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पुरुरवा-उर्वशी की प्रेम कहानी

 

पुरुरवा-उर्वशी की प्रेम कहानी




पौराणिक प्रेम कहानियां:पुरुरवा-उर्वशी की प्रेम कहानी

प्राचीन काल में एक महान प्रतापी राजा हुए हैं, पुरुरवा । पुरुरवा का जन्म चंद्रवंश में हुआ था। अपने बाहुबल से उन्होंने अनेक युद्धों में विजय पाई और अनेक देशों को जीता। उस समय उनकी टक्कर का कोई और राजा भूमंडल पर नहीं था। कई बार देवासुर संग्रामों में उन्होंने देवराज इंद्र की सहायता भी की थी, अतः देवराज इंद्र उन्हें अपना मित्र मानते थे। 

एक दिन वे किसी युद्ध से विजयी होकर लौट रहे थे कि तभी एक वन के निकट उन्होंने ‘बचाओ…बचाओ’ का एक स्त्री स्वर सुना। ‘जरूर कोई स्त्री संकट में है’, ऐसा समझकर उन्होंने अपना रथ मोड़ा और तेजी से आवाज की दिशा में चल पड़े। उन्होंने देखा कि कुछ असुर दो स्त्रियों को जबरदस्ती खींचकर अपने रथ में डाल रहे हैं। स्त्रियां लगातार सहायता के लिए चिल्ला रही थीं। 

यह दृश्य देखकर पुरुरवा का क्षत्रिय खून खौल उठा। उन्होंने धनुष पर बाण चढ़ाकर, शत्रु के रथ की ओर छोड़ दिया। वह रथ असुर केशी का था और उसी के आदेश पर उसके असुर सैनिक उन दोनों स्त्रियों का अपहरण कर रहे थे। पुरुरवा के धनुष की टंकार से समूचा वन प्रांत थर्रा उठा। बाण केशी के कान को हवा देता हुआ सर्राटे के साथ आगे निकल गया। केशी बाल-बाल बचा। वह अभी संभल भी नहीं पाया था कि पुरुरवा के छोड़े हुए बाण ने उन स्त्रियों को पकड़ने वाले असुरों में से एक की छाती फाड़ डाली। असुर ‘हाय’ कहकर जमीन पर गिर गया।

यह देखकर केशी भयभीत हो गया। वह पुरुरवा को पहचान गया था। पिछले देवासुर संग्राम में पुरुरवा ने उसकी सेना की जैसी दुर्गति की थी, उसे याद आते ही उसका सारा शरीर झनझना उठा। उसने अपने सैनिकों को स्त्रियों को छोड़कर तुरंत रथ पर चढ़ने का आदेश दिया और इसके पहले कि पुरुरवा के धनुष से और बाण छूटे, अपना रथ तेजी से आगे भगा दिया।

पुरुरवा स्त्रियों के पास पहुंचे। वे भूमि पर गिरकर अचेत हो गई थीं। जैसे ही उनकी दृष्टि उन स्त्रियों पर पड़ी, वे उन दोनों को पहचान गए। उनमें से एक थी, इंद्रलोक की सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी और दूसरी उसकी सहेली थी। अपने रथ में से पानी की छागल निकालकर पुरुरवा ने दोनों के मुख पर जल के छींटे मारे। काठ ही समय बाद दोनों ने अपनी आंखें खोल दीं। उर्वशी की सहेली पहले उठी और उसने उर्वशी के वस्त्रों को व्यवस्थित किया। फिर वह उर्वशी से बोली-‘उर्वशी, उठो! असर पराजित होकर भाग चुके हैं। 

‘सच! किसने पराजित किया उन्हें ?’ उर्वशी ने पूछा। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह असुरों के पंजे से आजाद हो चुकी है। 

‘इन्होंने।’ कहकर उसकी सहेली ने पुरुरवा की ओर संकेत कर दिया। उर्वशी की आंखें ऊपर उठीं और पुरुरवा की आंखों से जा मिलीं। बस, उस पहली ही नजर में दोनों के बीच प्रेम का अंकुर फूट पड़ा। उर्वशी मन-ही-मन पुरुरवा के चेहरे को देखते हुए सोचने लगी-‘आह! कितना दिव्य रूप है इसका। असुरों ने मेरा अपहरण करके अच्छा ही किया। नहीं तो इस दिव्य पुरुष के दर्शन कैसे कर पातीं?’ 

उधर पुरुरवा भी कुछ ऐसा ही सोच रहे थे-‘कितना अनुपम रूप है इसका। ऐसा सौंदर्य मैं पहली बार देख रहा हूं।’ 

चुप्पी पुरुरवा ने ही तोड़ी-‘देवी! मैं चंद्रवंशीय राजा पुरुरवा हूं। आप कौन हैं? कोई वन देवी या कोई अप्सरा?’ 

‘आपने ठीक ही अनुमान लगाया है।’ चंचल चितवन से उसकी ओर देखती हुई उर्वशी ने उत्तर दिया- ‘मैं देवलोक की अप्सरा उर्वशी हूं।’ 

‘देवलोक तो यहां से बहुत दूर है। आप यहां कैसे पहुंच गईं?’ पुरुरवा ने पूछा। 

‘मैं अन्य अप्सराओं के साथ कुबेर की नाट्यशाला से लौट रही थी कि न जाने कहां से दानव पुलकेशी आ पहुंचा। उसे देखकर मेरे साथ की शेष अप्सराएं तो इधर-उधर भाग गईं, किंतु मैं और मेरी यह सहेली उन दानवों के हाथ लग गईं। दानव हम दोनों को अपने रथ में डालकर तेजी से अपने निवास स्थान की ओर ले चला। हम सहायता के लिए चिल्लाने लगीं और उन असुरों के पंजों से छूटने का प्रयास करने लगीं।

तभी नीचे हमें आपका रथ जाता दिखाई पड़ा। आपके रथ को देखकर हमारे मन में आशा जाग उठी। हमने और भी जोर से सहायता के लिए चिल्लाना शुरू कर दिया। असुर सैनिक हमारी बेबसी पर ठहाके लगाते रहे। ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद है कि उसने हमारी पुकार सुन ली और सहायता के लिए आपको भेज दिया। यदि आप समय पर न पहुंचे होते तो वे दुष्ट अपने कुत्सित इरादों में कामयाब हो गए होते। बस इतनी-सी कहानी है हमारी ।’ उर्वशी ने बताया। 

‘उर्वशी! अब भय त्यागकर निश्चित हो जाओ।’ पुरुरवा बोले- ‘मेरे रहते कोई भी असुर तुम्हारा अहित नहीं कर सकता। ये लोग मेरे बाहुबल का स्वाद चख चुके हैं। इसीलिए मुझसे भयभीत रहते हैं। देखा, कैसे वे मेरे एक-दो बाणों के चलते ही 

भयभीत होकर भाग खड़े हुए।’ 

उर्वशी के चेहरे पर पुरुरवा के प्रति प्रशंसा और अनुराग के मिले-जुले भाव पैदा हए। उसकी आसक्ति पुरुरवा के प्रति और भी बढ़ गई। 

‘चलो, मैं तुम्हें देवलोक पहुंचाने का प्रबंध कर दूं।’ पुरुरवा ने कहा। वैसे यह बात कहने में उनका हृदय फटा जा रहा था। वे सोच रहे थे-‘काश! यह रूप की रानी सदैव ही मेरे रनिवास में महारानी बनकर रह पाती।’ 

‘हां-हां चलिए! देवेंद्र हमारे लिए चिंतित हो रहे होंगे। उर्वशी ने कहा। 

वैसे मन में उसके भी कुछ ऐसे ही उद्गार उठ रहे थे-‘काश! मेरे मन-मंदिर के स्वामी! मैं तुम्हें हमेशा के लिए पा सकती।’ 

उदास भाव से उठकर वह रथ में जा बैठी। उसकी सहेली भी उसके समीप बैठ गई। राजा ने घोड़ों की लगाम हिलाकर घोड़ों को चलने का संकेत दिया। घोड़े वायु वेग से दौड़ पड़े। 

पुरुरवा ने अप्सराओं को गंधर्वराज को सौंप दिया और उसे आदेश दिया कि वह उन्हें सुरक्षित देवलोक में पहुंचा आए, फिर वह अपने नगर की ओर लौट पड़े। 

पुरुरवा अपने महल में लौट तो आए, परंतु उस दिन के बाद वे व्याकुल रहने लगे। एक पल के लिए भी उर्वशी की स्मृति उन्हें भूलती नहीं थी। सोते-बैठते हर समय उनकी आंखों में उर्वशी की छवि घूमने लगती थी। 

पुरुरवा का मानवक नामक एक मित्र और सलाहकार था। उससे राजा की यह हालत देखी नहीं गई। उसने पूछ ही लिया-‘मित्र! आजकल तुम इतने व्याकुल क्यों रहते हो?’ 

इस पर पुरुरवा ने उसे सब कुछ बता दिया। फिर वे बोले-‘मित्र! अब मैं उस परम सुंदरी अप्सरा के लिए व्याकुल हूं।’ 

‘ठीक है, सोचते हैं कोई उपाय, पर पहले आप महारानी से तो मिल लीजिए। वह बड़ी बेचैनी से आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं।’ 

पुरुरवा को अपनी भूल का अहसास हुआ। वहां से लौटने के बाद वह अपनी पत्नी औशीनरी से एक बार भी मिलने के लिए नहीं पहुंचे थे। वे तत्काल उठ खड़े हुए और महारानी के कक्ष में जा पहुंचे।

महारानी औशीनरी ने उनका हार्दिक स्वागत किया, और बोलीं-‘स्वामी आप ठीक तो हैं! क्या देवराज इंद्र से भेंट हुई? असुर उन्हें अब तो परेशान नहीं करते?’ 

प्रिय उर्वशी! वहां सब ठीक है, पर अभी मुझे राज्य के कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य पूरे करने हैं। उन्हें पूरा करके मैं जल्दी ही लौट आऊंगा, तब तक तुम मेरी प्रतीक्षा करो।’ यह कहकर पुरुरवा वहां से चले आए। 

परुरवा के ऐसे रूखे व्यवहार से महारानी औशीनरी के दिल को ठेस पहुंची। उन्हें उन पर गुस्सा भी आया। वे सोचने लगीं- ‘उन्होंने मुझे ‘उर्वशी’ कहकर क्यों पुकारा। क्या मेरे स्वामी किसी अन्य स्त्री से प्रेम करने लगे हैं? 

रानी ने तत्काल अपनी अंतरंग सहेली निपुणिका को बुलाया और उससे कहा-‘निपुणिका! हमारे महाराज इन दिनों कुछ भुलक्कड़-से हो गए हैं। तुम उनके परममित्र मानवक के पास जाकर इस रहस्य का पता लगाकर आओ।’ 

‘जैसी आपकी आज्ञा।’ कहकर निपुणिका मानवक से मिलने के लिए चल पड़ी। वैसे उसने यह अनुमान लगा लिया था कि बात क्या है। 

रास्ते में वह सोचने लगी-‘मानवक मुझे महाराज के विषय में कभी कुछ नहीं बताएंगे। वह महाराज के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हैं। मुझे उनसे सारा रहस्य जानने के लिए कोई और ही उपाय करना पड़ेगा।’ 

 इधर मानवक भी स्वयं चिंतातुर था। उसके मन में विचारों का झंझावात चल रहा था। वह सोच रहा था-‘पुरुरवा के कारण से मेरा मन भारी हो उठा है। इस भेद को छिपाए रखने के लिए उचित यही रहेगा कि मैं दूसरे लोगों से कम ही मिलूं।’ 

जब मानवक इस रहस्य को छिपाने की चिंता में डूबा हुआ था, उसी समय निपुणिका उसके पास जा पहुंची। उसने मानवक से कहा-‘श्रीमन् ! महारानी के हृदय को आघात पहुंचा है और मुझे उनको सांत्वना देने में कठिनाई आ रही है। क्या आप मेरी कुछ सहायता कर सकेंगे?’ 

‘क्यों भला? महारानी के हृदय को आघात क्यों पहुंचा है? क्या मेरे मित्र ने उन्हें नाराज कर दिया है?’ मानवक ने पूछा। 

‘यह मैं क्या जानूं?’ चतुर निपुणिका ने कहा- ‘मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने महारानी को उसी नाम से पुकार लिया है, जिसके प्रेम में वे आकंठ डूबे हुए हैं।’ 

‘क्या उन्होंने महारानी को उर्वशी के नाम से पुकारा था?’ मानवक ने पूछा। ‘हां श्रीमन्! वैसे यह उर्वशी है कौन?’ 

है एक अप्सरा।’ मानवक ने बताया-‘महाराज उसके प्रेम के चक्कर में पड़ गए हैं। उनकी इस दशा के कारण मैं स्वयं भी बहुत चिंतित हूं।’ 

तो मेरा अनुमान सही निकला।’ निपुणिका ने सोचा, फिर उसने मानवक से पूछा-‘तो अब मैं महारानी के पास जाकर क्या बताऊं?’ 

‘उनसे यही कहना कि मैं उर्वशी से उनका ध्यान बंटाने के लिए भरसक चेष्टा करूंगा और सफल होते ही उनके सामने प्रस्तुत हो जाऊंगा।’ 

निपुणिका वहां से चली गई। निपुणिका के जाते ही पुरुरवा वहां आ पहुंचे। उन्होंने मानवक से पूछा-‘मानवक। तुमने मेरा भेद किसी को बता तो नहीं दिया?’ 

कैसा भेद राजन! मुझे तो कुछ याद नहीं है। आप किस भेद के बारे में पूछ रहे हैं?’ 

पुरुरवा ने संतोष की सांस ली, फिर बोले-‘मैं शांति चाहता हूं। चलो. हम अपनी वाटिका में घूमने के लिए चलें।। 

वाटिका में पहुंचकर मानवक ने कहा-‘देखिए! कितना सुहाना दृश्य है। चारों ओर सुगंधित पुष्प खिले हुए हैं। यहां बैठकर प्रकृति के सौंदर्य का रसास्वादन कीजिए, भूल जाइए उस उर्वशी को।’ 

यह असंभव है मानवक! मैं उसे कभी भूल नहीं सकता।’ पुरुरवा बोले-‘तुम मुझे कोई ऐसा उपाय बताओ, जिससे मै निरंतर उसकी याद में डूबा रहूं।’ 

जिस प्रकार महाराज पुरुरवा उर्वशी से मिलने के लिए व्याकुल हो रहे थे, वैसी ही हालत उर्वशी की भी थी। जिस दिन से उसकी मुलाकात पुरुरवा से हुई थी, उसी दिन से वह उनके वियोग में व्याकुल हो रही थी। जब वह बहुत बेचैन हो गई तो वह अपनी सखी चित्रलेखा के साथ इंद्रलोक से निकलकर धरती पर जाने के लिए निकल पड़ी। उसने राजा को अपनी वाटिका में बैठे देख लिया, अतः वे दोनों वहीं पहुंच गईं, लेकिन दोनों अदृश्य ही रहीं। 

 ‘आह! कैसा अद्भुत आकर्षक व्यक्तित्व है।’ पुरुरवा को देखकर उर्वशी के मुंह से एक आह-सी निकली। 

तो चलो, प्रकट हो जाएं उनके सामने।’ चित्रलेखा बोली। 

‘नहीं सखी, अभी नहीं।’ उर्वशी जल्दी से बोल उठी-‘पहले ज़रा यह तो सुन लूं कि ये दोनों किस विषय में बात कर रहे हैं!’ 

वाटिका में बैठा मानवक पुरुरवा को सलाह दे रहा था-‘राजन! मेरी नजर में दो उपाय हैं, जिनसे आप अपनी उस दुर्लभ प्रेमिका को सदा के लिए अपने पास रख सकते हैं। 

यह सुनते ही उर्वशी का हृदय बैठने लगा। उसके मुंह से एक कराह-सी निकली-‘हाय! मैं भी कितनी हतभागी हूं। ये तो किसी अन्य सुंदरी से प्रेम करते हैं।’ 

तभी उसकी सखी ने उसे टोका-‘यह क्या उर्वशी! तुम तो मृत्युलोक की किसी स्त्री की तरह ईर्ष्या करने लगीं। मत भूलो कि हम देवलोक की अप्सराएं हैं। 

उर्वशी एक आह भरकर खामोश हो गई। वह फिर से मानवक और पुरुरवा की बातें सुनने लगी। मानवक कह रहा था-‘राजन! वे दोनों उपाय हैं कि या तो आप नींद अधिक लें, ताकि स्वप्न में उर्वशी के दर्शन कर सकें, या फिर उसका चित्र बनाकर उसके ध्यान में मग्न रहें। 

दोनों ही बातें असंभव हैं, मानवक। नींद मुझे आएगी नहीं, क्योंकि मेरी व्यथा मुझे नींद नहीं लेने देगी और चित्र आधा बनने से पहले ही मेरी दृष्टि धुंधली पड जाएगी। काश! वह जान पाती मेरी पीड़ा को। संभवतः वह जानती है, फिर भी न जाने क्यों उसका हृदय इतना कठोर है।’ 

चित्रलेखा ने उर्वशी को कोहनी मारी और बोली- ‘सुना आपने?’ 

‘मैं अब और अधिक सहन नहीं कर सकती।’ बड़े ही पीड़ा-भरे स्वर में उर्वशी ने कहा- ‘जा, एक पत्ता ले आ, ताकि उस पर मैं अपनी व्यथा-कथा लिखकर उन्हें बता सकें।

चित्रलेखा उसके लिए एक पत्ता ले आई, जिस पर उर्वशी ने अपना संदेश लिखा, फिर उसने वह पत्ता धीरे-से पुरुरवा की गोद में गिरा दिया। पत्ता गिरते ही पुरुरवा चौंके। पत्ता उठाया और उस पर लिखा संदेश पढ़ा। वह असमंजस में पड़ गए और बोले-‘इस पर तो किसी ने कुछ संदेश लिखा है।

 ‘महाराज! शायद यह संदेश उर्वशी का है। उसने आपकी पीड़ा से द्रवित होकर यह संदेश भेजा है। मानवक ने कहा। 

‘संदेश को संभालकर रखो।’ पुरुरवा ने उसे वह पत्ता सौंपते हुए कहा-‘कहीं मेरे खुरदरे हाथों से इस पर लिखे प्रेम के अक्षर मिट न जाएं।’ 

परंतु महाराज! आपकी प्रेयसी सामने क्यों नहीं आती?’ मानवक के इतना कहते ही उर्वशी और चित्रलेखा उनके सामने प्रकट हो गईं। प्रेयसी को सामने पाकर पुरवा भाव-विभोर हो उठे और बोले-‘उर्वशी! मैं इस जगत में सबसे भाग्यशाली व्यक्ति हूं, जो मुझे तुम्हारा प्रेम जीतने का अवसर मिला।’ 

जैसे ही पुरुरवा ने उर्वशी का हाथ अपने हाथ में लेना चाहा, उसी समय देवराज इंद्र का दूत उनके समने आ खड़ा हुआ और बोला-‘चित्रलेखा! देवराज इंद्र तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनकी इच्छा है कि आज तुम उनकी सभा में ‘लक्ष्मी-स्वयंवर’ नृत्य प्रस्तुत करो। 

उर्वशी के चेहरे पर उदासी छा गई। पुरुरवा का चेहरा भी मलिन पड़ गया, लेकिन दूत की मौजूदगी में वे कुछ नहीं कह सके। बस, इतना ही कहा- ‘जाओ उर्वशी! जब देवेंद्र ने तुम्हें बुलाया है तो मैं तुम्हें कैसे रोक सकता हूं। बस, इतना ही कह सकता हूं कि कभी-कभी मुझे याद अवश्य कर लेना।’ 

आंखों में आंसू लिए उर्वशी उदास मन से वहां से विदा हो गई। देवेंद्र द्वारा भेजे गए रथ में बैठकर वह तब तक पुरुरवा की ओर ही टकटकी लगाए देखती रही, जब तक वह उसकी दृष्टि से ओझल न हो गए।

उर्वशी के जाने के बाद पुरुरवा की आंखें नम हो गईं। उर्वशी द्वारा भेजा हुआ प्रेम के प्रतीक का वह पत्ता भी न जाने कहां उड़ गया था। वह पागलों की तरह उस पत्ते की तलाश करने लगे। 

जब वे दोनों उस पत्ते को ढूंढ रहे थे, उसी समय निपुणिका और महारानी औशीनरी वाटिका में आ पहुंचीं। वे एक वृक्ष के पीछे छिपकर पुरुरवा के क्रिया-कलापों को देखने लगीं, तभी वह पत्ता अचानक उड़कर महारानी के पैरों के पास पहुंच गया। महारानी ने उस पत्ते को उठाया और उस पर लिखे संदेश को देखकर बोलीं- ‘देखना तो निपुणिका, इस पत्ते पर तो कुछ लिखा है?’ 

निपुणिका ने उस पर लिखा संदेश पढ़ा। वह तत्काल समझ गई कि यह संदेश उसी अप्सरा का है। वह बोली-‘महारानी! यह प्रेम-पत्र निःसंदेह उसी अप्सरा का है। वह देखो, महाराज इस पत्ते को कैसी व्याकुलता के साथ खोज रहे हैं।’ 

 महारानी पत्ता हाथ में लिए पुरुरवा के पास पहुंची। पत्ता उनकी ओर बढ़ाते हुए बोलीं-‘महाराज शायद इस पत्ते को खोज रहे हैं। लीजिए यह रहा आपका अमूल्य प्रेम-पत्र। 

पुरुरवा की हालत उस चोर जैसी हो गई, जो रंगे हाथों पकड़ा गया हो। पत्ता उन्होंने रानी के हाथ से ले लिया, फिर बोले-‘प्रिय महारानी! मैं दोषी हूं। मुझे क्षमा कर दो।’ 

लेकिन औशीनरी तो ईर्ष्या से धधक रही थी। उसने एक शब्द भी न बोला और तेजी से मुड़कर राजमहल की ओर चल पड़ी। उसके जाने के बाद पुरुरवा सोच में पड़ गए-‘मेरे ऊपर उसका आक्रोश स्वाभाविक ही है। यद्यपि मैं उर्वशी से प्रेम करता हूं, पर मैं उसे भी चाहता हूं और उसे उदास नहीं देख सकता। तब तक उसका क्रोध शांत नहीं हो जाता, मुझे धैर्य रखना ही होगा।’ 

उधर महल में पहुंचकर रानी का आक्रोश भी कुछ कम हुआ। उसने ठंडे मन से सोचा-‘मुझे इतना दुर्बल नहीं होना चाहिए। यद्यपि मैं उनके हृदय को ठेस पहुंचाना नहीं चाहती, किंतु इस विषय में कोई-न-कोई ठोस निर्णय तो लेना ही पड़ेगा।’ 

उधर देवलोक में उर्वशी के नृत्य का आयोजन हुआ। उर्वशी ने लक्ष्मी की भूमिका की। जब नृत्य तेज हुआ तो उसकी सह-नर्तकी ने एक संवाद बोला, जो नृत्य का ही एक अंग था। सह-नर्तकी ने पूछा- ‘उर्वशी! यहां जितने भी देवता उपस्थित हैं, उनमें से तुम किसे चाहती हो?’ 

सहसा ही उर्वशी के मुंह से निकला-‘पुरुरवा को। 

प्रेम से पीड़ित उर्वशी के मुंह से ‘पुरुषोत्तम’ कहने के बदले अपने प्रेमी का नाम निकल गया था। इससे उसके गुरु ऋषि भरत क्रोध से भड़क उठे। वे क्रोध से दहाड़े-‘उर्वशी! तुमने मुझे इतने देवताओं के सम्मुख लज्जित कर दिया है। मैं तुम्हें स्वर्ग से निष्कासित करता हूं। जाओ, मेरी नजरों से दूर हो जाओ।’ 

जब नृत्य पूर्ण हुआ, तो इंद्र ने उर्वशी की ओर देखा। वह एक कोने में अकेली सिर झुकाए खड़ी थी। अपनी सबसे प्रिय अप्सरा को उदास देखकर वे द्रवित हो उठे और बोले-‘उर्वशी! तुम मेरी सबसे प्रिय नर्तकी हो और पुरुरवा मेरे परममित्र हैं। तुम उनके पास जाकर रह सकती हो, परंतु यदि तुम्हें उनसे कोई संतान पैदा हो जाए और ज्यों ही उस पर पुरुरवा की दृष्टि पड़े तो तुम्हें उसी समय मेरे दरबार में लौट आना होगा। 

जिस समय देवलोक में यह घटना घट रही थी, लगभग उसी समय महाराज पुरुरवा के राजमहल में महारानी औशीनरी के मन में अपने पति के साथ किए गए व्यवहार पर पश्चाताप हो रहा था। जब उसके मन की तड़पन कुछ ज्यादा ही बढ़ गई तो उसने एक प्रहरी को बुलाया- ‘प्रहरी, जाकर अपने महाराज से कहो कि आज रात मैं छत पर उनकी प्रतीक्षा करूंगी। मैं एक व्रत लेने जा रही हूं, जिसके लिए उनकी उपस्थिति आवश्यक है।’ 

प्रहरी ने महाराज पुरुरवा को जब यह संदेश दिया तो उन्होंने कहा-‘अपनी महारानी से कहना कि मैं वहां अवश्य आऊंगा। मैंने सदा ही उनकी इच्छाओं का आदर किया है। 

पुरुरवा और मानवक निश्चित समय से पहले ही वहां पहुंच गए और महारानी के पहुंचने की प्रतीक्षा करने लगे। 

उसी समय देवलोक से निष्कासित उर्वशी चित्रलेखा के साथ पुरुरवा से मिलने आई। दूर से उसने पुरुरवा को अपने मित्र के साथ खड़ा हुआ देखा। वह उनके सामने प्रकट होने का विचार कर ही रही थी कि उसकी नजर महारानी औशीनरी पर पड़ गई। तब वह अदृश्य रहकर यह देखने लगी कि देखें रानी क्या करने जा रही है। 

महारानी वहां पहुंची तो पुरुरवा ने उसका भावभीना स्वागत किया। औशीनरी के प्रभावशाली व्यक्तित्व और उसके सौंदर्य से उर्वशी अत्यंत प्रभावित हुई। उसने दिल खोलकर अपनी सखी चित्रलेखा से उसकी प्रशंसा की। औशीनरी ने अपने पति के सम्मुख व्रत लिया- ‘मैं औशीनरी, देवताओं को साक्षी मानकर संकल्प ले रही हूं कि मैं किसी के प्रति ईर्ष्या नहीं रसुंगी और आज से हर उस स्त्री को, जिसे मेरे पति प्यार करेंगे, मैं बहन मानकर उसका स्वागत करूंगी।’ 

पुरुरवा भाव-विभोर हो गए और बोले-‘प्रिय महारानी! इस प्रतिज्ञा की क्या आवश्यकता थी। मैं कभी भी तुमसे अलग नहीं हूं।’ 

‘मैं जानती हूं महाराज! पर मैं तो संकल्प कर चुकी।’ महारानी औशीनरी ने कहा। फिर वह अपनी सखियों के साथ वापस लौट गई। 

पुरुरवा उससे बातें करना चाहते थे, किंतु जबान जैसे गूंगी हो गई थी, वे चाहकर भी कुछ कह न सके। उर्वशी उलझन में पड़ गई। सोचने लगी- ‘मैं समझ नहीं पा रही हूं कि यह सब क्या हो रहा है, परंतु उसके शब्दों ने मुझे पवित्र-भाव से भर दिया है और मुझमें विश्वास जगा दिया है। मैं जानती हूं कि वे अपनी महारानी से भी प्यार करते हैं, तथापि मैं भी उनका वियोग सहन नहीं कर सकती।’ 

उर्वशी में नए उत्साह की लहर दौड़ गई। अब वह पुरुरवा के सामने प्रकट हो गई। उर्वशी को सामने पाकर पुरुरवा का रोम-रोम पुलकित हो उठा। उन्होंने आगे बढ़कर उसे अपनी भुजाओं में जकड़ दिया। उर्वशी भी बेताबी से उनके गले लग गई। दोनों ऐसी हालत में बहुत देर तक खड़े रहे, फिर जैसे ही पुरुरवा को होश आया, बोले-‘चलो प्रिय! गंधमादन उद्यान में चलें और कुछ समय वहीं आनंद से बिताएं।’ 

पुरुरवा उर्वशी को लेकर गंधमादन उद्यान में पहुंच गए, जहां उन्होंने कई दिन बहुत उल्लासपूर्वक बिताए। 

एक दिन पुरुरवा ने नदी किनारे एक सुंदर युवती को देखा। उस नवयौवना का स्वरूप देखकर वह उसकी ओर देखते ही रह गए। यह देखकर उर्वशी ईर्ष्या की आग में भड़क उठी। वह सोचने लगी-‘मेरे प्रियतम अब मुझसे प्रेम नहीं करते। वे किसी अन्य लड़की के मोहजाल में फंस गए हैं।’ 

उर्वशी ने उनकी ओर क्रोध-भरी दृष्टि से देखा और बोली-‘आप खुशी से उसे अपना सकते हैं। मैं जाती हूं।’ 

‘अरे ठहरो तो उर्वशी! जरा सुनो तो!’ पुरुरवा ने उसे समझाना चाहा, किंतु वह उनकी बातों को अनसुना कर शीघ्रता से निकट के लताकुंज में चली गई। वह लताकुंज युद्ध के देवता कार्तिकेय का था जिसमें स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध था। जो भी स्त्री उसमें प्रवेश करती थी, वह तत्काल ही लता में बदल जाती थी। लताकुंज में प्रवेश करते ही उर्वशी भी एक लता बन गई, तब वह देवताओं से अपनी मुक्ति की प्रार्थना करने लगी। लता से मुक्त होने का सिर्फ एक ही उपाय था, जो स्वयं कार्तिकेय ने बताया था और वह उपाय यह था कि यदि कोई व्यक्ति उनकी माता पार्वती के चरणों से निकले रक्तवर्ण बिंदु से निर्मित मणि को लाकर लता से स्पर्श करा दे तो वह लता बनी स्त्री फिर से अपने स्वरूप में आ जाएगी।

उधर उर्वशी के वियोग में पुरुरवा का बुरा हाल हो गया। वह पागलों की भांति इधर-उधर भटककर अपनी प्रेयसी को खोजने लगे। एक दिन जब वे इसी प्रकार भटक रहे थे तो एकाएक मां पार्वती की प्रतिमा के नीचे उन्हें एक रक्तमणि दिखाई दी, किंतु उन्होंने उसे यह सोचकर नहीं उठाया कि जब उसे पहनने वाली मेरी प्रेयसी ही नहीं है, तो अब मैं इस रक्तमणि का क्या करूंगा। 

परुरवा थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि अचानक आकाशवाणी हई-‘यह मणि बड़े काम की है पुरुरवा। इसे उठा लो। इसके प्रभाव से बिछुड़े हए प्रेमी फिर से मिल जाएंगे। 

पुरुरवा को अपने कानों पर सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। उन्होंने सोचा-‘आखिर किसी ने मेरा आर्तनाद सुना तो सही, पर यह कौन हो सकता है?’ तभी उनकी दृष्टि 

ऊपर की ओर उठी। सामने देखा तो एक पुष्परहित लता उन्हें उदास-सी दिखाई पड़ी। फिर जैसे ही पुरुरवा ने हाथ बढ़ाकर लता का स्पर्श किया, लता उर्वशी में बदल गई। पुरुरवा को यह सब देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। वे प्रसन्न होकर बोले-‘उर्वशी! मेरी प्यारी उर्वशी! तुम कहां चली गई थीं। तुमने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया?’ 

उर्वशी कुछ बोलने ही वाली थी कि तभी उसकी दृष्टि मणि पर जा पड़ी। मणि को देखकर वह हर्षित हो उठी और बोली-‘मेरे प्रियतम! आज मैं जो पुनः अपने स्वरूप में आपके सामने खड़ी हूं, वह इस मणि के कारण ही संभव हुआ है। उस दिन क्रोध में भरी मैं अनजाने में ही स्त्रियों के लिए निषिद्ध भगवान कार्तिकेय के इस लताकुंज में आ गई थी। परिणामस्वरूप मैं लता में बदल गई। आज इस मणि के प्रभाव से ही मुझे अपना स्वरूप वापस मिल सका है।’ 

उर्वशी के मुख से यह सब सुनकर पुरुरवा भी आश्चर्यचकित रह गए। फिर वे बड़े प्रेम से उसे अपने साथ लेकर अपने नगर में चले गए। लंबे समय के बाद राजा के वापस लौटने पर नगर में उनका भव्य स्वागत हुआ। उस रात सारे नगर में उत्सव मनाया गया। नगरवासी राजमार्गों पर खुशी से झूमते-नाचते गाते रहे। 

उर्वशी राजा के महल में रहती रही। दोनों का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत हो रहा था कि अचानक एक दिन एक घटना घट गई। उस दिन जब उर्वशी स्नान कर रही थी, तो उसके वस्त्रों के ऊपर रखी वह मणि एक कौआ उड़ा ले गया। सेविकाओं ने ये देखकर शोर मचा दिया। सैनिक कौए को मारने के लिए दौड़े, किंतु वह कौआ हाथ नहीं आया। निराश होकर सैनिक लौट आए और सेनापति को आकर यह खबर बता दी। इस पर सेनापति ने उस कौए की तलाश में कई खोजी नियुक्त कर दिए और उन्हें आदेश दे दिया कि आसपास के सभी क्षेत्रों के कौओं के घोंसलों को तलाशा जाए। शायद किसी घोंसले में रखी हुई मणि मिल जाए। 

तीसरे दिन एक खोजी मणि को लेकर राजा के पास पहुंचा। उसके हाथ में एक तीर था। उसने मणि राजा को सौंप दी और कहा कि इस तीर से किसी ने कौए को मार डाला था। 

‘यह तीर किसका है?’ राजा ने पूछा। ‘महाराज! इस तीर पर नाम तो अंकित है, किंतु मेरी आंखें तनिक कमजोर हैं. इसलिए मैं ठीक से पढ़ नहीं सका।’ खोजी ने कहा। 

राजा ने तीर पर लिखा नाम पढ़ा तो चौंक उठे और बोले-‘महान आश्चर्य है! यह तीर तो उर्वशी और पुरुरवा के पुत्र ‘आयुष’ के द्वारा छोड़ा गया है।’ 

‘यह तो और भी सुखद समाचार है महाराज।’ मानवक ने प्रसन्न होकर कहा-‘आपका उत्तराधिकारी मिल गया। अब और क्या चाहिए? 

‘परंतु यह असंभव है।’ पुरुरवा ने कहा- ‘मैं एक दिन के लिए भी उर्वशी से अलग नहीं हुआ, सिवाय उन दिनों के जब वह कार्तिकेय के लताकुंज में समा गई थी। उसके पुत्र कैसे हुआ, मैं कुछ नहीं जानता।’ 

उसी समय एक प्रतिहारी वहां पहुंचा, उसने राजा से कहा- ‘महाराज! च्यवन आश्रम की संन्यासिनी सत्यवती आपसे मिलना चाहती हैं। उनके साथ एक छोटा-सा बालक भी है।’ 

‘उन्हें शीघ्र यहां ले आओ।’ राजा ने कहा। 

जैसे ही संन्यासिनी उस बालक को लेकर वहां पहुंची, मानवक बालक को देखकर बोल उठा-‘महाराज! यह बालक तो बिल्कुल आपकी प्रतिमूर्ति है। तीर चलाने वाला यही बालक होना चाहिए-आपका पुत्र!’ 

‘वही होगा। मैं उसे बांहों में भरने के लिए बेचैन हो रहा हूं। 

राजा ने संन्यासिनी का स्वागत किया और पूछा-‘कहिए माता, कैसे आना हुआ? साथ में यह बालक कौन है?’ 

‘राजन! इस बारे में मैं कुछ नहीं बता सकती।’ संन्यासिनी बोली-‘मैं तो सिर्फ इतना ही जानती हूं कि उर्वशी ने इस बालक आयुष को जन्म देते ही मुझे लालन-पालन के लिए सौंप दिया था। च्यवन ऋषि इसके गुरु हैं, पर आयुष ने आज एक पक्षी को मारकर आश्रम के नियमों का उल्लंघन कर दिया है, इसलिए ऋषि ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं इसे इसकी माता को लौटा दूं। मैं उर्वशी से मिलना चाहती हूं। 

राजा ने उर्वशी को बुलाया। बालक पर निगाह पड़ते ही उर्वशी बांहें फैलाकर उसे गोद में उठाने के लिए लपकी और गोद में उठाकर उसका चुंबन लेने लगी। 

बालक को उसकी माता को सौंपकर संन्यासिनी चली गई। संन्यासिनी के जाते ही उर्वशी के चेहरे पर उदासी छा गई। इस पर राजा ने पूछा-‘उर्वशी! क्या बात है? मेरे जीवन के इस परमसुख के क्षणों में भी तुम्हारे मुख पर उदासी क्यों?’ 

‘स्वामी: अब हमारे मिलन की अंतिम बेला आ गई।’ उर्वशी ने कहा-‘मुझे अब देवलोक में लौट जाना होगा।’ 

‘वह क्यों भला?’ 

इस पर उर्वशी ने पुरुरवा को इंद्र द्वारा रखी हुई शर्त बता दी। 

यह सुनकर राजा पुरुरवा स्तब्ध रह गए। वे बोले- ‘देवता भी कितने ईर्ष्याल होते हैं, उर्वशी! पुत्र पाकर आज मैं कितना खुश हूं, पर अब यह वज्रपात…क्या तम सचमुच ही चली जाओगी?’ 

‘यह बिछोह मेरे लिए भी असहनीय है, मेरे प्रियतम!’ उर्वशी भीगे नयनों से बोली-‘पर करूं क्या? मैं वचनबद्ध जो हूं।’ 

राजा के मुख से एक लंबी सांस निकली। वे बोले- ‘मैं समझता हूं, इंद्र की आज्ञा का पालन तो तुम्हें करना ही पड़ेगा और मैं…मैं अब आयुष का राज्याभिषेक करके वन में चला जाऊंगा।’ 

तभी अचानक आकाश में बिजली चमकी और देवर्षि नारद आकाश से उतरकर पृथ्वी पर आ पहुंचे। राजा, उर्वशी और नन्हे आयुष ने उन्हें सम्मानपूर्वक प्रणाम किया। 

‘आप दोनों का दाम्पत्य-प्रेम चिरकाल तक बना रहे। नारद ने आशीर्वाद दिया। 

‘काश! ऐसा हो सकता। राजा ने एक लंबी सांस खींचकर कहा, फिर पूछा-‘देवर्षि, अब आप अपने यहां पधारने का कारण बताइए? 

‘मैं प्रभुत्वशाली देवेंद्र का संदेश लेकर आया हूं।’ नारद बोले- ‘उन्हें असुरों को पराजित करने के लिए आपकी सहायता की आवश्यकता है। वह नहीं चाहते कि 

आप वैराग्य लेकर वन में जाएं। उन्होंने सदा के लिए उर्वशी आपको भेंट कर दी है।’

 यह सुनकर पुरुरवा खुशी से झूम उठे। उर्वशी का मुरझाया चेहरा भी एक नवीन कांति से भर गया। राजा और उर्वशी दोनों ने देवर्षि का आभार व्यक्त किया, जो उनके लिए यह खुशखबरी लेकर आए थे। फिर वे दोनों चिरकाल तक सुखपूर्वक जीवन का आनंद लेते रहे।

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