Dharmik katha-महर्षि उत्तंक प्रसंग
Dharmik katha–महर्षि उत्तंक प्रसंग
वृष्टि का वर
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। महाराज युधिष्ठिर एकराट् के रूप में अभिषिक्त कर दिए गए। अब भगवान श्रीकृष्ण सुभद्रा को लेकर द्वारका लौट रहे थे। यात्रा करते समय भगवान मारवाड़ देश में वहां जा पहुंचे, जहां अमित तेजस्वी उत्तंक मुनि रहते थे। भगवान ने उनका दर्शन किया और पूजा भी की।
तत्पश्चात मुनि ने भी उनका स्वागत-सत्कार किया। फिर कुशल-प्रश्न होने लगी। अन्त में जब श्रीकृष्ण ने कौरवों के संहार की बात सुनाई, तब मुनि क्रोध में भर गए और बोले-“मधुसूदन ! कौरव तुम्हारे सम्बन्धी और प्रेमी थे। शक्ति रहते हुए भी तुमने उनकी रक्षा नहीं की। अतः आज मैं तुम्हें शाप दूंगा। ओह ! कुरुवंश के सभी श्रेष्ठ वीर नष्ट हो गए और तुमने सामर्थ्य रहते हुए भी उनकी उपेक्षा की।”
श्रीकृष्ण बोले-“भृगुनन्दन ! पहले मेरी बात तो सुन लीजिए। आपने जो बाल्यावस्था से ब्रह्मचर्य का पालन कर कठोर तपस्या की है और गुरु भक्ति से अपने गुरु को सन्तुष्ट किया है, मैं वह सब जानता हूं, पर इतना याद रख लीजिए कि कोई पुरुष थोड़ी-सी तपस्या के बल पर मेरा तिरस्कार नहीं कर सकता अथवा मुझे शाप नहीं दे सकता।
मैं आपको कुछ अध्यात्म तत्त्व सुनाता हूं, उसे सुनकर पीछे आप विचार कीजिएगा। महर्षे ! आपको मालूम होना चाहिए-ये रुद्र, वसु, सम्पूर्ण दैत्य, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, नाग और अप्सराओं का मुझसे ही प्रादुर्भाव हुआ है। असत्, सदसत् तथा उससे परे जो अव्यक्त जगत है, वह भी मुझ सनातन देवाधिदेव से पृथक नहीं है। मैं धर्म की रक्षा तथा स्थापना के लिए महात्माओं के साथ अनेक बार अनेक योनियों में अवतार धारण करता हूं।
मैं ही ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र तथा सबकी उत्पत्ति और प्रलय का कारण हूं। जब-जब धर्म का ह्रास और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं विभिन्न योनियों में प्रविष्ट होकर धर्म-मर्यादा की स्थापना करता हूं। जब देवयोनि में अवतार लेता हूं, तब मेरे सारे आचार-व्यवहार देवताओं के सदृश होते हैं ।
गन्धर्व-योनि में अवतार लेने पर गन्धर्वो के समान तथा नाग, यक्ष, राक्षस योनियों में अवतार लेने पर उन-उन योनियों के सदृश आचार व्यवहार का पालन करता हूं। इस समय मैं मनुष्य रूप में प्रकट हुआ हूं। अतएव मैंने कौरवों से दीनतापूर्वक प्रार्थना की, किन्तु मोहग्रस्त होने के कारण उन्होंने मेरी बात नहीं मानी। अत: युद्ध में प्राण देकर इस समय वे स्वर्ग में पहुंचे हैं।”
इस पर उत्तंक ने कहा-“जनार्दन ! मैं जानता हूं, आप जगदीश्वर हैं। अब मैं आपको शाप नहीं दूंगा। आप कृपा कर अपना विश्वरूप मुझे दिखलाएं।”
तत्पश्चात भगवान ने उन्हें सनातन विष्णु-स्वरूप का दर्शन कराया और वर मांगने के लिए प्रेरित किया। उत्तंक ने उस मरुभूमि में जल मिलने का वर मांगा। भगवान ने कहा-“जब भी जल की आवश्यकता हो, तब-तब मेरा स्मरण कीजिए।” यह कहकर श्रीकृष्ण द्वारका को चल पड़े।
एक दिन उत्तंक मुनि को बड़ी प्यास लगी। वे पानी के लिए चारों ओर घूमने लगे। इतने में ही उन्हें श्रीकृष्ण की बात स्मरण हो आई। उन्होंने श्रीकृष्ण को याद किया। तब तक देखते क्या हैं-एक नंगधडंग, कुत्तों से घिरा भीषण आकार का चाण्डाल चला आ रहा है। उस चाण्डाल के मूत्रेन्द्रिय से अजस्र जल की धारा गिरती दिखाई देती थी। वह मुनि के निकट आकर बोला-“महर्षे! आपको प्यास से व्याकुल देखकर मुझे बड़ी दया लगती है। आप जल्दी आकर मेरे पास जल पी लीजिए।”
यह सुनकर कुपित होकर उत्तंक उस चाण्डाल को डांटने लगे तथा वर देने वाले श्रीकृष्ण को भी भला-बुरा कहने लगे। उनके इनकार करने पर कुत्तों के साथ चाण्डाल वहीं गायब हो गया। यह देखकर महात्मा उत्तंक समझ गए कि श्रीकृष्ण की ही यह सब माया है। तब तक भगवान श्रीकृष्ण शंख, चक्र, धारण किए वहां प्रकट हो गए। उनको देखते ही उत्तंक बोल उठे-“केशव! प्यास से व्याकुल ब्राह्मण को चाण्डाल का मूत्र देना आपको उचित नहीं।”
श्रीकृष्ण ने बड़े मधुर शब्दों में कहा-“मनुष्य को प्रत्यक्ष रूप से अमृत नहीं पिलाया जाता। इससे मैंने चाण्डाल वेषधारी इन्द्र को गुप्त रूप से अमृत पिलाने भेजा था, किन्तु आप उन्हें पहचान न सके। पहले तो देवराज आपको अमृत देने को तैयार नहीं थे। पर मेरे बार-बार अनुरोध करने पर वे इस शर्त पर आपको अमृत पिलाने तथा अमर बनाने पर तैयार हो गए कि यदि ऋषि चाण्डाल-वेष में तथाकथित ढंग से अमृत पी लेंगे, तब तो मैं उन्हें दे दूंगा और यदि वे न लेंगे तो अमृत से वंचित रह जाएंगे।
पर खेद है आपने अमृत ग्रहण नहीं किया। आपने उनको लौटाकर बड़ा बुरा किया। अस्तु! अब मैं आपको पुनः वर देता हूं कि जिस समय आप पानी पीने की इच्छा करेंगे, उसी समय बादल मरुभूमि में पानी बरसाकर आपको स्वादिष्ट जल देंगे। उन मेघों का नाम उत्तंक-मेघ होगा।”
भगवान के यों कहने पर उत्तंक तब से बडी प्रसन्नता से वहीं रहने लगे। अब भी उत्तंक-मेघ मारवाड़ की मरुभूमि में पानी बरसाते रहते हैं।
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