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श्रीमत अष्टावक्रगीता हिन्दी अनुबाद सहित भाग -2 Astrawakra gita


 एकस्मिन्नव्ययेशान्तेचिदाकाशेऽमलेत्वयि ।


कुतोजन्मकुतोकमकुतोऽहङ्कारएवच ॥ १३॥


अन्वय:- एकस्मिन् अव्यये शान्ते चिदाकाशे अमले त्वयि जन्म कुतः कर्म कुतः, अहङ्कारः च एव कुतः ॥ १३ ॥


हे शिष्य ! तू अविनाशी, एक, शांत, चैतन्याकाशस्वरूप और निर्मलाकाशस्वरूप है, इस कारण तेरा जन्म नहीं होता है तथा तेरे विषें अहंकार होना भी नहीं घट सकता है, क्योंकि कोई द्वितीय वस्तु होय तो अहंकार होता है, तथा तेरे विषें जन्म होना भी नहीं बन सकता है, क्योंकि अहंकार के बिना कर्म नहीं होता है, इस कारण तू शुद्धस्वरूप है ॥ १३॥


यत्त्वं पश्यसि तत्रेकस्त्वमेव प्रतिभास से । किं पृथक् भासते स्वर्णात्कटकांगदनूपुरम् ॥ १४॥


अन्वय:- यत् त्वम् पश्यसि तत्र त्वम् एव एकः प्रतिभाससे; कटकाङ्गदनूपुरम् किम् स्वर्णात् पृथक् भासते ॥ १४॥


जिस प्रकार कटक, बाजूबंद और नूपुर आदि आभूषणों के विषें एक सुवर्ण ही भासता है, तिसी प्रकार जिस २ कार्य को तू देखता है तिस २ कार्य के विषें एक कारण स्वरूप तू ही (आत्मा ही ) भासता है ॥१४॥


अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति सन्त्यज।

सर्वमात्मेति निश्चित्य नि:संकल्पःसुखीभव ॥१५॥


अन्वय:- सः अयम् अहम्, अयम् अहम् न इति विभागम् संत्यज, (तथा ) सर्वम् आत्मा इति निश्चित्य निःसंकल्पः (सन् ) सुखी भव ॥ १५॥


यह जो संपूर्ण देह आदि पदार्थ हैं तिन का मैं साक्षी हूं और मैं देह, इंद्रिय आदिरूप नहीं हूं अथवा यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं, इस भेद का त्याग कर और संपूर्ण जगत् आत्मा ही है ऐसा निश्चय करके, सम्पूर्ण संकल्प विकल्पों को त्यागकर सुखी हो ॥१५॥


तवैवाज्ञानतो विश्वं त्वमेकः परमार्थतः।

त्वत्तोऽन्यो नास्ति संसारी नसंसारीच कश्चन ॥ १६॥


अन्वयः-विश्वम् तव अज्ञानतः एव ( भवति ), परमार्थतः त्वम् एकः ( एव अतः) संसारी त्वत्तः अन्यः न अस्ति; असं. सारी च कश्चन ( त्वत्तः अन्यः ) न ( अस्ति )॥१६॥ 


हे शिष्य ! तेरे अज्ञान से ही विश्व भासता है, वास्तव में संसार कोई नहीं है, परमार्थस्वरूप अद्वितीय तू एक ही है, इस कारण ही तुझ से अन्य कोई संसारी अथवा असंसारी नहीं है ॥ १६॥


भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चयी ।

निर्वासनःस्फूर्तिमात्रो न किञ्चिदिव शाम्यति॥ १७॥


अन्वय:- इदम् विश्वम् भ्रान्तिमात्रम् किञ्चित् न, इति निश्चयी (परुषः ) निर्वासनः स्फूर्तिमात्रः ( सन् ) न किश्चित शाम्यति ॥ १७ ॥


यह विश्व भांतिमात्र से कल्पित है, वास्तव में किंचिन्मात्र भी सत्य नहीं है, इस प्रकार जिस को निश्चय हुआ है वह पुरुष वासनारहित और प्रकाशस्वरूप होकर केवल चैतन्यस्वरूप के विषें शान्ति को प्राप्त होता है ॥ १७॥


एक एव भवाम्भोधावासीदस्ति भविष्यति। नतेबन्धोऽस्ति मोक्षो वा कृतकृत्यःसुखं चर ॥१८॥


अन्वय:- भवाम्भोधौ एकः एव आसीत्, अस्ति भविष्यति, ( अतः ) ते बन्धः वा मोक्षः न अस्ति (अतः त्वम् ) कृतकृत्यः ( सन् ) सुखं चर ॥ १८॥


भूत भविष्यत् और वर्तमानरूप त्रिकालमें भी इस संसारसमुद्र के विषें तू ही था और तू ही है तथा तू ही होगा अर्थात् इस संसार के विषें सदा एक तू ही रहा है, इस कारण तेरा बंध और मोक्ष नहीं है, सो कृतार्थ हुआ तू सुखपूर्वक विचर ॥ १८॥


मा सङ्कल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय ।

उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे ॥ १९॥


अन्वय:- ( हे शिष्य ! ) चिन्मय ! सङ्कल्पविकल्पाभ्याम् चित्तम् मा क्षोभय उपशाम्य आनन्दविग्रहे स्वात्मनि सुखम् तिष्ठ ॥ १९॥


हे शिष्य ! तू चैतन्यस्वरूप है, संकल्प और विकल्पों से चित्त को चलायमान मत कर, किंतु चित्त को संकल्पविकल्पों से शांत कर के आनंदरूपआत्मस्वरूप के विषें सुखपूर्वक स्थित हो ॥ १९॥


त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किञ्चिद्धृदिधारय ॥


आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि ॥२०॥


अन्वय:- सर्वत्र एव ध्यानम् त्यज, हदि किञ्चित् अपि मा धारय , आत्मा त्वम् मुक्तः एव असि, ( अतः) विमृश्य किम् करिष्यसि ॥२०॥


हे शिष्य.! सर्वत्र ही ध्यान का त्याग कर, कुछ भी संकल्प विकल्प हृदय के विषेधारण मत कर, क्योंकि आत्मरूप तू सदा मुक्त ही है, फिर विचार (ध्यान) कर के और क्या फल प्राप्त करेगा॥२०॥


इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं तत्त्वोपदेशविंशतिकं नाम पञ्चदशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १९॥


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अथ षोडशं प्रकरणम् १६.

आचक्ष्व श‍ृणु वातात नानाशास्त्राण्यनेकशः।

तथापि न तव स्वास्थ्यंसर्वविस्मरणाहते॥१॥


अन्वय:- हे तात ! नानाशास्त्राणि अनेकशः आचक्ष्व वा श‍ृणु तथापि सर्वविस्मरणात् ऋते तव स्वास्थ्यम् न स्यात् ॥ १॥


तत्वज्ञान के उपदेश से जगत् को आत्मस्वरूप से देखना और तृष्णा का नाश करना ही मुक्ति कहाती है, यह विषय वर्णन करते हैं, हे शिष्य ! तू नाना प्रकार के शास्त्रों को अनेक बार अन्य पुरुषों के अर्थ उपदेश कर अथवा अनेक बार श्रवण कर परंतु सब को भूले बिना अर्थात् संपूर्ण वस्तु के भेद का त्याग किये बिना स्वस्थता अर्थात मुक्ति कदापि नहीं होगी किंतु संपूर्ण वस्तुओं में भेद दृष्टि का त्याग करने से ही मोक्ष होगा। तहां शिष्य शंका करता है कि, सुषुप्ति अवस्था के विषें किसी वस्तु का भी भान नहीं होता है इस कारण सुषुप्ति अवस्था में संपूर्ण प्राणियों का मोक्ष हो जाना चाहिये। इस शंका का गुरु समाधान करते हैं कि सुषुप्ति में संपूर्ण वस्तुओं का भान तो नहीं रहता है परंतु एक अज्ञान का भान तो रहता है, इस कारण मोक्ष नहीं होता है और जीवन्मुक्त का तो अज्ञानसहित जगन्मात्र का ज्ञान नहीं रहता है, इस कारण उस का मुक्ति हुइहा समझना चाहिय॥१॥


भोगं कर्म समाधि वा कुरु विज्ञ तथापि ते।

चित्तं निरस्तसर्वाशमत्यर्थरोचयिष्यति॥२॥


अन्वय:- हे विज्ञ ! ( त्वम् ) भोगम् कर्म वा समाधिम् कुरु तथापि ते चित्तम् अत्यर्थम् निरस्तसर्वाशम् रोचयिष्यति ॥२॥


हे शिष्य ! तू ज्ञानसंपन्न होकर विषयभोग कर अथवा सकाम कर्म कर अथवा समाधि को कर तथापि संपूर्ण वस्तुओं के विस्मरण से सब प्रकार की आशा से रहित तेरा चित्त आत्मस्करूप के वि ही अधिक रुचि को उत्पन्न करेगा ॥२॥


आयासात्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन ।

अनेनैवोपदेशेन धन्यः प्राप्नोति निर्वृतिम् ॥३॥


अन्वय:- सकल: आयासात् दुःखी ( भवति ), ( परन्तु ) एनम् कश्चन न जानाति; अनेन उपदेशेन एव धन्यः निर्वृतिम् मामोति ॥ ३ ॥


प्राणिमात्र विषय के परिश्रम से दुःखी होते हैं परंतु कोई इस वार्ता को नहीं जानता। क्योंकि विषयानंद के विषें निमग्न होता है, जो भाग्यवान् पुरुष होता है वह सद्गुरु से इस उपदेश को ग्रहण कर के परम सुख को प्राप्त होता है॥३॥


व्यापारेखिद्यते यस्तु निमेषोन्मेषयोरपि ।

तस्यालस्यधुरीणस्थ सुखं नान्यस्य कस्यचित् ॥४॥


अन्वय:- यः तु निमेषोन्मेषयोः अपि व्यापारे खिद्यते आलस्यधुरीणस्य तस्य (एव) सुखम् (भवति), अन्यस्य कस्यचित् न॥४॥


जो पुरुष नेत्रों के निमेष उन्मेष के व्यापार में अर्थात् नेत्रों के खोलनेमूंदनमें भी परिश्रम मानकर दुःखित होता है, इस परम आलसीको ही अर्थात् उस निष्क्रिय पुरुषको ही परम सुख मिलता है, अन्य किसीको ही नहीं॥४॥


इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तं यदा मनः।

धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षं तदा भवेत् ॥५॥


अन्वय:- इदम् कृतम्, इदम् न ( कृतम् ), इति द्वन्दैः यदा मनः मुक्तम् ( भवति ) तदा धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षम् भवेत् ॥ ५॥


जिस के मन का द्वैतभाव नष्ट हो जाय अर्थात् यह कार्य करना चाहिये, यह नहीं करना चाहिये, यह विधिनिषेधरूपी इन्द्र जिस के मन से दूर हो जाय, वह पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारोंमें भी इच्छा न करे, क्योंकि वह पुरुष जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है ॥५॥


विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलुपः ।

ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो नरागवान्॥६॥


अन्वय:- विरक्तः विषयद्वेष्टा ( भवति ), रागी विषयलोलुपः (भवति ) ग्रहमोक्षविहीनः तु न विरक्तः (भवति ) न रागवान ( भवति ) ॥ ६॥


जो पुरुष विषय से द्वेष करता है वह विरक्त कहाता है और जो विषयों में अतिलालसा करता है वह रागी (कामुक) कहाता है, परंतु जो ग्रहण और मोक्ष से रहित ज्ञानी होता है, वह न विषयों से द्वेष करता है, और न विषयों से प्रीति करता है अर्थात् प्रारब्धयोगानुसार जो प्राप्त होय उस का त्याग नहीं करता है और

अप्राप्त वस्तु के मिलने की इच्छा नहीं करता है इस कारण जीवन्मुक्त पुरुष विरक्त और रागी दोनों से विलक्षण होता है ॥६॥


हेयोपादेयता तावत्संसारविटपांकुरः। 

स्टहा जीवति याव? निर्विचारदशास्पदम्॥ ७ ॥


अन्वय:- निर्विचारदशास्पदम् स्पृहा यावत् जीवति तावत् वै हेयोपादेयता संसारविटपांकुरः ( भवति ) ॥ ७ ॥


तहां शंका होती है कि, ज्ञानियों के विषें तो त्याग और ग्रहण का व्यवहार देखने में आता है । तहां कहते हैं कि जिस समयपर्यंत अज्ञानदशा के निवास करने का स्थानरूप इच्छा रहती है तिस समयपर्यंत ही पुरुष का ग्रहण करना और त्यागनारूप संसाररूपी वृक्ष का अंकुर रहता है और ज्ञानियों का तो इच्छा न होने के कारण त्यागना और ग्रहण करना देखने मात्र होते हैं ॥७॥


प्रवृत्तौ जायते रागो निवृत्तौ द्वेष एव हि।

निर्द्वन्द्रो बालवद्वीमानेवमेव व्यवस्थितः॥८॥


अन्वय:- हि प्रवृत्तौ रागः, निवृत्तौ एव द्वेषः जायते ( अतः) धीमान् बालवत् निईन्द्रः ( सन् ) एवम् एव व्यवस्थितः भवेत् ८

यदि विषयों में प्रीति करे तो प्रीति दिनपर दिन बढती जाती है और विषयों से द्वेषपूर्वक निवृत्त होय

तो दिनपर दिन विषयों में द्वेष होता जाता है; इस कारण ज्ञानी पुरुष शुभ और अशुभ के विचाररहित जो बालक तिस की समान रागद्वेषरहित होकर संगपूर्वक जो विषयों में प्रवृत्ति करना और द्वेषपूर्वक जो विषयों से निवृत्त होना इन दोनों से रहित होकर रहे और प्रारब्धकर्मानुसार जो प्राप्त होय उस में प्रवृत्त होय और अप्राप्ति की इच्छा न करे ॥८॥


हातुमिच्छति संसारं रागीदुःखजिहासया।

वीतरागोहि निर्मुक्तस्तस्मिन्नपि न खिद्यति ॥९॥


अन्वय:- रागी दुःखजिहासया संसारम् हातुम् इच्छति; हि वीतरागः निर्मुक्तः ( सन् ) तस्मिन् अपि न खिद्यति ॥ ९ ॥


जो विषयासक्त पुरुष है वह अत्यंत दुःख भोगने के अनंतर, दुःखों के दूर होने की इच्छा कर के संसार को त्याग करने की इच्छा करता है और जो वैराग्यवान् पुरुष है वह दुःखों से रहित हुआ संसार में रहकर भी खेद को नहीं प्राप्त होता है ॥९॥


यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा ।

न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ ॥१०॥


अन्वय:- यस्य मोक्षे अपि अभिमानः तथा देहे अपि ममता असौ न च ज्ञानी न वा योगी (किन्तु ) केवलम् दुःखभाक् १०

जिस पुरुष को ऐसा अभिमान है कि, मैं मुक्त हूं, त्यागी हूं, मेरा शरीर उपवास आदि अनेक प्रकार के कष्ट सहने में समर्थ है और जिस का देह के विषें ममत्व है, वह पुरुष न ज्ञानी है, न योगी है किंतु केवल दुःखी है, क्योंकि उस का अभिमान और ममता दूर नहीं हुए हैं ॥१०॥


हरो यापदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा।

तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाहते ॥११॥


अन्वय:- यदि हरः वा हरिः (अथवा ) कमलजः अपि ते उपदेष्टा (स्यात) तथापि सर्वविस्मरणात् ऋते तव स्वास्थ्यम न स्यात् ॥ ११॥


हे शिष्य ! साक्षात् सदाशिव तथा विष्णु भगवान् और ब्रह्माजी ये तीनों महासमर्थ भी तेरे को उपदेश करें, तौ भी संपूर्ण प्राकृत, अनित्य वस्तुओं की विस्मृति बिना तेरा चित्त शांति को प्राप्त नहीं होयगा और जीवन्मुक्तदशा का सुख प्राप्त नहीं होयगा ॥११॥


इति श्रीमदृष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं विशेषोपदेशं नाम षोडशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १६॥


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अथ सप्तदशं प्रकरणम् १७.

तेन ज्ञानफलं प्राप्तं योगाभ्यासफलं तथा ।

तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यमे- का की रमते तु यः॥१॥


अन्वय:- यः तु तृप्तः स्वच्छेन्द्रियः (सन् ) नित्यम् ए का की रमते; तेन ज्ञानफलं तथा योगाभ्यासफलम् प्राप्तम् ॥ १॥


अब अन्य पुरुषोंकी भी ज्ञान में प्रवृत्ति होने के अर्थ तत्वज्ञान के फल का निरूपण करने की इच्छा करते हुए गुरु प्रथम तत्वज्ञान की दशा का निरूपण करते हैं जो पुरुष इंद्रियों को विषयों से हटाकर और अपने स्वरूपमें ही तृप्त होकर विषयसंयोग के बिना इकला ही सदा आत्मा के विषें रमण करता है, उस पुरुषने ही ज्ञान का तथा योग का फल पाया है ॥१॥


न कदाचिजगत्यस्मिस्तत्त्वज्ञो हन्त खिद्यति ।

यत एकेन तेनेदं पूर्ण ब्रह्माण्डमण्डलम् ॥२॥


अन्वय:- हन्त ! तत्वज्ञः कदाचित् अस्मिन् जगति न खिद्यति; यतः एकेन इदं ब्रह्माण्डमण्डलम् पूर्णम् ॥ २ ॥


हे शिष्य ! इस संसार के विषें आत्मतत्वज्ञानी कदापि खेद को नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि तिस इकले से ही यह ब्रह्माण्डमंडल पूर्ण है, सो दूसरे के न होने से खेद किस प्रकार हो सकता है, सोई श्रुतिमें भी कहा है “द्वितीया? भयं भवति ॥२॥


नजातु विषयाः केपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी ।

सल्लकीपल्लवप्रीतभिवेभं निम्बपल्लवाः ॥ ३॥


अन्वय:- सल्लकीपल्लवप्रीतम् इभं निम्बपलवाः इव अमी के अपि विषयाः स्वारामं जातु न हर्षयन्ति ॥ ३ ॥


जो निरंतर आत्मा के विषें रमता है, वह आत्माराम कहाता है, तिस आत्माराम पुरुष को जगत् के कोई विषय क्या प्रसन्न कर सकते हैं, जिस प्रकार एक महामदोन्मत्त हस्ती वन में हजार हस्तियों के झुंड में विहार करता है और परम मधुरस्वादवाली सल्लकीनामक लता के कोमल पत्तों का प्रेमपूर्वक भक्षण करता है, और कडुवे नीम के पत्तों से प्रसन्न नहीं होता है, तिसी प्रकार ज्ञानी भी परम मधुर आत्मा का स्वाद लेता है और विषयों के सुखों को परम कडुआ जानकर त्याग देता है अर्थात् उन की ओर दृष्टि भी नहीं देता है ॥३॥


यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासिता।

अभुक्तेषु निराकांक्षी ताहशो भवदुलभः॥४॥


अन्वय:- यः तु भुक्तेषु भोगेषु अधिवासिता न भवति; (तथा) अभुक्तेषु निराकांक्षी ( भवति ) तादृशः (पुरुषः) भवदुर्लभः॥४॥


जिस की भोगे हुए विषयों में आसक्ति नहीं होती है, और नहीं भोगे हुए विषयों में अभिलाषा नहीं होती है, ऐसा पुरुष संसार में दुर्लभ है अर्थात् करोडों में एक आदमी होता है ॥४॥


बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते।

भोगमोक्षनिराकांक्षीविरलोहि महाशयः॥५॥


अन्वय:- इह संसारे बुभुक्षुः मुमुक्षुः अपि दृश्यते हि भोगमोक्षनिराकांक्षी महाशयः विरलः ॥ ५॥


इस संसार में विषयभोग की अभिलाषा करनेवाले भी बहुत देखने में आते हैं और मोक्ष की इच्छा करनेवाले भी बहुत देखने में आते हैं परंतु विषयभोग और मोक्ष दोनों की इच्छा न करनेवाला तथा पूर्णब्रह्म के विषें अंतःकरण लगानेवाला विरला ही होता है, सोई श्रीकृष्णभगवान्ने भगवद्वीता के विषें कहा है कि “यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः” ॥५॥


धर्मार्थकाममोक्षेषुजीविते मरणे तथा।

कस्याप्युदारचित्तस्यहेयोपादेयतान हि॥६॥


अन्वय:- धमार्थकाममोक्षेषु जीविते तथा मरणे कस्य अपि उदारचित्तस्य हि हेयोपादेयता न ॥ ६॥


धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार परम फल हैं, इन के विषें संपूर्ण प्राणियों का अंतःकरण बंधा है तथा संपूर्ण प्राणियों को जन्ममरण का भय रहता है, परंतु ज्ञानी पुरुष का मन धर्मादि के विषें नहीं बंधता है और जो ज्ञानी तिन धर्मादिक को सुखरूप जानकर ग्रहण नहीं करता है और दुःखरूप जानकर त्यागता नहीं है, तथा जीवनमरण से अपनी कुछ वृद्धि और हानि नहीं समझता है ऐसा ज्ञानी कोई विरला ही होता है ॥६॥


वाञ्छा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ ।

यथा जीविकया तस्माद्धन्य आस्ते यथासुखम् ॥७॥


अन्वय:- ( यस्य ) विश्वविलये वाञ्छा न, तस्य स्थितौ च देषः न ( अस्ति ) तस्मात् धन्यः ( सः ) यथाजीविकया यथासुखम् आस्ते ॥ ७ ॥


जो ज्ञानी है, उस को इस विश्व के नाश की इच्छा नहीं होती है तथा तिस विश्व की स्थितिसे द्वेष नहीं होता है, क्योंकि वह ज्ञानी तो जानता है कि, सदा सर्वत्र एक

ब्रह्म ही प्रकाश कर रहा है और प्रारब्धकर्मानुसार देह को धारण करता है तथा सदा सुखरूप रहता है ऐसा ज्ञानी पुरुष धन्य है ॥ ७॥


कृतार्थोऽनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधीः कृती।

पश्यन् श‍ृण्वन् स्टशन जिघनश्नन्नास्ते यथासुखम् ॥ ८॥


अन्वय:- अनेन ज्ञानेन ( अहम् ) कृतार्थः इति एवम् गलि. तधीः कृती पश्यन् श‍ृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अनन् यथासुखम् आस्ते ॥ ८॥


इस “ तत्वमसि “ आदि महावाक्य के ज्ञान से मैं कृतार्थ होगया हूं ऐसा निश्चय होने से देहादि के विषें जिस की आत्मबुद्धि नष्ट हो गई है, ऐसा ज्ञानी देखता हुआ, श्रवण करता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ तथा भक्षण करता हुआ भी सुखपूर्वक ही स्थित होता है अर्थात् मैं ज्ञान से कृतार्थ होगया ऐसी बुद्धि के कारण, बाह्य इंद्रियों का व्यापार होनेपर भी मूर्ख की समान ज्ञानी को खेद नहीं होता है ॥८॥


शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च ।

न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे ॥ ९॥


अन्वय:- क्षीणसंसारसागरे ( पुरुषे ) दृष्टिः शून्या, चेष्टा वृथा, इन्द्रियाणि च विकलानि, स्पृहा न वा विरक्तिः न ॥९॥


जिस ज्ञानी का संसारसागर क्षीण हो जाता है उस को विषयभोग की इच्छा नहीं होती है और विषयों से विरक्ति भी नहीं होती है, क्योंकि ज्ञानी की दृष्टि कहिये मन का व्यापार शून्य कहिये संकल्पविकल्परहित होता है और चेष्टा कहिये शरीर का व्यापार वृथा कहिये फल की इच्छा से रहित होता है तथा नेत्र आदि इंद्रिये विकल कहिये समीप में आये हुए भी विषयों को यथार्थ रूप से न जाननेवाली होती हैं सोई भगवद्गीता के विषें कहा भी है कि “ यस्मिन् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः “ ॥ ॥९॥


न जागर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति ।

अहो परदशा कापि वर्त्तते मुक्तचेतसः ॥ १०॥


अन्वय:- न जागर्ति न निद्राति न उन्मीलति न मीलति, अहो मुक्तचेतसः का अपि परदशा वर्तते ॥ १० ॥


न जागता है, न शयन करता है, न नेत्रों के पलकों को खोलता है, न मीचता है अर्थात् संपूर्ण विषयों को ब्रह्मरूप देखता है, इस कारण आश्चर्य है कि, मुक्त है चित्त जिस का ऐसे ज्ञानी की कोई परम उत्कृष्ट दशा है॥१०॥


सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः ।

समस्तवासनामुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते ॥ ११ ॥


अन्वय:- मुक्तः सर्वत्र स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः ( च ) दृश्यते; ( तथा ) समस्तवासनामुक्तः ( सन् ) सर्वत्र राजते ॥ ११॥


जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष सुख दुःखादि सर्वत्र स्वस्थ चित्त रहनेवाला और शत्रु मित्र आदि सब के विषें निर्मल अंतःकरणवाला (समदर्शी ) दीखता है और संपूर्ण वासनाओं से रहित होकर सब अवस्थाओं के विषें आत्मस्वरूप के विषें विराजमान होता है ॥११॥


पश्यन् श‍ृण्वन् स्टशन जिघनश्नन्गृह्णन्वदन् वजन् ।

ईहितानीहितैर्मुक्तो मुक्त एव महाशयः ॥ १२॥


अन्वय:- पश्यन् श‍ृण्वन् स्पृशन् जिवन् अनन् गृह्णन् वदन वजन ( आप ) ईहितानीहितः मुक्तः महाशयः मुक्तः एव ॥ १२॥


देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, ग्रहण करता हुआ, भोजन करता हुआ, कथन करता हुआ तथा गमन करता हुआ भी इच्छा और द्वेष से रहित ब्रह्म के विषें चित्त लगानेवाला मुक्त ही है ॥१२॥


सुखे दुःखे नरे नायाँ सम्पत्सु च विपत्सुच।

विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः॥१५॥


अन्वय:- सुखे दुःखे, नरे ना-म् सम्पत्सु, च विपत्सु च धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः विशेषः न एव ॥ १५ ॥


संपूर्ण वस्तुओं के विषें एक आत्मदृष्टि करनेवाले जिस धीर पुरुष का मन सुख के विष और स्त्रीविलास के विषें तथा संपत्ति के विषें प्रसन्न नहीं होता है और महादुःख तथा विपत्ति के विषें कंपायमान नहीं होता है वही मुक्त है ॥१५॥


न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता।

नाश्चर्य नैव च क्षोभः क्षीण संसरणे नरे॥१६॥


अन्वय:- क्षीणसंसरणे नरे हिंसा न, कारुण्यम् न, औद्धत्यम् न, दीनता च एव न, आश्चर्यम् न, क्षोभः च एव न ॥ १६ ॥


जिस पुरुष का संसार क्षीण हो जाता है अर्थात् देहाभिमान दूर हो जाता है उस का जन्ममृत्युरूप बंधन दूर हो जाता है, ऐसे ज्ञानी के मन में हिंसा कहिये परद्रोह नहीं हो जाता, दयालुता नहीं होती है, उद्धतता नहीं होती है, दीनता नहीं रहती है, आश्चर्य नहीं रहता

है और क्षोभ भी नहीं रहता है, क्योंकि ज्ञानी का एक ब्रह्माकार हो जाता है ॥१६॥


नमुक्तो विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुपः।

असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते॥१७॥


अन्वय:- मुक्तः विषयद्वेष्टा न ( भवति ), वा विषयलोलुपः (च) न ( भवति, ), (किन्तु ) नित्यम् असंसक्तमनाः (सन) प्राप्ताप्राप्तम् उपाइनुते ॥ १७ ॥


जीवन्मुक्त पुरुष विषयों से द्वेष ( विषयों का त्याग) नहीं करता है और विषयों में आसक्त भी नहीं होता है किंतु विषयासक्तिरहित है मन जिस का ऐसा होकर नित्य प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त और अप्राप्त को भोगता है ॥१७॥


समाधानासमाधानहिताहितविकल्पनाः ।

शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थितः॥१८॥


अन्वय:- शून्यचित्तः कैवल्यम् संस्थितः इव समाधानासमाधानहिताहितविकल्पनाः न जानाति ॥ १८ ॥


शून्य है चित्त जिस का ऐसा जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष विदेह कैवल्यदशा को प्राप्त हुए की समान समाधान,

असमाधान, हित और अहित की कल्पना को नहीं जानता है, क्योंकि उस का मन ब्रह्माकार हो जाता है ॥ १८॥


निर्ममो निरहंकारो न किञ्चिदिति निश्चितः।

अन्तर्गलितसर्वाशः कुर्वनपि करोति न॥१९॥


अन्वय:- निर्ममः निरहङ्कारः किञ्चित् न इति निश्चितः अन्तर्ग: लितसर्वाशः कुर्वन् अपि न करोति ॥ १९ ॥


जिस की स्त्रीपुत्रादि के विषें ममता दूर हो गई है और जिस का देहाभिमान दूर हो गया है तथा ब्रह्म से अन्य द्वितीय कोई वस्तु नहीं है ऐसा जि से निश्चय हो गया है और जिस की भीतर की आशा नष्ट हो गई है ऐसा ज्ञानी पुरुष विषयभोग करता हुआ भी नहीं करता है अर्थात् उस में आसक्ति नहीं करता है ॥ १९॥


मनःप्रकाशसंमोहस्वप्नजाड्यविवर्जितः।

दशां कामपि सम्प्राप्तो भवेदलितमानसः ॥२०॥


अन्वय:- मनःप्रकाशसंमोहस्वमजाडयविवर्जितः । गलितमानसः काम अपि दशाम् सम्प्राप्तः भवेत् ॥ २० ॥


जिस के मन के विषें मोह नहीं है ऐसा जो ज्ञानी पुरुष है उस के मन का प्रकाश तथा अज्ञानरूपी जडत्व निवृत्त हो जाता है तिस ज्ञानी की कोई अनिर्वचनीय

अष्टावक्रगीता।दशा होती है अर्थात् उस ज्ञानी की दशा किसी के जानने में नहीं आती है ॥२०॥


इति श्रीमदष्टावकमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं तत्त्वज्ञस्वरूपविशतिकं नाम सप्तदशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १७॥


अष्टादशं प्रकरणम् १८.

यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रमः।

तस्मै सुखैकरूपाय नमःशान्ताय तेजसे॥१॥


अन्वयः यस्य बोधोदये भ्रमः स्वमवत् भवति; तावत् तस्मै सुखैकरूपाय शान्ताय तेज से नमः ॥ १॥


इस प्रकरण में शांति की प्रधानता वर्णत करते हुए प्रथम शांति का वर्णन करते हैं तहां भी प्रथम शांत आत्मा को नमस्कार करते हैं, जिस आत्मा का ज्ञान होते ही यह प्रत्यक्ष संसार स्वप्र की समान मिथ्या भासने लगता है, प्रथम तिस सुखरूप प्रकाशमान शांतसंकल्पस्वरूप आत्मा के अर्थ नमस्कार है ॥१॥


अर्जयित्वाऽखिलानर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान् ।

नहि सर्वपरित्यागमन्तरेण सुखी भवेत् ॥२॥


अन्वय:- अखिलान् अर्थान् अर्जयित्वा पुष्कलान् भोगान आप्नोति, सर्वपरित्यागमन्तरेण सुखी नहि भवेत् ॥ २॥


यहां शांतसंकल्पस्वरूपको ही सुखरूप कहा, तिस कारण शंका होती है कि, धनी पुरुष भी तो सुखी होता है फिर शांतसंकल्पको ही सुखरूप किस प्रकार कहा ? तिस का समाधान करते हैं कि पुरुष धन, धान्य, स्त्री और पुत्र आदि अनेक पदार्थों को प्राप्त कर के अनेक प्रकार के भोगोंको ही भोगता है, सुखरूप नहीं होता है, क्योंकि उन भोगों के नष्ट होनेपर फिर दुःख प्राप्त होता है, इस कारण संपूर्ण संकल्पविकल्पों का त्याग किये बिना सुखरूप कदापि नहीं हो सकता ॥२॥


कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः ।

कुतः प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम् ॥३॥


अन्वय:- कर्त्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः प्रशमपीयूपधारासारम् ऋते सुखं कुतः ? ॥ ३ ॥


मिथ्यारूप जो संकल्प विकल्प है उन को तुच्छ जानना ही संकल्पविकल्प का त्याग है, जै से वंध्यापुत्र को मिथ्यारूप जान लेना ही त्याग है क्योंकि मिथ्यारूप वस्तु का अन्य किसी प्रकार का त्याग नहीं हो सकता, यह विषय अन्य रीतिसे दिखाते हैं नाना प्रकार के जो

कर्म उन कर्मों से उत्पन्न होनेवाले जो दुःख वही हुआ सूर्य की किरणों का अत्यंत तीक्ष्ण ताप तिस से दग्ध हुआ है अंतःकरण जिस का ऐसे पुरुष को संकल्प विकल्प की शांतिरूप अमृतधारा की वृष्टि के बिना सुख कहां से हो सकता है ? ॥३॥


भवोऽयं भावनामात्रो न किञ्चित्परमार्थतः ।

नास्त्यभावः स्वभावानां भावाभावविभाविनाम् ॥४॥


अन्वय:- अयम् भवः भावनामात्रः परमार्थतः किञ्चित् न ( अस्ति ); भावाभावविभाविनाम् स्वभावानाम् अभावः न अस्ति ॥ ४॥


संसाररूपी विष को दूर करनेवाला होने के कारण संकल्पविकल्प के शान्तिरूप को अमृतरूप कर के वर्णन करते हैं कि यह संसार संकल्पमात्र है, वास्तवदृष्टि से एक आत्मा के सिवाय दूसरा कुछ नहीं है, यहां वादी शंका करता है कि भावरूप जो दृश्यमान जगत् है सो नष्ट होने के अनंतर अभावरूप शून्य हो जाता है, इस प्रकार तो शून्यवादी का मत सिद्ध होता है ? इस के उत्तर में श्रीगुरु अष्टावक्रजी कहते हैं, कि संकल्पमात्र जगत् के नाश होन के अनंतर सत्यस्वभाव आत्मा अखंडरूप से विराजमान रहता है, इस कारण संसार का नाश होने के अनंतर शून्य नहीं रहता है, किंतु उस समय निर्विकल्प केवलानंदरूप मुक्त आत्मा रहता है ॥४॥


न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम् ।

निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरञ्जनम् ॥५॥


अन्यय:निर्विकल्पम् निरायासम् निर्विकारम् निरञ्जनम् आत्मनः पदम् न दूरम् न च संकोचात् (किन्तु ) लब्धम् एव (अस्ति) ॥५॥


वादी प्रश्न करता है कि, संकल्पविकल्प की निवृत्ति होते ही आत्मा को अमृतत्व की प्राप्ति किस प्रकार हो जाती है ? तहां कहते हैं कि आत्मस्वरूप दूर नहीं है किंतु सदा प्राप्त है; और परिपूर्ण है सदा संकल्पविकल्परहित है, निरायास कहिये श्रम के बिना ही प्राप्त है, विकार जो जन्म और मृत्यु तिन से रहित है और निरंजन कहिये माया (अविद्या) रूप उपाधिरहित है, जिस प्रकार कंठ में धारण की हुई मणि भूल से दूसरे स्थान में ढूंढने से नहीं मिलती है और विस्मृति के दूर होते ही कंठ में प्रतीत हो जाती है, तिसी प्रकार अज्ञान से आत्मा दूर प्रतीत होता है परंतु ज्ञान होनेपर प्राप्त ही है ॥५॥


व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।

वीतशो का विराजन्ते निरावरणदृष्टयः॥६॥


अन्वय:- निरावरणदृष्टयः व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः वीतशोकाः ( संतः ) विराजन्ते ॥ ६॥


तत्वज्ञान से आत्मप्राप्ति होती है ऐसा जो शास्त्रकारों को व्यवहार है सो किस प्रकार होता है ? और यदि आत्मा नित्य प्राप्त ही है तो गुरु के उपदेश और शास्त्राभ्यास की क्या आवश्यकता है, तहां कहते हैं कि केवल अज्ञानरूपी मोह का परदा पड रहा है, तिस से आत्मस्वरूप का प्रकाश नहीं होता है। इस कारण समुद्र उपदेश से मोह को दूर कर के जिस से स्वरूप का निश्चय किया है, ऐसा जो ज्ञानी है, वह जगत् में शोभायमान होता है और उस की दृष्टिपर फिर मोहरूपी परदा नहीं पडता है॥६॥


समस्तं कल्पनामात्रमात्मा मुक्तःसनातनः।

इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत् ॥७॥


अन्वय:- समस्तम् कल्पनामात्रम्, आत्मा सनातनः मुक्तः धीरः इति विज्ञाय हि बालवत् किम् अभ्यस्यति ॥ ७॥


यह संपूर्ण जगत् कल्पनामात्र है और आत्मा नित्यमुक्त है; ज्ञानी पुरुष इस प्रकार जानकर क्या बालक की समान सांसारिक व्यवहार करता है ? अर्थात् कदापि नहीं करता है ॥७॥


आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ ।

निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्॥८॥


अन्वय:- आत्मा ब्रह्म, भावाभावौ च कल्पितौ इति निश्चित्य निष्कामः ( सन् ) किं विजानाति, किं ब्रूते, किं च करोति ॥८॥


संपूर्ण कल्पनामात्र है, इस ज्ञान का मूल कारण जो तत्त्वंपदार्थ का ऐक्यज्ञान उसी को कहते हैं कि, आत्मा कहिये, जीवात्मा जो त्वम् ' पदार्थ है और ब्रह्म तत्पदार्थ है, ये दोनों अभिन्न हैं और अधिष्ठानरूप ब्रह्म का साक्षात्कार होनेपर भाव, अभावरूपसंपूर्ण घटादि दृश्य पदार्थ कल्पित हैं ऐसा निश्चय कर के निष्काम होता हुआ ज्ञानी क्या जानता है क्या कहता है ? और क्या करता है ? अर्थात् मन के ब्रह्माकार होने के कारण न कुछ जानता है, न कुछ कहता है, और न कुछ करता है किंतु आत्मस्वरू में स्थित होता है ॥८॥


अयं सोऽहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पनाः ।

सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिनः॥९॥


अन्वय:- सर्वम् आत्मा इति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिनः अयम् सः अहम्, अयम् अहम् न इति विकल्पनाः क्षीणा: (भवन्ति) ॥९॥


आत्मज्ञान से संपूर्ण कल्पना निवृत्त हो जाती है यह दिखाते हैं। जिस पुरुष को संपूर्ण जगत् ब्रह्मरूप भासता है वह पुरुष मुनिव्रतरूपी योगदशा को प्राप्त होता है, क्योंकि उस पुरुष का मन वृत्तिरहित होकर ब्रह्म के विषें एकाकार हो जाता है तदनंतर उस पुरुष को अपना तथा पर का ज्ञान नहीं रहता है, अर्थात् मैं ध्यान करता हूं और दूसरा पुरुष अन्य कार्य करता है, यह अज्ञान दूर हो जाता है, तात्पर्य यह है कि, उस पुरुष की कल्पनामात्र नष्ट हो जाती है ॥९॥


न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढता।

न सुखं न च वा दुःखमुपशान्तस्य योगिनः॥१०॥


अन्वय:- उपशान्तस्य योगिनः विक्षेपः न, ऐकाग्र्यम् च न, अतिबोधः न, मूहत। न, सुरक्म् न वा, दुःखम् च न (भवति)॥१०॥


अब संकल्पविकल्परहित पुरुष का स्वरूप दिखाते हैं, जो पुरुष संकल्पविकल्परहित होकर शांति को प्राप्त होता है, उस शांतस्वभाव योगी के मन को किसी बात का विक्षेप नहीं होता है, एकाग्रता नहीं होती है, अत्यंत ज्ञान अथवा मूढता नहीं होती है, सुख नहीं होता है, और दुःख भी नहीं होता है, क्योंकि वह केवल ब्रह्मानंदस्वरूप होता है।॥१०॥


स्वाराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने ।

निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः॥११॥


अन्वय:- निर्विकल्पस्वभावस्य योगिनः स्वाराज्ये मैक्ष्यवृत्ती लाभालाभे जने वने च विशेषः न अस्ति ॥ ११॥


संकल्प और विकल्प से रहित है स्वभाव जिस का ऐसे योगी (ज्ञानी) को स्वर्ग का राज्य मिलनेसे, प्रारब्धकर्मानुसार प्राप्त हुए वस्तु से तथा जनसमूह में निवास होने से कुछ प्रसन्नता नहीं होती है और भिक्षा मांगकर निर्वाह करनेसे, किसी पदार्थ की प्राप्ति न होने से तथा निर्जन स्थान में रहने से कुछ अप्रसन्नता नहीं होती है, क्योंकि उस का मन तो ब्रह्माकार होता है ॥११॥


क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।

इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः॥१२॥


अन्वय:- इदम् कृतम्, इदम् न ( कृतम् ), इति द्वन्द्वैः मुक्तस्य योगिनः धर्मः क्व, कामः च क्व, अर्थः क्व वा विवेकिता च क्व ॥१२॥


यह किया, यह नहीं किया इत्यादि द्वंद्वों से रहित योगी को धर्म कहां, काम कहां, अर्थ कहां और मोक्ष का उपायरूप ज्ञान कहां ? क्योंकि जब धर्मादि का कारण

अविद्या और संकल्पविकल्पादि ही नहीं होते तो धर्मादि किस प्रकार हो सकते हैं ॥ १२ ॥


कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रञ्जना ।

यथाजीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः॥१३॥


अन्वय:- जीवन्मुक्तस्य योगिनः इह किम् अपि कृत्यम् न एक अस्ति, ( तथा ) हृदि का अपि रञ्जना न ( अस्ति ), किन्तु यथाजीवनम् एव ( भवति ) ॥ १३ ॥


जीवन्मुक्त योगी को इस संसार में कुछ भी करने को नहीं होता है और हृदय के विषें कोई अनुराग ही नहीं होता है, तथापि जीवन्मुक्त पुरुष जीवन के हेतु अदृष्ट के अनुसार कर्म करता है ॥ १३॥


क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व तद्धयानं क्व मुक्तता ।

सर्वसंकल्पसीमायां विश्रान्तस्य महात्मनः॥१४॥


अन्वय:- सर्वसङ्कल्पसीमायाम् विश्रान्तस्य महात्मनः मोहः का विश्वम् क्व, तद्धयानम् क्व वा मुक्तता च क्व ॥ १४ ॥


संपूर्ण संकल्पों की सीमा कहिये अवधि जो आत्मज्ञान तिस के विषें विश्राम को प्राप्त होनेवाले योगी को मोह कहां ? और विश्व कहां ? और विश्व का चिंतन

कहां ? तथा मुक्तपना कहां ? क्योंकि वह तो ब्रह्मस्वरूप हो जाता है ॥१४॥


येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोतु वै।

निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति॥१९॥


अन्वय:- येन इदम् विश्वम् दृष्टम् सः वै न अस्ति, इति करोतु (यः) पश्यन् अपि न पश्यति (सः) निर्वासनः (सन् ) किम् कुरुते ॥ १५॥


जिसने यह घटादि विश्व देखा है, वह कदाचित् घटादि विश्व नहीं है ऐसा जाने, परंतु जो देखता हुआ भी नहीं देखता है वह वासनारहित होकर क्या करे ? अर्थात् कुछ भी नहीं अर्थात् जिस को वासनाओं का संस्कार ही नहीं है वह त्याग ही क्या करे ॥१५॥


येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत् ।

किं चिन्तयति निश्चिन्तो द्वितीयं योन पश्यति॥ १६॥


अन्वय:- येन परम ब्रह्म दृष्टम् सः अहं 'ब्रह्म' इति चिन्तयेत्, यः (तु ) द्वितीयम् न पश्यति ( सः ) निश्चिन्तः ( सन् ) किम् चिन्तयति ॥ १६ ॥


जो पुरुष परब्रह्म को देखे, वह 'मैं ब्रह्म हूं' ऐसा चिंतन करे और जो द्वितीय को देखता ही नहीं है, वह निश्चिन्त

होकर क्या चिन्तन नहीं करेगा ? अर्थात् कुछ भी चिन्तन नहीं करेगा, अर्थात् जिस की द्वैतदृष्टि नहीं है उ से ब्रह्मचिंतन करनेको भी कोई आवश्यकता नहीं है॥१६॥


दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।

उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम् ॥१७॥


अन्वय:- येन आत्मविक्षेपः दृष्टः असौ तु निरोधम् कुरुते, उदारः तु विक्षिप्तः न भवति, (सः) साध्याभावात् किम करोति ? ॥ १७॥


अंतःकरण का विक्षेप जिस पुरुष के देखने में आता हो वह मन को वश में करने का उपाय करे और जो सर्वत्र एक ब्रह्मको ही देखता है, उस के तो विक्षेप है ही नहीं, उस को कुछ साधने योग्य नहीं होता है इस कारण वह कुछ साधन भी नहीं करता है ॥ १७॥


धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।

नसमाधिन विक्षेपं न लेप स्वस्य पश्यति॥१८॥


अन्वय:- लोकविपर्यस्तः धीरः लोकवतु वर्तमानः अपि स्वस्य समाधिम् विक्षेपम् न (तथा) लेपम् (च) न पश्यति ॥ १८॥


संसार के विक्षेपों से रहित धीर पुरुष संसारी पुरुष की समान वर्ताव करता हुआ भी अपने विषें समाधि को नहीं

मानता है, विक्षेप नहीं मानता है, तथा किसी कार्य में आसक्ति भी नहीं मानता है ॥१८॥


भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः ।

नैव किञ्चित्कृतं तेन लोकदृष्टया विकुर्वता॥१९॥


अन्वय:- यः बुधः तृप्तः भावाभावविहीनः (तथा) निर्वासनः ( भवति ) लोकदृष्टया विकुर्वता ( अपि ) तेन किञ्चित् एव कृतम् ॥ १९ ॥


जोज्ञानी है वह अपने आनंद से परिपूर्ण रहता है। इस कारण किसी की स्तुति निंदा नहीं करता है. लोक तो यह देखते है कि ज्ञानी अनेक प्रकार की क्रिया करता है, परंतु ज्ञानी आसक्तिपूर्वक कोई भी क्रिया नहीं करता है, क्योंकि ज्ञानी को अभिमान नहीं होता है ॥ १९॥


प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः ।

यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम् ॥२०॥


अन्वय:- यदा यत् कर्तुम् आयाति तत् सुखम् कृत्वा तिष्ठतः धीरस्य प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ दुर्ग्रहः न एव ( भवति ) ॥ २० ॥


प्रारब्ध के अनुसार जो प्रवृत्त अथवा निवृत्त कर्म जब करने में आवे, उस को अनायस ही में कर के स्थित होनेवाले

धीर पुरुष को प्रवृत्ति के विषें अथवा निवृत्ति के विषें दुराग्रह नहीं होता है ॥२०॥


निर्वासनो निरालम्बःस्वच्छन्दोमुक्तवन्धनः । क्षिप्तः संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत् ॥२१॥


अन्वय:- निर्वासनः निरालम्बः स्वच्छंदः मुक्तबंधनः ( ज्ञानी) संस्कारवातेन क्षिप्तः (सन् ) शुष्कपर्णवत् चेष्टते ॥ २१ ॥


यहां वादी शंका करता है कि, तुम तो ज्ञानी को वासनारहित कह रहे हो फिर वह प्रवृत्त अथवा निवृत्त कर्म किस प्रकार से करता है ? तहां कहते हैं कि, ज्ञानी वासनारहित है, ज्ञानी को किसी का आधार नहीं लेना पडता ह, इस कारण ही स्वाधीन होता है, तथा ज्ञानी को राग द्वेष नहीं है परंतु प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त होता है, उस को करता है. जिस प्रकार पृथ्वी के ऊपर पड़े हुए सूखे पत्तों में कहां जाने की अथवा स्थित होने की वासना (सामर्थ्य) नहीं होती है परंतु जिस दिशा का वायु आता है उसी दिशा को पत्तेउडने लगते हैं, इसी प्रकार ज्ञानी प्रारब्ध के अनुसार भोगचेष्टा करता है ॥२१॥


असंसारस्य तु क्वापि न हर्षों न विषादता। स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते॥२२॥


अन्वय:- असंसारस्य तु के, अपि हर्षः न (भवति ), विषादता (च) न (भवति) नित्यम् शीतलमनाः सः विदेहः इव राजते॥२२॥


जिस के संसार के हेतु संकल्प विकल्प दूर हो जाते हैं, उस असारी पुरुष को न हर्ष होता है न विषाद होता है अर्थात उस के चित्त में हर्ष आदिछः उर्मि नहीं उत्पन्न होती हैं, वह नित्य शीतल मनवाला मुक्त की समान विराजमान होता है ॥२२॥


कुत्रापिन जिहासास्ति नाशोवापि न कुत्रचित् ।

आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः॥२३॥


अन्वय:- शीतलाच्छतरात्मनः आत्मारामस्य धीरस्य कुत्र अपि जिहासा न (अस्ति) वा कुत्रचित् अपि नाशः न (अस्ति) ॥२३॥


जो पुरुष आत्मा के विषें रमण करता है, वह धीरवान होता है और उस पुरुष का अंतःकरण परम पवित्र और शीतल होता है उस को किसी वस्तु के त्यागने की इच्छा नहीं होती है, और किसी वस्तु के ग्रहण करने की भी इच्छा नहीं होती है, क्योंकि उस ज्ञानी के राग द्वेष का लेशमात्र भी नहीं होता है और उस ज्ञानी को कहीं अनर्थ भी नहीं होता है, क्योंकि अनर्थ का हेतु जो अज्ञान सो उस के विषें नहीं होता है ॥२३॥


प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।

प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता॥२४॥


अन्वय:- प्रकृत्या शून्यचित्तस्य प्राकृतस्य इव यदृच्छया कुर्वतः अस्य मानः न (वा ) अवमानता न ॥ २४ ॥


स्वभाव से ही जिस का चित्त संकल्पविकल्परूप विकार से रहित है और जो प्रारब्धानुसार प्रवृत्त निवृत्त कर्मो को अज्ञानी की समान करता है, ऐसे धीर कहिये ज्ञानी को मान और अपमान का अनुसंधान नहीं होता है ॥२४॥


कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा ।

इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोति न ॥२५॥


अन्वय:- इदम् कर्म देहेन कृतम् शुद्धरूपिणा मया न ( कृतम्) यः इति चिन्तानुरोधी ( सः) कुर्वन् अपि न करोति ॥ २५॥


संपूर्ण कर्म किया देह करता है मैं नहीं करता हूं क्योंकि मैं तो शुद्धरूप साक्षी हूं. इस प्रकार जो विचारता है, वह पुरुष कर्म करता हुआ भी बंधन को नहीं प्राप्त होता है क्योंकि उस को कर्म करने का अभिमान नहीं होता है ॥२५॥


अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः।

जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरनपिशोभते॥२६॥


अन्वय:- जीवन्मुक्तः अतद्वादी इव कुरुते, (तथा)अपि बालिश: न भवेत् ( अतः एव ) संसरन् अपि सुखी श्रीमान् शोभते ॥२६॥


किये हुए कार्य को “ मैं करता हूं “ ऐसे नहीं कहता हुआ जीवन्मुक्त पुरुष कार्य को करता हुआ भी मूर्ख नहीं होता है, क्योंकि अंतःकरण के विषें ज्ञानवान होता है, इस कारण ही संसार के व्यवहार को करता हुआ भी भीतर सुखी और शोभायमान होता है ॥२६॥


नानाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्ति मागतः।

न कल्पतेन जानाति न श‍ृणोति न पश्यति ॥२७॥


अन्वय:- नानाविचारसुश्रान्तः विश्रान्तिम् आगतः धीरः न कल्पते न जानाति न श‍ृणोति न पश्यति ॥ २७॥


नाना प्रकार के संकल्पविकल्परूप विचारों से रहित होकर आत्मा के विषें विश्राम को प्राप्त हुआ धीर कहिये ज्ञानी पुरुष संकल्पविकल्परूप मन के व्यापार को नहीं करता है, और न जानता है तथा बुद्धि के व्यापार को नहीं करता है, शब्द को नहीं सुनता है, रूप को नहीं

देखता है अर्थात् इंद्रियमात्र के व्यापार को नहीं करता है क्यों कि उ से कर्तृत्व का अभिमान कदापि नहीं होता है ॥२७॥


असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षुर्न चेतरः।

निश्चित्य कल्पितं पश्यन्ब्रह्मैवास्ते महाशयः॥२८॥


अन्वय:- ( ज्ञानी ) असमाधेः मुमुक्षुः न अविक्षेपात् इतरः च न (सर्वम् ) कल्पितम् ( इति ) निश्चित्य पश्यन् ( अपि) महाशयः ब्रह्म एव आस्ते ॥ २८ ॥


ज्ञानी मुमुक्षु नहीं होता है, क्योंकि समाधि नहीं करता है और बद्ध भी नहीं होता है, क्योंकि ज्ञानी के विषें विक्षेप कहिये द्वैत भ्रम नहीं होता है, किंतु यह संपूर्ण दृश्यमान जगत् कल्पित है ऐसा निश्चय कर के तदनंतर बाधित प्रपंच की प्रतीतिसे देखता हुआ भी निर्विकार चित्त होता है इस कारण साक्षात् ब्रह्मस्वरूप होकर स्थित होता है ॥२८॥


यस्यान्तः स्यादहङ्कारो न करोति करोति सः ।

निरहङ्कारधीरेण न किञ्चिद्धि कृतं कृतम् ॥२९॥


अन्वयः यस्य अन्तः अहङ्कारः स्यात् सः न करोति (अपि) करोति निरहङ्कारधीरण हि कृतम् ( अपि) किञ्चित्न कृतम्॥२९॥


तहां वादी शंका करता है कि, संसार को देखता हुआ भी ब्रह्मरूप किस प्रकार हो सकता है तिस का समाधान करते हैं कि, जिस के अंतःकरण के विषें अहंकार का अध्यास होता है, वह पुरुष लोकदृष्टि से न करता हुआ भी संकल्पविकल्प करता है क्योंकि उस को कर्तृत्व का अध्यास होता है और अहंकाररहित जो धीर कहिये ज्ञानी पुरुष है, वह लोकदृष्टि से कार्य करता हुआ भी अपनी दृष्टि से नहीं करता है क्योंकि उस को कर्तृत्व का अभिमान नहीं होता है ॥२९॥


नोद्विग्नं न च सन्तुष्टमकर्तृस्पन्दवर्जितम्।

निराशं गतसन्देहं चित्तं मुक्तस्य राजते ॥३०॥


अन्वय:- मुक्तस्य चित्तम् उद्विग्नम् न (भवति) सन्तुष्टम् च ना ( भवति ) अकर्तृस्पंदवर्जितम् निराशम् गतसन्देहम् राजते ॥३०॥


जो जीवन्मुक्त पुरुष है उस के चित्त में क भी उद्वेग (घबड़ाहट ) नहीं होता है तिसी प्रकार संतोष भी नहीं होता है, क्योंकि कर्तापने के अभिमान का उस के विषें लेश भी नहीं होता है, तिसी प्रकार उस को आशा तथा संदेह भी नहीं होता है, क्योंकि वह तो सदा जीवन्मुक्त है ॥३०॥


निर्व्यातुं चेष्टितुं वापि यच्चित्तं न प्रवर्तते ।

निनिमित्तमिदं किन्तु निर्ध्यायति विचेष्टते ॥३१॥


अन्वय:- यच्चित्तम् निर्ध्यातुम् अपि वा चेष्टितुम् न प्रवर्त्तते किन्तु इदम् निर्निमित्तम् निया॑यति विचेष्टते ॥ ३१ ॥


जिस ज्ञानी का चित्त कियारहित होकर स्थित होने को अथवा संकल्प विकल्पादिरूप चेष्टा करने को प्रवृत्त नहीं होता है, परंतु ज्ञानी का चित्त निमित्त कहिये संकल्पविकल्परहित होकर आत्मस्वरूप के विषें निश्चल स्थित होता है तथा अनेक प्रकार की संकल्पविकल्परूप चेष्टा भी करता है ॥३१॥


तत्त्वं यथार्थमाकण्यं मन्दः प्राप्नोति मूढताम् ।

अथवा याति संकोचममूढः कोऽपि मूढवत् ॥३२॥


अन्वय:- मन्दः यथार्थम् तत्त्वम् आकर्ण्य मूढताम् प्राप्नोति अथवा संकोचम् आयाति कः अपि अमूढः ( अपि ) मूढवत् (भवति ) ॥ ३२ ॥


कोई अज्ञानी श्रुतिसे यथार्थतत्व ( तत् और त्वम् पदार्थ के कल्पित भेद ) को श्रवण कर के असंभावना और विपरीत भावनाओं के द्वारा अर्थात् संशय और

विपर्यय कर के मूढता को प्राप्त होता है, अथवा तत्-त्वम् पदार्थ के भेद को जानने के निमित्त संकोच कहिये चित्त की समाधि लगाता है और कोई ज्ञानी भी बाहर की गतिसे मूढ की समान बाहर के व्यवहारों को करता है ॥३२॥


एकाग्रता निरोधो वा मूढैरभ्यसते भृशम् ।

धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत् स्वपदे स्थिताः॥३३॥


अन्वय:- मूतैः एकाग्रता वा निरोधः भृशम् अभ्यस्यते स्वपदे स्थिताः धीराः सुप्तवत् कृत्यम् न पश्यन्ति ॥ ३३ ॥


जो देहाभिमानी मूर्ख हैं वे मन को वश में करने के अर्थ अनेक प्रकार का अभ्यास करते हैं परंतु उन का मन वश में नहीं होता है और जो आत्मज्ञानी धैर्यवान् पुरुष है, वह आत्मस्वरूप के विषें स्थिति को प्राप्त होता है उस का मन तो स्वभाव से ही वशीभूत होता है, जिस प्रकार निद्रा के समय में मन की चेष्टा बंद हो जाती है, तिसी प्रकार ज्ञान होनेपर मन की चेष्टा बन्द हो जाती है, क्योंकि अद्वैतात्मस्वरूप के ज्ञान से भ्रममात्र की निवृत्ति हो जाती है ॥३३॥


अप्रयत्नात्प्रयत्नाद्रा मूढा नाप्नोति नितिम् ।

तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः३४॥ 


अन्वय:- मूढः अप्रयत्नात् वा प्रयत्नात् ( अपि ) निवृतिम् न आमोति प्राज्ञः तत्त्वनिश्चयमात्रेण निर्वृतः भवति ॥ ३४ ॥


जो मूढ पुरुष है और जिस को आत्मज्ञान नहीं हुआ है वह अनेक प्रकार का अभ्यास कर के मन को वश में करे अथवा न करे तौ भी उस को निवृत्ति का सुख नहीं प्राप्त होता है, और जोआत्मज्ञानी हे उसने तो ज्यों ही आत्मस्वरूप का निश्चय किया कि, वह परम निवृत्ति के सुख को प्राप्त होता है ॥३४॥


शुद्धं बुद्ध प्रियं पूर्ण निष्प्रपञ्चं निरामयम् ।

आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपराजनाः॥३५॥


अन्वय:- तत्र अभ्यासपराः जनाः शुद्धम् बुद्धम् प्रियम् पूर्णम् निष्प्रपञ्चम् निरामयम् तम् आत्मानम् न जानन्ति ॥ ३५ ॥


सद्गुरु और वेदांतवाक्यों की शरण लिये बिना देहाभिमान दूर नहीं होता है तिस देहाभिमान से मन जगत् के विषें आसक्त रहता है, तिस कारण वह पुरुष आत्मस्वरूप को नहीं जानता है क्योंकि आत्मस्वरूपता शुद्ध है, चैतन्यस्वरूप है और आनंदरूपपरिपूर्ण, संसार की उपाधि से रहित तथा विविधतापरहित है, इस कारण देहाभिमानी पुरुष को उस का ज्ञान नहीं होता है ॥३५॥


नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढोऽभ्यासरूपिणा ।

धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः॥३६॥


अन्वयः विमूढः अभ्यासरूपिणा कर्मणा मोक्षम् न आप्नोति धन्यः विज्ञानमात्रेण अविक्रियः मुक्तः तिष्ठति ॥ ३६॥


जो पुरुष देहाभिमानी है वह योगाभ्यासरूप कर्म कर के मोक्ष को नहीं प्राप्त होता है क्योंकि, कर्ममात्र से मोक्षप्राप्ति होना दुर्लभ है. सोई श्रुतिमें भी कहा है कि “न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनै के अमृतत्वमानशुः “ योगाभ्यास आदि कर्म से मोक्ष नहीं होता है, संतान उत्पन्न करने से मोक्ष नहीं होता है, धन प्राप्त करने से मोक्ष नहीं होता है, यदि किन् ही ज्ञानियों को मोक्ष की प्राप्ति हुई है तो देहाभिमान के त्याग से ही हुई है इस कारण कोई भाग्यवान् विरला पुरुष ही आत्मज्ञान की प्राप्तिमात्र से त्याग दिये हैं संपूर्ण संकल्प विकल्पादि जिसने ऐसा होकर मुक्त हो जाता है ॥ ३६॥


मूढो नाप्नोति तद्ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति।

अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्॥३७॥


अन्वय:- यतः मूढः ब्रह्म मतिम इच्छ त ( अन ) नत् न । आप्नोति हि धीरः अनिच्छन् अपि पर कह रूपक भवति॥३७॥


मूढपुरुष योगाभ्यासरूप कर्म कर के ब्रह्मरूप होने की इच्छा करता है, इस कारण ब्रह्म को नहीं प्राप्त होता है और ज्ञाता तो मोक्ष की इच्छा न करता है तो भी परब्रह्म के स्वरूप को प्राप्त होता है क्योंकि उस का देहाभिमान दूर हो गया है ॥३७॥


निराधाराग्रहव्यग्रा मूढाः संसारपोषकाः।

एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः३८

अन्वय:- मूढाः निराधाराः ग्रहव्यग्राः संसारपोषकाः ( भवन्ति); बुधैः अनर्थमूलस्य एतस्य मूलच्छेदः कृतः ॥ ३८ ॥


”मूढ जो अज्ञानी पुरुष हैं वे सद्गुरु और वेदांतवाक्यों के आधार के बिना ही केवल योगाभ्यासरूप कर्म करके ही मैं मुक्त हो जाऊँगा इस प्रकार निरर्थक दुराग्रह करनेवाले और संसार को पुष्ट करनेवाले होते हैं, संसार को दूर करनेवाला जो ज्ञान जिस का उन के विषें लेश भी नहीं है और ज्ञानी पुरुष जो हैं उन्होंने जन्ममरणरूपअनर्थ के मूलकारण इस संसार को ज्ञान के द्वारा मूल से ही छेदन कर दिया है ॥३८॥


नशान्ति लभते मूढो यतःशमितुमिच्छति।

धीरस्तत्त्वं विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः॥३९॥


अन्वय:- यतः मूढः शमितुम् इच्छति ( अतः ) शान्तिम् न लभते; धीरः तत्त्वम् विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः(भवति)॥३९॥


जोमूढ कहिये देहाभिमानी पुरुष है वह योगाभ्यास के द्वारा शांति की इच्छा करता है, परंतु योगाभ्यास से शांति को प्राप्त नहीं होता है, और ज्ञानी पुरुष आत्मतत्व का निश्चय कर के सदा शांतमन रहता है ॥३९॥


कात्मनो दर्शनं तस्य यदृष्टमवलम्बते।

धीरास्तं तनपश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम् ॥४०॥


अन्वय:- यत् दृष्टम् अवलम्बते तस्य आत्मनः दर्शनम् क; ते धीराः तम् पश्यन्ति ( किन्तु ) तम् अव्ययम् आत्मानम् पश्यन्ति ॥ ४०॥


जो अज्ञानी पुरुष दृष्ट पदार्थों को सत्य मानता है, उस को अत्मदर्शन किस प्रकार हो सक्ता है? परंतु धैर्यवान् पुरुष तिन दृष्ट पदार्थो को सत्य नहीं मानता है किंतु एक अविनाशी आत्मा को देखता है ॥४०॥


क निरोधो विमूढोऽस्य यो निबन्धं करोति वै ।

स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः॥४१॥


अन्वय:- यः वै निर्बन्धम् करोति, ( तस्य ) विमूढस्य निगेधः क; स्वारामस्य धीरस्य एव असो सर्वदा अकृत्रिमः (भवति) ॥४१॥


जो मूढ देहाभिमानी पुरुष शुष्कचित्तनिरोध के विषें दुराग्रह करता है, तिस मूढ के चित्त का निरोध किस प्रकार हो सकता है ? अर्थात् उस के चित्त का निरोध कदापि नहीं हो सकता है, क्योंकि समाधि के अनंतर अज्ञानी का चित्त फिर संकल्पविकल्पयुक्त हो जाता है और आत्माराम धीर पुरुष के चित्त का निरोध स्वाभाविक ही होता है। क्योंकि उस का चित्त संकल्पादिरहित निश्चल और ब्रह्माकार होता है ॥४१॥


भावस्य भावकः कश्चिन्न किञ्चिद्भावकोऽपरः।

उभयाभावकःकश्चिदेवमेव निराकुलः॥४२॥


अन्वय:- कश्चित् भावस्य भावकः अपरः न किञ्चित् भावक: एवम् कश्चित् उभयाभावकः एव नि कुलः आस्ते ॥ ४२ ॥


कोई नैयायिक आदि ऐसा मानते हैं कि, यह जगत् वास्तव में सत्य है और कोई शून्यवादी ऐसा मानते हैं कि, कुछ भी नहीं है और हजारों में एक आदमीआत्मा का अनुभव करनेवालाअभाव और भाव दोनों को न मानकर स्वस्थचित्तवाला रहता है ॥ ४२ ॥


शुद्धमद्वयमात्मानं भावयन्ति कुबुद्वयः।

नतु जानन्ति संमोहाद्यावज्जीवमनिर्वृताः॥४३॥


अन्वय:- कुबुद्धयः शुद्धम् अद्वयम् आत्मानम् भावयन्ति, जानन्ति तु न; संमोहात् यावज्जीवम् अनिवृताः ( भवन्ति ) ॥४३॥


मूढबुद्धि अर्थात् देहाभिमानी पुरुष आत्मा का चिंतन करते हैं, परंतु जानते नहीं क्योंकि मोह से युक्त होते हैं. इस कारण ही जन्मभर उन की संकल्पविकल्पों से निवृत्ति नहीं होती है, अतएव संतोषको भी नहीं प्राप्त होते हैं ॥४३॥


मुमुक्षोर्बुद्धिरालम्बमन्तरेण न विद्यते।

निरालम्बैव निष्कामा बुद्धिमुंक्तस्य सर्वदा ॥४४॥


अन्वय:- मुमुक्षोः बुद्धिः आलम्बम् अन्तरेण न विद्यते; मुक्तस्य बुद्धिः सर्वदा निरालम्बा निष्कामा एव ॥ ४४ ॥


जिस को आत्मा का साक्षात्कार नहीं हुआ है ऐसे मुमुक्षुपुरुष की बुद्धि सधर्मकवस्तुरूप आश्रय के बिना नहीं होती है और जीवन्मुक्त पुरुष की बुद्धि मुक्तिविषयमें भी इच्छारहित और सदा निरालम्ब (निर्विशेष आत्मानुरूप ) होती है ॥४४॥


विषयद्वीपिनो वीक्ष्य चकिताःशरणार्थिनः ।

विशन्ति झटिति कोडं निरोधैकाग्रसिद्धये॥४५॥


अन्वय:- विषयद्वीपिनः वीक्ष्य चकिताः शरणार्थिनः ( मूढाः) निरोधैकाग्रसिद्धये झटिति क्रोडम् विशन्ति ॥ ४५ ॥


विषयरूप व्याघ्र को देखकर भयभीत हुए, रक्षा की इच्छा करनेवाले अज्ञानी पुरुष ही जल्दी से चित्त का निरोध और एकाग्रता को सिद्धि के अर्थ गुहा के भीतर घुसते हैं, ज्ञानी नहीं घुसते हैं ॥ ४५ ॥


निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा तूष्णीं विषयदन्तिनः।

पलायन्तेन शक्तास्ते सेवन्ते कृतचाटवः४६॥


अन्वय:- विषयदन्तिनः निर्वासनम् हरिम् दृष्ट्वा न शक्तः ( सन्तः) तूष्णीम् पलायन्ते ते कृतचाटवः सेवन्ते ॥ ४६ ॥


वासनारहित पुरुषरूप सिंह को देखकर विषयरूपी हस्ती असमर्थ होकर चुपचाप भाग जाते हैं और तिस वासनारहित पुरुष को आकर्षित होकर स्वयं सेवन करते 


नमुक्तिकारि का धत्ते निःशं को युक्तमानसः । 

पश्यन् श‍ृण्वन् स्टशन जिघनश्नन्नास्ते यथासुखम् ॥४७॥


अन्वय:- निःशङ्कः युक्तमानसः (ज्ञानी) मुक्तिकारिकां न धत्तेः (किन्तु ) पश्यन् श‍ृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अनन् यथासुखम् आस्ते ॥ ४७॥


अनिःशंक और निश्चल मनवाला ज्ञानी यम नियम आदि योगक्रिया को आग्रह से नहीं करता है, किंतु देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ और भोजन करता हुआ भी आत्मसुख के विषे ही निमग्न रहता है ॥४७॥


वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबुद्धिनिराकुलः। 

नैवाचारमनाचारमौदास्यवान पश्यति ॥४८॥


अन्वय:- वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्ध बुद्धिः निराकुलः (ज्ञानी) आचारम् अनाचरम् वा औदास्थम् न एव पश्यति ॥ ४८ ॥


गुरु और वेदांतवाक्यों के द्वारा चैतन्यस्वरूप आत्मा के श्रवणमात्र से हुआ है परिपूर्ण आत्मा का साक्षात्कार जिस को और निराकुल अर्थात् अपने स्वरूपके विषं स्थित ज्ञानी आचार को वा अनाचार को अथवा उदासीनता इन की ओर दृष्टि नहीं देता है, क्योंकि वह ब्रह्माकार होता है ॥ १८॥


यदा यत्कर्तुमायाति तदा तत्कुरुते ऋजुः । 

शुभ वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत् ॥४९॥


अन्वय:- यदा यत् वा अपि शुभम् अपि वा अशुभम् कर्तुम् आयाति तदा तत् ऋजुः ( सन् ) कुरुते ( यतः ) हि तस्य चेष्टा बालवत् ( भवति ) ॥ ४९ ॥


अब जो शुभ अथवा अशुभ कर्म प्रारब्धानुसार करना पड़ता है, उस को आग्रहरहित होकर करता है क्योंकि तिस जीवन्मुक्त ज्ञानी की चेष्टा बालक की समान होती है, अर्थात् वह प्रारब्धानुसार कर्म करता है रागद्वेष से नहीं करता है ॥४९॥


स्वातन्त्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातन्त्र्याल्लभते परम् । 

स्वातन्त्र्यानिवृति गच्छेत्स्वातन्त्र्यात्परमं परम्॥५०॥


अन्वय:- स्वातन्त्र्यात सुखम् आप्नोति, स्वातन्त्र्यात् परमू लमते; स्वातन्त्र्यात निवृति गच्छेत, सातच्यात् परमम् पदमा (प्रामुयात् )॥५०॥


रागद्वेषरहित पुरुष सुख को प्राप्त होता है, परम ज्ञान को प्राप्त होता है और नित्य सुख को प्राप्त होता है तथा आत्मस्वरूप के विषें विश्राम को प्राप्त होता हे॥५०॥

 

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा। 

तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः॥५१॥


अन्वय:- यदा स्वात्मनः अकर्तृत्वम् अभोक्तृत्वम् मन्यते तदा एव ( अस्य ) समस्ताः चित्तवृत्तयः क्षीणाः भवन्ति ॥५१॥


जब पुरुष अपने विषें कर्तापने का और भोक्तापनेका अभिमान त्याग देता है तब ही उस पुरुष की संपूर्ण चित्त की वृत्ति क्षीण हो जाती हैं ॥५१॥


उच्छृखलाप्यकृति का स्थिति(रस्य राजते। 

न तु सस्टहचित्तस्य शांतिमूंढस्य कृत्रिमा॥५२॥


अन्वय:- धीरस्य उच्छृखला अपि अकृति का स्थितिः राजते; सस्पृहचित्तस्य मूहस्य कृत्रिमा शांतिः तु न ( राजते ) ॥ ५२॥


जो पुरुष निःस्पृहचित्त होता है उस धैर्यवान ज्ञानी की स्वाभाविक शांतिरहित भी स्थिति शोभायमान होती है और इच्छा से आकुल है चित्त जिसका ऐसे अज्ञानी पुरुष की बनावटी शांति शोभित नहीं होती है ॥५२॥


विलसंति महाभोगविशन्ति गिरिगहरान् । 

निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः॥५३॥


अन्वय:- अबद्धाः मुक्तबुद्धयः निरस्तकल्पनाः धीराः महामोगैः विलसति गिरिगह्वरान् विशन्ति ॥५३॥


जिन ज्ञानियों की कल्पना निवृत्त हो गई है, जो आसक्तिरहित हैं, तथा जिन की बद्धि अभिमानरहित है वे ज्ञानी पुरुष क भी प्रारब्धानुसार प्राप्त हुए भोगों से विलास करते हैं और क भी प्रारब्धानुसार पर्वत और वनों के विषें विचरते हैं ॥५३॥


श्रोत्रियं देवतां तीर्थमंगनां भूपतिं प्रियम् । 

दृष्ट्वा सम्पूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना॥५४॥


अन्वय:- श्रोत्रियम् देवताम् तीर्थम् सम्पूज्य (तथा) अङ्गनाम् भूपतिम् प्रियम् दृष्ट्वा धीरस्य हदि का अपि वासना न (जायते)॥५४॥


वेदपाठी ब्राह्मण और देवता की प्रतिमा तथा तीर्थका पूजन कर के और सुन्दर स्त्री राजा और प्रिय पुत्रादिको देखकर भी ज्ञानी के हृदय में कोई वासना नहीं उत्पन्न होती है ॥५४॥


भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः। 

विहस्य धिकृतो योगी न याति विकृति मनाकू॥५५॥


अन्वय:- योगी भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैः दौहित्रैः च अपि च गोत्रजैः विहस्य धिकृतः ( अपि) मनाक विकृतिम् न याति ॥ ५५॥


 सेवक स्त्री पुत्र दौहित्र (धेवते ) और अन्य गोत्रके पुरुष भी यदि योगी का उपहास करें या धिकार देवें तो उस का मन किंचिन्मात्र भी क्षोभ को नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि उस ज्ञानी का मोह दूर हो जाता है ॥ ५९॥


सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न । च खिद्यते । 

तस्याश्चर्यदशां तां तां ताशा एव जानते॥५६॥


अन्वय:- (योगी) सन्तुष्टः अपि सन्तुष्टः न ( भवति); खिन्नः अपि च न खिद्यते; तस्य तां तां तादृशाम् आश्चर्यदशाम्. तादृशाः एव जानते ॥५६॥


ज्ञानी लोकदृष्टि से संतोषयुक्त दीखता हुआभी संतोषयुक्त नहीं होता है और लोकदृष्टि से खिन्न दखिता हुआ भी खिन्न नहीं होता है, ज्ञानी की इस प्रकारकी दशा को ज्ञानी ही जानते हैं ॥५६॥


कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः।

शून्याकारा निराकारा निर्मिकारानिरामयाः॥५७॥


अन्वय:- संसारः कर्तव्यता एव शून्याकाराः निराकाराः निर्विकाराः निरामयाः सूरयः ताम् न पश्यन्ति ॥५७॥


कर्तव्यता कहिये मेरा यह कर्तव्य है इस प्रकार का जो कार्य का संकल्प है सोई संसार है परंतु संपूर्ण विश्वके  नाश होनेपर भी जो वर्तमान रहते हैं और जो निराकार कहिये घटादिके से आकार से रहित हैं और जो सर्वत्र आत्मदृष्टि करनेवाले तथा संकल्पविकल्परूपी रोगसे रहित हैं वे कदापि कर्तव्यता को नहीं देखते हैं अर्थात् किसी कार्य के करने का संकल्प नहीं करते हैं ॥१७॥


अकुर्वन्नपि संक्षोभाव्यग्रःसर्वत्र मूढधीः। 

कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः॥५८॥


अन्वय:- मूढधीः अकुर्वन् अपि सर्वत्र संक्षोभात् व्यग्रः ( भवति); हि कुशलः तु कृत्यानि कुर्वन् अपि निराकुल: ( भवति ) ॥५८॥


अज्ञानी पुरुष कर्मो को न करता हुआ भी सर्वत्र संकल्पविकल्प करने के कारण व्यग्र रहता है, और ज्ञानी कार्या को करता हुआ भी निर्विकारचित्त रहता है क्योंकि वह तो आत्मसुख के विषें विराजमान होता है ॥५८॥


सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च । 

सुखं वक्ति सुखं ते व्यवहारेऽपि शान्तधीः॥५९ ॥


अन्वय:- शान्तधीः व्यवहारे अपि सुखम् आस्ते; सुखम् शेते; सुखम् आयाति; ( सुखम् ) च याति; सुखम् वक्ति, सुखम् मुंक्ते ॥ ५९॥


प्रारब्ध के अनुसार व्यवहार के विषें वर्तमान भी आत्मनिष्ठा बुद्धिवाला ज्ञानी सुखपूर्वक बैठता है, सुखपूर्वक शयन करता है, सुखपूर्वक आता है, सुखपूर्वक जाता है, सुखपूर्वक कहता है तथा सुखपूर्वक ही भोजन करता है अर्थात् संपूर्ण इंद्रियों के व्यापार को करता है परंतु आसक्त नहीं होता है क्योंकि उस का चित्त तो ब्रह्माकार होता है ॥२९॥


स्वभावाद्यस्य नैवार्तिलाकवद्याहारिणः । 

महातूद इवाक्षोभ्यो गतकेशःस शोभते ॥६॥


अन्वय:- व्यवहारिणः यस्य स्वभावात् लोकवत् आतिः नैव ( भवति किन्तु ) सः महादः इव अक्षोभ्यः गतक्लेशः शोभते ॥ ६०॥ 


व्यवहार करते हुए भी ज्ञानी को स्वभाव से ही संसारी पुरुष की समान खेद नहीं हाता है किंतु वह ज्ञानी बड़े जल के सरावर की समान चलायमान नहीं होता है और निर्विकार स्वरूप में शोभायमान होता है ॥६॥


निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिरुपजायते ।

प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी॥६१॥


अन्वय:- मूढस्य निवृत्तिः अपि प्रवृत्तिः उपजायते धीरस्य प्रवृत्तिः अपि निवृत्तिकलभागिनी ( भवति ) ॥ ६१॥


अमूढ की निवृत्ति कहिये बाहोंद्रियों को विषयों से निवृत्त करना भी प्रवृत्तिरूप ही होता है क्योंकि उस के अहंकारादि दूर नहीं होते हैं और ज्ञानी की सांसारिक व्यवहारमें प्रवृत्ति भी निवृत्तिरूप ही होती है क्योंकि ज्ञानी को 'अहं करोमि ' ऐसा अभिमान नहीं होता है ॥ ६१॥


परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढस्य दृश्यते । 

देहे विगलिताशस्य व रागःक विरागता ॥६२॥


अन्वय:- मूढस्य प्रायः परिग्रहेषु वैराग्यम् दृश्यते; देहे विगलिताशस्य व रागः ( स्यात् ) व विरागिता ( स्यात् ) ॥ ६२ ॥


जो मूर्ख देहाभिमानी पुरुष है वही मोक्ष की इच्छासे धन, धाम, स्त्री, पुत्रादिकों का त्याग करता है और जिस का देहाभिमान दूर हो गया है ऐसे जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष का स्त्रीपुत्रादि के विषें न राग होता है, न विराग होता है॥ ६२॥


भावनाभावनासक्ता दृष्टिमूढस्य सर्वदा। 

भाव्यभावनया सा तु स्वस्थस्यादृष्टरूपिणी॥६३॥


अन्वय:- मूहस्य दृष्टिः सर्वदा भावनाभावनासक्ता (भवति) स्वस्थस्य तु सा भाव्यभावनया अदृष्टरूपिणी ( भवति ) ॥ ६३ ॥


मूर्ख देहाभिमानी पुरुष की दृष्टि सर्वदा संकल्प और विकल्प के विषें आसक्त होती है और आत्मस्वरूपके विर्षे स्थित ज्ञानी की दृष्टि यद्यपि संकल्पविकल्पयुक्तसी दीखती है परंतु तथापि संकल्पविकल्प के लेप से शुद्ध रहती है, क्योंकि ज्ञानी को 'अहं करोमि ऐसा अभिमान नहीं होता है ॥ ६३॥ 


सर्वारम्भेषु निष्कामो यश्चरेद्वालवन्मुनिः। न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणेऽपि कर्मणि॥६४॥


अन्वय:- यः मुनिः बालवत् सर्वारम्भेषु निष्कामः चरेत् तस्य शुद्धस्य कर्मणि क्रियमाणे अपि लेपः न ( भवति ) ॥ ६४ ॥


तहाँ वादी शंका करता है कि, यदि ज्ञानी संकल्पविकल्प कर के क्रिया करता है तो उस की द्वैतबुद्धि क्यों नहीं होती है ? तिस का समाधान करते हैं किजो ज्ञानी पुरुष बालक की समान निष्काम होकर प्रारब्धानुसार प्राप्त हुए कर्मो के विषें प्रवृत्त होता है उस निरंहकार ज्ञानी को कर्म करनेपर भी कर्तृत्व का दोष नहीं लगता है क्यों के उस को तो कर्तापने का अभिमानही नहीं होता है ॥ ६४॥


स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः । 

पश्यञ्मृण्वन्स्टशअिघनश्ननिस्तषमानसः॥६५॥


अन्वय:- सः एव आत्मज्ञः धन्यः यः सर्वभावेषु समः ( भवति अत एव सः) पश्यन् श‍ृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अनन् ( अपि) निस्तर्षमानसः ( भवति ) ॥ ६५ ॥


वही धैर्यवान ज्ञानी धन्य है, जो संपूर्ण भावों में समानबुद्धि रखता है, इस कारण ही वह देखता हुआ, श्रवण करता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ और भोजन करता हुआ भी सब प्रकार की तृष्णारहित मनवाला होता है ॥६५॥


कसंसारक चाभासः क्व साध्यं क च साधनम् । 

आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्य सर्वदा॥६६॥


अन्वय:- आकाशस्य इव सवदा निर्विकल्पस्य धीरस्य संतारः क आभासः च क साध्यम् व साधनम् च क ॥ ६६ ॥


जो धैर्यवान ज्ञानी है, वह संपूर्ण संकल्पविकल्परहित होता है, उस को संसार कहां ? और संसारकाभान कहाँ और स्वर्गादिसाध्य कहां तथा यज्ञ आदि साधन कहां ! क्योंक वह सदा आकाशवत् निर्लेप और कल्पनारहित होता है॥६६॥


स जयत्यर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः। 

अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधियस्य वर्तते ॥६॥


अन्वय:- पूर्णस्वरमविग्रहः सः अर्थसंन्यासी जयति यस्य अनबच्छिन्न अकृत्रिमः समाधिः वर्तते ॥ ६७ ॥


पूर्ण स्वभाववाला है स्वरूप जिस का ऐसे अर्थ कहिये दृष्ट और अदृष्ट फल को त्यागनेवाले की जय ( सर्वोपरि उन्नति ) होती है, जिस का पूर्णस्वरूप आत्मा के विषें स्वाभाविक समाधि होता है ॥ ६॥


बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्त्वो महाशयः । 

भेगमोक्षनिराकांक्षी सदा सात्रनीरसः॥६८॥


अन्वय:- अत्र बना उक्तत किम् ? ( यतः ) ज्ञानतत्त्व: महाशयः भोगमे क्षानराकांक्ष सदा सत्र नीरमः ( भवति ॥६८॥


ज्ञानी पुरुष के अनेक प्रकार के लक्षण हैं उन का पूर्णरीतिसे तो वर्णन करना कठिन है परन्तु ज्ञानी पुरुषका एक साधारण लक्षण यह है कि यहां ज्ञानीक बहुत लक्षण कहने से कुछ प्रयोजन नहीं है. कंबल साधारण लक्षण यह है कि, ज्ञानी आत्मतत्व का जाननेवाला, आत्मस्वरूप के वि मन, भोग और मोक्षकी  इच्छा से रहित तथा सदा याग आदि साधनों के विर्षे प्रीति न करनेवाला होता है ॥ ६८॥


महदादि जगद्वैतं नाममात्रविजृम्भितम् । 

विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते ॥६९॥


अन्वय:- दैतम् नाममात्रविजृम्भितम् महदादि जगत् विहाय शुद्धबोधस्य किम् कृत्यम् अवशिष्यते ॥ ६९ ॥

 

द्वैत रूप से भसनेवाले, नाममात्र ही भिन्नरूपसे भासमान, महत्तत्व आदि जगत् के विषें कल्पना को दूर कर के स्वप्रकाश चैतन्यस्वरूप ज्ञानी को क्या कई कार्य करना बा की रहता है ? अर्थात् कोई कार्य करना नहीं रहता है ॥ ६९॥


भ्रमभूतमिदं सर्व किञ्चिन्नास्तीति निश्चयी । 

अध्क्ष्यस्फरणः शुद्धः। स्वभावेनैव शाम्याते॥७॥


अन्वय:- इदम् सर्वम् भ्रमभूतम् (परमार्थतः) किञ्चित् न अस्ति इति निश्चयी अलक्ष्यस्फुग्णः शुद्धः स्वभावेन एव शाम्यति ॥ ७० ॥ 


अधिष्ठान का साक्षात्कार होनेपर यह संपूर्ण विश्व 'भ्रममात्र है, परमार्थहाष्ट से कुछ भी नहीं है, इस प्रकार जिस का निश्चय हुआ ह र स्वप्रकाश चेतनस्वरूप  तथा स्वरूप के साक्षात्कार से दूर हो गया है अज्ञानरूप मल जिस का ऐसा ज्ञानी स्वभाव से ही शांति को प्राप्त होता है।॥ ७० ॥ 


शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः।

क विधिः क च वैराग्यं क त्यागःकशमोऽपिवा॥७॥ 


अन्वय:- शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावम् अपश्यतः ( ज्ञानिनः ) विधिः क वैराग्यम् व त्यागः व अपि वा शमः च क ॥ ७१ ॥ 


शुद्ध स्फुरणरूप अर्थात् स्वप्रकाशचेतनस्वरूप और दृश्य पदार्थोको भी न देखनेवाले ज्ञानी को किसी कर्म के करने की विधि कहां ? और विषयों से वैराग्य कहां ? और त्याग कहां? तथा शांतिभो करना कहां? यह सब तो ता हो सकता है जब सांसारिक पदार्थाक वि हाट होती है ॥ ७१॥ 


स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः । 

क्व बन्धः क च वा मोक्षः व हर्षेःक् विषादता॥७२॥


अन्वय:- अनन्तरूपेण स्फुरतः प्रकृतिम् च न पश्यतः (ज्ञानिनः) बन्ध. व मोक्ष कहः क वा विषान्ता च क ॥ ७२ ॥


जो ज्ञानी है वह अनंतरूप कर के भासता है और आत्माकोजानता है और देहादेि के विषें दृष्टि नहीं लगाता है, उस को संसार का बंधन नहीं होता है, मोक्ष की इच्छा नहीं होती है, हर्ष नहीं होता है और विषाद भी नहीं होता है ॥ ७२॥


बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्र विवतते। 

निर्मपो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः॥७३॥


अन्वय:- बुद्धिपर्यन्तसंमारे मायामात्रम् विवर्त्तते ( अतः) बुधः निर्ममः निहिङ्कारः निष्कामः शोभते ॥ ७ ॥


यह जगत् अज्ञान से भासता है और ज्ञान से जब मायामात्र (अज्ञान) निवृत्त हो जाता है तब ज्ञानस्वरूप आत्मा ही शेष रहता है इस कारण ज्ञानी को इस संसारमें ममता अहंकार तथा इच्छा नहीं होती है, इस कारण ब्रह्माकारात्तेकर के अत्यंत शोभायमान होता है ॥७३॥


अक्षयं गतसन्तापमात्मानं पश्यतो मुनः। 

क विद्या कच वा विश्वंक देहाऽहं ममति वा ॥७४॥


अन्वय:- अक्षयम् गतसन्तापम् आत्मानम् पश्यतः मुनेः विद्या क वा विषयक दहः वा अहम् मम इति च क ॥ ७४ ॥


 अविनाशी संतापरहित ऐसे आत्मस्वरूप का जिसको ज्ञान हुआ है ऐसे ज्ञानी को विद्या (शास्त्र ) कहां ? और विश्व कहां ? और देह कहां ? तथा अहंममभाव कहाँ ? क्योंकि उस को आत्मा से भिन्न अन्य स्फुरण ही नहीं होता है ॥ ७४॥


निरोधादीनि कर्माणिजहाति जडधीयदि। 

मनोरथान्प्रलापांश्च कर्तुमानोत्यतत्क्षणात्॥७९॥


अन्वय:- जडधीः यदि निरोधादीनि कर्माणि जहाति ( तर्हि ) अतत्क्षणात् मनोरथान प्रलापान च कर्तुम् आनोति ॥ ७५ ॥


जो मूढबुद्धि देहाभिमानी पुरुष है वह अति परिश्रम कर के मन का निरोध करता है परंतु निरोध समाधिके छूटते ही उस का मन फिर तुरंत ही अनेक प्रकार से संकल्प विकल्प करने लगता है और प्रलाप आदि संपूर्ण व्यापारों को करने लगता है इस कारण ज्ञान के बिना निरोध कुछ काम नहीं देता है ॥ ७५ ॥


मन्दः श्रुत्वापि तद्वस्तु न जहाति विमूढताम् । 

निर्विकल्पो बहियत्नादन्तविषयलालसः॥७६॥


अन्वय:- मन्दः तत् वस्तु श्रुत्वा अपि विमूहताम् न जहाति (अतः मूढः ) यत्नात् बहिः निर्विकल्पः अन्तः विषयलालस: (भवति)॥ ७६ ॥


जो देहाभिमानी मूढ पुरुष है वह वेदांतशास्त्रके अनेक ग्रंथों के द्वारा आत्मस्वरूप को सुनकर भी देहाभिमान को नहीं त्यागता है. यद्यपि अति परिश्रम करके ऊपर से त्याग दिखाता है परंतु मन में अनेक विषयवासना रहती है ॥ ७६॥


ज्ञानाइलित का यो लोकदृष्टयापि कर्मकृत् । 

नाप्नोत्यवसरं कर्तुं वक्तुमेव न किञ्चन ॥ ७७॥


अन्वय:- यः ज्ञानात् गलितकर्मा ( सः ) लोकदृष्टया कर्मका अपि किञ्चन कर्तुम् न वक्तुम एव (च) अवसरम् न आमोति॥७७॥


ज्ञानी लोकाचार के अनुसार कर्म करता है परंतु ज्ञान के प्रतापले कर्मफल की इच्छा नहीं करता है क्योंकि वह केवल आत्मस्वरूप के विषें लीन रहता है तिस से उस को कर्म करने का अथवा कहने का अवसर नहीं मिलता है ॥ ७॥


कतमःव प्रकाशोवा हान क च न किञ्चन । निर्विकारस्य धीरस्य निरातङ्कस्य सर्वदा॥७८॥


अन्वय:- सर्वदा निरातकस्य निर्विकारस्य धीरस्य तमः कवा प्रकाशः क हानम् च क ( तस्य ) किश्चन न ( भवति ) ॥७८॥


जो ज्ञानी है वह निर्विकार होता है, उस को काल आदि का भय नहीं होता है, उस को अंधकार का भान नहीं होता है, प्रकाश का भान नहीं होता है, उसको किसी बात की हानि नहीं होती है, भय नहीं होता है, वह सर्वदा मुक्त होता है ॥ ७८॥


व धैर्य क विवेकित व निरातंकतापिवा। अनिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्सभावस्य योगिनः॥७९॥


अन्वय:- तिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्वभावस्य योगिनः धैर्यम कविवेकित्वम् क अपि च निरातङ्कता क ॥ ७१ ॥


ज्ञानी का स्वभाव किसी के ध्यान में नहीं आता है। क्योंकि ज्ञानी स्वभावरहित होता है उस का धीरजपना, ज्ञानीपना तथा निर्भयपना नहीं होता है ॥ ७९ ॥


नस्वर्गों नैव नर को जीवन्मुक्तिन चैव हि ।

बहुनात्र किमुक्तेन योगदृष्टयान किञ्चन ॥८॥


अन्वय:- अत्र बहुना उक्तेन किम योगदृष्टया स्वर्गः न नरक: न एव हि जीवन्मुक्तिः च एव न, किश्चन न (भवति )॥८॥


जिस ज्ञानी की सर्वत्र आत्मदृष्टि हो जाती है उसको स्वर्ग, नर्क और मुक्ति आदि का भेद नहीं होता है अर्थात् अधिक कहने से क्या प्रयोजन है, ज्ञानी पुरुष को किसी प्रकार का भी भेद नहीं भासता है ॥८॥


नैवं प्रार्थयते लाभं नालाभेनानुशोचति।

धीरस्य शीतलं चित्तममृतेनैव पूरितम् ॥८॥


अन्वय:- (धीरः) लामम् प्रार्थयते न एवम् अलामेन अनुशोचति न ( अतः ) धीरस्य चित्तम् अमृतेन पूरितम् शीतलमा एव ( भवति ) ॥ ८१ ॥


जो ज्ञानी है वह लाभ की इच्छा नहीं करता है और लाभ नहीं होते तो शोक नहीं करता है और इस कारण ही धैर्यवान् ज्ञानी का चित्तज्ञानामृत से परिपूर्ण और इसी कारण शीतल कहिये तापत्रयरहित होता है ॥ ८१॥


नशान्तं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निन्दति।

समदुःखसुखस्तृप्तः किञ्चित्कृत्यं न पश्यति ॥ ८२॥


अन्वय:- निष्कामः शान्तम् न स्तौति; दुष्टम् अपि न निन्दति, एसः (सन ) समदुःखसुखः (भवति ) ( निष्कामत्वात ) किश्चित् कृत्यम् न पश्यति ॥८२॥


जो पुरुष कामनाशून्य ज्ञानी है वह किसी शांत पुरुष को देखकर प्रशंसा नहीं करता है और दुष्ट को देखकर निंदा नहीं करता है क्योंकि वह अपने ज्ञानरूपी अमृत से तृप्त होता है तिस कारण सुखदुःख की कल्पना नहीं करता है, तथा किसी कृत्य को नहीं देखता है ॥ ८२ ॥


धीरो न द्वेष्टि संसारमात्मानं न दिदृक्षति ।

हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न तोनचजीवति॥८३॥


अन्वय:- हर्षामर्षविनिर्मुक्तः धीरः संसारम् न देटि; आत्मानम् न दिदृक्षति; न मृतः ( भवति ); न च जीवति ॥ ८३ ॥


जो धैर्यवान अर्थात् ज्ञानी है वह संसार का द्वेष नहीं करता है तथा आत्मा को देखने की इच्छा नहीं करता है, क्योंकि वह स्वयं ही आत्मस्वरूप है इस कारण उसको हर्ष तथा शोक नहीं होता है और जन्ममरणरहित होता है॥ ८३॥


निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च । 

निश्चिन्तःस्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः॥ ८४॥


अन्वय:- पुत्रारादी निःस्नेहः, विषयेषु च निष्कामः, स्वशरीरे मपि निश्चिन्तः; निराशः, बुधः शोभते ॥ ८४ ॥


पुत्र स्त्री आदि के विषेप्रीति न करनेवाला, विषयोंके  नादिक की चिन्ता न करनेवाला, इस प्रकार सर्वत्र आशारहित ज्ञानी शोभा को प्राप्त होता है ॥ ८४॥


तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथा पतितवर्तिनः। 

स्वच्छन्दं चरतो देशान्यवास्त-मितशायिनः॥ ८॥


अन्वय:- यत्रास्तमितशायिनः देशान् स्वच्छन्दम् चरतः, वथापतितवर्तिनः धीरस्य सर्वत्र तुष्टि ( धवनि ) ॥ ८५ ॥


जो ज्ञानी पुरुष है, उस को जो कुछ प्रारब्धानुसार मिल जाय उसस ही वह वर्ताव करता है और परम संतोपको प्राप्त होता है, तदनंतर अपनी दृष्टि जिधर को उठ जाती है उनी देशों में विचरता है और जहां ही सूर्य अस्त होय तहां ही शयन करता है ॥ ८५॥


पततूहेतु वा देहो नास्य चिन्ता महात्मनः । 

स्वभावभूमिविश्रान्तिविस्मृताशेषसंसृतेः॥८६॥


अन्वय:- देहः पततु वा उदेतु, स्वभावभूमिविश्रान्तिविस्मृताशेपसंमृतेः महात्मनः अस्य चिन्ता न ( भवति ) ॥८६ ॥


देह नष्ट होय अथवा रहे परंतु अपने स्वरूपरूपी भूमि के विश्रामकर के संपूर्ण संसारकोभूलनेवाले ज्ञानीको इस देह की चिंता नहीं होती है ॥८६॥


अकिञ्चनः कामचारो निन्द्रश्छिन्नसंशयः । 

असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः॥८७॥


अन्वय:- अकिञ्चनः कामचारः निईन्दः छिन्नसंशयः सर्वभावेषु असक्तः वुधः केवल: रमते ॥ ८७ ॥


जो ज्ञानी है वह इकला ही आत्मस्वरूप के विषें रमता है, कुछ पास नहीं रखता है, तथापिअपनी इच्छानुसार बर्ता करता है, सुखदुःखते रहित होता है, ज्ञानी को संशय नहीं होता है और संपूर्ण विषयों से विरक्त रहता है॥८७॥


निर्ममः शोभते धीरः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । 

सुभिन्नहृदयग्रन्थिविनिधूतरजस्तमः॥८८॥


अन्वय:- निर्ममः समलोष्टाश्मकाञ्चनः सुभिन्नहृदयग्रन्थिः विनिर्धूतरजस्तमः धीरः शोभते ॥ ८८ ॥


ममता का त्यागनेवाला, मट्टी. पत्थर और सुवर्णको समान माननेवाला आर दूर हो गई है हृदय की अज्ञानरूपी ग्रंथि जिस की ऐसा और दूर हो गये हैं रज और तमगुण जिस के ऐसा ज्ञानी शोभा को प्राप्त होता है ॥८८॥


सर्वत्रानवधानस्य न किञ्चिद्वासना हृदि । 

मुक्तात्मानो वितृप्तस्य तुलना केन जायते ॥ ८९॥


अन्वय:- सर्वत्र अनवधानस्य हदि किश्चित् वासना न (भवति); (अतः) मुक्तात्मनः वितृप्तस्य ( तस्य) केन तुलना जायते ॥ ८९॥


जिस की संपूर्ण विषयों में आसक्ति नहीं है और जिसके हृदय के विषें किचिन्मात्र भी वासना नहीं है और जो मात्मानंद के विषें तृप्त है, ऐसे जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुषकी समान त्रिलो की में कौन हो सकता है ॥ ८९ ॥


जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपिन पश्यति। ब्रुवन्नपि न च ब्रूते कोऽन्यो निवासनाहते ॥९॥


अन्वय:- (यः ) जानन् अपि न जानाति, पश्यन् अपि न पश्यति ब्रुान् अपि च न ब्रूते; ( सः) निर्वासनात् ऋते अन्यः कः ? ॥९ ॥


जो जानता हुआ भी नहीं जानता है, देखता हुआभी नहीं देखता है, बोलता हुआ भी नहीं बोलता है, ऐसा पुरुष ज्ञानी के सिवाय जगत् में और दूसरा कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है, क्योंकि ज्ञानी को अभिमान तथा वासना नहीं होती है ॥९॥


भिक्षुर्वा भूपतिवापि यो निष्कामः स शोभते।

भावेषु गलिता यस्य शोभनाशोभना मतिः॥९॥


अन्वय:- यस्य मावेषु शोमनाशीमना मतिः गलिता, (एताहुशः यः) निष्कामः सः भिक्षुः वा अपि वा भूपतिः शोभते॥९॥


जिस ज्ञानी की शुभ पदार्थों में इच्छा बुद्धि नहीं होती है और अशुभ पदार्थों में द्वेषबुद्धि नहीं होती है ऐसा जो कामनारहित ज्ञानी है वह राजा हो तो विदेह ( जनक) समान शोभित होता है और भिक्षु होय तो परम ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्यमुनि की समान शाभाको प्राप्त होता है क्यों कि आत्मानद के विषें मन पुरुषको राज्य बंधन नहीं करता है और त्याग माक्षदायक नहीं होता है । ९१॥


कस्वाच्छन्ध कसंकोचःकवा तत्वविनिश्चयः । 

निर्व्याजाजवभूतस्व चरितार्थस्य योगिनः॥९२॥


अन्वय:- नियाजावभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः स्वान्छन्धम् क सङ्कोचः क वा तत्त्वांवनिश्चयः क ॥ ९२ ॥


जिस पुरुष का मन कपटरहित और कोमलतायुक्त है और जिसने आत्मज्ञानरूपी कार्य को सिद्ध किया है, ऐसे जीवन्मुक्त पुरुष को स्वाधीनपना नहीं होता है और पराधीनपना भी नहीं होता है, तत्व का निश्चय करनाभी नहीं होता है, क्योंकि उस का देहाभिमान दूर हो जाता है ॥ ९२ ॥


आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतातिना । 

अन्तर्यदनुभूयेत तत्कथं कस्य कथ्यते॥९३॥


अन्वय:- आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतातिना (ज्ञानिना) अन्तः यत् अनुभूयेत, तत् कथम् कस्य कथ्यते ॥ ९३ ॥


जो पुरुष आत्मस्वरूप के विषें विश्रामरूपअमृतका पान कर के तृप्त हुआ है और आशामात्र निवृत्त हो गई है तथा जिस के भीतर की पीडा शांत हो गई है ऐसा ज्ञानी अपने अंतःकरण के विषें जो अनुभव करता है, उस को प्राणी किस प्रकार कह सकता है और उस अनुभव को किस को कहां जाय ? क्योंकि इस का आधिकारी दुर्लभ है ॥ ९३॥


सुप्तोऽपिन सुषुप्तौ च स्वप्नेऽपि शायतो नच। 

जागरेऽपि न जागति धीरस्तृप्तःपदे पदे ॥९४ ॥


अन्वय:- पदे पदे तृप्तः धीः सुषुमो भी च न सुप्ता, स्वप्ने अपि च न शयितः, जागरे अपि न जागति ॥ ९४ ॥


ज्ञानी की सुषुप्ति अवस्था दीखती है परंतु ज्ञानी सुषुप्ति के वशीभूत नहीं होता है, स्वप्नावस्था भासती है परंतु ज्ञानी शयन नहीं करता है किंतु साक्षीरूप रहता  हे और जाग्रदअवस्था भासती है परंतु ज्ञानी जाग्रदवस्था के विकारों से अलग रहता है क्योंकि यह तो न अवस्था बुद्धि की है और जो बुद्धि से पर है और आत्मानंद से तृप्त है ॥ ९४॥


ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः सेंद्रियोऽपि निरिन्द्रियः। 

सुबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहङ्कारोऽनहंकृती॥९५॥


अन्वय:- ज्ञः सचिन्तःअपि निश्चिन्तः ( भवति ), सेन्द्रियः अपि निरिन्द्रियः ( भात ); सुबुद्धिः अपि निद्धिः ( भवति ); साहंकारः अपि निरहंकृतिः (भवात) ॥ ९५ ॥


ज्ञानी को चिंता है ऐसा लोकों के देखने में आता है परंतु ज्ञानी निश्चित होता है, ज्ञानी इंद्रियोंतहित दीखता है परंतु वास्तव में ज्ञान इंद्रियरहित होता है, व्यवहारमें ज्ञानी चतुरबुद्धिवाला दीखता है, परंतु बानी बुद्धिरहित होता है और ज्ञानी अहंकारयुक्तसा दीखता है परंतु ज्ञानी को अहंकार का लेश भी नहीं होता है ॥ ९५ ॥


न सुखीन च वा दुःखी न विरक्तो न सङ्गवान्। 

न मुमुक्षुने वा मुक्तो न किञ्चिन्नच किञ्चन॥ २६॥


अन्वय:- ( ज्ञानी ) न सुखी; वा न च दुःखी; न विरक्तः, न सङ्गवान् न मुमुक्षु वा न मुक्तः, न किञ्चित् न च किञ्चन ॥१६॥


ज्ञानी सुखी नहीं होता है, दुःखी नहीं होता है, विरक्त नहीं होता है, आसक्त नहीं होता है, मोक्षकी इच्छा नहीं करता है, मुक्त नहीं होता है, सत्रूप, अनिर्वचनीय होता है ॥ ९६॥


विक्षेपेऽपिन विभिप्तःममाधौ न ममाधिमान् । 

जाड्यापन जडो धन्यः पाण्डित्यऽपिन पण्डितः॥२७॥


अन्वय:- धन्यः विक्षपे अपि लिक्षिप्त. न, ममाचौ समाधिमान् म, जाडये अपि जड. न; पाण्डिन्ये अपि पण्डित न ॥ ९७ ॥


ज्ञानी का विक्षेप दीखता है परंतु ज्ञानी विक्षिप्त नहीं होता है, ज्ञानी की समाधि दीखती है परंतु ज्ञानी समाधि नहीं करता है, ज्ञानी के विपें जडपना दीखता है परंतु ज्ञानी जड नहीं होता है तथा ज्ञानी में पंडितपना दोखता है परंतु ज्ञानी पंडित नहीं होता है, क्योंकि यह संपूर्ण विकार देहाभिमानी के वर्षे रहते हैं ॥ ९७॥


मुक्तो यथास्थितिव यः कृतकर्तव्यनिवृतः।

समः सर्वत्र वैतष्ण्यान्न स्मरत्यकृतं कृतम् ॥ ९८॥


अन्वय:- यथास्थितिस्वस्थः कृत कर्नव्यनिर्वृतः सर्वत्र समः मुक्तः बैतडण्यात कृतम् अकृतम् न स्मरति ॥ ९८॥


जैसी अवस्था प्राप्त होय उसमें ही स्वस्थ रहनेवाला और किये हुए और कर्तव्यकर्मो के विषें अहंकार और उद्वेग न करनेवाला अर्थात् संतोषयुक्त तथा सर्वत्र आत्मदृष्टि करनेवाला जीवन्मुक्त ज्ञानी पुरुष तृष्णा के न होने से यह कार्य किया, यह नहीं किया ऐसा स्मरण नहीं करता है ॥ ९८॥


न प्रीयते वन्धमानो निंद्यमानो न कुप्यति ।

नैवोदिजति मरणेजीवने नाभिनन्दति॥९९॥


अन्वय:- (ज्ञानी) वंद्यमानः प्रीयते न निन्द्यमानः कुप्यति न; मरणे उद्विजति न; एव जीवने अभिनन्दति न ॥ ९९ ॥


जो ज्ञानी है उस की कोई प्रशंसा करे तो प्रसन्न नहीं होता है और निंदा करे तो कोप नहीं करता है, तिसी प्रकार मृत्यु भी सामने आता दीखे तो भी ज्ञानी घबडता नहीं है और बहुत वर्षांपर्यंत जीवें तो भी प्रसन्न नहीं होता है ॥ ९९ ॥


न धावति जनाकीर्ण नारण्यमुपशान्तधीः । 

यथा तथा यत्र तत्र सम एवावतिष्ठते ॥१०॥


अन्वय:- उपशान्तधीः जनाकीर्णम् न धावति, (तथा ) अरण्यम् न (धावति) किन्तु यत्र तत्र यथा तथा समः एव अवतिष्ठते ॥ १००॥


जिस ज्ञानी की वृत्ति शांत हो गई है वह जहां मनुष्यों की सभा होय तहां जाने की इच्छा नहीं करता है, तिसी प्रकार निर्जन स्थान जो वन तहां भी जाने की इच्छा नहीं करता है, किंतु जिस समय जो स्थान मिल जाय तहां ही स्थिति कर के निवास करता है, क्योंकि नगरमें तथा वन में ज्ञानी की एक समान बुद्धि होती है अर्थात् ज्ञानी की दृष्टि में जैसा नगर है वैसा ही वन होता है॥१००॥


इति श्रीमदष्टावक्रमनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितं शान्तिशतकं नामाटादश प्रकरणं समाप्तम् ॥१८॥


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अथैकोनविंशतिकं प्रकरणम् १९.


तत्त्वविज्ञानसंदंशमादाय हृदयोदरात् । 

नानाविधपरामर्शशल्योद्धारः कृतोमया॥१॥


अन्वय:- मया हृदयोदरात् तत्त्वविज्ञानसंदंशम् आदाय नानाविधपरामर्शशल्योद्धारः कृतः ॥ १॥


श्रीगुरु के मुख से साधनसहित ज्ञान का श्रवण करके शिष्य को आत्मस्वरूप के विषें विश्रामप्राप्त हुआ, तिसका  सुख आठ श्लोकोंकर के वर्णन करते हैं। हे गुरो! आपसे तत्वज्ञानरूप सांडसी को लेकर अपने हृदय में से नाना प्रकार के संकल्पविकल्परूप कांटे को दूर कर दिया ॥१॥


कधर्मःकच वा कामः क चार्थः क विवेकिता। 

कद्वैतंक च वाद्वैतं खमहिनि स्थितस्य मे॥२॥


अन्वय:- स्वमहिम्नि स्थितस्य से धमः क, वा कामः च क; अर्थः क; विवकिता च का द्वैतम् क; वा अद्वैतम् च के ॥ २॥


हे गुरो ! धर्म अर्थ काम मोक्ष इन चारों का फल तुच्छ है, इस कारण तिन धर्मादिरूप कांटे को दूर करके आत्मस्वरूप के विषें स्थिति को प्राप्त हुआ जो मैं तिस मुझे द्वैत नहीं भासता है, इस कारण ही मुझे अद्वैतविचार भी नहीं करना पडता है, क्योंकि “ उत्तीर्णे तु परे पारे नोकायाः किं प्रयोजनम् “ जब परली पार उतर गये तो फिर नौ का की क्या आवश्यकता है ? इस कारण जब द्वैत का भान ही नहीं है तो फिर अद्वैत विचार करने से फल ही क्या ? ॥२॥


क भूतं व भविष्यद्वा वर्तमानमपि क वा ।

क देशःव चवा नित्यं स्वमहिनि स्थितस्य मे ॥३॥


अन्वय:- नित्यम् स्वमहिनि स्थितस्य मे भूतम् क वा भविष्यत् क, अपि वा वर्तमानम् क, देशः क ( अन्यत् ) च वा क॥ ३ ॥


नित्य आत्मस्वरूप के विषें स्थित जो मैं तिस मुझे भूतकाल कहां है, भविष्यत् काल कहाँ है, वर्तमानकाल कहां है, देश कहां है तथा अन्य वस्तु कहां है ?॥३॥


व चात्मा क चवानात्मा क शुभकाशुभं तथा । 

कचिन्ताक चवाचिन्ता स्वमहिम्निस्थितस्य मे॥४॥


अन्वय:- स्वमहिन्नि स्थितस्य मे आत्मा क बा अनात्मा च क; शुभम् क तथा अशुभम् क. चिन्ता कवा अचिन्ता च व ॥ ४ ॥


आत्मस्वरूप के विषें स्थित जो मैं तिस मुझे आत्मा, अनात्मा, शुभ, अशुभ, चिंता और अचिंता यह नाना प्रकार भेद नहीं भासता है ॥४॥


कस्वप्नःक्क सुषुप्तिा क च जागरणं तथा।

व तुरीयं भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य मे॥५॥


अन्वय:- स्वमहिम्न स्थितस्य मे स्वप्नः व वा सुषुप्तिः च क, तथा जागरणम् क्व, तुरीयम् अपि वा भयम् व ॥५॥


आत्मस्वरूप के विषें स्थित जो मैं तिस मेरी स्वप्नावस्था नहीं होती है, सुषुप्ति अवस्था नहीं है तथा जायत् अवस्था नहीं होती है, क्योंकि यह तीनों अवस्था बुद्धि की हैं, आत्मा की नहीं हैं, मेरी तुरीयावस्थाभी नहीं होती है तथा अंतःकरणधर्म जो भय आदि सोभी मुझे नहीं होता है ॥५॥


क दूरंक समीपं वा बाह्य काभ्यन्तरं कवाक 

स्थूलंकच वा सूक्ष्म स्वमहिन्नि स्थितस्य मे॥६॥


अन्वय:- स्वमहिम्नि स्थितस्य मे दूरम् क वा समीपम् क्व, बाह्यम् क वा आभ्यन्तरम् क, स्थूलम् क्व वा सूक्ष्मम् च व ॥ ६ ॥


दूरपना, समीपपना, बाहरपना, भीतरपना, मोटापना तथा सूक्ष्मपना ये सब मेरे विषें नहीं हैं क्योंकि मैं तो सर्वव्यापी आत्मस्वरूप में स्थित हूं॥६॥ 


जिगाट क मृत्यु वितं वा व लोकाः कास्य क लौकिकम् । 

क लयः व समाधिवा स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ॥ ७॥


अन्वय:- स्वमहिम्नि स्थितस्य अस्य मे मृत्युः क्व, जीवितम् क, लोकाः क्व वा लौकिकम् क्व, लयः क्व वा समाधिः क्व ॥ ७॥


आत्मस्वरूप के विषें स्थित जो मैं तिस मेरा मरण नहीं होता है, जीवन नहीं होता है, क्योंकि मैं तो त्रिकाल में सत्यरूपह, केवल आत्मामात्र को देखनेवाला जो में तिस मुझे भू आदि लोकों की प्राप्ति नहीं होती है  इसी कारण मुझे कोई लोकिक कार्य भी कर्तव्य नहीं है। मैं पूर्णात्मा हूं, इस कारण मेरा लय वा समाधि नहीं होती है ॥७॥


अलं त्रिवर्गकथया योगस्य कथयाप्यलम् । 

अलं विज्ञानकथया विश्रान्तस्य ममात्मनि ॥८॥


अन्वय:- आत्मनि विश्रान्तस्य मम त्रिवर्गकथया योगस्य कथया अलम् विज्ञानकथया अपि अलम् ॥ ८॥


आत्मा के विषें विश्राम को प्राप्त हुआ जो मैं तिसमझे धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग की चर्चा से कुछ प्रयोजन नहीं है, योग की चर्चा कर के कुछ प्रयोजन नहीं है, तथा ज्ञान की चर्चा करने से भी कुछ प्रयोजन नहीं है ॥ ८॥


इति श्रीमदष्टावक्रमुनिकृतायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकया सहितकोनविंशतिकं प्रकरणं समाप्तम् ॥ १९॥


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अथ विंशतिकं प्रकरणम् २०.


क भूतानि व देहो वा केन्द्रियाणि क वा मनः ।

क शून्यं क च नैराश्यं मत्स्वरूपे निरञ्जने॥१॥


अन्वय:- निरञ्जने मत्स्वरूपे भूतानि क्व वा देहः क्व, इन्द्रियाणि क वा मनः क्व, शून्यम् क्व, नैराश्यम् क्व च ॥ १ ॥


पूर्व वर्णन की हुई आत्मस्थिति जिस की हो जाय उस जीवन्मुक्त की दशा का इस प्रकारण में चौदह श्लोकोंकर के वर्णन करते हैं कि, हे गुरो! मैं संपूर्ण उपाधिरहित हूं, इस कारण मेरे विषें पंचमहाभूत तथा देह तथा इंद्रियें तथा मन नहीं है, क्योंकि में चेतनस्वरूपहूंतिसी प्रकार शून्यपना और निराशपना भी नहीं है ॥१॥


क शास्त्रं क्वात्मविज्ञानं क्व वा निर्विषयं मनः । 

क तृप्तिः क वितृष्णात्वं गतद्वन्द्रस्य मे सदा ॥२॥


अन्वय:- सदा गतद्वन्द्वस्य मे शास्त्रम् क्व, आत्मविज्ञानम् क, वा निर्विषयम् मनः क्व, तृप्तिः क्व, वितृष्णात्वम् व ॥ २ ॥


शास्त्राभ्यास करना, आत्मज्ञान का विचार करना, मन को जीतना, मन में तृप्ति रखना और तृष्णा को दूर करना यह कोई भी मुझ में नहीं है, क्योंकि मैं इंदरहित हूं ॥२॥


क विद्याक्कच वांविद्या काहं वेदं मम कवा। 

कबन्धः क्व च वा मोक्षःस्वरूपस्य वरूपिता ॥३॥


अन्वय:- (मयि ) विद्या व वा विद्या च क्व, अहम् क्व इदम् क्क वा मम क्व, बन्धः क्व वा मोक्षः च क्व, स्वरूपस्य रूपिता व ॥३॥


अहंकाररहित जो मैं हूं तिस मेरे विषें विद्या अविद्या मैं हूं, मेरा है, यह है इत्यादि आभिमान के धर्म नहीं है तथा वस्तु का ज्ञान मेरे विषें नहीं है और बंध मोक्ष मेरे नहीं होते हैं, मेरा रूप भी नहीं है, क्योंकि मै चैतन्य मात्र हूं॥३॥


क प्रारब्धानि कर्माणि जीवन्मुक्तिरपि कवा । 

क तद्विदेहकैवल्यं निर्विशेषस्य सर्वदा॥४॥


अन्वय:- सर्वदा निर्विशेषस्य ( मे ) प्रारब्धानि कर्माणि क्व, वा जीवन्मुक्तिः अपि क्व, तद्विदेहकैवल्यम् क्व ॥ ४॥


सर्वदा निर्विशेष स्वरूप जो मैं तिस मेरे प्रारब्धकर्म नहीं होता है और जीवन्मुक्ति अवस्था तथा विदेहमुक्तिभी नहीं है क्योंकि मैं सर्वधर्मरहित हूं॥४॥


व कर्ता क्व च वा भोक्ता निष्किंयं ग स्फुरणं व वा। 

वापरोक्षं फलं वाक निःस्वभावस्य मे सदा ॥५॥


अन्वय:- सदा निःस्वभावस्य मे कर्ता व वा भोक्ता व वा निष्क्रियम् स्फुरणम् क्व, अपरोक्षम् व वा फलम् क्व ॥ ५ ॥


मैं सदा स्वभावरहित हूं, इस कारण मेरे विषें कर्तापना नहीं है, भोक्तापना नहीं है तथा विषयाकारवृत्त्यवच्छिन्न चैतन्यरूप फल नहीं है ॥५॥


कलोकः क्व मुमुक्षुर्वा क योगी ज्ञानवान् कवा।

कबद्धःकच वा मुक्तः स्वस्वरूपेऽहमद्वये॥६॥


अन्वय:- अहमद्रये स्वस्वरूपे लोकः क्व वा मुमुक्षुः क्व, योगी क, ज्ञानवान् क्व, बद्धः क्व वा मुक्तः च क्व ॥ ६ ॥


आत्मरूप अद्वैत स्वस्वरूप के होनेपर न लोक है, न मोक्ष की इच्छा करनेवाला हूं, न योगी हूं, न ज्ञानी हूं, नबंधन है, न मुक्ति है ॥६॥ 


व सृष्टिः क्व च संहारःक्क साध्यं क च साधनम् । 

व साधकः क सिद्धिा स्वस्वरूपेऽहमद्रये ॥ ७॥


अन्वय:- अहम्-अद्वये स्वस्वरूपे सृष्टिः क, संहारः च व साध्यम् क्व, साधनम् च क्व, साधकः क्व वा सिद्धिः क्व ॥ ७॥


आत्मरूप अद्वैत स्वस्वरूप के होनेपर न सृष्टि है, न कार्य है, न साधन है और न सिद्धि है, क्योंकि मैं सवेंधर्म रहित हूँ॥७॥


क प्रमाता प्रमाण वाक प्रमेयंक च प्रमा। 

क किञ्चित्क न किञ्चिद्वा सर्वदा विमलस्य मे ॥ ८॥


अन्वय:- सर्वदा विमलस्य मे प्रमाणं वा प्रमाता क्व प्रमेयं क प्रमा च क्व किञ्चित् क्व न किञ्चित् क्व ॥ ८॥


आत्मा उपाधिरहित है तिस आत्मा के विषें प्रमाता, प्रमाण तथा प्रमेय ये तीनों नहीं है और कुछ है अथवा कुछ नहीं है, ऐसी कल्पना भी नहीं है ॥ ८॥


क विक्षेपः क चैकाम्यं क निर्बोधः क मूढता। 

क हषः क विषादो वा सर्वदा निष्क्रियस्य मे ॥९॥


अन्वय:- सर्वदा निष्क्रियस्य मे विक्षेपः क्व ऐकाम्यं चक्क निर्बोधः क्व मूहता क्व हर्षः क्व विषादः क्व ॥ ९ ॥


मैं सदा निर्विकार आत्मस्वरूप हूं इस कारण मेरे विषें विक्षेप तथा एकाग्रता, ज्ञानीपना, मूढता, हर्ष और विषाद ये विकार नहीं है ॥ ९॥


कचैष व्यवहारो वा क च सा परमार्थता । 

व सुखं क च वा दुःखं निर्विमर्शस्य मे सदा ॥१०॥


अन्वय:- सदा निर्विमर्शस्य मे एषः व्यवहारः क्व वा सा परमार्थता च क्व, सुखं च क्व वा दुःखं च क्व ॥ १० ॥


मैं सदा संकल्पविकल्परहित आत्मस्वरूप हूं, इस कारण मेरे विषें व्यवहारावस्था नहीं है, परमार्थावस्था नहीं है और सुख नहीं है तथा दुःख भी नहीं है ॥१०॥


क्वमायाक च संसारःव प्रीतिर्विरतिः कवा। 

क जीवः क्व च तद्ब्रह्म सर्वदा विमलस्य मे ॥११॥


अन्वय:- सर्वदा विमलस्य मे माया व संसारः च क्व प्रीतिः कवा विरतिः क जीवः क्व तत् ब्रह्म च क्व ॥ ११ ॥


मैं सदा शुद्ध उपाधिरहित आत्मस्वरूप हूं, इस कारण मेरे विषें माया नहीं है, संसार नहीं है, प्रीति नहीं है, वैराग्य नहीं है, जीवभाव नहीं है तथा ब्रह्मभावभी नहीं है ॥ ११॥


क प्रवृत्तिनिवृत्तिा क मुक्तिः क च बन्धनम् । 

कूटस्थनिविभागस्य स्वस्थस्य मम सर्वदा ॥ १२॥


अन्वय:- कूटस्थनिर्विभागस्य सदा स्वस्थस्य मम प्रवृत्तिः क. वा निवृत्तिः क, मुक्तिः क, बन्धनम् च क्व ॥ १२ ॥


आत्मस्वरूप जो मैं हूं तिस मेरे विषें प्रवृत्ति नहीं है, मुक्ति नहीं है तथा बंधन भी नहीं है ॥ १२॥


कोपदेशःव वा शास्त्रं क शिष्यः कं च वा गुरुः।

क चास्ति पुरुषार्थो वा निरुपाधेः शिवस्य मे ॥ १३ ॥


अन्वय:- निरुपाधेः शिवस्य मे उपदेशः क्व वा शास्त्रं व शिष्यः क्व वा गुरुः क्व वा पुरुषार्थः क्व च अस्ति ॥ १३ ॥


उपाधिशून्य नित्यानंदस्वरूप जो मैं हूं तिस मेरे अर्थ उपदेश नहीं है, शास्त्र नहीं है, शिष्य नहीं है, गुरु नहीं है तथा परम पुरुषार्थ जो मोक्ष सो भी नहीं है ॥१३॥


क चास्ति क च वा नास्ति क्वास्ति चैकं क च द्वयम् । बहुनात्र किमुक्तेन किञ्चिन्नोत्तिष्ठते मम ॥ १४॥


अन्वय:- ( मम ) अस्ति च क, वा न अस्ति च क्व, एक च के अस्ति, द्वयं च क्व, इह बहुना उक्तेन किम्, मम किश्चित् न उत्तिष्ठते ॥ १४ ॥


मैं आत्मस्वरूप हूं इस कारण मेरे विषें अस्तिपना नहीं है, नास्तिपना नहीं है, एकपना नहीं है, द्वैतपना नहीं है इस प्रकार कल्पित पदार्थो की वार्ता करोडों वर्षापर्यंत कहूं तब भी हार नहीं मिल सकता, इस कारण से कहता हूं कि, मेरे विषें किसी कल्पना का भी आभास नहीं होता है, क्योंकि मैं एकरस चेतन स्वरूप हूं ॥१४॥


इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां भाषाटीकासहितं विशतिकं प्रकरणं समाप्तम् ॥२०॥


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अथैकविंशतिकं प्रकरणम् २१ ।


विंशतिश्चोपदेशे स्युःश्लोकाश्च पञ्चविंशतिः। 

सत्यात्मानुभवोल्ला से उपदेशे चतुर्दश॥१॥


अन्वय:- उपदेशे विंशतिः च स्युः । सत्यात्मानुभवोल्ला से च पञ्चविंशतिः । उपदेशे चतुर्दश ॥ १॥


अब ग्रंथकर्ताने इस प्रकरण में ग्रंथ की श्लोकसंख्या और विषय दिखाये हैं। गुरूपदेशनामक प्रथम प्रकरण में २० श्लोक हैं शिष्यानुभवनामक द्वितीय प्रकरणमें २५ श्लोक हैं आक्षेपोपदेशनामकं तृतीय प्रकरण में १४ श्लोक हैं ॥१॥


षडल्ला से लये चैवोपदेशे च चतुश्चतुः । पञ्चकं स्यादनुभवे बन्धमोक्षे चतुष्ककम् ॥२॥


अन्वय:- (चतुर्थे ) उल्ला से षट् । लये च उपदेशे च एव चतुश्चतुः । अनुभवे पञ्चकम् । बन्धमोक्षे चतुष्ककं स्यात् ॥ २ ॥


शिष्यानुभवनामक चतुर्थ प्रकरण में ६ श्लोक हैं। लयनामक पंचम प्रकरण में ४ श्लोक हैं। गुरूपदेशनामक पष्ठ प्रकरणमें भी ४ श्लोक हैं। शिष्यानुभवनामक सप्तम प्रकरण में ५ श्लोक हैं। बंधमोक्षनामक अष्टम प्रकरणमें ४ श्लोक हैं ॥२॥


निर्वेदोपशमे ज्ञाने एवमेवाष्टकं भवेत् । 

यथासुखसप्तकंच शांतीस्याटे. दसंमितम् ॥३॥


अन्वय:- निर्वेदोपशमे एवं एव ज्ञाने अष्टकम् भवेत् । यथा सुखे च सप्तकम् । शान्तौ च वेदसंमितं स्यात् ॥ ३ ॥


निर्वेदनामक नवम प्रकरण में ८ श्लोक हैं । उपशमनामक दशम प्रकरण में ८ श्लोक है । ज्ञानाष्टकनामक एकादश प्रकरण में ८ श्लोक हैं । एवमेवाष्टक नामक द्वादश प्रकरण में ८ श्लोक हैं । यथासुखनामक त्रयोदश प्रकरण में ७ श्लोक हैं। शांतिचतुष्कनामक चतुर्दश प्रकरण में ४ श्लोक हैं ॥३॥


तत्त्वोपदेशे विशच्च दश ज्ञानोपदेश के । 

तत्त्वस्वरूपे विंशच शमे च शतकं भवेत्॥४॥


अन्वय:- तत्त्वोपदेशे विंशत् । ज्ञानोपदेश के च दश । तत्त्वस्वरूप के च विंशत् । शमे च शतकम् भवेत् ॥ ४॥


तत्वोपदेशनामक पंचदशप्रकरण में २० श्लोक हैं। ज्ञानोपदेशनामक षोडश प्रकरण में १० श्लोक हैं। तत्वस्वरूपनामक सप्तदश प्रकरण में २० श्लोक हैं। शमनामक अष्टादशप्रकरण में १०० श्लोक हैं ॥४॥


अष्टकं चात्मविश्रान्तौ जीवन्मुक्ती चतुर्दश । 

षट् संख्याक्रमविज्ञाने ग्रन्थेकात्म्यं ततः परम् ॥५॥ 

विशकमितैः खण्डैः श्लोकैरात्मानिमध्यखैः।

अवधूतानुभूतेश्च श्लोकाः संख्याक्रमा अमी॥६॥


अन्वय:- आत्मविश्रान्तौ च अष्टकम् । जीवन्मुक्ती चतुर्दश । संख्याः क्रमविज्ञाने पट् । ततः परम् आत्माग्निमध्यखैः श्लोकः विंशत्येकमितैः खण्डैः ग्रन्थैकात्म्यम् ( भवति ) । अमी श्लोकाः अवधूतानुभूतेः संख्याक्रमाः ( कथिताः ) ॥ ५॥ ६ ॥


आत्मविश्रान्तिनामक उन्नीसवें प्रकरण में ८ श्लोक हैं। जीवन्मुक्तिनामक विंशतिक प्रकरण में १४ श्लोक हैं। और संख्याकमविज्ञाननामक एकविंशतिक प्रकरण में ६ श्लोक हैं और संपूर्णग्रंथ में इक्कीस प्रकरण और ३०३ श्लोक हैं। इस प्रकार अवधूत का अनुभवरूप जो ᳚अष्टावक्रगीता” है उस के श्लोकों की संख्या का क्रम कहा। यद्यपि अंत के श्लोककर के सहित ३०३ श्लोक हैं परंतु दशमपुरुष की समान यह श्लोक अपने को ग्रहणकर अन्य श्लोकों की गणना करता है॥५॥६॥


इति श्रीमदष्टावक्रमुनिविरचितायां ब्रह्मविद्यायां सान्वयभाषाटीकया सहितं संख्याक्रमव्याख्यानं नामैकविंशतिकं प्रकरणं समाप्तम् ॥२१॥


इति सान्वयभाषाटीकासमेता अष्टावक्रगीता समाप्ता।

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