि पियासा ॥ 

मृग-भ्रम-बारि सत्य जिय जानी। तहँ तू मगन भयो सुख मानी ॥ 

      तहँ मगन मज्जसि,पान करि,त्रयकाल जल नाहीं जहाँ।

      निज सहज अनुभव रूप तव खल! भूलि अब आयो तहाँ ॥ 

      निरमल,निरंजन,निरबिकार,उदार,सुख तैं परिहर् यो।

      निःकाज राज बिहाय नृप इव सपन कारागृह पर् यो ॥ 

              (३)


तैं निज करम-डोरि दृढ़ कीन्हीं। अपने करनि गाँठि गहि दीन्हीं ॥ 

ताते परबस पर् यो अभागे। ता फल गरभ-बास-दुख आगे ॥ 

      आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ।

      सिर हेठ,ऊपर चरन, संकट बात नहिं पूछै कोऊ ॥ 

      सोनित-पुरीष जो मूत्र-मल कृमि-कर्दमावृत सोवई।

      कोमल सरीर,गँभीर बेदन, सीस धुनि-धुनि रोवई ॥ 

              (४)


तू निज करम-जालल जहँ घेरो। श्रीहरि संग तज्यो नहिं तेरो ॥ 

बहुबिधि प्रतिपालन प्रभु कीन्हों। परम कृपालु ग्यान तोहि दीन्हों ॥ 

      तोहि दियो ग्यान-बिबेक,जनम अनेककी तब सुधि भई।

      तेहि ईसकी हौं सरन, जाकी बिषम माया गुनमई ॥ 

      जेहि किये जीव-निकाय बस,रसहीन,दिन-दिन अति नई।

      सो करौ बेगि सँभारि श्रीपति,बिपति, महँ जेहि मति दई ॥ 

              (५)


पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी। अब जग जाइ भजौं चक्रपानी ॥ 

ऐसेहि करि बिचार चुप साधी। प्रसव-पवन प्रेरेउ अपराधी ॥ 

      प्रेर् यो जो परम प्रचंड मारुत,कष्ट नाना तैं सह्यो।

      सो ग्यान,ध्यान,बिराग,अनुभव जातना-पावक दह्यो ॥ 

      अति खेद ब्याकुल,अलप बल,छिन एक बोलि न आवई।

      तव तीव्र कष्ट न जान कोउ, सब लोग हरषित गावई ॥ 

              (६)


बाल दसा जेते दुख पाये। अति असीम, नहिं जाहिं गनाये ॥ 

छुधा-ब्याधि-बाधा भइ भारी। बेदन नहिं जानै महतारी ॥ 

      जननी न जानै पीर सो,केहि हेतु सिसु रोदन करै।

      सोइ करै बिबिध उपाय, जातें अधिक तुव छाती जरै ॥ 

      कौमार,सैसव अरु किसोर अपार अघ को कहि सकै।

      ब्यतिरेक तोहि निरदय! महाखल! आन कहु को सहि सकै ॥ 

               (७)


जोबन जुवती सँग रँग रात्यो। तब तू महा मोह-मद मात्यो ॥ 

ताते तजी धरम-मरजादा। बिसरे तब सब प्रथम बिषादा ॥ 

      बिसरे बिषाद,निकाय-संकट समुझि नहिं फाटत हियो।

      फिरि गर्भगत-आवर्त सृंसतिचक्र जेहि होइ सोइ कियो ॥ 

      कृमि-भस्म-बिट-परिनाम तनु, तेहि लागि जग बैरी भयो।

      परदार,परधन,द्रोहपर,संसार बाढ़ै नित नयो ॥ 

              (८)


देखत ही आई बिरुधाई। जो तैं सपनेहुँ नाहिं बुलाई ॥ 

ताके गुन कछु कहे न जाहीं। सो अब प्रगट देखु तनु माहीं ॥ 

      सो प्रगट तनु जरजर जराबस,ब्याधि,सूल सतावई।

      सिर-कंप,इन्द्रिय-सक्ति प्रतिहत,बचन काहु न भावई ॥ 

      गृहपालहूतें अति निरादर,खान-पान न पावई।

      ऐसिहु दसा न बिराग तहँ,तृष्णा-तरंग बढ़ावई ॥ 

               (९)


कहि को सकै महाभव तेरे। जनम एकके कछुक गनेरे ॥ 

चारि खानि संतत अवगाहीं। अजहुँ न करु बिचार मन माहीं ॥ 

      अजहुँ बिचारु,बिकार तजि, भजु राम जन-सुखदायकं।

      भवसिंधु दुस्तर जलरथं, भजु चक्रधर सुरनायकं ॥ 

      बिनु हेतु करुनाकर,उदारे, अपार-माया-तारनं।

      कैवल्य-पति,जगपति,रमापति,प्रानपति,गतिकारनं ॥ 

              (१०)


रघुपति-भगति सुलभ,सुखकारी। सो त्रयताप-सोक-भय-हारी ॥ 

बिनु सतसंग भगति नहिं होई। ते तब मिलै द्रवै जब सोई ॥ 

       जब द्रवै दीनदलयालु राघव, साधु-संगति पाइये।

       जेहि दरस-परस-समागमादिक पापरासि नसाइये ॥ 

       जिनके मिले दुख-सुख समान, अमानतादिक गुन भये।

       मद-मोह लोभ-बिषाद-क्रोध सुबोधतें सहजहिं गये ॥ 

              (११)


सेवत साधु द्वैत-भय भागै। श्रीरघुबीर-चरन लय लागै ॥ 

देह-जनित विकार सब त्यागै। तब फिरि निज स्वरूप अनुरागै ॥ 

       अनुराग सो निज रूप जो जगतें बिलच्छन देखिये।

       सन्तोष,सम,सीतल,सदा दम, देहवंत न लेखिये ॥ 

       निरमल,निरामय,एकरस,तेहि हरष-सोक न ब्यापई।

       त्रैलोक-पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई ॥ 

               (१२)


जो तेहि पंथ चलै मन लाई। तौ हरि काहे न होहिं सहाई।

जो मारग श्रुति-साधु दिखावै। तेहि पथ चलत सबै सुख पावै ॥ 

       पावै सदा सुख हरि-कृपा,संसार-आसा तजि रहै।

       सपनेहुँ नहीं सुख द्वैत-दरसन, बात कोटिक को कहै ॥ 

       द्विज,देव,गुरु,हरि,संत बिनु संसार-पार न पाइये।

       यह जानि तुलसीदास त्रासहरन रमापति गाइये ॥ 

              १३७


जो पै कृपा रघुपति कृपालुकी, बैर औरके कहा सरै।

होइ न बाँको बार भगतको, जो कोउ कोटि उपाय करै ॥ १ ॥ 


तकै नीचु जो मीचु साधुकी, सो पामर तेहि मीचू मरै ॥ 

बेद-बिदित प्रहलाद-कथा सुनि, को न भगति-पथ पाउँ धरै ? ॥ २ ॥ 


गज उधारि हरि थप्यो बिभीषन, ध्रुव अबिचल कबहूँ न टरै।

अंबरीष की साप सुरति करि, अजहुँ महामुनि ग्लानि गरै ॥ ३ ॥ 


सों धौं कहा जु न कियो सुजोधन, अबुध आपने मान जरै।

प्रभु-प्रसाद सौभाग्य बिजय-जस, पांडवनै बरिआइ बरै ॥ ४ ॥ 


जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ, सो सठ फिरि तेहि कूप परै।

सपनेहुँ सुख न संतद्रोहीकहँ, सुरतरु सोउ बिष-फरनि फरै ॥ ५ ॥ 


है काके द्वै सीस ईसके जौ हठि जनकी सीवँ चरै।

तुलसिदास रघुबीर-बाहुबल सदा अभय काहु न डरै ॥ ६ ॥ 


             १३८


कबहुँ सो कर-सरोज रघुनायक! धरिहौ नाथ सीस मेरे।

जेहि कर अभय किये जन आरे, बारकल बिबस नाम टेरे ॥ १ ॥ 


जेहि कर-कमल कठोर संभुधन भंजि जनक-संसय मेट्यो।

जेहि कर-कमल उठाइ बंधु ज्यों, परम प्रीती केवट भेंट्यो ॥ २ ॥ 


जेहि कर-कमल कृपालु गीधकहँ, पिंड देइ निजधाम दियो।

जेहि कर बालि बिदारि दास-हित, कपिकुल-पति सुग्रीव कियो ॥ ३ ॥ 


आयो सरन सभीत बिभीषन जेहि कर-कमल तिलक कीन्हों।

जेहि कर गहि सर चाप असुर हति, अभयदान देवन्ह दीन्हों ॥ ४ ॥ 


सीतल सुखद छाँह जेहि करकी, मेटति पापो,ताप,माया।

निसि-बासर तेहि कर सरोजकी, चाहत तुलसिदास छाया ॥ ५ ॥ 


             १३९


दीनदयालु,दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई है।

देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है ॥ १ ॥ 


प्रभुके बचन,बेद-बुध-सम्मत,'मम मूरति महिदेवमई है'।

तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद,लोभ लालची लीलि लई है ॥ २ ॥ 


राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है।

नीति,प्रतीति,प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है ॥ ३ ॥ 


आश्रम-बरन-धरम-बिरहित जग, लोक-बेद-मरजाद गई है।

प्रजा पतित,पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ॥ ४ ॥ 


सांति,सत्य,सुभ,रीति गई घटि,बढ़ी कुरीति,कपट-कलई है।

सीदत साधु,साधुता सोचति,खल बिलसत,हुलसति खलई है ॥ ५ ॥ 


परमारथ स्वारथ,साधन भये अफल,सफल नहिं सिद्धि सई है।

कामधेनु-धरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है ॥ ६ ॥ 


कलि-करनी बरनिय कहाँ लौं,करत फिरत बिनु टहल टई है।

तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है ॥ ७ ॥ 


त्यों त्यों नीच चढ़त सिर ऊपर, ज्यों ज्यों सीलबस ढील दई है।

सरुष बरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हड़ेकी जई है ॥ ८ ॥ 


दीजै दादि देखि ना तौ बलि, महि मोद-मंगल रितई है।

भरे भाग अनुराग लोग कहैं, राम कृपा-चितवनि चितई है ॥ ९ ॥ 


बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि, करुना-बारि भूमि भिजई है।

राम-राज भयो काज,सगुन सुभ, राजा राम जगत-बिजई है ॥ १० ॥ 


समरथ बड़ो,सुजान सुसाहब, सुकृत-सैन हारत जितई है।

सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है ॥ ११ ॥ 


उथपे थपन,उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है।

तुलसी प्रभु आरत-आरतिहर, अभयबाँह केहि केहि न दई है ॥ १२ ॥ 


            १४०


ते नर नरकरूप जीवत जग भव-भंजन-पद-बिमुख अभागी।

निसिबासर रुचिपाप असुचिमन,खलमति-मलिन,निगमापथ-त्यागी ॥ १ ॥ 


नहिं सतसंग भजन नहिं हरिको,स्त्रवन न राम-कथा-अनुरागी।

सुत-बित-दार-भवन-ममता-निसि सोवत अति, न कबहुँ मति जागी ॥ २ ॥ 


तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि, सठ हठि पियत बिषय-बिष माँगी।

सूकर-स्वान-सृगाल,सरिस जन, जनमत जगत जननि-दुख लागी ॥ ३ ॥ 


             १४१


रामचंद्र! रघुनायक तुमसों हौं बिनती केहि भाँति करौं।

अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम अनुमानि डरौं ॥ १ ॥ 


पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहिं हृदय धरौं।

देखि आनकी बिपति परम सुख, सुनि संपति बिनु आगि जरौं ॥ २ ॥ 


भगति-बिराग-ग्यान साधन कहि बहु बिधि डहकत लोग फिरों।

सिव-सरबस सुखधाम नाम तव, बेचि नरकप्रद उदर भरौं ॥ ३ ॥ 


जानत हौं निज पाप जलधि जिय, जल-सीकर सम सुनत लरौं।

रज-सम-पर अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरि-सम रजतें निदरौं ॥ ४ ॥ 


नाना बेष बनाय दिवस-निसि, पर-बित जेहि तेहि जुगुति हरौं।

एकौ पल न कबहुँ अलोल चित हित दै पद-सरोज सुमिरौं ॥ ५ ॥ 


जो आचरन बिचारहु मेरो,कलप कोटि लगि औटि मरौं।

तुलसिदास प्रभु कृपा-बिलोकनि,गोपद-ज्यों भवसिंधु तरौं ॥ ६ ॥ 


              १४२


सकुचत हौं अति राम कृपानिधि! क्यों करि बिनय सुनावौं।

सकल धरम बिपरीत करत,केहि भाँति नाथ! मन भावौ ॥ १ ॥ 


जानत हौं हरि रूप चराचर, मैं हठि नयन न लावौं।

अंजन-केस-सिखा जुवती, तहँ लोचन-सलभ पठावौं ॥ २ ॥ 


स्त्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौं,समुझावौं।

तिन्ह स्त्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौं ॥ ३ ॥ 


जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौं।

तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्यों रटि-रटि जनम नसावौं ॥ ४ ॥ 


'करहु हृदय अति बिमल बसहिं हरि', कहि कहि सबहिं सिखावौं।

हौं निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली बसावौं ॥ ५ ॥ 


जो तनु धरि हरिपद साधहिं जन, सो बिनु काज गँवावौं।

हाटक-घट भरि धर् यो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं ॥ ६ ॥ 


मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौं।

पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ,सो जनावौं ॥ ७ ॥ 


बिप्र-द्रोह जनु बाँट पर् यो, हठि सबसों बैर बढ़ावौ।

ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौं ॥ ८ ॥ 


निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौं।

तौ न सिराहिं कलप सत लगि प्रभु, कहा एक मुख गावौं ॥ ९ ॥ 


जो करनी आपनी बिचारौं, तौं कि सरन हौं आवौं।

मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिं दिखावौं ॥ १० ॥ 


तुलसिदास प्रभु सो गुन नहिं, जेहि सपनेहुँ तुमहिं रिझावौं।

नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं ॥ ११ ॥ 


           १४३


सुनहु राम रघुबीर गुसाई, मन अनीति-रत मेरो।

चरन-सरोज बिसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो ॥ १ ॥ 


मानत नाहिं निगम-अनुसासन, त्रास न काहू केरो।

भूल्यो सूल करम-कोलुन्ह तिल ज्यों बहु बारनि पेरो ॥ २ ॥ 


जहँ सतसंग कथा माधवकी, सपनेहुँ करत न फेरो।

लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो ॥ ३ ॥ 


पर-गुन सुनत दाह, पर-दूषन सुनत हरख बहुतेरो।

आप पापको नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो ॥ ४ ॥ 


साधन-फल,श्रुति-सार नाम तव, भव-सरिता कहँ बेरो।

सो पर-कर काँकिनी लागि सठ, बेंचि होत हठि चेरो ॥ ५ ॥ 


कबहुँक हौं संगति-प्रभावतें,जाँउ सुमारग नेरो।

तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो ॥ ६ ॥ 


इक हौं दीन,मलीन,हीनमति,बिपतिजाल अति घेरो।

तापर सहि न जाय करुनानिधि, मनको दुसह दरेरो ॥ ७ ॥ 


हारि पर् यो करि जतन बहुत बिधि, तातें कहत सबेरो।

तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हृदय करहु तुम डेरो ॥ ८ ॥ 


            १४४


सो धौ को जो नाम-लाज ते, नहिं राख्यो रघुबीर।

कारुनीक बिनु कारन ही हरि हरी सकल भव-भीर ॥ १ ॥ 


बेद-बिदित,जग-बिदित अजामिल बिप्रबंधु अघ-धाम।

घोर जमालय जात निवार् यो सुत-हित सुमिरत नाम ॥ २ ॥ 


पसु पामर अभिमान-सिंधु गज ग्रस्यो आइ जब ग्राह।

सुमिरत सकृत सपदि आये प्रभु, हर् यो दुसह उर दाह ॥ ३ ॥ 


ब्याध,निषाद,गीध,गनिकादिक, अगनित औगुन-मूल।

नाम-औटतें राम सबनिकी दूरि करी सब सूल ॥ ४ ॥ 


केहि आचरन घाटि हौं तिनतें, रघुकुल-भूषन भूप।

सीदत तुलसिदास निसिबासर पर् यो भीम तम-कूप ॥ ५ ॥ 


           १४५


कृपासिंधु! जन दीन दुवारे दादि न पावत काहे।

जब जहँ तुमहिं पुकारत आरत, तहँ तिन्हके दुख दाहे ॥ १ ॥ 


गज,प्रहलाद,पांडुसुत,कपि सबको रिपु-संकट मेट्यो।

प्रनत,बंधु-भय-बिकल,बिभीषन,उठि सो भरत ज्यों भेट्यो ॥ २ ॥ 


मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने बसावों।

भजन,बिबेक,बिराग,लोग भले, मैं क्रम-क्रम करि ल्यावों ॥ ३ ॥ 


सुनि रिस भरे कुटिल कामादिक, करहिं जोर बरिआई।

तिन्हहिं उजारि नारि-अरि-धन पुर राखहिं राम गुसाईं ॥ ४ ॥ 


सम-सेवा-छल-दान-दंड हौं, रचि उपाय पचि हार् यो।

बिनु कारनको कलह बड़ो दुख, प्रभुसों प्रगटि पुकार् यो ॥ ५ ॥ 


सुर स्वारथी,अनीस,अलायक,निठुर,दया चित नाहीं।

जाउँ कहाँ, को बिपति-निवारक, भवतारक जग माही ॥ ६ ॥ 


तुलसी जदपि पोच,तउ तुम्हरो, और न काहु केरो।

दीजै भगति-बाँह बारक, ज्यों सुबस बसै अब खेरो ॥ ७ ॥ 


            १४६


हौं सब बिधि राम, रावरो चाहत भयो चेरो।

ठौर ठौर साहबी होत है, ख्याल काल कलि केरो ॥ १ ॥ 


काल-करम-इंद्रिय,बिषय गाहकगन घेरो।

हौं न कबूलत, बाँधि कै मोल करत करेरो ॥ २ ॥ 


बंदि-छोर तेरो नाम है, बिरुदैत बड़ेरो।

मैं कह्यो, तब छल-प्रीति कै माँगे उर डेरो ॥ ३ ॥ 


नाम-ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो।

अब गरीब जन पोषिये पाइबो न हेरो ॥ ४ ॥ 


जेहि कौतुक बक/खग स्वानको प्रभु न्याव निबेरो।

तेहि कौतुक कहिये कृपालु! 'तुलसी है मेरो' ॥ ५ ॥ 


            १४७


कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन मन मारे।

महाराज! लाज आपुही निज जाँघ उघारे ॥ १ ॥ 


मिले रहैं, मार् यौ चहै कामादि संघाती।

मो बिनु रहै न, मेरियै जारैं छल छाती ॥ २ ॥ 


बसत हिये हित जानि मैं सबकी रुचि पाली।

कियो कथकको दंड हौं जड़ करम कुचाली ॥ ३ ॥ 


देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी।

करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी ॥ ४ ॥ 


बड़े अलेखी लखि परै, परिहरै न जाहीं।

असमंजसमें मगन हौं, लीजै गहि बाहीं ॥ ५ ॥ 


बारक बलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को।

अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको ॥ ६ ॥ 


           १४८


कहौ कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसाई।

सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई ॥ १ ॥ 


सेवत बस,सुमिरत सखा, सरनागत सो हौं।

गुनगन सीतानाथके चित करत न हौं हौं ॥ २ ॥ 


कृपासिंधु बंधु दीनके आरत-हितकारी।

प्रनत-पाल बिरुदावली सुनि जानि बिसारी ॥ ३ ॥ 


सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद-प्रीति सुधारी।

पाइ सुसाहिब राम सों, भरि पेट बिगारी ॥ ४ ॥ 


नाथ गरीबनिवाज हैं,मैं गही न गरीबी।

तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी ॥ ५ ॥ 


          १४९


कहाँ जाउँ, कासों कहौं, और ठौर न मेरे।

जनम गँवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे ॥ १ ॥ 


मै तौ बिगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें।

तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी-सी कीन्हें ॥ २ ॥ 


दिन-दुरदिन दिन-दुरदसा, दिन-दुख दिन-दूषन।

जब लौं तू न बिलोकिहै रघुबंस-बिभूषन ॥ ३ ॥ 


दई पीठ बिनु डीठ मैं तुम बिस्व बिलोचन।

तो सों तुही न दूसरो नत-सोच-बिमोचन ॥ ४ ॥ 


पराधीन देव दीन हौं,स्वाधीन गुसाईं।

बोलनिहारे सों करै बलि बिनयकी झाई ॥ ५ ॥ 


आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो।

बड़ी ओट रामनामकी जेहि लई सो बाँचो ॥ ६ ॥ 


रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है।

ज्यों भावै त्यों करु कृपा तेरो तुलसी है ॥ ७ ॥ 


          १५०


रामभद्र! मोहिं आपनो सोच है अरु नाहीं।

जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं ॥ १ ॥ 


नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ।

तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ ॥ २ ॥ 


बड़ी गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं।

कूर कुसेवक कहत हौं सेवककी नाई ॥ ३ ॥ 


भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी।

बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी ॥ ४ ॥ 


असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै।

दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझै ॥ ५ ॥ 


बिरुदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौं।

तुलसी प्रभुको परिहर् यो सरनागत सो हौं ॥ ६ ॥ 


            १५१


जो पै चेराई रामकी करतो न लजातो।

तौ तू दाम कुदाम ज्यों कर-कर न बिकातो ॥ १ ॥ 


जपत जीह रघुनाथको नाम नहिं अलसातो।

बाजीगरके सूम ज्यों खल खेह न खातो ॥ २ ॥ 


जौ तू मन! मेरे कहे राम-नाम कमातो।

सीतापति सनमुख सुखी सब ठाँव समातो ॥ ३ ॥ 


राम सोहाते तोहिं जौ तू सबहिं सोहातो।

काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो ॥ ४ ॥ 


राम-नाम अनुरागही जिय जो रतिआतो।

स्वारथ-परमारथ-पथी तोहिं सब पतिआतो ॥ ५ ॥ 


सेइ साधु सुनि समुझि कै पर-पीर पिरातो।

जनम कोटिको काँदले हृद-हृदय थिरातो ॥ ६ ॥ 


भव-मग अगम अनंत है, बिनु श्रमहि सिरातो।

महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो ॥ ७ ॥ 


अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो।

होतो मंगल-मूल तू, अनुकूल बिधातो ॥ ८ ॥ 


जो मन-प्रीति-प्रतीतिसों राम-नामहिं रातो।

               नसातो

तुलसी रामप्रसादसों तिहुँताप ------- ॥ ९ ॥ 


               नसातो

            १५२


राम भलाई आपनी भल कियो न काको।

जुग जुग जानकीनाथको जग जागत साको ॥ १ ॥ 


ब्रह्मादिक बिनती करी कहि दुख बसुधाको।

रबिकुल-कैरव-चंद भो आनंद-सुधाको ॥ २ ॥ 


कौसिक गरत तुषार ज्यों तकि तेज तियाको।

प्रभु अनहित हित को दियो फल कोप कृपाको ॥ ३ ॥ 


हर् यो पाप आप जाइकै संताप सिलाको।

सोच-मगन काढ्यो सही साहिब मिथिलाको ॥ ४ ॥ 


रोष-रासि भृगुपति धनी अहमिति ममताको।

चितवत भाजन करि लियो उपसम समताको ॥ ५ ॥ 


मुदित मानि आयसु चले बन मातु-पिताको।

धरम-धुरंधर धीरधुर गुन-सील-जिता को ? ॥ ६ ॥ 


गुह गरीब गतग्याति हू जेहि जिउ न भखा को ?

पायो पावन प्रेम ते सनमान सखाको ॥ ७ ॥ 


सदगति सबरी गीधकी सादर करता को ?

सोच-सींव सुग्रीवके संकट-हरता को ? ॥ ८ ॥ 


            अस काल-गहा

राखि बिभीषनको सकै ----------- को ?

            तेहि काल कहाँ

आज बिराजत राज है दसकंठ जहाँको ॥ ९ ॥ 


बालिस बासी अवधको बूझिये न खाको।

सो पाँवर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि-मन थाको ॥ १० ॥ 


गति न लहै राम-नामसों बिधि सो सिरिजा को ?

सुमिरत कहत प्रचारि कै बल्लभ गिरिजाको ॥ ११ ॥ 


अकनि अजामिलकी कथा सानंद न भा को ?

नाम लेत कलिकालहू हरिपुरहिं न गा को ? ॥ १२ ॥ 


राम-नाम-महिमा करै काम-भुरुह आको।

साखी बेद पुरान है तुलसी-तन ताको ॥ १३ ॥ 


         १५३


मेरे रावरियै गति है रघुपति बलि जाउँ ।

निलज नीच निरधन निरगुन कहँ, जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ ॥ १ ॥ 


है घर-घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ ।

बानर-बंधु बिभीषन-हितु बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ ॥ २ ॥ 


प्रनतारति- भंजन जन-रंजन, सरनागत पबि-पंजर नाउँ ।

कीजै दास दासतुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ ॥ ३ ॥ 


          १५४


देव ! दूसरो कौन दीनको दयालु ।

सीलनिधान सुजान-सिरोमनि, सरनागत-प्रिय प्रनत-पालु ॥ १ ॥ 


को समरथ सरबग्य सकल प्रभु, सिव-सनेह-मानस मरालु ।

को साहिब किये मीत प्रीतिबस खग निसिचर कपि भील भालु ॥ २ ॥ 


नाथ हाथ माया-प्रपंच सब,जीव-दोष-गुन-करम-कालु ।

तुलसिदास भलो पोच रावरो, नेकु निरखि कीजिये निहालु ॥ ३ ॥ 


         १५५


बिस्वास एक राम-नामको ।

मानत नहि परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको ॥ १ ॥ 


पढिबो पर् यो न छठी छ मत रिगु जजुर अथर्वन सामको ।

ब्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को ? ॥ २ ॥ 


करम-जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दामको ।

ग्यान बिराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह कामको ॥ ३ ॥ 


सब दिन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन-ग्रामको ।

बैठे नाम-कामतरु-तर डर कौन घोर घन घामको ॥ ४ ॥ 


को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको ।

तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलामको ॥ ५ ॥ 


          १५६


कलि नाम कामतरु रामको ।

दलनिहार दारिद दुकाल दुख, दोष घोर घन घामको ॥ १ ॥ 


नाम लेत दाहिनो होत मन,बाम बिधाता बामको ।

कहत मुनीस महेस महातम,उलटे सूधे नामको ॥ २ ॥ 


भलो लोक-परलोक तासु जाके बल ललित-ललामको ।

तुलसी जग जानियत नामते सोच न कूच मुकामको ॥ ३ ॥ 


         १५७


सेइये सुसाहिब राम सो ।

सुखद सुसील सुजान सूर सुचि, सुंदर कोटिक काम सो ॥ १ ॥ 


सारद सेस साधु महिमा कहैं, गुनगन-गायक साम सो ।

सुमिरि सप्रेम नाम जासों रति चाहत चंद्र-ललाम सो ॥ २ ॥ 


गमन बिदेस न लेस कलेसको,सकुचत सकृत प्रनाम सो ।

साखी ताको बिदित बिभीषन, बैठो है अबिचल धाम सो ॥ ३ ॥ 


टहल सहल जन महल-महल,जागत चारो जुग जाम सो ।

देखत दोष न रीझत ,रीझत सुनि सेवक गुन-ग्राम सो ॥ ४ ॥ 


जाके भजे तिलोक-तिलक भये,त्रिजग जोनि तनु तामसो ।

तुलसी ऐसे प्रभुहिं भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो ॥ ५ ॥ 


           राग नट

            १५८


कैसे देउँ नाथहिं खोरि ।

काम-लोलुप भ्रमत मन हरि भगति परिहरि तोरि ॥ १ ॥ 


बहुत प्रीति पुजाइबे पर, पूजिबे पर थोरि।

देत सिख सिखयो न मानत,मूढ़ता असि मोरि ॥ २ ॥ 


किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखे चोरि ।

संग-बस किये सुभ सुनाये सकल लोक निहोरि ॥ ३ ॥ 


करौं जो कछु धरौं सचि-पचि सुकृत-सिला बटोरि ।

पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि ॥ ४ ॥ 


लोभ मनहिं नचाव कपि ज्यों, गरे आसा-डोरि ।

बात कहौं बनाइ बुध ज्यों, बर बिराग निचोरि ॥ ५ ॥ 


एतेहुँ पर तुम्हरो कहावत,लाज अँचई घोरि ।

निलजता पर रीझि रघुबर, देहु तुलसिहिं छोरि ॥ ६ ॥ 


         १५९


है प्रभु ! मेरोई सब दोसु ।

सीलसींधु कृपालु नाथ अनाथ आरत-पोसु ॥ १ ॥ 


बेष बचन बिराग मन अघ अवगुननिको कोसु ।

राम प्रीती प्रतीति पोली, कपट-करतब ठोसु ॥ २ ॥ 


राग-रंग कुसंग ही सों, साधु-संगति रोसु ।

चहत केहरि-जसहिं सेइ सृगाल ज्यों खरगोसु ॥ ३ ॥ 


संभु-सिखवन रसन हूँ नित राम-नामहिं घोसु ।

दंभहू कलि नाम कुंभज सोच-सागर-सोसु ॥ ४ ॥ 


मोद-मंगल-मूल अति अनुकूल निज निरजोसु ।

रामनाम प्रभाव सुनि तुलसिहुँ परम परितोसु ॥ ५ ॥ 


         १६०


मैं हरि पतित-पावन सुने ।

मैं पतित तुम पतित-पावन दोउ बानक बने ॥ १ ॥ 


ब्याध गनिका गज अजामिल साखि निगमनि भने ।

और अधम अनेक तारे जात कापै गने ॥ २ ॥ 


जानि नाम अजानि लीन्हें नरक सुरपुर मने ।

दासतुलसी सरन आयो, राखिये आपने ॥ ३ ॥ 


        राग मलार

         १६१


तों सों प्रभु जो पै कहुँ कोउ होतो ।

तो सहि निपट निरादर निसिदिन, रटि लटि ऐसो घटि को तो ॥ १ ॥ 


कृपा-सुधा-जलदान माँगिबो कहाँ सो साँच निसोतो ।

स्वाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सो पोतो ॥ २ ॥ 


काल-करम-बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो ।

ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो ॥ ३ ॥ 


जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो ।

तेरे राज राय दसरथके, लयो बयो बिनु जोतो ॥ ४ ॥ 


         रागसोरठ

         १६२


ऐसो को उदार जग माहीं ।

बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं ॥ १ ॥ 


जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी ।

सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी ॥ २ ॥ 


जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं ।

सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्ही ॥ ३ ॥ 


तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो ।

तौ भजु राम, काम सब पूरन करै कृपानिधि तेरो ॥ ४ ॥ 


               १६३


एकै दानि-सिरोमनि साँचो।

जोइ जाच्यो सोइ जाचकताबस, फिरि बहु नाच न नाचो ॥ १ ॥ 


सब स्वारथी असुर सुर नर मुनि कोउ न देत बिनु पाये।

कोसलपालु कृपालु कलपतरु,द्रवत सकृत सिर नाये ॥ २ ॥ 


हरिहु और अवतार आपने, राखी बेद-बड़ाई।

लै चिउरा निधि दई सुदामहिं जद्यपि बाल मिताई ॥ ३ ॥ 


कपि सबरी सुग्रीव बिभीषन, को नहिं कियो अजाची।

अब तुलसिहि दुख देति दयानिधि दारून आस-पिसाची ॥ ४ ॥ 


               १६४


जानत प्रीति-रीति रघुराई।

नाते सब हाते करी राखत राम सनेह-सगाई ॥ १ ॥ 


नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई।

ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई ॥ २ ॥ 


तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई।

रन पर् यो बंधु बिभीषन ही को, सोच हृदय अधिकाई ॥ ३ ॥ 


घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे,भइ जब जहँ पहुनाई।

                                            तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई ॥ ४ ॥ 


सहज सरूप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई।

केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ॥ ५ ॥ 


प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई।

तेरो रिनी हौं कह्यो कपि सों ऐसी मानही को सेवकाई ॥ ६ ॥ 


तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भगति उर आई।

तौ तोहिं जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई ॥ ७ ॥ 


               १६५


रघुबर! रावरि यहै बड़ाई।

निदरि गनी आदर गरीबपर ,करत कृपा अधिकाई ॥ १ ॥ 


थके देव साधन करि सब, सपनेहु नहिं देत दिखाई।

केवट कुटिल भालु कपि कौनप, कियो सकल संग भाई ॥ २ ॥ 


मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक बन, सो चरचौ न चलाई।

बारहि बार गीध सबरीकी बरनत प्रीति सुहाई ॥ ३ ॥ 


स्वान कहे तें कियो पुर बाहिर, जती गयंद चढ़ाई।

तिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नय नगर बसाई ॥ ४ ॥ 


यहि दरबार दीनको आदर, रीति सदा चलि आई।

दीनदयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरति कराई ॥ ५ ॥ 


                १६६


ऐसे राम दीन-हितकारी।

अतिकोमल करुनानिधान बिनु कारन पर-उपकारी ॥ १ ॥ 


साधन-हीन दीन निज अघ-बस, सिला भई मुनि-नारी।

गृहतें गवनि परसि पद पावन घोर सापतें तारीं।२ ॥ 


हिंसारत निषाद तामस बपु, पसु-समान बनचारी।

भेंट्यो हृदय लगाइ प्रेमबस, नहिं कुल जाति बिचारी ॥ ३ ॥ 


जद्यपि द्रोह कियो सुरपति-सुत, कह न जाय अति भारी।

सकल लोक अवलोकि सोकहत, सरन गये भय टारी ॥ ४ ॥ 


बिहँग जोनि आमिष अहार पर, गीध कौन ब्रतधारी।

जनक-समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति सँवारी ॥ ५ ॥ 


अधम जाति सबरी जोषित जड़, लोक-बेद तें न्यारी।

जानि प्रीति, दै दरस कृपानिधि, सोउ रघुनात उधारी ॥ ६ ॥ 


कपि सुग्रीव बंधु-भय-ब्याकुल आयो सरन पुकारी।

सहि न सके दारुन दुख जनके, हत्यो बालि,सहि गारी ॥ ७ ॥ 


रिपुको अनुज बिभीषन निशिचर, कौन भजन अधिकारी।

सरन गये आगे ह्वे लीन्हौं भेट्यो भुजा पसारी ॥ ८ ॥ 


असुभ होइ जिनके सुमिरे ते बानर रीछ बिकारी।

बेद-बिदित पावन किये ते सब, महिमा नाथ! तुम्हारी ॥ ९ ॥ 


कहँ लगि कहौं दीन अगनित जिन्हकी तुम बिपति निवारी।

कलिमल-ग्रसित दासतुलसीपर, काहे कृपा बिसारी ? ॥ १० ॥ 


                १६७


रघुपति-भगति करत कठिनाई।

कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई ॥ १ ॥ 


जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी।

सफरी सनमुख जल-प्रवाह सुरसरी बहै गज भारी ॥ २ ॥ 


ज्यों सर्करा मिलै सिकता महँ, बलतें न कोउ बिलगावै।

अति रसस्य सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै ॥ ३ ॥ 


सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवे निद्रा तजि जोगी।

सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्वैत-बियोगी ॥ ४ ॥ 


सोक मोह भय हरष दिवस-निसि देस-काल तहँ नाहीं।

तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीं ॥ ५ ॥ 


              १६८


 जो पै राम-चरन-रति होती।

तौ कत त्रिबिध सूल निसिबासर सहते बिपति निसोती ॥ १ ॥ 


जो संतोष-सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुकँ पावै।

तौ कत बिषय बिलोकि झूँठ जल मन-कुरंग ज्यों धावै ॥ २ ॥ 


जो श्रीपति-महिमा बिचारि उर भजते भाव बढ़ाए।

तौ कत द्वार-द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए ॥ ३ ॥ 


जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे।

प्रभु-बिस्वास आस जीती जिन्ह, ते सेवक हरि केरे ॥ ४ ॥ 


नहिं एकौ आचरन भजनको, बिनय करत हौं ताते।

कीजै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते ॥ ५ ॥ 


              १६९


जो मोही राम लागते मीठे।

तौ नवरस षटरस-रस अनरस ह्वे जाते सब सीठे ॥ १ ॥ 


बंचक बिषय बिबिध तनु धरि अनुभवे सुने अरु डीठे।

यह जानत हौं हृदय आपने सपने न अघाइ उबीठे ॥ २ ॥ 


तुलसिदास प्रभु सों एहि बल बचन कहत अति ढीठे।

नामकी लाज राम करुनाकर केहि न दिये कर चीठे ॥ ३ ॥ 


               १७०


यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो।

ज्यों छल छाँड़ि सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो ॥ १ ॥ 


ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके।

त्यों न साधु, सुरसरि-तरंग-निरमल गुनगन रघुबरके ॥ २ ॥ 


ज्यों नासा सुगंधरस-बस, रसना षटरस-रति मानी।

राम-प्रसाद-माल जूठन लगि त्यों न ललकि ललचानी ॥ ३ ॥ 


चंदन-चंदबदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो।

त्यों रघुपति-पद-पदुम-परस को तनु पातकी न तरस्यो ॥ ४ ॥ 


ज्यों सब भाँती कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ।

त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ ॥ ५ ॥ 


चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार-द्वार जग बागे।

राम-सीय-आस्रमनि चलत त्यों भये न स्रमित अभागे ॥ ६ ॥ 


सकल अंग पद-बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है।

है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु-मूरति कृपामई है ॥ ७ ॥ 


            १७१


कीजै मोको जमजातनामई।

राम! तुमसे सुचि सुहृद साहिबहिं ,मैं सठ पीठि दई ॥ १ ॥ 


गरभबास दस मास पालि पितु-मातु-रूप हित कीन्हों।

जड़हि बिबेक,सुसील खलहिं, अपराधहिं आदर दीन्हों ॥ २ ॥ 


कपट करौं अंतरजामिहुँ सों, अघ ब्यापकहिं दुरावौं।

ऐसेहु कुमति कुसेवक पर रघुपति न कियो मन बावौं ॥ ३ ॥ 


उदर भरौं कोंकर कहाइ बेंच्यौं बिषयनि हाथ हियो है।

मोसे बंचकको कृपालु छल छाँड़ि कै छोह कियो है ॥ ४ ॥ 


पल-पलके उपकार रावरे जानि बूझी सुनि नीके।

भिद्यो न कुलिसहुँ ते कठोर चित कबहुँ प्रेम सिय-पीके ॥ ५ ॥ 


स्वामीकी सेवक-हितता सब, कछु निज साँई-द्रोहाई।

मैं मति-तुला तौलि देखी भइ मेरेहि दिसि गरूआई ॥ ६ ॥ 


एतेहु पर हित करत नाथ मेरो, करि आये, अरु करिहैं।

तुलसी अपनी ओर जानियत प्रभुहि कनौड़ो भरिहैं ॥ ७ ॥ 


                १७२


कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।

श्रीरघुनाथ-कृपालु-कृपातें संत-सुभाव गहौंगो ॥ १ ॥ 


जथालाभसंतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।

पर-हित-निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो ॥ २ ॥ 


परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो।

बिगत मान, सम शीतल मन, परगुन नहिं दोष कहौंगो ॥ ३ ॥ 


परहरि देह-जनित चिंता, दुख-सुख समबुद्धि सहौंगो।

तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि-भगति लहौंगो ॥ ४ ॥ 


             १७३


नाहिंन आवत आन भरोसो।

यहि कलिकाल सकल साधनतरु है स्रम-फलनि फरो सो ॥ १ ॥ 


तप,तीरथ,उपवास,दान,मख जेहि जो रुचै करो सो।

पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि-भरि बेद परोसो ॥ २ ॥ 


आगम-बिधि जप-जग करत नर सरत न काज खरो सो।

सुख सपनेहु न जोग-सिधि-साधन, रोग बियोग धरो सो ॥ ३ ॥ 


काम, क्रोध,मद,लोभ,मोह मिलि ग्यान बिराग हरो सो।

बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम घरो सो ॥ ४ ॥ 


बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो।

गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोंहि लगत राज-डगरो सो ॥ ५ ॥ 


तुलसी बिनु परतीती प्रीति फिरि-फिरि पचि मरै मरो सो।

रामनाम-बोहित भव-सागर चाहै तरन तरो सो ॥ ६ ॥ 


              १७४


जाके प्रिय न राम-बैदेही।

तजिये ताहि

-------- कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही ॥ १ ॥ 


सो छाँड़िये

तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।

बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी ॥ २ ॥ 


नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लों।

अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं ॥ ३ ॥ 


तुलसि सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।

जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ॥ ४ ॥ 


              १७५


       रहनि

जो पै -----रामसों नाहीं।

      लगन

तौ नर खर कूकर सूकर सम बृथा जियत जग माहीं ॥ १ ॥ 


काम,क्रोध,मद,लोभ,नींद,भय,भूख,प्यास सबहीके।

मनुज देह सुर-साधु सराहत, सो सनेह सिय-पीके ॥ २ ॥ 


सूर,सुजान,सुपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुआई।

बिनु हरिभजन इँदारुनके फल तजत नहीं करुआई ॥ ३ ॥ 


कीरति, कुल करतूति, भूति भलि, सील, सरूप सलोने।

तुलसी प्रभु-अनुराग-रहित जस सालन साग अलोने ॥ ४ ॥ 


              १७६


राख्यो राम सुस्वामी सों नीच नेह न नातो। एते अनादर हूँ तोहि ते न हातो ॥ १ ॥ 


जोरे नये नाते नेह फोकट फीके। देहके दाहक, गाहक जीके ॥ २ ॥ 


अपने अपनेको सब चाहत नीको। मूल दुहुँको दयालु दूलह सीको ॥ ३ ॥ 


जीवको जीवन प्रानको प्यारो। सुखहूको सूख रामसो बिसारो ॥ ४ ॥ 


कियो करैगो तोसे खलको भलो। ऐसे सुसाहब सों तू कुचाल क्यौं चलो ॥ ५ ॥ 


तुलसी तेरी भलाई अजहूँ बूझै। राढ़उ राउत होत फिरिकै जूझै ॥ ६ ॥ 


               १७७


जो तुम त्यागों राम हौं तौं नहीं त्यागो। परिहरि पाँय काहि अनुरागों ॥ १ ॥ 


सुखद सुप्रभु तुम सो जगमाहीं। श्रवन-नयन मन गोचर नाहीं ॥ २ ॥ 


हौं जड़ जीव,ईस रघुराया। तुम मायापति,हौं बस माया ॥ ३ ॥ 


हौं तो कुजाचक,स्वामी सुदाता। हौं कुपूत, तुम हितु पितु-माता ॥ ४ ॥ 


जो पै कहुँ कोउ बूझत बातो। तौ तुलसी बिनु मोल बिकातो ॥ ५ ॥ 


                १७८


भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी।

आरत स्वारथी सब कहैं बात बावरी ॥ १ ॥ 


जीवनको दानी घन कहा ताहि चाहिये।

प्रेम नेमके निबाहे चातक सराहिये ॥ २ ॥ 


मीनतें न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको।

जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको ॥ ३ ॥ 


बड़े ही की ओट बलि बाँचि आये छोटे हैं।

चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे हैं ॥ ४ ॥ 


यहि दरबार भलो दाहिनेहु-बामको।

मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको ॥ ५ ॥ 


कहत नसानी ह्वे ह्वे हिये नाथ नीकी है।

जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है ॥ ६ ॥ 


          राग बिलावल

          १७९


कहाँ जाउँ, कासों कहौ, कौन सुनै दीनकी।

त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी ॥ १ ॥ 


जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैं।

निराधारके अधार गुनगन तेरे हैं ॥ २ ॥ 


गजराज-काज खगराज तजि धायो को।

मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को ॥ ३ ॥ 


मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके।

किये बहुमोल तैं करैया गीध-श्राधके ॥ ४ ॥ 


तुलसीकी तेरे ही बनाये,बलि,बनैगी।

प्रभुकी बिलंब-अंब दोष-दुख जनैगी ॥ ५ ॥ 


        १८०


बारक बिलोकि बलि कीजै मोहिं आपनो।

राय दशरथके तू उथपन-थापनो ॥ १ ॥ 


साहिब सरनपाल सबल न दूसरो।

तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो ॥ २ ॥ 


बचन करम तेरे मेरे मन गड़े हैं।

देखे सुने जाने मैं जहान जेते बड़े हैं ॥ ३ ॥ 


कौन कियो समाधान सनमान सीलाको।

भृगुनाथ सो रिषी जितैया कौन लीलाको ॥ ४ ॥ 


मातु-पितु-बन्धु-हितु, लोक-बेदपाल को।

बोलको अचल, नत करत निहाल को ॥ ५ ॥ 


संग्रही सनेहबस अधम असाधुको।

गीध सबरीको कहौ करिहै सराधु को ॥ ६ ॥ 


निराधारको अधार, दीनको दयालु को।

मीत कपि-केवट-रजनिचर-भालु को ॥ ७ ॥ 


रंक,निरगुनी,नीच जितने निवाजे हैं।

महाराज! सुजन -समाज ते बिराजे हैं ॥ ८ ॥ 


साँची बिरुदावली न बढ़ि कहि गई है।

सीलसिंधु! ढील तुलसीकी बेर भई है ॥ ९ ॥ 


              १८१


केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये।

मोको और ठौर न, सुटेक एक तेरिये ॥ १ ॥ 


सहस सिलातें अति जड़ मति भई है।

कासों कहौं कौन गति पाहनिहिं दई है ॥ २ ॥ 


पद-राग-जाग चहौं कौसिक ज्यों कियो हौं।

कलि-मल खल देखि भारी भीति भियो हौं ॥ ३ ॥ 


करम-कपीस बालि-बली, त्रास-त्रस्यो हौं।

चाहत अनाथ-नाथ! तेरी बाँह बस्यो हौं ॥ ४ ॥ 


महा मोह-रावन बिभीषन ज्यों हयो हौं।

त्राहि, तुलसीस! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं ॥ ५ ॥ 


             १८२


नाथ ! गुननाथ सुनि होत चित चाउ सो।

राम रीझिबेको जानौं भगति न भाउ सो ॥ १ ॥ 


करम,सुभाउ,काल, ठाकुर न ठाउँ सो।

सुधन न, सुतन न,सुमन, सुआउ सो ॥ २ ॥ 


जाँचौं जल जाहि कहै अमिय पियाउ सो।

कासों कहौं काहू सों न बढ़त हियाउ सो ॥ ३ ॥ 


बाप! बलि जाऊँ, आप करिये उपाउ सो।

तेरे ही निहारे परै हारेहू सुदाउ सो ॥ ४ ॥ 


तेरे ही सुझाये सूझै असुझ सुझाउ सो।

तेरे ही बुझाये बूझै अबुझ बुझाउ सो ॥ ५ ॥ 


नाम अवलंबु-अंबु दीन मीन-राउ सो।

प्रभुसों बनाइ कहौं जीह जरि जाउ सो ॥ ६ ॥ 


सब भाँति बिगरी है एक सुबनाउ-सो।

तुलसी सुसाहिबहिं दियो है जनाउ सो ॥ ७ ॥ 


           राग आसावरी

            १८३


      राम! प्रीतिकी रीति आप नीके जनियत है।

बड़े की बड़ाई, छोटे की छोटाई दूरि करै,

      ऐसी बिरुदावली, बलि, बेद मनियत है ॥ १ ॥ 


गीधको कियो सराध, भीलनीको खायो फल,

      सोऊ साधु-सभा भलीभाँति भनियत है।

रावरे आदरे लोक बेद हूँ आदरियत,

      जोग ग्यान हूँ तें गरू गनियत है ॥ २ ॥ 


प्रभुकी कृपा कृपालु! कठिन कलि हूँ काल,

      महिमा समुझि उर अनियत है।

तुलसी पराये बस भये रस अनरस,

      दीनबंधु! द्वारे हठ ठनियत है ॥ ३ ॥ 


             १८४


      राम-नामके जपे जाइ जियकी जरनि।

कलिकाल अपर उपाय ते अपाय भये,

      जैसे तम नासिबेको चित्रके तरनि ॥ १ ॥ 


करम-कलाप परिताप पाप-साने सब,

      ज्यों सुफूल फूले तरु फोकट फरनि।

दंभ,लोभ,लालच,उपासना बिनासि नीके,

      सुगति साधन भई उदर भरनि ॥ २ ॥ 


जोग न समाधि निरुपाधि न बिराग-ग्यान,

      बचन बिशेष बेष, कहूँ न करनि।

कपट कुपथ कोटि, कहनि-रहनि खोटि,

 सकल सराहैं निज निज आचरनि ॥ ३ ॥ 


मरत महेस उपदेस हैं कहा करत,

 सुरसरि-तीर कासी धरम-धरनि।

राम-नामको प्रताप हर कहैं, जपैं आप,

 जुग जुग जानैं जग, बेदहूँ बरनि ॥ ४ ॥ 


मति राम-नाम ही सों, रति राम-नाम ही सों,

 गति राम नाम ही की बिपति-हरनि।

राम-नामसों प्रतीति प्रीति राखे कबहुँक,

तुलसी ढरैंगे राम आपनी ढरनि ॥ ५ ॥ 


                 १८५


लाज न लागत दास कहावत।

सो आचरन बिसारि सोच तजि, जो हरि तुम कहँ भावत ॥ १ ॥ 


सकल संग तजि भजत जाहि मुनि, जप तप जाग बनावत।

मो-सम मंद महाखल पाँवर, कौन जतन तेहि पावत ॥ २ ॥ 


हरि निरमल, मलग्रसित हृदय, असमंजस मोहि जनावत।

जेहि सर काक कंक बक सूकर, क्यों मराल तहँ आवत ॥ ३ ॥ 


जाकी सरन जाइ कोबिद दारुन त्रयताप बुझावत।

तहूँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहुँ मिटत न सावत ॥ ४ ॥ 


भव-सरिता कहँ नाउ संत, यह कहि औरनि समुझावत।

हौं तिनसों हरि! परम बैर करि ,तुम सों भलो मनावत ॥ ५ ॥ 


नाहिंन और ठौर मो कहँ, ताते हठि नातो लावत।

राखु सरन उदार-चूड़ामनि! तुलसिदास गुन गावत ॥ ६ ॥ 


            १८६


कौन जतन बिनती करिये।

निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये ॥ १ ॥ 


जेहि साधन हरि! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये।

जाते बिपति-जाल निसिदिन दुख,तेहि पथ अनसरिये ॥ २ ॥ 


जानत हूँ मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।

सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये ॥ ३ ॥ 


श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये।

निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये ॥ ४ ॥ 


संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जातें भवनिधि परिये।

कहौं अब नाथ, कौन बलतें संसार-सोग हरिये ॥ ५ ॥ 


जब कब निज करुना-सुभावतें, द्रवहु तौ निस्तरिये।

तुलसिदास बिस्वास आनि नहिं, कत पचि-पचि मरिये ॥ ६ ॥ 


            १८७


ताहि तें आयो सरन सबेरें।

ग्यान बिराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरें ॥ १ ॥ 


लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन घेरें।

तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें ॥ २ ॥ 


दोष-निलय यह बिषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति टेरें।

जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरें ? ॥ ३ ॥ 


बिष पियूष सम करहु अगिनि हिम, तारि सकहु बिनु बेरें।

तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाइहौं हेरें ॥ ४ ॥ 


यह जिय जानि रहौं सब तजि रघुबीर भरोसे तेरें।

तुलसिदास यह बिपति बागुरौ तुम्हहिं सों बनै निबेरें ॥ ५ ॥ 


           १८८


मैं तोहिं अब जान्यो संसार।

बाँधि न सकहिं मोहि हरिके बल,प्रगट कपट-आगार ॥ १ ॥ 


देखत ही कमनीय, कछू नाहिंन पुनि किये बिचार।

ज्यों कदलीतरु-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार ॥ २।


तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायों पार।

महामोह-मृगजल-सरिता महँ बोर् यो हौं बारहिं बार ॥ ३ ॥ 


सुनु खल! छल बल कोटि किये बस होहिं न भगत उदार।

सहित सहाय तहाँ बसि अब ,जेहि हृदय न नंदकुमार ॥ ४ ॥ 


तासों करहु चातुरी जो नहिं जानै मरम तुम्हार।

सो परि डरै मरै रजु-अहि तें, बूझै नहिं ब्यवहार ॥ ५ ॥ 


निज हित सुनु सठ!हठ न करहि,जो चहहि कुसल परिवार।

तुलसिदास प्रभुके दासनि तजि भजहि जहाँ मद मार ॥ ६ ॥ 


            राग गौरी

            १८९


राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे।

नाहिं तौ भव-बेगारि महँ परिहै, छूटत अति कठिनाई रे ॥ १ ॥ 


बाँस पुरान साज-सब अठकठ, सरल तिकोन खटोला रे।

हमहिं दिहल करि कुटिल करमचँद मंद मोल बिनु डोला रे ॥ २ ॥ 


बिषम कहार मार-मद-माते चलहिं न पाउँ बटोरा रे।

मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझौरा रे ॥ ३ ॥ 


काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे।

जस जस चलिय दूरि तस तस निज बास न भेंट लगाऊ रे ॥ ४ ॥ 


मारग अगम, संग नहिं संबल,नाउँ गाउँकर भूला रे।

तुलसिदास भव त्रास हरहु अब ,होहु राम अनुकूला रे ॥ ५ ॥ 


             १९०


सहज सनेही रामसों तैं कियो न सहज सनेह।

तातें भव-भाजन भयो,सुनु अजहुँ सिखावन एह ॥ १ ॥ 


ज्यों मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित न रहै अनुहारि।

त्यों सेवतहुँ न आपने, ये मातु-पिता, सुत-नारि ॥ २ ॥ 


दै दै सुमन तिल बासिकै, अरु खरि परिहरि रस लेत।

स्वारथ हित भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत ॥ ३ ॥ 


करि बीत्यो, अब करतु है करिबे हित मीत अपार।

कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार ॥ ४ ॥ 


जासों सब नातों फुरै, तासों न करी पहिचानि।

तातें कछू समझ् यो नहीं, कहा लाभ कह हानि ॥ ५ ॥ 


साँचो जान्यो झूठको,झूठे कहँ साँचो जानि।

को न गयो, को जात है,को न जैहै करि हितहानि ॥ ६ ॥ 


बेद कह्यो, बुध कहत हैं, अरु हौहुँ कहत हौं टेरि।

तुलसी प्रभु साँचो हितू, तू हियकी आँखिन हेरि ॥ ७ ॥ 


           १९१


एक सनेही साचिलो केवल कोसलपालु।

प्रेम-कनोड़ो रामसो नहिं दूसरो दयालु ॥ १ ॥ 


तन-साथी सब स्वारथी, सुर ब्यवहार-सुजान।

आरत-अधम-अनाथ हित को रघुबीर समान ॥ २ ॥ 


नाद निठूर, समचर सिखी, सलिल सनेह न सूर।

ससि सरोग, दिनकरुबड़े, पयद प्रेम-पथ कूर ॥ ३ ॥ 


जाको मन जासों बँध्यो, ताको सुखदायक सोइ।

सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ ॥ ४ ॥ 


सुनि सेवा सही को करै, परिहरै को दूषन देखि।

केहि दिवान दिन दीन को आदर-अनुराग बिसेखि ॥ ५ ॥ 


खग-सबरी पितु-मातु ज्यों माने, कपि को किये मीत।

केवट भेंट्यों भरत ज्यो, ऐसो को कहु पतित-पुनीत ॥ ६ ॥ 


देह अभागहिं भागु को, को राखै सरन सभीत।

बेद-बिदित विरुदावली, कबि-कोबिद गावत गीत ॥ ७ ॥ 


कैसेउ पाँवर पातकी, जेहि लई नामकी ओट।

गाँठी बाँध्यो दाम तो, परख्यो न फेरि खर-खोट ॥ ८ ॥ 


मन मलीन, कलि किलबिषी होत सुनत जासु कृत-काज।

सो तुलसी कियो आपुनो रघुबीर गरीब-निवाज ॥ ९ ॥ 


           १९२


जो पै जानकिनाथ सों नातो नेहु न नीच।

स्वारथ-परमारथ कहा, कलि कुटिल बिगोयो बीच ॥ १ ॥ 


धरम बरन आश्रमनिके पैयत पोथिही पुरान।

करतब बिनु बेष देखिये, ज्यों सरीर बिनु प्रान ॥ २ ॥ 


      बिहित

बेद-----साधन सबै, सुनियत दायक फल चारि।

 बिदित

राम प्रेम बिनु जानिबो जैसे सर-सरिता बिनु बारि ॥ ३ ॥ 


नाना पथ निरबानके, नाना बिधान बहु भाँति।

तुलसी तू मेरे कहे जपु राम-नाम दिन-राति ॥ ४ ॥ 


           १९३


अजहुँ आपने रामके करतब समुझत हित होइ।

कहँ तू,कहँ कोसलधनी, तोको कहा कहत सब कोइ ॥ १ ॥ 


रीझि निवाज्यो कबहिं तू, कब खीझि दई तोहिं गारि।

दरपन बदन निहारिकै, सुबिचारि मान हिय हारि ॥ २ ॥ 


बिगरी जनम अनेककी सुधरत पल लगै न आधु।

'पाहि कृपानिधि' प्रेमसों कहे को न राम कियो साधु ॥ ३ ॥ 


बालमीकि-केवट-कथा, कपि-भील-भालु-सनमान।

सुनि सनमुख जो न रामसों, तिहि को उपदेसहि ग्यान ॥ ४ ॥ 


का सेवा सुग्रीवकी, का प्रीति-रीति-निरबाहु।

जासु बंधु बध्यो ब्याध ज्यों, सो सुनत सोहात न काहु ॥ ५ ॥ 


भजन बिभीषनको कहा, फल कहा दियो रघुराज।

राम गरीब-निवाजके बड़ी बाँह-बोलकी लाज ॥ ६ ॥ 


जपहि नाम रघुनाथको, चरचा दूसरी न चालु।

सुमुख,सुखद,साहिब,सुधी,समरथ,कृपालु,नतपालु ॥ ७ ॥ 


सजल नयन,गदगदगिरा, गहबर मन,पुलक सरीर।

गावत गुनगन रामके केहिकी न मिटी भव-भीर ॥ ८ ॥ 


प्रभु कृतग्य सरबस्य हैं,परिहरु पाछिली गलानि।

तुलसी तोसों रामसों कछु नई न जान-पहिचानि ॥ ९ ॥ 


           १९४


       जो अनुराग न राम सनेही सों।

       तौ लह्यो लाहु कहा नर-देही सों ॥ १ ॥ 


जो तनु धरि, परिहरि सब सुख, भये सुमति राम-अनुरागी।

सो तनु पाइ अघाइ किये अघ, अवगुन-उदधि अभागी ॥ २ ॥ 


ग्यान-बिराग,जोग-जप,तप-मख,जग मुद-मग नहिं थोरे।

राम-प्रेम बिनु नेम जाय जैसे मृग-जल-जलधि-हिलोरे ॥ ३ ॥ 


लोक-बिलोकि, पुरान-बेदि सुनि, समुझि-बूझि गुरु-ग्यानी।

प्रीति-प्रतीति राम-पद-पंकज सकल-सुमंगल-खानी ॥ ४ ॥ 


अजहुँ जानि जिय, मानि हारि हिय, होइ पलक महँ नीको।

सुमिरु सनेहसहित हित रामहिं, मानु मतो तुलसीको ॥ ५ ॥ 


             १९५


बलि जाउँ हौं राम गुसाईं।कीजे कृपा आपनी नाईं ॥ १ ॥ 


परमारथ सुरपुर-साधन सब स्वारथ सुखद भलाई।

कलि सकोप लोपी सुचाल, निज कठिन कुचाल चलाई ॥ २ ॥ 


जहँ जहँ चित चितवत हित, तहँ नित नव बिषाद अधिकाई।

रुचि-भावती भभरि भागहि, समुहाहिं अमित अनभाई ॥ ३ ॥ 


आधि-मगन मन, ब्याधि-बिकल तन,बचन मलीन झुठाई।

एतेहुँ पर तुमसों तुलसीकी प्रभु सकल सनेह सगाई ॥ ४ ॥ 


             १९६


काहेको फिरत मन, करत बहु जतन,

      मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर।

कीजै जो कोटि उपाइ,त्रिबिध ताप न जाइ,

      कह्यो जो भुज उठाय मुनिबर कीर ॥ १ ॥ 


सहज टेव बिसारि तुही धौं देखु बिचारि,

 मिलै न मथत बारि घृत बिनु छीर।

समुझि तजहि भ्रम, भजहि पद-जुगम,

 सेवत सुगम, गुन गहन गंभीर ॥ २ ॥ 


आगम निगम ग्रंथ, रिषि-मुनि, सुर-संत,

 सब ही को एक मत सुनु, मतिधीर।

तुलसिदास प्रभु बिनु पियास मरै पसु,

      जद्यपि है निकट सुरसरि-तीर ॥ ३ ॥ 


          १९७


नाहिन चरन-रति ताहि तें सहौं बिपति,

 कहत श्रुति सकल मुनि मतिधीर।

बसै जो ससि-उछंग सुधा-स्वादित कुरंग,

 ताहि क्यों भ्रम निरखि रबिकर-नीर ॥ १ ॥ 


सुनिय नाना पुरान, मिटत नाहिं अग्यान,

 पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर।

बँधत बिनहिं पास सेमर-सुमन-आस,

 करत चरत तेइ फल बिनु हीर ॥ २ ॥ 


कछु न साधन-सिधि, जानौं न निगम-बिधि,

 नहिं जप-तप, बस मन, न समीर।

तुलसिदास भरोस परम करुना-कोस,

      प्रभु हरिहैं बिषम भवभीर ॥ ३ ॥ 


         राग भैरवी

          १९८


मन पछितैहै अवसर बीते।

दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु ही ते ॥ १ ॥ 


सहसबाहु दसबदन आदि नृप बचे न काल बलीते।

हम-हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते ॥ २ ॥ 


सुत बनितादि जानि स्वारथरत, न करु नेह सबही ते।

अंतहु तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अबही ते ॥ ३ ॥ 


अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते।

      न

बुझे----काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषय-भोग बहु घी ते ॥ ४ ॥ 


      कि

            १९९


काहे को फिरत मूढ़ मन धायो।

तजि हरि-चरन-सरोज सुधारस, रबिकर-जल लय लायो ॥ १ ॥ 


त्रिजग देव नर असुर अपर जग जोनि सकल भ्रमि आयो।

गृह बनिता, सुत, बंधु भये बहु, मातु-पिता जिन्ह जायो ॥ २ ॥ 


जाते निरय-निकाय निरंतर, सोइ इन्ह तोहि सिखायो।

तुव हित होइ, कटै भव-बंधन, सो मगु तोहि न बतायो ॥ ३ ॥ 


अजहुँ बिषय कहँ जतन करत, जद्यपि बहुबिधि डहँकायो।

पावक-काम भोग-घृत तें सठ, कैसे परत बुझायौ ॥ ४ ॥ 


बिषयहीन दुख, मिले बिपति अति, सुख सपनेहुँ नहिं पायो।

उभय प्रकार प्रेत-पावक ज्यों धन दुखप्रद श्रुति गायो ॥ ५ ॥ 


छिन-छिन छीन होत जीवन, दुरलभ तनु बृथा गँवायो।

तुलसिदास हरि भजहि आस तजि, काल -उरग जग खायो ॥ ६ ॥ 


              २००


ताँबे सो पीठि मनहुँ तन पायो।

नीच,मीच जानत न सीस पर, ईस निपट बिसरायो ॥ १ ॥ 


अवनि रवनि, धन-धाम, सुहृद-सुत, को न इन्हहिं अपनायो ?

काके भये, गये सँग काके, सब सनेह छल-छायो ॥ २ ॥ 


जिन्ह भूपनि जग-जीति, बाँधि जम, अपनी बाँह बसायो।

तेऊ काल कलेऊ कीन्हे, तू गिनती कब आयो ॥ ३ ॥ 


देखु बिचारि, सार का साँचो,कहा निगम निजु गायो।

भजिहिं न अजहुँ समुझि तुलसी तेहि,जेहि महेस मन लायो ॥ ४ ॥ 


            २०१


लाभ कहा मानुष-तनु पाये।

काय-बचन-मन सपनेहुँ कबहुँक घटत न काज पराये ॥ १ ॥ 


जो सुख सुरपुर-नरक, गेह-बन आवत बिनहिं बुलाये।

तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन, समुझत नहिं समुझाये ॥ २ ॥ 


पर-दारा, परद्रोह, मोहबस किये मूढ़ मन भाये।

गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये ॥ ३ ॥ 


भय-निद्रा, मैथुन-अहार, सबके समान जग जाये।

सुर-दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गवाँये ॥ ४ ॥ 


गई न निज-पर-बुद्धि सुद्ध ह्वे रहे न राम-लय लाये।

तुलसिदास यह अवसर बीते का पुनि के पछिताये ॥ ५ ॥ 


            २०२


काजु कहा नरतनु धरि सार् यो।

पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचार् यो ॥ १ ॥ 


द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु टरै न टार् यौ।

रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवार् यो ॥ २ ॥ 


संसय-सिंधु नाम बोहित भजि निज आतमा न तार् यो।

जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिं हार् यो ॥ ३ ॥ 


देखि आनकि सहज संपदा द्वेष-अनल मन-जार् यो।

सम,दम,दया,दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभार् यो ॥ ४ ॥ 


प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैं मन क्रम बचन बिसार् यो।

तुलसिदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधार् यो ॥ ५ ॥ 


             २०३


श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान।

जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवान ॥ १ ॥ 


परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूरि।

जद्यपि निकट हृदय निज रहे सकल भरिपूरि ॥ २ ॥ 


दुइज द्वेत-मति छाड़ि चरहि महि-मंडल धीर।

बिगत मोह-माया-मद हृदय बसत रघुबीर ॥ ३ ॥ 


तीज त्रिगुन-पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद।

गुन सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद ॥ ४ ॥ 


चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन-चित-अहंकार।

बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार ॥ ५ ॥ 


पाँचइ पाँच परस,रस,सब्द,गंध अरु रूप।

इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप ॥ ६ ॥ 


छठ षटबरग करिय जय जनकसुता-पति लागि।

रघुपति-कृपा-बारि बिनु नहीं बुताइ लोभागि ॥ ७ ॥ 


सातैं सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार।

तेहि तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार ॥ ८ ॥ 


आठइँ आठ प्रकृति-पर निरबिकार श्रीराम।

केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम ॥ ९ ॥ 


नवमी नवद्वार-पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह।

ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारून दुख लीन्ह ॥ १० ॥ 


दसइँ दसहु कर संजम जो न करिय जिय जानि।

साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारंगपानि।११ ॥ 


एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ।

सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ ॥ १२ ॥ 


द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रेलोक।

परहित-निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक ॥ १३ ॥ 


तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत।

मन-क्रम-बचन-अगोचर, ब्यापक, ब्याप्य, अनंत ॥ १४ ॥ 


चौदसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल।

भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल ॥ १५ ॥ 


पूनों प्रेम-भगति-रस हरि-रस जानहिं दास।

सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास ॥ १६ ॥ 


त्रिबिध सूल होलिय जरे, खेलिय अब फागु।

जो जिय चहसि परमसुख, तौ यहि मारग लागु ॥ १७ ॥ 


श्रुति-पुरान-बुध-संमत चाँचरि चरित मुरारि।

करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि ॥ १८ ॥ 


संसय-समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक।

साधु-कृपा बिनु मिलहिं न, करिय उपाय अनेक ॥ १९ ॥ 


भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन।

तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन ॥ २० ॥ 


          राग कान्हरा

          २०४


जो मन लागै रामचरन अस।

देह-गेह-सुत-बित-कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस ॥ १ ॥ 


द्वंद्वरहित, गतमान, ग्यानरत, बिषय-बिरत खटाइ नाना कस।

सुखनिधान सुजान कोसलपति ह्वे प्रसन्न, कहु, क्यों न होंहि बस ॥ २ ॥ 


सर्वभूत-हित, निर्ब्यलीक चित, भगति-प्रेम दृढ़ नेम, एकरस।

तुलसिदास यह होइ तबहिं जब द्रवै ईस, जेहि हतो सीसदस ॥ ३ ॥ 


              २०५


जो मन भज्यो चहै हरि-सुरतरु।

तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करु ॥ १ ॥ 


सम,संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति,यर चारि दृढ़ करि धरु।

काम- क्रोध अरु लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरु ॥ २ ॥ 


श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि, सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरु।

नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरु ॥ ३ ॥ 


इहै भगति, बैराग्य-ग्यान यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरु।

तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरु ॥ ४ ॥ 


             २०६


नाहिन और कोउ सरन लायक दूजो श्रीरघुपति-सम बिपति-निवारन।

काको सहज सुभाउ सेवकबस, काहि प्रनत परप्रीति अकारन ॥ १ ॥ 


जन-गुन अलप गनत सुमेरु करि, अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन।

परम कृपालु, भगत-चिंतामनि,बिरद पुनीत, पतितजन-तारन ॥ २ ॥ 


सुमिरत सुलभ,दास-दुख हरि चलत तुरत, पटपीत सँभार न।

साखि पुरान-निगम-अगम सब, जानत द्रुपद-सुता अरु बारन ॥ ३ ॥ 


जाको जस गावत कबि-कोबिद, जिन्हके लोभ-मोह,मद-मार न।

तुलसिदास तजि आस सकल भजु, कोसलपति मुनिबधू-उधारन ॥ ४ ॥ 


                २०७


भजिबे लायक, सुखदायक रघुनायक सरिस सरनप्रद दूजो नाहिन।

आनँदभवन, दुखदवन, सोकसमन रमारमन गुन गनत सिराहिं न ॥ १ ॥ 


आरत, अधम, कुजाति, कुटिल, खल, पतित, सभीत कहुँ जे समाहिं न।

सुमिरत नाम बिबसहूँ बारक पावत सो पद, जहाँ सुर जाहिं न ॥ २ ॥ 


जाके पद-कमल लुब्ध मुनि-मधुकर, बिरत जे परम सुगतिहु लुभाहिं न।

तुलसिदास सठ तेहि न भजसि कस, कारुनिक जो अनाथहिं दाहिन ॥ ३ ॥ 


             राग कल्याण

              २०८


नाथ सों कौन बिनती कहि सुनावौं।

त्रिबिध बिधि अमित अवलोकि अघ आपने,

सरन सनमुख होत सकुचि सिर नावौं ॥ १ ॥ 


बिरचि हरिभगतिको बेष बर टाटिका,

कपट-दल हरित पल्लवनि छावौं।

नामलगि लाइ लासा ललित-बचन कहि,

ब्याध ज्यों बिषय-बिहँगनि बझावौं ॥ २ ॥ 


कुटिल सतकोटि मेरे रोमपर वारियहि,

साधु गनतीमें पहलेहि गनावौं।

परम बर्बर खर्ब गर्ब-पर्बत चढ्यो,

अग्य सर्बग्य,जन-मनि जनावौं ॥ ३।


साँच किधौं झूठ मोको कहत कोउ-

कोउ राम! रावरो, हौं तुम्हरो कहावौं।

बिरदकी लाज करि दास तुलसिहिं देव!

लेहु अपनाइ अब देहु जनि बावौ ॥ ४ ॥ 


         २०९


      नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी।

करम-मन-बचन पन सत्य करुनानिधे!

      एक। गति राम! भवदीय पदत्रानकी ॥ १ ॥ 


कोह-मद-मोह-ममतायतन जानि मन,

      बात नहि जाति कहि ग्यान-बिग्यानकी।

काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहिं,

      आस नहिं एकहू आँक निरबानकी ॥ २ ॥ 


बेद-बोधित करम धरम बिनु अगम अति,

 जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी।

सिद्ध-सुर-मनुज दनुजादिसेवत कठिन,

 द्रवहिं हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी ॥ ३ ॥ 


भगति दुरलभ परम, संभु-सुक-मुनि-मधुप,

 प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी।

पतित-पावन सुनत नाम बिस्रामकृत,

 भ्रमित पुनि समझि चित ग्रंथि अभिमानकी ॥ ४ ॥ 


नरक-अधिकार मम घोर संसार-तम-

 कूपकहीं, भूप! मोहि सक्ति आपानकी।

दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन,

 सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी ॥ ५ ॥ 


         २१०


       औरु कहँ ठौरु रघुबंस-मनि! मेरे।

पतित-पावन प्रनत-पाल असरन-सरन,

       बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि केरे ॥ १ ॥ 


समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो,

       करत नहिं कान बिनती बदन फेरे।

तदपि ह्वे निडर हौं कहौं करुना-सिंधु,

      क्योंऽब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे ॥ २ ॥ 


मुख्य रुचि बसिबेकी पुर रावरे,

      राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे।

अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल,

      नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे ॥ ३ ॥ 


कतहुँ नहिं ठाउँ, कहँ जाउँ कोसलनाथ!

      दीन बितहीन हौं, बिकल बिनु डेरे।

दास तुलसिहि बास देहु अब करि कृपा,

      बसत गज गीध ब्याधादि जेहि खेरे ॥ ४ ॥ 


         २११


       कबहुँ रघुबंसमनि ! सो कृपा करहुगे।

जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे,

       तिन्हहि सम मानि मोहि नाथ उद्धरहुगे ॥ १ ॥ 


जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि,

       अधम आचरन कछु हृदय नहि धरहुगे।

दीनहित! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपालि,

       चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे ॥ २ ॥ 


मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली,

       सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे।

जोग-जप-जग्य-बिग्यान ते अधिक अति,

      अमल दृढ़ भगति दै परम सुख भरहुगे ॥ ३ ॥ 


मंदजन-मौलिमनि सकल, साधनहीन,

      कुटिल मन, मलिन जिय जानि जो डरहुगे।

दासतुलसी बेद-बिदित बिरुदावली,

      बिमल जस नाथ! केहि भाँति बिस्तरहुगे ॥ ४ ॥ 


         राग केदारा

          २१२


रघुपति बिपति-दवन।

परम कृपालु, प्रनत-प्रतिपालक, पतित-पावन ॥ १ ॥ 


कूर, कुटिल, कुलहीन,दीन,अति मलिन जवन।

सुमिरत नाम राम पठये सब अपने भवन ॥ २ ॥ 


गज-पिंगला-अजामिल-से खल गनै धौं कवन।

तुलसिदास प्रभु केहि न दीन्हि गति जानकी-रवन ॥ ३ ॥ 


          २१३


हरि-सम आपदा-हरन।

नहि कोउ सहज कृपालु दुसह दुख-सागर-तरन ॥ १ ॥ 


गज निज बल अवलोकि कमल गहि गयो सरन।

दीन बचन सुनि चले गरुड़ तजि सुनाभ-धरन ॥ २ ॥ 


द्रुपदसुताको लग्यो दुसासन नगन करन।

'हा हरि पाहि' कहत पूरे पट बिबिध बरन ॥ ३ ॥ 


इहे जानि सुर-नर-मुनि-कोबिद सेवत चरन।

तुलसिदास प्रभु को न अभय कियो नृग-उद्धरन ॥ ४ ॥ 


          राग कल्यान

           २१४


ऐसी कौन प्रभुकी रीति ?

बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति ॥ १ ॥ 


गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाई।

मातुकी गति दई ताहि कृपालु जादवराइ ॥ २ ॥ 


काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह।

जगत-पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह ॥ ३ ॥ 


नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि।

कियो लीन सु आपमें हरि राज-सभा मँझारि ॥ ४ ॥ 


ब्याध चित दै चरन मार् यो मूढ़मति मृग जानि।

सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि ॥ ५ ॥ 


कौन तिन्हकी कहै जिन्हके सुकृत अरु अघ दोउ।

प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ ॥ ६ ॥ 


          २१५


श्रीरघुबीरकी यह बानि।

नीचहू सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि ॥ १ ॥ 


परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकी कानि ?

लियो सो उर लाइ सुत ज्यौं प्रेमको पहिचानि ॥ २ ॥ 


गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिंसा सानि ?

जनक ज्यों रघुनाथ ताकहँ दियो जल निज पानि ॥ ३ ॥ 


प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि।

खात ताके दिये फल अति रुचि बखानि बखानि ॥ ४ ॥ 


रजनिचर अरु रिपु बिभीषन सरन आयो जानि।

भरत ज्यों उठि ताहि भैंटत देह-दसा भुलानि ॥ ५ ॥ 


कौन सुभग सुसील बानर, जिनहिं सुमिरत हानि।

किये ते सब सखा, पूजे भवन अपने आनि ॥ ६ ॥ 


राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि।

भजहि ऐसे प्षभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि ॥ ७ ॥ 


               २१६


हरि तज और भजिये काहि ?

नाहिनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि ॥ १ ॥ 


कनककसिपु बिरंचिको जन करम मन अरु बात।

सुतहिं दुखवत बिधि न बरज्यो कालके घर जात ॥ २ ॥ 


संभु-सेवक जान जग, बहु बार दिये दस सीस।

करत राम-बिरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस ॥ ३ ॥ 


और देवनकी कहा कहौं, स्वारथहिके मीत।

कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत ॥ ४ ॥ 


को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति।

दासतुलसी दीनपर एक राम ही की प्रीति ॥ ५ ॥ 


         २१७


जो पै दूसरो कोउ होइ।

तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोइ ॥ १ ॥ 


काहि ममता दीनपर, काको पतितपावन नाम।

पापमूल अजामिलहि केहि दियो अपनो धाम ॥ २ ॥ 


रहे संभु बिरंचि सुरपति लोकपाल अनेक।

सोक-सरि बूड़त करीसहि दई काहु न टेक ॥ ३ ॥ 


बिपुल-भूपति-सदहि महँ नर-नारि कह्यो 'प्रभु पाहि'।

सकल समरथ रहे, काहु न बसन दीन्हों ताहि ॥ ४ ॥ 


एक मुख क्यों कहौं करुनासिंधुके गुन-गाथ ?

भक्तहित धरि देह काह न कियो कोसलनाथ! ॥ ५ ॥ 


आपसे कहुँ सौंपिये मोहि जो पै अतिहि घिनात।

दासतुलसी और बिधि क्यों चरन परिहरि जात ॥ ६ ॥ 


           २१८


कबहि देखाइहौ हरि चरन।

समन सकल कलेस कलि-मल ,सकल मंगल- करन ॥ १ ॥ 


सरद-भव सुंदर तरुनतर अरुन-बारिज-बरन।

लच्छि-लालित-ललित करतल छबि अनूपम धरन ॥ २ ॥ 


गंग-जनक अनंग-अरि-प्रिय कपट-बटु बलि-छरन।

बिप्रतिय नृग बधिकके दुख-दोस दारुन दरन ॥ ३।


सिद्ध-सुर-मुनि-बृंद-बंदित सुखद सब कहँ सरन।

सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन-तरन ॥ ४ ॥ 


कृपासिंधु सुजान रघुबर प्रनत-आरति-हरन।

दरस-आस-पियास तुलसीदास चाहत मरन ॥ ५ ॥ 


          २१९


द्वार हौं भोर ही को आजु।

रटत रिरिहा आरि और न, कौर ही तें काजु ॥ १ ॥ 


कलि कराल दुकाल दारुन, सब कुभाँति कुसाजु।

नीच जन, मन ऊँच जैसी कोढँमेंकी खाजु ॥ २ ॥ 


हहरि हियमें सदय बूझ्यो जाइ साधु-समाजु।

मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, तिन्ह कह्यो कोसलराजु ॥ ३ ॥ 


दीनता-दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु।

दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु ॥ ४ ॥ 


जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु।

पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति-सुधा सुनाजु ॥ ५ ॥ 


           २२०


करिय सँभार, कोसलराय!

और ठौर न और गति, अवलंब नाम बिहाय ॥ १ ॥ 


बूझि अपनी आपनो हितु आप बाप न माय।

राम! राउर नाम गुर,सुर,स्वामि,सखा,सहाय ॥ २ ॥ 


रामराज न चले मानस-मलिनके छल छाय।

कोप तेहि कलिकाल कायर मुएहि घालत घाय ॥ ३ ॥ 


लेत केहरिको बयर ज्यों भैक हनि गोमाय।

त्योंहि राम-गुलाम जानि निकाम देत कुदाय ॥ ४ ॥ 


अकनि याके कपट-करतब, अमित अनय-अपाय।

सुखि हरिपुर बसत होत परीछितहि पछिताय ॥ ५ ॥ 


कृपासिंधु! बिलोकिये, जन-मनकी साँसति साय।

सरन आयो, देव! दीनदयालु! देखन पाय ॥ ६ ॥ 


निकट बोलि न बरजिये, बलि जाउँ, हनिय न हाय।

देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनिके न्याय ॥ ७ ॥ 


अरुन मुख, भ्रू बिकट, पिंगल नयन रोष-कषाय।

बीर सुमिरि समीरको घटिहै चपल चित चाय ॥ ८ ॥ 


बिनय सुनि बिहँसे अनुजसों बचनके कहि भाय।

'भली कही' कह्यो लषन हूँ हँसि,बने सकल बनाय ॥ ९ ॥ 


दई दीनहिं दादि, सो सुनि सुजन-सदन बधाय।

मिटे संकट-सोच, पोच-प्रपंच, पाप-निकाय ॥ १० ॥ 


पेखि प्रीति-प्रतीति जनपर अगुन अनघ अमाय।

दासतुलसी कहत मुनिगन,'जयति जय उरुगाय' ॥ ११ ॥ 


           २२१


नाथ! कृपाहीको पंथ चितवत दीन हौं दिनराति।

होइ धौं केहि काल दीनदयालु! जानि न जाति ॥ १ ॥ 


सुगुन, ग्यान-बिराग-भगति, सु-साधननिकी पाँति।

भजे बिकल बिलोकि कलि अघ-अवगुननिकी थाति ॥ २ ॥ 


अति अनीति-कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति।

जाउँ कहँ ? बलि जाउँ, कहूँ न ठाउँ, मति अकुलाति ॥ ३ ॥ 


आप सहित न आपनो कोउ, बाप! कठिन कुभाँति।

स्यामघन! सींचिये तुलसी, सालि सफल सुखाति ॥ ४ ॥ 


           २२२


बलि जाउँ, और कासों कहौं ?

सदगुनसिंधु स्वामि सेवक-हित कहुँ न कृपानिधि-सो लहौं ॥ १ ॥ 


जहँ जहँ लोभ लोल लालचबस निजहित चित चाहनि चहौं।

तहँ तहँ तरनि तकत उलूक ज्यों भटकि कुतरु-कोटर गहौं ॥ २ ॥ 


काल-सुभाउ-करम बिचित्र फलदायक सुनि सिर धुनि रहौं।

मोको तौ सकल सदा एकहि रस दुसह दाह दारुन दहौं ॥ ३ ॥ 


उचित अनाथ होइ दुखभाजन भयो नाथ! किंकर न हौं।

अब रावरो कहाइ न बूझिये, सरनपाल! साँसति सहौं ॥ ४ ॥ 


महाराज! राजीवबिलोचन! मगन-पाप-संताप हौं।

तुलसी प्रभु!जब तब जेहि तेहि बिधि राम निरबहौं ॥ ५ ॥ 


            २२३


आपनो कबहुँ करि जानिहौ।

राम गरीबनिवाज राजमनि, बिरद-लाज उर आनिहौ ॥ १ ॥ 


सील-सिंधु,सुंदर,सब लायक,समरथ, सदगुन-खानि हौ।

पाल्यो है,पालत,पालहुगे प्रभु, प्रनत-प्रेम पहिचानिहौ ॥ २ ॥ 


बेद-पुरान कहत,जग जानत, दीनदयालु दिन-दानि हौ।

कहि आवत, बलि जाऊँ,मनहुँ मेरी बार बिसारे बानि हौ ॥ ३ ॥ 


आरत-दीन-अनाथनिके हित मानत लौकिक कानि हौ।

है परिनाम भलो तुलसीको सरनागत-भय-भानि हौ ॥ ४ ॥ 


            २२४


रघुबरहि कबहुँ मन लागिहै ?

कुपथ,कुचाल,कुमति,कुमनोरथ, कुटिल कपट कब त्यागिहै ॥ १ ॥ 


जानत गरल अमिय बिमोहबस, अमिय गनत करि आगिहै।

उलटी रीति-प्रीति अपनेकी तजि प्रभुपद अनुरागिहै ॥ २ ॥ 


आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम-प्रेम-पगि पागिहै।

ऐसे गुन गाइ रिझाइ स्वामिसों पाइहै जो मुँह माँगिहै ॥ ३ ॥ 


तू यहि बिधि सुख-सयन सोइहै,जियकी जरनि भूरि भागिहै।

राम-प्रसाद दासतुलसी उर राम-भगति-जोग जागिहै ॥ ४ ॥ 


          २२५


भरोसो और आइहै उर ताके।

कै कहुँ लहै जो रामहि-सो साहिब, कै अपनो बल जाके ॥ १ ॥ 


के कलिकाल कराल न सूझत, मोह-मार-मद छाके।

कै सुनि स्वामि-सुभाउ न रह्यो चित, जो हित सब अँग थाके ॥ २ ॥ 


हौं जानत भलिभाँति अपनपौ, प्रभु-सो सुन्यो न साके।

उपल,भील,खग,मृग रजनीचर, भले भये करतब काके ॥ ३ ॥ 


मोको भलो राम-नाम सुरतरु-सो, रामप्रसाद कृपालु कृपाके।

तुलसी सुखी निसोच राज ज्यों बालक माय-बबाके ॥ ४ ॥ 


             २२६


भरोसो जाहि दूसरो सो करो।

मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो ॥ १ ॥ 


करम उपासन,ग्यान,बेदमत, सो सब भाँति खरो।

मोहि तो 'सावनके अंधहि' ज्यों सूझत रंग हरों ॥ २ ॥ 


चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो।

सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परुसि धरो ॥ ३ ॥ 


स्वारथ औ परमारथ हू को नहि कुंजरो-नरो।

सुनियत सेतु पयोध पषाननि करि कपि कटक-तरो ॥ ४ ॥ 


प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो।

मेरे तो माय-बाप दोउ आखर हौं सिसु-अरनि अरो ॥ ५ ॥ 


संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो।

अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो ॥ ६ ॥ 


          २२७


नाम राम रावरोई हित मेरे।

स्वारथ-परमारथ साथिन्ह सों भुज उठाइ कहौं टेरे ॥ १ ॥ 


जननि-जनक तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे।

मोहुँसो कोउ-कोउ कहत रामहि को, सो प्रसंग केहि केरे ॥ ३२ ॥ 


फिर् यौ ललात बिनु नाम उदर लगि, दुखउ दुखित मोहि हेरे।

नाम-प्रसाद लहत रसाल फल अब हौं बबुर बहेरे ॥ ३ ॥ 


साधत साधु लोक-परलोकहि,सुनि गुनि जतन घनेरे।

तुलसीके अवलंब नामको, एक गाँठि कइ फेरे ॥ ४ ॥ 


            २२८


प्रिय रामनामतें जाहि न रामो।

ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि-मध्य-परिनामो ॥ १ ॥ 


सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो।

राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छाँह घोर घामो ॥ २ ॥ 


नाम-प्रभाउ सही जो कहै कोउ सिला सरोरुह जामो।

जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील-भामो ॥ ३ ॥ 


बालमीकि-अजामिलके कछु हुतो न साधन सामो।

उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनि जितो ललामो ॥ ४ ॥ 


रामतें अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो।

भये बजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदाससे बामो ॥ ५ ॥ 


           २२९


गरैगी जीह जो कहौं औरको हौं।

जानकी-जीवन! जनम-जनम जग ज्यायो तिहारेहि कौरको हौं ॥ १ ॥ 


तीनि लोक, तिहुँ काल न देखत सुहृद रावरे जोरको हौं।

तुमसों कपट करि कलप-कलप कृमि ह्वेहौं नरक घोरको हौं ॥ २ ॥ 


कहा भयो जो मन मिलि कलिकालहिं कियो भौंतुवा भौंरको हौं।

तुलसिदास सीतल नित यहि बल, बड़े ठेकाने ठौरको हौं ॥ ३ ॥ 


           २३०


अकारन को हितू और को है।

बिरद 'गरीब-निवाज' कौनको, भौंह जासु जन जोहै ॥ १ ॥ 


छोटो-बड़ो चहत सब स्वारथ, जो बिरंचि बिरचो है।

कोल कुटिल, कपि-भालु पालिबो कौन कृपालुहि सोहै ॥ २ ॥ 


काको नाम अनख आलस कहें अघ अवगुननि बिछोहै।

को तुलसीसे कुसेवक संग्रह्यो, सठ सब दिन साईं द्रोहै ॥ ३ ॥ 


           २३१


और मोहि को है, काहि कहिहौं ?

रंक-राज ज्यों मनको मनोरथ, केहि सुनाइ सुख लहिहौं ॥ १ ॥ 


जम-जातना,जोनि-संकट सब सहे दुसह अरु सहिहौं।

मोको अगम,सुगम तुमको प्रभु, तउ फल चारि न चहिहौं ॥ २ ॥ 


खेलिबेको खग-मृग,तरु-कंकर है रावरो राम हौं रहिहौं।

यहि नाते नरकहुँ सचु या बिनु परमपदहुँ दुख दहिहौं ॥ ३ ॥ 


इतनी जिय लालसा दासके, कहत पानही गहिहौं।

दीजै बचन कि हृदय आनिये 'तुलसिको पन निर्बहिहौ' ॥ ४ ॥ 


           २३२


दीनबंधु दूसरो कहँ पावो ?

को तुम बिनु पर-पीर पाइ है ? केहि दीनता सुनावों ॥ १ ॥ 


प्रभु अकृपालु,कृपालु अलायक, जहँ-जहँ चितहिं डोलावों।

इहै समुझि सुनि रहौं मौन ही, कहि भ्रम कहा गवावों ॥ २ ॥ 


गोपद बुड़िबे जोग करम करौं, बातनि जलधि थहावों।

अति लालची,काम-किंकर मन, मुख रावरो कहावों ॥ ३ ॥ 


तुलसी प्रभु जियकी जानत सब, अपनो कछुक जनावों।

सो कीजै,जेहि भाँति छाँडि छल द्वार परो गुन गावों ॥ ४ ॥ 


          २३३


मनोरथ मनको एकै भाँति।

चाहत मुनि-मन-अगम सुकृत-फल, मनसा अघ न अघाति ॥ १ ॥ 


करमभूमि कलि जनम,कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति।

करत कुजोग कोटि, कयों पैयत परमारथ-पद सांति ॥ २ ॥ 


सेइ साधु-गुरु,सुनि पुरान-श्रुति बूझ्यो राग बाजी ताँति।

तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु-सो, ज्यों दरपन मुख-कांति ॥ ३ ॥ 


          २३४


जनम गयो बादिहिं बर बीति।

परमारथ पाले न पर् यो कछु, अनुदिन अधिक अनीति ॥ १ ॥ 


खेलत खात लरिकपन गो चलि, जौबन जुवतिन लियो जीति।

रोग-बियोग-सोग-श्रम-संकुल बड़ि बय बृथहि अतीति ॥ २ ॥ 


राग-रोष-इरिषा-बिमोह-बस रुची न साधु-समीति।

कहे न सुने गुनगन रघुबरके, भइ न रामपद-प्रीति ॥ ३ ॥ 


हृदय दहत पछिताय-अनल अब, सुनत दुसह भवभीति।

तुलसी प्रभु तें होइ सो कीजिय समुझि बिरदकी रीति ॥ ४ ॥ 


          २३५


ऐसेहि जनम-समूह सिराने।

प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने ॥ १ ॥ 


जे जड जीव कुटिल,कायर,खल, केवल कलिमल-साने।

सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ, हरितें अधिक करि माने ॥ २ ॥ 


सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने।

सदा मलीन पंथके जल ज्यो, कबहुँ न हृदय थिराने ॥ ३ ॥ 


यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने।

तुलसी चित-चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने ॥ ४ ॥ 


          २३६


जो पै जिय जानकी-नाथ न जाने।

तौ सब करम-धरम श्रमदायक ऐसेइ कहत सयाने ॥ १ ॥ 


जे सुर, सिद्ध,मुनीस, जोगबिद बेद-पुरान बखाने।

पूजा लेत,देत पलटे सुख हानि-लाभ अनुमाने ॥ २ ॥ 


काको नाम धोखेहू सुमिरत पातकपुंज पराने।

बिप्र-बधिक, गज-गीध कोटि खल कौनके पेट समाने ॥ ३ ॥ 


मेरु-से दोष दूरि करि जनके, रेनु-से गुन उर आने।

तुलसिदास तेहि सकल आस तजि भजहि न अजहुँ अयाने ॥ ४ ॥ 


            २३७


काहे न रसना, रामहि गावहि ?

निसदिन पर-अपवाद बृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि ॥ १ ॥ 


नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि।

ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि ॥ २ ॥ 


काम-कथा कलि-कैरव-चंदनि, सुनत श्रवन दै भावहि।

तिनहिं हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि ॥ ३ ॥ 


जातरूप मति, जुगति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि।

सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि ॥ ४ ॥ 


बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहि।

तुलसिदास भव तरहि, तिहुँ पुर तू पुनीत जस पावहि ॥ ५ ॥ 


            २३८


आपनो हित रावरेसों जो पै सूझै।

तौ जनु तनुपर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जूझै ॥ १ ॥ 


निज अवगुन,गुनराम! रावरे लखि-सुनि-मति-मन-रूझै।

रहनि-कहनि-समुझनि तुलसीकी को कृपालु बिनु बूझै ॥ २ ॥ 


             २३९


जाको हरि दृढ़ करि अंग कर् यो।

सोइ सुसील,पुनीत,बेदबिद, बिद्या-गुननि भर् यो ॥ १ ॥ 


उतपति पांडु-सुतनकी करनी सुनि सतपंथ डर् यो।

ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुनि लोक तर् यो ॥ २ ॥ 


जो निज धरम बेदबोधित सो करत न कछु बिसर् यो।

बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित कर गहि उधर् यो ॥ ३ ॥ 


ब्रह्म बिसिख ब्रह्मांड दहन छम गर्भ न नृपति जर् यो।

अजर-अमर, कुलिसहुँ नाहिंन बध, सो पुनि फेन मर् यो ॥ ४ ॥ 


बिप्र अजामिल अरु सुरपति तें कहा जो नहिं बिगर् यो।

उनको कियो सहाय बहुत, उरको संताप हर् यो ॥ ५ ॥ 


गनिका अरु कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उबर् यो।

तिनको चरित पवित्र जानि हरि निज हृदि-भवन धर् यो ॥ ६ ॥ 


केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि पर् यो।

तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खर् यो ॥ ७ ॥ 


           २४०


सोइ सुकृती,सुचि साँचो जाहि राम! तुम रीझे।

गनिका,गीध,बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे ॥ १ ॥ 


कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये।

गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सनाभ बाहन तजि धाये ॥ २ ॥ 


सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो।

बायों दियो बिभव कुरुपतिको, भोजन जाइ बिदुर-घर कीन्हो ॥ ३ ॥ 


मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई।

तुलसी सहज सनेह राम बस, और सबै जलकी चिकनाई ॥ ४ ॥ 


            २४१


तब तुम मोहूसे सठनिको हठि गति न देते।

कैसेहु नाम लेइ कोउ पामर, सुनि सादर आगे ह्वे लेते ॥ १ ॥ 


पाप-खानि जिय जानि अजामिल जमगन तमकि तये ताको भे ते।

लियो छुड़ाइ, चले कर मींजत, पीसत दाँत गये रिस-रेते ॥ २ ॥ 


गौतम-तिय,गज,गीध,बिटप,कपि, हैं नाथहिं नीके मालुम जेते।

तिन्ह तिन्ह काजनि

-------------- साधु-समाजु तजि कृपासिंधु तब तब उठिगे ते ॥ ३ ॥ 


तिन्ह के काज

अजहुँ अधिक आदर येहि द्वारे, पतित पुनीत होत नहिं केते।

मेरे पासंगहु न पूहिहैं,ह्वे गये,है, होने खल जेते ॥ ४ ॥ 


हौं अबलौं करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते।

अब तुलसी पूतरो बाँधिहै, सहि न जात मोपै परिहास एते ॥ ५ ॥ 


             २४२


तुम सम दींनबंधु,न दीन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई।

मोसम कुटिल-मौलिमन नहिं जग, तुमसम हरि,!न हरन कुटिलाई ॥ १ ॥ 


हौं मन-बचन-कर्म पातक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई।

हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ-हित, चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई ॥ २ ॥ 


हौं आरत,आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई।

हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई ॥ ३ ॥ 


तुम सुखधाम राम श्रम-भंजन, हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई।

यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई ॥ ४ ॥ 


            २४३


यहै जानि चरनन्हि चित लायो।

नाहिन नाथ! अकारनको हितु तुम समान पुरान-श्रुति गायो ॥ १ ॥ 


जननि जनक,सुत-दार, बंधुजन भये बहुत जहँ जहँ हौं जायो।

सब स्वारथहित प्रीति, कपट चित,काहू नहिं हरिभजन सिखायो ॥ २ ॥ 


सुर-मुनि,मनुज-दनुज,अहि-किन्नर, मैं तनु धरि सिर काहि न नायो।

जरत फिरत त्रयताप पापबस, काहु न हरि! करि कृपा जुड़ायो ॥ ३ ॥ 


जतन अनेक किये सुख-कारन, हरिपद-बिमुख सदा दुख पायो।

अब थाक्यो जलहीन नाव ज्यों देखत बिपति-जाल जग छायो ॥ ४ ॥ 


मो कहँ नाथ! बूझिये, यह गति सुख-निधान निज पति बिसरायो।

अब तजि रौष करहु करुना हरि! तुलसिदास सरनागत आयो ॥ ५ ॥ 


             २४४


याहि ते मैं हरि ग्यान गँवायो।

परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहि, बाहर फिरत बिकल भयो धायो ॥ १ ॥ 


ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद अति मतिहीन मरम नहिं पायो।

खोजत गिरि,तरु,लता,भूमि, बिल परम सुगंध कहाँ तें आयो ॥ २ ॥ 


ज्यों सर बिमल बारि परिपूरन, ऊपर कछु सिवार तृन छायो।

जारत हियो ताहि तजि हौं सठ, चाहत यहि बिधि तृषा बुझायो ॥ ३ ॥ 


ब्यापत त्रिबिध ताप तनु दारुन, तापर दुसह दरिद्र सतायो।

अपनेहि धाम नाम-सुरतरु तजि बिषय-बबूर-बाग मन लायो ॥ ४ ॥ 


तुम-सम ग्यान-निधान, मोहि सम मूढ़ न आन पुराननि गायो।

तुलसिदास प्रभु! यह बिचारि जिय कीजै नाथ उचित मन भायो ॥ ५ ॥ 


             २४५


मोहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।

याके लिये सुनहु करुनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो ॥ १ ॥ 


सीतल मधुर पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जन खोयो।

बहु भाँतिन स्रम करत मोहबस, बृथहि मंदमति बारि बिलोयो ॥ २ ॥ 


करम-कीच जिय जानि,सानि चित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।

तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो ॥ ३ ॥ 


तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।

डासत ही गइ बीति निसा सब, कबहुँ न नाथ! नींद भरि सोयो ॥ ४ ॥ 


              २४६


लोक-बेद हूँ बिदित बात सुनि-समुझि।

      मोह-मोहित बिकल मति थिति न लहति।

छोटे-बड़े,खोटे-खरे, मोटेऊ दूबरे,

      राम! रावरे निबाहे सबहीकी निबहति ॥ १ ॥ 


होती जो आपने बस, रहती एक ही रस,

      दूनी न हरष-सोक-सांसति सहति।

चहतो जो जोई जोई, लहतो सो सोई सोई,

      केहू भाँति काहूकी न लालसा रहति। ॥ २ ॥ 


करम,काल, सुभाउ गुन-दोष जीव जग मायाते,

      सो सभै भौंह चकित चहति।

ईसन-दिगीसनि, जोगीसनि,मुनीसनि हू,

      छोड़ति छोड़ाये तें,गहाये तें गहति ॥ ३ ॥ 


सतरंजको सो राज, काठको सबै समाज,

      महाराज बाजी रची, प्रथम न हति।

तुलसी प्रभुके हाथ हारिबो-जीतिबो नाथ!

      बहु बेष, बहु मुख सारदा कहति ॥ ४ ॥ 


          २४७


राम जपु जीह! जानि, प्रीति सों प्रतीत मानि,

       रामनाम जपे जैहै जियकी जरनि।

रामनामसों रहनि, रामनामकी कहनि,

       कुटिल कलि-मल-सोक-संकट-हरनि ॥ १ ॥ 


रामनामको प्रभाउ पूजियत गनराउ,

       कियो न दुराउ, कही आपनी करनि।

भव-सागरको सेतु, कासीहू सुगति हेतु,

       जपत सादर संभु सहित घरनि ॥ २ ॥ 


बालमीकि ब्याध हे अगाध-अपराध-निधि,

       'मरा' 'मरा' जपे पूजे मुनि अमरनि।

रोक्यो बिंध्य, सोख्यो सिंधु घटजहुँ नाम-बल,

       हार् यो हिय,खारो भयो भूसुर-डरनि ॥ ३ ॥ 


नाम-महिमा अपार, सेष-सुक बार बार,

       मति-अनुसार बुध बेदहू बरनि।

नामरति-कामधेनु तुलसीको कामतरु,

       रामनाम है बिमोह-तिमिर-तरनि ॥ ४ ॥ 


          २४८


पाहि,पाहि राम! पाहि रामभद्र, रामचंद्र!

       सुजस स्रवन सुनि आयो हौं सरन।

दीनबंधु! दीनता-दरिद्र-दाह-दोष-दुख,

       दारुन दुसह दर-दुरित-हरन ॥ १ ॥ 


जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,

       सब खल भूप भये भूतल-भरन।

तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि,

       थापे मुनि,सुर,साधु, आस्रम, बरन ॥ २ ॥ 


बेद,लोक,सब साखी, काहूकी रती न राखी,

       रावनकी बंदि लागे अमर मरन।

ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ,

       रामराज भयो धरम चारिहु चरन ॥ ३ ॥ 


सिला,गुह,गीध,कपि,भील,भालु,रातिचर,

       ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन।

पील-उद्धरन! सीलसिंधु! ढील देखियतु,

       तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन ॥ ४ ॥ 


           २४९


भली भाँति पहिचाने-जाने साहिब जहाँ लौं जग,

        जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम।

प्रीति न प्रवीन,नीतिहीन,रीतिके मलीन,

       मायाधीन सब किये कालहू करम ॥ १ ॥ 


दानव-दनुज बड़े महामूढ़ मूँड़ चढ़े,

       जीते लोकनाथ नाथ! बलनि भरम।

रीझि-रीझि दिये बर, खीझी-खीझि घाले घर,

       आपने निवाजेकी न काहूको सरम ॥ २ ॥ 


सेवा-सावधान तू सुजान समरथ साँचो,

       सदगुन-धाम राम! पावन परम।

सुरुख,सुमुख,एकरस,एकरूप,तोहि,

       बिदित बिसेषि घटघटके मरम ॥ ३ ॥ 


तोसो नतपाल न कृपाल,न कँगाल मो-सो,

       दयामें बसत देव सकल धरम।

राम कामतरु-छाँह चाहै रुचि मन माँह,

       तुलसी बिकल,बलि, कलि-कुधरम ॥ ४ ॥ 


            २५०


तौं हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै खिझावतो न,

            जो पै मोको होतो कहूँ ठाकुर-ठहरु।

आलसी-अभागे मोसे तैं कृपालु पाले-पोसे,

            राजा मेरे राजाराम,अवध सहरु ॥ १ ॥ 


सेये न दिगीस,न दिनेस,न गनेस, गौरी,

            हित कै न माने बिधि हरिउ न हरु।

रामनाम ही सों जोग-छेम, नेम, प्रेम-पन,

            सुधा सो भरोसो एहु,दूसरो जहरु ॥ २ ॥ 


समाचार साथके अनाथ-नाथ! कासों कहौं,

            नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु।

निज काज, सुरकाज,आरतके काज,राज!

            बूझिये बिलंब कहा कहूँ न गहरु ॥ ३ ॥ 


रीति सुनि रावरी प्रतीति-प्रीति रावरे सों,

            डरत हौं देखि कलिकालको कहरु।

कहेही बनैगी कै कहाये,बलि जाउँ,राम,

           'तुलसी! तू मेरो, हारि हिये न हहरु' ॥ ४ ॥ 


             २५१


राम! रावरो सुभाउ, गुन सील महिमा प्रभाउ,

       जान्यो हर,हनुमान,लखन,भरत।

जिन्हके हिये-सुथरु राम-प्रेम-सुरतरु,

       लसत सरस सुख फूलत फरत ॥ १ ॥ 


आप माने स्वामी कै सखा सुभाइ भाइ,पति,

       ते सनेह-सावधान रहत डरत।

साहिब-सेवक-रीति, प्रीति-परिमिति,नीति,

       नेमको निबाह एक टेक न टरत ॥ २ ॥ 


सुक-सनकादिक, प्रहलाद-नारदादि कहैं,

       रामकी भगति बड़ी बिरति-निरत।

जाने बिनु भगति न, जानिबो तिहारे हाथ,

       समुझी सयाने नाथ! पगनि परत ॥ ३ ॥ 


छ-मत बिमत, न पुरान मत,एक मत,

       नेति-नेति-नेति नित निगम करत।

औरनिकी कहा चली ? एकै बात भलै भली,

       राम-नाम लिये तुलसी हू से तरत ॥ ४ ॥ 


            २५२


       बाप! आपने करत मेरी घनी घटि गई।

लालची लबारकी सुधारिये बारक,बलि,

       रावरी भलाई सबहीकी भली भई ॥ १ ॥ 


रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु,

       पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई।

साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि,

       बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई ॥ २ ॥ 


पतित-पावन, हित आरत-अनाथनिको,

       निराधारको अधार,दीनबंधु,दई।

इन्हमें न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो,

      ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई ॥ ३ ॥ 


स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितें अधिक,

      परलोक फीकी मति, लोक-रंग-रई।

बड़े कुसमाज राज! आजुलौं जो पाये दिन,

      महाराज! केहू भाँति नाम-ओट लईः ॥ ४ ॥ 


राम! नामको प्रताप जानियत नीके आप,

      मोको गति दूसरी न बिधि निरमई।

खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,

       रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई ॥ ५ ॥ 


          २५३


        राम राखिये सरन, राखि आये सब दिन।

बिदित त्रिलोक तिहुँ काल न दयाल दूजो,

        आरत-प्रनत-पाल को है प्रभु बिन ॥ १ ॥ 


लाले पाले,पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी,

        नाथ! पै अनाथनिसों भये न उरिन।

स्वामी समरथ ऐसो, हौं तिहारो जै सो.  तैसो,

        काल-चाल हेरि होति हिये घनी घिन ॥ २ ॥ 


खीझि-रीझि,बिहँसि-अनख, क्यों हूँ एक बार,

        'तुलसी तू मेरो' बलि, कहियत किन?

जाहिं सूल निरमूल, होहिं सुख अनुकूल,

        महाराज राम! रावरी सौं, तेहि छिन ॥ ३ ॥ 


            २५४


        राम! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है।

सुजन-सनेही, गुरु-साहिब, सखा-सुहृद्,

        राम-नाम प्रेम-पन अबिचल बितु है ॥ १ ॥ 


सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि,

        लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है।

नामको भरो सो.  बल चारिहू फलको फल,

        सुमिरिये छाड़ि छल, भलो कृतु है ॥ २ ॥ 


स्वारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम,

        राम-नाम सारिखो न और हितु है।

तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही,

        सीतानाथ-नाम नित चितहूको चितु है ॥ ३ ॥ 


           २५५


       राम!रावरो नाम साधु-सुरतरु है।

सुमिरे त्रिबिध घाम हरत, पूरत काम,

       सकल सुकृत सरसिजको सरु है ॥ १ ॥ 


लाभहुको लाभ, सुखहूको सुख, सरबस,

       पतित-पावन, डरहूको डरु है।

नीचेहूको ऊँचेहूको, रंकहूको रावहूको,

       सुलभ, सुखद आपनो-सो घरु है ॥ २ ॥ 


बेद हू, पुरान हू पुरारि हू पुकारि कह्यो,

       नाम-प्रेम चारिफलहूको फरु है।

ऐसे राम-नाम सों न प्रीति, न प्रतीति मन,

       मेरे जान, जानिबो सोई नर खरु है ॥ ३ ॥ 


नाम-सो न मातु-पितु, मीत-हित, बंधु-गुरु,

       साहिब सुधी सुसील सुधाकरु है।

नामसों निबाह नेहु, दीनको दयालु! देहु,

       दासतुलसीको, बलि, बड़ो बरु है ॥ ४ ॥ 


           २५६


        कहे बिनु रह्यो न परत,कहे राम! रस न रहत।

तुमसे सुसाहिबकी ओट जन खौटो-खरो,

        कालकी, करमकी कुसाँसति सहत ॥ १ ॥ 


करत बिचार सार पैयत न कहूँ कछु,

        सकल बड़ाई सब कहाँ ते लहत ?

नाथकी महिमा सुनि, समुझि आपनि ओर,

       हेरि हारि कै हहरि हृदय दहत ॥ २ ॥ 


सखा न, सुसेवक न, सुतिय न, प्रभु आप,

       माय-बाप तुही साँचो तुलसी कहत।

मेरी तौ थोरी है, सुधरैगी बिगरियौ,बलि,

       राम! रावरी सों, रही रावरी चहत ॥ ३ ॥ 


          २५७


        दीनबंधु! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन।

आपको भले हैं सब, आपनेको कोऊ कहूँ,

        सबको भलो है राम! रावरो चरन ॥ १ ॥ 


पाहन,पसु,पतंग,कोल,भील,निसिचर,

        काँच ते कृपानिधान किये सुबरन।

दंडक-पुहुमि पाय परसि पुनीत भई,

        उकठे बिटप लागे फूलन-फरन ॥ २ ॥ 


पतित-पावन नाम बाम हू दाहिनो, देव!

        दुनी न दुसह-दुख-दूषन-दरन।

सीलसिंधु! तोसों ऊँची-नीचियौ कहत सोभा,

        तोसो तुही तुलसीको आरति-हरन ॥ ३ ॥ 


            २५८


जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं कृपानिधान!

         एतो मान ढीठ हौं उलटि देत खौरि हौं।

करत जतन जासों जोरिबे को जोगीजन,

         तासों क्योंहू जुरी, सो अभागो बैठो तोरि हौं ॥ १ ॥ 


मोसो दोस-कोसको भुवन-कोस दूसरो न,

        आपनी समुझि सूझि आयो टकटोरि हौं।

गाड़ीके स्वानकी नाईं,माया मोहकी बड़ाई,

        छिनहिं तजत, छिन भजत बहोरि हौं ॥ २ ॥ 


बड़ो साईं-द्रोही न बराबरी मेरीको कोऊ,

        नाथकी सपथ किये कहत करोरि हौं।

दूरि कीजै द्वारतें लबार लालची प्रपंची,

        सुधा-सो सलिल सूकरी ज्यों गहडोरिहौं ॥ ३ ॥ 


राखिये नीके सुधारि, नीचको डारिये मारि,

        दुहूँ ओरकी बिचारि, अब न निहोरिहौं।

तुलसी कही है साँची रेख बार बार खाँची,

        ढील किये नाम-महिमाकी नाव बोरिहौं ॥ ४ ॥ 


            २५९


रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी मेरी,।

        कहौं,बलि,बेदकी न लोक कहा कहैगो ?

प्रभुको उदास-भाउ, जनको पाप-प्रभाउ,

        दुहूँ भाँति दीनबन्धु ! दीन दुख दहैगो ॥ १ ॥ 


मैं तो दियो छाती पबि,लयो कलिकाल दबि,

        साँसति सहत,परबस को न सहैगो ?

बाँकी बिरुदावली बनैगी पाले ही कृपालु !

        अंत मेरो हाल हेरि यौं न मन रहैगो ॥ २ ॥ 


करमी-धरमी, साधु-सेवक, बिरत-रत,

        आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो ?

तेरे मुँह फेरे मोसे कायर-कपूत-कूर,

        लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो ? ॥ ३ ॥ 


काल पाय फिरत दसा दयालु ! सबहीकी,

       तोहि बिनु मोहि कबहूँ न कोऊ चहैगो।

बचन-करम-हिये कहौं राम ! सौंह किये,

       तुलसी पै नाथके निबाहेई निबहैगो ॥ ४ ॥ 


            २६०


साहिब उदास भये दास खास खीस होत,

        मेरी कहा चली ? हौं बजाय जाय रह्यो हौं।

लोकमें न ठाउँ, परलोकको भरोसो कौन ?

        हौं तो, बलि जाउँ,रामनाम ही ते लह्यो हौं ॥ १ ॥ 


करम,सुभाउ,काम,कोह,लोभ,मोह,-

        ग्राह अति गहनि गरीबी गाढ़े गह्यो हौं।

छोरिबेको महाराज,बाँधिबेको कोटि भट,

        पाहि प्रभु !पाहि, तिहुँ ताप-पाप दह्यो हौं ॥ २ ॥ 


रीझि-बूझि सबकी प्रतीति-प्रीति एही द्वार,

         दूधको जर् यो पियत फूँकि फूँकि मह्यो हौं।

रटत-रटत लट्यो,जाति-पाँति-भाँति घट्यो,

         जूठनिको लालची चहौं न दूध-नह्यो हौं ॥ ३ ॥ 


अनत चह्यो न भलो,सुपथ सुचाल चल्यो,

         नीके जिय जानि इहाँ भलो अनचह्यो हौं।

तुलसी समुझि समुझायो मन बार बार,

         अपनो सो नाथ हू सों कहि निरबह्यो हौं ॥ ४ ॥ 


            २६१


मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं,

        राम !रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं।

निपट सयाने हौ कृपानिधान ! कहा कहौं ?

        लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं ॥ १ ॥ 


मानस मलीन,करतब कलिमल पीन,

        जीह हू न जप्यो नाम,बक्यो आउ-बाउ मैं।

कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो,

        बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं ॥ २ ॥ 


देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई,

        प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं।

       दोष

राग रोष---- पोषे, गोगन समेत मन,

       द्वेष

        इनकी भगति कीन्ही इनही को भाउ मैं ॥ ३ ॥ 


आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें,

        बूझियत गति, कछु कीन्हों तो न काउ मैं।

जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी हू,

        झूठे-साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं ॥ ४ ॥ 


            २६२


कह्यो न परत,बिनु कहे न रह्यो परत,

        बड़ो सुख कहत बड़े सों,बलि,दीनता।

प्रभुकी बड़ाई बड़ी,आपनी छोटाई छोटी,

        प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ॥ १ ॥ 


दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन,

       सनमुख होत सुनि स्वामी-समीचीनता।

नाथ-गुनगाथ गाये,हाथ जोरि माथ नाये,

       नीचऊ निवाजे प्रीति-रीतिकी प्रबीनता ॥ २ ॥ 


एही दरबार है गरब तें सरब-हानि,

       लाभ जोग-छेमको गरीबी-मिसकीनता।

मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो,

       बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता ॥ ३ ॥ 


यहाँकी सयानप,अयानप सहस सम,

       सूधौ सतभाय कहे मिटति मलीनता।

गीध-सिला-सबरीकी सुधि सब दिन किये,

       होइगी न साई सों सनेह-हित-हीनता ॥ ४ ॥ 


सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु,

       सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता।

करुनानिधान ! बरदान तुलसी चहत,

       सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता ॥ ५ ॥ 


           २६३


       नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी।

रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो,

       रुचिर रहनि रुचि मति गति तीयकी ॥ १ ॥ 


कुकृत-सुकृत बस सब ही सों संग पर् यो,

       परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।

मेरे भलेको गोसाई ! पोचको,न सोच-संक,

       हौंहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी ॥ २ ॥ 


ग्यानहू-गिराके स्वामी,बाहर-अंतरजामी,

       यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी ?

तुलसी तिहारो,तुमहीं पै तुलसीके हित,

       राखि कहौं हौं तो जो पै व्हहौ माखी घीयकी ॥ ३ ॥ 


             २६४


        मेरो कह्यो सुनि पुनि भावै तोहि करि सो।

चारिहू बिलोचन बिलोकु तू तिलोक महँ,

        तेरो तिहु काल कहु को है हितू हरि-सो ॥ १ ॥ 


नये-नये नेह अनुभये देह-गेह बसि,

        परखे प्रंपंची प्रेम, परत उघरि सो।

सुहृद-समाज दगाबाजिहीको सौदा-सूत,

        जब जाको काज तब मिलै पाँय परि सो ॥ २ ॥ 


बिबुध सयाने, पहिचाने कैधौं नाहीं नीके,

        देत एक गुन, लेत कोटि गुन भरि सो।

करम-धरम श्रम-फल रघुबर बिनु,

       राखको सो होम है, ऊसर कैसो बरिसो ॥ ३ ॥ 


आदि-अंत-बीच भलो भलो करै सबहीको,

       जाको जस लोक-बेद रह्यो है बगरि-सो।

सीतापति सारिखो न साहिब सील-निधान,

       कैसे कल परै सठ! बैठो सो बिसरि-सो ॥ ४ ॥ 


जीवको जीवन-प्रान, प्रानको परम हित,

       प्रीतम,पुनीतकृत नीचन निदरि सो।

तुलसी! तोको कृपालु जो कियो कोसलपालु,

       चित्रकूटको चरित्र चेतु चित करि सो ॥ ५ ॥ 


            २६५


      तन सुचि,मनरुचि, मुख कहौं 'जन हौं सिय-पीको'।

केहि अभाग जान्यो नहिं, जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न नीको ॥ १ ॥ 


      जल चाहत पावक लहौं, बिष होत अमीको।

कलि-कुचाल संतनि कही सोइ सही, मोहि कछु फहम न तरनि तमीको ॥ २ ॥ 


      जानि अंध अंजन कहै बन-बाघिनी-घीको।

सुनि उपचार बिकारको सुबिचार करौं जब, तब बुधि बल हरै हीको ॥ ३ ॥ 


      प्रभु सों कहत सकुचात हौं, परौं जनि फिरि फीको।

निकट बोलि,बलि,बरजिये,परिहरै ख्याल अब तुलसिदास जड़ जीको ॥ ४ ॥ 


            २६६


      ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपालु! त्यों त्यों दूरि पर् यो हौं।

तुम चहुँ जुग रस एक राम! हौं हूँ रावरो, जदपि अघ अवगुननि भर् यो हौं ॥ 

      बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छर् यो हौं।

हौं सुबरन कुबरन कियो, नृपतें भिखारि करि, सुमतितें कुमति कर् यो हौं ॥ २ ॥ 


      अगनित गिरि-कानन फिरयो, बिनु आगि जर् यो हौं।

चित्रकूट गये हौं लखि कलिकी कुचालि सब, अब अपडरनि डर् यो हौं ॥ ३ ॥ 


      माथ नाइ नाथ सों कहौं, हात जोरि खर् यो हौं।

चीन्हों चोर जिय मारिहै तुलसी सो कथा सुनि प्रभुसों गुदरि निबर् यो हौं ॥ ४ ॥ 


             २६७


       पन करि हौं हठि आजुतें रामद्वार पर् यो हौं।

'तू मेरो'यह बिन कहे उठिहौ न जनमभरि, प्रभुकी सौकरि निर् यो हौं ॥ १ ॥ 


       दै दै धक्का जमभट थके, टारे न टर् यो हौं।

उदर दुसह साँसति सही बहुबार जनमि जग, नरकनिदरि निकर् यो हौं ॥ २ ॥ 


      हौं मचला लै छाड़िहौं, जेहि लागि अर् यो हौं।

तुम दयालु,बनिहै दिये,बलि,बिलँब न कीजिये, जात गलानि गर् यौ हौं ॥ ३ ॥ 


      प्रगट कहत जो सकुचिये, अपराध-भर् यो हौं।

तौ मनमें अपनाइये, तुलसीहि कृपा करि, कलि बिलोकि हहर् यो हौं ॥ ४ ॥ 


             २६८


       तुम अपनायो तब जानिहौं,जब मन फिरि परिहै।

जेहि सुभाव बिषयनि लग्यो, तेहि सहज नाथ सौं नेह छाड़ि छल करिहै ॥ १ ॥ 


      सुतकी प्रीति,प्रतीति मीतकी, नृप ज्यों डर डरिहै।

अपनो सो स्वारथ स्वामिसों, चहुँ बिधि चातक ज्यों एक टेकते नहिं टरिहै ॥ २ ॥ 


       हरषिहै न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै।

हानि-लाभ दुख-सुख सबै समचित हित-अनहित,कलि-कुचालि परिहरिहै ॥ ३ ॥ 


       प्रभु-गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नयननि ढरिहै।

तुलसिदास भयो रामको बिस्वास,प्रेम लखि आनँद उमगि उर भरिहै ॥ ४ ॥ 


             २६९


      राम कबहुँ प्रिय लागिहौ जैसे नीर मीनको?

सुख जीवन ज्यों जीवको, मनि ज्यों फनिको हित, ज्यों धन लोभ-लीनको ॥ १ ॥ 


      ज्यों सुभाय प्रिय लगति नागरी नागर नवीनको।

त्यों मेरे मन लालसा करिये करुनाकर! पावन प्रेम पीनको ॥ २ ॥ 


      मनसाको दाता कहैं श्रुति प्रभु प्रबीनको।

तुलसिदासको भावतो,बलि जाउँ दयानिधि! दीजे दान दीनको ॥ ३ ॥ 


             २७०


       कबहुँ कृपा करि रघुबीर! मोहू चितैहो।

भलो-बुरो जन आपनो,जिय जानि दयानिधि! अवगुन अमित बितैहो ॥ १ ॥ 


       जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो।

हौं सनाथ ह्वेहौ सही,तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो ॥ २ ॥ 


       बिनय करौं अपभयहु तें, तुम्ह परम हितै हो।

तुलसिदास कासों कहै, तुमही सब मेरे,प्रभु-गुरु,मातु-पितै हो ॥ ३ ॥ 


             २७१


       जैसो हौं तैसो राम रावरो जन, जनि परिहरिये।

कृपासिंधु,कोसलधनी! सरनागत-पालक, ढरनि आपनी ढरिये ॥ १ ॥ 


      हौं तौ बिगरायल और को, बिगरो न बिगरिये।

तुम सुधारि आये सदा सबकी सबही बिधि, अब मेरियो सुधरिये ॥ २ ॥ 


      जग हँसिहै मेरे संग्रहे, कत इहि डर डरिये।

कपि-केवट कीन्हे सखा जेहि सील,सरल चित, तेहि सुभाउ अनुसरिये ॥ ३ ॥ 


      अपराधी तउ आपनो, तुलसी न बिसरिये।

टूटियो बाँह गरे परै, फूटेहु बिलोचन पीर होत हित करिये ॥ ४ ॥ 


            २७२


       तुम जनि मन मैलो करो, लोचन जनि फेरो।

सुनहु राम! बिनु रावरे लोकहु परलोकहु कोउ न कहूँ हितु मेरो ॥ १ ॥ 


               अधम

       अगुन-अलायक-आलसी जानि-------अनेरो।

               अधनु

स्वारथके साथिन्ह तज्यो तिजराको- सो टोटक,औचट उलटि न हेरो ॥ २ ॥ 


       भगतिहीन, बेद-बाहिरो लखि कलिमल घेरो।

देवनिहू देव! परिहरयो, अन्याव नतिनको हौं अपराधीसब केरो ॥ ३ ॥ 


       नामकी ओट पेट भरत हौं, पै कहावत चेरो।

जगत-बिदित बात ह्वे परी, समुझिये धौं अपने, लोक कि बेद बड़ेरो ॥ ४ ॥ 


       ह्वेहै जब-जब तुमहिं तें तुलसीको भलेरो।

         देव

दिन-हू-दिन-----बिगरि है,बलि जाउँ, बिलंब किये,अपनाइये सबेरो ॥ ५ ॥ 


         दीन

            २७३


      तुम तजि हौं कासों कहौं, और को हितु मेरे ?

दीनबंधु!सेवक,सखा,आरत,अनाथपर सहज छोह केहि केरे ॥ १ ॥ 


      बहुत पतित भवनिधि तरे बिनु तरि बिनु बेरे।

कृपा-कोप-सतिभायहू, धोखेहु-तिरछेहू,राम! तिहारेहि हेरे ॥ २ ॥ 


      जो चितवनि सौंधी लगै, चितइये सबेरे।

तुलसिदास अपनाइये, कीजै न ढील, अब जिवन-अवधि अति नेरे ॥ ३ ॥ 


             २७४


      जाउँ कहाँ, ठौर है कहाँ देव! दुखित-दीनको ?

को कृपालु स्वामी-सारिखो, राखे सरनागत सब अँग बल-बिहीनको ॥ १ ॥ 


      गनिहि,गुनिहि साहिब लहै, सेवा समीचीनको।

अधम

-----अगुन आलसिनको पालिबो फबि आयो रघुनायक नवीनको ॥ २ ॥ 


अधन

      मुखकै कहा कहौं, बिदित है जीकी प्रभु प्रबीनको।

तिहू काल, तिहु लोकमें एक टेक रावरी तुलसीसे मन मलीनको ॥ ३ ॥ 


             २७५


       द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ।

हैं दयालु दुनी दस दिसा,दुख-दोष-दलन-छम, कियो न सँभाषन काहूँ ॥ १ ॥ 


         जन्यो

       तनु-------कुटिल कीट ज्यों, तज्यों मातु-पिताहूँ।

        जनतेऊ

काहेको रोष,दोष काहि धौं,मेरे ही अभाग मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ ॥ २ ॥ 


       दुखित देखि संतन कह्यो, सोचै जनि मन माँहू।

तोसे पसु-पाँवर-पातकी परिहरे न सरन गये, रघुबर ओर बिनाहूँ ॥ ३ ॥ 


       तुलसी तिहारो भये भयो सुखी प्रीती-प्रतीति बिनाहू।

नामकी महिमा,सील नाथको, मेरो भलो बिलोकि अब तें सकुचाहुँ,सिहाहूँ ॥ ४ ॥ 


             २७६


       कहा न कियो,कहाँ न गयो, सीस काहि न नायो ?

राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो ॥ १ ॥ 


       आस-बिबस खास दास ह्वे नीच प्रभुनि जनायो।

हा हा करि दीनता कही द्वार-द्वार बार-बार, परी न छार,मुह बायो ॥ २ ॥ 


       असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो।

       मान

महिमा------प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो ॥ ३ ॥ 


       असु

        नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो।

साँच कहौं,नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचायो ॥ ४ ॥ 


              मन

        श्रवन-नयन-मग------लगे, सब थल पतियायो।

              अग

मूड़ मारि,हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो ॥ ५ ॥ 


        दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो।

तुलसि नमत अवलोकिये,बाँह-बोल बलि दै बिरुदावली बुलायो ॥ ६ ॥ 


            २७७


       राम राय! बिनु रावरे मेरे को हितु साँचो ?

स्वामी-सहित सबसों कहौं,सुनि-गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो ॥ १ ॥ 


       देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो।

किये बिचार सार कदलि ज्यों, मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिच काँचो।२।


       'बिनय-पत्रिका' दीनकी,बापु! आपु ही बाँचो।

हिये हेरि तुलसी लिखी,सो सुभाय सही करि बहुरि पूँछिये पाँचो ॥ ३ ॥ 


            २७८


      पवन-सुवन! रिपु-दवन! भरतलाल! लखन! दीनकी।

निज निज अवसर सुधि किये,बलि जाउँ, दास-आस पूजि है खासखीनकी ॥ १ ॥ 


      राज-द्वार भली सब कहैं साधु-समीचीनकी।

सुकृत-सुजस,साहिब-कृपा,स्वारथ-परमारथ,गति भये गति-बिहीनकी ॥ २ ॥ 


      समय सँभारि सुधारिबी तुलसी मलीनकी।

प्रीति-रीति समुझाइबी नतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी।३ ॥ 


             २७९


       मारुति-मन,रुचि भरतकी लखि लषन कही है।

कलिकालहु नाथ!नाम सों परतीति-प्रीति एक किंकरकी निबही है ॥ १ ॥ 


       सकल सभा सुनि लै उठी, जानी रीति रही है।

कृपा गरीब निवाजकी,देखत गरीबको साहब बाँह गही है ॥ २ ॥ 


       बिहँसि राम कह्यो 'सत्यहै,सुधि मैं हूँ लही है'।

                     रघुनाथ

मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी,परी---------सही है ॥ ३ ॥ 


                    रघुनाथ हाथ

             ॥ श्रीसीतारामार्पणमस्तु ॥ 

               ॥ इतिश्री ॥ 


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